Chakrapani (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

चक्रपाणि (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

14. चक्रपाणि
काल : १२०० ई०

उस वक्त कन्नौज भारत का सबसे बड़ा और समृद्ध नगर था। उसकेहाट-बाट, चौरास्ते बहुत ही रौनक थे। मिठाइयाँ, सुगन्धि, तेल, पान, आभूषण और कितनी ही दूसरी चीजों के लिए वह सारे भारत में मशहूर था। छै सौ सालों से मौखरि, बैस, प्रतिहार, गहडवार जैसे भारत के अपने समय के सबसे बड़े राजवंशों की राजधानी होने के कारण उसके प्रति एक दूसरी ही तरह की श्रद्धा लोगों में हो आई थी। यही नहीं, जातियों ने उसके नाम पर अपनी शाखाओं के नामकरण कर डाले थे। इसीलिए आज ब्राह्मण, अहीर, कॉदू आदि बहुत-सी जातियों में कान्यकुब्ज ब्राह्मण, कान्यकुब्ज अहीर आदि हैं। कान्यकुब्ज (कन्नौज) के नाम पर लोगों को उसी तरह का ख्याल पैदा हो जाता था, जैसा कि हिंदू धर्म के नाम पर । हर्षवर्द्धन के समय से अब तक दुनिया में बहुत परिवर्तन हो गया था, किन्तु तबसे अब भारतीय दिमाग में भारी कूपमंडूकता आ गई थी।

हर्षवर्द्धन के काल में अरब में एक नया धर्म-इस्लाम-पैदा हुआ था, जिसको उस समय देखकर कौन कह सकता था कि उसके संस्थापक की मृत्यु (६२२ ई०) के सौ साल के भीतर ही वह सिन्ध से स्पेन तक फैल जायेगा। जातियों और राजाओं के नाम पर देश-विजय ही अब तक सुनने में आती थी, अब धर्म के नाम पर देशों की विजय-यात्रा पहले-पहल सुनने में आई । उसने अपने शिकारों को सजग होने का मौका नहीं दिया, और इन्हें एकाएक धर दबाया। सासानियों (ईरानियों) का जबरदस्त साम्राज्य देखते-देखते अरबों के स्पर्श के साथ कागज की नाव की भाँति गल गया, और इस्लाम-संस्थापक की मृत्यु के बाद दो शताब्दियाँ बीतते-बीतते इस्लामी राज्य की ध्वजा पामीर के ऊपर फहराने लगी।

इस्लाम ने पहले सारी दुनिया को अपने अरबी कबीलों का विस्तृत रूप देना चाहा और उसी के साथ कबीलों की सादगी, समानता और भ्रातृभाव को अपने अनुयायियों के भीतर भरना चाहा। इस अवस्था से वैदिक आर्यों के पूर्वज तबसे तीन हजार वर्ष पहले ही गुजर चुके थे। गुजरा युग फिर लौटना असम्भव है। इसलिए जैसे ही इस्लाम कबीलों से आगे की सीढ़ी पर रहने वाले सामन्तशाही मुल्कों के सम्पर्क में आया, वैसे ही उसकी तलवार के सामने इनकी राजनीतिक स्वतंत्रता विलीन हो गई, उसी तरह उनके सम्पर्क में आते ही इस्लामी समाज के कबीलेपन का स्वरूप खत्म हो गया। इस्लाम का प्रधान शासक कितने ही समय तक केवल उसके संस्थापक का खलीफा-उत्तराधिकारी कहा जाता था, चाहे वह वस्तुतः सुल्तान-निरंकुश राजा होता। किन्तु अब तो नाम से भी सुल्तान कहलाने वाले अनेक आ मौजूद हुए, जिन्हें इस्लाम के पवित्र कबीले, उसकी सादगी, समानता, भ्रातृभाव से कोई मतलब न था। लेकिन नए मुल्कों के जीतने में तलवार चलाने वाले सिपाहियों की जरूरत थी और यह तलवार अब अरबी नहीं, गैर-अरबी थी। इन सिपाहियों को सुल्तान के नाम पर लड़ने के लिए उतना उत्साहित नहीं किया जा सकता था, इसीलिए स्वर्ग की न्यामतों के प्रलोभन के साथ पृथ्वी की न्यामतों में उन्हें हिस्सेदार बनाया गया। लूट के माल तथा बन्दियों में उनका हक था, नई जीती भूमि पर बसने का उनका स्वत्व था, अपने पुराने पीड़कों और स्वामियों से मुक्त होने तथा उनका अस्तित्व तक मिटा देने का उनका हक था। पराजितों में से विजेताओं के झंडों को अपना बनाकर आगे बढ़ने वाले इतने सैनिक कभी किसी को नहीं मिले थे। ऐसी सेना से-जो हमारे भीतर से ही अपने लिए लड़ने वाली सेना तैयार कर सके-मुकाबला करना आसान काम न था।

हर्ष को मरे सौ वर्ष भी नहीं गुजरे थे कि सिन्ध इस्लाम के शासन में चला गया। बनारस और सोमनाथ (गुजरात) तक के भारत को इस्लामी तलवार का तजुर्बा हो चुका था। इस नए खतरे से बचने के लिए नए तरीके की जरूरत थी; किन्तु हिन्दू अपने पुराने ढर्रे को छोड़ने के लिए तैयार न थे। सारे देश के लड़ने के लिए तैयार होने की जगह वही मुट्ठी भर राजपूत (पुराने क्षत्रिय तथा शादी-ब्याह करके इनमें शामिल हो जाने वाले शक यवन, गुर्जर आदि) भारत के सैनिक थे, जिन्हें भीतरी दुश्मनों से ही फुर्सत न थी और राजवंशों की नई- पुरानी शत्रुताओं के कारण आखिर तक भी वह आपस में मिलने के लिए तैयार न थे।

1.

