भूतनाथ (उपन्यास) खण्ड 1 : देवकीनन्दन खत्री

Bhootnath (Novel) : Devaki Nandan Khatri

दूसरा भाग : पहिला बयान

रात बहुत कम बाकी थी जब बिमला और इन्दु लौट कर घर में आईं जहाँ कला को अकेली छोड़ गई थीं। यहाँ आते ही बिमला ने देखा कि उनकी प्यारी लौंडी चन्दो जमीन पर पड़ी मौत का इन्तजार कर रही है, उसका दम टूटा ही चाहता है, आँखें बन्द हैं, और अधखुले मुँह से रुक कर साँस आती–जाती है, बीच-बीच में हिचकी भी आ जाती है। कला झारी में गंगाजल लिए उसके मुँह में शायद टपकाना चाहती है।

यह अवस्था देख कर बिमला घबड़ा गई और ताज्जुब करने लगी कि उसकी इस थोड़ी ही गैरहाजिरी में यह क्या हो गया और चन्दो यकायक किस बीमारी में फँस गई जो इस समय उसकी जिन्दगी का चिराग इस तरह टिमटिमा रहा है बल्कि बुझना ही चाहता है। बिमला ने घबरा कर कला से पूछा। ‘‘यह क्या मामला है और कम्बख्त को हो क्या गया है!!’’

कला : मुझे इस बात का बड़ा ही दुःख है कि चन्दो अब इस असार संसार को छोड़ना ही चाहती है, अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए इस कम्बख्त ने जहर खा लिया है और जब रग-रग में जहर भीन गया है तब यहाँ आकर सब हाल कहा है। मैंने जहर उतर जाने के लिए दवा इसे खिलाई है मगर कुछ फायदा होने का रंग नहीं है क्योंकि देर बहुत हो गई, कुछ और दवा पहुँचती तो अच्छा था।

बिमला : राम-राम, मगर यह इस कम्बख्त को सूझी क्या? और इसने कौन-सा पाप किया है जिसके लिए ऐसा प्रायश्चित करना पड़ा!

कला : बहिन, पाप तो इसने निःसन्देह बहुत भारी किया है, जिसका प्रायश्चित इसके सिवा और कुछ यह कर ही नहीं सकती थी, परन्तु मुझे इसके मरने का दुःख अवश्य है। जो काम इसने किया है उसके करने की आशा इससे कदापि नहीं हो सकती थी और जब इससे ऐसा काम हो गया तो किसी और लौंडी पर अब हम लोग इतना विश्वास भी नहीं कर सकतीं।

हाँ, लालच में पड़ कर इस चुड़ैल ने हम दोनों बहिनों का असल हाल गदाधरसिंह को बतला दिया और कह दिया कि तुमसे बदला लेने के लिए यह सब खेल रचे गए हैं, और साथ ही भूतनाथ का बटुआ भी यहां से ले जाकर उसे दे दिया। परन्तु इतना करने पर जब भूतनाथ ने इसे सूखा हो टरका दिया तब इसे ज्ञान उत्पन्न हुआ और इस ग्लानि में आकर जहर खा लिया। जब जहर अच्छी तरह तमाम बदन में भीन गया तब यह हम दोनों से मिलने और अपना पाप कहने के लिए यहाँ आयी थी, इसे यहाँ आये बहुत देर नहीं हुई।

बिमला: (हाथ से अपना माथा ठोंक कर) हाय हाय हाय, इस कमबख्त ने तो बहुत ही बुरा किया! क्या जाने यह इससे और भी कुछ ज्यादे कर गुजरी हो! जिस भेद को छिपाने के लिए तरह-तरह की तरकीबें की गई थीं उस भेद का आज इसने सहज ही में सत्यानाश कर दिया।

हाय, अब भूतनाथ भी जरूर हमारे कब्जे से निकल गया होगा। जब उसे ऐयारी का बटुआ मिल गया तब वह उस कैदखाने के भी बाहर हो गया तो आश्चर्य नहीं। वह बड़ा ही धूर्त और मक्कार है जिसके फेर में पड़ कर चन्दो ने हम लोगों को बर्बाद कर दिया और खुद भी दीन-दुनिया दोनों में से कहीं के लायक न रही!!

कला: बेशक ऐसा ही है, यद्यपि इस बात की आशा नहीं हो सकती कि भूतनाथ इस घाटी के बाहर हो जायगा तथापि कैदखाने से बाहर निकल जाना ही कम घबराहट की बात नहीं है, और इससे भी ज्यादे बुरी बात यह हुई कि हमारा भेद उसे मालूम हो गया। हाय ऐसी रात में किसकी हिम्मत पड़ सकती है कि अकेले वहाँ जाकर भूतनाथ का हाल मालूम करे? अगर वह छूट गया होगा तो जरूर उसी जगह कहीं छिपा होगा, ताज्जुब नहीं कि सूरज निकलने तक वह कोई आफत...

बिमला: मेरा भी यही खयाल है! (चन्दो के पास जाकर) हाय, शैतान की बच्ची, तूने यह क्या किया! हाय, अगर तू जीती रहती तो तुझसे पूछती कि दुष्ट, तूने इतना ही किया कि कुछ और?

चन्दो यद्यपि मौत के पंजे में फँसी हुई थी और उसकी जान बहुत जल्द निकलनेवाली थी मगर वह कला और बिमला की बातें सुन रही थी, यद्यपि उसमें जवाब देने की ताकत न थी, उसने बिमला की आखिरी बात सुन कर आँखे खोल दीं, बिमला की तरफ देखा और इस प्रकार मुँह खोला मानो कुछ कहने के लिए बेचैन हो रही है, बहुत उद्योग कर रही है मगर उसमें इतनी शक्ति न रही, उसकी आँखें पुन: बन्द हो गईं और अब पूरी तरह से बेहोश हो गई। देखते-देखते दस-पाँच हिचकियाँ लेकर उसने बिमला और कला के सामने दम तोड़ दिया।

अब कला और बिमला को यह फिक्र पैदा हुई कि पहिले इसे ठिकाने पहुँचाया जाय या चलकर भूतनाथ की खबर ली जाय, मगर इन्दुमति की राय हुई इन दोनों कामों के पहिले बँगले की हिफाजत की जाय (जो इस घाटी के बीच में था और जहाँ प्रभाकरसिंह पहिले-पहिले पहुँचे थे) क्योंकि उसमें बहुत-सी जरूरी चीजें रक्खी हुई हैं और साथ ही उसकी जाँच करने से बहुत-से भेद भी मालूम हो सकते हैं।

इन्दु की इस राय को बिमला और कला ने बहुत पसन्द किया और तीनों औरतें हर्बों और जरूरी चीजों से अपने को सजाकर गुप्त राह से बँगले की तरफ रवाना हुईं।

इस बँगले का हाल हम पहिले खुलासा तौर पर लिख चुके हैं, इसके दरवाजे ऐसे न थे कि बन्द कर देने पर कोई जबर्दस्ती या सहज ही में खोल सके तथा और बातों में भी वह एक छोटा-मोटा तिलिस्म या कारीगरी का खजाना ही समझा जाता था। यद्यपि वह बँगला ऐसी हिफाजत की जगह में था जहाँ बदमाशों का गुजर नहीं हो सकता था तथापि उसकी हिफाजत के लिए लौंडियाँ मुकर्रर थीं जो मर्दानी सूरत में पहरेदारी के कायदे से उसके चारों तरफ बराबर घूमा करता थीं।

कला, बिमला और इन्दु ने वहाँ पहुँच कर उस बँगले के दरवाजे बन्द करने शुरू कर दिये।

पहिले बाहर से भीतर आने का रास्ता रोका, इसके बाद कई जरूरी चीजे उसमें से निकालने के बाद आलमारियों में ताले लगाये और तब भीतर के कमरे सब बंद कर दिये गये। इतना करके एक छोटे गुप्त रास्ते को बंद करती हुई बाहर निकली ही थीं कि एक पहरेदार लौंडी के जोर से चिल्लाने की आवाज आई।

तीनों औरतें कदम बढ़ाती हुई बँगले के सदर दरवाजे पर पहुँची जहाँ नाममात्र के लिए पहरा रहा करता था या जिधर से लौंडी के चिल्लाने की आवाज आई थी। वह लौंडी मर्दाने भेष में थी और घबराई हुई मालूम पड़ती थी। बिमला ने पूछा- ‘‘क्या मामला है, तू क्यों चिल्लाई?’’

लौंडी: मेरी रानी, देखो उस पहाड़ी की तरफ जिधर कैदखाना है और जहाँ भूतनाथ कैद है कई जगह आग की धूनी जल रही है। मालूम होता है मानो बहुत-से आदमियों ने आकर उस पहाड़ी पर दखल जमा लिया है। अगर ये आग धूनिया आपकी तरफ से नहीं सुलगाई गई हैं तो जरूर किसी आने वाली आफत की निशानी हैं और मुझे विश्वास है कि आपने इसके लिए कोई हुक्म नहीं दिया होगा।

बिमला: (ताज्जुब के साथ उस पहाड़ी की तरफ देख कर) बेशक यह नई बात है, मैंने ऐसा करने के लिए किसी को हुक्म नहीं दिया मगर घबराने की कोई बात नहीं है, जहाँ तक मैं समझती हूँ यह भूतनाथ की कार्रवाई है क्योंकि चन्दो की मदद से भूतनाथ कैद से छूट गया और हम लोग उसी के लिए बंदोबस्त कर रही हैं।

लौंडी: (ताज्जुब के साथ) हैं, भूतनाथ कैदखाने से छूट गया! और चन्दो बीवी की मदद से!!

बिमला : हाँ, ऐसी ही बात है, किसी दूसरे वक्त इनका खुलासा हाल तुम्हें मालूम होगा इस समय मैं उसी पहाड़ी पर जाती हूँ और भूतनाथ को गिरफ्तार करती हूँ।

कला : मगर बहिन, मैं इस राय के विरुद्ध हूँ!

बिमला : क्यों?

कला : देखो, सोचो तो सही कि इस तरह कई जगहों पर आग सुलगाने या बालने से भूतनाथ का क्या मतलब है?

