चाह दर चाह (कहानी) : मुहम्मद मंशा याद
Chaah Dar Chaah (Story in Hindi) : Muhammad Mansha Yaad
वो दोनों सयाहत की ख़ातिर इस्लामाबाद से बीजिंग जा रहे थे।-
रात का वक़्त था। उसका साथी अली और तक़रीबन सभी मुसाफ़िर सो रहे थे सिर्फ़ वो अकेला जाग रहा था।
वो पूरी दुनिया घूम चुका था मगर उसे हवाई सफ़र में, ख़्वाह वह कितना ही तवील क्यों न होता नींद नहीं आती थी। उसकी वजह महज़ हवाई जहाज़ के सफ़र का ख़ौफ़ नहीं था बल्कि वो उसे ज़मीनी सवारियों, बसों वैगनों और फ्लाइंग कोचेज़ के मुक़ाबले में, जो ड्राईवरों की हमाक़त, ज़िद या लालच की वजह से आए रोज़ हादिसात का शिकार होती रहती हैं, महफ़ूज़ तरीन ज़रिया-ए-सफ़र समझता था मगर उसके बावजूद उसे नींद नहीं आती थी और ज़मीन पर दौड़ने वाली ख़तरनाक सवारियों में सफ़र करते हुए उसे गुच्छों के गुच्छे और टोकरे भर भर के नींद आती। जैसे नन्हे बच्चों को पँगोड़े में। उधर बस, वैगन या रेलगाड़ी रवाना होती इधर उसे नींद आ दबोचती। तालिब इल्मी के ज़माने में वो मौसम-ए-गर्मा की ता'तीलात के दौरान में इतवार को अक्सर सिनेमा देखने गांव से शहर चला जाता और आते-जाते, किताब या रिसाला पढ़ते पढ़ते लारी में सो जाता और बा'ज़-औक़ात उसके गांव का स्टॉप पीछे रह जाता और उसे किसी दूसरी बस या टांगे से वापस आना पड़ता।
अब ये तो कोई माहिर-ए-नफ़सियात ही बता सकता है कि बच्चों को पँगोड़े और झूले में डाल कर झोंक देते हैं तो वो क्यों जल्दी सो जाते हैं और बड़ों को भागती और शोर मचाती सवारियों में इतनी नींद क्यों आती है। रेल गाड़ी में तो उसे बहुत ही नींद आती। जूंही वो शाहदरा या चकलाला से निकलती उसकी आँखें बंद। ये फ़र्राटे भरने लगती और वो ख़र्राटे। घर में ज़रा सी आहट या खटके से आँख खुल जाती मगर रेल गाड़ी की मुसलसल खट खट और हिचकोले उसे थपकियाँ दे देकर सुलाते। इंजन की करख़्त सी कूक और गार्ड की तेज़ विसिल उसे मीठी लोरी मालूम होतीं। चंदा के हिंडोले में, उड़न खटोले में। मगर ये अजीब सा ख़ुमार होता कि वो सोता भी रहता और उसे रास्ते के स्टेशनों और स्टापों का भी पता चलता रहता और हॉकरों, ख़्वांचे वालों और भिकारियों की आवाज़ें भी सुनाई देती रहतीं जिनके अलफ़ाज़ कसरत-ए-इस्तिमाल से पूरी तरह समझ में न आते। और ये अंदाज़ा भी होता रहता कि कब इंजन ने गाड़ी को झंजोड़ा और कूक मारी। बल्कि नींद और रेल गाड़ी में एक ऐसा ताल्लुक़ सा पैदा हो गया था कि जब कभी घर में भी नींद का वक़्त गुज़र जाता या सताने वाले किसी ख़्याल की वजह से नींद उचट जाती तो वो आँखें बंद कर के फ़र्ज़ कर लेता कि आरामदेह बिस्तर पर नहीं रेल-गाड़ी के सख़्त फटे पर लेटा हुआ है और उसकी ये तरकीब अक्सर कारगर साबित होती और वो ख़र्राटे लेने लगता।
