भूतों का खेल : सन्त सिंह सेंखों

Bhooton Ka Khel : Sant Singh Sekhon

रात होने से पहले गाँव के सभी मुसलमान, लगभग पचास लोग, मर्द, औरतें और बच्चे, गाँव के एक छोर पर बनी धर्मशाला में इकट्ठे कर लिए गये। धर्मशाला के आसपास चार आदमियों को, जिनमें से एक के पास बन्दूक थी और शेष तीनों के पास तलवारें थीं, पहरे पर तैनात कर दिया। यह पहरा, कैदियों को भागने से रोकने के लिए था। किसी भी कैदी से सशस्त्र विरोध करने की सम्भावना नहीं थी। इसलिए चार पहरेदार, एक बन्दूक वाला और तीन तलवारों वाले पर्याप्त थे।

आधी रात का समय था जब एक नवयुवक ने दीवार फाँदकर भाग जाने की कोशिश की। इन कैदियों में इसकी एक बूढ़ी माँ ही थी-बीवी-बच्चे नहीं थे। पर जैसे ही यह दीवार फाँदकर बाहर खड़ा हुआ कि बन्दूक वाले की आवाज़ आयी-''हाल्ट, खड़ा हो जा, नहीं तो गोली मार दूँगा।''

दीवार फाँदने वाला सहमकर जहाँ खड़ा था वहीं खड़ा रह गया। बन्दूक वाला जल्दी-जल्दी कदम उठाता उसके पास आ गया-''क्यों ओए, मुसलया, कहाँ भागने लगा था? ऐसे मैं तुझे नहीं जाने दूँगा?''

''नहीं, सरदार जी, मैं तो जंगल-पानी के लिए बाहर निकला था,'' दीवार फाँदने वाले आदमी ने कहा। उसने बन्दूकधारी को पहचानने की कोशिश की, पर वह तो किसी दूसरे गाँव का था। दीवार फाँदने वाले को भरोसा था कि अपने गाँव का होता तो वह उसे भाग जाने देता। ''मैं अभी ज़िन्दा हूँ, चौधरी, सरदारा''-वह कहता और गाँव का आदमी उसके आभार को नहीं भूलता।

''जंगल-पानी के लिए बाहर निकला है?'' पहरेदार एक वकील की तरह बोला-''अच्छा तो हो आ जंगल-पानी।''

''दूर जाकर बैठूँ कि यहाँ ही?'' दीवार फाँदने वाले ने डरते हुए पूछा।

''नहीं, चार कदम आगे हो जा! यदि भागने की कोशिश की तो गोली-।'' पहरेदार ने दृढ़ता से कहा।

दीवार फाँदने वाला अभी दस क़दम ही आगे गया था कि हुक्म हुआ-''वहीं बैठ जा, और कदम न उठाना।''

दीवार फाँदने वाला जहाँ था वहीं बैठ गया। पाँच मिनट बीत गये-''ओए, अभी निकली नहीं तेरी टट्टी।'' पहरेदार ने ललकारा। टट्टी बैठे आदमी ने कोई उत्तर नहीं दिया, उसने थोड़ा-सा जोर लगा दिया।

दो-तीन मिनट और बीत गये, पहरेदार फिर बोला-''कब्ज हो गयी है क्या? अभी तक तेरी टट्टी निकली नहींं क्या? अच्छा, अब खड़ा हो जा।'' टट्टी बैठा आदमी एकदम उठ बैठा। पहरेदार उसके पास आ गया-''कहाँ की है टट्टी?'' उसने पूछा।

''जी, नहीं आयी।'' कैदी ने नम्रता से उत्तर दिया-''सुबह से कुछ खाया ही नहीं।''

''फिर टट्टी कैसे आ गयी तुझे?''

इस तर्कपूर्ण सवाल का कैदी से एकदम कोई उत्तर न बना। ''साले, भागना चाहता था, टट्टी का बहाना करके, पकड़ा गया। जब सुबह से कुछ खाया ही नहीं तो टट्टी कैसे आ गयी?''

