बुध्धो (पंजाबी कहानी) : गुरमीत कड़ियालवी

Buddho (Punjabi Story) : Gurmeet Karyalvi

उस साल बहुत मुसलाधार बरसात हुई थी। कच्चे मकान धड़ाम धड़ाम करके गिरते। तब ही पता चलता जब भली भांति खड़ी दीवार देव गौडे की सांझी सरकार की भांति मुंह बाए गिर पड़ती। गिरी दीवार का धमाका यूं लगता जैसे कहीं बम चला हो।

उस साल बुध्धो ने बड़ी सुन्दर पांच कलियाणी कटड़ी को जन्म दिया था। सारे परिवार को अपने से भी अधिक बुध्धो और उसकी कटड़ी की फ़िक्र थी। मां बारिश में भी ना बैठती। कभी कोठे पे चढ़ कर देखती कि कहीं पतनाला ही न बन्द हो गया हो। कभी दीवार से गिरते किसी लियोड़ को मिट्टी की लिपाई पुताई करके उसे बचाने की असफल कोशिश करती। कभी भाग कर पशुओं वाले कोठे में जाती।

" ड्राइवरों का कोठा गिरा लगता है। आवाज़ तो उधर से ही आई थी।‌ काफी समय से गिरने को हो रहा था। शुक्र हो , कोई बच्चा ही न नीचे आ गया हो। " मां बोरी का बनाया झुमटा सिर पर ओढ़ बाहर की ओर निकल जाती।

गरड़ गरड़ करके गरजती बिजली सब की सांसें अटका देती। मां हमें "धन्न बाबा फरीद-- धन्न बाबा फरीद-- जपने के लिए कहती।" जैसे यूं जपने से बिजली घर पर नहीं गिरती। मां पता नहीं सच कहती थी या झूठ मगर हम सभी ऊंची आवाज में बाबा फरीद का नाम जपने लगते।जब भी कोई बड़ा सा लियोड़ दीवार से उतर कर गिरता तो मां फरीद को छोड़ वाहिगुरू का नाम जपने लगती। हम भाई बहन भी मां की रीस करते। हम बच्चे समझते कि वाहिगुरू धन्न बाबा फरीद से कोई बड़ी ताकत है जो हमारी बुध्धो के कमरे की राखी कर सकती है।

हम सब का संसार जैसे बुध्धो ही था। बुध्धो पिछले साल ही किसी के यहां से अधियारे पर आई थी। असल में उस घर में कई साल से बुध्धो की कोख हरी नहीं थी हुई। वह तो बुध्धो को बांझ समझ कर कसाई को बेचना चाहते थे। अपने खाली किल्ले को देखते हुए मां और पिता जी उसे अधियारे पर घर ले आए थे। हमारे घर के किल्ले पर आते ही बुध्धो की कोख हरी हो आई थी।

" किल्ले किल्ले का फर्क होता है। देख लो उनके घर दो साल से बे आस खड़ी रही और अपने यहां आते ही उसे पंद्रह दिन नहीं लगे आस पड़ने को। पता नहीं बेचारी अपने दिन भी फेर दे। मां लम्बी लम्बी आशाएं लगाने लगी।"

वह हमारे घर बुधवार के दिन आई थी जिस वजह से हम सभी उसे बुध्धो ही बुलाने लगे थे। वह भी बुध्धो कह कर बुलाते ही कान खड़े कर लेती । शायद उसे भी अपने नाम का पता चल गया था।

बुध्धो के घर में आते ही मां और पिता जी के साथ साथ हम बच्चे भी उसके साथ घुल-मिल गए थे। छोटे बड़े सभी सभी चाव से उसकी आव भगत में लगे रहते। स्कूल से छुट्टी के बाद हम बुध्धो के लिए गन्ने और कपास के खेतों से नरम नरम घास और मंधाना काट कर लाते। घास और मंधाना खोदते हुए हम खेतों में अपने आप उगी हुई बेलों से चिब्बड तोड़ तोड़ कर खाते रहते। तब कच्चे चिब्बड बहुत स्वाद लगते। हमें यह ककड़ियों के छोटे भाई लगते। हम घर पर चटनी बनाने के लिए भी झोली भर लाते।

मां सूरज निकलने से पहले ही गठरी भर घास खोद लाती। बुध्धो घास और मंधाना बड़े चाव से चरर चरर करके खाती। हरा हरा घास और मंधाना पेट भर खाने के बाद वह जुगाली करने लगती। उसके मुंह से सफेद सफेद झाग निकलती जो हमें बहुत अच्छी लगती। हम बिना वजह जुगाली करती बुध्धो को टकटकी लगाए देखते रहते।

