Chandrama Ke Desh Mein : Asghar Wajahat
चन्द्रमा के देश में : असग़र वजाहत
हम दिल्ली के रहने वाले जब छोटे शहरों या कस्बों में पहुंचते हैं तो हमारे साथ कुछ इस तरह का बर्ताव किया जाता है जैसे पहले ज़माने में तीर्थयात्रा या हज से लौटकर आए लोगों के साथ होता था। हमसे उम्मीद की जाती है कि हम हिंदुस्तान के दिल दिल्ली की रग-रग जानते हैं। प्रधानमंत्री से न सही तो मंत्रियों से तो मिलते होंगे। मंत्रियों से न सही तो उनके चमचों से तो टकराते ही होंगे। हमसे उम्मीद की जाती है हम अखबारों में छपी खबरों के पीछे छिपी असली खबरों को जानते होंगे। नई आने वाली विपदाओं और परिवर्तनों की जानकारी हमें होगी। हमसे लोग वह सब सुनना चाहते हैं जिसकी जानकारी हमें नहीं होगी। लेकिन मुफ़्त में मिले सम्मान से कौन मुंह मोड़ लेगा? और वह भी अगर दो-चार उल्टी-सीधी बातें बनाकर मिल सकता हो, तो फिर मैं विश्वसनीय गप्पें पूरे कस्बे में फैल जाती हैं। रात तक दूसरे शहर और अगले दिन तक राज्य में इस तरह फैलती हैं, जैसे वहीं की जमीन से निकली हों।
छुट्टियों के समय बर्बाद करने के लिए वहां कई जगहें हैं। उनमें से एक 'खादी आश्रम` भी है। चूंकि वहां के कर्मचारी फुर्सत में होते हैं। आसपास में लड़-लड़कर थक चुके होते हैं इसलिए ग्राहकों से दो-चार बातें कर लेने का मोह उन्हें बहुत शालीन बना देता है। अच्छी बात है कि गांधीजी ने खादी की तरह समय के सदुपयोग के बारे में जोर देकर कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिससे उनके अनुयायियों को समय बर्बाद करने में असुविधा महसूस हो। लेकिन समय के बारे में ऐसी कोई बात न कहकर गांधीजी ने संस्थाएं बनाने वालों के साथ जरूर अन्याय किया है, नहीं तो अब तक 'समय आश्रम` जैस कई संस्थाएं बन चुकी होतीं।
सफेद कुर्ता-पाजामाधरी युवक पान खाए था। मुझे अंदर आता देखकर उसने खादी प्रचारक से अपना वाकयुद्ध कर दिया और इत्मीनान से खादी के थान पर थान दिखाने लगा। मैं इस तरह जैसे गांधीजी के बाद दूसरा आदमी होऊँ जिसने खादी के महत्व का समझा हो, खादी देखता रहा। बीच-बीच में बातचीत होती रही। खादी आश्रम का विक्रेता कुछ देर बाद थोड़ा आत्मीय होकर बोला, 'श्रीमान, आप जैसी खादी-प्रेमी यहां कम आते हैं?'
मैं बात करने का मौका क्यों छोड़ देता। पूछा, 'कैसे?'
बोला, 'यहां तो टिंपरेरी खादी-प्रेमी आते हैं?'
'ये क्या होता है?'
'अरे मतलब यही श्रीमान कि लखनऊ वाली बस पकड़ने से पहले धड़धड़ाते हुए आए। पैंट, कमीज उतारी। सफेद कर्ता-पाजामा खरीदा। पहना। टोपी लगाई। सड़क पर आए। लखनऊ जाने वाली बस रुकवाई। चढ़ने से पहले बोले, 'शाम को पैंट-कमीज ले जाएंगे।` और सीधे लखनऊ।'
इस पर याद आया कि मरे भाई जो वकील हैं, एक बार बता रहे थे कि एक पेशेवर डाकू जो उनका मुवक्किल था, बहुत दिनों से कह रहा था कि वकील साहब हमें 'सहारा` दिला दो। खैर, तो एक दिन वह शुभ दिन आया। हमारे भाई साहब, उनके दो दोस्त और पेशेवर डाकू भाड़े की टैक्सी पर लखनऊ की तरफ रवाना हुए। जैसे ही टैक्सी लखनऊ में दाखिल होने लगी, डाकू ने टैक्सी वाले को रुकने का आदेश दिया। टैक्सी रुकी। वे लोग समझे, साले को टुट्टी-टट्टी लगी होगी। वह अपना थैला लेकर झाड़ियों के पीछे चला गया। कुछ मिनट बाद झाड़ियों के पीछ से मंत्री निकला। सिर खादी की टोपी में, पैर खादी के पाजामे में, बदन खादी के कुर्ते में। पैर गांधी चप्पल में।
इनमें से एम ने पूछा, 'ये क्या?'