''जी, ऐसी ही आदत बनी हुई है। खुदा की कदम सबेरे से कुछ नहीं खाया।''

''क्यों, कुछ खाया क्यों नहीं।''

''डरी और सहमी मेरी बूढ़ी माँ से कुछ काम ही नहीं हुआ। घर में मैं और मेरी बूढ़ी माँ दो ही प्राणी हैं।''

सरदार थोड़ा-सा मुस्करा पड़ा-''अच्छा बाऊंट टरन कर चलो, दीवार कूद जाओ।''

कैदी दीवार फाँदकर अन्दर आ गया। दीवार फाँदते समय पहरेदार ने बन्दूक का कुन्दा कुछ इस तरह से उसके कन्धे पर मारा कि सारी रात उसका कन्धा दुखता रहा। दूसरी बार भाग जाने की कोशिश करने की हिम्मत उसमें नहीं रही।

''यदि किसी और को टट्टी आये तो अन्दर ही कर लेना। बाहर कोई न आये, गोली मार दी जाएगी।'' पहरेदार सभी कैदियों को सुनाकर चला गया।

थोड़ी देर बाद ही पहरा बदल गया। वे चारों सोने के लिए चले गये। उनकी जगह चार और आ गये।

''साले टट्टी के बहाने बाहर निकलते हैं कभी-कभी। खयाल रखना।'' जा रहे बन्दूक वाले ने पहरेदार को चेतावनी दी।

पर नए पहरेदारों को दीवार फाँदकर टट्टी के बहाने आने वाले किसी आदमी का सामना नहीं करना पड़ा। हाँ, मर्दों के खुर्राटों के साथ-साथ औरतों की ससकियों की आवा$जें लगातार सुनाई देती रही।

दिन निकलते ही लगभग पचास आदमियों का एक जत्था आ गया। इनमें से अधिकांश के पास बर्छे थे, कुछ के पास बन्दूकें भी थीं।

उस जत्थे के सरदार ने धर्मशाला के दरवाजे के पास आकर नेजे वाले पहरेदार को हाथ के इशारे से पास बुलाया-''अब हम इनको दस-दस करके उस खतान पर ले जाएँगे।'' वह खतान धर्मशाला से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर थी। ''बहुत अच्छा,'' पहरेदार ने एक सिपाही की चुस्ती के साथ उत्तर दिया।

''अच्छा अब हम उसी खतान की तरफ चलते हैं,'' उस सरदार ने अपने जत्थे के लगभग आठ-दस आदमियों को सम्बोधित करते हुए कहा-''तुम यहाँ से दस-दस सूअरों को हाँककर उधर ले आओ।''

ये आठ आदमी, पहले से बनी योजना के अनुसार, बाकी के जत्थे से अलग हो गये, और जत्था उस खताने की ओर चला गया। ''आओ, तुम में से दस आदमी,'' अन्दर आने वाले चार आदमियों में से एक ने लेटे हुए बन्दीवानों को ललकार कर कहा। कैदी सहम गये, जो जहाँ था वहीं पड़ा सो गया-''ओए, सो क्यों गये सभी?'' इतना कहकर उसने आगे बढक़र कैदियों को उठा लिया-''सालो, पहले लीग को वोटेें देने के लिए जत्था बन-बनाकर जाते थे।''

जिस कैदी को उठाया गया था वह वृद्ध व्यक्ति था।

''हम गरीबों की वोटें ही कहाँ थीं, सरदारजी।'' उसने धीरे से उत्तर दिया। ''इस गाँव में दो-चार मुसलमान ही पाँचवीं पास हैं जिन्हें वोट देने का अधिकार था।''

''पता नहीं। पर गये तो सभी थे जत्था बनाकर।''

''ऐसे ही बच्चे वोटों का मेला देखने चले गये होंगे, मैं तो वैसे भी नहीं गया था।'' उस बूढ़े ने उत्तर दिया। ''अच्छा, अब चलो फिर'' दूसरे ने एक और आदमी को उठा दिया।

इस तरह तलवारों, बर्छियों को चुभाकर उन्होंने दस आदमियों को उठाकर धर्मशाला से बाहर निकाला।

कैदियों के बच्चों और औरतों में शोर-शराबा मच गया। अब सभी कैदी जाग उठे। ''सरदार जी, मुझे बर्छे से मत मारो, तड़पाओ नहीं।'' उस बूढ़े ने बाहर निकलते हुए कहा, ''तलवार से एक ही बार में झटका कर दो।''

''हलाल न करें, तुम तो मुसलमान हो?'' जल्लादों में से एक ने बड़े कठोर स्वर में कहा। बूढ़ा चुप रहा।

''क्या पता तुम्हें न ही मारें। शायद लुधियाना कैम्प में तुम लोगों को छोडऩे की सलाह बन जाएे। तुम लोगों के लिए दो ट्रक तैयार खड़े हैं।'' एक अन्य ने उन कैदियों का मन रखने के लिए कहा। खैर, वे दस आगे बढ़ आये और तलवारधारी चार पहरेदार उनको खतान की तरफ ले गये।