सर्दियों में गन्नों के मौसम में हम गन्नों के आग बांध कर घर ले आते और घर पर उसका टोका मशीन से कुतरा करते। चरी और बाजरे से भी ज्यादा सघन गन्नों के आग चरर चरर करते। बुध्धो गन्नों के आग का कुतरा बड़े चाव से खाती। हम भी कुतरे से गन्ने की छोटी छोटी गठीरियों को चुन कर बड़े चाव से चूसते रहते। मिठ्ठा चारा बुध्धो का बड़ा मन पसंद खाना बन गया था। जब भी हम या मां गन्नों के आग का हरा कुतरा उसकी खुरली में डालते तो वह गल्प गल्प करके खाने लगती।साथ ही साथ वह अपने सिर को दाएं बाएं हिलाने लगती। उसकी सांकल किल्ले से टकराकर एक मधुर संगीत पैदा करती जिसके हिलोर में पूरा परिवार जैसे नशे में झूम उठता।

जिस दिन बुध्धो हमारे घर आई थी उसका शरीर थका मांदा सा था। शायद उसको बांझ और बेकार होने के ताने सुनने पड़े होंगे। चारा तो जैसे उसे मिलता ही न हो। पेट बिल्कुल अंदर को धंसा हुआ था। पसलियों की एक एक हड्डी दिखाई देती थी। हमें उसके मालिक पर रह रह कर गुस्सा आता। हमारी सेवा से दिनों में ही बुध्धो का शरीर भरने लगा था। उसकी पसलियों पर मास फिरने लगा।

रविवार व अन्य किसी छुट्टी वाले दिन बुध्धो की खास सेवा होती। उस दिन हमारी ड्यूटी उसके कानों, थनों और उसके टखनो पर लगे चिचड़ उतारने की होती। हम एक कौली पानी से भर लेते और एक एक चिचड़ तोड़ कर उसमें डालते रहते। जिस जगह से चिचड़ तोड़ते वहां पर खून सिमटने लगता। पहले पहले तो हमें डर लगता। हम सोचते कि चिचड़ तोड़ते हुए बुध्धो लात पैर चलाएगी मगर हम हैरान हो जाते जब बुध्धो सिर झुकाए आराम से खड़ी रहती। ऐसे लगता जैसे उसे कोई अलौकिक आनंद आ रहा हो।

हम हर सप्ताह चिचड़ उतारते मगर फिर वे पता नहीं कहां से आ जाते। थनों के उपर करके दोनों टांगों के बीच में चिचड़ इस प्रकार लग जाते जैसे मधु मख्खी का कोई छत्ता लगा ‌हो।चिचड़ तोड़ते हुए कई बार बुध्धो तकलीफ मानती और टांगें हिलाने लगती तब पिता जी उसे पुच पुच करके पुचकारते। उसके सींगों के बीच वाली जगह पर हाथ से सहलाते जैसे उसे हौसला दे रहे हों। बुध्धो भी फिर शांत होकर खड़ी हो जाती। हम फिर से चिचडों का शिकार करने लगते। हम में ज्यादा से ज्यादा चिचड़ तोड़ कर कौली भरने का मुकाबला चलने लगता। कभी कभी तो पिता जी हमें चिचड़ों की गिनती के हिसाब से ईनाम देने की घोषणा कर देते।

चिचड़ तोड़ते हुए हम भी जैसे खेल खेलते रहते। गरीबों के बच्चों के खेल भी तो अजीब होते हैं। कौली में डालें हुए चिचड़ पानी में तैर कर उपर आ जाते तो हम डक्के से उसे फिर से पानी में डुबो देते। और यह डूबने डुबोने का खेल देर तक चलता रहता। तब तो हमें पता नहीं था जब बड़े हुए तो समझ आई कि बच्चों के खेल बड़ों के कारोबार के कामों से ही पैदा होते हैं।

' पिता जी आप सदा दो समय बुध्धो को नहलाते हो फिर भी हर सप्ताह मुठ्ठी भर चिचड़ तोड़ कर आग में जलाते रहते हैं। इतने में लग कहां से जाते हैं ?' हम अपने मन में उबल रहे सवालों के बारे उनसे स्पष्टीकरण मांगते।

' तुम नहीं नहाते ? फिर तुम्हें जूएं क्यों पड़ जाती ‌हैं ?' पिता जी हमसे उल्टा सवाल करते। हमें अपने सिरों में सर सर करतीं सफेद काली और भूरे रंग की जूएं याद आती। साथ ही साथ हमें बहुत बार सुनी हुई यह बुझारत याद हो आती , ' लंबी सुनहरी तारें बीच में चलती कारें।'

जब से बुध्धो ने कटड़ी को जन्म दिया था उसकी कद्र की गुणा बढ़ गई थी। हमें भी लगता जैसे मां बनने के बाद उसका नखरा ही ऊंचा हो गया था। मां काफी दिन उसे कनक की बौकलियां गुड़ मिलाकर खिलाती रही। मां तो जैसे उड़ती ही फिरती थी। वह बुध्धो को बुरी नजरों से बचाने के लिए सुबह शाम गूगल की धूप देती रहती। गूगल के धूएं की अजीब सी गंध से हम बच्चों का जैसे सांस घुटता मगर मां से डरते हम कुछ न बोलते। कभी कभी तो हमें भी लगता कि बुध्धो और उसकी औलाद को बुरी नजरों से बचाने के लिए मां जो भी करती है ठीक करती है।