"महाराज, चिन्ता न करें। सिद्धगुरु ने ऐसी साधना शुरू की है, जिससे कि तुर्क-सेना हवा में सूखे पत्तों की भाँति उड़ जायेगी।"

"गुरु मित्रपाद (जगन्मित्रानन्द) की मुझ पर कितनी कृपा है ? जब-जब मुझ पर, मेरे परिवार पर, कोई संकट आया, गुरु महाराज ने अपने दिव्य बल से बचाया।"

"महाराज ! सिद्धगुरु ने हिमालय के उस पार भोट देश से कान्यकुब्ज के संकट को देखा। इन्होंने इसीलिए मुझे आपके पास भेजा है।"

"कितनी कृपा है !"

"कहा है, तारिणी (तारादेवी) महाराज की सहायता करेंगी। तुर्को की चिन्ता न करें ।"

"तारामाई पर मुझे पूरा भरोसा है। तारिणी ? आपच्छरण्ये ! माँ, म्लेच्छों से रक्षा कर।"

वृद्ध महाराज जयचन्द्र अपने इन्द्र - भवन के समान राज-प्रासाद में एक कर्पूर-श्वेत कोमल गद्दे पर बैठे हुए थे। उनकी बगल में चार अति सुन्दरी तरुणी रानियाँ बैठी थीं, जिनके गौर मुख पर भ्रमर-से काले केश पीछे की ओर द्वितीय सिर बनाते हुए जूड़े के रूप में बँधे थे। चूड़ामणि, कर्णफूल, अंगद, कंकण, हार, चन्द्रहार, मुक्ताहार, कटिकिंकिणी, नूपुर आदि नाना स्वर्ण-रत्नमय आभूषण उनके शरीर से भी भारी थे। उनके शरीर पर सूक्ष्म साड़ी और कंचुकी थी; किन्तु जान पड़ता था, वे शरीर के गोपन के लिए नहीं, बल्कि सुप्रकाशन के लिए थीं। कंचुकी स्तनों के उभार और अरुणिमा को सुन्दर रीति से दिखलाती थीं। इससे नीचे सारा उदर नाभि तक अनाच्छादित था। सारी उरु और पेंडुली की आकृति और वर्ण को झलकती थीं। उनके केशों के सुगन्धित तैल और नवपुष्पित यूथिका (जूही) स्रज् के कारण सारी शाला गम-गम कर रही थी। रानियों के अतिरिक्त पचास से अधिक तरुणी परिचारिकाएँ थीं, जिनमें कोई चँवर, मोर्छल या व्यजन (पंखे) झल रही थीं; कोई पीकदान लिये, कोई दर्पण और कंघी लिये; कोई सुगन्धित जल की झारी लिये, कोई काँच के सुराभांड और कनक-चषक लिये, कोई साँप के केंचुली की तरह शुभ्र निर्मल अंगपोंछन लिये खड़ी थीं। कितनी ही मृदंग, मुरज, वीणा, वेणु आदि नाना वाद्यों को लिए बैठी थीं और कुछ जहाँ-तहाँ स्वर्ण-दण्ड लिए खड़ी या टहल रही थीं। सिवाय आगन्तुक मित्रपाद के शिष्य शुभाकर भिक्षु और राजा जयचन्द्र के वहाँ सभी रानियाँ थीं, सभी तरुण-वयस्क सुन्दरियाँ थीं ।

भिक्षु ने महाराज से विदाई ली। रानियाँ और राजा ने खड़े होकर अभिवादन किया। अब यहाँ नारीमय जगत् था। जयचन्द्र वृद्ध थे; किन्तु उनके अर्द्धश्वेत लम्बे -लम्बे केश बीच में माँग निकाल पीछे की ओर जिस प्रकार बाँधे हुए (द्विफालबद्ध) थे, बड़ी-बड़ी मूंछे जिस प्रकार सँवारी हुई थीं, उनके शरीर के आभूषणों और वस्त्रों की जिस प्रकार सज्जा थी, उससे पता चलता था कि वह यौवन को अनवसित (असमाप्त) समझते थे। उनके इशारे पर चषक को एक परिचारिका ने झुककर महाराज के सामने किया और रानी ने ले, भरे प्याले को महाराज के सामने पहुँचाया। उन्होंने उसे रानी के ओंठ से लगाकर कहा-"राजल्ल (राजलक्ष्मी), मेरी तारा, तुम्हारे उच्छिष्ट किए बिना मैं कैसे इसे पान कर सकता हूँ ?"