बिमला : (कुछ सोच कर) जहाँ तक मैं समझती हूँ इस कार्रवाई से भूतनाथ का यही मतलब होगा कि हम लोगों को धोखा देकर उस तरफ बुलावे और किसी जगह आड़ में छिपे रह कर हमारे ऊपर वार करे।

कला : बेशक, क्योंकि आग के पास पहुँच कर हम लोग उसे ढूँढ़ न सकेंगे, दस्तूर की बात है कि जो कोई सुलगती हुई आग के पास रहता है वह सामने की किसी चीज को नहीं देख सकता। वहाँ तो कई जगह पर आग सुलग रही है, उस बीच में जाकर हम लोग किसी तरह भी निगाह करके दुश्मन को नहीं देख सकेंगे।

बिमला : ठीक है मगर हम लोग पर इस समय उसका कोई हरबा काम नहीं कर सकता।

कला : तथापि हर तरह से बच के काम करना चाहिए, विशेष करके इसलिए कि इन्दु बहिन हमारे साथ हैं, यद्यपि ये यहाँ के सब भेदों को जान गई हैं और हम लोगों का साथ हर तरह से दे सकती हैं।

इन्दु : मेरे लिए कोई तरद्दुद न करो, मैं तुम लोगों के साथ बखूबी चल सकती हूँ मगर मैं यह पूछती हूँ कि ऐसा करने की जरूरत क्या है और इस काम में जल्दी किये बिना हर्ज ही क्या होता है? सम्भव है कि भूतनाथ ने वहाँ ऐयारी का कोई जाल फैलाया हो और इस रात के समय वह कुछ कर भी सके। थोड़ी-सी तो रात रह गई है, अच्छा होता अगर यह बिता दी जाती। प्रात:काल हम लोग देखेंगे कि भूतनाथ कहाँ जाता और क्या करता है। यद्यपि वह स्वतंत्र हो गया है मगर इस घाटी के बाहर नहीं जा सकता और हमारे मकान तथा बँगले में भी उसकी गुजर नहीं हो सकती।

कला: मैं भी राय को पसन्द करती हूँ, चलो बँगले के ऊपर छत पर चल कर बैठें।

बिमला : अच्छा चलो।

इन्दु० : (चलते हुए) मगर ताज्जुब है कि इतनी जल्द भूतनाथ को आग सुलगाने के लिए इतना सामान कैसे मिल गया!

कला : बहिन, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है!

हम लोगों की जरूरत के लिए जंगल की लकड़ियाँ बहुत बटोरी गई थीं जिनके बहुत बड़े-बड़े दो-तीन ढेर वहाँ कैदखाने के पास ही में लगे हुए थे। मालूम होता है कि उन्हीं लकड़ियों से भूतनाथ ने काम किया है।

इन्दु० : हाँ, तब तो उसे बहुत सुभीता मिल गया होगा, मगर क्या तुम खयाल कर सकती हो कि भूतनाथ की यह कार्यवाई किसी और मतलब से भी हुई है?

बिमला : मैं नहीं कह सकती, सम्भव है कि उसका और ही कोई मतलब हो, खैर देखा जाएगा।

इसी तरह की बातें करती तथा दरवाजों को खोलती और बन्द करती हुई तीनों बहिनें बँगले की छत पर चढ़ गईं और एक अच्छे ठिकाने बैठ कर उस तरफ देखने और सुबह का इन्तजार करने लगीं।

उस समय कला और बिमला से बहुत बड़ी भूल हो गई, क्योंकि वे तीनों अद्भुत बँगले की हिफाजत के लिए जब आईं तो उन्होंने रोशनी का कोई खास बन्दोबस्त नहीं किया, बँगले का इन्तजाम करने के बाद वे तीनों बहिनें जब पहरे वाली लौंडी के चिल्लाने की आवाज सुनकर सदर दरवाजे पर गईं तब उनके पास किसी तरह की रोशनी मौजूद न थी और न इस काम के लिए रोशनी की जरूरत ही थी, परन्तु जब वे पहरा देने वाली लौंडी से बातचीत करतीं और पहाड़ के ऊपर वाली रोशनी की तरफ देखती रहीं तब एक आदमी जो अपने को स्याह कपड़े से छिपाये हुए था आड़ देता हुआ सदर दरवाजे के पास पहुँचा और न मालूम किस ढंग से उस बंगले के अन्दर दाखिल हो गया क्योंकि वे तीनों बहिन और पहरा देने वाली लौंडी पहाड़ी की रोशनी को ताज्जबु के साथ देखती हुई सदर दरवाजे से कुछ आगे की तरफ बढ़ गईं थीं और उन्हें इस बात का कुछ खयाल न था कि दुश्मन बगल में आ पहुँचा और अपना काम किया चाहता है! खैर वे तीनों बँगले के अन्दर घुसीं तो दरवाजा बंद करती हुई छत पर चढ़ गईं जैसाकि ऊपर लिखा जा चुका है।

वे तीनों बहिनें उन कई जगह जलती आग को रोशनियों को गौर से देख रही थीं जो अब धीरे-धीरे ठंडी हो रही थीं।

कला : अब आग बिलकुल ठण्डी हो जायेगी।

बिमला : हाँ और इससे मालूम होता है कि भूतनाथ कहीं आगे की तरफ बढ़ गया है।

‘‘आगे की तरफ नहीं बढ़ गया बल्कि इस तरफ चला आया और विश्वास दिलाना चाहता है कि वह आपका दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त है।’’

यह आवाज छत के ऊपर जाने वाले दरवाजे की तरफ से आई थी जो ऊपर तीनों बहिनों के पास ही था।

इस आवाज ने उन तीनों को चौंका दिया, वे उठ खड़ी हुईं और उस दरवाजे की तरफ देखने लगीं, अब यहाँ पर वैसा अंधकार न था जैसा नीचे खास करके पेड़ों की छाँह के सबब से था। चन्द्रदेव उदय हो चुके थे और उनकी चाँदनी पल-पल में बराबर बढ़ती चली जा रही थी अस्तु उन तीनों बहिनों ने साफ देख लिया कि दरवाजे के अंदर एक पैर बाहर और दूसरा भीतर किए कोई आदमी स्याह लबादा ओढ़े खड़ा है।

बिमला : (उस आदमी से) तुम कौन हो?

आदमी : गदाधरसिंह।

बिमला : (निडर रह कर) तुमने बड़ी चालाकी से अपने को कैद से छुड़ा लिया!

गदाधर : बात तो ऐसी ही है।

बिमला : मगर तुम भाग कर इस घाटी के बाहर नहीं जा सकते!

गदाधर : शायद ऐसा ही हो, मगर मुझे भागने की जरूरत ही क्या है?

बिमला : क्यों, अपनी जान बचाने के लिये तुम जरूर भागना चाहते होगे?

गदाधर : नहीं, मुझे अपनी जान का यहाँ कोई खौफ नहीं है क्योंकि तुम्हारी एक नमकहराम लौंडी ने मुझे बता किया है तुम मेरे प्यारे दोस्त दयाराम की स्त्री हो...

बिमला : (बात काट कर) जिस प्यारे दोस्त को तुमने अपने हाथ से हलाल किया!!

गदाधर : नहीं-नहीं, कदापि नहीं, जिसने यह बात तुमसे कही है वह बिलकुल झूठा है उसने तुम लोगों को धोखे में डाल दिया है, यही समझाने और विश्वास दिलाने के लिए मैं यहाँ अटक गया हूँ और भागना पसन्द नहीं करता।

मुझे विश्वास था कि तुम दोनों बहिनों का देहान्त हो चुका है जैसाकि दुनिया में प्रसिद्ध किया गया है, मगर अब तुम दोनों का हाल जानकर भी क्या मैं भागने की इच्छा करूँगा? नहीं, क्योंकि तुम दोनों को अब भी मैं उसी निगाह से देखता हूँ जैसे अपने प्यारे दोस्त की जिन्दगी में देखता था और यही सबब है कि मुझे तुम दोनों से किसी तरह का डर नहीं लगता।

बिमला : मगर नहीं, तुम्हें हम लोगों से डरना चाहिये, हम लोग तुम्हारे हितेच्छु नहीं हो सकते क्योंकि हम लोगों ने जो कुछ सुना वह कदापि झूठ नहीं हो सकता।

गदाधर : (दरवाजे से बाहर निकल कर और बिमला के पास आकर) मैं विश्वास दिला दूँगा कि मुझ पर झूठा इल्जाम लगाया गया है।

बिमला। (कई कदम पीछे हटकर और नफरत के साथ) बस दूर रह मुझसे दुष्ट! मैं तेरी सूरत नहीं देखना चाहती!!

गदाधर : (अपने ऊपर से स्याह कपड़ा हटा कर) नहीं, तुम मेरी सूरत देखो और पहिचानो और सुनो कि मैं क्या कहता हूँ।

बिमला. सिवाय बात बनाने के तू और क्या कहेगा? तू अपने माथे से कलंक का टीका किसी तरह नहीं धो सकता और न वह बात झूठी हो सकती है जो मैं सुन चुकी हूँ। दलीपशाह और शम्भू अभी तक दुनिया में मौजूद हैं और मैं भी खास तौर पर इस बात को जानती हूँ।

गदाधर : मगर सच बात यह है कि लोगों ने तुम्हें धोखा दिया और असल भेद को छिपा रक्खा। खैर तुम अगर मुझ पर विश्वास नहीं करती तो मुझे ज्यादे खुशामद करने की जरूरत नहीं, अब मैं सिर्फ दो-चार बातें पूछ कर चला जाऊँगा। एक तो यह कि तुम मुझे गिरफ्तार करके यहाँ लाई थीं, मगर मैं अपनी चालाकी से छूट गया। अब बताओ मेरे साथ क्या सलूक करोगी?