बुध्धो के ब्याने का अभी हम बच्चे ठीक है चाव भी न मना पाए थे कि उसका असल मालिक आन पहुंचा था।

' कैसे करनी है फिर, बावा सिंह ? रखनी है या ...? ' उनके बोल सुनते ही मां और पिता जी के माथे से पसीने की बूंदें टपकने लगी थी। मालिकों ने बुध्धो के चारों ओर बिना मतलब ही तीन चार चक्कर लगाए। हमने महसूस किया कि मां और पिता जी के साथ साथ बुध्धो भी असहज महसूस कर रही थी।

" कोई ना, एक दो दिनों में बताते हैं सलाह करके। अधिक उम्मीद तो‌ यही है कि हम ही रख लेंगे। बड़ी देर बाद गुरु महाराज ने दूध का मुंह दिखलाया है।" घर की पतली आर्थिक हालत को ध्यान में रखते हुए पिता जी ने दोनों पक्ष रख लिए।

" पहल तुम्हारी है भाई।साल भर संभाली है तुमने। गर ना भी रखनी हो तो बता देना, चडिक वाली मंडी में बेच देंगे। तुम्हारे हिस्से की अमानत तुम्हें मिल जाएगी।हमारा हिस्सा हमें मिल जाएगा। वैसे भाई बावा सिंह गर तुमने रखनी हुई तो जो मोल पड़े उसमें से हमें चाहे हजार खंड कम ही दे देना। "

" मेहरबानी भाई आपकी। बाकी कर लेते हैं विचार, जैसे भी हुआ बता देंगे एक दो दिन में आपको।"

' वैसे पशु अच्छी नस्ल का है। इसकी मां ने आठ सूए दिये थे हमारे घर।घर रखने वाला पशु है। वैसे भाई बन्दे ने अपनी पुग्गत देखनी होती है। कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं। जैसे विचार बने तुम्हारा।" मां और पिता जी हैरान थे कि बुध्धो को जो लोग बांझ समझ कर किसी कसाई को दे देने की बातें करते थे आज वही बढ़िया नस्ल का पशु बता रहे थे।

बुध्धो के मालिक के चले जाने के बाद घर के माहौल में उदासी छा गई।घर के लोग किसी भी हालत में बुध्धो का घर से बाहर जाना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। दूसरी ओर आधे की रकम देने के भी घर के हालात नहीं थे। बुध्धो के घर से चले जाने की बात सोच कर ही मां के हाथों से बर्तन फिसलने लगे। हमारी भी घास और मंधाना खोद कर लाने की बिल्कुल रुह न मानती।

घर के जीवों को चुपचाप फिरते देख बुध्धो भी जैसे अंदर से उदास हो गई। वह किल्ले पर अविचल खड़ी रहती। उसकी जैसे भूख मर गई लगती। खुरली उसी तरह चारे से भरी रहती।बुध्धो के उतरे हुए चेहरे को देख मां फिर फिर रोने को हो आती। कितनी बार बकलियां डालने गई किल्ले को ही पकड़ कर बैठ जाती और कितनी कितनी देर वहीं बैठी रहती।

" ले पकड़, बेच छोड़। रहती घटती बढ़ती जहां से मर्जी पूरी कर। मैंने बुध्धो अपने घर से नहीं जाने देनी।" मां ने अपनी हल्की फुल्की चार आने सी बालियां पिता जी के हाथ पर ला धरी थी।

पिता जी ने बुझे हुए मन से बालियां पकड़ ली। मां को पता था कि इन चुआनी सी बालियों का भला क्या मिलना है। इसलिए ‌ही उसने कम ज्यादा की जिम्मेदारी घर के मुखिया पर डाल दी थी।

पिता जी ने चुआनी सी बालियों का क्या किया और कहां से बढ़ती घटती पूरी की, घर के किसी सदस्य को इसका कोई इल्म नहीं था मगर बुध्धो पक्के तौर पर घर का सदस्य बन गई थी। एक दो व्यापारी बुला कर उसका मोल डलवाया ओर आधे की बनती रकम मालिकों के हाथ जा धरी।

अब घर में खुशियों ने फिर से त्यौहार ला दिए थे। मां की खुशी का कोई पारावार न था। उसकी बीमार पड़ी चाल में गज़ब की फुर्ती आ गई थी। वह पाठी के बोलने से भी पहले जाग जाती और चारा डाल कर दूध दूह लेती। जल्दी जल्दी आंगन बुहार कर संगमरमर सा चमका देती। हम सब का नाश्ता तैयार करती और बुध्धो के लिए चारे के औहर पौहर में मसरूफ हो जाती।हम घर के बच्चे दहीं के साथ रोटी खाते और अपने आप को राजा महाराजा समझते। हमारे पैरों तले से मिट्टी निकल निकल जाती। पिता जी भी हर आने वाले के साथ बुध्धो के गुणों का बखान करते नहीं रखते थे।

