Biography : Rahul Sankrityayan

जीवन परिचय : राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन (9 अप्रैल 1893 – 14 अप्रैल 1963) जिन्हें महापंडित की उपाधि दी जाती है हिंदी के एक प्रमुख साहित्यकार थे। वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद् थे और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत/यात्रा साहित्य तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। वह हिंदी यात्रासाहित्य के पितामह कहे जाते हैं। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिंदी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था। इसके अलावा उन्होंने मध्य-एशिया तथा कॉकेशस भ्रमण पर भी यात्रा वृतांत लिखे जो साहित्यिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

21वीं सदी के इस दौर में जब संचार-क्रांति (सञ्चार क्रान्ति) के साधनों ने समग्र विश्व को एक ‘ग्लोबल विलेज’ में परिवर्तित कर दिया हो एवं इण्टरनेट द्वारा ज्ञान का समूचा संसार क्षण भर में एक क्लिक पर सामने उपलब्ध हो, ऐसे में यह अनुमान लगाना कि कोई व्यक्ति दुर्लभ ग्रन्थों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों व नदियों के बीच भटकने के बाद, उन ग्रन्थों को खच्चरों पर लादकर अपने देश में लाए, रोमांचक लगता है, पर ऐसे ही थे भारतीय मनीषा के अग्रणी विचारक, साम्यवादी चिन्तक, सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत, सार्वदेशिक दृष्टि एवं घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के महान पुरूष राहुल सांकृत्यायन।

राहुल सांकृत्यायन के जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी यानी गतिशीलता रही है। घुमक्कड़ी उनके लिए वृत्ति नहीं वरन् धर्म था। आधुनिक हिंदी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन एक यात्राकार, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार साहित्यकार के रूप में जाने जाते है।

आरंभिक जीवन

राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में ९ अप्रैल १८९३ को हुआ था। उनके बाल्यकाल का नाम केदारनाथ पाण्डेय था। उनके पिता गोवर्धन पाण्डेय एक धार्मिक विचारों वाले किसान थे। उनकी माता कुलवंती अपने माता-पिता की अकेली पुत्री थीं। दीप चंद पाठक कुलवंती के छोटे भाई थे। वह अपने माता-पिता के साथ रहती थीं। बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण इनके नाना श्री राम शरण पाठक और नानी ने किया था। १८९८ में इन्हे प्राथमिक शिक्षा के लिए गाँव के ही एक मदरसे में भेजा गया। राहुल जी का विवाह बचपन में कर दिया गया। यह विवाह राहुल जी के जीवन की एक संक्रान्तिक घटना थी। जिसकी प्रतिक्रिया में राहुल जी ने किशोरावस्था में ही घर छोड़ दिया। घर से भाग कर ये एक मठ में साधु हो गए। लेकिन अपनी यायावरी स्वभाव के कारण ये वहा भी टिक नही पाये। चौदह वर्ष की अवस्था में ये कलकत्ता भाग आए। इनके मन में ज्ञान प्राप्त करने के लिए गहरा असंतोष था। इसीलिए यहाँ से वहा तक सारे भारत का भ्रमण करते रहे।

राहुल जी का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहाँ भी वे गए वहाँ की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहाँ के लोगों में घुलमिल कर वहाँ की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं काग्रेस अभी शैशवावस्था में थी। इन सब से राहुल अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेषधारी संन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् १९३० में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये। सन् १९३७ में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें इगोर राहुलोविच नामक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ। छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल ने उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण व जीवनी आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया परन्तु अधिकांश साहित्य हिन्दी में ही रचा। राहुल तथ्यान्वेषी व जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे सो उन्होंने हर धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। अपनी दक्षिण भारत यात्रा के दौरान संस्कृत-ग्रन्थों, तिब्बत प्रवास के दौरान पालि-ग्रन्थों तो लाहौर यात्रा के दौरान अरबी भाषा सीखकर इस्लामी धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया। निश्चितत: राहुल सांकृत्यायन की मेधा को साहित्य, अध्यात्म, ज्योतिष, विज्ञान, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति, भाषा, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के टुकड़ों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता वरन् समग्रतः ही देखना उचित है।

बौद्ध -धर्म की ओर झुकाव

१९१६ तक आते-आते इनका झुकाव बौद्ध -धर्म की ओर होता गया। बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर, वे राहुल सांकृत्यायन बने। बौद्ध धर्म में लगाव के कारण ही ये पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, आदि भाषाओ के सीखने की ओर झुके। १९१७ की रुसी क्रांति ने राहुल जी के मन को गहरे में प्रभावित किया। वे अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव भी रहे। उन्होंने तिब्बत की चार बार यात्रा की और वहा से विपुल साहित्य ले कर आए। १९३२ को राहुल जी यूरोप की यात्रा पर गए। १९३५ में जापान, कोरिया, मंचूरिया की यात्रा की। १९३७ में मास्को में यात्रा के समय भारतीय-तिब्बत विभाग की सचिव लोला येलेना से इनका प्रेम हो गया। और वे वही विवाह कर के रूस में ही रहने लगे। लेकिन किसी कारण से वे १९४८ में भारत लौट आए।