रानी ने ओंठों और जीभ की नोक को भिगो लिया। राजा ने उस प्रसाद को पान किया। फिर उनकी एक-एक ताराओं ने उन्हें प्रसाद प्रदान दिया। आँखों में लाली आई । तुरुक (तुर्क)-चिंता चेहरे से दूर हो मुस्कराहट आने लगी। राजा का स्थूल शरीर मसनद के सहारे ओठंग गया, और उसने किसी रानी को एक बगल में किसी को दूसरी बगल में दबाया, किसी की गोद में सिर को रखा और किसी के वक्षस्थल पर भुजाओं को। सुरा के प्याले बीच-बीच में चल रहे थे। रानियों के साथ कामोत्तेजक परिहास हो रहे थे। राजा ने इसी समय नाचने की आज्ञा दी। घाघरा पहने, घुंघरू बाँधे, विल्वस्तनी, अनुदरा, विकट नितम्बा सुंदरियाँ नाचने के लिए खड़ी हुईं। वीणा और मृदंग ध्वनित होने लगे। काकली गान के साथ नृत्य शुरू हुआ। एक गान के बाद राजा को वह फीका लगने लगा। उसने सुन्दरियों को नग्न हो नाचने की आज्ञा दी। नर्तकियों ने सारे वस्त्र और सारे आभूषण उतार दिये। सिर्फ पादकिंकिणी भर रखी।पार्श्र्व में बैठी रानियों और तरुणी परिचारिकाओं के साथ आलिंगन, चुम्बन और परिहास चलता रहा। बीच-बीच में नग्न नर्तन होता रहा। जिसका नग्न शरीर, महाराज को आकर्षित करता, वह उनके पास आ जाती और फिर दूसरी नग्न हो उसका स्थान ग्रहण करती। महाराज की आँखें और लाल हो गई थीं। उनके कंठ और स्वर पर भी सुरा ने प्रभाव डाला था-'ध-धत्-त्-ते -रेतु-तुर्-र्-कों --क-म् - मे- रेइ-इन्-न्द्र-पु-में-कौ - वौ-न-सा-J-ला- आ-ा--ता-है। स् - सब्-न्-नंगी ना-ा- चे ।'

शाला की सारी रानियों ने अपने-अपने कपड़ों और आभूषणों को उतार दिया। उनके तरुण सुन्दर और गौर शरीर पर घनस्थूल कबरी (जूड़ा) से भारी हुआ सिर राजा को पसन्द नहीं आया। उसने कबरी को खोल देने को कहा, और सभी सिरों से काली नागिनों की भाँति दीर्घ वेणियाँ नितम्बों पर लटकने लगीं। महाराज को स्वयं कंचुक उतारते देख तरुणियों ने उनके वस्त्रों और आभूषणों को भी उतारा। उनके माँस लटके चिबुक, अतिफुल्ल कपोल, गंगाजमुनी मूंछे, प्रसूता की तरह के लम्बित स्तनों, महाकुम्भ- सा उदर, पृथुल कोमल माँस-मेदपूर्ण उरू तथा पेंडुली, रोमस स्थूल बाहुओं को देखकर साधारण तरुणी भी अवज्ञा किये बिना नहीं रहती; किन्तु यहाँ उनका शरीर- प्राण इस बूढे के हाथ था। कोई उनके दन्त रहित ओंठों में अपने ओंठों को दे रही थी, कोई उनके पार्श्र्वो से अपने स्तनों को पीड़ित कर रही थी, कोई उनकी रोमश भुजाओं को अपने कन्धों और कपोलों से लगा रही थी। कामोत्तेजक गीत के साथ नृत्य शुरू हुआ। रानियों और परिचारिकाओं के बीच अपनी उछलती तोंद लिए महाराज भी नाचने लगे।

2.

"आइये कवि चक्रवर्ती !” कह राजा ने अधेड़ पुरुष के लिए आसन की ओर संकेत किया, और बैठ जाने पर पान के दो बीड़े बड़े सम्मान के साथ प्रदान किये। कवि चक्रवर्ती की आयु पचास से ऊपर थी। उनके गौर भव्य चेहरे पर तब भी उजड़े वसन्त की छाप थी। उनकी मूंछे अब भी काली थीं। उनके शरीर पर सफेद धोती और सफेद चादर के अतिरिक्त रुद्राक्ष की एक सुन्दर माला तथा सिर पर भस्म का चंद्राकार त्रिपुण्ड था।

कवि ने सुवासित सुवर्णपत्र-वेष्टित पान मुंह में रखते हुए कहा- "देव ! यात्रा क्षेम से तो हुई ? शरीर स्वस्थ तो था ? रातें सुख की नींद तो लाती हैं न?"

"अब पौरुष थकता जा रहा है, कवि- पुंगव !"

"महाराज ! आप अपने कवि श्रीहर्ष का खूब उपहास करते हैं।"

"पुंगव उपहास नही, प्रशंसा का शब्द है।"

"पुंगव बैल को कहते हैं, देव।"

"जानता हूँ, साथ ही श्रेष्ठ को भी कहते हैं।"

"मैं तो इसे बैल के अर्थ में ही लेता हूँ।"

"और मैं श्रेष्ठ के अर्थ में। फिर कवि मित्र ! तुम्हारे जैसे नर्म सचिव (लंगोटिया यार से) उपहास-परिहास नहीं किया जाय, तो किससे किया जाय ?"

"दरबार में तो नहीं, महाराज ! श्री हर्ष ने धीरे से कहा।"

जयचन्द्र कवि का हाथ पकड़ आस्थानशाला (दरबार हाल) से निकल क्रीड़ोद्यान की ओर चल पड़े। ग्रीष्म का प्रारम्भ था। हरे-हरे वृक्षों को धीरे-धीरे कंपित करने वाला समीर बड़ा सुहावना मालूम हो रहा था। राजा ने दीर्घिका (पुष्करिणी) के सोपान के ऊपर रखे शुभ्र मर्मरशिलासन पर बैठ बगल के आसन- पर कवि को बैठने के लिए कहा और फिर बात शुरू की-

"तुम रात की क्या पूछते हो, कवि ! अब तो मैं अनुभव करने लगा हूँ कि मैं दरअसल बूढ़ा हूँ।"

"कैसे ?"