घर के जीवों में जो सब से ज्यादा खुश थी तो वो बुध्धो थी। अब वह चारा खाते हुए अजीबोगरीब आवाज निकालती जैसे कोई गीत गा रही हो। बार बार सांकल को खटका कर कोई संगीत पैदा करती। कभी कभी गर्व में आकर मां को हल्के से धक्का मार देती। " देख क्या चज करती है ।" मां भी ऊपर ऊपर से झूठा गुस्सा दिखाती।

दिनों दिन घर में बुध्धो का सत्कार बढ़ता ही जा रहा था। अब वह कभी कभी गुस्सा भी दिखा देती। कईं बार बूंदाबांदी करके या और किसी कारण से अगर घास न लाया जा सकता तो बुध्धो की खुरली तूडी और खल फीड से भर देते। इस मौके पर बुध्धो का गुस्सा देखने वाला होता। वह तूडी में मुंह घुसा कर फुरकडा सा मारती और कितनी सारी तूडी खुरली के बाहर जा गिरती। वह बिना खाए मुंह को इधर उधर मार कर तूड़ी को खुरली से बाहर गिराती रहती। महंगे भाव से खरीदी तूड़ी इस तरह बर्बाद होती मां से देखी न जाती। वह बुध्धो को झयी लेके पड़ती। " खा ले, खा ले- जो अन्न पानी जुटता है। खा ले भगवान का नाम लेकर। अपने गरीब घरों में नहीं नखरे चलते। पेट ही भरना है चाहे सूखी हों या चोपड़ी हुई। खा ले चुप करके।"

वैसे बुध्धो को मारने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता मगर मां फिर भी उसे डरावा देने के लिए छोटा सा डंडा उस की ओर उठाती। बुध्धो आगे से तेवर तीखे कर लेती। वह और जोर से अपने मुंह को इधर उधर मारने लगती। सींगों को जल्दी जल्दी किल्ले से ठकोरती। नीची आंखों को उपर करके मां को घूरती। जैसे कह रही हो, ' लानेदारनीये एक बच्ची की मां हूं मैं भी। तुम नहीं बच्चा जन कर मान महसूस करती थी ? आप तो तुम छत्तीस प्रकार के भोजनों से नाक भौं सिकोड़ती होगी। पंजीरी मिला मिला कर नहीं थी खाती ? मेरी बारी बातें आती हैं तुम्हें। अब बता यह खाऊं, निरा सूखा पत्तर।इसके साथ अंदर गर्मी नहीं होगी। मैंने भी छोटी कटड़ी को दूध पिलाना है। साथ ही सुबह शाम बाल्टी लेकर बैठ जाती हो, यह रुखा सूखा खाकर कहां से भर दूं तुम्हारी दोहणी ?"

मां भी बुध्धो के गुस्से को ताड़ जाती। वह उसको परचाने के लिए आटे का पेड़ा बना कर खिलाती और मिन्नत करती, ' बेटी बुध्धो, तुमसे क्या छुपा है घर का ? अब तो सुख से साल से ज्यादा हो गया है तुम्हें घर आई को। हमारा क्या दिल नहीं करता तुम ताजी ब्याई को बडेवें खिलाने को। पर क्या करें राणिये, घर में तो ज़हर खाने को पैसा नहीं है। न दुःखी कर मेरा दिल।"

मां की आंखों में भर आए आंसुओं को देख कर बुध्धो भी पिघल जाती। वह मोह भरी नजरों से मां की ओर देखते हुए मां के हाथों को चाटने लगती। उसकी आंखें बोलने लगती , ' फ़िक्र न कर बीबी रानी। पांच बच्चे पैदा करुंगी, घर भर दूंगी तेरा। सारी गरीबी निकाल दूंगी तेरे घर से। बस सब्र रख थोड़ी देर।'

हमने बुध्धो की लाडली कटडी का नाम गांगडी मांगडी रख लिया था। चाव से हम उसे घर के आंगन में दौड़ाते फिरते रहते। मां ने उसके कान बींध कर उसमें रंग बिरंगी धागों की बनाई हुई माला डाल दी थी। गले में छोटी सी एक घंटी भी बांध थी। हम गांगड़ी मांगडी के साथ लाड़ प्यार करते तो वह भी मछर जाती। वह आंगन में हिरनी सी भागती फिरती। कईं बार वह उचक कर गिर पड़ती तो मां गालियां देने लगती ,' ओ कमलिया टब्बरा ! चोट चाट लग जाएगी बेजुबान को।' हम सोचते और मन ही मन हंसते कि मां को अपनी औलाद से भी ज्यादा फिक्र बुध्धो की औलाद का है।

किल्ले पर खड़ी बुध्धो का ध्यान भी हम पर ही होता। गांगडी मांगडी जिधर भी भाग कर जाती बुध्धो उधर को ही मुंह उठा लेती। जब कभी गांगडी मांगडी गिर पड़ती तो बुध्धो मुंह उठा कर औं.. औं.. करने लगती। हमें लगता कि जैसे वह मां को उलाहना दे रही हो , 'लाणेदारनीये समझा अपनी नालायक औलाद को। कल की बच्ची है मेरी, कैसे मूर्खों से भगाते फिरते हैं। भला गर कोई चोट फेट लग गई तो ?'