राहुल जी को हिन्दी और हिमालय से बड़ा प्रेम था। वे १९५० में नैनीताल में अपना आवास बना कर रहने लगे। यहाँ पर उनका विवाह कमला सांकृत्यायन से हुआ। इसके कुछ बर्षो बाद वे दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में जाकर रहने लगे, लेकिन बाद में उन्हें मधुमेह से पीड़ित होने के कारण रूस में इलाज कराने के लिए भेजा गया। १९६३ में सोवियत रूस में लगभग सात महीनो के इलाज के बाद भी उनका स्वास्थ्य ठीक नही हुआ। १४ अप्रैल १९६३ को उनका दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में देहांत हो गया।

साहित्यिक रुझान

राहुल जी वास्तव के ज्ञान के लिए गहरे असंतोष में थे, इसी असंतोष को पूरा करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहे। उन्होंने हिन्दी साहित्य को विपुल भण्डार दिया। उन्होंने हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त भारत के कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी उन्होंने शोध कार्य किये। वे वास्तव में महापंडित थे। राहुल जी की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे संपन्न विचारक थे। धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रासहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोष, प्राचीन ग्रंथो का संपादन कर उन्होंने विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनकी रचनाओ में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है। यह केवल राहुल जी थे, जिन्होंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिंतन को पूर्ण रूप से आत्मसात् कर मौलिक दृष्टि देने का प्रयास किया। उनके उपन्यास और कहानियाँ बिल्कुल नए दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं। तिब्बत और चीन के यात्रा काल में उन्होंने हजारों ग्रंथों का उद्धार किया और उनके सम्पादन और प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त किया, ये ग्रन्थ पटना संग्रहालय में है। यात्रा साहित्य में महत्वपूर्ण लेखक राहुल जी रहे है। उनके यात्रा वृतांत में यात्रा में आने वाली कठिनाइयों के साथ उस जगह की प्राकृतिक सम्पदा, उसका आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन और इतिहास अन्वेषण का तत्व समाहित होता है। "किन्नर देश की ओर", "कुमाऊ", "दार्जिलिंग परिचय" तथा "यात्रा के पन्ने" उनके ऐसे ही ग्रन्थ हैं। राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।" राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात् करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा। वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गया। उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है। वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् १९४७ में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा, पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले। इस कालावधि में वे किसी बंदिश से परे प्रगतिशील लेखन के सरोकारों और तत्कालीन प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे। इस बीच मार्क्सवादी विचारधारा को उन्होंने भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आकलन करके ही लागू करने पर जोर दिया। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में इस सम्बन्ध में उन्होंने सम्यक् प्रकाश डाला। अन्तत: सन् १९५३-५४ के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।

एक कर्मयोगी योद्धा की तरह राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। सन् १९४० के दौरान किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक वर्ष की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रन्थ की रचना कर डाली। १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के पश्चात् जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं में चार अंकों हेतु ‘गुण्डों से लड़िए’ शीर्षक से एक विज्ञापन जारी किया। इसमें एक व्यक्ति गाँधी टोपी व जवाहर बण्डी पहने आग लगाता हुआ दिखाया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इस विज्ञापन को छापने से इन्कार कर दिया पर विज्ञापन की मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने इसे छापने पर जोर दिया। अन्तत: राहुल ने अपने को पत्रिका के सम्पादन से ही अलग कर लिया। इसी प्रकार सन् १९४० में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष रूप में जमींदारों के आतंक की परवाह किए बिना वे किसान सत्याग्रहियों के साथ खेतों में उतर हँसिया लेकर गन्ना काटने लगे। प्रतिरोध स्वरूप जमींदार के लठैतों ने उनके सिर पर वार कर लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे। इसी तरह न जाने कितनी बार उन्होंने जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया और अपनी आवाज को मुखर अभिव्यक्ति दी।

घुमक्कड़ी स्वभाव

राहुलजी के बचपन का नाम केदारनाथ था। जब वे कक्षा-2 से कक्षा 3 में पहुँचे सन्त तो उर्दू की नयी पाठ्यपुस्तक में उन्हें एक प्रेरणाप्रद गुरुमन्त्र मिल गया। उन्हें एक शेर पढ़ने को नयर मिला- सैर कर दुनिया की गालिब , जिन्दगानी फिर कहाँ? जिन्दगानी अगर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहाँ? इस विषय में राहुलजी ने स्वयं लिखा है" इस शेर ने मेरे मन और भविष्य के जीवन पर बहुत प्रभाव डाला।" 1907 में वे घर से भागकर चार मास तक कोलकाता में रहे और 1909 में हदार 16 साल का केदार फिर कोलकाता भाग गया। काशी में रहकर संस्कृत का अध्ययन किया और बन्ध 17वें वर्ष में वैराग्य का मानस बना लिया। वे पैदल ही अयोध्या होते हुए मुरादाबाद पहुँचे और वहाँ से हरिद्वार गए। हरिद्वार से हिमालय, देव प्रयाग, टेहरी, जमनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा को । फिर प्रयाग की प्रदर्शनी देखने के लिए घर से निकल गए। बनारस में रहकर संस्कृत, अंग्रेजी और हिन्दी का अध्ययन किया। परसा (बिहार) मठ के उत्तराधिकारी बने। वहाँ से भागकर पुरी, रामेश्वर आदि तीर्थों की यात्रा की। तिरुमिशी गए, वहाँ चार महीने रहे और दक्षिण भारत के तीर्थों के दर्शन किए। सर्वप्रथम तिरुपति बालाजी के दर्शन किए। आगरा में रहकर अरबी भाषा का अध्ययन किया। वहाँ से लाहौर गए और इस तरह उन्होंने भारत के 3) विभिन्न स्थानों की अनेक बार यात्राएँ कीं। के से नके का उन्हें ज्ञान और और में यह कार गी फरवरी, 1923 में उन्होंने पहली बार नेपाल की यात्रा की और वहाँ डेढ़ मास तक रहे। 1936 में और फिर 1953 में उन्होंने नेपाल की यात्राएँ कीं। 1927 में वे श्रीलंका गए और वहाँ उन्नीस मास तक अध्यापन कार्य किया। 1960 में वे पुनः श्रीलंका गए और वहाँ रहकर अनेक ग्रन्थों की रचना की। 1932 में यूरोप, 1935 में जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत भूमि और ईरान की यात्रा की। 1938 में अफगानिस्तान, 1945 में ईरान और 1945 से 1947 तक पच्चीस -मास लेनिनग्राद विश्वविद्यालय रूस में प्राध्यापक का कार्य किया। वे चीन भी गए और तिब्बत भी। इस प्रकार उनका सम्पूर्ण जीवन एक यात्रा ही बनी रही। उन्होंने देश-विदेश के अनेकानेक स्थानों को न केवल देखा अपितु उन पर ग्रन्थों की रचना भी की। उनका जीवन एक यायावर का जीवन था। उनकी वृत्ति घुमक्कड़ी थी और अन्त तक घुमक्कड़ी ही बनी रही।