बिमला : अपने दिल का बुखार निकालने के लिए जो कुछ मुझसे बन पड़ेगा करूँगी, इसे तुम खुद सोच सकते हो।

गदाधर : पर मैं तो अब स्वतंत्र हूँ, अगर चाहूँ तो तुम तीनों को इसी जगह खत्म करके रख दूँ, मगर नहीं, मैं नमक का खयाल करता हूँ ऐसा कदापि न करूँगा, हाँ, तुमसे बचने के लिए उद्योग जरूर करूँगा।

बिमला : कदाचित् ऐसा ही हो।

इतना कह बिमला ने कला की तरफ देखा।

गदाधरसिंह बिमला से बातें कर रहा था मगर उसे इस बात की खबर न थी कि कला क्या कर रही है अथवा क्या किया चाहती है।

कला ने अपने बगल से एक छोटा-सा बाँस का बना हुआ तमंचा निकाला और गदाधरसिंह (भूतनाथ) की तरफ उसका मुँह करके चलाया।

इस अद्भुत तमंचे में बेहोशी की बारूद भरी जाती थी और इसका तेज तथा जल्द बेहोश कर देने वाला धुआँ छूटने के साथ ही तेजी से कई बगहे तक फैलकर लोगों को बेहोश कर देता था, यहाँ पर फैलने के लिए विशेष जगह तो थी नहीं इसलिए उस धुएँ के गुबार ने गदाधरसिंह को चारों तरफ से घेर कर एक तरह का अन्धकार कर दिया।

‘‘गदाधरसिंह धुएँ के असर से बेहोश हो जायेगा’’ यह सोच कर बिमला, कला और इन्दुमति तीनों बहिनें भाग कर नीचे उतर जाने के लिए उठीं और नाक दबाये हुए सीढ़ी की तरफ बढ़ गईं।

गदाधरसिंह बेशक इस धुएँ के असर से बेहोश हो जाता मगर उसने पहिले ही से अपने बचाव का बन्दोबस्त कर लिया था अर्थात् ऐसी दवा खा ली थी कि कई घंटे तक उस पर बेहोशी का असर नहीं हो सकता था तथापि उस धुएँ ने एक दफे उसका सर घुमा दिया।

वे तीनों बहिनें वहाँ से भागीं तो सही मगर अफसोस, बिमला और इन्दु तो नीचे उतर गईं परन्तु कला को फुर्ती से गदाधरसिंह ने पकड़ कर कब्जे में कर लिया और यह हाल बिमला को नीचे उतर कर और कई कमरों में घूम-फिर कर छिप जाने के बाद मालूम हुआ जब चित्त स्थिर हो जाने पर उसने कला को अपने साथ न देखा।

दूसरा भाग : दूसरा बयान

दिन पहर भर से कुछ ज्यादे चढ़ चुका है। यद्यपि अभी दोपहर में बहुत देर है तो भी धूप की गर्मी इस तरह बढ़ रही है कि अभी से पहाड़ के पत्थर गर्म हो रहे हैं और उन पर पैर रखने की इच्छा नहीं होती, दो पहर दिन चढ़ जाने के बाद यदि ये पत्थर आग के अंगारों का मुकाबला करने लग जायें तो क्या आश्चर्य है!

पहाड़ के ऊपरी हिस्से पर एक छोटा-सा मैदान है जिसका फैलाव लगभग डेढ़ या दो बिगहे का होगा। इसके ऊपर की तरफ सिर उठा कर देखने से मालूम होता है कि कुछ और चढ़ जाने से पहाड़ खतम हो जायेगा और फिर सरपट मैदान दिखाई देगा पर वास्तव में ऐसा नहीं है।

इस छोटे मैदान में पत्थर के कई ढोंके मौजूद हैं जो मैदान की मामूली सफाई में बाधा डालते हैं और पत्थर के बड़े चट्टान भी बहुतायत से दिखाई दे रहे हैं जिनकी वजह से वह जमीन कुछ सुन्दर मालूम होती है मगर इस वक्त धूप की गर्मी के समय सभी बातें बुरी और भयानक जान पड़ रही हैं।

इस मैदान में केवल ढाक (पलास) के कई पेड़ दिखाई दे रहे हैं सो भी एक साथ नहीं जिनसे किसी तरह का आराम मिलने की आशा हो सके। इन्हीं पेड़ों में से एक के साथ हम बेचारी कला को कमन्द के सहारे बँधे हुए और उसके सामने गदाधरसिंह अर्थात् भूतनाथ को खड़ा देख रहे हैं, अब सुनिए कि इन दोनों में क्या बातें हो रही हैं।

गदाधर : रात के समय जब मैंने तुम्हें गिरफ्तार किया तब यही समझे हुए था कि कला और बिमला में से किसी एक को पकड़ पाया हूँ मगर अब मैं देखता हूँ कि तू कोई और ही औरत है!१ (१. पाठकों को याद होगा कि कला और बिमला हर वक्त अपनी असली सूरत को एक झिल्ली से छिपाये रहती थीं। इस समय भी उनके चेहरे पर वही झिल्ली है।)

कला : तो क्या उस समय तुमने वहाँ पर कला और बिमला को अच्छी तरह देखा या पहिचाना था?

गदा० : नहीं, पहिचाना तो नहीं था मगर बातें जरूर की थीं और वे बातें भी ऐसे ढंग की थीं जिनसे उनका कला और बिमला ही होना साबित होता था।

कला : वह तुम्हारा भ्रम था, इस घाटी में कला बिमला नहीं रहतीं।

गदा० : (हँस कर) बहुत खासे! अब थोड़ी देर में कह दोगी कि मैं कला और बिमला को जानती ही नहीं!

कला : नहीं ऐसा तो मैं नहीं कह सकती कि मैं दोनों को पहिचानती तक नहीं, मगर यह जरूर कहूँगी कि वे दोनों यहाँ नहीं रहतीं और हम लोगों को उनसे कोई वास्ता नहीं।

गदा० : तो फिर तुम्हारी तरफ से इस ढंग की बातें क्यों की गईं कि मानो तुम ही कला या बिमला हो?

कला : यह तो उनसे पूछो तो मालूम हो जिन्होंने तुमसे बातें की थीं, मैंने तो तुमसे एक बात भी नहीं की थी।

गदा० : वे कौन थीं जो मुझसे बातें कर रही थीं?

कला : मेरी मालकिन।

गदा० : आखिर उनका कुछ नाम-पता भी है या नहीं?

कला : यह बताने की तो कोई जरूरत नहीं।

गदा० : तुझे झख मार कर बताना ही पड़ेगा और यह भी बताना पड़ेगा कि कला और बिमला कहाँ हैं? तेरा यह कहना मैं नहीं मान सकता कि कला-बिमला इस घाटी में नहीं रहतीं और तुम लोगों का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं। आखिर तुमने मुझसे दुश्मनी क्यों की और मैं क्यों इस घाटी में कैद करके लाया गया? तुम लोगों का मैंने क्या बिगाड़ा था?

कला : हम लोगों के तुम्हारे साथ किसी तरह की दुश्मनी नहीं है मगर तुम्हारी गिरफ्तारी में हम लोग शरीक जरूर हैं और वह गिरफ्तारी कला और बिमला के हुक्म से ही हुई थी।

खूब जानती हूँ मैं कि यहाँ की एक लौंडी ने तुम्हें कला और बिमला की खबर दी थी और कहा था कि कला और बिमला ने तुम्हें गिरफ्तार किया है। बेशक उसका यह कहना सच था मगर अफसोस, तुमने उसके साथ दगा किया। यह मैं इसीलिए कहती हूँ कि वह मेरी बहिन थी। अगर तुम उसके साथ दगा न करते तो वह जरूर तुम्हें पूरा-पूरा भेद बता देती। एक तौर पर उसने भण्डा फोड़ ही दिया मगर तुम्हारी सचाई जानने के लिए बहुत कुछ बचा भी रखा, अगर तुम अपना वादा पूरा करते तो वह जरूर बचा हुआ भेद भी बता देती और यह भी कह देती कि कला और बिमला कहाँ रहती हैं। मेरे कहने का मतलब यही है कि तुम उसकी सब बातों को सच न समझना।

गदा० : नहीं, बल्कि तुम्हारा मतलब यह है कि मुझे कुछ दो तो यहाँ का भेद बताऊँ।

कला : नहीं, ऐसा है तो नहीं मगर तुम जैसा चाहे खयाल कर सकते हो।

गदा० : (मुस्करा कर) ठीक है, अच्छा पहिले तुम मेरी उस बात का जवाब तो दो जो मैं पूछ चुका हूँ, पीछे और बातें की जायेंगी।

कला : कौन-सी बात का जवाब?

गदा० : यही कि उस रात को मुझसे इस ढंग की बातें क्यों की गईं जो कला और बिमला ही कर सकती हैं।

कला : मैं समझती हूँ कि तुम्हें ठीक तरह से पहिचान लेने ही के लिये उन्होंने इस ढंग की बातें की थीं क्योंकि हम लोगों को इस बात का निश्चय नहीं था कि वास्तव में तुम गदाधरसिंह ही हो और तुम्हारी गिरफ्तारी में धोखा नहीं हुआ।

गदा० : (मुस्कराते हुए) बात बनाने में तुम भी बड़ी तेज हो, यद्यपि मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं कर सकता मगर कह सकता हूँ कि शायद तुम्हारा कहना ठीक हो। अच्छा अब यह कहो कि तुम यहाँ के भेद और कला तथा बिमला का हाल मुझे बता सकती हो या नहीं?

कला : नहीं।

गदा० : इसलिए कि मैंने तुम्हारी बहिन के साथ दगा किया, वास्तव में वह तुम्हारी बहिन थी!

कला : सिर्फ इसीलिए नहीं बल्कि इसलिये भी कि यह काम बड़ा ही नाजुक है और ऐसा करने के बाद मैं किसी तरह जीती नहीं रह सकती।

गदा० : क्यों तुम्हें मारने वाला कौन है? यहाँ जितने हैं वे सभी तुम्हारे अपने हैं इसके अतिरिक्त किसी को मालूम ही क्योंकर हो सकता है कि तुमने मुझे बताया है।

कला : यह बात छिपी नहीं रह सकती, यह घाटी तिलिस्मी है और यहाँ के हर पेड़-पत्तों और पत्थरों के ढोकों के भी कान हैं, मेरी बहिन ने इस बात का कुछ खयाल नहीं किया और इसीलिये आखिरकार जान से मारी गई।

गदा० : (आश्चर्य से) क्या तुम्हारी बहिन मारी गई?

