चक्रव्यूह में अभिमन्यु (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ
Chakravyuh Mein Abhimanyu (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan
अभिमन्यु के गाँव छोड़ते समय पूर्व-आकाश धीरे-धीरे धुँधला और पश्चिम-आकाश धीरे-धीरे लाल रंग से रंगा हुआ लग रहा था। लाइट-पोस्ट पर बत्तियाँ जल चुकने के बाद स्टेशन अपनी तरफ भागती आ रही गाड़ियों की ओर आँख तरेरने लगा था। घंटा बज उठते ही गाड़ी आ पहुँची थी प्लेटफार्म पर । पिताजी के चरण छूकर अभिमन्यु चढ़ गया था तीसरे दर्जे के डिब्बे में। दो मिनट बाद पीछे छूट गई थीं साँप के फन की तरह लहराती कुछ हथेलियाँ । ट्रेन बढ़ चली थी अपने रास्ते पर आगे की ओर।
ट्रेन की हर सीटी के साथ अभिमन्यु के अंदर फैलने लगती थी एक नई सिहरन। नई जगह के अनजाने और अहेतुक भय के कारण मन लौटने लगता था पीछे की ओर। ट्रेन के अंदर की चहल-पहल और शोर-शराबे के बीच अभिमन्यु खुद को निहायत अकेला महसूस कर रहा था। उस अकेलेपन के साथ-साथ अतीत के तमाम क्षण उसे काफी व्यथित करने लगे थे। उस अकेलेपन के बोध से उबरने के लिए उसका मन बार-बार लौटने लगता था अतीत की ओर। वर्तमान अपने लिए सब कुछ है, यह जानते हुए भी। अतीत जितना भी अनावश्यक क्यों न लगे, फिर भी, अतीत के कब्जे से वह खुद को अलग नहीं कर पा रहा था। खिली हुई चाँदनी में आकाश और समुद्र के बीच दिख रहे अस्पष्ट क्षितिज की ओर पसर गई थी उसकी दिव्यदृष्टि। मानो वहीं लटकी हों उसी हरे-भरे सुंदर निपट देहात की तमाम स्मृतियाँ और ऋतुचक्र के बीच अठखेलियाँ करती जल-धारा में बहने वाली कागज की नैया । उन खोई हुई स्मृतियों में से पिताजी की बातें याद आते ही अभिमन्यु के सीने के अंदर की घनीभूत बर्फ पिघलने लगती थी। क्यों उन्हें इतने मीठे लगने लगते है पिताजी के सारे शब्द। पिताजी के एक-एक शब्द सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि मानवीयता के एक-एक बीज-मंत्र है।
पिताजी के वे महान बीज-मन्त्र उनके कानों में एक बार फिर गूँजने लगे थे। स्टेशन से विदा होते समय पिताजी ने कहा था कि अपने कर्तव्य की अवहेलना कभी मत करना। हमेशा ईमानदारी से जीवन व्यतीत करना। रामनगर पहुँचते ही पत्र लिखना। यदि हो सके तो हर महीने की तनख्वाह में से थोड़ी-सी रकम भेजा करना, जिससे तेरी पढ़ाई की खातिर गिरवी रखी हुई जमीन को मैं जीतेजी छुड़वा सकूँ । पिता अर्जुन साहु गाँव के एक मामूली किसान हैं। अपने कर्ममय और जंजाल भरे जीवन के विनिमय में बेटे अभिमन्यु को दुनिया के सामने काबिल बनाकर खड़े करने में वे आज समर्थ हो पाए हैं। यदि अडिग रहकर अपने जंजालों को नहीं सँभाला होता तो उनकी मुट्ठी से बेटे का जीवन फिसलकर चकनाचूर हो गया होता। फिर बेटे अभिमन्यु को आज वन-विभाग के अफसर के रूप में देखने का संयोग उन्हें शायद ही मिल पाता।