बुध्धो का मन देख कर मां हमें सख्ती से ताड़ती, ' हटजो वे हटजो। अपनी बुध्धो का दिल घटता है। देखो तो सही कैसे कलपती है। होता ही है भई। औलाद का किसे नहीं होता ? क्या हुआ अगर बेजुबान है तो। दिल दिमाग तो इनमें भी होता है।' मां गांगडी मांगडी को पकड़ कर बुध्धो के पास छोड़ आती। बुध्धो की जान में जान आ जाती।

बुध्धो बहुत बरकत वाली थी। सुबह शाम दूध की बाल्टी भर देती। घर में दूध दही की लहर बहर हो गई थी। स्कूल से आधी छुट्टी में आकर हम छिक्के से रोटियां उठाते उपर मक्खन रखते और कुंडी में रगड़ी हुई लाल मिर्च और अदरक वाला नमक उस पर रगड़ कर बड़े चाव से खाते। दुनिया का शायद कोई ही भोजन इतना स्वादिष्ट होता होगा। कितनी बार कुंडी में बचे खुचे नमक मिर्च में रोटी घुमा कर उसपर मसाला लगाते और गोल गोल मोड़ कर उसका घुघू बना कर बड़े चाव से खाते। बड़े बड़े कौर करते और लस्सी की घूटों से उसे अंदर करते। ऐसा लगता कि भगवान ने सभी न्यामतें हमारे घर भेज दीं हों। उस समय हम अपने परिवार को दुनिया का सबसे खुशहाल परिवार समझते।

परिवार में यह रंग बहारें अधिक दिन न चली। घर में दबी आवाज में बातें होती रहती। उदास स्वर वाली इस घुसर मुसर की भाषा को मैं और छोटा दोनों समझने में असमर्थ थे। बड़े बहन‌ भाई को शायद यह बातें समझ आती हों। इसलिए ‌ही बड़ा भाई बहुत बार चिड़चिड़ा हो कर हमें डांटने लगता। लेने देने वाले घर के चक्कर काटते रहते। घर के डिब्बों में चीनी और चायपत्ती गायब रहने लगी थी।

फिर राशन वाले इन डिब्बों को भरने के लिए गांगडी मांगडी और हमारे हिस्से का दूध गांव में खुली नई डैरी में जाने लगा। हम बच्चों की बारी से दूध डैरी में लेकर जाने की ड्यूटी लगती। हम दूध डैरी में डाल कर कापी में लिखवा लाते। हर पंद्रह दिन बाद डैरी वाले दूध का हिसाब करते। जिस दिन पहली बार पंद्रहवीं के पैसे मिले, मां ने लिफाफा पकड़ कर माथे से लगा लिया। मां की आंखें भर आईं थी। लिफाफे से पांच रुपए निकाल कर हमें कहने लगी, ' अपनी बुध्धो की पहली कमाई है। गुरुद्वारे मत्था टेक आना।'उस दिन मां ने देशी घी की देग तैयार करके बाबे के चिराग़ किए और भोग लगवाया था।'

बिना नागा अब दूध डैरी पर जाने लगा था और पंद्रहवीं पर मिलने वाला लिफाफा आकर राशन पानी चलाने लगा। बुध्धो ने घर का चुल्हा चौंका संभाल लिया था। बुध्धो अब घर का कमाऊ सदस्य थी। अब उसका आदर और भी ज्यादा होने लगा था। बुध्धो वैसे तो सभी का मोह करती थी मगर पिता जी का कुछ ज्यादा ही करती । शाम को वो जैसे ही घर आते बुध्धो मुंह उपर उठा कर ऊंची ऊंची रंभाने लगती। पूरे जोर से दो तीन बार सिर को किल्ले से मारती और फिर दाएं खुर से मिट्टी खोदने लगती। " आता हूं .. आता हूं.. करमां वालिए। लगता भूखी खड़ी है सुबह से।" पिता जी रोटी वाला डिब्बा और बैग रख कर बुध्धो की ओर जाते। " हां, भूखी है सुबह की। तुम्हारे बिना कौन घास डालता है इसको ? कहे भूखी है। यूं नखरा ही नहीं लिया जाता इसका। नखरों पट्टी है। सारा परिवार तो इसके इर्द-गिर्द घूमता रहता है। और क्या करें ? हमारी तो इसे कद्र ही नहीं है।" मां एतराज जताती।

