भुशुंडी का मैदान (बांग्ला कहानी) : परशुराम (राजशेखर बसु)

Bhushundi Ka Maidan (Bangla Story) : Parshuram (Rajshekhar Basu)

शिबू भट्टाचार्य का निवास पेनटी ग्राम में था। एक स्त्री, तीन गाएँ, एक तल्ला पक्का मकान, छब्बीस घर यजमान और थोड़ी-सी जमीन लेकर वह मजे से जीवनयापन कर रहा था। शिबू की उम्र तीस वर्ष की है। बचपन में जो साधारण स्कूली शिक्षा उसे प्राप्त हुई थी और पिता ने जो सामान्य संस्कृत पढ़ाई थी, वही यजमानों के यहाँ पूजा-पाठ करने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन शिबू के मन में चैन नहीं था। उसकी पत्नी की उम्र लगभग पच्चीस वर्ष की थी-गठीला बदन था और कड़े स्वभाव की थी। वह पति-परायण थी, लेकिन शिबू को पत्नी के यत्न में आनन्द नहीं आता था। सामान्य बात पर पति-पत्नी झगड़ पड़ते थे। पाँच मिनट चिल्लाने के बाद ही शिबू थक जाता था। लेकिन नृत्यकाली की रसना एक बार चालू होने पर उसे रोकना मुश्किल हो जाता। हर बार शिबू को ही हार मान लेनी पड़ती। स्त्री को काबू में न रख पाने के कारण मुहल्ले के लोग शिबू को कायर, भेड़, स्त्रैण प्रभृति भाँति-भाँति के संबोधनों से अलंकृत किया करते थे। घर में और घर से बाहर इस तरह अपमानित होकर शिबू का मन अशान्ति से भरा हुआ था।

एक दिन नृत्यकाली ने पति के चरित्र के बारे में कहीं से कुछ सुन लिया। उस दिन झगड़ा चरम सीमा पर पहुँच गया। नृत्यकाली के हाथ की झाड़ू, शिबू के पीठ पर भी पड़ गई। शिबू ने क्रोध, क्षोभ और दुःख से उसी रात घर छोड़कर कलकत्ता जाने वाली ट्रेन पकड़ ली।

सियालदह स्टेशन से वह सीधा कालीघाट गया और वहाँ विभिन्न उपचारों से पाँच रुपयों का प्रसाद चढ़ाकर उसने मन्नत की। 'हे माँ काली! नृत्यकाली को क्लेश हो जाए! मैं तुम्हें दो बकरों की भेंट चढ़ाऊँगा। और सहा नहीं जाता। एक रास्ता कर दो जिससे मैं फिर से ब्याह करके सुख से रह सकूँ। नृत्यकाली के बाल-बच्चा भी कोई नहीं है। माँ! वह भी विचार करना, माँ! दोहाई है माँ!'

मन्दिर से लौटकर शिबू ने एक दूकान पर तेल के भुजिए, आध सेर दही, आध सेर इमरती खा ली। इसके बाद दिन चिड़ियाघर, जादूघर, हाग साहब का बाजार और हाईकोर्ट इत्यादि देखता हुआ घूमता रहा। शाम को वीडन स्ट्रीट में जाकर 'होटल-डी-अर्थोडॉक्स' में एक प्लेट करी, दो प्लेट 'रोस्ट-फाउल' और आठ डबल-रोटियों खाईं। इसके बाद वह रातभर थिएटर देखकर भोर के समय पेनटी ग्राम में लौट आया।

काली माता ने शिबू की प्रार्थना का विपरीत अर्थ लगाया। घर आते ही शिबू ने कै करनी शुरू कर दी। डॉक्टर और कविराज आए, लेकिन कोई फल नहीं हुआ। आठ घंटे तक छटपटा कर, स्त्री को रोती हुई छोड़कर शिबू इस संसार से कूच कर गया।