'जरूरी हे। उकील साब, जरूरी है,' वह बोला।
'अमां तुम तो हमसे होशियार निकले।'
'सो तो हइये है उकील साब!'
अपना खादी-प्रेम प्रदर्शित करके और दो कुर्तों का कपड़ा बगल में इस तरह दबाए जैसे वही गांधीजी द्वारा देश के लिए छोड़ी संपूर्ण संपत्ति हो, मैं आगे बढ़ा। अब मेरा निशाना एक गृहस्थ आश्रम था।
अब छोटे शहरों में किसी भी चीज की कमी हो, वकीलों की कमी नहीं है। हर गांव, हर मोहल्ले, हर जाति, हर धर्म के वकील हैं। यही कारण है कि हर गांव, हर मोहल्ले, हर जाति, हर धर्म के लोगों के मुकदमेबाजियां हैं। कहने का मतलब यह कि वकीलों की कमी नहीं है।
इसका श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? आप चाहें तो मोतीलाल नेहरू या जवाहरलाल नेहरू को दे सकते हैं, लेकिन मैं तो ऐसा नहीं करूंगा, क्योंकि ये हमारे वकीलों के पुरखे नहीं हो सकते। कहां तो उनके विलायत से धुलकर कपड़े आते थे और कहां ये विलायत से मंगवाकर कपड़े धोते हैं। इतने अंतर के कारण इन्हें किसी और का ही जांनशीन कहा जाना चाहिए। ये फैसला आप करें, क्योंकि वकीलों के लिए किसी पर मानहानि का मुकदमा दाग देना उतना ही आसान है, जितना हमारे आपके लिए एक सिगरेट सुलगा लेना।
वकील साहब का घर यानी 'गृहस्थ आश्रम` नजदीक था। छके हुए वकील हैं। छके हुए शब्दों के दो अर्थ हैं। पतला मतलब खूब खाए-पिए, मोटे-ताजे, तंदुरुस्त। दूसरा मतलब परेशान, सताए गए, थके हुए। कहते हैं कि यार यह काम करते-करते मैं छक गया। तो वकील साहब दूसरी तरह के छके हुए आदमी हैं। उर्दू के इम्तहानात यानी 'अदीब` वगैरा पास करके बी.ए. किया था। फिर अलीगढ़ से एल.एल.बी। उसके बाद की पढ़ाई यानी जो असली पढ़ाई थी, यानी मजिस्ट्रेटों और जजों को कैसे काबू किया जाए। ये न पढ़ सके थे। इसीलिए जीवन के इम्तहान में फेल हो गए थे।
मैं उनके घर पहुंचा तो खुश हो गए। मुझमें उम्र में आठ-दल साल बड़े हैं इसका हम दोनों को एहसास है। और इसका ख्याल करते हैं। फिर वकील साब को अनुभव भी मुझसे ज्यादा है। अपनी जिंदगी में अब तक ये काम कर चुके हैं: खेती करवा चुके हैं, भट्टे लगवा चुके हैं, अनाज की मंडी लगवा चुके हैं, मोजे बुनवाने का काम किया है, पावरलूम लगवा चुके हैं, डेरी खोल चुके हैं और आपकी दुआ से इन सब कामों में इन्हें घाटा हो चुका है। सब काम बंद हो चुके हैं। कुछ कर्ज अब तक चुका रहे हैं। कुछ का चुक चुका है। अब आपको जिज्ञासा होगी कि ऐसे हालात में वकील साहब की गाड़ी कैसी चल रही है। वकील साहब के पिताश्री ने उनको किराए की तीन दुकानें और एक मकान एक तरह छोड़े हैं कि वकील साहब को ये लगता ही नहीं कि वालिद मरहूम हकीकत में मरहूम हो चुके हैं। इसके अलावा वकील साहब कचहरी रोज जाते हैं तो दस-बीस रुपया बन ही जाता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि खाली हाथ आए। अरे दो दरख्वास्तें ही लिख दीं तो दस रुपये हो गए।
'आओ. . .कब आए?'