नई जगह है, नौकरी भी नई। किस तरह वे खुद को ढाल पाएँगे? इस अनजान भय में ही अभिमन्यु का सफर कट गया । सुबह-सुबह ट्रेन से उतरते ही उनकी मुलाकात हुई अपने दफ़्तर के बड़े बाबू से। पूर्व परिचय न होने के कारण स्वागत के लिए बड़े बाबू अँग्रेजी में लिखा हुआ एक प्लेकार्ड “वेलकम अभिमन्यु बाबू” हाथ में थामे खड़े थे स्टेशन पर। बड़े बाबू का सान्निध्य पाकर खुश हुए अभिमन्यु । हल्का-सा नाश्ता लेकर दोनों निकल पड़े रामनगर की ओर।
बड़े बाबू ने वन-विभाग के कार्यालय में जैसे ही पैर रखा आठ जोड़ी प्रश्नाकुल आँखें उन पर अटक गईं। हैड प्यून त्रिनाथ गौड़ फौरन उनके हाथ से छतरी ले जाते हुए अलमारी के पीछे एक कोने में टिका आया। प्यून सुर डाकुआ दराज से काँच का गिलास निकालकर ठंडा पानी लाने के लिए जग लिए दौड़ पड़ा पास के नल-कूप की ओर। नियत दूरी पर बैठी आठ जोड़ी आँखें अपनी-अपनी पुतलियों की एक्स-रे किरणों के जरिए बड़े बाबू के अंदर छिपी वास्तविकता को तलाशने लगीं। सभी के चेहरे पर एक ही सवाल। नए साहब कैसे होंगे? सभी कर्मचारियों को पता है कि आज नए साहब ज्वाइन करेंगे। बड़ेबाबू नए साहब के स्वागत के लिए रेलवे स्टेशन गए हुए थे। उन्हें उनके सरकारी क्वार्टर्स में पहुँचाकर अभी आ रहे हैं। इसलिए नए साहब के बारे में जानने की उत्सुकता सभीr में उमड़ रही थी।
बड़े बाबू कुर्सी पर बैठते ही सभी के मुँह से एक साथ एक ही सवाल फूट पड़ा। बड़े बाबू ! नए साहब कैसे हैं? बड़े बाबू अपने सहज अंदाज से पान की गिलौरी चबाते हुए, बिना किसी उत्तर के फाईल पलटते रहे। कर्मचारियों की जिज्ञासा जितनी बढ़ती जाती थी, बड़े बाबू की गंभीरता भी उतनी ही बढ़ती जाती थी। तथापि सब की निगाहें टिकी हुई थीं बड़े बाबू के पान से भरे जुगाली कर रहे मुँह पर। चबाते-चबाते पान की गिलौरी जब पूरी तरह चकनाचूर नहीं हो जाएगी, तब तक बड़े बाबू के मुँह से बात नहीं निकलेगी।
बड़ेबाबू ने पैरों के पास रखे हुए पीकदान में पान की पीक उगल दी। मूछों पर लगी लाल-लाल बूँदों को अँगूठे और तर्जनी के सहारे साफ किया। फिर मेज पर रखा गिलास भर पानी पीकर, सभी कर्मचारियों को एक बार पैनी नजर से निहार लेने के बाद कहा-“हाँ, तुम सब पूछ रहे थे, नए अफसर के बारे में...समझे, नए अफसर एक भोंदू हैं । जानते हो, कॉलेज के बरामदे से सीधा इस दफ़्तर के बरामदे में कदम रख रहे हैं। वन-विभाग की वे ए.बी.सी.डी. भी नहीं जानते। मैं रेलवे स्टेशन पर उन्हें पहले दर्जे के डिब्बे में ढूँढ रहा था, और बाबूजी उतर रहे हैं गाँधी दर्जे के डिब्बे से। हाथ में एक छोटी-सी अटैची और एक पोलीथिन की थैली में कुछ और सामान। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया तो साहब ने ही पहले हाथ जोड़कर मुझे प्रणाम किया। मैंने आपत्ति की तो छोकरे ने कहा कि आप मेरे पिता समान हैं। पहले प्रणाम किसे करना चाहिए? दफ्तर में पहुँच जाएँ तो बात दूसरी है।” नए अफसर के बारे में इतना ही बताकर बड़े बाबू अपने घर की ओर चल पड़े। फिर सभी कर्मचारी अपने-अपने काम में जुट गए।
अपराह्न करीब चार बजे बड़े बाबू दफ़्तर का एक चक्कर लगाकर पहुँचे नए अफसर के क्वार्टर्स में ज्वाइनिंग रिपोर्ट तैयार करने। उदास बैठे हुए थे अभिमन्यु। बड़ेबाबू ने पूछा, सर सफर की थकान मिट चुकी है क्या?