ग्यारह वर्ष की उम्र में हुए अपने विवाह को नकारकर वे बता चुके थे कि उनके अंतःकरण में कहीं न कहीं विद्रोह के बीजों का वपन हुआ है। यायावरी और विद्रोह ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ कालांतर में विकसित हो गईं, जिसके कारण पंदहा गाँव, आजमगढ़ में जन्मा यह केदारनाथ पांडेय नामक बालक देशभर में महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम से प्रख्यात हो गया।

राहुल सांकृत्यायन सदैव घुमक्कड़ ही रहे। सन्‌ १९२३ से उनकी विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर इसका अंत उनके जीवन के साथ ही हुआ। ज्ञानार्जन के उद्देश्य से प्रेरित उनकी इन यात्राओं में श्रीलंका, तिब्बत, जापान और रूस की यात्राएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। वे चार बार तिब्बत पहुँचे। वहाँ लम्बे समय तक रहे और भारत की उस विरासत का उद्धार किया, जो हमारे लिए अज्ञात, अलभ्य और विस्मृत हो चुकी थी। सांकृत्यायन ने बिहार में सारण जिला के "परसा गढ़" गाँव में कई साल बिताए।[1] गाँव के प्रवेश द्वार का नाम "राहुल गेट" है।

अध्ययन-अनुसंधान की विभा के साथ वे वहाँ से प्रभूत सामग्री लेकर लौटे, जिसके कारण हिन्दी भाषा एवं साहित्य की इतिहास संबंधी कई पूर्व निर्धारित मान्यताओं एवं निष्कर्षों में परिवर्तन होना अनिवार्य हो गया। साथ ही शोध एवं अध्ययन के नए क्षितिज खुले।

भारत के सन्दर्भ में उनका यह काम किसी ह्वेनसांग से कम नहीं आँका जा सकता। बाह्य यात्राओं की तरह इन निबंधों में उनकी एक वैचारिक यात्रा की ओर भी संकेत किया गया है, जो पारिवारिक स्तर पर स्वीकृत वैष्णव मत से शुरू हो, आर्य समाज एवं बौद्ध मतवाद से गुजरती हुई मार्क्सवाद पर जाकर खत्म होती है। अनात्मवाद, बुद्ध का जनतंत्र में विश्वास तथा व्यक्तिगत संपत्ति का विरोध जैसी कुछेक ऐसी समान बातें हैं, जिनके कारण वे बौद्ध दर्शन एवं मार्क्सवाद दोनों को साथ लेकर चले थे।

राष्ट्र के लिए एक राष्ट्र भाषा के वे प्रबल हिमायती थे। बिना भाषा के राष्ट्र गूँगा है, ऐसा उनका मानना था। वे राष्ट्रभाषा तथा जनपदीय भाषाओं के विकास व उन्नति में किसी प्रकार का विरोध नहीं देखते थे।

समय का प्रताप कहें या 'मार्क्सवादी के रूप में उनके मरने की इच्छा' कहें, उन्होंने इस आयातित विचार को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान 'परमब्रह्म' मान लिया और इस झोंक में वे भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, इतिहास आदि के बारे में कुछ ऐसी बातें कह बैठे या निष्कर्ष निकाल बैठे, जो उनकी आलोचना का कारण बने।

उनकी भारत की जातीय-संस्कृति संबंधी मान्यता, उर्दू को हिन्दी (खड़ी बोली हिन्दी) से अलग मानने का विचार तथा आर्यों से 'वोल्गा से गंगा' की ओर कराई गई यात्रा के पीछे रहने वाली उनकी धारणा का डॉक्टर रामविलास शर्मा ने तर्कसम्मत खंडन किया है। मत-मतांतर तो चलते रहते हैं, इससे राहुलजी का प्रदेय और महत्व कम नहीं हो जाता।

बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद दोनों का मिलाजुला चिंतन उनके पास था, जिसके आधार पर उन्होंने नए भारत के निर्माण का 'मधुर स्वप्न' सँजोया था, जिसकी झलक हमें उनकी पुस्तक 'बाईसवीं सदी' में भी मिल जाती है। श्री राहुल ने अपने कर्तृत्व से हमें अपनी विरासत का दर्शन कराया तथा उसके प्रति हम सबमें गौरव का भाव जगाया।