कला : हाँ, क्यों मालकिन को तुम्हारी और उसकी बातों का किसी तरह पता लग गया।

गदा० : रात का समय था, सम्भव है किसी ने छिप कर सुन लिया हो। इसके अतिरिक्त और किसी तिलिस्मी बात का मैं कायल नहीं। इस समय दिन है चारों तरफ आँखें फैलाकर देखो किसी की सूरत दिखाई नहीं देती अस्तु मेरी-तुम्हारी बातें कोई सुन नहीं सकता, तुम बेखौफ होकर यहाँ का हाल इस समय मुझे बता सकती हो।

कला : नहीं, कदापि नहीं।

गदा० : (कमर से खंजर निकाल कर और दिखा कर) नहीं तो फिर इसी से तुम्हारी खबर ली जायगी!

कला : जो हो बताने के बाद भी तो मैं किसी तरह बच नहीं सकती, फिर ऐसी अवस्था में क्यों अपने मालिक को नुकसान पहुँचाऊँ? चाहे तिलिस्मी बातों का तुम्हें विश्वास न हो पर मैं समझती हूँ कि मेरे और तुम्हारे बीच जो-जो बातें हो रही हैं वह सब मेरी मालकिन सुन रही होंगी...

गदा० : (खिलखिलाकर हँस कर) ठीक है, तुम्हारी बातें...

कला : बेशक ऐसी ही है, अगर मैं इस घाटी के बाहर होती तो इस बात का खयाल न होता और यहाँ के भेद शायद बता देती।

गदा० : (मुस्कराते हुए) यही सही, तुम मुझे इस घाटी के बाहर ले चलो और यहाँ के भेद बता दो तो मैं तुम्हें...

कला : नहीं–नहीं, किसी तरह का वादा करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि उस पर मुझे विश्वास न होगा, हाँ, यदि मुझे दलीपशाह के पास पहुँचा दो तो मैं यहाँ का पूरा-पूरा भेद तुम्हें बता सकती हूँ बल्कि हर तरह से तुम्हारी मदद भी कर सकती हूँ!

गदा० : (चौंक कर) दलीपशाह! दलीपशाह से और तुमसे क्या वास्ता?

कला : वे मेरे रिश्तेदार हैं और यहाँ से भाग कर मैं उनके यहाँ अपनी जान बचा सकती हूँ।

गदा० : अगर ऐसा ही है तो तुम स्वयं उसके पास क्यों नहीं चली जाती?

कला : पहिले तो मुझे यहाँ से भागने की कोई जरूरत ही नहीं, भागने का खयाल तो सिर्फ इसी सबब से होगा कि तुम्हें यहाँ के भेद बताऊँगी दूसरे यह कि आजकल न-जाने किस कारण से उन्होंने अपना मकान छोड़ दिया है और किसी दूसरी जगह जाकर छिप रहे हैं।

गदा० : अगर किसी दूसरी जगह छिप रहे हैं तो भला मुझे क्योंकर उनका पता लगेगा?

कला : तुम्हें उनका पता जरूर होगा क्योंकि तुम उनके साढ़ू और दोस्त भी हो।

गदा० : यह बात तुम्हें क्योंकर मालूम हुई?

कला : भला मैं दलीपशाह के नाते की होकर यह नहीं जानूँगी कि तुम उनके कौन हो।

गदा० : (आश्चर्य के साथ कुछ सोच कर) अगर तुम्हारी बात सच है तो तुम मेरी भी कुछ नातेदार होवोगी।

कला : जरूर ऐसा ही है, मगर यहाँ मैं इस बारे में कुछ न कहूँगी, दलीपशाह के मकान पर चलने ही से तुम्हें सब हाल मालूम हो जायगा तथा और भी कई बातें ऐसी मालूम होंगी जिन्हें जान कर तुम खुश हो जाओगे इन्हीं बातों का खयाल करके और तुम्हें अपना नजदीकी नातेदार समझ के मैं चाहती हूँ कि तुम्हें इस घाटी से बाहर कर दूँ और खुद भी भाग जाऊँ नहीं तो यहाँ रह कर तुम्हारी जान किसी तरह बच नहीं सकती और बिना मेरी मदद के तुम घाटी के बाहर भी नहीं जा सकते।

गदा० : (सोच कर) अगर ऐसा ही है तो तुम मेरी नातेदार होकर यहाँ क्यों रहती हो?

कला : यहाँ पर मैं इन सब बातों का कुछ भी जवाब न दूँगी ।

कला की बातें सुन कर गदाधरसिंह सोच और तरद्दुद में पड़ गया। वह यहाँ का भेद जानने के लिए अवश्य ही कला को तकलीफ देता या गुस्से में आकर शायद मार ही डालता मगर कला की बातों ने उसे उलझन में डाल दिया और वह सोच में पड़ गया कि अब क्या करना चाहिए।

वह जानता था बल्कि उसे विश्वास था कि बिना किसी की मदद के वह इस घाटी के बाहर नहीं निकल सकता और यहाँ फँसे रहना भी उसके लिए अच्छा नहीं चाहे वह किसी तरह की ऐयारी करके कितना ही उपद्रव मचा ले, अतएव वह बाहर निकल जाना बहुत पसन्द करता था और समझता था कि इत्तिफाक ही ने इस समय उसे मदद दिला दी है और अब इससे काम न लेना निरी बेवकूफी है।

मगर कला की बातों ने उसे चक्कर में डाल दिया था। यद्यपि वह दलीपशाह १ का पता जानता था मगर कई कारणों से उसके पास या सामने जाना अथवा कला को ले जाना पसन्द नहीं करता था। (१. यह नाम चन्द्रकान्ता सन्तति में आ चुका है।)

उधर कला से उसकी इच्छानुसार बात करने की उसे सख्त जरूरत थी क्योंकि उसे इस बात का शक हो रहा था कि अगर कला से दलीपशाह के पास ले जाने का वादा न करूँगा तो शायद यह मुझे इस खोह के बाहर न भी ले जायगी। वह कला को धोखा देने और कोरा वादा करने के लिए तैयार था मगर वह चाहता था कि कला मुझसे वादा करने के लिए कसम न खिलावे, क्योंकि असली सूरत में कसम खाकर मुँह फेर लेने की आदत अभी तक उसमें नहीं पड़ी थी और वह अपने को बहादुर समझता था।

गदाधरसिंह के दिल में ये बातें भी पैदा हो रही थीं कि इस घाटी के मालिक का पता लगाना चाहिए और यहाँ के भेदों को जानना चाहिए परन्तु उसने सोचा कि यहाँ कला और बिना किसी मददगार के रहकर मैं कुछ भी न कर सकूँगा। यहाँ रहने वाले बिलकुल ही सीधे-सादे मालूम नहीं होते और यद्यपि अभी तक यहाँ किसी मर्द की सूरत दिखाई न दी परन्तु औरतें भी यहाँ की ऐयारा ही जान पड़ती हैं। क्या यह औरत भी मुझसे ऐयारी के ढंग पर बातें कर रही है? सम्भव है कि ऐसा ही हो और मुझे इस घाटी के बाहर ले जाने के बहाने से यह किसी खोह या कन्दरा में फँसा कर पुनः कैद करा दे।

अभी तक तो मैंने इस बात की भी जाँच नहीं की कि इसकी सूरत असली है या बनावटी। खैर मैं अभी-अभी इस बात की भी जाँच कर लूँगा और इसके बाद जब इस घाटी के बाहर निकल जाने के लिए इसके साथ किसी खोह या सुरंग के अंदर घुसूँगा तो पूरा होशियार रहूँगा कि यह मुझसे दगा न करे, न इसे अपने आगे रहने दूँगा और न पीछे रहने दूँगा बल्कि इसका हाथ पकड़े रहूँगा या कमर में कमन्द बाँध कर थामे रहूँगा। इस खोह के बाहर निकल जाने पर मैं सब कुछ कर सकूँगा क्योंकि तब वहाँ का रास्ता भी देखने में आ जायगा, तब अपने दो-एक शागिर्दों को मदद के लिए साथ लेकर पुनः यहाँ आऊँगा और यहाँ रहने वालों से समझूँगा जिन्होंने मुझे गिरफ्तार किया था।

इत्यादि तरह-तरह की बातें गदाधरसिंह बहुत देर तक सोचता रहा और इसके बाद कला से बोला, ‘‘अच्छा मैं तुम्हें दलीपशाह के पास ले चलूँगा मगर तुम पानी से अपना मुँह धोकर मुझे विश्वास दिलाओ कि तुम्हारी सूरत बदली हुई नहीं है या तुम ऐयार नहीं हो और मुझे कोई धोखा नहीं दिया चाहतीं।’’

कला : हाँ-हाँ, मैं अपना चेहरा धोने के लिए तैयार हूँ, पानी दो।

गदा० : (अपने बटुए में से पानी की एक छोटी-सी बोतल निकाल कर और कला की ओर बढ़ाकर) लो यह पानी तैयार है।

कला ने गदाधरसिंह के हाथ से पानी लेकर अपना चेहरा धो डाला। उसके चेहरे पर किसी तरह का रंग चढ़ा हुआ तो था ही नहीं जो धोने से दूर हो जाता बल्कि एक प्रकार की झिल्ली चढ़ी हुई थी जिस पर पानी का कुछ भी असर नहीं हो सकता था, अस्तु गदाधरसिंह को विश्वास हो गया कि इसकी सूरत बदली हुई नहीं है। भूतनाथ ने उसके हाथ-पैर खोल दिए और घाटी के बाहर चलने के लिए कहा।

गदा० : क्या तुम इस दिन के समय मुझे यहाँ से बाहर ले जा सकती हो?

कला : हाँ, ले जा सकती हूँ।

गदा० : मगर तुम्हारे संगी-साथी किसी जगह से छिपे देख सकते हैं।

कला : अव्वल तो शायद ऐसा न होगा, दूसरे अगर कोई दूर से देखता भी होगा तो जब तक वह मेरे पास पहुँचेगा तब तक मैं तुम्हें लिए हुए इस घाटी के बाहर हो जाऊँगी, फिर मुझे बचा लेना तुम्हारा काम है।

गदा० : (जोश के साथ) ओह, घाटी के बाहर हो जाने पर फिर तुम्हारा कोई क्या बिगाड़ सकता है!

