बिजूका (कहानी) : सुरेंद्र प्रकाश

Bijooka (Story in Hindi) : Surendra Parkash

प्रेमचंद की कहानी का होरी इतना बूढ़ा हो चुका था कि उसकी पलकों और भवों तक के बाल सफेद हो गए थे, कमर में खम पड़ गया था और हाथों की नसें साँवले खुरदुरे गोश्त से उभर आई थीं।

इस असना में उसके यहाँ दो बेटे हुए थे जो अब नहीं रहे। एक गंगा में नहा रहा था कि डूब गया और दूसरा पुलिस मुकाबले में मारा गया। पुलिस के साथ उस का मुकाबला क्यूँ हुआ इस में कुछ ऐसी बताने की बात नहीं। जब भी कोई आदमी अपने वजूद से वाकिफ होता है और अपने इर्द गिर्द फैली हुई बे-चैनी महसूस करने लगता है तो उसका पुलिस के साथ मुकाबला हो जाना कुदरती हो जाता है। बस ऐसा ही कुछ उसके साथ हुआ था... और बूढ़े होरी के हाथ हल के हत्थे को थामे हुए एक बार ढीले पड़े जरा काँपे और फिर उनकी गिरफ्त अपने आप मजबूत हो गई। उसने बैलों को हाँक लगाई और हल का फल जमीन का सीना चीरता हुआ आगे बढ़ गया।

उस दिन आसमान सूरज निकलने से पहले कुछ ज्यादा ही सुर्ख था और होरी के आँगन के कुएँ के गिर्द पाँचों बच्चे नंग-धड़ंग बैठे नहा रहे थे। उसकी बड़ी बहू कुएँ से पानी निकाल निकाल कर उन पर बारी बारी उड़ेलती जा रही थी और वो उछलते हुए पानी उछाल रहे थे। छोटी बहू बड़ी बड़ी रोटियाँ बना कर चंगेरी में डाल रही थी और होरी अंदर कपड़े बदल कर पगड़ी बांध रहा था। पगड़ी बांध कर उसने ताकचे में रक्खे आईने में अपना चेहरा देखा... सारे चेहरे पर लकीरें फैल गईं। उसने करीब ही लटकी हुई हनुमान जी की छोटी सी तसवीर के सामने आँखें बंद कर के दोनों हाथ जोड़ कर सर झुकाया और फिर दरवाजे में से गुजर कर बाहर आँगन में आ गया।

"सब तैयार हैं?" उसने कदरे ऊँची आवाज में पूछा।

"हाँ बापू..." सब बच्चे एक साथ बोल उठे। बहुओं ने अपने सुरों पर पहलू दरुस्त किए और उनके हाथ तेजी से चलने लगे। होरी ने देखा कि कोई भी तैयार नहीं था। सब झूठ बोल रहे थे। उसने सोचा ये झूठ हमारी जिंदगी के लिए कितना जरूरी है। अगर भगवान ने हमें झूठ जैसी नेमत न दी होती तो लोग धड़ाधड़ मरने लग जाते। उसके पास जीने का कोई बहाना न रह जाता। हम पहले झूठ बोलते हैं और फिर उसे सच करने की कोशिश में देर तक जिंदा रहते हैं।

होरी के पोते-पोतियाँ और बहुएँ... अभी अभी बोले हुए झूठ को सच साबित करने में पूरी तुंदही से जुट गईं। जब तक होरी ने एक कोने में पड़े कटाई के औजार निकाले... और अब वो सचमुच तैयार हो चुके थे।

उनका खेत लहलहा उठा था। फसल पक गई थी और आज कटाई का दिन था। ऐसे लग रहा था कि जैसे कोई त्यौहार हो। सब बड़े चाव से जल्द अज जल्द खेत पर पहुँचने की कोशिश में थे कि उन्होंने देखा सूरज की सुनहरी किरणों ने सारे घर को अपने जादू में जकड़ लिया है।

होरी ने अंगौछा कंधे पर रखते हुए सोचा। कितना अच्छा समय आ पहुँचा है न अहलमद की धौंस न बनिए का खटका न अंग्रेज की जोर जबरदस्ती और न जमींदार का हिस्सा... उस की नजरों के सामने हरे हरे खोशे झूम उठे।

"चलो बाबू।" उस के बड़े पोते ने उस की उँगली पकड़ ली बाकी बच्चे उसकी टाँगों के साथ लिपट गए। बड़ी बहू ने कोठरी का दरवाजा बंद किया और छोटी बहू ने रोटियों की पोटली सर पर रखी।