दरअसल पिता जी बुध्धो का ख्याल ही बहुत रखते थे। सुबह सूरज उगने से भी पहले नलके से पानी की बाल्टी भर उसे मल मल कर नहाते। रविवार को तो उसकी खास सेवा होती। धो धो कर उसके खुरों को दूध सा सफ़ेद निकाल दिया जाता। जांघों पर सरसों के तेल की मालिश की जाती। शरीर पर खरखरा करते। सींगों को तेल लगा को मलते। पानी में नमक घोल कर पिलाते। नथुनों में हवा मारकर सफाई करते। आसपास से गुजरते लोग पिता जी को मजाक करते। भाभियों की जगह लगने वाली औरतें पिता जी को छेड़ती " भाई जी हर समय भैंस को ही नहलाते रहते हो, कभी आप भी नहा धो लिया करो।"

छेड़ने वाली तो चिंगारी लगा कर चलती बनती। पिता जी कितनी कितनी देर ठंडे गर्म श्लोक उसको सुनाते रहते , जो जाने वाली के पीछे दूर तक चले जाते। गली के मोड़ से भी हंसने और ठहाकों की आवाज देर तक सुनाई देती रहती।

चिचड़ तोड़ते को देखते हुए कोई भाभी भौजाई कुछ ज्यादा ही तीखी टिप्पणी कर जाती, ' भाई जी, यह चिचड़ हैं या चिचड़ियां ?' "यह तुम्हारे जैसे मोटे पेट वालों को तो चिचड़ ही लगते हैं।" जब तक पिता जी सिर ऊपर उठा कर गालियां देने लगते तंज कसने वाली गली का मोड़ मुड़ कर आंखों से ओझल हो जाती। यह वे दिन थे जब मां खुश थी, पिता जी खुश थे, हम खुश थे, गांगडी मांगडी खुश थी और बुध्धो भी।

फिर अचानक जैसे हमारी खुशियों को ग्रहण लग गया। एक दिन बैंक वाले आए थे। पिता जी ने उन्हें दूर से ही देख लिया था। पिता जी का चेहरा पीला पड़ गया था। आंख झपकते ही वह तूड़ी वाले कोठे में दरवाजे के पीछे जा छुपे थे। बैंक वाले बहुत ऊंचा नीचा बोलते रहे। घर के सारे सदस्य बहुत हीन भाव लिए बैंक वालों को तरस भरी नजरों से देखते रहे थे। मां हाथ जोड़ मिट्टी का बुत बने खड़ी थी। "अब हमारी बस है। कुछ न कुछ तो जरूर करो। सभी नहीं तो दो चार किश्तें ही उतारो। हमारी भी ऊपर से बहुत खिंचाई हो रही है। सरकार तो कहती है कुर्की...।"

बैंक का बड़ा अधिकारी तीखी चेतावनी देते हुए चला गया था। उसके जाने के बाद पिता जी अपने भारी शरीर को खींचते हुए दरवाजे के पीछे से बामुश्किल बाहर निकले थे। लगता था जैसे उनमें खून ही न हो। वह बुध्धो के गले लग कर जारो जार रोने लगे थे। बुध्धो को तो पिता जी के हर दुःख का पहले से ही पता चल जाता था। वह पिता जी के साथ अपना सिर रगड़ती रही, जैसे दिलासा दे रही हो।

बैंक के पैसे लौटाने का जुगाड करते करते कितने दिन बीत गए। मगर कहीं से भी बंदोबस्त न हो पाया। हर ओर से निराश होने के बाद पिता जी की नजरें बुध्धो पर आन टिकीं।

' कोई चारा नहीं चलता लगता। लगता है बुध्धो...?' बैंक के आधे अधूरे तो मुड़ेंगे।' पिता जी से बात पुरी नहीं थी हुई। मां तो सुनकर कांप ही उठी। बुध्धो को भी समझ आ गई होगी, वह निराश और उदास खड़ी थी।

' पहले ही कितने सालों बाद दूध देखा था बच्चों ने।अगर अब बुध्धो को भी बेच दिया, मुझे नहीं लगता मेरे जीते-जी इस घर में दूध आए। ' मां की आवाज़ में विलाप सा दर्द था।

' अब मैं और कहां जाकर डाका मारुं ? या फिर गहने धरा जाऊं। मुझे लगता है कोई कूआं या तालाब ही गंदा करना पड़ेगा। कभी कभी तो दिल करता है पेड़ से ही झूल जाऊं।' पिता जी की बेबसी देख कर मां ने भी अपने हथियार डाल दिए थे । वह अन्दर से बहुत डर गई थी।

मां अब चारा डालते समय खुरली ऊपर बैठ कर पागलों सी बुध्धो के आगे बोलती रहती, " है कोई हमारी जून ? सिसकियों सी जून है। हमारी तो सांसें भी गिरवी रखी है बेगानो के पास।"