अभिमन्यु ने कहा कि क्वार्टर्स में पहुँच कर आराम करते ही नींद आ गई। सो रहा था, अभी उठा हूँ। चाय पीने को जी चाह रहा है, लेकिन यहाँ आसपास कहीं किसी होटल या चाय की दुकान का नामोनिशान ही नहीं है।
-“सर्! प्यून त्रिनाथ गौड़ आपके लिए नाश्ता लेकर नहीं आया? आपके आराम करने से पहले चाय-नाश्ता ले आने के लिए मैंने उससे कहा था। यह त्रिनाथ गौड़ भी बड़ा हरामी है, सर्! आपसे पहले जो सर थे, उन्होंने उसे सिर पर चढ़ा रखा था। मैं जा रहा हूँ सर, आपके लिए चाय लाने। ” बड़े बाबू जाने को हुए तो अभिमन्यु ने उन्हें कहा -“एक जरूरी बात है। सुनिए! मैं ठहरा अविवाहित। इसलिए घर के काम-काज के लिए एक लड़के का इंतजाम कहीं से कर सकें तो अच्छा है।”
बड़ेबाबू ने फुसलाते हुए कहा, “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, सर्! दफ़्तर में चार-चार प्यून, चपरासी और चौकीदारों के रहते आप के लिए रसोइए की क्या जरूरत है। ये सब किस काम के लिए हैं सर्! क्या दफ़्तर में बैठे-बैठे सारा दिन ऊँघते रहने के लिए ? ”
अभिमन्यु को बात कुछ जँची नहीं। उन्होंने प्रतिवाद करते हुए कहा, “बड़े बाबू, वे सब सरकारी कर्मचारी हैं। उन्हें घर के काम में कैसे लगाऊँ? ”
-“सर् !सर्! सर्! आप तो खुद ही सरकार हैं। सरकार का काम सरकारी कर्मचारी नहीं करेंगे तो करेगा कौन? आपसे पहले जो सर् थे, वह रहने वाले थे जाजपुर के। वे तो सभी को घर के काम में लगाते थे। कोई बाजार से सब्जी ले आता था, तो कोई रसोई बनाता था, तो कोई साहब के बच्चों को स्कूल छोड़ आता था। ”
-“लेकिन ये सब मुझसे नहीं होगा, बड़ेबाबू । जब तक एक नौकर नहीं मिल जाता, तब तक मेँ अपने हाथों से खाना तैयार करूँगा। मुझे भी रसोई आती है। हाईस्कूल पास होने के बाद शहर में मेस में रहकर पढ़ाई की है मैंने । ये कुछ रुपए लीजिए, कृपया आप मेरे लिए बाजार से कुछ सब्जी और रसोई का सामान ले आइए। ”
-“आप इस तरह मेरे गाल पर और थप्पड़ न मारिए, सर्। मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता।” -कहते हुए बड़ेबाबू अभिमन्यु के पैरों के पास बैठ गए।
अभिमन्यु ने विनम्रता प्रदर्शित करते हुए कहा, “आप यह क्या कर रहे है, बड़े बाबू। मैं तो आपके बेटे की उम्र का हूँ। ”
-“तो फिर आप मेरी बातों को क्यों नजरअंदाज किए जा रहे हैं। मेरे रहते आप अपने हाथों से रसोई बनाकर खाएंगे। मुझे तकलीफ होगी कि नहीं? आज रात आप मेरे यहाँ मेहमान बनिए। कल सुबह से मेरी बड़ी बेटी आपके लिए खाना बना दिया करेगी। मैं जा रहा हूँ सर्। आपके लिए बाजार से कुछ सामान ले आता हूँ।”
