Bulgaria Yatra-2 : Asghar Wajahat

बल्गारिया यात्रा 2 : असग़र वजाहत

पॉली जी के गांव से लौट कर आया तो अगले ही दिन एक दूसरे गांव जाने का कार्यक्रम पहले से ही बना हुआ था। मतलब यह कि रात में सिर्फ 4 घंटे सोने के बाद अगले गांव के लिए कूच करना था। अगला पड़ाव हेरीटेज विलेज दोलन में होगा जो दक्षिण में यूनान की सीमा के नजदीक है। सोफिया से कोई 5 घंटे का रास्ता है ।

मोना जी के साथ बस अड्डे पहुंचा और पता चला की उधर जाने वाली उस बस में कोईल जगह नहीं है जिसमें मोना जी मुझे भेजना चाहती थी। उन्होंने कुछ और पता लगाया तो जानकारी मिली कि 9:00 बजे एक बस है । जो गोत्से देलचीव जाएगी जहां से दोलन 25 किलोमीटर दूर है। यह भी पता चला था कि दोलन जाना कोई सरल काम नहीं है । केवल आज के ही दिन गोत्से देलचीव से दोलन के लिए 4:00 बजे एक बस जाएगी और उसके बाद कोई दूसरी बस नहीं है। टैक्सी करने के अलावा दोलन जाने का और कोई साधन नहीं है और टैक्सी बहुत मंहगी होगी।

दोलन तक पहुंचने में कुछ मुश्किलें थी। पहली तो यह कि गोत्से देलचीव में उतर कर मुझे पुराने बस अड्डे जाना पड़ेगा जहां से मुझे दोलन जाने की बस मिलेगी । जिंदगी में पहली बार मैं गोत्से देलचीव जा रहा हूं और वहां पुराना बस अड्डा खोजना आसान काम न होगा क्योंकि भाषा का सबसे बड़ा संकट है। खैर बल्गेरियन में लिखा हुआ 'पुराना बस अड्डा' दिखाता मैं किसी तरह बस अड्डे तक पहुंच जाऊंगा लेकिन अगर वहां 4:00 बजे के बाद पहुंचा और बस निकल गई तो क्या होगा? क्या मुझे वहां रात में रुकना पड़ेगा ? होटल लेना पड़ेगा? या दोलन से कोई मुझे लेने के लिए आ सकता है? मोना जी कह रही थी कि उनकी मित्र नवीना गोत्से देलचीव से मेरे दोलन पहुंचने का कोई बंदोबस्त कर सकती हैं। घबराने की कोई जरूरत नहीं है।

दोपहर को 2:00 बजे के करीब गोत्से देलचीव पहुंचा ।बस अड्डे पर उतर कर इधर-उधर देखा तो यह पता ही नहीं चला कि किधर जाऊं कि पुराने बस अड्डे पहुंच सकता हूं ।लोगों से पूछने की कोशिश की लेकिन भाषा की बाधा बनी रही। आखिरकार एक तरफ को चलना शुरू कर दिया। मेरी खुशनसीबी थी कि वह दिशा सही थी। रास्ते में एक दो लोगों से पूछा और फिर पुराने बस अड्डे पहुंच गया। वहां दोलन जाने वाली बस भी खड़ी थी। अब ध्यान आया कि दोपहर से कुछ नहीं खाया है। एक दुकान पर जाकर पिज़्ज़ा खरीदा। एक पानी की बोतल ली और पेट पूजा शुरू कर दी।

गोत्से देलचीव एक बहुत अलग तरह का और दिलचस्प शहर लगा। यहां खासतौर से तुर्को को अधिक संख्या में देख कर थोड़ी हैरानी हुई। वैसे तो बल्गारिया पर तुर्कों का लंबे समय शासन रहा है जिसके अवशेष देखे जा सकते हैं। तुर्कों की आबादी, तुर्की भोजन की लोकप्रियता,बल्गारिया के समाज, साहित्य और संस्कृत पर तुर्कों का प्रभाव पूरे देश में दिखाई देता है लेकिन कुछ हिस्सों में विशेष रूप से तुर्क अधिक संख्या में हैं। उनको देखकर ही उनको पहचाना जा सकता है। उनका रंग और नाक नक्शा कुछ अलग ही होता है। ठीक उसी तरह जैसे जिप्सी लोगों का होता है।