गाँव में और शिबू का मन नहीं लगा। उसी रात उसने गंगा पार कर ली। उत्तर दिशा की ओर रिसड़ा, श्री रामपुर, वैधवाटी का बाजार, चौपादानी की चटकल से दो-तीन कोस दूर एक भुशुंडी का मैदान था। शिबू वहीं चला गया। मैदान काफी लम्बा और जन-मानव-हीन था। एक समय यहाँ ईंटों के भट्टे थे, तभी स्थान समतल नहीं था-कहीं गड्ढे और कहीं टीले थे। साथ ही विभिन्न प्रकार के जंगली पेड़-पौधे फैले हुए थे। इसलिए यह स्थान शिबू को बहुत पसन्द आया। ईटों के एक चबूतरे के पास खूब ऊँचा और सीधा एक ताड़ का पेड़ था। उसके कुछ ही दूर पर एक सूखा बेल का पेड़ त्रिभंग होकर खड़ा था। शिबू ने ब्रह्मदैत्य होकर उसी पेड़ को अपना निवास स्थान बना लिया।

जो प्रेततत्त्व के बारे में नहीं जानते हैं, उनके लिए यह बताना आवश्यक है कि मरने के बाद हर आदमी भूत नहीं बनता। जो नास्तिक होते हैं, उनके आत्मा नहीं होती। मरने पर उनका देह अम्लजान, उद्जन, यवक्षारजन इत्यादि गैसों में परिणत हो जाता है। साहब लोगों में जो आस्तिक हैं, उनके आत्मा जरूर होती है, लेकिन पुनर्जन्म नहीं होता। मरने के बाद वे भूत होकर पहले तो एक बड़े से वेटिंग-रूम में क्रम से प्रतीक्षा करते हैं। वहाँ कुछ समय बाद उनका अन्तिम विचार होता है। राय निकलते ही उनमें से कुछ को अनन्त स्वर्ग में और शेष को घोर नरक में स्थान मिलता है। जीवित रहने पर जिस स्वाधीनता का उपभोग साहब लोग करते हैं, भूत होने पर वह स्वच्छंदता उन्हें प्राप्त नहीं होती। विलायती प्रेतात्मा बिना टिकट वेटिंग-रूम से नहीं जा सकती। इसलिए विलायती भूत बुलाना बड़े-बड़े ओझाओं के लिए भी कठिन है। लेकिन हिन्दुओं के लिए यह कठिनता नहीं होती । कारण, हम लोग, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, कर्मफल, हृषीकेश, निर्वाण, मुक्ति इत्यादि सब कुछ मानते हैं। हिन्दू भूतों को इसलिए यत्र-तत्र रहने की स्वतंत्रता रहती है। साथ ही आवश्यकता पड़ने पर इस लोक से सम्पर्क भी रख सकता है। लेकिन ऐसी अवस्था अधिक दिन स्थायी नहीं रह सकती।

कोई-कोई तो दो-चार दिन के बाद ही दूसरा जन्म ले लेता है, कोई दस-बीस वर्ष बाद और कोई दो-तीन शताब्दी के बाद पुनर्जन्म लेता है। भूतों को बीच-बीच में हवा बदलने के लिए स्वर्ग और नरक में बारी-बारी से भेजा जाता है। यह उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा समझा जाता है। स्वर्ग में खूब आनन्द से रहा जाता है और नरक में पाप क्षय होने पर सूक्ष्म शरीर काफी हल्का हो जाता है। इसके अलावा वहाँ अच्छे-अच्छे लोगों से भी परिचय होता है। लेकिन जिन्हें भाग्य से ही सीधे काशी लाभ होता है, या नेपाल में पशुपतिनाथ या रथयात्रा पर वामन के जिन्हें दर्शन होते हैं, अथवा जो अपने पापों का बोझा हृषीकेश के कंधों पर चढ़ा कर निश्चिन्त होते हैं, उनका 'पुनर्जन्म न विद्यते', वे एकदम मुक्ति पा जाते हैं।

शिबू को भुशुंडी के मैदान में रहते दो-तीन महीने बीत गए। शिबू उस बेल के पेड़ पर रहता है। नई जगह में देह धारण करके पहले-पहल तो उसे बड़ा आनन्द आया। लेकिन कुछ दिनों बाद उसे कभी-कभी अपनी पत्नी की भी याद सताने लगी। नृत्यकाली हजार लड़ती-झगड़ती थी, लेकिन उसकी देखभाल भी वह कम नहीं करती थी-उसे उससे आन्तरिक प्रेम था। शिबू ने मन में सोचा, चलो, वहीं अपने गाँव पेनटी में अड्डा गाड़ें, लेकिन फिर सोचा, गाँव वाले क्या कहेंगे? वे लोग कहेंगे, शिबू मर गया लेकिन स्त्री का दामन नहीं छोड़ सका। नहीं, यहीं कोई अच्छी-सी उपदेवी देखनी होगी।
फाल्गुन महीने के आखिर दिन थे। दक्षिण हवा झोंके लेती हुई बह रही थी। सूर्यदेव गंगा में अभी-अभी गोता लगा कर डूब गए थे। शिबू के पेड़ पर नए पत्ते आ गए थे। एक पीले रंग की तितली उसके सूक्ष्म शरीर को पार कर गई। एक काला भँवरा भन-भन करता हुआ शिबू की प्रदक्षिणा करने लगा। नजदीक ही बबूल के पेड़ पर एक जोड़ी कौवों की बैठी थी। कौवा चोंच से गुदगुदी कर रहा था और मुग्धा कौवी गद्गद् स्वर में 'का-का-का' रट रही थी।

