जीवन परिचय और रचनाएँ : इंदिरा गोस्वामी
Biography : Indira Goswami
इंदिरा गोस्वामी (१४ नवम्बर १९४२ - नवम्बर, २०११) असमिया साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर थीं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती गोस्वामी असम की चरमपंथी संगठन उल्फा यानि युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम और भारत सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की राजनैतिक पहल करने में अहम भूमिका निभाई। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास मामरे धरा तरोवाल अरु दुखन उपन्यास के लिये उन्हें सन् १९८२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (असमिया) से सम्मानित किया गया।
जीवन परिचय
इनका जन्म : १४ नवम्बर १९४३ गुवाहाटी असम में हुआ था और इसी गुवाहाटी में उन्होंने अंतिम सांस ली।
शिक्षा
गुवाहाटी विश्वविद्यालय से असमिया में एम ए तथा 'माधव कांदली एवं गोस्वामी तुलसीदास की रामायण का तुलनात्मक अध्ययन' पर पी एच डी।
सम्प्रति
दिल्ली विश्वविद्यालय के आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत रहीं।
गोस्वामी को उनके मौलिक लेखन के लिए जाना जाता है। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर काफी लिखा था। उन्होंने भारत में महिला सशक्तीकरण पर जोर दिया था।
14 नवम्बर 1942 को जन्मी डॉ॰ गोस्वामी की प्रारंभिक शिक्षा शिलांग में हुई लेकिन बाद में वह गुवाहाटी आ गईं और आगे की पढ़ाई उन्होंने टी सी गर्ल्स हाईस्कूल और काटन कालेज एवं गुवाहाटी विश्वविद्यालय से पूरी की। उनकी लेखन प्रतिभा के दर्शन महज 20 साल में उस समय ही हो गए जब उनकी कहानियों का पहला संग्रह 1962 में प्रकाशित हुआ जबकि उनकी शिक्षा का क्रम अभी चल ही रहा था। वह देश के चुनिंदा प्रसिद्ध समकालीन लेखकों में से एक थीं। उन्हें उनके 'दोंतल हातिर उने खोवडा होवडा' ('द मोथ ईटन होवडाह ऑफ ए टस्कर'), 'पेजेज स्टेन्ड विद ब्लड और द मैन फ्रॉम छिन्नमस्ता' उपन्यासों के लिए जाना जाता है।
उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी का परिचय उनके आत्मकथात्मक उपन्यास 'द अनफिनिशड आटोबायोग्राफी'में मिलता है। इसमें उन्होंने अपनी जिन्दगी के तमाम संघर्षों पर रोशनी डाली है। यहां तक कि इस किताब में उन्होंने ऐसी घटना का भी जिक्र किया है कि दबाव में आकर उन्होंने आत्महत्या करने जैसा कदम उठाने का प्रयास किया था। तब उन्हें उनके बेपरवाह बचपन और पिता के पत्रों की यादों ने ही जीवन दिया। शायद इसी ईमानदारी तथा आत्मालोचना के बल ने उन्हें असम के अग्रणी लेखकों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया।
डॉ॰ गोस्वामी ने माधवन राईसोम आयंगर से 1966 में विवाह किया था लेकिन विवाह के महज डेढ़ साल बाद कश्मीर में हुई एक सड़क दुर्घटना में माधवन की हुई मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया। इसके बाद वह पूरी तरह से टूट गईं। एक समय तो वह वृंदावन जाने का मन बना लिया था, जिसे हिंदू विधवाओं के लिए एक गंतव्य माना जाता है। उन्हें इस सदमे से उबरने में काफी वक्त लगा। वह इससे बाहर तो आई लेकिन गमजदा होकर। यह तकलीफ उनके लेखन में सहज ही महसूस की जा सकती है।