आधी से ज़्यादा रात बीत चुकी थी और हर पल सिकुड़ती जा रही थी क्योंकि वो उजाले की सिम्त सफ़र कर रहे थे। बड़े जहाज़ को टीवी स्क्रीन पर एक छोटा जहाज़ हिमालया की बर्फ़ानी चोटियों पर परवाज़ करता लम्हा बह लम्हा सह्र के क़रीब-तर होता जा रहा था मगर अभी घुप अंधेरा था। बर्फ़ से ढके हुए पहाड़ी सिलसिलों के दरमियान कहीं कहीं कोई इक्का दुक्का चिराग़ टिमटिमाता नज़र आता तो वो इन्सानी जद्द-ओ-जहद और जुस्तजू के बारे में सोचने लगता कि दुश्वार-गुज़ार पहाड़ों, बेपायाँ समुंद्रों और लक-ओ-दक़ सहराओं में इन्सानी क़दम कहाँ कहाँ नहीं पहुंचे। फिर उसे अव्वलीन दौर के इन्सानों का ख़्याल आने लगा, वो इस तारीक, वीरान और ख़तरात से पुर ज़मीन पर कैसे ज़िंदगी बसर करते होंगे और उसके जद-ए-अमजद की क्या शक्ल-ओ-सूरत और हुलिया होगा?
फिर पौ फटी और फटती ही चली गई। उसे यूं लगा जैसे लट्ठे के कायनाती साइज़ के थान को दोनों किनारों से पकड़ कर दरमियान से काटा जा रहा हो। उसने ज़िंदगी में कई बार रात को सुबह, आमिरीयत को जमहूरीयत और ज़ुल्मत को रोशनी में तबदील होते देखा था।लेकिन इतनी ख़ूबसूरत, उजली और तवील सुबह तूलूअ होते हुए शायद ही पहले कभी देखी हो। उसे लगा जैसे अब तक वो उजाले का इस्तिक़बाल करता आया था मगर आज उजाला उसका इंतिज़ार कर रहा था।
निहायत अजीब और दिलकश मंज़र था। ज़मीन पर वादीयों में अभी रात थी मगर पहाड़ी चोटियों पर बर्फ़ मुस्कुरा रही थी और ऊपर आसमान रोशन था। जहाज़ के पर अब साफ़ नज़र आने लगे थे और फ़िज़ा में जगह जगह धुनकी हुई रुई के मानिंद बादलों की बस्तीयां दिखाई देने लगी थीं जो लम्हा ब लम्हा ज़्यादा उजली और सफ़ेद होती जा रही थीं। वो उन बस्तीयों के नाम सोचने लगा। पेंगपुरा, ख़ुमार कोट, नींद नगर, ख़ाब गढ़, सपनों का गांव, नूर आबाद वग़ैरा।
फिर इन नुक़रई बादल बस्तीयों के गिर्द सोने की फ़सीलें तामीर होने लगीं। उसे कहीं आसमानों से गीता राय की आवाज़ सुनाई दी।धरती से दूर गोरे बादलों के पार आ जा। आ जा बसा लें नया संसार आ जा। गीत ख़त्म होता तो वो ज़ेह्न के रिकार्ड प्लेयर पर उसे फिर नए सिरे से लगा देता। यूँही कई हज़ार मीलों तक वो मुतवातिर एक ही गीत बार-बार सुनता रहा।
फिर उसने अपनी याद दाशतों का वो फोल्डर खोला, जिसकी एक फाईल में उसने अपने हिस्से की मौऊ'दा हूरों को ज़मीनी क़िस्से सुनाने के लिए अपने नोटिस महफ़ूज़ किए हुए थे। उसका ख़्याल था वो लाखों बरस तक अर्श के मुक़द्दस माहौल में रहते और पार्साई की बेरंग ज़िंदगी गुज़ारते गुज़ारते उकता गई होंगी और ज़मीनी क़िस्से उन्हें बहुत दिलचस्प और अछूते मालूम होंगे। इस फोल्डर में कई मनाज़िर बंद थे।