"नग्न सुन्दरियाँ भी मेरे काम को नहीं जगा सकतीं ।"

"तब तो महाराज ! आप पूरे योगी हैं।"

"इस योगी के पास की यह सोलह हजार सुन्दरियाँ क्या करेंगी ?"

"बाँट दें, महाराज ! बहुत से लेने वाले मिल जायेंगे, या ब्राह्मणों को गंगातट पर जलकुश ले दान दें, "सर्वेषामेव दानानां भार्यादानं विशिष्यते।"

"वही करना पड़ेगा। वैद्यराज चक्रपाणि का बाजीकरण-रस तो निष्फल ही गया। अब सिर्फ तुम्हारे काव्यरस की एकमात्र आशा है।"

"नग्न सौन्दर्य-रस जहाँ कुंठित हो, वहाँ काव्य-रस क्या करेगा ? और अब फिर महाराज ! आप साठ साल के ऊपर के हो गए हैं!"

"साठा तो पाठा होता है, कवि !"

"कौन ? क्या सोलह सहस्र कलोरियों का चिरविहारी वृषभ !"

"तुम काशी (बनारस) में दिखलाई नहीं दिए, मुझे कन्नौज से आये दो मास बीत गये।"

"महाराज ! मैं चैत्र नवरात्र में भगवती विन्ध्यवासिनी के चरणों में गया था।"

"मेरी नाव विन्ध्यवासिनी के धाम से ही गुजरी । जानता तो बुला लेता।"

"या वहीं उतर कर कुमारी-पूजा में व्यस्त हो जाते ।"

"तो कवि ! कुमारी-पूजा के ही लिए तो तुम वहाँ नहीं गए थे।

"हम भगवती के उपासक शाक्त हैं, महाराज !"

"लेकिन तुम राम-सीता की वन्दना करते हो, तो मालूम होता है कि पक्के वैष्णव हो ?"

"अन्तः शाक्ता बहिश्शैवाः सभामध्ये च वैष्णवाः।"

"सभामध्ये वैष्णव हो ?"

"होना ही पड़ता है, महाराज ! हम आपकी तरह दूसरे की जीभ थोड़े ही खिंचवा सकते हैं ?"

"धन्य हो नाना रूपधर !"

"महाराज ! इतना ही नहीं, मैने सुगत (बुद्ध) को भी अपनी आराधना में शामिल कर लिया है।"

"सुगत, भगवान् तथागत को भी ?"

"भगवान् !"

"हाँ, छिः नाम आने पर इस स्थान में मेरी आँखों में भी जरा लज्जा आने लगती है।"

"वज्रयान ने महाराज ! हम शाक्तों के लिए सुगत की पूजा सरल कर दी है।"

"ठीक कहा, मित्र ! इसीलिए तो उसे सहजयान कहते हैं।"

"इन सहजयानी सिद्धों के दोहों और गीतों में मुझे कोई कवित्व तो नहीं दिखलाई पड़ता; किन्तु पंचमकार (मद्य, माँस, मीन, मुद्रा, मैथुन) का प्रचार कर जितना लोक-कल्याण इन्होंने किया है, उसके लिए मैं बहुत कृतज्ञ हूँ।"

"किन्तु, अब मेरे लिए, जान पड़ता है, अखंड पंचमकार की उपासना दुष्कर होगी।"

"वज्रयान के साथ नागार्जुन का माध्यमिक दर्शन क्या सोने में सुगन्धि है।"

"तुम्हारे काव्य का रस तो मैं चख लेता हूँ, यद्यपि कहीं-कहीं उसमें भी माथा चकराता है, किन्तु यह दर्शन तो पत्थर की तरह मेरे सिर पर बोझा बन जाता है।"

"तो भी महाराज ! नागार्जुन का दर्शन बड़े काम का है। वह बहुत-सी मिथ्या धारणाओं को दूर कर देता है।"

"लेकिन तुम तो वेदान्ती प्रसिद्ध हो, कवि !"

"मैंने अपने ग्रन्थ को वेदान्त कहकर ही प्रसिद्ध किया है, महाराज! किन्तु, 'खंडन-खंड-खाद्य' में नागार्जुन की चरण-धूलि को ही सर्वत्र वितरित किया है।"

"याद तो रहने का नहीं, फिर भी बतलाओ, नागार्जुन में क्या खास बात है?"

"सिद्धराज मित्रपाद नागार्जुन के ही दर्शन को मानते हैं।"

"मेरे दीक्षा गुरू ?"

"हाँ, नागार्जुन कहते हैं-पाप-पुण्य, आचार-दुराचार सभी कल्पनाएँ हैं। जगत् की सत्ता -असत्ता कुछ भी नहीं की जा सकती, स्वर्ग-नरक और बन्धन-मोक्ष बालकों के भ्रम हैं। पूजा-उपासना पामरों की वंचना के लिए हैं। देव-देवी की लोकोत्तर कल्पना मिथ्या है।" ।

"जीवन तो मैंने भी इसी दर्शन में बिताया है, कवि !"