कला : तो बस फिर जल्दी करो, मगर हाँ एक बात तो रह ही गई।

गदा० : वह क्या?

कला : तुमने मुझसे इस बात की प्रतिज्ञा नहीं की कि दलीपशाह से मुलाकात करा दोगे।

गदा० : मैं तो पहले ही वादा कर चुका हूँ कि तुम्हें दलीपशाह के पास ले चलूँगा।

कला : वादा और बात है, प्रतिज्ञा और बात है, मैं इस बारे में तुमसे कसम खिला के प्रतिज्ञा करा लेना चाहती हूँ। तुम क्षत्रिय हो अस्तु खंजर, जिसे दुर्गा समझते हो, हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करो कि वादा पूरा करोगे।

गदा० : (कुछ देर तक सोचने के बाद खंजर हाथ में लेकर) अच्छा लो मैं कसम खा कर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हें दलीपशाह के घर पहुँचा दूँगा।

कला : हाँ, बस मेरी दिलजमयी हो गई।

इतना कह कर कला उठ खड़ी हुई और गदाधरसिंह को साथ लिए हुए पहाड़ी के नीचे उतरने लगी।

पाठकों को समझ रखना चाहिए कि इस सुन्दर घाटी से बाहर निकल जाने के लिए केवल एक ही रास्ता नहीं है बल्कि कई रास्ते हैं जिन्हें मौके-मौके समयानुसार ये लोग अर्थात् कला और बिमला काम में लाया करती हैं और इनका हाल किसी मौके पर आगे चल कर मालूम होगा। इस समय हम केवल उसी रास्ते का हाल दिखाते हैं जिससे गदाधरसिंह को साथ लिए हुए कला बाहर जाने वाली है।

कला पहाड़ी के कोने की तरफ दबती हुई नीचे उतरने लगी। धूप बहुत तेज हो चुकी थी और गरमी से उसे सख्त तकलीफ हो रही थी तथापि वह गौर से कुछ सोचती हुई पहाड़ी के नीचे उतरने लगी। जब करीब जमीन के पास पहुँच गई तो एक ऐसा स्थान मिला जहाँ जंगली झाड़ियाँ बहुतायत से थीं और वहाँ पत्थर का एक छोटा बुर्ज भी था जिस पर चढ़ने के लिए उसके अन्दर की तरफ छोटी-छोटी तीस या पैंतीस सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। उस बुर्ज के ऊपर लोहे की चौरुखी झण्डी लगी हुई थीं। अर्थात् लोहे के बनावटी बाँस पर लोहे के ही पत्तरों की बनी चौरुखी झण्डी इस ढंग से बनी हुई थी कि यह घुमाने से घूम सकती थी।

एक झण्डी का रंग सुफेद, दूसरी का स्याह, तीसरी का लाल और चौथी झण्डी का पीला था। इस समय पीले रंग वाली झण्डी का रुख बँगले की तरफ घूमा हुआ था। वहाँ पर खड़ी होकर कला ने गदाधरसिंह से कहा, ‘‘बस इसी जगह बाहर निकल जाने के लिए एक सुरंग है और यह बुर्ज उसकी ताली है अर्थात् दरवाजा खोलने के लिए पहिले मुझे इस बुर्ज के ऊपर जाना होगा अस्तु तुम इसी जगह खड़े रहो, मैं क्षण-भर के लिए ऊपर जाती हूँ।’’

गदा० : (कुछ सोच कर) तो मुझे भी अपने साथ लेती चलो, मैं देखूँगा कि वहाँ तुम क्या करती हो।

कला : (मुस्कराकर) तो तुम इस रास्ते का भेद जानना चाहते हो?

गदा० : हाँ बेशक और इसीलिए तो मैंने तुमसे दलीपशाह के पास पहुँचा देने का वादा किया है।

कला : अच्छा चलो।

गदाधरसिंह कला के साथ उस बुर्ज के अन्दर गया, उसने देखा कि कला ने ऊपर चढ़ कर उस झण्डी के बाँस को जो बुर्ज के बीचोंबीच से छत फोड़ कर अन्दर निकला हुआ था घुमा दिया। बस इसके अतिरिक्त उसने और कुछ भी नहीं किया और बुर्ज के नीचे उतर आई। बाहर निकलने पर गदाधरसिंह ने देखा कि जिस रुख पर पीले रंग की झण्डी थी, अब उस रुख पर लाल रंग की झण्डी है, मगर इस काम से और इस सुरंग के दरवाजे से क्या संबंध हो सकता है सो उसकी समझ में कुछ न आया। कुछ गौर करने पर यकायक खयाल आया कि ये झण्डियाँ यहाँ रहने वालों के लिए इशारे का काम करती हों तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है।

वह सोचने लगा कि निःसन्देह यह औरत बड़ी चालाक और धूर्त है, पहिले भी इसी ने मुझ पर वार किया था, बेहोशी की दवा भरा हुआ तमंचा इसी ने तो मुझ पर चलाया था और इस समय भी इसी से मुझे पाला पड़ा है, देखना चाहिए यह क्या रंग लाती है। इस समय भी अगर यह मेरे साथ दगा करेगी तो मैं इसे दुरुस्त ही करके छोड़ूँगा इत्यादि।

गदाधरसिंह को सोच और विचार में पड़े हुए देख कर कला भी समझ गई कि वह मेरे ही विषय में चिन्ता कर रहा है और इसे इस झण्डी के घुमाने पर शक हो गया है अस्तु उसने शीघ्रता की मुद्रा दिखाते हुए गदाधरसिंह से कहा, ‘‘बस आओ और जल्दी से खोह के अन्दर घुसो क्योंकि पहिला दरवाजा खुल गया है।’’

बुर्ज के नीचे उतर जाने के बाद गदाधरसिंह को साथ लिए हुए कला यहाँ से पश्चिम तरफ ढालवीं जमीन पर चलने लगी और लगभग तीस या चालीस कदम चलने के बाद ऐसी जगह पहुंची जहाँ चार-पाँच पेड़ पारिजात के लगे हुए थे और उनके बीच में जंगली लताओं से छिपा हुआ एक छोटा दरवाजा था।

कला ने गदाधरसिंह की तरफ देख के कहा, ‘‘यही उस खोह का दरवाजा है जिस राह से हम लोगों का आना-जाना होता है, अब मैं इसके अन्दर घुसती हूँ, तुम पीछे चले आओ।’’

गदा० : जहाँ तक मेरा खयाल है मैं कह सकता हूँ कि इस खोह के अन्दर जरूर अन्धकार होगा, कहीं ऐसा न हो कि तुम आगे चलकर गायब हो जाओ और मैं अंधेरे में तुम्हें टटोलता, पुकारता और पत्थरों से ठोकरें खाता हुआ परेशानी में फँस जाऊँ, क्योंकि नित्य आने-जाने के कारण यह रास्ता तुम्हारे लिए खेल हो रहा है, इसके अतिरिक्त यह रास्ता एकदम सीधा कभी न होगा, जरूर रास्ते में गिरह पड़ी होगी, या यों कहा जाय कि इसके बीच में दो-एक तिलिस्मी दरवाजे जरूर लगे होंगे।

कला : नहीं-नहीं, तुम बेखौफ मेरे पीछे चले आओ, यह रास्ता बहुत साफ है।

गदा० : नहीं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ, बेहतर होगा कि तुम अपनी कमर में मुझे कमन्द बाँधने दो, मैं उसे पकड़े हुए तुम्हारे पीछे-पीछे चला चलूँगा।

कला : अगर तुम्हारी यही मर्जी है तो मुझे मंजूर है।

आखिर ऐसा ही हुआ, गदाधरसिंह ने कला की कमर में कमन्द बाँधी और उसे आगे चलने के लिए कहा और उस कमन्द का दूसरा सिरा पकड़े हुए पीछे-पीछे आप रवाना हुआ। गदाधरसिंह को इस बात का बहुत खयाल था कि सुरंग की राह से आने-जाने का रास्ता किसी तरह मालूम कर ले, मगर कला किसी दूसरी ही फिक्र में थी, वह यह नहीं चाहती थी कि इसी सुरंग के अन्दर भूतनाथ अर्थात् गदाधरसिंह को फँसा कर मार डाले, इस समय उसे इस सुरंग से निकाल देना ही वह पसन्द करती थी, अस्तु वह धीरे-धीरे सुरंग के अन्दर से रवाना हुई।

पन्द्रह या बीस कदम आगे जाने के बाद सुंरग में एकदम अन्धकार मिला इसलिए गदाधरसिंह को टटोल-टटोलकर चलने की जरूरत पड़ी मगर कला तेजी के साथ कदम बढ़ाये चली जा रही थी और एक तौर पर गदाधरसिंह को खैंचे लिए जाती थी।

कला : अब तुम जल्दी चलते क्यों नहीं? रास्ता बहुत चलना है और तुम्हारी सताई हुई प्यास के मारे मैं बेचैन हो रही हूँ, इस खोह के बाहर निकलकर तब पानी पीऊँगी, और तुम्हारा यह हाल है कि चींटी की तरह कदम बढ़ाते हो, मेरे पीछे-पीछे आने में भी तुम्हारी यह दशा है, तुम कैसे ऐयार हो!

गदा० : मालूम होता है कि मुझे आज तुमसे भी कुछ सीखना पड़ेगा, मेरी ऐयारी में जो कुछ कसर थी उसे अब कदाचित् तुम लोग ही पूरा करोगी।

कला : वास्तव में ऐसी ही बात है, देखो यहाँ एक दरवाजा आया है, जरा संभल कर चौखट लाँघना नहीं ठोकर खाओगे।

उसी समय किसी तरह के खटके की आवाज आई और मालूम हुआ कि दरवाजा खुल गया। गदाधरसिंह बहुत होशियारी से इस नीयत से हाथ बढ़ा कर टटोलता हुआ आगे बढ़ा कि दरवाजे का पता लगावे और मालूम करे कि वह कैसा है या किस तरह खुलता है मगर चौखट लाँघ जाने पर भी जब इस बात का कुछ पता न लगा तब उसने चिढ़ कर कला से कहा, ‘‘क्या खाली चौखट ही थी या यहाँ तुमने दरवाजा खोला है?’’