उन्हें 1983 में उनके उपन्यास 'मामारे धारा तारवल' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। साल 1988 में उनकी आत्मकथा 'अधलिखा दस्तावेज' प्रकाशित हुई।
वह दिल्ली विश्वविद्यालय में असमिया भाषा विभाग में विभागाध्यक्ष भी रही। उनकी प्रतिष्ठा की चमक के कारण उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मानद प्रोफेसर का दर्जा प्रदान किया। उन्हें डच सरकार का 'प्रिंसिपल प्रिंस क्लाउस लाउरेट' पुरस्कार भी प्रदान किया गया था।
उन्हें साल 2000 में साहित्य जगत का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और 2008 में प्रिंसीपल प्रिंस क्लॉस लॉरिएट पुरस्कार मिला। उन्हें रामायण साहित्य में विशेषज्ञता के लिए साल 1999 में मियामी के फ्लोरिडा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार मिला था। गोस्वामी की किताबों का कई भारतीय व अंग्रेजी भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
साहित्य
उपन्यास
चेनाबर स्रोत (१९७२), नीलकण्ठी ब्रज (१९७६), अहिरण (१९८०), मामरे धरा तरोवाल आरु दुखन उपन्यास (१९८०), दँताल हातीर उँये खोवा हाओदा (१९८८), संस्कार, उदयभानुर चरित्र इत्यादि (१९८९), ईश्बरी जखमी यात्री इत्यादि (१९९१), तेज आरु धूलिरे धूसरित पृष्ठा (१९९४), मामनि रयछम गोस्बामीर उपन्यास समग्र (१९९८), दाशरथीर खोज (१९९९), छिन्नमस्तार मानुहटो (२००१), थेंफाख्री तहचिलदारर तामर तरोवाल (२००६),
चुटिगल्प (लघुकथा)
चिनाकि मरम (१९६२), कइना (१९६६), हृदय एक नदीर नाम (१९९०), मामनि रयछमर स्बनिर्बाचित गल्प (१९९८), मामनि रयछम गोस्बामीर प्रिय गल्प (१९९८),
आत्मकथा
आधा लिखा दस्ताबेज (१९८८), दस्ताबेजर नतुन पृष्ठा (२००७),
जीवनी
महियसी कमला (१९९५), मा (२००८)
अनुवाद
प्रेमचन्दर चुटिगल्प ((१९७५), आधा घण्टा समय (१९७८), जातक कथा (१९९६), कलम (१९९६), आह्निक (२०००),
अंग्रेजी
Ramayana from Ganga to Brahmaputra (१९९६),
सम्पादन
एरि अहा दिनबोर (ड° मलया खाउन्दर के साथ, १९९३), Indian folklore,
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार १९८३,
असम साहित्य सभा पुरस्कार १९८८,
भारत निर्माण पुरस्कार १९८९,
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सौहार्द्र पुरस्कार १९९२,
कमलकुमारी फाउंडेशन पुरस्कार १९९६,
अन्तर्राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार फ्लोरिडा यू एस ए १९९९,
इसके अतिरिक्त "दक्षिणी कामरूप की गाथा" पर आधारित हिन्दी टी वी धारावाहिक तथा उक्त उपन्यास पर असमिया में निर्मित फिल्म "अदाज्य" को राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय ज्यूरी पुरस्कार प्राप्त।
इंदिरा गोस्वामी से बातचीत : अर्पण कुमार
अर्पण कुमार : साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर आप काम करती रही है और अध्यापन भी। आपने गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस और माधव कंदली की असमी रामायण का तुलनात्मक अध्यन किया है। आप इन दोनों रामायण में मोटे तौर पर क्या फर्क पाती हैं?