पहला मंज़र। गर्मीयों की एक दोपहर का, जब वो बाईस्कल पर स्कूल से लौट रहा था और वो ख़रबूज़ों के खेत की रखवाली करते अपने बाप को दोपहर की रोटी देने जा रही थी कि वो दोनों एक बगोले की लपेट में आकर टकरा गए थे। बटहते हुए खाल में गिर कर उनके कपड़े गीले हो गए। वो बाहर के बगूले से तो बच निकला था मगर उसके बदन के छोटे छोटे बगूलों से, जो भीगने से नुमायां तर हो गए थे न बच सका और हमेशा के लिए उसकी नीलगूं आँखों में डूब गया। और अगरचे किताबें भीग गईं, खाना ख़राब हो गया और कपड़े मिट्टी से लत-पत हो गए थे मगर वो उसके मुँह पर लगी कीचड़ देखकर बे-इख़्तियार हँसे जा रही थी।
दूसरा मंज़र। कच्चे आमों की रुत थी। उस रोज़ आंधी के साथ बारिश आई और रात-भर बाद-ओ-बाराँ का सिलसिला जारी रहा। बारिश और आंधी से गिर जाने वाली कैरियां चुनने और ले जाने पर कोई पाबंदी न थी। उसका घर गांव के दूसरे सिरे पर और आम गुज़रगाह से हट कर था इसलिए वहां जाने का कोई मौक़ा या बहाना नहीं मिलता था। वो जानता था उसे कैरियां पसंद हैं और वो अली उल-सुबह आमों वाले बाग़ में ज़रूर जाएगी। वो मुँह-अँधेरे उठकर पहुंचा तो वो दूसरी कई लड़कियों के साथ सच-मुच वहां मौजूद थी। जल्दी जाग जाने की वजह से उसके चेहरे पर नींद का अजीब सा ख़ुमार था। ठंडी और तेज़ हवा चल रही थी और उसके सूखे स्याह बाल उड़ रहे थे। जिन्हें वो बार-बार पेशानी से झटकती समेटती मगर वो बार-बार उसके चेहरे को ढाँप लेते।
तीसरा मंज़र। उसके पड़ोस में उसकी एक सहेली का ब्याह था। वो रात को वहां आ जाती और देर तक सहेलियों के साथ शादी के गीत गाती रहती। वो भी बेक़रारी से उक़बी गली में रात रात-भर टहलता और उसकी आवाज़ सुनता रहता। उसकी आवाज़ बहुत अच्छी थी और उसे गीत भी बहुत याद थे। ख़ुद भी घड़ लेती थी। माहिए के बोल घड़ने में तो उसे बहुत ही महारत थी। एक रात वो किसी बहाने छत पर आई और मुंडेर पर बैठ कर देर तक बातें करती रही। फिर पता नहीं उसके जी में क्या आई कि उसने दस बारह फुट ऊंची छत से गली में छलांग लगा दी और अगरचे वो उसके बाद कई रोज़ तक लंगड़ा कर चलती रही थी और उसे उसके इस वालेहाना-पन से ख़ौफ़ भी आया था मगर वो मंज़र उसकी याददाश्त का हिस्सा बन गया था।