बीर बजरंगी का नाम लेकर सब बाहर की चारदीवारी वाले दरवाजे में से निकल कर गली में आ गए और फिर दाईं तरफ मुड़ कर अपने खेत की तरफ बढ़ने लगे।

गाँव की गलियों गलियारों में चहल पहल शुरू हो चुकी थी। लोग खेतों को आ जा रहे थे। सब के दिलों में मसर्रत के अनार छूटते महसूस हो रहे थे। सबकी आँखें पकी फसलें देखकर चमक रही थीं। होरी को लगा कि जैसे जिंदगी कल से आज जरा मुख्तलिफ है। उसने पलट कर अपने पीछे आते हुए बच्चों की तरफ देखा। वो बालक वैसे ही लग रहे थे जैसे किसान के बच्चे होते हैं। साँवले मरियल से... जो जीप गाड़ी के पहियों की आवाज और मौसम की आहट से डर जाते हैं। बहुएँ वैसी ही थीं जैसे गरीब किसान की बेवा औरतें होती हैं। चेहरे घूँघटों में छिपे हुए और लिबास की एक एक सिलवट में गरीबी जुओं की तरह छिपी बैठी।

वो सर झुका कर आगे बढ़ने लगा। गाँव के आखिरी मकान से गुजर कर आगे खिले खेत थे। करीब ही रहट खामोश खड़ा था। नीम के दरख्त के नीचे एक किताबे फिक्री से सोया हुआ था। दूर तबेले में कुछ गाएँ भैंसें और बैल चारा खा कर फुन्कार रहे थे। सामने दूर दूर तक लहलहाते हुए सुनहरी खेत थे... उन सब खेतों के बाद जरा दूर जब ये सब खेत खत्म हो जाएँगे और फिर छोटा सा नाला पार करके अलग थलग होरी का खेत था जिसमें झूना पक कर अँगड़ाइयाँ ले रहा था।

वो सब पगडंडियों पर चलते हुए दूर से ऐसे लग रहे थे जैसे रंग बिरंगे कपड़े सूखी घास पर रेंग रहे हों... वो सब अपने खेत की तरफ जा रहे थे। जिसके आगे थल था। दूर दूर तक फैला हुआ जिसमें कहीं हरियाली नजर न आती थी बस थोड़ी बे-जान मिट्टी थी। जिसमें पाँव रखते ही धँस जाता था। और मिट्टी यूँ भुरभुरी हो गई थी कि जैसे उसके दोनों बेटों की हड्डियाँ चिता में जल कर धूल बन गई थीं और फिर हाथ लगाते ही रेत की तरह बिखर जाती थीं। वो थल धीरे धीरे बढ़ रहा था। होरी को याद आया पिछले पच्चास बरसों में वो दो हाथ आगे बढ़ आया था। होरी चाहता था कि जब तक बच्चे जवान हों वो थल उस के खेत तक न पहुँचे और तब तक वो खुद किसी थल का हिस्सा बन चुका होगा।

पगडंडियों का न खत्म होने वाला सिलसिला और उस पर होरी और उसके खानदान के लोगों के हरकत करते हुए नंगे-पाँव...

सूरज आसमान की मशरिकी खिड़की में से झाँक कर देख रहा था।

चलते चलते उनके पाँव मिट्टी से अट गए थे। कई इर्द-गिर्द के खेतों में लोग कटाई करने में मसरूफ थे वो आते-जाते को राम-राम कहते और फिर किसी अनजाने जोश और वलवले के साथ टहनियों को दराँती से काट कर एक तरफ रख देते।

उन्होंने बारी बारी नाला पार किया। नाले में पानी नाम को भी न था... अंदर की रेत मिली मिट्टी बिलकुल खुश्क हो चुकी थी और इस पर अजीब-ओ-गरीब नक्श-ओ-निगार बने थे। वो पानी के पाँव के निशान थे... और सामने लहलहाता हुआ खेत नजर आ रहा था। सब का दिल बिल यूँ उछलने लगा... फसल कटेगी तो उनका आँगन फूस से भर जाएगा और कोठरी अनाज से फिर खटिया पर बैठ कर भात खाने का मजा आएगा। क्या डकारें आएँगी पेट भर जाने के बाद, उन सबने एक ही बार सोचा।

अचानक होरी के कदम रुक गए। वो सब भी रुक गए। होरी खेत की तरफ हैरानी से देख रहा था। वो सब कभी होरी को और कभी खेत को देख रहे थे कि अचानक होरी के जिस्म में जैसे बिजली की सी फुरती पैदा हुई। उसने चंद कदम आगे बढ़कर बड़े जोश से आवाज लगाई।

"अबे कौन है... ये... ये...?"