बुध्धो सभी बातें सुनती रहती। अब वह मां के साथ गुस्सा नहीं थी होती बल्कि उसके कंधों पर अपना मुंह रख लेती। अपनी ओर से जैसे मिन्नत कर रही हो, ' मुझे क्या घर की तंगी नहीं पता ? तुम लाख छुपा कर रखो मैं सब जानती हूं। इसलिए तो अपना आप निचोड़ कर बाल्टी भर देती हूं दूध की। तुम्हारे बराबर जोर लगाती हूं कर्ज चुकाने के लिए। मेरे रब का वास्ता है तुम्हें, मुझे घर से मत निकालना। मैं तो वैसे ही मर जाऊंगी। मुझसे तुम्हारी जुदाई न‌ सही जाएगी।'

बेजुबान बुध्धो के दिल की भावनाओं को कौन समझता ? रोज ही कोई न कोई व्यापारी घर आया रहता। बुध्धो को बेचने के लिए जोरदार तैयारियां होने लगीं। पिता जी ने भी जान बूझ कर बुध्धो से अपना मोह तोड़ना शुरू कर दिया। वह बुध्धो के पास आना तो दूर उससे आंख भी न मिलाते। घर में होती इस हिलजुल से बुध्धो अंदर से बुरी तरह हिल गई थी।

और एक दिन नजदीक के गांव का एक व्यापारी घर वालों के साथ बुध्धो का सौदा पक्का करके साई पकड़ा गया। तीसरे दिन उसने सौदे की पूरी रकम उतार कर बुध्धो को ले जाना था। घर के सभी सदस्यों के चेहरे उतरे हुए थे। सभी एक दूसरे के सामने होने से भी कतराने लगे थे। घर में श्मशान सी चुप पसरी पड़ी थी।

आखिर वह दिन भी आन पहुंचा जिस दिन व्यापारी ने बनती रकम उतार कर बुध्धो को ले जाना था। उस दिन मां ने सुबह सुबह ही रोते हुए दूध निकाला। दूध भरी बाल्टी एक ओर रख कर मां दहाड़ मार कर बुध्धो के गले से लिपट गई। कईं दिनों से उसके अंदर रुका हुआ पानी का सैलाब बह पड़ा। मन को अच्छी तरह हल्का करके मां दूध की बाल्टी उठा कर चल पड़ी।

अभी दूध भरी बाल्टी ला कर सहन में रखी ही थी कि बाहर किल्ले पर बुध्धो धड़ाम करके गिर पड़ी। पलभर में घर में भूचाल आ गया। हम भाग कर बाबे गुरचरने को बुला कर लाए। वह गांव में ही नहीं पूरे इलाके में पशुओं के इलाज के लिए स्याना जाना जाता था। " क्या हुआ .. क्या हुआ..? आस पड़ोस के बहुत सारे लोग आ जुड़े थे। देखते ही देखते हमारा आंगन गांव के लोगों से बुरी तरह भर गया था।

" बस जी ! खड़ी खड़ी ही गिर पड़ी। कोई बीमार वगैरह भी नहीं हुई। ऐसे ही दो चार दिनों से घास चारा कम खाती थी। यह तो लगा ही नहीं कि यह बीमार है। कटड़ी को भी अच्छे से दूध पिलाया। बाल्टी भर कर दूध निकाला। बाल्टी अभी वैसे ही धरी है सहन में। देखते ही देखते धायं से गिर पड़ी।" हर आने जाने वाले को मां और पिता जी बता रहे थे।

"कहीं गरम शरद होई है कई दिनों से। तुम्हें पता नहीं चला। एक पासा मारा गया इसका।" गुरचरने ने अपने तजुर्बे का निचोड़ निकालते हुए कहा था।

फिर शुरू हुआ बुध्धो को ठीक करने का न खत्म होने वाला अंग्रेजी और देशी दवाईयों का इलाज। घर वालों ने गुरचरने के दिए भूने हुए कुचले आटे के पेड़े में गूंथ कर बुध्धो को खिलाए। अजवायन, सौंठ, सौंफ और पता नहीं कितनी जड़ी बूटियां पानी में उबालकर तैयार किया हुआ काढ़ा सुबह-शाम बांस की नलकी से बुध्धो के अंदर उड़ेलते। पहले तो कई दिन बुध्धो इधर उधर मुंह मार कर दवाई लेने से इंकार करती रही। जोर जबरदस्ती करते हुए कितनी बार कितनी सारी दवाई बाहर ही गिर जाती। फिर उसने हथियार डाल दिए। जब भी बांस की नाल लेकर उसके इर्द-गिर्द जाते बुध्धो दवाई लेने के लिए मुंह ऊपर उठा लेती। मां सुबह शाम उसके आसपास गूगल की धूनी सुलगाए रखती। घर के पास रहते भूत प्रेत निकालने वाले बाबे बंस से पानी करवा कर लाया गया। दोनों समय बुध्धो के आसपास इस पानी का छिड़काव किया जाता। कुछ पानी बुध्धो की दवाई में भी डाला जाता। बाबे बंस सहित और कई स्यानों ने घर वालों को यकीन दिला दिया था कि घर के इस दुधारू पशु पर किसी नजदीकी ने ही उल्टा सीधा कर रखा है। मां दोनों समय आस पड़ोसियों को गालियां निकालने लगती। घर का माहौल नरक सा बनने लगा था। हम सभी को दूध, दही और मक्खन सब भूल गया था।अब तो सूखी रोटियां कुंडी में घिसा कर खाने के दिन ही दोबारा आ गए थे।