'परसों। जी वो. . .'
'खैर छोड़ो. . .सुनाओ दिल्ली के क्या हाल हैं।'
फिर वही दिल्ली। अरे आप लोग दिल्ली को छोड़ क्यों नहीं देते। ये क्यों नहीं कहते कि दिल्ली जाए चूल्हे भाड़ में, यहां के हाल सुनो!
'कोई खास बात नहीं।'
'बिजली तो आती होगी?'
'हां, बिजली हो आती है।'
'यहां तो साली दिन-दिन-भर नहीं आती। सुनते हैं इधर की बिजली काटकर दिल्ली सप्लाई कर देते हैं।'
'हां जरूर होता होगा।'
'होगा नहीं, है। इधर के पढ़े-लिखे लोग नौकरी करने दिल्ली चले जाते हैं। इधर के मजदूर मजदूरी करने दिल्ली चले जाते हैं। इधर का माल बिकने दिल्ली जाता है।'
'दिल्ली से अधर कुछ नहीं आता?' मैंने हंसकर पूछा।
'हां आता है. . .आदेश. . .हुक्म. . .और तुम कह रहे हो दिल्ली में कोई खास बात नहीं है। अरे मैं तुम्हें गारंटी देता हूं कि दिल्ली में वक्त हर कहीं कोई-न-कोई खास बात होती रहती है।'
'और आप आजकल क्या कर रहे हैं?'
'मियां, सोचते है। एक इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल खोल दें। बताओ कैसा आइडिया है? दिल्ली में तो बड़े-बड़े इंग्लिश मीडियम स्कूल हैं।'
'लेकिन. . .'
उन्होंने मेरी बात काटी, 'लेकिन क्या,' वे शेर की तरह बमके। मैं समझ गया कि वे मन-ही-मन इंग्लिश मीडियम स्कूल खोलने की बात ठान चुके हैं।
'क्या कुछ इस्कोप है?'
'इस्कोप-ही-स्कोप है। आज शहर में आठ इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल हैं। सब खचाखच भरे रहते हैं। सौ रुपया महीने से कम कहीं फीस नहीं लगती। सौ बच्चे भी आ गए तो फीस-ही-फीस के दस हज़ार महीना हो गए। टीचरें रख लो आठ-दस। उनको थोड़ा बहुत दिया जाता है।. . .मकान-वकान का किराया निकालकर सात-आठ हज़ार रुपया महीना भी मुनाफा रख लो तो इतनी आमदनी और किस धंधे से होगी? और फिर दो टीचर तो हम घर ही के लोग हैं।'
'घर के, कौन-कौन?'
'अरे मैं और सईद।'
उनको चूंकि अपना बड़ा मानता हूं और चूंकि वे मेरा हमेशा खयाल करते हैं, इसलिए दिल खोलकर हंसने की ख्वाहिश दिल ही में रह गई। वकील साहब को अगर छोड़ भी दें तो उनके सुपुत्र सईद मियां बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाते हुए मुझे कल्पना में ऐसे लगे जैसे भैंस उड़ रही हो। पेड़ की जड़ें उपर हों और डालियां जमीन के अंदर। मतलब ऐसा लगता है, जैसे उसे दुनिया का आठवां अजूबा मान लिया जाएगा।
उत्तर प्रदेश, बिहार ही नहीं, पूरे-के-पूरे बेल्ट में अंग्रेजी की जो हालत है, किसी से छिपी नहीं है। यह अच्छा है या बुरा, यह अपने-आप में डिबेटेबुल प्वाइंट हो सकता है। लेकिन 'एम` को 'यम`, 'एन` को 'यन` और 'वी` को 'भी` बोलने वालों और अंग्रेजी का रिश्ता असफल प्रेमी और अति सुंदर प्रेमिका का रिश्ता है। पर क्या करें कि यह प्रेमिका दिन-प्रतिदिन सुंदर से अति सुंदर होती जा रही है और प्रेमी असफलता की सीढ़ियों पर लुढ़क रहा है। प्रेमी जब प्रेमिका को पा नहीं पाता तो कभी-कभी उससे घृणा करने लगता हे। इस केस में आमतौर पर यही होता है। अगर आप अच्छी-खासी हिंदी जानते और बोलते हों, लेकिन किसी प्रदेश के छोटे शहर या कस्बे में अंग्रेजी बोलने लगें तो सुनने वाले की इच्छा पहले आपसे प्रभावित होकर फिर आपको पीट देने की होगी।