"सभी बिताते हैं, महाराज ! नकद छोड़ उधार के पीछे मूर्ख दौड़ते हैं। लेकिन अब तो नकद को सामने रखकर टुकुर-टुकुर ताकना है, मित्र ! पर तुम तो अभी घिसते नहीं मालूम होते।"

"मैं आठ वर्ष छोटा भी तो हूँ, महाराज ! फिर मैंने एक ब्राह्मणी से ज्यादा ब्याह नहीं किये।"

"ब्याह करने से क्या होता है ? इतने ब्याह करने पर तो भरों का ही आदमी थककर मर जाय।"

"मेरे घर में एक ही ब्राह्मणी है, महाराज !"

"और दुनिया विश्वास कर लेगी कि कवि श्रीहर्ष उसी दँतटुट्टी बुढ़िया पर सती हो रहा है !"

"विश्वास करेगी, और कर ही रही है, महाराज ! मैंने अपने ग्रन्थों में अपनी समाधि लगा ब्रह्म-साक्षात्कार की बात भी लिख दी है।" "तुम्हारे माध्यमिक दर्शन में ब्रह्मा और उसके साक्षात्कार की भी गुंजाइश है, कवि !"

"महाराज, वहाँ क्या-क्या गुंजाइश नहीं है।"

"प्रजा की अन्धी आँखें मौजूद रहनी चाहिए, उन्हें सबका साक्षात्कार कराया जा सकता है।"

"तो महाराज, आपका धर्म पर से विश्वास उठ गया है ।"

"इसे मैं नहीं जानता, कवि ! मुझे मालूम ही नहीं पड़ता, किस वक्त विश्वास आता है और किस वक्त चला जाता है। तुम्हारे धर्मात्मा ब्राह्मणों के उपदेशों -आचरणों को सुन-देखकर मेरे लिए कुछ तय करना मुश्किल है। मैं तो यही जानता हूँ कि दान-पुण्य, देवालय-सुगतालय का निर्माण आदि जो कुछ धर्म कहता हो, करो; किन्तु नकद जीवन को हाथ से न जाने दो।"

प्रेम और धर्म से चलकर उनकी बात राज-काज पर आई। श्रीहर्ष ने कहा-"क्या सचमुच महाराज ने पृथ्वीराज का साथ देने से इन्कार कर दिया है ?"

"मुझे क्या जरूरत है उसका साथ देने की ? उसने खुद तूफान से झगड़ा मोल लिया, खुद भुगतेगा।"

"मेरी भी सम्मति यही है, महाराज ! चक्रपाणि झूठमूठ परेशान करता है।"

"उसका काम चिकित्सा करना है, सो उसमें तो कुछ नहीं बन पड़ता। तीन बार बाजीकरण-चिकित्सा की, किन्तु सब निष्फल ! और अब चला राज-काज में सलाह देने ।"

"नहीं महाराज ! वह मूर्ख है। व्यर्थ ही युवराज ने उसे सिर पर चढ़ा रखा है।"

3.

"ठीक कहा वैद्यराज! श्रीहर्ष गहडवारों की जड़ में घुन बनकर लगा है। इसने पिताजी को कामुक और अन्धा बना रखा है।"

"कुमार ! मैं बीस वर्ष से कान्यकुब्जेश्वर का राजवैद्य हूँ मेरी औषधियों का कुछ गुण है।"

"गुण सारी दुनिया जानती है, वैद्यराज।"

"किन्तु महाराज बाजीकरण के सम्बन्ध में नाराज हैं। अतिकामुक पुरुषों की तरुणाई को कितनी देर तक बढ़ाया जा सकता है, कुमार ! इसीलिए आहार-विहार में संयम करने के लिए लिखा गया है। मैं तो कहता हूँ, मुझे मल्लग्राम (मलाँव) में बैठ जाने दीजिए ! लेकिन उसको भी वे नहीं मानते।"

"किन्तु, पिता के दोषों के कारण हमें न छोड़ जाइये, वैद्यराज ! गहडवारों को अब बस आप से ही आशा है।"

"मुझसे नहीं, कुमार हरिश्चन्द्र से । किन्तु अच्छा हुआ होता, यदि गहडवार-वंश में जयचन्द्र की जगह हरिश्चन्द्र होते ! चन्द्रदेव के सिंहासन को हरिश्चन्द्र की जरूरत थी।"

"या श्रीहर्ष की जगह वैद्यराज चक्रपाणि जयचन्द्र के नर्म सचिव होते। किन्तु वैद्यराज ! आपको गहडवार-सूर्य के अस्त होते समय तक हमारे साथ रहना चाहिए।"

"अस्त के साथ अस्त होने के लिए भी मैं तैयार हूँ, कुमार ! पर गहडवारों का सूर्यास्त नहीं होगा, बल्कि हिन्दुओं का सूर्यास्त होगा। हम मल्लगामी ब्राह्मण सिर्फ युवा और प्रोक्षणी के ही धनी नहीं, बल्कि तलवार के भी धनी हैं। इसीलिए हम भी तुर्कों से युद्ध करना चाहते हैं, कुमार !"

"और मेरे पिता खुद अपने जामाता को सहायता देने के लिए तैयार नहीं। पृथ्वीराज मेरा अपना बहनोई है, वैद्यराज ! संयुक्ता का उससे प्रेम था, वह उसके साथ अपनी खुशी से गई। इसमें पिता को नाराज होने की क्या जरूरत?"