इंदिरा गोस्वामी : दोनों की मुख्य कहानी में कम फर्क है। हाँ, कंदली रामायण में असमिया समाज काफ़ी उभर कर आया है। माधव कंदली ने 'बराही राजा' (एक जनजातीय राजा) की राजसभा में रहकर रामायण लिखी। इसमें कबायली प्रभाव आ गया है। यहाँ स्त्रियों की जागरूकता और एकता का आलम यह है कि राम के बनवास की खबर सुनकर वे मंत्री के खिलाफ इकट्ठा होती हैं। उन्हें लगता है कि सुमंत ने ऐसा करने के लिए घूस ली है। बाद में वे अपने पतियों को पीटने लगती हैं कि तुम लोग राम को जाने से रोक क्यों नहीं पाए! तुलसी रामायण में ऐसी जागरूकता का अभाव है। उत्तरकांड में वहीं हम नारी का पतन देखते हैं। दोनों कवियों के युग में फर्क है।
फिर तुलसीदास बहुत सुखी नहीं थे। इसलिए ‘उत्तरकांड’ में कलयुग का वर्णन है। हिंदू समाज में हो रहे पतन को भी चित्रित किया गया है। हाँ, तुलसी की भाषा से मैं बहुत मुग्ध हुई। दीर्घ और अनूठे रूपक बांधे गए हैं। उनमें भाषा का संयम ऐसा है कि प्रगाढ़ सौंदर्य वर्णन में भी एक सुकुमारता और मर्यादा दिखती है। माधव कंदली ने मंथरा को काफ़ी शक्तिशाली दिखाया है। राम के वनवास के बाद मंथरा कई प्रकार के गहनों से ख़ुद को सजाती हैं और भरत के आगे उसकी उप- पत्नी बनने का गुप्त रूप से प्रस्ताव रखती है। कैकेयी की हमउम्र दासी से उसके ही बेटे के आगे ऐसा प्रस्ताव रखवाना- कंदली की इस पर काफ़ी निंदा भी हुई। लोग इन साधारण बातों में मज़ा लेते हैं, कंदली ने संभवतः यह सोचकर ऐसा किया।
कंदली का ‘हनुमान’, तुलसी के ‘हनुमान’ की ही तरह काफ़ी तेज है। जब वह लंका जाता है तो यह सोचकर कि राम को भी यहाँ आना है, रास्ते में पड़ने वाले सभी गड्ढों को भर देता है। सीता का पता लगाने के लिए रावण के महल में घुसकर सभी स्त्रियों का मुँह सूँघता है। जिस स्त्री के मुँह से शराब की गंध नहीं आएगी, राक्षसनियों के बीच वही सीता होगी , अपनी तर्कबुद्धि से वह सहज निष्कर्ष निकालता है। असमिया भाषा 13वीं शताब्दी से लिखित रूप में आती है और 14वीं शताब्दी में माधव कंदली की भाषा इतनी सुंदर और समृद्ध बन पड़ी है, इससे कंदली के सामर्थ्य और असमी की संभावना दोनों का पता चलता है।
अर्पण कुमार : 'नीलकंठी ब्रज' और 'दक्षिण कामरूप की गाथा' में विधवाओं की दारुण अवस्था का चित्रण है। आपकी आत्मकथा 'जिंदगी कोई सौदा नहीं' ('आधा लेखा दस्तावेज') में भी इनका काफ़ी उल्लेख आया है। आपने स्वयं वैधव्य की पीड़ा और समाज के ताने सहे हैं। इस पृष्ठभूमि में यह सारा चित्रण प्रामाणिक और एक लेखक के लिए अनिवार्य हो उठता है। कुछ बताएँ ?