और फिर सबने देखा उनके खेत में से कोई जवाब न मिला। अब वो करीब आ चुके थे और खेत के दूसरे कोने पर दराँती चलने की सराप सराप चलने की आवाज बिलकुल साफ सुनाई दे रही थी। सब कदरे सहम गए। फिर होरी ने हिम्मत से ललकारा।

"कौन है हराम का जना... बोलता क्यूँ नहीं? और अपने हाथ में पकड़ी दराँती सूँत ली।"

अचानक खेत के परले हिस्से में से एक ढाँचा सा उभरा और जैसे मुस्कुरा कर उन्हें देखने लगा हो... फिर उसकी आवाज सुनाई दी।

"मैं हूँ होरी काका... बिजूका!" उसने अपने हाथ में पकड़ी दराँती फिजा में हिलाते हुए जवाब दिया।

सबकी मारे खौफ के घुटी घुटी सी चीख निकल गई। उनके रंग-ए-जर्द पड़ गए और होरी के होंठों पर गोया सफेद पपड़ी सी जम गई... कुछ देर के लिए सब सकते में आ गए और बिलकुल खामोश खड़े रहे... वो कुछ देर कितनी थी? एक पल एक सदी या फिर एक युग... उस का उनमें से किसी को अंदाजा न हुआ। जब तक उन्होंने होरी की गुस्से से काँपती हुई आवाज न सुनी उन्हें अपनी जिंदगी का एहसास न हुआ।

"तुम... बिजूका... तुम। अरे तुमको तो मैं ने खेत की निगरानी के लिए बनाया था... बाँस की फाँकों से और तुमको उस अंग्रेज शिकारी के कपड़े पहनाए थे जिसके शिकार में मेरा बाप हाँका लगाता था और वो जाते हुए खुश होकर अपने फटे हुए खाकी कपड़े मेरे बाप को दे गया था। तेरा चेहरा मेरे घर की बे-कार हांडी से बना था और इस पर उसी अंग्रेज शिकारी का टोपा रख दिया था अरे तू बे-जान पुतला मेरी फसल काट रहा है?"

होरी कहता हुआ आगे बढ़ रहा था और बिजूका बदस्तूर उनकी तरफ देखता हुआ मुस्कुराता रहा था। जैसे उस पर होरी की किसी बात का कोई असर न हुआ हो। जैसे ही वो करीब पहुँचे उन्होंने देखा... फसल एक चौथाई के करीब कट चुकी है और बिजूका उस के करीब दराँती हाथ में लिए मुस्कुरा रहा है। वो सब हैरान हुए कि उसके पास दराँती कहाँ से आ गई... वो कई महीनों से उसे देख रहे थे। बे-जान बिजूका दोनों हाथों से खाली खड़ा रहता था... मगर आज... वो आदमी लग रहा था। गोश्त-पोस्त का उन जैसा आदमी... ये मंजर देख कर होरी तो जैसे पागल हो उठा। उसने आगे बढ़कर उसे एक जोरदार धक्का दिया... मगर बिजूका तो अपनी जगह से बिलकुल न हिला। अलबत्ता होरी अपने ही जोर की मार खाकर दूर जा गिरा... सब लोग चीखते हुए होरी की तरफ बढ़े। वो अपनी कमर पर हाथ रखे उठने की कोशिश कर रहा था... सबने उसे सहारा दिया और उसने खौफ-जदा होकर बिजूका की तरफ देखते हुए कहा। "तू... तो मुझसे भी ताकतवर हो चुका है बिजूका! मुझसे...? जिसने तुम्हें अपने हाथों से बनाया। अपनी फसल की हिफाजत के वास्ते।"

बिजूका हसब-ए-मामूल मुस्कुरा रहा था फिर बोला। "तुम ख्वाह-मख्वाह खफा हो रहे हो होरी काका मैं ने तो सिर्फ अपने हिस्से की फसल काटी है। एक चौथाई..."

"लेकिन तुमको क्या हक है मेरे बच्चों का हिस्सा लेने का। तुम कौन होते हो?"

"मेरा हक है होरी काका... क्यूँ कि मैं हूँ... और मैंने इस खेत की हिफाजत की है।"

"लेकिन मैंने तो तुम्हें बे-जान समझ कर यहाँ खड़ा किया था और बे-जान चीज का कोई हक नहीं। ये तुम्हारे हाथ में दराँती कहाँ से आ गई?"

बिजूका ने एक जोरदार कहकहा लगाया "तुम बड़े भोले हो... होरी काका!। खुद ही मुझसे बातें कर रहे हो!... और फिर मुझको बे-जान समझते हो...?"