आहिस्ता-आहिस्ता बादलों के गर्द कार-ए-ज़रगरी तमाम हो गया। नीचे वादीयां, बस्तीयां और दरख़्तों के झुण्ड नज़र आने लगे। दूरी और बुलंदी की वजह से हिमालया के उबलते चश्मे तो दिखाई नहीं दे रहे थे लेकिन कहीं कहीं किसी पहाड़ी या मैदानी घर से उठने वाले धुंए से मालूम हो रहा था चीनी जाग उठे हैं। पहाड़ी ढलवानों पर सब्ज़े के क़ालीन बिछे थे और काले बादल उमडे हुए थे। अगरचे इतनी दूर से कुछ दिखाई न देता था मगर वो तसव्वुर तो कर सकता था, हरे-भरे जंगलों में बुलंद और घने, तरह तरह के फलों से लदे अश्जार का, जिनके दरमियान तोतों, मैनाओं और कोयलों की चहकारें गूंज रही होंगी। फ़िज़ा में तितलियाँ भटकती और चिड़ियां उड़ती फुर्ती होंगी। अबाबीलों की डारें एक दम तेज़ी से नीचे को जाती फिर उसी तेज़ी से वापस पलटती होंगी और नसीम-ए- सहरी के चलने से दरख़्तों के पत्ते और टहनियां आहिस्ता-आहिस्ता झूले झूलती होंगी मगर ज़ेह्न की फ़्लॉपी में हूरों के लिए ये मंज़र महफ़ूज़ करते हुए उसे ताम्मुल हुआ कि कहीं वो नेक-बख़्त ये न कह दें। लाखों बरस से अर्श पर बेकार बैठी यही ज़मीनी मनाज़िर देखकर तो वक़्त गुज़ारती रही हैं।
सूरज अभी कहीं बह्र-उल-काहिल के जज़ीरों पर गुलाब और लाले के फूल बरसा रहा था लेकिन उससे हिमालया की तराइयाँ रोशन और मुअत्तर होने लगी थीं। मगर दूर तक कोई आदमजा़द नज़र न आता था। उसने घबरा कर अपने आस-पास देखा।अली समेत सब लोग सो रहे थे। क्या पता बा'ज़ उसकी तरह चुपके चुपके जाग रहे हों। फिर उजाला और बढ़ा। सूरज ने बह्र-उल-काहिल के पानियों से सर निकाला और नींद नगर, नूर आबाद और सपनों का गांव सभी बादल बस्तीयां रोशन हो गईं।सूरज का सोना हर तरफ़ फैल गया और रोशनी खिड़की से अंदर घुस आई।
तुम अभी तक जाग रहे हो? अली की आँख खुल गई।
हाँ।
अच्छा किया किसी को जहाज़ को निगरानी भी तो करना थी।
तुम तो ख़ूब सोए।
कितना अच्छा ख़्वाब था, अली बोला।
क्या देखा?
अपने मरहूम वालदैन को, वो बोला, पहली बार ख़्वाब में आए।
किस हाल में थे?
ख़ुश थे और जवान।
यक़ीनन जन्नत में होंगे?
अम्मां की गोद में दो तीन बरस की सुग़रा थी।
सुग़रा कौन?
मेरी छोटी बहन। हाल ही में जिसका तैंतालीस बरस की उम्र में इंतिक़ाल हुआ।
तो तुमने चालीस बरस पहले के ज़माने को ख़्वाब में देखा?
हाँ।
या फिर अगले जहान की एक झलक?
यार कितना अच्छा होता जो अगला जहान इसी दुनिया, इसी ग्लोब पर कहीं वाक़े होता और जो लोग हमसे एक सरज़मीन में बिछड़ जाते हैं वो किसी दूसरे मुल़्क या खित्ते में मिल जाते।
हम चाहें तो अब भी ऐसा हो सकता है।
वो कैसे?
सुना नहीं तुमने? ये तवह्हुम का कारख़ाना है। याँ वही है जो एतबार किया।
चलो कुछ दिनों के लिए एक नया नज़रिया ईजाद करते हैं।
नज़रिया या मफ़रूज़ा?
एक ही बात है, हर नज़रिया शुरू में मफ़रूज़ा ही होता है।
तो क्या किसी और ज़मीन और ज़माने में जाने का इरादा है?