"पृथ्वीराज वीर है, कुमार !"

"इसमें कोई सन्देह नहीं, वैद्यराज ! वीरता के ही कारण वह तुर्क सुल्तान से लोहा ले रहा है, नहीं तो हमारे कान्यकुब्ज राज्य के सामने उसका राज्य है ही कितना ? वह सुल्तान को यदि रास्ता भर दे देता, तो सुल्तान उसे पुरस्कृत करता। सुल्तान की आँख दिल्ली पर नहीं, कान्यकुब्ज पर है। छै सौ साल से कन्नौज भारत के सबसे बड़े राज्य पर शासन कर रहा है। किन्तु उन्हें समझाये कौन ? पिता समझने की ताकत खो बैठे हैं।"

"यदि इस वक्त वह शासन-भार युवराज के ही हाथों में दे देते।"

"मुझे एक बार ख्याल आया था, वैद्यराज ! कि पिता को सिंहासन से हटा दें: किन्तु आपकी शिक्षा याद आ गई। बीस वर्षों में आपकी प्रत्येक शिक्षा को मैंने हितकर पाया, इसलिए मैं उसके विरुद्ध नहीं जा सकता।"

"कान्यकुब्ज को सिंहासन जर्जर हो गया है, कुमार ! जरा-सा भी गलत कदम रखने पर सारी इमारत ढह पड़ेगी। यह समय पिता-पुत्र के कलह का नहीं है।"

"क्या किया जाय वैद्यराज ! हमारे सेनापति तथा सेनानायक कायर और अयोग्य हैं। तरुण सेनानायकों में कुछ योग्य और बहादुर हैं; किन्तु उनके रास्तों को बूढे रोके हुए हैं। यही हालत मंत्रियों की है, जो चापलूसी करना भर अपना कर्तव्य समझते हैं।"

"रनिवास में अपनी बहन-बेटी भेजकर जो पद पाते हैं, उनकी यही हालत है। लेकिन बीते की नहीं, हमें आगे की चिन्ता करनी चाहिए।"

"आज मेरे हाथ में होता, तो सारे हिन्दू तरुणों को खड्गधारी बना देता।"

"किन्तु यह पीढ़ियों का दोष है, कुमार ! जिसने सिर्फ राजपुत्रों को ही युद्ध की जिम्मेदारी दे रखी है। द्रोण और कृप जैसे ब्राह्मण महाभारत में लड़े थे; किन्तु पीछे सिर्फ एक जाति को.........."

"मैं समझता हूँ, यह जात-पाँत भी हमारे रास्ते में एक बहुत बड़ी : रुकावट है।"

"रुकावट, कुमार ! यह सबसे बड़ी रुकावट है। पूर्वजों के अच्छे कार्यों का अभिमान दूसरी चीज है, किन्तु हिन्दुओं को हजारों टुकड़ों में सदा के लिए बाँट देना महापाप है।"

"आज इसका फल भोगना पड़ रहा है। काबुल अब हिन्दुओं का न रहा, लाहौर गया और अब दिल्ली की बारी है।"

"आज भी यदि हम पिथौरा के साथ मिलकर लड़ सकते।"

"ओह, कितनी कुफ्त है, वैद्यराज !"

"एक कुफ्त है ? हमारी नाव कुफ्तों के बोझ से डूबी जा रही है; किन्तु हम मोह के मारे एक चीज को भी फेंककर नाव को हल्की करना नहीं चाहते ।"

"धर्म का अर्जीर्ण है, वैद्यराज !"

"धर्म का क्षयरोग ! हमने कितना अत्याचार किया है ? हर साल करोड़ों विधवाओं को आग में जलाया है, स्त्री-पुरुषों को पशुओं की भाँति खरीद-बेच की है, देवालयों और विहारों में सोना-चाँदी तथा हीरा-मोती के ढेर लगाकर म्लेच्छ लुटेरों को निमंत्रण दिया है और शत्रु से मिलकर मुकाबले के समय फूट में पड़े हैं। अपनी इन्द्रिय-लम्पटता के लिए प्रजा की पसीने की कमाई को बेदर्दी से बरबाद करते हैं।"

"लम्पटता नहीं, पागलपन, वैद्यराज ! अपनी इच्छा की एक सहृदया स्त्री भी काम-सुख के लिए पर्याप्त है और इन्द्रिय के पागलपन के लिए पचास हजार भी कछ नहीं। वहाँ प्रेम हर्गिज नहीं हो सकता। मेरे पिता ने जब पिछली संक्रान्ति के दिन अपने रनिवास की स्त्रियों में से बहुतों को ब्राह्मणों को दान दिया, तो वे रोती नहीं थीं, भीतर से बहुत खुश थीं। मेरी भामा यह कह रही थी।"

"दान लेने वाले ब्राह्मण के घर ज्यादा से ज्यादा एक या दो सौतिनें होंगी, कुमार ! वहाँ सोलह सहस्र की भीड़ तो न होगी। और मैं तो इसे भी दासता समझता हूँ। स्त्री क्या सम्पत्ति है कि इसकी दान दिया जाय ?"

"हमें भी कोशिश करनी चाहिए कि हम मिलकर तुर्को का मुकाबला करें।"

"यह तो महाराज के हाथ में है। पाखंडी श्रीहर्ष उनके कान में लगा हुआ है।”

4.