चलिए थोड़ा इतिहास में चलते हैं। गोत्से देलचीव बहुत रोचक और पुराना है। अभी भी उस पुराने शहर के कुछ अवशेष मिल जाते हैं जो दूसरी शताब्दी में रोमन साम्राज्य ने बसाया था।
छठी और सातवीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर स्लाव नस्ल के लोगों का शासन हो गया था ।13वीं और 14वीं शताब्दी में इस शहर को तुर्क साम्राज्य (आटोमन इम्पायर, उस्मानी साम्राज्य 1299-1923) ने अपने अधिकार में ले लिया था। तुर्की शासन के दौरान तैयार किए गए कुछ दिलचस्प दस्तावेज मिलते हैं जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 13-14 शताब्दी में शासन करने के लिए कैसे आंकड़े जमा किए जाते थे और कैसी व्यवस्था थी। उस समय शहर का नाम नेवरोकाप था। तुर्क साम्राज्य के दस्तावेजों में इस कस्बे के बारे में जो वह जानकारियां मिलती हैं वे सन 1444 ईस्वी से शुरू हो जाती। उस समय इस गांव में 131 घर थे। 12 लोग अविवाहित थे और 24 विधवाएं रहती थी। 1465 और 66 के बीच यहां 208 ईसाई परिवार और 12 मुस्लिम परिवार रहते थे जिनमें 50 अविवाहित थे।और विधवाओं की संख्या 19 थी। सन 1478-79 में 393 ईसाई और 42 मुस्लिम परिवार थे। उस समय तुर्कों की बनवाई हुई एक मस्जिद और हमाम और मदरसा अब भी मौजूद है। मध्यकाल में यह कस्बा काफी बड़ा हो गया था।उस समय यह कला और संस्कृति का एक केंद्र भी बन गया था।

छोटी सी बस थी जिसमें तीन-चार लोगों से ज्यादा नहीं थे।बस कस्बे से बाहर निकली और पहाड़ों की तरफ चल दी। एक साइन बोर्ड दिखाई दिया जिससे पता चला कि दोलन 25 किलोमीटर दूर है। यह पढ़कर मैंने अंदाजा लगाया की एक घंटे में तो पहुंच जाएंगे लेकिन मेरा अंदाजा गलत निकला। बस कई कस्बों से होती हुई दोलन पहुंची। सफर थोड़ा लंबा हो गया। लेकिन फायदा यह हुआ के आसपास के दूसरे गांव देखने को मिले। इन गांवों में भी तुर्की आबादी और छोटी छोटी मस्जिदें दिखाई पड़ीं।

दोलन में गांव के बाहर बस रुक गई और लगा कि यही अंतिम स्टाप है। दाहिनी तरफ एक रेस्टोरेंट्स जैसी चीज दिखाई पड़ रही थी और बाएं तरफ एक रास्ता नजर आ रहा था । मुझे यहां मोना जी की दोस्त नवीना से मिलना था। लेकिन दूर दूर तक कोई ऐसी महिला नहीं दिखाई दे रही थी जो किसी भारतीय पर्यटक की तलाश में हो । इसलिए मैंने मोना जी को फोन किया । मौना जी ने नवीना को फोन किया है और कुछ देर बाद नवीना बस अड्डे पर आ गई। बस अड्डे क्यों कहा जाए यह तो एक मैदान था जहां मुसाफिरों को छोड़ने के बाद बस चली गई थी।

कुछ देर के बाद गांव पहुंच गए। दोलन गांव का इतिहास बहुत पुराना है। यह कभी रोमन साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। उसके बाद बल्गारिया पर तुर्की अधिकार हो जाने के बाद कहते हैं ईसाई लोग इधर उधर भागे थे। उन्होंने ऐसी जगह पर अपने गांव बसाने की कोशिश की थी जहां पहुंच पाना बहुत मुश्किल हो और तुर्की लोग न पहुंच सकें।लेकिन ऐसा नहीं हो सका। तुर्की शासक यहां पहुंचे। और यह तुर्की साम्राज्य और शासन के अंतर्गत आ गया।

नवीना मुझे गांव के होटल ले गई ।होटल क्या यह कोई पुराना घर था जिसे होटल बना दिया गया था। होटल का मुख्य दरवाजा बंद था । पता चला सीजन नहीं है और इस पूरे होटल में मैं अकेला ही हूंगा । घंटी वण्टी बजाने के बाद भी जब दरवाज़ा नहीं खुला तो नवीना ने फोन किया । पता चला कि होटल की चाबी जिनके पास है वे किसी दूसरे गांव में गए हुए हैं और एक घंटे में वापस आएंगे। सुनकर थोड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन फिर लगा गांव का मामला है सब चलता है।