हाँ।
ये उसी सह पहर या शायद उससे अगले रोज़ का वाक़िया है।
हम फ्लाइंग कोच में एक कुशादा सड़क पर सैर को जा रहे थे। मुझे फिर ऊँघ आ गई। मगर शोर सुनकर जाग पड़ा,
रोको-रोको, एक बूढ़ा चिल्ला रहा था, मैं मरीज़ हूँ ज़्यादा देर तक ज़ब्त नहीं कर सकता।
फ्लाइंग कोच हरी-भरी फसलों और दरख़्तों के दरमियान रुक गई। सभी उतर पड़े और मुंतशिर हो गए।
कुछ फ़ासले पर सेबों का महकता हुआ एक बाग़ था। वो दोनों चलते हुए उसके दरवाज़े पर आ गए। सेब के दरख़्तों के दरमियान क्यारियों में जैसे नग़मे बोए गए थे तरह तरह के ख़ुशनुमा परिंदे अपनी अपनी मिनक़ारों से साज़ीने बजा रहे थे। वही कच्ची कैरियां लूटने वाली सुबह की सी ठंडी और तेज़ हवा चल रही थी। बड़े दरवाज़े के क़रीब दो औरतें जो माँ-बेटी या सास-बहू मालूम होती थीं, अपने अपने सामने एक एक टोकरी रखे सेब बेच रही थीं। वो इशारों से भाव ताव करने लगे। अली ने तस्वीर बनाने की कोशिश की तो बुढ़िया ने इशारे से मना कर दिया। छोटी के सूखे स्याह बाल हवा से उड़ रहे थे। वो उन्हें पीछे हटाती समेटती मगर वो बार-बार चेहरे को ढाँप लेते।
छोटी तुम्हें बड़े ग़ौर से देख रही है, अली बोला, जैसे पहचानती हो।
मुझे भी इसकी सूरत और मंज़र जाने-पहचाने लगते हैं।
मगर तुम तो यहां पहली बार आए हो?
हाँ मगर लगता है, ये कोई दूसरी ज़मीन और ज़माना है।
हाँ इसी जहान में अगला जहान?
नहीं मफ़रूज़ा।
अचानक उसे याद आ गया। उसने पूछा,
तुम जमीला हो?
उसने कोई जवाब न दिया। मगर उसके चेहरे का रंग बदल गया। वो घबरा कर बुढ़िया की तरफ़ देखने लगी, उसे यक़ीन हो गया वो जमीला ही थी। इतने बरसों बाद क़ुदरती तौर पर शक्ल-ओ-सूरत में कुछ तब्दीली आ गई थी मगर उसकी करंजी आँखों की नीलाहट और चेहरे की मलाहत अभी तक बरक़रार थी। यूं भी वो उससे कई बरस छोटी थी।
उसके एम.ए. फाइनल का इम्तिहान देकर यूनीवर्सिटी से गांव लौटने तक वो भी इश्क़ के कई नौ माही शशमाही इम्तिहान पास कर चुकी थी और अड़ोस-पड़ोस में आने-जाने और उठने-बैठे के ठिकाने तलाश कर चुकी थी। उसका सबसे बड़ा ठिकाना बीबी जी का घर था जिनसे वो सैफ़-उल-मलूक का सबक़ लेने आती और किसी न किसी बहाने उसके घर के चक्कर भी काटती और सैफ़-उल-मलूक के शेरों के बहाने अपने जज़्बात का इज़हार करती रहती। मगर वो अब उससे बात करने से गुरेज़ करने लगा था क्योंकि न सिर्फ़ उसका रिश्ता तय हो चुका था बल्कि अनक़रीब शादी होने वाली थी। यूं भी उसका मंगेतर और भाई गँवार लट्ठमार किस्म के लोग थे और वो पढ़ा लिखा और डरपोक लड़का। मगर वो बेवक़ूफ़ी की हद तक जज़्बाती लड़की थी, इज़्ज़त या जान किसी चीज़ की परवाह न करती।
मुलाज़मत की तलाश और इंटरव्यूज़ की ख़ातिर उसका हर दूसरे तीसरे रोज़ शहर आना जाना रहता था। उसके वालदैन और रिश्तेदार औरतें भी अक्सर शॉपिंग के लिए शहर आ जा रही थीं, पढ़ा-लिखा और समझदार जान कर वो शादी के जे़वरात और कपड़ों के इंतिख़ाब और ख़रीदारी में उससे मदद लेती रहती थीं। वो इस बात पर बहुत ख़ुश हुई। एक रोज़ कहने लगी,
मेरा शादी का जोड़ा तुमने पसंद किया?