उनके शब्दों में- ‘‘समदर्शिता घुमक्कड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है और आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार।’’ यही कारण था कि सारे संसार को अपना घर समझने वाले राहुल सन् १९१० में घर छोड़ने के पश्चात पुन: सन् १९४३ में ही अपने ननिहाल पन्दहा पहुँचे। वस्तुत: बचपन में अपने घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण पिताजी से मिली डाँट के पश्चात् उन्होंने प्रण लिया था कि वे अपनी उम्र के पचासवें वर्ष में ही घर में कदम रखेंगे। चूँकि उनका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा ननिहाल में ही हुआ था सो ननिहाल के प्रति ज्यादा स्नेह स्वाभाविक था। बहरहाल जब वे पन्दहा पहुँचे तो कोई उन्हें पहचान न सका पर अन्तत: लोहार नामक एक वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें पहचाना और स्नेहासक्ति रूधे कण्ठ से ‘कुलवन्ती के पूत केदार’ कहकर राहुल को अपनी बाँहों में भर लिया। अपनी जन्मभूमि पर एक बुजुर्ग की परिचित आवाज ने राहुल को भावविभोर कर दिया। उन्होंने अपनी डायरी में इसका उल्लेख भी किया है- ‘‘लाहौर नाना ने जब यह कहा कि ‘अरे ई जब भागत जाय त भगइया गिरत जाय’ तब मेरे सामने अपना बचपन नाचने लगा। उन दिनों गाँव के बच्चे छोटी पतली धोती भगई पहना करते थे। गाँववासी बड़े बुजुर्गों का यह भाव देखकर मुझे महसूस होने लगा कि तुलसी बाबा ने यह झूठ कहा है कि- "तुलसी तहाँ न जाइये, जहाँ जन्म को ठाँव, भाव भगति को मरम न जाने धरे पाछिलो नाँव।।’’

घुमक्कड़ी स्वभाव वाले राहुल सांकृत्यायन सार्वदेशिक दृष्टि की ऐसी प्रतिभा थे, जिनकी साहित्य, इतिहास, दर्शन संस्कृति सभी पर समान पकड़ थी। विलक्षण व्यक्तित्व के अद्भुत मनीषी, चिन्तक, दार्शनिक, साहित्यकार, लेखक, कर्मयोगी और सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रूप में राहुल ने जिन्दगी के सभी पक्षों को जिया। यही कारण है कि उनकी रचनाधर्मिता शुद्ध कलावादी साहित्य नहीं है, वरन् वह समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म, दर्शन इत्यादि से अनुप्राणित है जो रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है तथा जीवन-सापेक्ष बनकर समाज की प्रगतिशील शक्तियों को संगठित कर संघर्ष एवं गतिशीलता की राह दिखाती है। ऐसे मनीषी को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को भी ले जाया गया। पर घुमक्कड़ी को कौन बाँध पाया है, सो अप्रैल १९६३ में वे पुन: मास्को से दिल्ली आ गए और १४ अप्रैल १९६३ को सत्तर वर्ष की आयु में दार्जिलिंग में सन्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया पर उनका जीवन दर्शन और घुमक्कड़ी स्वभाव आज भी हमारे बीच जीवित है।

राहुल जी घुमक्कड़ी के बारे मे कहते हैं:

“मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया। जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुत: तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते।”

व्यक्तित्व के आयाम

राहुल सांकृत्यायन उन विशिष्ट साहित्य सर्जकों में हैं जिन्होंने जीवन और साहित्य दोनों को एक तरह से जिया। उनके जीवन के जितने मोड आये, वे उनकी तर्क बुद्धि के कारण आये। बचपन की परिस्थिति व अन्य सीमाओं को छोडकर उन्होंने अपने जीवन में जितनी राहों का अनुकरण किया वे सब उनके अंतर्मन की छटपटाहट के द्वारा तलाशी गई थी। जिस राह को राहुलजी ने अपनाया उसे निर्भय होकर अपनाया। वहाँ न द्विविधा थी न ही अनिश्चय का कुहासा। ज्ञान और मन की भीतरी पर्तों के स्पंदन से प्रेरित होकर उन्होंने जीवन को एक विशाल परिधि दी। उनके व्यक्तित्व के अनेक आयाम हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा का विस्तार भी राहुलजी के गतिशील जीवन का ही प्रमाण है। उनके नाम के साथ जुडे हुए अनेक विशेषण हैं। शायद ही उनका नाम कभी बिना विशेषण के लिया गया हो। उनके नाम के साथ जुडे हुए कुछ शब्द हैं महापंडित, शब्द-शास्त्री, त्रिपिटकाचार्य, अन्वेषक, यायावर, कथाकार, निबंध-लेखक, आलोचक, कोशकार, अथक यात्री..... और भी जाने क्या-क्या। जो यात्रा उन्होंने अपने जीवन में की, वही यात्रा उनकी रचनाधर्मिता की भी यात्रा थी। राहुलजी के कृतियों की सूची बहुत लंबी है। उनके साहित्य को कई वर्गों में बाँटा जा सकता है। कथा साहित्य, जीवनी, पर्यटन, इतिहास दर्शन, भाषा-ज्ञान, भाषाविज्ञान, व्याकरण, कोश-निर्माण, लोकसाहित्य, पुरातत्व आदि। बहिर्जगत् की यात्राएँ और अंतर्मन के आंदोलनों का समन्वित रूप है राहुलजी का रचना-संसार। घुमक्कडी उनके बाल-जीवन से ही प्रारंभ हो गई और जिन काव्य-पंक्तियों से उन्होंने प्रेरणा ली, वे है ’’सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ, जंदगानी गर रही तो, नौजवानी फिर कहाँ ?‘‘