वे खतान से वापस आये तो दस आदमियों का एक और जत्था बाहर निकाला गया। पहले जत्थे से यह कम उम्र के लोगों का था। दो-तीन तो इनमें से केवल अठारह-बीस वर्ष के थे।

''सरदार जी! मेरा एक निवेदन है। हमें अमृत छकाकर सिंह ही बना लो। मुसलमान होकर भी आपकी गुलामी करते रहे, सिंह होकर भी करते रहेंगे। आपका काम ही करेंगे, हमने कौन-सा तीर मारना है।'' एक कैदी ने हाथ जोडक़र कहा।

''तीर मार तो लिया, हमारा तो कुछ भी नहीं बना। वहाँ आपके भाइयों ने हमें निकाल दिया। इधर क्या पता बनिये-ब्राह्मण हमारे साथ क्या करते हैं?'' सिखों में से एक समझदार ने कहा।

''बन गया पाकिस्तान जिनका बनना था, हमारी तो अब क़ब्र ही बनेगी। यदि तुम्हारे मन में थोड़ा-सा भी दया-भाव है तो हम तुम्हारी नौकरी यहाँ करते रहेंगे।''

''ओए! क्यों इसके साथ फालतू बातें करता जा रहा है?'' दूसरे ने डाँटते हुए कहा-''चलो अब,'' उसने एक कैदी को तलवार की नोक चुभाते हुए कहा।

इसी तरह चालीस कैदी जिनमें बीस मर्द थे तथा शेष औरतें और बच्चे थे, धर्मशाला से निकालकर खतान ले जाएे गये और आखिरी जत्था जिसमें लगभग दस स्त्रियाँ और बच्चे थे, दरवा$जे पर आकर खड़ा हो गया।

इनमें से एक जवान स्त्री, पच्चीस साल से भी कुछ कम उम्र की थी। एक चार साल का लडक़ा उसकी उँगली के साथ था और दूसरा लगभग एक साल का गोदी में था। यह स्त्री कुछ ज्यादा ही सुन्दर थी। इस दुर्दशा में भी उसका रूप प्रभावित कर रहा था।

''ओए, इसे न भेजो उधर'' एक व्यक्ति ने भावुक होते हुए कहा-''मुझे दे दो।''

''नहीं, नहीं, धर्म के काम में इतनी बदनीति नहीं चाहिए,'' एक अन्य ने उत्तर दिया।

''बदनीति किस बात की। इसको अमृत छका लेंगे। मेरा घर बस जाएगा। यह बेचारी थी...पाकिस्तान जाकर क्या करेगी?'' उसके शब्दों में निवेदन का स्वर था।

उस औरत को भी अनजानी नियति में इनकी बातों से बचाव की सूरत नज़र आयी। वह बाकी जत्थे से कुछ अलग होकर खड़ी हो गयी। वे सिख आपस में कुछ सलाह करने लगे। उस चार साल के बच्चे को ज़मीन पर पड़ी किसी चीज ने आकर्षित किया। उसने लपककर उसे उठा लिया। ''माँ देखो!'' उसने माँ के पास आकर चहकते हुए कहा। यह किसी किताब की फटी हुई तस्वीर थी। उस औरत ने एक बार बच्चे की तरफ देखा, फिर मुँह कैदियों की तरफ कर लिया।

''अच्छा, इसे पीछे रहने दो, शेष को ले जाओ।'' उस समझदार सिख ने खतान वाले आदमी से कहा। उन्होंने दो-चार को धक्के-मुक्के लगाये और इस आखरी जत्थे को आगे लगा लिया। यह जवान औरत और उसके दो बच्चे ही पीछे रह गये।

''क्यों बीवी, तुम सिंहनी बनोगी?'' विचारवान सिख ने उस स्त्री से पूछा।

''मैं सिंहनी बनकर क्या करूँगी? जिधर इन मासूमों का बाप गया है, मुझे भी उधर भेज दो।'' इतना कहकर वह रो पड़ी।

''हम तुम्हें इसके घर बैठाएँगे। अपनी जाति में शामिल कर लेंगे। यह ज़मीन घर-बार वाला है।''

''इसकी ज़मीन इसे ही मुबारक हो। हम गरीबों ने ज़मीन को क्या करना है।'' यह रोते हुए बोली। उसका चार साल का लडक़ा एक सिख की लटक रही तलवार को हाथ लगाकर देख रहा था। कुछ समय के लिए सभी चुप हो गये।