शिबू अब रक्त-माँस की देह वाला मनुष्य तो नहीं था, फिर भी स्वभाव कहाँ जाता है? उसको अपना हृदय सूना-सूना लगने लगा। जहाँ हृत पिंड था, वहाँ का स्थान भारी होकर धड़ाक्-धड़ाक् करने लगा। उसे ख्याल आया कि भुशुण्डी के मैदान में ही एक और पेड़ पर एक चुड़ैल रहती है। शिबू ने उसे कई बार मछली पकड़ते हुए भी देखा है। उसका मुख हमेशा ढका रहता है। केवल एक बार उसने शिबू की तरफ देखकर ताका था, और फिर उसी क्षण लज्जा से मुँह ढक लिया था। चुड़ैल की उमर ज्यादा थी इस कारण उसके गाल कुछ पिचके हुए थे, और सामने के दो दाँत भी नहीं थे। उसके साथ हँसी-मजाक जरूर चल सकता था, लेकिन प्रेम करना असंभव था।

एक शंखिनी भी उसे मैदान में दिखाई पड़ती थी। वह एक गमछा पहन कर और दूसरा गमछा सिर में लपेट कर बगुले की तरह लम्बे-लम्बे डग भरती हुई-हाथ की हँडिया से गोबर मिलाया हुआ पानी छिड़कती हुई-चलती थी। उसकी उमर अधिक नहीं जान पड़ी। एक बार शिबू ने उससे छेड़खानी की थी तो वह क्रुद्ध बिल्ली की तरह 'फूच्' कर उठी थी, इसीलिए शिबू को डर से भागना पड़ा था।

लेकिन शिबू का मन सबसे अधिक हरण किया है एक डाकिनी ने। भुशंडी के मैदान में ही गंगा के तीर पर क्षीरी ब्राह्मणी द्वारा त्याग किए गए खंड-खंड बिखरे मकान में उसने थोड़े दिनों से रहना शुरू किया था। शिबू पहली बार देखते ही उस पर असक्त हो गया था। डाकिनी के हाथ में उस वक्त खजूर की डाली से बनी एक झाडू थी और उसने सफेद कपड़े पहन रखे थे। शिबू को देखकर उसने भी अपना घूँघट हटा कर मुस्करा दिया और फिर अदृश्य हो गई। शिबू इसकी इस अदा पर मुग्ध हो गया और एक दीर्घ स्वाँस लेकर गुनगुनाने लगा --

आहा, श्री राधिका-रानी, चन्द्रमुखी,
किसे छोड़ूँ, किसे राखूँ, होऊँ सुखी!

सहसा पास के ताड़ वृक्ष से कोई तीव्र कण्ठ से गा उठा-

चा रा रा रा रा रा
अरे भजुआ की बहिनिया,
भगलू की बिटिया
केकरा से सादिया हो केकरा से हो sss-

शिबू ने चौंककर कहा, 'ताड़ के पेड़ पर कौन है रे?' उ
त्तर आया, 'कारिया पिरेत बा।
शिबू ने कहा, 'काला भूत? नीचे चले आओ भाई।'

सिर पर पगड़ी बाँधे, लम्बा कंकाल-सा एक जीव पेड़ पर से नीचे कूद आया। उसने आते ही शिबू को भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया और कहा, 'गोड़ लागि बरमदेव जी।'
शिबू ने कहा, 'जीते रहो बेटा। जरा तम्बाकू पिला सकते हो?'
काले भूत ने कहा, 'छिलम बा?'
शिबू ने कहा, 'तम्बाकू ही नहीं है तो चिलम कहाँ से आएगी? कहीं से लाओ न'

कारिया प्रेत उसी वक्त उड़ा और वैद्यवाटी के बाजार से चिलम-तम्बाकू सब कुछ ले आया। फिर 'आग सुलगा कर' उसने शिबू के हाथ में दी। शिबू ने कच्चू के एक हरे डंडे पर चिलम बैठा कर दम खींचते हुए कारिया से पूछा, 'यहाँ कब से आया हुआ है? अपना हाल-चाल तो सुना!'