बुध्धो की टांगें तो बिल्कुल ही काम करना छोड़ गई थी। सुबह शाम आस पड़ोस के बड़े और तगड़े लड़कों को बुला कर लाया जाता। निढाल पड़ी बुध्धो को डंडों के सहारे खड़ा किया जाता। उसकी टांगों और पसलियों की मालिश की जाती। दूध से भरे उसके थनों से गांगडी मांगडी को दूध चुंघाया जाता। बुध्धो कटड़ी को चूमने चाटने का प्रयास करती मगर उसकी कोई पेश न जाती। कुछ देर खड़ा करके उसे फिर से आराम करने के लिए लिटा दिया जाता। वह मुर्दों की भांति चौफाल गिर पड़ती और तरस भरी नजरों से वहां इकट्ठा हुए लोगों की ओर झांकती रहती।

बुध्धो दिन ब दिन घटती जा रही थी। कोई भी औहर पौहर उसके काम नहीं आ रहा था। हर समय पड़े रहने के कारण उसके पासे लगने शुरू हो गए थे। शरीर का मांस उधड़ने लगा था। जगह-जगह से टाकियां उतरने लगी थी। हालत दिन ब दिन बिगड़ती जाती थी। उसने खाना पीना छोड़ दिया था। भिन भिनाती हुई मक्खियां उसके जख्मों पर बैठने लगी थी। अपनी लम्बी पूंछ से उनको उड़ाने की हिम्मत भी अब उसमें नहीं बची थी। अच्छी कद काठ वाली बुध्धो असहाय होकर रह गई थी। उसकी सांस उखड़ी-उखड़ी चलती। पिता जी जो पहले पाठ करते हुए बुध्धो के ठीक होने की अरदास करते थे अब वह बुध्धो की मुक्ति मांगने लगे थे। कभी कभी पिता जी निढ़ाल पड़ी बुध्धो के सिर को सहलाने लगते। उनकी आंखें भर आतीं और बरबस बरसने लगती। बुध्धो की आंखों से भी अश्रु धारा बह निकलती। लगता जैसे कह रही हो , ' माफ करना, मैं अपना वादा न पूरा कर सकी। तुम्हारी गरीबी घर से निकालनी तो क्या थी बल्कि और डाल चली हूं।'

एक दिन बुध्धो लाश बन कर जमीन पर ढह पड़ी। सारे परिवार की चीखें आसमान छूने लगी। मां बार बार बुध्धो के गले लिपटती। हमारा तो जैसे सभी कुछ लुट चुका था। हम घर के बच्चे गांगडी मांगडी को आलिंगन में लेकर धायं धायं रो रहे थे।

फिर पता नहीं मरे हुए पशु उठाने वाले आतू को कौन संदेशा दे आया था। वह अपनी रेहड़ी लेकर आ गया। उसका तो सारा कारोबार ही पशुओं की मौत से चलता था। हमें वह बहुत बुरा लगा था।

' बहुत बुरा हुआ। बहुत ही बुरा। दूध वाला पशु तो गरीब की बांह होता है।' आतू कह रहा था। क्या पता सच ही बोल रहा हो ? आतू ने लड़कों को साथ लगा कर बुध्धो को रेहड़ी पर लाद लिया। बुध्धो का मुंह पीछे को लटका हुआ था। आंखें भी खुली हुई थी। जैसे मां से कह रही हों , " ज्यूण जोगिए ! मेरी बच्ची को पाल लेना औखी सौखी होकर। देखना दिनों में ही जवान हो जाएगी। सारा बोझ उतार देगी तुम्हारा। माफ करना ! भरा पूरा परिवार छोड़ कर किसका दिल करता है जाने को। पर क्या करूं----?" बुध्धो को जाते हुए देख कर पिता जी ने गर्दन घुमाकर चोरी चोरी अपनी आंखें पोंछी। शायद शरीके के सामने रो कर वह अपनी कमजोरी नहीं दिखाना चाहते थे।

" ले करमां वालिए-- जिस भी जूनी में जाए, सुख मनाए। हमारे घर का सुख तो तेरे नसीब में नहीं था। अंतिम समय में तो तूने नरक ही भोगा।" मां ने रोते रोते रेहड़ी के टायरों पर पानी डाला। और वह बुध्धो को ले जा रही रेहड़ी के पीछे पीछे दूर तक पानी की धार देती चलती रही।

(हिंदी अनुवाद : गुरमान सैनी)

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