यह तो हुई सबकी हालत। इसकी तुलना में सईद मियां की हालत सोने पर सुहागे जैसी है। जब पढ़ाते थे तब अंग्रेजी का नाम सुनते ही किसी नए नाथे गए बछड़े की तरह बिदकते थे और 'ग्रामर` का नाम सुनते ही उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम नहीं नहीं हो जाया करती थी, खून खुश्क हो जाया करता था। कुछ शब्द तो उन पर गोली से ज्यादा असर करते थे, जैसे 'पंक्चुएशन`, 'डायरेक्ट इनडायरेक्ट टेंस`, 'फिल इन द ब्लैंक्स`। अंग्रेजी के अध्यापक को वे कसाई और आपको बकरा समझते थे।
सईद मियां को इंटर में अंग्रेजी के पर्चे में तीन सवाल नकल करते ही लगा था, जैसे एवरेस्ट फतह कर ली हो। उसके बाद कहां अंग्रेजी और कहां सईद मियां वे हथेली पर सरसों जमाना न जानते थे। होगी दुनिया में धूम-अपने ठेंगे पर।
वकील साहब ने फिर प्वाइंट क्लीयर किया, 'भई हमें इन इंग्लिस स्कूल वालों का सिस्टम अच्छा लगा। रटा दो लौंडों को। दे दो सालों को होम वर्क। मां-बाप कराएं, नहीं तो टीचर रखें। हमारे ठेंगे से। होम वर्क पूरा न करता हो तो मां-बाप को खींच बुलवाओ और समझाओ कि मियां बच्चे को अंग्रेजी मिडीयम में पढ़वा रहे हो, हंसी-मजाक नहीं है। फिर कसकर फीस लो। आज इस नाम से, तो कल उस नाम से। बिल्डिंग फंड, फर्नीचर फंड, पुअर फंड, टीचर फंड और स्कूल फंड. . .' वे हंसने लगे।
'हां, ये बात तो है।'
'अरे भइ भूल ही गया. . .चाय. . .लेकिन चाय तो तुम पीते ही रहते होंगे. . .बेल का शरबत पियोगे?'
जी में आया कि कहं, हुजूर, अब तो बियर पिलाइए। कहां इंग्लिश मीडियम, कहां बेल का शरबत।
बेल का शरबत आने से पहले आए सईद मिया। उन्हें देखते ही वकील साहब खुश हो गए, बोले, ' आओ आओ, बैठो। स्कूल के बारे में ही बात कर रहे हैं।'
मैंने सईद मियां के चेहरे पर वह सब कुछ देख लिया जो उनके बारे में लिखा जा चुका है।
'जी!' उन्होंने छोटा-सा जवाब दिया और बैठ गए। वकील साहब इस बात पर यकीन करने वाले आदमी हैं कि बच्चों को खिलाओ सोने का निवाला, पर देखो शेर की निगाह से। तो उन्होंने सईद मियां को हमेशा शेर की निगाह से देखा है और सईद मियां ने 'अकबर` इलाहाबादी के अनुसार 'अब काबिले जब्ती किताबें` पढ़ ली हैं और 'बाप को खब्ती` समझते हैं।
लेकिन सईद मिया खब्ती बाप से बेतहाशा डरते हैं। वकील साब इसे कहते हैं, लड़का सआदतमंद है। लेकिन इधर कुछ साल से इस सआदतमंदी में कुछ कमी आ रही है। दरअसल चक्कर यह है कि वकील साहब ने बेटों को चकरघिन्नी की तरह नचाया है। एक तो बेटे का पूरा कैरियर ही 'शानदार` था, दूसरे वकील साहब की रोज-रोज बनती-बिगड़ती योजनाओं ने सईद मियां को बुरी तरह कन्फ़्यूज़ कर रखा है। वकील साहब ने कभी उन्हें कम्प्यूटर साइंटिस्ट, कभी चार्टर्ड एकाउंटेंट, कभी एक्सपोर्टर वगैरा बनाने की ऐसी कोशिश की कि सईद मियां कुछ न बन सके।
'अब तुम कोई अच्छा-सा नाम बताओ स्कूल के लिए। यहां तो यही सिटी मांटेसरी, इंग्लिस मिडियम पब्लिक नाम चलते हैं। लेकिन नाम अंग्रेजी में होना चाहिए. . .वो मुझे पसंद नहीं कि स्कूल तो इंग्लिश मिडियम है लेकिन नाम पक्का हिंदी का है।' वे मेरी तरफ देखने लगे, 'अरे दिल्ली में तो बहुत इंग्लिस मीडियम स्कूल होंगे. . .उनमें से दो-चार के नाम बताओ।'
फिर आ गई दिल्ली। मैंने मन में दिल्ली को मोटी-सी गाली दी और दिल्ली के पब्लिक स्कूलों के नाम सोचने लगा।
'ज़रा माडर्न फैशन के नाम होना चाहिए,' वे बोले।
मैंने सोचकर कहा, 'टाइनी टॉट।'
'टाइनी टॉट? ये क्या नाम हुआ? नहीं नहीं, ये तो बिलकुल नहीं चलेगा. . .अरे मियां, कोई समझेगा ही नहीं। अब तो कमस खुदा की, मैं भी नहीं समझा टाइनी क्या बला है। क्यों सईद मियां, क्या ख्य़ाल है?'