कारिया प्रेत ने जो बताया उसका सारांश ऐसा है-वह छपरा जिले का रहने वाला था। एक समय गाँव में उसके जोरू, गोरू, जमीन, जेवर सब कुछ था। लेकिन उसकी पत्नी मुंगरी बहुत बदमिजाज थी। उसके साथ उसकी कभी बनी नहीं। एक दिन, उसके प्रतिवेशी भजुआ की बहिन के प्रसंग को लेकर दोनों में खूब झगड़ा हो गया, जिसके कारण उसने पत्नी के पीठ पर लाठी से प्रहार किया और कलकत्ता भाग गया था। इस घटना को तीस वर्ष हो गए। कुछ दिनों बाद समाचार मिला कि मुंगरी की मृत्यु बसेत रोग से हो गई है। इसके बाद वह कभी गाँव में लौट कर ही नहीं गया। कई स्थानों पर काम करने के बाद आखिर में वह चौपादानी की एक मील में भरती हो गया। कुछ दिन पहले एक लोहे की भारी वस्तु उठाते वक्त उसे सख्त चोट आई। महीना भर अस्पताल में रहने के बाद वह मर गया और प्रेत के रूप में आजकल इस ताड़ के पेड़ पर ही विराज रहा है।
शिबू एक लम्बा कश खींच कर ज्यों ही चिलम कारिया को देने लगा कि जमीन के नीचे से फटे बाँस की तरह आवाज आई-'चिलम में कुछ बचा भी है, क्या, भैया?'

बेल के वृक्ष के पास जो फूटा चबूतरा था, सहसा वहाँ की कुछ ईंटें खिसक गई। वहाँ के दरार से एक स्थूल देह प्रकट हुई। सर गंजा, गले में रुद्राक्ष की माला, पहनावे में मोटी धोती और पाँवों में ताड़ के पत्ते की चट्टी। आगन्तुक ने शिबू के हाथ से चिलम लेकर कहा, 'आप ब्राह्मण हैं? दंडवत् करता हूँ। कुछ सम्पत्ति थी, इसीलिए यक्ष होकर पहरा दे रहा हूँ। अधिक तो नहीं-यही चार-पाँच सौ! लेकिन सब बंधकी रखी हुई है, स्टाम्प के कागज पर लिखा हुआ है-नगद, कानी-कौड़ी भी नहीं है। लेकिन खबरदार, उस तरफ नजर मत देना, नहीं तो हथकड़ी पड़ जाएगी, हाँ...यू: यूः।'

शिबू ने मेघदूत थोड़ा-सा पढ़ा था। अतः विनय से पूछा, 'यक्ष महोदय, आप ही क्या कालिदास के-'
यक्ष-'हाँ भाई, कालिदास ने मेरी साली से ब्याह किया था। छोकरा हिजली में निमकी का गुमाश्ता था। बहुत दिन हुए मर गया। तुमने उसका नाम कैसे जाना?'
शिबू ने पूछा, 'आपका यहाँ आगमन कब हुआ?'

यक्ष ने कहा, 'मेरा आगमन? हा-हा, मुझे यहाँ आए सत्तर वर्ष हो गए। यहाँ कितने आए, कितने गए, सबको मैंने देखा है। तुम भी उस दिन यहाँ आकर कब पेड़ पर चढ़ गए, यह भी मुझसे छिपा नहीं है। मैंने सब देखा है। तुम्हें गाने का शौक है? मेरे शागिर्द बनो। इस वक्त आवाज जरूर कुछ फूट गई है, फिर भी मरा हाथी लाख टके का!'

शिबू-'महाशय, आपके भूतपूर्व जीवन का वृत्तान्त सुन सकता हूँ?'