नवीना ने सुझाव दिया की मैं इस दौरान उनकी संस्था गेट्स देख सकता हूं जो उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर इस गांव में बनाई है । यह अच्छा सुझाव था। हम उनकी संस्था पहुंचे। यह भी एक बहुत बड़ा लगभग लकड़ी का बना मकान था जिसमें सांस्कृतिक केंद्र बनाया गया था। गांव से संबंधित कुछ चित्र लगे हुए थे ।नवीना ने बताया यहां चित्र प्रदर्शनियाँ होती रहती हैं। लेखक और चित्रकार आकर ठहरते हैं और अपना काम करते हैं। संस्था सभी प्रकार के रचनात्मक कामों में सहयोग देती है। नवीना ने बताया कि इन दिनों यहां एक फिल्म यूनिट आई हुई है जो इलाके पर फिल्म बना रही है।

कोई एक डेढ़ घंटे बाद होटल के मालिक या मैनेजर आ गए। उनका नाम आंद्रे बताया गया। होटल उनके परिवार का है। आंद्रे कॉलेज में पढ़ते हैं। छुट्टियां होने के कारण होटल की देखभाल की जिम्मेदारी उन पर डाल दी गई है। आंद्रे बहुत मस्त और लापरवाह किस्म के युवक लगे। बाद में मेरी यह धारणा और पक्की होती चली गई। बहरहाल आजकल होटल की देखभाल की जिम्मेदारी वे अकेले नहीं अपनी गर्लफ्रेंड के साथ निभा रहे हैं। उनके साथ उनकी गर्लफ्रेंड भी थी जो बहुत आकर्षक, सुंदर, समझदार और तेज़ तर्रार लगी ।

आंद्रे मुझे लेकर होटल आ गए। लकड़ी के एक पुराने और बड़े घर को होटल में कन्वर्ट किया गया था लेकिन इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था की मकान का पुराना चरित्र न बदले और साज-सज्जा ऐसी हो जो गांव की परंपरा और पुरानी दस्तकलाओं से मेल खाती हो। ग्राउंड फ्लोर पर एक बड़ा सा हाल था बराबर से लकड़ी की सीढ़ियां ऊपर जा रही थी। ऊपर कमरे बने हुए थे एक बालकनी थी जो गांव की तरफ खुलती थी और गांव का पूरा दृश्य दिखाई देता था। मुझे एक कमरा दे दिया गया। वहां और कोई नहीं ठहरा था। मतलब यह कि पूरे होटल में मैं अकेला था। जानकारियां लेने के दौरान यह पता चला कि गांव में केवल एक तुर्की बाबा का रेस्टोरेंट है जहां चाय, नाश्ता, खाना मिलता है। सुबह नाश्ता करने के लिए मुझे उनके होटल जाना होगा जो बहुत करीब है।

रात तो बड़ी खैरियत से गुजरी लेकिन सुबह होते ही एक परेशानी पैदा हो गई। मैं अपने कमरे से तैयार होकर 6:00 बजे जब बाहर टहलने के लिए जाना चाहता था तो पता चला कि होटल का मुख्य दरवाजा बंद है। ताला लगा हुआ है। मैंने इधर-उधर आंद्रे को देखने की कोशिश की लेकिन वे नजर नहीं आए। मैंने सोचा थोड़ा इंतजार कर लेते हैं। एक घंटे बाद फिर मैं नीचे उतरा फिर दरवाजा बंद पाया। दो घंटे बाद भी दरवाजा बंद पाया। होते होते 9:00 बज गए। भूख लगने लगी। चाय की तलब ने ज़ोर पकड़ लिया लेकिन मुख्य दरवाजे पर उसका कोई असर नहीं हुआ। मैंने नवीना को फोन किया उनका फोन बंद मिला।आंद्रे का नंबर मैंने अब तक नहीं लिया था। निराशा घबराहट और गुस्से में मैं जोर से आंद्रे का नाम लेकर चिल्लाया। मेरी आवाज पूरे मकान में गूंज गई । दूसरी बार, फिर तीसरी बार भी चिल्लाया तो एक कमरे का दरवाजा खुला और उससे आंद्रे नमूदार हुए वे ।अपनी गर्लफ्रेंड के साथ आराम कर रहे थे। रात भर न सोए होंगे इसलिए सुबह नींद पूरी कर रहे थे। मुझे देख कर थोड़ा शर्मा गए क्योंकि मैं उन्हें बता चुका था कि मैं सुबह 6:00 बजे टहलने निकलूंगा। बाहरहाल उन्होंने मुझे मुख्य दरवाजे की चाबी दे दी और कहा कि यह डुप्लीकेट चाबी है जिसे मैं अपने पास रख सकता हूँ।