अष्टमी की रात थी। चाँद अभी-अभी पूरब के क्षितिज पर उगने लगा था। अभी सारी भूमि को प्रकाशित होने में देर थी। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था, जिसमें बहुत दूर कहीं उल्लू की डरावनी आवाज सुनाई दे रही थी। इस नीरवता में दो आदमी ऊपर से आकर यमुना की अँगनाई में तेजी से उतर गए। उन्होंने अँगुलियों को मुंह में डाल तीन बार सीटी बजाई । यमुना की परली ओर से एक नाव आती दिखलाई पड़ी। नीरव चलती नदी में धीरे-धीरे थापी चलाती एक मझोली नाव किनारे पर आ लगी। दोनों आदमी धीरे से नाव पर कूद गये। भीतर से किसी ने पूछा-"सेनानायक माधव !"

"हाँ आचार्य ! और आल्हण भी मेरे साथ आया है। कुमार कैसे हैं?"

"हाँ, अभी तक तो होश नहीं आया है; किन्तु इसके लिए मैंने थोड़ी-सी दवा भी दे दी है; कहीं कुमार रणक्षेत्र की ओर लौट पड़ते तो?"

"लेकिन आचार्य ! वह आपकी आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं कर सकते।"

"सो तो मुझे विश्वास है; किन्तु फिर भी यह अच्छा ही है। इससे घाव का दर्द भी कम हो जायेगा।"

"घाव खतरनाक तो नहीं है, आचार्य ?"

"नहीं सेनानायक ! घाव को मैंने सी दिया और रक्तस्राव भी बन्द हो गया है। निर्बलता जरूर है; किन्तु और कोई डर नहीं । अच्छा बताओ, तुम क्या कर आए ? महाराज के शव को रनिवास में भेज दिया ?"

"हाँ।"

"तो अब राजान्तःपुर की स्त्रियाँ महाराज को लेकर सती होंगी ?"

"जिनको होना होगा, होंगी।"

"और सेनापति ?"

"बुढा सेनापति तो आखिर में मरते वक्त जाग उठा था। कितने ही सेनानायक पाँसा पलटते देख भाग चले थे; किन्तु उनमें भागने का भी कौशल न था। मुझे आशा नहीं कि उनमें से कोई बचा हो।"

"यही बात यदि तीन वर्ष पहले हुई होती और हरिश्चन्द्र हमारे महाराज तथा माधव तुम कान्यकुब्ज के सेनापति हुए होते!"

लम्बी साँस लेकर माधव ने कहा-"आचार्य ! आपकी एक-एक बात आइने की भाँति झलकती थी। आपने महाराज को बहुत समझाया कि राय पिथौरा से मिलकर तुर्को से मुकाबला किया जाय; किन्तु सब अरण्य-रोदन ही साबित हुआ।"

"अब अफसोस करने से कोई फायदा न होगा। बतलाओ और क्या व्यवस्था की ?"

"पाँच सौ नावें पचास-पचास के गिरोह में सैनिकों से भरी अभी आ रही हैं। गागा, मोगे, सलखू के नायकत्वे में मैंने सेनाओं को बाँटकर आदेश दिया है कि चंदावर (इटावा) से पूरब हटकर तुर्को से लड़े-सीधे कम, छापा मारकर ज्यादा-और परिस्थिति को प्रतिकूल होते देख पूरब की ओर हटते जायें।"

"कन्नौज के राज-प्रसाद......?"

"मैंने वहाँ से जितनी चीजें हटाई जा सकती थीं, हटा दी हैं। गंगा में ही बहुत सी नावें दो दिन पहले ही निकल चुकीं ।"

"मैंने इसीलिए, माधव ! तुम्हें सेनापति की छाया से बचाया था। उसने अपने से पहले ही तुम्हें मरवा दिया होता। तुमको और कुमार को बचा देखकर मुझे सन्तोष है। अभी हिन्दुओं के लिए कुछ आशा है। कुछ भी हो, अन्तिम समय तक हमें अपनी शक्ति में से एक-एक रत्ती को सोच-समझ कर व्यय करना होगा।"

"दूसरी नावें आती मालूम होती हैं, आचार्य ।"

"सेनानायक आल्हण ! उनके आते ही सब नावों को यहाँ से चलने का आदेश कर देना।"

"बहुत अच्छा, आचार्य !"-आल्हण ने नम्र स्वर में कहा।

"अच्छा चलो माधव ! नीचे कोठरी में चलो। किन्तु वहाँ अँधेरा है ? मैंने जान-बूझकर वहाँ से दीपक बुझा दिये।" कुछ आगे बढ़कर-"जरा ठहरो। राधे !"

"बाबा !" -एक तरुण स्त्री-कंठ से आवाज आई।"

"चकमक से दीपक जलाओ। लोहा यत्न से रखा है न ?"