''अच्छा भई, अब तो यह मान गयी।'' विचारवान सिख ने स्त्री के चाहवान को कहा।

''नहीं मानती तो इसे ले चलो खतान की तरफ और दूसरों के साथ इसको भी...'' एक सिख ने कहा।

उस स्त्री को प्रतीक्षा कर रही मृत्यु का अब पूरा ज्ञान हो गया। वह सिसकियाँ लेने लगी। उसका चार साल का बच्चा भी रोने लग पड़ा।

''मरने का मन नहीं करता तो सिंहनी बनने के लिए मान जाओ।''

''मुझे तो बेशक मार दो, मेरे बच्चों को रख लो। ये बड़े होकर आपका काम करेंगे।'' वह रोते-रोते बोली।

''तेरे साथ ही तेरे बच्चे जाएँगे, हमने क्या करना है इनका?'' यह सुनकर वह औरत सिसक-सिसककर रोने लगी। उसके बच्चे भी जोर-जोर से रोने लगे।

''देखो, ऐसे ही समय व्यर्थ मत गँवाओ,'' उसे चाहने वाले ने कहा-''यदि उधर से कोई आ गया तो फिर हमारे लिए तुम्हें रखना कठिन हो जाएगा।''

''इसके घर तो इसकी अपनी पत्नी होगी।''

''औरत तो इसके बाप के घर भी नहीं थी।'' एक जवान सिख ने अपने साथी का भद्दा मजाक करते हुए कहा।

वह चुप हो गयी। उसके बच्चे भी चुप हो गये।

''देखो, इसकी पत्नी-वत्नी नहीं है। बीस घूमा ज़मीन है। विवाह हुआ था, वह दो साल बाद मर गयी। बच्चा अभी कोई नहीं हुआ था।'' विचारवान सिख ने सारी बात समझाते हुए कहा।

''विवाह की इसे कोई कमी नहीं है। पता नहीं तेरे पर इसका क्यों दिल आ गया है?'' एक अन्य ने म$जाक़ करते हुए कहा।

''मुझे तो इसके बच्चों पर दया आ रही है।'' स्त्री के चाहने वाले ने बड़ा दयालु बनते हुए कहा।

''यह कोई ऐसे ही छोड़ देने वाला आदमी नहीं है।'' एक तीसरे ने कहा।

''भाग्यवान हाँ कह दे!'' विचारवान सिख ने उसे प्रेरित करते हुए कहा। वह फिर फूट-फूटकर रोने लगी।

''क्यों? सलाह नहीं बन रही।'' उसे चाहने वाले ने उसके पास आकर कहा। उस स्त्री के आकर्षण में वह अब सचमुच ही बँध गया था-''भाग्यशालिनी मैं समाज में इज़्ज़त वाला आदमी हूँ, ऐसे ही कोई लुच्चा-लफंगा नहीं हूँ,'' उसने खुद ही अपनी वकालत की।

''यदि लुच्चे-लफंगे होते तो क्या तेरी सलाह पूछते? यहाँ कौन है हमें रोकने वाला? जो मन में आये हम वह करें!'' एक अन्य ने पास आकर कहा।

यह बात सुनकर वह औरत काँप गयी। शायद उसकी आँखों के आगे एक भयानक तस्वीर आ गयी जो पहले से ही उसके मन के तहखाने में थी, जो संकेत मिलते ही ऊपर आ गयी।

''मेरे बच्चों का क्या बनेगा?''

''इनको मैं अपने बच्चे समझूँगा। वाहिगुरु का नाम लेकर लडक़ा मुझे पकड़ा दो।'' उसने उसका गोद का बच्चा जोर लगाकर लगभग आधा उठा लिया।

''अच्छा, अब तुम इसे लेकर गाँव की तरफ चले जाओ।'' विचारवान सिख ने कहा-''और लोग आये तो पता नहीं क्या बने?''

''आ भाग्यवान, मेरे साथ।''

''इन मासूम बच्चों की खातिर जो कुछ भी आप कहते हैं, मुझे मंजूर है।'' उसने कहा और अपने चार साल के बच्चे को उँगली से लगाकर वह उस आदमी की तरफ हो गयी।

''तू भी आ जा मेरे साथ,'' चाहने वाले ने अपने साथ खड़े एक अधेड़ व्यक्ति को कहा-''तेरे होते हुए राह में कोई शक नहीं करेगा।''

''अच्छा, कल सुबह आकर आपका यथाविधि विवाह करा देंगे। उससे पहले इसको कुछ मत कहना।'' उनको जाते हुए देखकर विचारवान सिख ने कहा।

(अनुवाद : गुरचरण सिंह)