चालाक सियार : बिहार की लोक-कथा
Chalaak Siyar : Lok-Katha (Bihar)
गाँव से कुछ दूरी पर एक जंगल था। उस जंगल में एक सियार रहता था। वह बहुत चालाक था। उस जंगल में और भी कई जानवर थे। दूसरे जानवर कभी-न-कभी धोखा खा जाते थे, लेकिन वह किसी-न-किसी प्रकार बच जाता था अपनी धूर्तता और चालाकी के कारण।
एक बार की बात है। वह सियार शिकार की तलाश में जंगल में निकल गया। गर्मी के दिन थे। दुपहरी तप रही थी। सियार को ख़ूब ज़ोर की प्यास लगी। वह पानी की तलाश में इधर-उधर भटकते हुए एक कुएँ के पास पहुँचा। कुआँ बहुत छोटा था। सियार ने झाँककर देखा—कुएँ में पानी भरा हुआ था। उसने अंदाज़ा लगाया और पाया कि इस छोटे से कुएँ से बाहर निकलने में ज़्यादा परेशानी नहीं होगी। एक बड़ी छलाँग लगाकर वह ऊपर आ सकता है। ऐसा सोचकर वह झट से कुएँ में कूद पड़ा। सबसे पहले उसने भरपेट पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई। थोड़ा स्थिर हुआ और छलाँग लगाकर बाहर निकलने की कोशिश की, लेकिन पैर के नीचे कुछ था ही नहीं कि वह छलाँग लगा पाता। पानी पर पैर रखकर भला वह कैसे छलाँग लगा पता, हालाँकि उसने कोशिश बहुत की। कुएँ की गीली दीवार से भी छलाँग लगा पाना संभव नहीं था। असंभव होते हुए भी वह कोशिश करने से बाज़ नहीं आ रहा था। बहुत देर तक उछल-कूद करते-करते जब सियार थक गया तो वह चिंतित हो उठा। अपनी प्यास बुझाने के चक्कर में वह फँस गया था।
उसी जंगल में एक बकरा भी प्यासा भटक रहा था पानी की खोज में। भटकते-भटकते वह उसी कुएँ के पास पहुँचा। जैसे ही उसने झाँककर देखा, सियार बोल उठा, “बकरा भाई - बकरा भाई, कुएँ का पानी इतना मीठा और ठंडा है कि मन जुड़ा गया, तृप्त हो गया। ऐसा लग रहा है, मानो मैंने अमृत पी लिया है। आज तक मैंने इतना मीठा और मन को तृप्त करने वाला पानी नहीं पिया था।”
यह सुनकर बकरा बोल पड़ा, “मुझे भी प्यास लगी है।”
सियार तो जैसे इसी मौक़े की तलाश में था। उसने तपाक से बोला, “फिर तो बिलकुल भी देर मत करो भाई। ये लो, मैं किनारे हो जाता हूँ। तुम भी इस कुएँ में कूदकर अपनी प्यास बुझा लो।”
बकरे में इतना दिमाग़ तो था नहीं। उसने आव देखा न ताव, कुएँ में कूद पड़ा। पेटभर ठंडा-मीठा पानी पीकर अपना मन तृप्त कर लिया। अब उसकी प्यास तो मिट गई थी, चिंता इस बात की थी कि वह बाहर कैसे निकले।
सियार को तो बस एक मौक़ा चाहिए था। उसे अब और ज़्यादा विलंब करना उचित नहीं लगा। बकरे के मज़बूत और लंबे सींगों को देख उसने कहा, “बकरा भाई - बकरा भाई! अपने सींगों को थोड़ा स्थिर करो, मैं उन पर पैर रखकर छलाँग लगाता हूँ। फिर बाहर जाकर मैं तुम्हारे लिए प्रयास करूँगा। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो हम दोनों यहीं फँसे रहेंगे।”
बकरे ने सियार के कहे अनुसार किया और उसने बकरे के सींग पर पैर रखकर ज़ोरदार छलाँग लगाई। एक ही छलाँग में वह कुएँ के बाहर निकल आया।
सियार ने बाहर निकलकर बोला, “अब मैं चलता हूँ। तुम वहीं रहो। मैं तुम्हें निकालने का इंतज़ाम करता हूँ।” इतना कहकर सियार वहाँ से नौ-दो ग्यारह हो गया। जब बहुत देर हो गई और किसी के आने की आहट भी नहीं सुनाई दी तो बकरा समझ गया कि सियार ने उसे धोखा दिया है। उसे सोच-विचार कर कुएँ में कूदना चाहिए था। सच ही तो कहा गया है—
बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताए।
काम बिगाड़े आपना, जग में नाम हँसाए॥
(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)