सईद मियां गर्दन इनकार में हिलाने लगे और और बोले, 'चचा, यहां तो सिटी मांटेसरी और इंग्लिस मिडियम पब्लिक स्कूल ही समझते हैं और वो. . .' उनकी बात काटकर वकील साहब बोले, 'वो भी हिंदी में लिखा होना चाहिए।'
'टोडलर्स डेन,' फिर मैंने मजाक में कहा, 'रख लीजिए।'
इस पर तो वकील साहब लोटने लगे। हंसते-हंसते उनके पेट में बल पड़ गए। बोले, 'वा भई वाह. . .क्या नाम है. . .जैसे मुर्गी का दड़बा।'
अब सईद मियां की तरफ मुड़े, 'तुम अंग्रेजी की प्रैक्टिस कर रहे हो?'
'जी हां।'
'क्या कर रहे हो?'
'प्रेजेंट, पास्ट और 'फ़्यूचर टेंस याद कर रहा हूं।'
'पिछले हफ़्ते भी तुमने यही कहा था। अच्छी तरह समझ लो कि मैं स्कूल में एक लफ़्ज़ भी हिंदी या उर्दू का नहीं बर्दाश्त करूंगा।'
'जी हां,' सईद मियां बोले।
'बच्चों से तो अंग्रेजी में बता कर सकते हो?'
'क्यों नहीं कर सकता. . .जैसे ये सिटी व इंग्लिस मिडियम पब्लिक स्कूल, जो शहर का टॉप इंग्लिस स्कूल है, की टीचरें बच्चों से अंग्रेजी में बात करती हैं, वैसे तो कर सकता हूं।'
'ये कैसे?' मैंने पूछा।
'अरे चचा, कापी में लिख लेती हैं। पहले सवाल लिखती हैं जो बच्चों को रटा देती हैं। जैसे बच्चों से कहती हैं अगर तुमको बाथरूम जाना है तो कहा, 'मैम में आई गो टु बाथरूम।` जब बच्चे उनसे पूछते हैं तो वे कापी में देखकर जवाब दे देती हैं।'
'लेकिन इस सवाल का जवाब देने के लिए तो कापी में देखने की जरूरत नहीं है।'
'चचा, यह तो एग्जांपल दी है। करती ऐसा ही हैं।'
'अच्छा जनाब, एडमीशन के लिए जो लोग आएंगे, उनसे भी आपको अंग्रेजी ही में बातचीत करनी पड़ेगी।' मुझे लगा वकील साहब और सईद मियां के बीच रस्साकशी हो रही है। इस सवाल पर सईद मियां थोड़ा कसमसाए, फिर बोले, 'हां अगर वो लोग अंग्रेजी में बोले तो मैं भी अंग्रेजी में बोलूंगा।' वकील साहब जवाब सुनकर सकते में आ गए। सब जानते हैं कि इस शहर में जो लोग अपने बच्चों को इंग्लिश मिडियम स्कूल में दाखिल कराने आएंगे, वे अंग्रेजी नहीं बोल सकते।
'यही तो तुम्हारी गलती है. . .तुम अपना सब काम दूसरों के हिसाब से करते हो. . .अरे तुम्हें क्या. . .वे चाहे बोले, चाहे न बोलो. . .तुम अपना अंग्रेजी पेलते रहो. . .साले समझें तो कहां आ गए हैं।'
'यानी चाहे समझ में आए न आए?'