राहुलजी जीवन-पर्यन्त दुनियाँ की सैर करते रहे। इस सैर में सुविधा-असुविधा का कोई प्रश्न ही नहीं था। जहाँ जो साधन उपलब्ध हुए उन्हें स्वीकार किया। वे अपने अनुभव और अध्ययन का दायरा बढाते रहे। ज्ञान के अगाध भण्डार थे राहुलजी। राहुलजी का कहना था कि ’उन्होंने ज्ञान को सफर में नाव की तरह लिया है। बोझ की तरह नहीं।‘ उन्हें विश्व पर्यटक का विशेषण भी दिया गया। उनकी घुमक्कडी प्रवृत्ति ने कहा ’’घुमक्कडों संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।‘‘ अनेक ग्रंथों की रचना में उनके यात्रा-अनुभव प्रेरणा के बिंदु रहे हैं। न केवल देश में वरन् विदेशों में भी उन्होंने यात्राएँ की, दुर्गम पथ पार किए। इस वर्ग की कृतियों में कुछेक के नाम हैं- लद्दाख यात्रा, लंका यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, एशिया के दुर्गम भूखण्डों में, मेरी यूरोप-यात्रा, दार्जिलिंग परिचय, नेपाल, कुमाऊँ जौनसार, देहरादून आदि। जहाँ भी वे गये वहाँ की भाषा और वहाँ की संस्कृति और साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। अध्ययन से घुलमिल कर वहाँ की संस्कृति और साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। अध्ययन की विस्तृति, अनेक भाषाओं का ज्ञान, घूमने की अद्भुत ललक, पुराने साहित्य की खोज, शोध-परक पैनी दृष्टि, समाजशास्त्र की अपनी अवधारणाएँ, प्राकृत-इतिहास की परख आदि वे बिंदु हैं जो राहुलजी की सोच में यायावरी में, विचारणा में और लेखन में गतिशीलता देते रहे। उनकी यात्राएँ केवल भूगोल की यात्रा नहीं है। यात्रा मन की है, अवचेतन की भी है चेतना के स्थानांतरण की है। व्यक्तिगत जीवन में भी कितने नाम रूप बदले इस रचनाधर्मी ने। बचपन में नाम मिला केदारनाथ पाण्डे, फिर वही बने दामोदर स्वामी, कहीं राहुल सांकृत्यायन, कहीं त्रिपिटकाचार्य..... आदि नामों के बीच से गुजरना उनके चिंतक का प्रमाण था। राहुल बाह्य यात्रा और अंतर्यात्रा के विरले प्रतीक हैं।

ज्ञान की खोज में घूमते रहना राहुलजी की जीवनचर्या थी। उनकी दृष्टि सदैव विकास को खोजती थी। भाषा और साहित्य के संबंध में राहुलजी कहते हैं- ’’भाषा और साहित्य, धारा के रूप में चलता है फर्क इतना ही है कि नदी को हम देश की पृष्ठभूमि में देखते हैं जबकि भाषा देश और भूमि दोनों की पृष्ठभूमि को लिए आगे बढती है।..... कालक्रम के अनुसार देखने पर ही हमें उसका विकास अधिक सुस्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। ऋग्वेद से लेकर १९वीं सदी के अंत तक की गद्य धारा और काव्य धारा के संग्रहों की आवश्यकता है।‘‘

राहुलजी का पूरा जीवन साहित्य को समर्पित था। साहित्य-रचना के मार्ग को उन्होंने बहुत पहले से चुन लिया था। सत्यव्रत सिन्हा के शब्दों में - ’’वास्तविक बात तो यह है कि राहुलजी ने किशोरावस्था पार करने के बाद ही लिखना शुरू कर दिया था। जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके उसी प्रकार उनके हाथ की लेखनी भी नहीं रुकी। उनकी लेखनी की अजस्रधारा से विभिन्न विषयों के प्रायः एक सौ पचास से अधिक ग्रंथ प्रणीत हुए।‘‘

राहुलजी के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष है-स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी। भारत को आजादी मिले यह उनका सपना था और इस सपने को साकार करने के लिए वे असहयोग आंदोलन में निर्भय कूद पडे। शहीदों का बलिदान उन्हें भीतर तक झकझोरता था। उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था- ’’चौरी-चौरा कांड में शहीद होने वालों का खून देश-माता का चंदन होगा।‘‘