कला : इस बात को जानने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं, मैंने तुमसे यह वादा नहीं किया है कि यहाँ के सब भेद बता दूँगी।

गदा० : मैं यहाँ के भेद जानना नहीं चाहता मगर इस सुरंग का हाल तो तुम्हें बताना ही पड़ेगा।

कला : इस भरोसे मत रहना, मैं वायदे के मुताबिक तुम्हें इस जगह से बाहर कर दूँगी और तुम प्रतिज्ञानुसार मुझे दलीपशाह के पास पहुँचा देना।

गदा० : क्या तुम नहीं जानती कि अभी तक तुम मेरे कब्जे में हो और मैं जितना चाहे तुम्हें सता सकता हूँ?

कला : तुम्हारे ऐसे बेवकूफ ऐयार के मुँह से ऐसी बात निकले तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है! अजी तुम यही गनीमत समझो कि इस घाटी के अन्दर हम लोगों ने तुम्हें किसी तरह का दुःख नहीं दिया क्योंकि हम लोग तुम्हारे साथ कोई और ही सलूक किया चाहती हैं और किसी दूसरे ढंग पर बदला लेने का इरादा है।

तुम्हारी भूल है कि तुम मुझे अपने कब्जे में समझते हो, अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो चुपचाप चले आओ।

कला की ऐसी बातें सुन कर गदाधरसिंह झल्ला उठा और उसने क्रोध के साथ कमन्द खैंची, उसे आशा थी की कला इसके साथ खिंचती चली आवेगी मगर ऐसा न हुआ और खाली कमन्द खिंच कर गदाधरसिंह के हाथ में आ गई, क्योंकि रास्ता चलते-चलते कला ने कमन्द खोल डाली थी, इसलिए कि उसके हाथ खुले थे, गदाधरसिंह ने इस खयाल से उसके हाथ नहीं बाँधे थे और कला ने भी ऐसा ही बहाना किया था कि सुरंग के अन्दर कई कठिन दरवाजे खोलने पड़ेंगे।

जिस समय खाली कमन्द खिंच कर गदाधरसिंह के हाथ में आ गई उसका कलेजा दहल उठा और वह वास्तव में बेवकूफ-सा बन कर चुपचाप खड़ा रह गया मगर साथ ही कला की आवाज आई—‘‘कोई चिन्ता मत करो, चुपचाप कदम बढ़ाते चले आओ और समझ लो कि यहाँ भी तुम्हें बहुत कुछ सीखना पड़ेगा।’’

एक खटके की आवाज आई और आहट से उसी समय यह भी मालूम हो गया कि जिस चौखट को लाँघ कर वह आया था उसमें किसी तरह का दरवाजा था जो उसके इधर जाने के बाद आप-से-आप बन्द हो गया। पीछे की तरफ हट कर और हाथ बढ़ा कर देखा तो अपना खयाल सच पाया और विश्वास हो गया कि अब उसका पीछे की तरफ लौटना असम्भव हो गया।

वहाँ की अवस्था और कला की बातों से गदाधरसिंह का गुस्सा बराबर बढ़ता ही गया और इस बात की उसे बहुत ही शर्म आई कि एक साधारण औरत ने उसे उल्लू बना दिया। मगर वह कर ही क्या सकता था, उस अनजान सुरंग और अन्धकार में उसका क्या बस चल सकता था? परन्तु इतने पर भी उसने मजबूर होकर कला के पीछे-पीछे टटोलते हुए जाना पसन्द नहीं किया।

कई सायत तक चुपचाप खड़े रह कर कुछ सोचने के बाद उसने अपने बटुए में से सामान निकाल कर रोशनी की और आँखें फाड़ कर चारों तरफ देखने लगा।

उसने देखा कि यह सुरंग बहुत चौड़ी और कुदरती ढंग से बनी हुई है तथा ऊँचाई भी किसी तरह कम नहीं है, तीन आदमी एक साथ खड़े होकर उसमें बखूबी चल सकते हैं, मगर यहाँ पर इस बात का पता नहीं लगता कि यह सुरंग कितनी लम्बी है क्योंकि आगे की तरफ बिलकुल अन्धकार मालूम होता था। पीछे की तरफ देखा तो दरवाजा बन्द पाया जिसमें किसी तरह की कुण्डी, खटके या ताले का निशान नहीं मालूम होता था।

गदाधरसिंह हाथ में बत्ती लिए हुए आगे की तरफ कदम बढ़ाये रवाना हुए। लगभग डेढ़ सौ कदम जाने के बाद उसे पुनः दूसरी चौखट लाँघने की जरूरत पड़ी। उसके पार हो जाने के बाद यह दरवाजा भी आप-से-आप बन्द हो गया।

उसने अपनी आँखों से देखा कि लोहे का बहुत बड़ा तख्ता एक तरफ से निकल कर रास्ता बन्द करता हुआ दूसरी तरफ जाकर हाथ भर तक दीवार के अन्दर घुस गया, क्योंकि वह पीछे फिर कर देखता हुआ आगे बढ़ा था। वह पुनः आगे की तरफ बढ़ा मगर अब क्रमशः सुरंग तंग और नीची मिलने लगी। उसे कला का कहीं पता न लगा जिसे गिरफ्तार करने के लिए वह दाँत पीस रहा था।

कई सौ कदम चले जाने के बाद पिछले दो दरवाजों की तरह उसे और भी तीन दरवाजे सामने पड़े और तब वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचा जहाँ दो तरफ को रास्ता फूट गया था। वहाँ पर वह अटक गया और सोचने लगा कि किस तरफ जाय। कुछ ही सायत बात एक तरफ से आवाज आई, ‘‘अगर सुरंग के बाहर निकल जाने की इच्छा हो तो दाहिनी तरफ चला जा और अगर यहाँ के रहनेवालों की ऐयारी का इम्तहान लेना हो और किसी को गिरफ्तार करने की प्रबल अभिलाषा हो तो बाईं तरफ का रास्ता पकड़!’’

गदाधरसिंह चौकन्ना होकर उस तरफ देखने लगा जिधर से आवाज आई थी मगर किसी आदमी की सूरत दिखाई न पड़ी। आवाज पर गौर करने से विश्वास हो गया कि यह उसी औरत (कला) की आवाज है जिसकी बदौलत वह यहाँ तक आया था।

आवाज किस तरफ से आई या आवाज देने वाला कहाँ है और वहाँ तक पहुँचने की क्या तरकीब हो सकती है इत्यादि बातों पर गौर करने के लिए भी गदाधरसिंह वहाँ न अटका और गुस्से के मारे पेचोताब खाता हुआ दाहिनी तरफ वाली सुंरग में रवाना हुआ। थोड़ी देर तक तेजी के साथ चल कर वह सुरंग से बाहर निकल आया और ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ बहुत सुन्दर और सुहावने बेल तथा पारिजात के पेड़ लगे हुए थे और हरी-हरी लताओं से सुरंग का मुँह ढका हुआ था।

जहाँ पर गदाधरसिंह खड़ा था उसके दाहिनी तरफ कई कदम की दूरी पर सुन्दर झरना था जो पहाड़ की ऊँचाई से गिरता हुआ तेजी के साथ बह रहा था। यद्यपि इस समय उसके जल की चौड़ाई चार या पाँच हाथ से ज्यादे न थी मगर दोनों तरफ के कगारों पर ध्यान देने से विश्वास होता था कि मौसम पर जरूर चश्मा छोटी-मोटी नदी का रूप धारण कर लेता होगा।

गदाधरसिंह ने देखा कि उस चश्में का जल मोती की तरह साफ और निथरा हुआ बह रहा है और उसे उस पार वही औरत (कला) जिसने उसे धोखा दिया था हाथ में तीर-कमान लिए खड़ी उसकी तरफ ताक रही है। वह अकेली नहीं है बल्कि और भी चार औरतें उसी की तरह हाथ में तीर-कमान लिए उसके पीछे हिफाजत के खयाल में खड़ी हैं।

गदाधरसिंह क्रोध से भरा हुआ लाल आँखों से उस औरत (कला) की तरफ देखने लगा और कुछ बोलना ही चाहता था कि सामने से और भी दो आदमी आते हुए दिखाई दिये जिन्हें नजदीक आने पर भी उसने नहीं पहिचाना मगर उसे खयाल हुआ कि इन दोनों ने ऐयारी के ढंग पर अपनी सूरतें बदली हुई हैं।

ये दोनों आदमी गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह थे जिनकी सूरत इस समय वास्तव में बदली हुई थी। प्रभाकरसिंह ने निगाह पड़ते ही कला को पहचान लिया क्योंकि उसी बदली हुई सूरत में कला और बिमला को देख चुके थे, हाँ, कला ने प्रभाकरसिंह को नहीं पहचाना जो इस समय भी सुन्दर सिपाहियाना ठाठ में सजे हुए थे।

कला को इस जगह ऐसी अवस्था में देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ और वे उसे कुछ पूछना ही चाहते थे कि उसकी निगाह गदाधरसिंह पर पड़ी जो चश्में के उस पार की पत्थर की चट्टान पर खड़ा इन लोगों की तरफ देख रहा था।

प्रभाकरसिंह ने इस ढंग पर अपनी सूरत बदली हुई थी कि उन्हें यकायक पहिचानना बड़ा कठिन था मगर एक बँधे हुए इशारे से उन्होंने कला पर अपने को प्रकट कर दिया और यह बतला दिया कि जो आदमी मेरे साथ है वह मेरा सच्चा खैरख्वाह गुलाबसिंह है।

गुलाबसिंह का हाल कला को मालूम था क्योंकि वह उसकी तारीफ इन्दुमति से सुन चुकी थी और जानती थी कि ये प्रभाकरसिंह के विश्वासपात्र हैं इसलिए इनसे कोई बात छिपाने की जरूरत नहीं है अस्तु पूछने पर उसने अपने साथ वाली औरतों को अलग करके सब हाल अपना और भूतनाथ का साफ-साफ बयान कर दिया जिसे सुनते ही प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह हँस पड़े।

प्रभाकर : वास्तव में तुम बेतरह इसके हाथ फँस गई थीं मगर खूब ही चालाकी से अपने को बचाया!