यक्ष-अवश्य! मेरा नाम स्वर्गीय चाँद मल्लिक पदवी बसु, जाति कायस्थ, निवास रिसड़ा, हाल-साकिन इसी चबूतरे में। मेरा पेशा था दरोगागिरी। जिसकी सीमा रिसड़ा से भद्रेश्वर तक थी। जर्जटी साहब का नाम सुना है? हुगली के कलक्टर! वे मुझे बहुत स्नेह करते थे। सारा शासन भार उन्होंने मुझ पर ही छोड़ दिया था।'
शिबू-'महाशय का परिवार आदि क्या?'

यक्ष ने दीर्घ स्वाँस लेकर कहा, 'सब सुख क्या सबके भाग्य में होता है, भाई? परिवार तो था, लेकिन स्त्री मेरी साक्षात् उग्रचण्डी थी। क्या कहूँ, भाई, मेरे हाथ में कंपनी की दीवानी, फौजदारी, निजामत, अदालत सब कुछ थी, लेकिन फिर भी मेरी ही पीठ पर वह लात मारकर अपने मायके चली गई। तीन सौ चौबीस धारा में गिरफ्तार करवा देता, लेकिन निन्दा के डर से वारंट नहीं निकाल सका। फिर भी जाती कहाँ? सैंतालिस की महामारी में उसकी मौत आ ही गई। इसके बाद संसार धर्म में और मन नहीं लगा। जर्जटी साहब के विलायत जाने के बाद मैंने पेंशन ले ली। लड़का-बच्चा कोई था नहीं, यह भी अच्छा ही था। नहीं तो कोई आवारा भूत मनुष्य के रूप में मेरे यहाँ जन्म लेकर मेरी सारी कमाई उड़ा देता। अब बड़े मजे में दिन कट रहे हैं। अच्छा, मेरी बात तो सुन ली। अब आप-बीती सुनाओ।'

शिबू ने अपना पूरा इतिहास कहा, और कारिया पिरेत का भी परिचय करवाया। यक्ष ने कहा, 'देखता हूँ, घर-घर में वही एक ही हाल है। पुरानी बातें सोचकर मन खराब करने से कोई लाभ नहीं है। अब थोड़ा गाना-बजाना करें। पखावज नहीं है, उतना मजा नहीं आएगा। अच्छा पेट बजा कर ही काम निकालना होगा। ऊहू, कड़ा हो गया है। भैया, सत्तू-खोर, जरा-सी कड़ी मिट्टी यहाँ लगा देना तो। ठीक है। चौताल समझते हो? छ:-मात्रा, चार ताल, दो-रिक्त। अब बोल सुनो-

ध ध धिन ता कत् ता को
जोरू पीटे भर्ता को,
झाडू लेकर पीछे भागे
खिट-खिट नित करे
धूर्त गृहिणी, पति गधा रे।
कंठ पकड़ कर धमा-धम घूंसे देती
चोटी पकड़ कर उलट फेंकती
गृहिणी की ताकत कम नहीं है।
धक्का-मुक्के में कंजूसी,
न करती है गृहिणी-
नगण्य निर्धन स्वामी गधा-

'धा' पर सम् आता है। धिन ता तेरे केटे गदि धेन धा। यह 'धा' यदि फिसल गया तो सब गया। कंठ बैठ रहा है। बेटा सत्तूखोर, एक चिलम और देना।'

उद्योगी पुरुष-सिंह को लक्ष्मी अवश्य प्राप्त होती है। शिबू के बहुत अनुनय-विनय करने पर डाकिनी शिबू का घर बसाने को राजी हो गई। लेकिन उसने अब भी घूँघट नहीं हटाया है। केवल इशारों से ही बात करती है। आज भौतिक पद्धति से शिबू का ब्याह होने वाला है। सूर्यास्त होते ही शिबू ने गंगा में जाकर मल-मल कर स्नान किया। फिर संध्या के समय सज-धज कर क्षीरी ब्राह्मणी के घर की ओर चला।

उस समय शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी थी। घर के दरवाजे पर कुछ कच्चू के पत्ते बिछाकर डाकिनी के सामने बैठकर शिबू ने मंत्रपाठ का आयोजन कर लिया। फिर उत्सुकतावश उसने डाकिनी से कहा, 'अब तो घूँघट हटाना ही होगा।
डाकिनी ने घूँघट हटा लिया। शिबू ने चौंककर भय से कहा, 'अरे! तुम नृत्य हो?'
नृत्यकाली ने कहा, "हाँ रे, कायरः तूने सोचा था मरकर मुझसे निस्तार पा लेगा। भूतनी, शंखनी के पीछे-पीछे घूमने में बड़ा आनन्द है न?'
शिबू ने पूछा, 'लेकिन आई कैसे? कलेश से?'
नृत्यकाली ने कहा, 'कलेश हो दुश्मन को। क्यों, घर में मिट्टी का तेल नहीं था क्या?'