'बिलकुल।'
'तो ठीक है, यही सही,' सईद मियां का चेहरा खिंच गया।
कुछ देर बाद वकील नरम होकर बोले, 'अब ऐसा भी कर देना कि साले भाग ही जाएं।'
'नहीं-नहीं, भाग क्यों जाएंगे।'
वकील साहब ने बताया कि उनके जमाने में हिंदी-इंग्लिश ट्रांसलेशन में इस तरह के जुमले दिए जाते थे, जैसे आज बाजार में जूता चल गया, या वह चप्पल लेकर नौ-दो ग्यारह हो गया। फिर वकील साहब ने कहा, 'मैं यह भी सोचता हूं कि सईद मियां को टीचिंग में न डालूं. . .इन्हें वाइस प्रिंसिपल बना दूं।'
'क्यों?' मैंने पूछा।
'अरे भाई स्कूल में पांच-छ: लड़कियां पढ़ाएंगी. . .ये उनके बीच कहां घुसेंगे।' मैं पूरी बात समझ गया। सईद मियां भी समझ गए और झेंप गए।
शर्बत आने के बाद वकील साहब बातचीत को स्कूल के नाम की तरफ घसीट लाए। वे चाहते थे, ये मसला मेरे सामने ही तय हो जाए। सेंट पॉल, सेंट जांस, सेंट कोलंबस जैसे नाम उन्हें पसंद तो आए, पर डर यही था कि यहां उन नामों को कोई समझेगा नहीं। स्थानीय लोगों के अज्ञान पर रोते हुए वकील साहब बोले, 'अमां मिया धुर गंवार. . .साले गौखे . . .ये लोग क्या जानें सेंट क्या होता है. . .घुर गंवार. . .मैली-चिक्कट धोती और गंदा सलूका, पांव में चमरौधा जूता- मुंह उठाये चलते जाते हैं। हिंदी तक बोलनी नहीं आती, लेकिन कहते हैं, 'बबुआ का इंगरेजी इस्कूल में पढ़ावा चहत हन। टेंट में दो-तीन हज़ार के नोट दाबे रहता है. . .अब तुम ही बताओ, मुनाफे का धंधा हुआ कि न हुआ?'
'बिलकुल हुआ।'
रात उपर आसमान में तारे-ही-तारे थे। चांदनी फैली हुई थी। रात की रानी की महक बेरोक-टोक थी। अच्छी-खासी तेज़ हवा न चल रही होती तो मच्छर इस सुहावनी रात में फिल्मी खलनायकों जैसा आचरण करने लगते। बराबर में सबकी चारपाइयां बिछी थीं। सब सो रहे थे। रात का आखिरी पहर था। मैं वकील साहब से जिरह कर रहा था, 'आप ये क्यों नहीं समझते कि पूरी दुनिया में बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है।'
'मुझे क्या मतलब लोगों से, क्या मतलब मातृभाषा से. . .ये तो धंधा है. . .धंधा। हर आदमी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़वाना चाहता है।'
'लेकिन क्यों?'
'अंग्रेजी तो पानी है. . .जैसे बिन पानी सब सून है. . .वैसे ही बिन अंग्रेजी सब कुछ सूना है।'
'लेकिन ऐसा है क्यों?'
'अंग्रेज़ी हम लोगों के हुक्मरानों की जबान है।'
'क्या अब भी कोई हमारे उपर शासन करता है?'
वकील साहब जोर से हंसे, 'तुम यही नहीं जानते?'
मैंने दिल में कहा, 'जानता हूं पर मानता नहीं।`
वे धीरे-धीरे पूरे आत्मविश्वास के साथ इस तरह बोलने लगे जैसे उनका एक-एक वाक्य पत्थर पर खिंची लकीर जैसा सच हो- 'अंग्रेजी से आदमी की इज्जत होती है. . .'रुतबा. . .पोजीशन. . .पावर. . .जो इज्जत तुम्हें अंग्रेजी बोलकर मिलेगी वह हिंदी या उर्दू या दीगर हिंदुस्तानी जुबानें बोलकर मिलेगी?' उन्होंने सवाल किया।
'हां मिलेगी. . .आज न सही तो कल मिलेगी।'
हवा के झोंकों ने मच्छरों को फिर तितर-बितर कर दिया। रात की रानी की महक दूर तक फैल गयी। पूरब में मीलों दूर 'सूर्य के देश में` सुबह हो चुकी होगी।