इंदिरा गोस्वामी : 'दक्षिणी कामरूप की गाथा' में असम में 1940 से 1947 के दौरान घर के अंदर रहने वाली विधवाओं के दुख का वर्णन है। असम में सामान्यतः सभी शामिल होते हैं। विधवा होते ही निरामिष होना पड़ता है। सफ़ेद कपड़े पहनना और घर के अंदर तो रहना ही पड़ता है, खाना भी ज़्यादातर एक बारी मिलता है। वे मसूर का दाल, प्याज आदि भी नहीं खा सकतीं। विधवा विवाह तो था नहीं, लोग इसका फ़ायदा उठाते थे। रिश्तेदार ज़मीन हड़प लेते थे। ‘नीलकंठी ब्रज’ में पूर्वी बंगाल से वृंदावन आईं विधवाओं की आँखों देखी कारुणिक और वीभत्स स्थिति को उसकी पूरी सच्चाई के साथ उभारा गया है। अस्सी फीसदी राधेश्यामी विधवाएँ यहाँ गरीबी से तंग आकर तंग होकर आती थीं तो 20 फीसदी श्रद्धावश अपनी इच्छा से।
1972 में सुबह-शाम भजन करके किसी तरह ये एक रुपया कमा पाती थीं। 30 रुपए में कैसे पूरे महीने का गुज़ारा होता होगा, सहज कल्पना की जा सकती है। तिस पर मरने के बाद दाह-संस्कार की चिंता। इस चिंता से उबारने का सब्जबाग दिखाते पंडा लोग। पूरे वृंदावन में जगह-जगह भाँग खाकर बुढ़िया विधवाओं तक से छेड़खानी करते लफंगे। क्या क्या बताऊँ! मरे हुए सेठ के शरीर पर भिनभिनाती मक्खियाँ उससे फैलती बदबू और चंद सिक्कों की खातिर अंतिम संस्कार होने तक उसके चारों और प्रभु स्मरण करती विधवाएँ। अज़ीब सा रिवाज़ था। इस बाबत एक बार मैंने एक स्थानीय विधायक से बात की थी। उसका टका सा जवाब था- ‘यह पश्चिम बंगाल सरकार की समस्या है। हम कुछ नहीं कर सकते।’
अर्पण कुमार : आप की भाषा में प्रकृति के उपादानों के लिए बड़े वीभत्स और अज़ीब साम्य आते हैं। महिला लेखन आमतौर पर ऐसे बिंबों से बचता है। निश्चय ही आप उस प्रचलित परिधि से बाहर जाती हैं, मगर ऐसे उपमान चुनने की क्या वजह है?
इंदिरा गोस्वामी : प्रकृति भाषा का एक बड़ा उपादान है। अपनी संवेदना और शब्द को शक्ति देने के लेखक प्रकृति को लेकर आता है। मैं तो बचपन से ही ‘डिप्रेशन’ में रहती थी। पिता को इतना चाहती थी कि हरदम उनकी मृत्यु का ख़याल आता था। डर ऐसा कि उनसे पहले ख़ुद मर जाना चाहती थी। आख़िर पिता एक दिन चले ही गए। पिता के जीवित रहते, मेरे विवाह के लिए कुछ बड़े अच्छे प्रस्ताव आए थे, लेकिन जैसे ही उनकी मृत्यु हुई, सबने मुँह फेर लिया। माँ ने कई जगहों पर अच्छे लड़के देख कर बात चलाई थी, मगर हर प्रयास विफल रहा। ज्योतिषी भी कुछ ऐसे ही थे। नवग्रह मंदिर के एक पंडित ने तो मेरे सामने ही माँ को कह दिया था, ‘इस लड़की की शादी करने से बेहतर है इसके दो टुकड़े करके नदी में फेंक दो।’ हालाँकि, बाद में उसी ज्योतिषी ने मुझे काफ़ी उत्साहित किया और मुझमें अध्यवसाय की ज्योति देखी।
मेरे पति माधवन रायसम की जब जीप-दुर्घटना में मृत्यु हुई, तब मेरी शादी के डेढ़ वर्ष भी नहीं हुए थे। उनके साथ बिताए वे थोड़े पल मेरे स्वर्णकाल थे। उसके बाद तो मैं आकाश की ओर देख तक नहीं पाती थी। जब कभी देखती तो बादल मुझे कोढ़ी के चकत्ते जैसे दिखते। आकाश में जगह-जगह मुझे धब्बे दिखाई पड़ते, बलात्कार के बाद छोड़ दी गई स्त्री के कपड़े पर फैले ख़ून के धब्बे सदृश। कभी मुझे लगता आकाश हमारे सिर पर उसी तरह लटका है जिस तरह कसाई के यहाँ कटे हुए बकरे का लोथ लटका होता है। सोचती, यह वही आकाश और उसके रंग हैं, जिसे माधवन के साथ राजस्थान और कश्मीर के सुदूर इलाक़ों में रहते घंटों निहारा करती थी। जैसा भी ख़याल आता, लिखती जाती। इतने मोर्चों पर उजड़ी, लेकिन बार-बार इस लेखन ने मुझे बसाया। मैं शब्दों के संसार में अपनी ही कहानी लिखकर अपने ही दुःख से मुक्त हुई। अकेलेपन का रोना रोने के बजाय उसे अभिव्यक्ति और सार्थकता प्रदान करने की कोशिश की।
अर्पण कुमार : आप के तीन उपन्यासों ‘मामरे धरा तरोवाल’, ‘चेनाबेर स्रोत’ और ‘अहिरन’ में पुल निर्माण कार्यों के जोखिम, कंस्ट्रक्शन कंपनियों के मातहत काम करने वाले इंजीनियरों और ज़्यादातर मजदूरों के शोषण आदि का चित्रण है। आप इन समस्याओं को किस रूप में देखती हैं?