-“ठीक है, बड़ेबाबू आप जब कह रहे हैं, तो आज रात आपके यहाँ भोजन कर लेता हूँ । लेकिन कल से जैसे भी हो एक नौकर का जुगाड़ तो करना ही होगा। हाँ, रसोई के लिए जो चीजें जरूरी हैं, उनमें से थोड़ा-सा ले आइए। अगले महीने, तनख्वाह मिलने के बाद बाकी सभी चीजें खरीद लेंगे। मेरे पास थोड़े-से रुपए हैं, ये लीजिए। ”
-“आप सारे रुपए मुझे दे रहे हैं, सर् पूरा महीना कैसे गुजारेंगे? अपने पास उतना रहने दीजिए। मैं सभी चीजें ले आऊँगा।” यह कहते हुए बड़ेबाबू बाजार की ओर चल पड़े। करीब दो घंटे बाद ढेर सारा सामान लादे एक रिक्शा आ पहुँचा। रिक्शावाला एक-एक करके सारा सामान रख गया घर के अंदर। अभिमन्यु हैरत के साथ सिर्फ ताकते रहे खड़े-खड़े । उनके मुँह से कोई शब्द फूट नहीं रहा था। अभिमन्यु ने सभी चीजों का आकलन किया । कीमत दो हजार से पाई भर भी कम नहीं होगी। बड़ेबाबू लिस्ट पढ़-पढ़ कर सामान दिखा रहे थे।
अभिमन्यु सिर्फ भौंचक्के होकर निहारते रहे। उनकी इस तरह की उदासीनता को देख बड़ेबाबू ने कहा, “सर्! आप तनिक भी चिंता न कीजिए। इस जीवन में, नौकरी के दौरान अफसरों की सेवा में ढेर सारे रुपए फूँक दिए हैं। लेकिन सच कह रहा हूँ, सर्! आज इन चीजों को खरीदने में मैंने एक पैसे का भी खर्च नहीं किया। इस शहर के आराघर के कुख्यात मालिक दंडपाणि प्रधान ने ये सारी चीजें भिजवाई हैं। ये जो एलुमिनियम और स्टील का सामान देख रहे हैं सर्, इन्हें लकड़ी के व्यापारी हाड़ू सामल ने भिजवाया है। सर्! मैने सिर्फ रिक्शे का किराया ही दिया है।” बड़े बाबू पर तनिक नाराज होते हुए अभिमन्यु ने कहा कि मैं उन्हें जानता नहीं हूँ, फिर मेरे पास इतनी सारी चीजें भिजवाने का क्या मतलब?
बड़े बाबू ने समझाया, “सर्! आप उन लोगों का मतलब अब तक समझ नहीं पाए। वे इस शहर के सब कुछ हैं। मैंने खूब मना किया पर वे माने ही नहीं। कहा कि यह परंपरा हमारे शहर में काफी दिनों से चली आ रही है। हम कैसे तोड़ें। फिर कहा कि तुम सामान लेकर जाओ। हम तुम्हारे नए साहब से आज रात को मिलने जा रहे हैं । उनकी बातों को नजरअंदाज करने का मतलब है आफत को मोल लेना। आप नहीं जानते सर्, उनके हाथ काफी लंबे हैं। यों समझ लीजिए कि देश की राजधानी तक। ”
बड़ेबाबू ने फिर समझाया-“ सर्! आपसे पहले जो अफसर यहाँ थे, उन्हें दंडपाणि प्रधान और हाड़ू सामल हर महीने भेंट दिया करते थे। और आप...?”