शिबू ने कहा, 'तभी चेहरा कुछ उजला दिखाई पड़ रहा है। आग में पड़कर सोना भी चमक उठता है। लेकिन मिजाज भी कुछ ठंडा हुआ है या नहीं?'
सहसा शुभ कार्य में विघ्न उपस्थित हुआ। बाहर जाने कैसी हलचल हो रही थी। अचानक उल्का-वेग से दौड़ती हुई प्रेतनी और शंखिनी आ गईं और दोनों जोर-जोर से चिल्लाने लगीं।

प्रेतनी-'मेरा स्वामी तुझे क्यों लेने दूंगी?'
शंखिनी-'अरी, मर बुढ़िया, वह तो तेरे नाती की उम्र का है।'
प्रेतनी-'आहा! तू कौन सी जवान है?'
शंखिनी-'दूर हो, मछुए की बहू, मैं तो उसके दो जन्म पहले की स्त्री हूँ।
प्रेतनी-'दूर हो, गोबर उठाने वाली, मैं तो उसके तीन जन्म पहले की स्त्री हूँ।'
शंखिनी-'तू इधर चिल्लाकर मर। उधर डाकिनी हमारे पति को लेकर भाग जाएगी।'
तब प्रेतनी ने कहा, 'पहले तुझे खाऊँगी, फिर डाकिनी को देखूँगी।'

इसके बाद दोनों में मल्लयुद्ध शुरू हो गया। एक नृत्यकाली से ही छुटकारा नहीं मिल रहा है, उसके ऊपर दो पूर्व-जन्मों की और दो पत्नियां भी आ गई हैं। शिबू अपने इष्टदेव का नाम जपने लगा। इसी समय नेपथ्य में यक्ष का कंठ सुनाई पड़ा। उन्होंने कहा, 'अरे भाई, यहाँ क्या हो रहा है? इतनी हलचल क्यों हो रही है?'

कारिया पिरेत ने भी पुकारा, ‘ए बरम पिशाच, ओ दरवाजा तो खोल।'
शिबू ने कोई जवाब नहीं दिया।

बाहर से दोनों दरवाजे पर धक्का देने लगे। लेकिन मंत्रबद्ध दरवाजा टस से मस नहीं हुआ। तब कारिया पिरेत जोर से दरवाजा तोड़ने का मंत्र पढ़ने लगा-

मारो जवान-हईयों
और भी थोड़ा-हईयों
पर्वत तोड़ो-हईयों
चले इंजन-हईयों
फटे बायलर-हईयों
खबरदार-हा-फिज।

दरवाजा टूट गया। डाकिनी अर्थात् नृत्यकाली को देखकर यक्ष महोदय ने कहा, 'अरे बहू, तू यहाँ? ब्रह्मदैत्य के साथ! छिः छिः।' डाकिनी घूँघट निकाल कर शर्म से एक ओर हो गई!
कारिया पिरेत ने कहा, 'अरे मूंगरी, तोहरि सरम नेहि बा' ।

इसके बाद जो शुरू हुआ वह सोचने पर कलम की स्याही सूख जाएगी। शिबू के तीन जन्म की तीन स्त्रियाँ और नृत्यकाली के तीन जन्म के तीन पति-इस डबल त्र्यह-स्पर्श से भुशंडी के मैदान में एक ही साथ जलस्तम्भ, दावानल और भूमिकम्प शुरू हो गए। भूत, प्रेत, दैत्य, पिशाच, ताल, बेताल प्रभृति देशी-विदेशी उपदेवता जो जहाँ थे सब तमाशा देखने आ गए। राम राम राम! इस दाम्पत्य समस्या का समाधान कौन करे? आप लोगों से विनीत अनुरोध है कि इन भूतों के परिवार को जहन्नुम में जाने से बचाइए। और एकदम ही कोई व्यवस्था न हो सके तो कम से कम चंदा उठाकर गया में पिंड देने की व्यवस्था तो जरूर करें, ताकि इसके बाद ये लोग शान्ति से रह सकें।

  • परशुराम (राजशेखर बसु) की बांग्ला कहानियाँ में
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