"अच्छा।"

"फिर माधव की ओर फिरकर वे बोले-"भाई ! कोई वैद्यराज कहे कोई आचार्य, कोई बाबा ! यह सब याद रखना मेरे लिए मुश्किल होगा।....... तुम सब मेरे बचपन के नाम ‘चक्कू से मुझे पुकारा करो।"

"नहीं, स्त्रियों की आदत बदलनी मुश्किल है, इसलिए हम सब आपको बाबा चक्रपाणि पांडेय की जगह बाबा कहेंगे।"

"अच्छा, चलो। दीपक जल गया।"

दोनों सीढ़ियों से नीचे उतरे। नाव का दो-तिहाई भाग पटा हुआ था, जिसके नीचे एक के पीछे एक दो छोटी कोठरियाँ थीं। एक ओर नाव में खाली जगह थी। दोनों एक कोठरी के भीतर घुसे। वहाँ दीपक की पीली रोशनी में एक चारपाई दिखलाई पड़ती थी, जिसके ऊपर कंठ तक सफेद दुशाले से ढंका कोई सो रहा था। चारपाई की बगल में रखी एक मचिया से कोई तन्वी उठी। चक्रपाणि ने कहा-"भाभी ! कुमार हिले-डुले तो नहीं ?"

"नहीं बाबा ! उनका श्वास वैसे ही एक-सा चल रहा है।"

"घबरा तो नहीं रही हो, बेटी ?"

"चक्रपाणि की छत्र-छाया में घबराना ? कहीं गहडवार-वंश ने पहले पहचाना होता अपने गुरु द्रोण को !"

"यह हमारे सेनापति परम सहायक महाराजाधिराज हरिश्चन्द्र के सेनापति माधव आ गए।"

"महादेवी भामा, आपका सेवक माधव सेवा में उपस्थित है।" -कह, माधव ने अभिवादन किया।

"मैं अपने माधव से अपरिचित नहीं हूँ। कुमार के साथ पांसु-क्रीड़ा करने वाले क्या कभी मुझे भूल सकते हैं ?"

"और जिसकी भुजाएँ, भामा गहडवार-वंश की धूलि-कुंठित लक्ष्मी को, फिर से उठा लाने के लिए शक्ति रखती हैं ?"

"बाबा ! तुम्हारे मुँह से भामा कहलांना कितना प्रिय लगता है !"

"पिता याद आते होंगे, पुत्री !"

"नहीं बाबा ! हमें राजकुल में दूसरी ही हवा बहानी होगी। ओह, कितनी बनावट, कितनी ढोंग है यहाँ ? हमें मनुष्य में सीधा-सादा सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए। पुराने राजकुल को पिता (श्वसुर) भट्टारक के साथ जाने देना चाहिए।"

"गया पुत्री ! वह तो बहुत देर से गया। क्या तुमने कुमार के अन्तःपुर को देखा है ?"

आँखों से आँसुओं को पोंछते हुए भामा ने कहा-"बाबा ! आपने हमें फिर मनुष्य बना दिया।"

"नहीं पुत्री ! यदि कुमार हरिश्चन्द्र की जगह कोई दूसरा होता, तो मैं सिर्फ पानी पीटता रहता। यह सब कुछ कुमार हरिश्चन्द्र ......."

"बाबा !"

"सबने कुमार की अधखुली आँखों को देखा। भामा उनके पास दौड़ गई और बोली- "मेरे चन्द्र ! राह के मुँह से निकले चन्द्र!"

"हाँ, मेरी भामा ! लेकिन मैं तो अभी बाबा की आवाज सुन रहा था।"

"बाबा !"

"वह बाबा नहीं जिसने गहडवारों के सूर्य को डुबाया; इस बाबा को, जिसे तुम बाबा कहती हो और जिसे मैं भी बाबा कहूँगा।"

चक्रपाणि ने दीपक की रोशनी में कुमार के पीले तरुण चेहरे को देख ललाट पर हाथ फेरते हुए कहा-"कुमार ! तबियत कैसी है ?"

"तबियत ऐसी है; मालूम होता है जैसे मैं युद्धक्षेत्र से घायल होकर नहीं लौटा हूँ।"

"धाव बुरा था, कुमार !"

"होगा, किन्तु मेरा पीयूषपाणि बाबा जो पास था।"

"थोड़ा कम बोलो, कुमार !"

"हरिश्चन्द्र के लिए बाबा चक्रपाणि के मुँह से निकला एक-एक अक्षर ब्रह्मवाक्य है।"

"लेकिन ऐसा हरिश्चन्द्र चक्रपाणि के किसी काम का न होगा !"

"बाबा ! यह हरिश्चन्द्र की श्रद्धा की बात है, और जहाँ मेधा की बात है, वहाँ हरिश्चन्द्र ब्रह्मा के वाक्य को भी बिना कसौटी पर कसे नहीं मान सकता।”

"कुमार ! तुम्हें पाकर गहडवार-वंश नहीं, हिन्दू-देश धन्य है।"

"बाबा चक्रपाणि को पाकर-जरा पानी।"

भामा ने तुरन्त गिलास में पानी भरकर देया। बाबा ने नाव को चलते जानकर कहा- "हम बनारस चल रहे हैं, कुमार !- द्वितीय राजधानी को। सेनापति माधव ने सेना के लिए आदेश दे दिया है। सेना इधर तुर्कों को रोकेगी; उधर हम बनारस में गहडवार-राजलक्ष्मी के लिए सैनिक तैयार करेंगे।"

"नहीं बाबा ! जैसा आप दूसरे समय कहा करते थे, उसी हिन्दू-राजलक्ष्मी को लौटाने की तैयारी करें। अब यह लौटी राजलक्ष्मी

हिन्दू-राजलक्ष्मी होगी। इसे हिन्दू भुज-बल से जीतकर लौटाना होगा।"

"चण्डाल और ब्राह्मण को भेद मिटाकर ।”

"हाँ मेरे गुरुद्रोण !"

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