दोलन गांव पहाड़ों पर बसा है । इसलिए कुछ मकान ऊपर, कुछ ढलान पर, कुछ नीचे हैं और कुछ मकान एक पतली सी नदी के उस तरफ भी हैं। गांव घूमने से पहले नाश्ता करने के लिए तुर्की बाबा के रेस्टोरेंट में पहुंचा। मैं बुल्गेरियन का एक शब्द नहीं बोल सकता था। तुर्की भाषा जानने का तो सवाल ही नहीं है। बस हिंदी फिल्म के उस गाने की एक लाइन याद है जिसमें तुर्की शब्द आता है - 'जबाने यार मन तुर्की व मन तुर्की नमी दानम' । यह भी शायद तुर्की भाषा नहीं फारसी है, जिसका अर्थ है, मेरी प्रेमिका की भाषा तुर्की है और तुर्की मुझे नहीं आती। यहां प्रेमिका नहीं, रेस्टोरेंट में जो बूढ़ी औरत नाश्ते का आर्डर लेने आई थी उसकी भाषा तुर्की थी। मेरे लिए और कोई रास्ता न था। मैंने दूसरे लोग जो नाश्ता कर रहे थे उनकी तरफ इशारा किया और इशारे से कहा कि मैं भी वही खाना चाहता हूं। कुछ देर बाद मेरे सामने तली हुई रोटी, शहद, उबले हुए अंडे और काफी आ गई।

गांव की टेढ़ी-मेढ़ी, ऊपर नीचे जाती गलियों में बड़े बड़े पुराने पत्थर लगे हुए हैं। सैकड़ों साल पुराने होंगे। काफी घिस चुके हैं लेकिन सुनने वाले को न जाने कितनी कहानियां सुनाते होंगे। पतली गलियों से मैं नीचे उतरने लगा। गांव के कुछ घर खंडहर हो गए हैं। कुछ गिरने की कगार पर हैं। कुछ में ताले लगे हुए हैं। मतलब यह कि मालिक वहां नहीं रहता। एक अजीब तरह का सन्नाटा था। हो सकता है सुबह का वक्त हो इसलिए कम लोग नजर आ रहे हो लेकिन फिर भी लगा कि यहां लोग बहुत कम है। यह भी बताया गया था कि यह सीजन नहीं है। हो सकता है सीजन में ज्यादा लोग रहते हो। बाहरहाल सब कुछ गांव की पुरानी कला का नमूना सा लग रहा था। घरों के दरवाजे और खिड़कियां पर नक्काशी और सजावटी काम बता रहा था कि रहने वालों ने कभी इसे बड़े जतन से बनाया होगा।
सुनसान गांव के ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर चलता हुआ मैं गलियों में भटकता एक चर्च के दरवाजे तक पहुंच गया बताया गया था कि यह एक पुराना बहुत पुराना चर्च है जिसे देखा जाना चाहिए। चर्च का दरवाजा बंद था।