राहुलजी के व्यक्तित्व में परहेज जैसी कोई संकीर्णता नहीं थी। विगत को जानना ओर उसमें पैठना, वर्तमान की चुनौती को समझना और समस्याओं से संघर्ष करना, भविष्य का स्वप्न सँवारना-यह राहुलजी की जीवन पद्धति थी। अतीत का अर्थ उनके लिए महज इतिहास को जानना नहीं था, वरन् प्रकृत इतिहास को भी समझना और जानना था। इतिहास का उन्होंने नये अर्थ में उपयोग किया। उनके शब्दों में, -’’जल्दी ही मुझे मालूम हो गया कि ऐतिहासिक उपन्यासों का लिखना मुझे हाथ में लेना चाहिए..... कारण यह कि अतीत के प्रगतिशील प्रयत्नों को सामने लाकर पाठकों के हृदय में आदर्शों के प्रति प्रेरणा पैदा की जा सकती है।‘‘ उनकी अनेक कृतियाँ जैसे, सतमी के बच्चे, जोंक, बोल्गा से गंगा, जययौधेय, सिंह सेनापति आदि इस बात के परिचायक हैं कि राहुलजी इतिहास, पुरातत्व, परंपरा, व्यतीत और अतीत को अपनी निजी विवेचना दे रहे थे। राहुलजी की इतिहास-दृष्टि विलक्षण थी। वे उसमें वर्तमान और भविष्य की कडयाँ जोडते थे। इतिहास उनके लिए केवल ’घटित‘ का विवरण नहीं था। उसमें से वे दार्शनिक चिंतन का आधार ढूँढते थे।

पूरे विश्व साहित्य के प्रति राहुलजी के मन में अपार श्रद्धा थी। वह साहित्य चाहे इतिहास से संबंधित हो, या संस्कृति से, अध्यात्म से संबंधित हो या यथार्थ से-सबको वे शोधार्थी की तरह परखते थे। उनकी प्रगतिशीलता में अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को देखने का आग्रह था ओढी हुई विदेशी सभ्यता उनकी दृष्टि में हेय थी। वे अपनी भाषा, अपने साहित्य के पुजारी थे। वह साहित्य चाहे संस्कृत का हो, चाहे हिन्दी का, चाहे उर्दू का, चाहे भोजपुरी का। राष्ट्रीय चेतना के सन्दर्भ में वे कहते थे कि ’’यदि कोई ’’गंगा मइया‘‘ की जय बोलने के स्थान पर ’बोल्गा‘ की जय बोलने के लिए कहे, तो मैं इसे पागल का प्रलाप ही कहूँगा।‘‘

बोलियों और जनपदीय भाषा का सम्मान करना राहुलजी की स्वभावगत विशेषता थी। भोजपुरी उन्हें प्रिय थी। क्योंकि वह उनकी माटी की भाषा थी। लोक-नाट्य परंपरा को वे संस्कृति का वाहक मानते थे। लोकनाटक और लोकमंच किसी भी जनआंदोलन में अपनी सशक्त भूमिका निभाते हैं, यह दृष्टि राहुलजी की थी। इसीलिए उन्होंने भोजपुरी नाटकों की रचना की। इसमें उन्होंने अपना नाम ’’राहुल बाबा‘‘ दिया। सामाजिक विषमता के विरोध में इन नाटकों में और गीतों में अनेक स्थलों पर मार्मिक उक्तियाँ कही गई हैं। बेटा और बेटी के भेदभाव पर कही गई ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- ’’एके माई बापता से एक ही उदवा में दूनों में जनमवाँ भइल रे पुरखवा, पूत के जनमवाँ में नाच और सोहर होला बैटी जनम धरे सोग रे पुरखवा।‘‘ भोजपुरी के इन नाटकों को वे वैचारिक धरातल पर लाए और जन-भाषा में सामाजिक बदलाव के स्वर को मुखरित किया। ज्ञान की इतनी तीव्र पिपासा और जन-चेतना के प्रति निष्ठा ने राहुलजी के व्यक्तित्व को इतना प्रभा-मंडल दिया कि उसे मापना किसी आलोचक की सामर्थ्य के परे है। इसके अलावा जो सबसे बडी विशेषता थी-की वह यह थी कि यश और प्रशंसा के ऊँचे शिखर पर पहुँचकर भी वे सहृदय मानव थे राहुलजी भाषात्मक एकता के पोषक थे। वह सांप्रदायिक सद्भाव के समर्थक थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। वे हर भाषा और उसके साहित्य को महत्व ही नहीं देते थे, वरन् उसे अपनाने की बात कहते थे। हिन्दी के अनन्य प्रेमी होने के बावजूद वे उर्दू और फारसी के साहित्यकारों की कद्र करते थे, वे कहते हैं, ’’सौदा और आतिश हमारे हैं। गालिब और दाग हमारे हैं। निश्चय ही यदि हम उन्हें अस्वीकृत कर देते हैं तो संसार में कहीं और उन्हें अपना कहने वाला नहीं मिलेगा।‘‘

राहुलजी अद्भुत वक्ता थे। उनका भाषण प्रवाहपूर्ण और स्थायी प्रभाव डालने वाला होता था। एक बार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने राहुलजी की भाषण शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा था, ’’मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों, में वैसे तो बेधडक बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडत राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वत्ता के समक्ष अपने को बौना महसूस करता हूँ।‘‘ द्विवेदीजी का यह प्रशस्तिभाव इसलिए और भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि द्विवेदीजी स्वयं हिन्दी के असाधारण वक्ता और असाधारण विद्वान् थे। राहुलजी की कृतज्ञ भावना उनकी पुस्तक ’जिनका मैं कृतज्ञ‘ में देखने को मिलती है। इसके प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है, ’’जिनका मैं कृतज्ञ‘‘ लिखकर उस ऋण से उऋण होना चाहता हूँ, जो इन बुजुर्गों और मित्रों का मेरे ऊपर है। उनमें से कितने ही इस संसार में नहीं हैं। वे इन पंक्तियों को नहीं देख सकते। इनमें सिर्फ वही नहीं हैं जिनसे मैंने मार्गदर्शन पाया था। बल्कि ऐसे भी पुरुष हैं जिनका संफ मानसिक संबल के रूप में जीवन यात्रा के रूप में हुआ। कितनो से बिना उनकी जानकारी, उनके व्यवहार और बर्ताव से मैंने बहुत कुछ सीखा। मनुष्य को कृतज्ञ होना चाहिए।‘‘