हाँ मेरा मश्वरा शामिल था।
काश तुम मुझे ये जोड़ा पहने भी देख सकते।
मुकलावे आओगी तो पहन कर आ जाना, देख लूँगा। उसने दिल रखने को कह दिया।
तब तक तो वो मैला हो जाएगा।
फिर तो मुम्किन नहीं।
लेकिन उसने नामुमकिन को मुम्किन बना दिया।
एक रोज़ दोपहर को उसकी बरात आई और शाम को वो डोली में बैठ कर ससुराल चली गई। वो शहर से लौटा तो घर के सब लोग उसकी शादी में शिरकत के लिए गए हुए थे। शाम से कुछ देर पहले उसकी रुख़्सती हुई और सब लोग अपने अपने घर आ गए। गांव में कुछ देर शादियाने बजते रहे फिर हर तरफ़ उदासी छा गई।
कातिक का महीना था और पूरे चांद की रात।
ख़ुनक चांदनी हर सू फैली हुई थी और ओस से बोझल हवा चल रही थी। भूरे शाह के मज़ार पर क़व्वाली हो रही थी और गीत धमालें डाल रहे थे।
छेती बौहड़ीं वे तबीबा नहीं ते मैं मर गइयां।
तेरे इश्क़ नचाइयाँ कर के थय्या थय्या।
क़दमों की धमक और घुँघरूओं की झनकार सुनाई दे रही थी। घर वाले इस शोर की वजह से जुमेरात को छत पर नहीं सोते थे मगर वो छत पर ही सोता था क्योंकि उसे कव्वालियां और गीत अच्छे लगते थे और अगर सोना चाहता तो लोरी का काम देते और सपनों में रंग भरते रहते। और आज तो दिल के ज़ख़्मों पर मरहम का काम दे रहे थे।
गांव भर की छतें एक दूसरी से मिली हुई थीं और बड़ी गली के दोनों तरफ़ किसी भी एक छत पर चढ़ कर पूरे गांव में घूमा जा सकता था। क़व्वाली के बोल भी बाँस की सीढ़ियाँ लगा कर हर छत पर चढ़ आए थे और पूरे गांव में घूम रहे थे।
अभी उसकी आँख लगी ही थी कि ख़ुश्बू का एक झोंका सा आया और उसने चौंक कर आँखें खोल दीं और ये देखकर उसकी हैरत की इंतिहा न रही कि जे़वरात से लदी, सुहाग के उसी सुर्ख़ जोड़े में मलबूस वो चांद की तरफ़ रुख़ किए पाएँती की तरफ़ खड़ी थी। उसका ससुराल तीन-चार कोस दूर था और उसकी रुख़्सती हुए बमुश्किल एक पहर गुज़रा था। उसका अकेले इतनी रात गए वापस आ जाना मुम्किन नहीं था। यक़ीनन ये ख़्वाब था या कोई इसरार। क्या पता भूरे शाह के मज़ार की कोई डायन या पछल-पाई अप्सरा का रूप भर कर आ गई हो।
उसने थोड़ी देर को आँखें बंद कर लीं और जब दुबारा खोलीं तो वहां कोई नहीं था। यक़ीनन ये सोती या जागती आँखों का ख़्वाब ही था वर्ना वो इतनी जल्दी बहुत सी छतें पार कर के ग़ायब न हो जाती। मगर हवा में अब तक उसकी ख़ुश्बू मौजूद थी। अगर वो सिर्फ़ गुमान थी तो ये ख़ुश्बू कहाँ से आई?