इस चर्च को देखने की इच्छा काफी थी क्योंकि इसके बारे में कुछ रोचक कहानियां बताई गई थी। पहली कहानी यह है कि जब बल्गारिया पर तुर्कों का अधिकार (15 वीं शताब्दी)था तब इस गांव में एक तुर्क अधिकारी रहा करता था। गांव वालों को चर्च बनाने की अनुमति नहीं थी।चर्च बनाने की अनुमति पाने के लिए गांव के एक धनवान आदमी कोस्टेस ने एक तरकीब निकाली। उन्होंने सेंट निकोलस की एक पुरानी मूर्ति गांव के बीचो-बीच जमीन में गाड़ दी। कुछ समय बाद वे गांव के तुर्क अधिकारी के पास पहुंचे और उससे कहा कि उन्होंने सपने में देवता निकोलस को देखा है। देवता ने उनसे कहा है कि उसकी मूर्ति गांव के बीचों बीच जमीन के नीचे दबी हुई है। उस मूर्ति को निकाल कर अगर वहां चर्च नहीं बनाया गया तो पूरे गांव के ऊपर बहुत मुसीबत आ पड़ेगी। पूरा गांव अकाल और महामारी का शिकार हो जाएगा। गांव का पानी खत्म हो जाएगा ।यह सब बातें सुनकर पहले तो तुर्क अधिकारी प्रभावित नहीं हुआ और उसने कहा कि यह सब झूठ है। लेकिन आखिरकार वह गांव में उस जगह पर खुदाई करवाने के लिए तैयार हो गया जहां बताया गया था। खुदाई कराई गई तो मूर्ति मिली और फिर गांव वालों को वहां चर्च बनाने की अनुमति दे दी गई। गांव वालों ने दो साल की मेहनत करके चर्च को बनाया था।

चर्च का घंटा बनाने की भी एक कहानी है। गांव वाले जिस प्रकार का घंटा बनाना चाहते थे और उससे जिस तरह की आवाज सुनना चाहते थे उसके लिए सात बार घंटा बनाने के लिए ढलाई की गई थी। सातवीं बार जाकर ऐसा घंटा बना था जिस की घंटियों से वैसी आवाज आती थी जैसी गांव वाले चाहते थे। घंटा बजता हुआ तो मैंने नहीं सुना लेकिन जरूर उसकी आवाज बहुत सुरीली होगी। अब इस चर्चा की देखभाल का काम यूरोपियन यूनियन की सहायता से किया जाता है ।दुख की बात है कि यह चर्च में नहीं देख पाया।

दोपहर को होटल लौट कर आया तो देखा आंद्रे और उसकी गर्लफ्रेंड होटल के पिछले बरामदे में तरबूज खा रहे हैं। मैंने आंद्रे की गर्लफ्रेंड से पूछा कि क्या कभी किसी ने तरबूज खाते हुए तुम्हारी फोटो ली है? वह हंसने लगी और बोली, नहीं ऐसा तो कभी नहीं हुआ ।मैंने कहा कि चलो ठीक है, आज ही हो जाता है । और मैंने तरबूज खाते हुए उन दोनों के कई चित्र लिए। होटल की दूसरी मंजिल का बरामदा बहुत सुंदर है जहां से पूरी घाटी में फैले हुए गांव का दृश्य दिखाई देता है।

बताया गया था कि इस गांव में एक मस्जिद भी है। मैंने काफी तलाश करने की कोशिश की लेकिन मस्जिद नहीं मिली। हां एक दिन सुबह के वक्त अजान की आवाज जरूर सुनाई दी। वैसे इस इलाके में मस्जिदे काफी है । रास्ते में जो छोटे-छोटे गांव पढ़े थे उन गांवों में कम से कम एक आध मस्जिद ज़रूर दिखाई पड़ी थी । यह तुर्की लोग हैं जो कई सौ साल पहले यहां आकर बस गए थे और तब से लेकर आज तक यहां है । ये लोग हर में एक प्रकार की तुर्की भाषा बोलते हैं जो मूल तुर्की से कुछ अलग बताई जाती है। बाहर बोले जाने वाली भाषा बुल्गेरियन है। तुर्की लोग अपने रंग ढंग के कारण भी कुछ अलग ही दिखाई देते हैं। इतने सौ साल में उनके अंदर बदलाव तो आए हैं लेकिन फिर भी उनकी पहचान बची हुई है। एक बार बस अड्डे पर एक जिप्सी लड़की दिखाई दी थी जो देखने में बिल्कुल भारतीय लगती थी। मैंने उससे कुछ बातचीत भी शुरू की थी। वह कॉलेज जाती थी और इसलिए थोड़ी अंग्रेजी समझती और बोलती थी। मैंने भारत के बारे में उसके विचार जानने चाहे तो पता नहीं क्यों वह कहने लगी कि मैं तो बल्गेरियन हूं, बल्गारियन हूं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बुल्गारिया के अल्पसंख्यक समुदायों में यह भाव गहराई से बैठ गया है कि वे बुल्गेरियन है।