"लेकिन तुमको ये दराँती और जिंदगी किस ने दी...? मैंने तो नहीं दी थी!"

"ये मुझे आपसे आप मिल गई... जिस दिन तुमने मुझे बनाने के लिए बाँस की फाँकें चीरी थीं। अंग्रेज शिकारी के फटे पुराने कपड़े लाए थे घर की बेकार हांडी पर मेरी आँखें नाक और कान बनाया था। उसी दिन इन सब चीजों में जिंदगी कुलबुला रही थी और ये सब मिलकर मैं बना और मैं फसल पकने तक यहाँ खड़ा रहा और एक दराँती मेरे सारे वजूद में से आहिस्ता-आहिस्ता निकलती रही... और जब फसल पक गई वो दराँती मेरे हाथ में थी। लेकिन मैंने तुम्हारी अमानत में खयानत नहीं की... मैं आज के दिन का इंतिजार करता रहा और आज तुम अपनी फसल काटने आए हो... मैंने अपना हिस्सा काट लिया इसमें बिगड़ने की क्या बात..." बिजूका ने आहिस्ता-आहिस्ता सब कहा... ताकि उन सबको उस की बात अच्छी तरह समझ में आ जाए।

"नहीं ऐसा नहीं हो सकता। ये सब साजिश है। मैं तुम्हें जिंदा नहीं मानता। ये सब छलावा है। मैं पंचायत से इसका फैसला कराऊँगा। तुम दराँती फेंक दो। मैं तुम्हें एक तिनका भी ले जाने नहीं दूँगा..." होरी चीखा और बिजूका ने मुस्कुराते हुए दराँती फेंक दी।

गाँव की चौपाल पर पंचायत लगी... पंच और सरपंच सब मौजूद थे। होरी... अपने पोते पोतियों के साथ पंच में बैठा था। उसका चेहरा मारे गम के मुरझाया हुआ था। उसकी दोनों बहुएँ दूसरी औरतों के साथ खड़ी थीं और बिजूका का इंतजार था। आज पंचायत ने अपना फैसला सुनाना था। मुकदमें के दोनों फरीक अपना अपना बयान दे चुके थे।

आखिर दूर से बिजूका खिरामाँ खिरामाँ आता दिखाई दिया... सबकी नजरें उस तरफ उठ गईं वो वैसे ही मुस्कुराता हुआ आ रहा था। जैसे ही वो चौपाल में दाखिल हुआ। सब गैर इरादी तौर पर उठ खड़े हुए और उनके सर ताजीमन झुक गए। होरी ये तमाशा देख कर तड़प उठा उसे लगा कि जैसे बिजूका ने सारे गाँव के लोगों का जमीर खरीद लिया है। पंचायत का इनसाफ खरीद लिया है। वो तेज पानी में बेबस आदमी की तरह हाथ पाँव मारता हुआ महसूस करने लगा।

"सुनो... ये शायद हमारी जिंदगी की आखिरी फसल है। अभी थल खेत से कुछ दूरी पर है। मैं तुम्हें नसीहत करता हूँ कि अपनी फसल की हिफाजत के लिए फिर कभी बिजूका न बनाना। अगले बरस जब हल चलेंगे... बीज बोया जाएगा और बारिश का अमृत खेत में से कोंपलों को जन्म देगा। तो मुझे एक बाँस पर बांध कर एक खेत में खड़ा कर देना... बिजूका की जगह पर। मैं तब तक तुम्हारी फसलों की हिफाजत करूँगा जब तक थल आगे बढ़कर खेत की मिट्टी को निगल नहीं लेगा और तुम्हारे खेतों की मिट्टी भुरभुरी नहीं हो जाएगी। मुझे वहाँ से हटाना नहीं... कि बिजूका बे-जान नहीं होता... आपसे आप उसे जिंदगी मिल जाती है और उसका वजूद उसे दराँती थमा देता है और उसका फसल के एक चौथाई पर हक हो जाता है। होरी ने कहा और फिर आहिस्ता-आहिस्ता अपने खेत की तरफ बढ़ा। उसके पोते और पोतियाँ उस के पीछे थे और फिर उसकी बहुएँ और उनके पीछे गाँव के दूसरे लोग सर झुकाए हुए चल रहे थे।

खेत के करीब पहुँच कर होरी गिरा और खत्म हो गया। उसके पोते पोतियों ने उसे एक बाँस से बांधना शुरू किया और बाकी के लोग ये तमाशा देखते रहे। बिजूका ने अपने सर पर रखा शिकारी टोपा उतार कर सीने के साथ लगा लिया और अपना सर झुका दिया।

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