अभिमन्यु खीज जाहिर करते हुए कहने लगे- “ना बड़े बाबू, मुझ से ये सब नहीं हो सकता। आप पहले के अफसरों का उदाहरण फिर मत दीजिएगा।”
ठीक उसी समय वन-विभाग के बड़े अफसर आ पहुँचे। वे जैसे ही जीप से उतरे, उनका अभिवादन करते हुए अभिमन्यु ने उन्हें घर के अन्दर ले जाना चाहा। लेकिन, बाहर ही खड़े-खड़े बड़े अफसर ने कहा, “आप के ज्वाइन करने की खबर पाते ही मैं आ गया। तीन दिनों की पेट्रोलिंग का विशेष प्रोग्राम बनाकर मैं इस इलाके में ठहरा हुआ हूँ। आज मैं आपको साथ लेकर यहाँ के दुर्गम इलाके में जाना चाहता हूँ।” अभिमन्यु ने पूछा- “सर्! कितने बजे चलेंगे। यहीं डिनर लेकर निकल पड़ें तो बेहतर होगा। बड़े अफसर ने कहा कि आप जीप में बैठिए। रास्ते में किसी भी ढाबे में खा लेंगे। जीप में बैठने से पहले अभिमन्यु ने बड़े बाबू के कान में फुसफुसाते हुए कहा, हम रात को लौटेंगे या सुबह इसका कोई भरोसा नहीं है। इसलिए डिनर के लिए इंतजार न कीजिएगा। ”
करीब बीस-पच्चीस मील तय कर चुकने के बाद जीप जाकर रुकी एक निर्जन जंगली सड़क के किनारे, एक ढाबे के सामने । जीप के रुकते ही ढाबे का मालिक दौड़ता हुआ जीप के पास पहुँचा और अफसर के हुक्म के इंतजार में हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। अफसर नीचे उतरे और उससे कुछ बतियाने लगे। फिर ढाबे के मालिक ने एक लिफाफे में सौ के कुछ नोट भरकर अफसर के हाथ में रख दिए और कहा-“हाडू सामल का ट्रक आया था। उन्होंने आपके लिए ये रुपए दिए हैं।” जीप छूटने से पहले अफसर ने ढाबे के मालिक से डाक-बँगले में खाना पहुँचाने के लिए कह दिया।
जंगली सड़क पर जीप रेंगती जा रही थी आगे की ओर। बड़े अफसर की गतिविधियों से अभिमन्यु के हृदय के किसी निभृत कोने में गहरा असंतोष पनपने लगा था, पर वे कुछ कह नहीं पा रहे थे । कुछ देर बाद जीप आकर रुकी एक वनवासी गाँव के नुक्कड़ पर। सपाट चट्टान पर बनी अकेली झोपड़ी से टिमटिमाते दिए की फीकी-फीकी रोशनी बाहर आ रही थी। गाड़ी की आवाज सुनते ही बाँस का अहाता पार करके बाहर आ गई एक अधेड़ उम्र की औरत। चौखट पर पीठ टिकाए खड़ी थी एक युवती। जीप का ड्राइवर गया, उस औरत से कुछ बातचीत करके लौट आया। फिर जीप लौट आई वन-विभाग के डाक-बँगले में। तब तक अभिमन्यु भूख के मारे बेहाल हो चुके थे। डाक-बँगले के डाइनिंग-टेबुल पर सजी हुई थीं कई किस्म की स्वादिष्ट खाद्य-सामग्रियाँ। खाने के लिए अभिमन्यु बेचैन हो रहे थे, लेकिन बड़े अफसर खाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। थोड़ी देर बाद ड्राइवर एक बोतल और दो गिलास रख गया। अफसर ने दोनों गिलासों में पेय उडेल कर एक गिलास अभिमन्यु की ओर बढ़ाया। अभिमन्यु ने मना करते हुए कहा सर्! मैं ड्रिंक्स नहीं लेता। अफसर ने ठहाके लगाते हुए कहा- “अभिमन्यु बाबू। आप को जंगल में रहकर काम करना है, तो जंगली मानव का खून पीना होगा। नहीं तो सँभल नहीं पाएंगे। ”