गुलाब० : (प्रभाकरसिंह की तरफ देख के) यद्यपि गदाधरसिंह इनका कुसूरवार है और आजकल उसने अजीब तरह का ढंग पकड़ रखा है तथापि मैं कह सकता हूँ कि गदाधरसिंह ने इन्हें पहिचाना नहीं, अगर पहिचान लेता तो कदापि इनके साथ बेअदबी का बर्ताव न करता।

कला : (गुलाबसिंह से) आप जो चाहें कहें क्योंकि वह आपका दोस्त है मगर हम लोगों को उस पर कुछ भी विश्वास नहीं है। (प्रभाकरसिंह से) मालूम होता है कि हम लोगों का हाल आपने इनसे कहा दिया है।

प्रभाकर० : हाँ, बेशक ऐसा ही है मगर तुम लोगों को इन पर विश्वास करना चाहिए क्योंकि ये मेरे सच्चे सहायक, हितैषी और दोस्त हैं, तुम लोगों को भी इनसे बड़ी मदद मिलेगी।

कला : ठीक है और मैं जरूर इन पर विश्वास करूँगी क्योंकि इनका पूरा-पूरा हाल बहिन इन्दुमति से सुन चुकी हूँ, यद्यपि ये गदाधरसिंह के दोस्त हैं और हम लोग उनके साथ दुश्मनी का बर्ताव कर रहे हैं।

गुलाब० : (कला से) यद्यपि गदाधरसिंह मेरा दोस्त है मगर (प्रभाकरसिंह की तरफ बताकर इनके मुकाबले में मैं उस दोस्ती की कुछ भी कदर नहीं करता।

इनके लिए मैं उसी को नहीं बल्कि दुनिया के हर पदार्थ को जिसे मैं प्यार करता हूँ छोड़ देने के लिए तैयार हूँ। अच्छा जाने दो इस समय पर इन बातों की जरूरत नहीं, पहिले उस (गदाधरसिंह) से बातें करके उसे बिदा कर लो फिर हम लोगों से बातें होती रहेंगी। हाँ, यह तो बताओ कि जब तुमने इसे गिरफ्तार ही कर लिया था तो फिर मार क्यों नहीं डाला?

कला : हम लोग इसे मार डालना पसन्द नहीं करतीं बल्कि यह चाहती हैं कि जहाँ तक हो सके इसकी मिट्टी पलीद करें और इसे किसी लायक न छोड़ें। यह किसी के सामने मुँह दिखाने के लायक न रहे बल्कि आदमी की सूरत देख कर भागता फिरे, और इसके माथे पर कलंक का ऐसा टीका लगे कि किसी के छुड़ाये न छूट सके और यह घबड़ा कर पछताता हुआ जंगल-जंगल छिपता फिरे।

गुलाब० : बेशक यह बहुत बड़ी सजा है, अच्छा तुम उससे बात करो।

गदाधरसिंह दूर खड़ा हुआ इन लोगों की तरफ बराबर देख रहा था मगर इन लोगों की बातें उसे कुछ भी सुनाई नहीं देती थीं और न वह हाव-भाव ही से कुछ समझ सकता था, हाँ इतना जानता था कि अब वह कला का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।

कला : (कुछ आगे बढ़ कर ऊँची आवाज में गदाधरसिंह से) अब तो तुम इस घाटी के बाहर निकल आए, मैंने जो कुछ वादा किया था सो पूरा हो गया अब तुम मुझे दलीपशाह के पास ले चल कर अपना वादा पूरा करो।

गदा० : (कला की तरफ बढ़ कर) बेशक तुम्हारी ऐयारी मुझ पर चल गई और मैं बेवकूफ बन गया। मैं यह भी खूब समझता हूँ कि दलीपशाह से मुलाकात करने की तुम्हें कोई जरूरत न थी, वह केवल बहाना था, और न अब तुम मेरे साथ दलीपशाह के पास जा ही सकती हो। अस्तु कोई चिन्ता नहीं, तुम मेरे हाथ से निकल गईं और मैं तुम्हारे पंजे से छूट गया। अच्छा अब मैं जाता हूँ मगर कहे जाता हूँ कि तुम लोग व्यर्थ ही मुझसे दुश्मनी करती हो। दयारामजी के विषय में जो कुछ तुम लोगों ने सुना है या जो कुछ तुम लोगों का खयाल है वह बिल्कुल झूठ है, वह मेरे सच्चे प्रेमी थे और मैं अभी तक उनके लिए रो रहा हूँ।

यदि जमना और सरस्वती वास्तव में जीती हैं और तुम लोग उनके साथ रहती हो तो जाकर कह देना कि गदाधरसिंह तुम लोगों के साथ दुश्मनी कदापि न करेगा, यद्यपि तुम्हारा हाल जानने के लिए वह तुम्हारे आदमियों को दुख दे और सतावे तो हो सकता है मगर वह तुम दोनों को कदापि दुख न देगा। तुम यदि इच्छा हो तो गदाधरसिंह को सता लो, उसे तुम्हारे लिए जान दे देने में भी कुछ उज्र न होगा।

इतना कह कर भूतनाथ वहाँ से पलट पड़ा और देखते-देखते नजरों से गायब हो गया।

गुलाबसिंह को बाहर छोड़ कर प्रभाकरसिंह कला के साथ घाटी के अन्दर चले गये और गुलाबसिंह से कह गए कि तुम इसी जगह ठहर कर मेरा इन्तजार करो, इन्दुमति तथा बिमला से मिलकर आता हूँ तो चुनार की तरफ चलूँगा क्योंकि जब तक शिवदत्त से बदला न ले लूँगा तब तक मेरा मन स्थिर न होगा।

संध्या हो चुकी थी जब प्रभाकरसिंह लौट कर गुलाबसिंह के पास आए और दोनों आदमी धीरे-धीरे बातचीत करते हुए चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए।

इन दोनों को इस बात की कुछ भी खबर नहीं है कि भूतनाथ इनका पीछा किये चला आ रहा है और चाहता है कि इन दोनों को किसी तरह पहिचान ले, इन दोनों के खयाल से भूतनाथ उसी समय कला के सामने ही चला गया था मगर वास्तव में वह थोड़ी दूर जाकर छिप रहा था और अब मौका पाकर इन दोनों के पीछे-पीछे छिपता हुआ रवाना हुआ।

दूसरा भाग : तीसरा बयान

क्या भूतनाथ को कोई अपना दोस्त कह सकता था? क्या भूतनाथ के दिल में किसी की मुहब्बत कायम रह सकती थी! क्या भूतनाथ किसी के एहसान का पाबंद रह सकता था? क्या भूतनाथ पर किसी का दबाव पड़ सकता था? क्या भूतनाथ पर कोई भरोसा रख सकता था?

इसका जवाब देना बहुत कठिन है, जो गुलाबसिंह भूतनाथ को अपना दोस्त कहता था आज वही गुलाबसिंह भूतनाथ पर भरोसा न करता और इसी तरह भूतनाथ भी उसे अपना दोस्त नहीं समझता। जिस प्रभाकरसिंह की मदद के लिए भूतनाथ कमर बाँध कर तैयार हुआ था आज उसी प्रभाकरसिंह पर ऐयारी का वार करके इन्दुमति को सताने के लिए वह तैयार हो रहा है। सूरत बदले हुए प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह को यद्यपि भूतनाथ ने पहिचाना न था मगर उसे किसी तरह का शक जरूर हो गया था और यही जाँच करने के लिए उसने इन दोनों का पीछा किया था। रात पहर भर से ज्यादे जा चुकी थी।

गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह आपस में बातें करते हुए चुनारगढ़ की तरफ जा रहे थे। वे दोनों इस विचार में थे कि कोई गाँव या बस्ती आ जाए तो वहाँ थोड़ी देर के लिए आराम करें। कुछ दूर और जाने के बाद वे दोनों ऐसी जगह पहुँचे जहाँ जंगली पेड़ बहुत ही कम होने के कारण वह जमीन मैदान का नमूना बन रही थी और पगडण्डी रास्ते से कुछ हट कर दाहिनी तरफ एक सुन्दर कुआँ भी था जिसे देख इन दोनों की इच्छा हुई कि इसी कुएँ पर बैठ कर देर आराम कर ले तब आगे बढ़े।

कुएँ के पास जाकर देखा कि एक आदमी गमछा बिछाए उसी जगह पर आराम कर रहा है और डोरी तथा लोटा उसके सिरहाने की तरफ पड़ा हुआ है, गुलाबसिंह ने प्रभाकरसिंह की तरफ देख कर कहा, ‘‘कुछ देर के लिए यहाँ आराम कीजिए, पानी पीजिए, और हाथ-मुँह धो ठंडे होकर सफर की हरारत मिटाइये!’’ इसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘पानी पीने के लिए हम लोगों के पास लोटा-डोरी तो है नहीं, हाँ आगे किसी ठिकाने पर चलें तो सभी कुछ हो सकता है, बल्कि वहाँ खाने–पीने का भी सुभीता होगा!’’