राहुलजी का व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था कि उसको शब्दों की परिधि में बाँधना दुःसाध्य है। उनका अध्ययन और लेखन इतना विशाल है कि कई-कई शोधार्थी भी मिलकर कार्य करें तो भी श्रम और समय की कोई एक सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। प्रवाहपूर्ण लेखनी और पैनी दृष्टि से वे ऐसे रचनाधर्मी थे, जिसने अपने जीवनकाल में ही यश के ऊँचे शिखर छू लिए थे। राहुलजी शब्द-सामर्थ्य और सार्थक-अभिव्यक्ति के मूर्तिमान रूप थे।

हिन्दी प्रेम

हिन्दी को राहुलजी ने बहुत प्यार दिया। उन्हीं के अपने शब्द है, ’’मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला, संप्रदाय बदला लेकिन हिन्दी के संबंध में मैंने विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया।‘‘ राहुलजी के विचार आज बेहद प्रासंगिक हैं। उनकी उक्तियाँ सूत्र-रूप में हमारा मार्गदर्शन करती हैं। हिन्दी को खड़ी बोली का नाम भी राहुल जी ने ही दिया था।

हिन्दी के प्रसंग में वह कहते हैं:

“हिंदी, अंग्रेजी के बाद दुनिया के अधिक संख्यावाले लोगों की भाषा है। इसका साहित्य ७५० इसवी से शुरू होता है और सरहपा, कन्हापा, गोरखनाथ, चन्द्र, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, बिहारी, हरिश्चंद्र, जैसे कवि और लल्लूलाल, प्रेमचंद जैसे प्रलेखक दिए हैं इसका भविष्य अत्यंत उज्जवल, भूत से भी अधिक प्रशस्त है। हिंदी भाषी लोग भूत से ही नहीं आज भी सब से अधिक प्रवास निरत जाति हैं। गायना (दक्षिण अमेरिका), फिजी, मर्शेस, दक्षिण अफ्रीका, तक लाखों की संख्या में आज भी हिंदी भाषा भाषी फैले हुए हैं।”

१९४७ में जब वे सोवियत संघ से भारत वापस लौटे तो उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मलेन के बम्बई अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया।

वर्ष १९४८ में मुंबई में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में हिन्दी के सवाल पर राहुल जी के भाषण के कुछ अंशों पर उनकी अपनी ही पार्टी (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ) ने आपत्ति दर्ज की थी। लेकिन उन्होंने पार्टी के कहने पर अपने भाषण में उस अंश को हटाने से मना कर दिया जिसके कारण श्री सांकृत्यायन को बाद में पार्टी से निकाल दिया गया। वस्तुतः राहुल जी हिंदी-हिंदुस्तानी के विवाद में हिंदी के समर्थक थे और भारतीय भाषाओं में हिंदी को ही सर्वश्रेष्ठ स्थान देना चाहते थे जिस पर पार्टी सहमत नहीं थी।

हिंदी के प्रति राहुल सांकृत्यायन की प्रतिबद्धता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वे कभी भी रेडियो में कोई कार्यक्रम देने केवल इसलिए नहीं गए कि उसका कॉन्ट्रेक्ट पेपर अंग्रेजी में होता था। जब राष्ट्रभाषा का सवाल उठ खड़ा हुआ तो राहुल सांकृत्यान ने हिंदी-उर्दू मिश्रित हिंदुस्तानी जबान के बजाय हिन्दी का समर्थन किया। वे कहा करते थे कि जो लोग आज हिंदुस्तानी जबान की पैरोकारी राजनीतिक कारणों से कर रहे हैं, वे हिंदी-मुसलमान की एकता चाहते हैं। जबकि मैं हिंदी का इस कारण समर्थक हूँ कि हिंदी सबसे पुरानी भाषा है। हिंदी 850 ईस्वी से बोली जाती है। उन्होंने सरहपा को ढूंढ निकाला। राहुल जी का मत था कि यदि हिंदी का आगे विकास बढ़ना है तो हिंदी की प्रमुख बोली ‘कौरवी’ को समझना होगा। उन्होंने एक दिलचस्प बात यह कही कि हिंदी के कथाकारों में जो अधूरा चरित्र-चित्रण मिलता है उसका मुख्य कारण है कौरवी भाषा न समझ पाना। इसलिए हमें वैसे साहित्यकार चाहिए जो लोटा-डोरी लेकर ‘कौरवी’ की तरफ जाएं। ताकि जो हिंदी की लोकोक्तियां हैं, मुहावरें हैं उसको समझ सकें।

पुरस्कार व सम्मान

राहुल सांकृत्यायन की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से १९९३ में उनकी जन्मशती के अवसर पर १०० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। पटना में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संग्रहालय की स्थापना की गई है, जहाँ उनका जन्म हुआ था। वहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। साहित्यकार प्रभाकर मावचे ने राहुलजी की जीवनी लिखी है और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक १९७८ में पहली बार प्रकाशित हुई थी। इसका अनुवाद अंग्रेज़ी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी प्रकाशित हुआ। राहुलजी की कई पुस्तकों के अंग्रेज़ी रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी उनकी कृतियां लोकप्रिय हुई हैं। उन्हें १९५८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, तथा १९६३ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।