इंदिरा गोस्वामी : ‘चेनाबेर स्रोत’ 1966-67 की कहानी है। तब कोई यूनियन नहीं थी। बड़ी-से-बड़ी दुर्घटना हो जाती और लोगों तक बात को पहुँचने नहीं दिया जाता। कोई विरोध नहीं, कोई प्रदर्शन-धरना नहीं, अधिकार-चेतना से बिल्कुल शून्य्। जब मर्ज़ी जिसको निकाल दिया, भूखों मरने के लिए। यूनियनें 1970 में बनीं। पहले उसका शक्तिशाली और क्रमशः बाद में शिथिल और समझौतावादी होता रुख- दोनों मैंने देखे। ‘मामरे धरा तरोवाल’ को पूरा करने के लिए मैं रायबरेली के उस साइट पर छह महीने रही और सब कुछ अपनी आँखों से देखा। मैंने बेबस मज़दूरों को अपने भ्रष्ट नेताओं द्वारा दिग्भ्रमित होते देखा है जो मालिकों के आगे जूते चटकाते फिरते थे। सांगठनिक रूप से उन्हें मजबूत और ईमानदार होने की ज़रूरत है।
अर्पण कुमार : ‘तुलनात्मक भारतीय साहित्य’ में विश्वविद्यालय स्तर पर उच्च्तर अध्ययन और शोध के लिए काफ़ी कम जगह हैं। इस समस्या को आप कितना गंभीर मानती हैं?
इंदिरा गोस्वामी : निश्चित रूप से इस क्षेत्र में काफ़ी काम करने की गुंजाइश है। अव्वल तो ऐसे कामों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था नहीं है। अगर हरेक राज्य इसके लिए दो-तीन छात्रवृत्तियाँ भी रखें तो काफ़ी काम संभव हो सकता है। नए लोग भी रुचि दिखाएँगे। अभी तो दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘आधुनिक भारतीय भाषा विभाग’ की स्थिति ऐसी है कि ज़्यादातर लोग डीटीसी पास बनवाने या किसी तरह छात्रावास प्राप्त करने के लिए इस तरह के पाठ्यक्रम में नामाँकन करा लेते हैं। विश्वविद्यालय के विभिन्न साहित्य विभागों में तुलनात्मक अध्ययन को अनिवार्य बनाने की ज़रूरत है। असम में आप असमिया और अँग्रेज़ी सहित का तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं बाक़ी जगहों पर भी ऐसे अध्ययन को प्रतिष्ठित और लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है।
अर्पण कुमार : दूसरी भारतीय भाषाओं में आप किन रचनाकारों और रचनाओं को विशेष रूप से पसंद करती हैं?
इंदिरा गोस्वामी : हिंदी में फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ और भीष्म साहनी के ‘तमस’ से मैं काफ़ी प्रभावित रही हूँ। पंजाबी में सोहन सिंह शीतल का ‘युग बदल गया’ और अमृता प्रीतम का 'पिंज़र’ मुझे काफ़ी अच्छा लगा। दक्षिण के शिवराम कारंत और शिवशंकर पिल्लई को पढ़ना एक अद्भुत रहा।