पी चुकने के बाद अफसर घंटा भर बक-बक करते रहे। इस मौके का फायदा उठाकर अभिमन्यु खाना खत्म करके सोने चले गए दूसरे कमरे में। प्रात:-भ्रमण के लिए मुँह अँधेरे उठ गए अभिमन्यु। वे जब बाहर निकले तो देखा कि अफसर के कमरे से एक वनवासी युवती निकलकर बँगले के पिछवाड़े से होकर जा रही है। प्रात:-भ्रमण से लौटते समय अभिमन्यु ने देखा कि अफसर बरामदे में बैठे धूप खा रहे हैं । गुड मॉर्निंग कहकर नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए अभिमन्यु अपने कमरे की ओर बढ़ ही रहे थे कि अफसर ने उन्हें बुलाकर कहा- “मेरा सिर न जाने क्यों भारी-भारी लग रहा है। इसलिए आज मैं यहाँ विश्राम करके शाम को लौटूँगा। अब आप को ड्राइवर घर छोड़ आएगा। ”
सुबह के आठ बजे तक जीप पहुँच गई अभिमन्यु को लेकर उनके क्वार्टर्स के सामने। घर के मुख्य द्वार को खुला देखकर उनका माथा ठनका। फिर भी बिना दुविधा के वे घर में घुसे। रसोई से किसी के गुनगुनाने की आवाज आ रही थी। सब्जी की छौंक के साथ निकली छींक की आवाज से अभिमन्यु को पता चला कि रसोई में कोई खाना पका रही है। वह लड़की कौन हो सक्ती है, इस बारे में उन्हें अधिक सोचने की जरूरत नहीं पड़ी । वे गुमसुम बैठ गए चारपाई पर। मन में विद्रोह की आग भड़क रही थी । पर वे उसे रूपायित नहीं कर पा रह थे । धीरे- धीरे पलटने लगी थी उनकी अपनी पृथ्वी। रसोई से बहती आ रही मृदुमंद गीतों की लहरें उनके सीने को डिगा नहीं पा रही थीं । बल्कि वे स्वर लहरियाँ विकराल बनती जा रही थीं । सीने के भीतर सहेजा हुआ समूचा विश्वास चरमराने लगा था। काफी दिनों से सफाई न होने के कारण तमाम घर में मकड़ी के जाले फैले हुए थे। अभिमन्यु एकटक निहार रहे थे मकड़ी के जाले में छटपटा रही एक मक्खी को । ठीक उस मक्खी की तरह वे भी प्रभुत्व के वलय में और समय के वृत्त में बंदी होने जा रहे हैं ।
एक दिन पहले क्या थे वे। और आज? ढाल, बरछा और शिरस्त्राण से विभूषित अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह के घूप्प अँधेरे में किसी वातायन विहीन प्रकोष्ठ के भीतर बंदी होने जा रहे हैं वे हमेशा के लिए । उनके होठों के किनारे पर विद्रोह के तमाम शब्द बार-बार उमड़-घुमड़कर अचानक फूटने को हुए। उनके भीतर स्फुरित होने लगा एक मर्मांतक स्वर। वे अपने आप चीख उठे, ना...,उनकी आत्मा की गहराई में चेतना का एक शब्द झंकृत होने लगा । हार-जीत के बिना भवितव्य के उन्हें सिर्फ अनुभूत होने लगे थे चक्रव्यह को पार करके निकल आने के तमाम कौशल।