राहुल का संघर्ष (पुस्तक)

महापंडित राहुल सांकृत्यायन को लेकर समय-समय पर काफी लिखा जाता रहा है। फलस्वरूप पढ़ने की दृष्टि से उन पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, किंतु श्रीनिवास शर्मा की पुस्तक 'राहुल का संघर्ष' एक पृथक कोण पर केंद्रित है। यह कोण है राहुलजी के जीवन एवं कार्यों में अविच्छिन्न संघर्ष की धारा का प्रवाहमान रहना।

पुस्तक में लेखक के अठारह (उपसंहार सहित) निबंध संकलित हैं। इनमें प्रथम चार का संबंध राहुलजी की कुल परंपरा, उनके माता-पिता, उनके प्रथम विवाह एवं उनके किशोर मन में मौजूद अस्वीकार एवं विद्रोह की मुद्रा से है। आगे आने वाले निबंधों में उनके घुमक्कड़ स्वभाव, भाषा, साहित्य तथा ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में उनकी खोजों एवं उपलब्धियों, बौद्ध धर्म तथा दर्शन के प्रति उनके झुकाव तथा दीक्षा, मार्क्सवाद, किसान आंदोलन आदि को लेकर व्यापक चर्चा हुई है।

निबंध क्रमांक चौदह-पंद्रह में राष्ट्रभाषा एवं जनपदीय भाषाओं के बारे में उनके विचार हैं। अंत के निबंधों में उनकी इतिहास दृष्टि तथा रचनाओं की संक्षिप्त रूपरेखा को विषयवस्तु बनाया गया है। पुस्तक रोचक बन पड़ी है। निबंधों में राहुलजी से संबंधित अनेक अनछुए पहलू भी सामने आए हैं।

प्रभाव

विश्व के कई सम्मानित भाषाविद मानते हैं कि राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी के साथ-साथ भारत की सबसे प्राचीन भाषा पाली और संस्कृत को दुनिया में इस तरह प्रतिष्ठित कराया कि आज पाली और संस्कृत के सबसे बड़े अध्येता भारत की बजाय, यूरोपीय देशों के निवासी हैं। जर्मनी के प्रसिद्ध अध्येता अर्नस्ट स्टेनकेलेनर ने राहुल सांकृत्यायन के प्रभाव में पालि, संस्कृत और तिब्बती पर अपनी दक्षता कायम की. स्टेनकेलेनर ने तिब्बती पाण्डुलिपियों पर गहन शोध किया है, जिसे नीदरलैंड रॉयल अकेडमी ऑफ़ आर्ट्स एंड साइंस ने 2004 में प्रकशित किया है। स्टेनकेलेनर के अनुसार भारत से बाहर के शोध संस्थानों में राहुल सांकृत्यायन को जो स्थान प्राप्त है, वह किसी भारतीय राजनेता के लिए भी मुमकिन नहीं है।-जय प्रकाश पाण्डेय.

साहित्यिक कृतियां

कहानियाँ

सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा ।

उपन्यास

बाईसवीं सदी, जीने के लिए, सिंह सेनापति, जय यौधेय, भागो नहीं, दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास, विस्मृत यात्री, दिवोदास, सप्तसिन्धु ।

यात्रा वृत्तांत

मेरी जीवन यात्रा, मेरी लद्दाख यात्रा, किन्नर प्रदेश में, रूस में 25 मास, यूरोप यात्रा ।

जीवनियाँ

सरदार पृथ्वीसिंह, नए भारत के नए नेता, बचपन की स्मृतियाँ, अतीत से वर्तमान, स्टालिन, लेनिन, कार्ल मार्क्स, माओ-त्से-तुंग, घुमक्कड़ स्वामी, असहयोग के मेरे साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली, सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन, कप्तान लाल, सिंहल के वीर पुरुष, महामानव बुद्ध।

यात्रा साहित्य

लंका, जापान, इरान, किन्नर देश की ओर, चीन में क्या देखा, मेरी लद्दाख यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, तिब्बत में सवा वर्ष, रूस में पच्चीस मास, विश्व की रूपरेखा, ल्हासा की ओर, शांतिनिकेतन में।

निबंध

ऋग्वैदिक आर्य, दर्शन दिग्दर्शन, तुम्हारी क्षय - भारतीय जाती व्यवस्था, चल चलन पर व्यंग, मध्य एसिया का इतिहास, दक्खिनी हिंदी का व्याकरण।

अनुवाद

मज्झिम निकाय - हिंदी अनुवाद, दीघ निकाय - हिंदी अनुवाद, संयुत्त निकाय - हिंदी अनुवाद।

उपेक्षा

यह बेहद दुखद है कि केदार पाण्डेय को जिस बिहार के खेत-खलिहानों, किसानों के संघर्ष और जेलों ने सभ्यता का महान यायावर, ज्ञानी महापंडित राहुल सांकृत्यायन बनाया, और जिन्होंने प्रतिदान स्वरूप उस धरती को अपनी यायावरी से अर्जित सबसे बड़ी थाती हजारों तिब्बती पांडुलिपी, पुरातत्व और थंका चित्र प्रदान कर दिया, उसने उसे वह मान नहीं दिया, जिसका वे हकदार थे। बिहार सरकार और पटना संग्रहालय आज भी उसके संपूर्ण अध्ययन में अक्षम साबित हुआ है। -जय प्रकाश पाण्डेय

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