अगले रोज़ पता चला उसने ससुराल पहुंचते ही शोर मचा दिया था कि उससे भूल हो गई है। उसने शौहर का मुँह देखने से पहले भूरे शाह को सलाम करने की मिन्नत मानी हुई थी। उसका शौहर और ससुराल वाले भूरे शाह के मो'तक़िद और मुरीद थे वो उसके फ़रेब में आ गए। उन्होंने कहारों से कहा कि वो उसे फ़ौरन ले जाएं और सलाम करवा कर वापस ले आएं। उसके होश उड़ गए। मज़ार से निकल कर इतनी दूर आते-जाते उसे ज़रूर किसी न किसी ने देख लिया होगा और बात फैल जाएगी।
उसका अंदेशा दुरुस्त निकला। बात न सिर्फ़ फैल गई थी बल्कि उसके ससुराल वालों ने ख़ुफ़िया तौर पर उसका भूरे शाह के मज़ार तक पीछा किया था। अगले रोज़ उसके भाईयों ने भी तफ़तीश शुरू कर दी। उसके लिए अब गांव छोड़ देने के सिवा कोई चारा न था वो एक रोज़ शहर और कुछ अर्सा बाद बैरून-ए- मुल्क चला गया।
शुरू शुरू में उसके बारे में ख़बरें मिलती रहीं कि ससुराल वालों की तरफ़ से उस पर बहुत पाबंदियां हैं। शौहर सख़्ती करता और मारता पीटता है और उसे मैके गांव आने जाने और वालदैन से मिलने तक की इजाज़त नहीं। कुछ ही अर्सा बाद उसके ससुराल वालों ने दूसरे सूबे में ज़मीन ख़रीद ली और वहां मुंतक़िल हो गए। फिर एक रोज़ पता चला कि वो बीमार हो कर फ़ौत हो गई है। लेकिन कुछ लोगों को शुब्हा था उसे क़त्ल कर दिया गया था और उसके भाई और दूसरे रिश्तेदार भी उस वारदात में शामिल थे।
और अब इतने बरसों बाद वो उसके सामने ज़िंदा और सलामत मौजूद थी मगर जैसे उसकी क़ल्ब-ए-माहियत हो चुकी थी।शायद ज़िंदगी के तल्ख़ तजुर्बात और ठोकरों ने उसके मिज़ाज को तब्दील कर दिया था और उसकी सारी शोख़ी, बहादुरी और जोश छीन लिया था वर्ना वो इतने अर्सा बाद और एक अजनबी सरज़मीन में उसे अचानक देखकर बे-इख़्तियार लिपट न जाती?
सब लोग अपनी सीटों पर जा कर बैठ चुके थे और ड्राईवर हॉर्न देकर उसे बुला रहा था। अब मस्लिहत और एहतियात की गुंजाइश नहीं थी, उसने कहा,
तुमने मुझे पहचाना जमीला। मैं ताहिर हूँ। पता नहीं तुम यहां कैसे पहुँचीं और किस हाल में हो, मगर शुक्र है तुम ज़िंदा हो।हमने तो सुना था तुम्हें क़त्ल कर दिया गया था।
उसने परेशान हो कर पहले बुढ़िया को और फिर अपने इर्द-गिर्द देखा फिर बोली,
तुमने ठीक सुना था। उन्होंने पांव के साथ पत्थर बांध कर मुझे अंधे कुँवें में फेंक दिया था।
फिर तुम यहां कैसे पहुँचीं?
मुझे जिस कुँवें में फेंका गया था उसकी तह नहीं थी। वो चाह दर चाह की सूरत अंदर से दुनिया-भर के कुंओं से मिला हुआ था। मैं नीचे ही नीचे गिरती चली गई और इस बुढ़िया के बेटे ने मुझे अपने घर के कुँवें से बाहर निकाल लिया।
अब तुम मेरे साथ वापस चलोगी?
नहीं, वो बोली, लेकिन एक अजनबी के साथ बात करने के जुर्म में अब ये भी मुझे कुँवें में फेंक देंगे। तुम मुझे तलाश कर के वहां किसी कुँवें से निकाल लेना।
बुढ़िया अपनी ज़बान में ज़ोर ज़ोर से कुछ बोलने लगी। गाइड भागा भागा आया और उसका हाथ पकड़ कर उसे फ्लाइंग कोच में ले गया। अचानक फ्लाइंग कोच जहाज़ में तब्दील हो कर फ़िज़ा में उड़ने लगी। फिर एयर होस्टस की आवाज़ सुनाई दी,
ख़वातीन-ओ-हज़रात बेल्ट्स् बांध लीजिए, हम थोड़ी देर में बीजिंग के बैन-उल-अक़वामी एयर पोर्ट पर उतरने वाले हैं।