रात फिर तुर्की रेस्टोरेंट में खाना खाने गया। वहां कुछ लड़के भी बैठे खाना खा रहे थे जो बाहर से आए लग रहे थे । उनमें से एक लड़का मेरी टेबल पर आकर बैठ गया और बातचीत करने लगा। इस दौरान पता चला कि वह नास्तिक है और ईश्वर पर विश्वास नहीं करता। बात घूम फिर कर राजनीति पर आ गई और मुझे उसके विचार काफी क्रांतिकारी लगे। क्रांतिकारी इस अर्थ में नहीं कि वह राजसत्ता प्राप्त करने का तरीका क्रांति बता रहा था या सशस्त्र क्रांति पर विश्वास करता था । उसका कहना था कि सत्ता आम लोगों का प्राय: शोषण करती है। किसी भी तरह की सत्ता जनविरोधी होती है। वह अपने देश के हालात से भी बहुत खुश नहीं था। उसे लग रहा था के लोकतंत्र और उदारीकरण के नाम पर बहुत जन और समाज विरोधी काम हो रहे हैं । उसका कहना था कि लोकतंत्र को शक्तिशाली और अपराधी प्रवृत्ति के लोग बहुत आसानी से 'हाईजैक' कर लेते हैं । यह समस्या विशेष रूप से उन देशों में होती है जहां लोकतंत्र का इतिहास बहुत पुराना नहीं है ।उसे यह भी डर था कि उसके देश की प्राकृतिक संपदा बहुत जल्दी लूट का शिकार हो जाएगी । बाहरहाल काफी देर तक उससे बातचीत होती रही। थोड़ा सा पता चला की बुल्गारिया के कुछ युवा क्या सोचते हैं।

अब मेरे पास होटल के मुख्य दरवाजे की चाबी थी और यह डर नहीं था कि आंद्रे अपनी गर्लफ्रेंड के साथ सोते रह जाएंगे और मैं होटल में कैद रहूंगा। अगले दिन सुबह सुबह निकल पड़ा। गांव में कुत्ते तो दिखाई पड़े लेकिन यह नहीं लगा कि वे पाली के गांव के कुत्तों की तरह आक्रामक है। शायद उन्हें पर्यटक देखने की आदत थी। गांव में बाहर से काफी लोग आते जाते थे इसलिए कुत्ते परदेसियों को देख कर सहज थे। परदेस में कुत्तों की सहजता बहुत जरूरी है। वैसे यूरोप में आमतौर पर आवारा कुत्ते नहीं होते लेकिन बल्गारिया चूंकि एशिया के बहुत निकट है इसलिए वहां, खासतौर से गांव में, आवारा कुत्ते पाए जाते हैं। मैं आवारा कुत्तों से नजर बचाता एंफीथियेटर की तरफ बढ़ने लगा। बताया गया था कि गांव का एंफीथियेटर देखने की जगह है। उबड़ खाबड़ पथरीली गलियों से गुजरता एंफीथियेटर पहुंचा । एंफीथियेटर के गेट पर पहुंचा तो तबियत खुश हो गई। लकड़ी के एक टुकड़े पर एंफीथिएटर लिखा हुआ था जो कई बरसातों में धुल कर काला पड़ चुका था लेकिन फिर भी पढ़ने में आता था । सामने थियेटर के अंदर जाने के लिए लताओं का एक गेट बनाया गया था। हरी-भरी लगाएं गेट की तरह सजी हुई थी। अंदर आया तो देखा एक पुराना बड़ा मकान है उसके आगे ढलान है और ढलान पर सीढ़ियां बनी हुई है और सामने पेड़ों के झुरमुट के नीचे लकड़ी का मंच है और मंच के पीछे एक पहाड़ी नदी बह रही है। उसके पीछे जंगल है। वाह पहली नजर में ही एंफीथियेटर बहुत रोचक जगह नजर आई । यह समझने में देर नहीं लगी कि पुराना मकान एक तरह से बॉक्स ऑफिस आदि का काम देता है। इसमें एक छोटा सा रेस्टोरेंट भी देखा जो बंद नजर आया। शायद सीजन न होने की वजह से वह बंद कर दिया गया था। थिएटर के दोनों तरफ लकड़ी के छोटे केबिन दिखाई दिए जहां से मंच पर प्रकाश डालने जाने की व्यवस्था थी। एंफीथियेटर की सीढ़ियां उतरता हुआ मंच पर पहुंचा नीचे रहने वाले पहाड़ी नाले की आवाज सुनाई देने लगी। कैमरा निकाला ।चित्र लेने लगा और दुख हुआ कि कैमरा वह सब नहीं देख सकता जो आंख देख सकती है ।बाहर हाल यादगार के लिए कुछ चित्र लिए।

रात में नगीना ने खाने पर बुलाया था। मैं यह सोच कर कि जल्दी जाऊंगा और जल्दी चला लूंगा नवीना के घर 8:00 बजे के आसपास पहुंच गया। पता चला कि नवीना अभी अभी कहीं से लौट कर आई है और खाना पकाने जा रही है। मतलब यह था कि मैं समय से बहुत पहले चला गया था। मैंने उनसे कहा कि मैं लौटकर होटल जा रहा हूं और जब उनके दूसरे मित्र आ जाए तो मुझे फोन कर दे, मैं आ जाऊंगा। मैं होटल आ गया। करीब 9:15 बजे उनका फोन आया कि सब लोग आ चुके हैं, मैं आ जाऊं। नवीना का घर गांव के बीचो-बीच पुरपेंच गलियों में है। ख़ैर मैं उनके घर पहुंचा। कई चित्रकार और अभिनेता वहां मौजूद थे। अच्छी बातचीत होने लगी । एक अभिनेता ने बताया कि वे भारत आते जाते रहते हैं । बातचीत के दौरान अभिनेता भारत के बारे में जानकारियां देने लगे । मैं जब कुछ बोलता था तो वे मेरी बात काटकर कुछ ऐसा कहते थे जिससे लगता था कि भारत के बारे में वे मुझसे ज्यादा जानते हैं। मैं चुप हो जाता था क्योंकि मैं उनके आत्मविश्वास को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता था। अभिनेता वहां बैठी महिला को प्रभावित भी करना चाहते थे ।क्योंकि मुझे प्रभावित करने के काम में कोई रुचि नहीं है इसलिए चुपचाप बैठा रहा।खाना-पीना चल रहा था ।बहुत अच्छा माहौल बन गया था लेकिन बाहर काली और अंधेरी रात घिर आई थी। लगभग 11:00 बजे मैंने नवीना से कहा अब मैं होटल जाना चाहता हूं। उन्होंने बड़ी खुशी से मुझे इजाज़त दे दी। लेकिन एक दूसरी चित्रकार महिला ने मुझसे पूछा कि क्या मेरे पास टॉर्च है। मैंने कहा टॉर्च तो नहीं है, मोबाइल है इससे थोड़ी रोशनी हो जाएगी। महिला ने कहा, नहीं बाहर बिल्कुल अंधेरा है आप मेरी टॉर्च ले लें।

मैं उनकी टॉर्च लेकर बाहर निकला। हकीकत में काफी अंधेरा था ।गली के ऊबड़ खाबड़ पत्थरों और चारों तरफ फैले अंधेरे में अपने हिसाब से होटल की तरफ बढ़ गया । टॉर्च की रोशनी सीमित दायरे में पड रही थी। कुछ दूर चलने के बाद लगा कि मैं रास्ता भटक गया हूं। यह जानकर मैं बहुत घबरा गया। एक तो रात का वक्त है, बिल्कुल सन्नाटा है, गांव के आवारा कुत्ते , दिन के वक्त तो कोई बात न थी लेकिन रात में वे जरूर हमला कर सकते हैं। यह सब सोचकर मन में आया की नवीना के घर वापस चला जाऊं और फिर किसी के साथ होटल जाऊँ। लेकिन यह बात भी जमी नहीं। आगे बढ़ने लगा। सोचा अगर गांव में भटकता हुआ कहीं और पहुंच गया और कुत्तों ने हमला कर दिया तो सारा एडवेंचर धरा रह जाएगा। दुर्गम स्थानों की सैर का इनाम मिल जाएयगा। मेरी इतनी दुर्दशा तो मिजोरम और बांग्लादेश की सीमा पर बसे चकमा आदिवासी गांव चौंगते में भी नहीं हुई थी जो यहां हो सकती है।पर मरता क्या न करता ।एक दिशा में आगे बढ़ने लगा और कुछ देर बाद पता चला कि बिल्कुल सही दिशा में जा रहा हूं। जान में जान आ गई । जेब से चाबी निकाली होटल का दरवाजा खोला और अंदर आ गया। कहा, जान बची तो लाखों पाए ख़ैर से बुद्धू होटल आए।

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