इन दोनों की बातें सुन कर वह मुसाफिर जो कुएँ की जगह पर लेटा हुआ था उठ बैठा और बोला, ‘‘हाँ हाँ आप क्षत्री जान पड़ते हैं और मैं भी और गौड़ ब्राहाण हूँ, अभी-अभी यह लोटा माँज कर मैंने रखा है पानी खींच लीजिए।’’

‘‘अति उत्तम’’ कह कर गुलाबसिंह ने लोटा-डोरी उठा ली और प्रभाकरसिंह उसी जगत पर बैठ गये।

गुलाबसिंह ने कुएँ से जल निकाला और दोनों दोस्तों ने हाथ-मुँह धोया। इसके बाद पुनः जल निकाल कर दोनों ने थोड़ा-थोड़ा पीया फिर लोटा माँज मुसाफिर के सिरहाने उसी जगह रख दिया।

गुलाबसिंह यद्यपि होशियार आदमी थे मगर इस जगह एक मामूली बात में भूल कर गये, उन्हें उचित था कि अपने हाथ से लोटा माँज कर तब जलपान करते या मुँह-हाथ धोते, मगर ऐसा न करने से दोनों ही को तकलीफ उठानी पड़ी।

वह आदमी जो कुएँ पर पहिले ही से आराम कर रहा था वास्तव में भूतनाथ था, वह इन दोनों की आहट लेता हुआ इनसे कुछ ही दूर आगे-आगे सफर कर रहा था बल्कि यों कहना चाहिए कि कभी आगे, कभी पीछे, कभी पास कभी दूर जब जैसा मौका पाता उसी तरह उन दोनों के साथ सफर कर रहा था और इस समय पहिले से यहाँ आकर इन लोगों को धोखा देने के लिए अटका हुआ था।

प्रभाकरः (गुलाबसिंह से) यह कुआँ है तो अच्छे मौके पर मगर इसका पानी अच्छा नहीं है।

गुलाब : हाँ पानी में कुछ बदबू मालूम पड़ती है, मगर यह बात पहिले न थी, मैं कई दफे इस कुएँ का पानी पी चुका हूँ, यहाँ चार-चार कोस के घेरे में यही एक कुआँ है।

इसके बाद दोनों आदमी कुछ देर तक मामूली बातचीत करते रहे क्योंकि अनजान मुसाफिर पास होने के ख्याल से मतलब की भेद की कोई बात नहीं कर सकते थे, इसके बाद वे दोनों चादर बिछा कर लेट गये और बात-की-बात में बेखबर होकर खर्राटे लेने लगे, उस समय भूतनाथ अपनी जगह से उठा और दोनों के पास आकर गौर से देखने लगा कि अभी ये लोग बेहोश हुए हैं या नहीं।

भूतनाथ ने अपने लोटे के अन्दर बेहोशी की दवा लगा दी थी जिसका कुछ हिस्सा पानी में मिलघुल कर इनके पेट में उतर गया था और इसी दवा की महक इन दोनों की नाक में गई थी जिसका असल मतलब न समझ कर इन्होंने पानी की शिकायत की थी।

जब भूतनाथ ने देखा कि वे दोनों अच्छी तरह बेहोश हो गये तब अपने बटुए में से सामान निकाल कर उसने रोशनी की, इसके बाद कुएँ में से पानी निकाला और रूमाल तर करके इन दोनों का चेहरा साफ किया, उस समय अच्छी तरह देखने से भूतनाथ का शक जाता रहा और उसने पहिचान लिया कि वे ये दोनों गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह हैं।

गुलाबसिंह ऐयार नहीं था मगर अकल का तेज और होशियार आदमी था तथा ऐयारों के साथ दोस्ती रहने के कारण कुछ-कुछ ऐयारी का काम भी कर सकता था और इसी सबब से उसने अपनी और प्रभाकरसिंह की सूरत मामूली ढंग पर बदल ली थी।

भूतनाथ ने इन दोनों को अच्छी तरह पहिचान लेने के बाद गुलाबसिंह की सूरत पुनः उसी तरह की बना दी और प्रभाकरसिंह को पीठ पर लाद कर अपने घर का रास्ता लिया।

तेजी के साथ चल कर दो ही घण्टे में वह अपनी घाटी के मुहाने पर जा पहुँचा जहाँ रहता था तथा जो कला और बिमला की घाटी के साथ सटी हुई थी।

वहाँ उसके शागिर्द लोग उसका इन्तजार कर रहे होंगे यह सोच भूतनाथ तेजी से कदम बढ़ाता हुआ उस सुरंग के अन्दर घुसा।

सुरंग के अन्दर घुसने के बाद वह उसी चौमुहानी पर पहुँचा जिसका जिक्र ऊपर कई दफे आ चुका है। इसके बाद यह अपनी घाटी की तरफ घूमा और उस सुरंग में घुसा मगर दो ही चार कदम आगे जाने के बाद दरवाजा बन्द देख उसे बड़ा ही ताज्जुब हुआ, उसका दिमाग हिल गया और हिम्मती होने पर भी वह एक दफे काँप उठा।

प्रभाकरसिंह की गठरी उसने जमीन पर रख दी और बटुए में से सामान निकाल रोशनी करने के बाद अच्छी तरह गौर करके देखने लगा कि रास्ता क्यों कर बन्द हो गया, मगर उसकी समझ में कुछ भी न आया। उसने सिर्फ इतना देखा कि लोहे का एक बहुत बड़ा तख्ता सामने खड़ा हुआ है जिसके कारण यह बिल्कुल नहीं जान पड़ता कि उसका घर किस तरफ है, उसने दरवाजा खोलने की बहुत कोशिश की और बड़ी देर तक हैरान रहा मगर सब बेकार हुआ।

यह सोच कर उसकी आँखों में आँसू भर आये कि हाय उसके कई शागिर्द जो इस घाटी के अन्दर हैं सब बेचारे भूख के मारे तड़प कर मर जायँगे, क्योंकि इस रास्ते के सिवाय बाहर निकलने के लिए उन्हें कोई दूसरा रास्ता न मिलेगा।

प्रभाकरसिंह की गठरी लिए भूतनाथ घबड़ाया हुआ सुरंग के बाहर निकल आया और एक घने पेड़ के नीचे बैठ कर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए? इस समय यहाँ मेरा कोई शागिर्द या नौकर भी नहीं मिल सकता जिससे किसी तरह का काम निकाला जाय जिस खयाल से प्रभाकरसिंह को ले आया था वह काम भी न हुआ हाय मेरे आदमी एकाएक जहन्नुम में मिल गये और मैं उनकी कुछ भी मदद न कर सका!

मालूम होता है कि यहाँ का कोई सच्चा जानकार आ पहुँचा जिसने इस घाटी पर कब्जा कर लिया, क्या दयाराम की दोनों स्त्रियाँ तो यहाँ नहीं आ पहुँची जो पड़ोस में रहती हैं? अगर ऐसा हो भी तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि बगल वाली घाटी जिसमें वे दोनों रहती हैं कोई तिलिस्म मालूम पड़ती है और यह घाटी उससे कुछ सम्बन्ध रखती हो तो आश्चर्य ही क्या है मैं नहीं चाहता था कि उन दोनों को सताऊँ या किसी तरह की तकलीफ दूँ मगर दोस्तों और शागिर्दों को छु़ड़ाने के लिए अब मुझे सभी कुछ करना पड़ेगा।

दूसरा भाग : चौथा बयान

गुलाबसिंह की जब आँख खुली तो रात बीत चुकी थी और सुबह की सुफेदी में पूरब तरफ लालिमा दिखाई देने लग गई थी। वह घबड़ा कर उठ बैठा और इधर-उधर देखने लगा। जब प्रभाकरसिंह को वहाँ न पाया तब बोल उठा, बेशक मैं धोखा खा गया, वह मुसाफिर न था बल्कि कोई ऐयार था जिसने लोटे में किसी तरह की दवा लगा दी होगी, क्या मैं कह सकता हूँ कि प्रभाकरसिंह को वही उठा ले गया होगा?’’ इतना कह वह जगत के नीचे उतरा और घूम-घूम कर प्रभाकरसिंह की तलाश करने लगा। जब वे न मिले तो तरह-तरह की बातें मन में सोचता हुआ आगे की तरफ बढ़ा

‘‘बेशक वह कोई ऐयार था जो प्रभाकरसिंह को उठा कर ले गया, ताज्जुब नहीं कि वह भूतनाथ हो यद्यपि मुझे उससे ऐसी आशा न थी परन्तु आजकल वह जमना और सरस्वती के ख्याल से प्रभाकरसिंह को भी अपना दुश्मन समझने लग गया है। यह भी किसी को क्या उम्मीद थी कि जमना और सरस्वती जीती होंगी। खैर मुझे इस समय प्रभाकरसिंह के लिए कुछ बन्दोबस्त करना चाहिए, बेहतर होगा यदि मैं स्वयं भूतनाथ के पास चला जाऊँ और उससे प्रभाकरसिंह को माँग लूँ, मगर नहीं, यद्यपि वह मेरा दोस्त है परन्तु इस समय वह दोस्ती पर कुछ भी ध्यान न देगा।

अगर उसे ऐसा ही खयाल होता तो प्रभाकरसिंह को ले जाता ही क्यों? मुझे भी इस समय उससे किसी तरह की उम्मीद न रखनी चाहिए, क्योंकि अब हम लोग दयाराम के खयाल से जमना और सरस्वती के पक्षपाती हो गये हैं, अस्तु अब उसके लिए कोई दूसरा ही बन्दोबस्त करना चाहिए, अगर उस खोह का रास्ता मुझे मालूम होता तो मैं जमना और सरस्वती को भी इस बात की खबर दे देता। खैर अब मुझे दलीपशाह के पास चलना चाहिए और उससे मदद माँगनी चाहिए क्योंकि मैं अकेले भूतनाथ का मुकाबला नहीं कर सकता। दलीपशाह जरूर मेरी मदद करेगा, उस पर मेरा जोर भी है और उसने मेरे साथ अपनी मुहब्बत भी दिखाई है, मगर पहिले अपने आदमियों को समझा देना चाहिए जो अभी तक हम लोगों का इन्तजार कर रहे होंगे!!’’

इत्यादि तरह-तरह की बातें सोचता हुआ गुलाबसिंह आगे की तरफ बढ़ा चला जाता था। लगभग एक या डेढ़ कोस गया होगा कि सामने से दो सिपाही ढाल-तलवार लगाए दो घोड़ों की बागडोर थामें आते हुए दिखाई पड़े जब वे गुलाबसिंह के पास पहुँचे तो सलाम करके खड़े हो गए और गुलाबसिंह भी रुक गया।

गुलाब : तुम लोग कहाँ जा रहे हो?

एक : आप ही की खोज में जा रहे हैं, क्योंकि रात भर इन्तजार करके हम लोग....

गुलाब : (बात काट कर) बेशक तुम लोग तरद्दुद में पड़ गए होगे, मगर क्या करें लाचारी है, अच्छा यह कहो कि बाकी आदमी कहाँ हैं?

एक : अभी तक सब उसी जगह अटके हुए हैं।

गुलाब : अच्छा एक काम करो तुम घोड़ा यहीं छोड़ दो और लौट जाओ, हमारे आदमियों को इत्तिला दो कि हमारे घर पर चले जायँ, पुराने घर पर नहीं आजकल जहाँ हम रहते हैं उस घर पर चले जायँ, और जब तक हम या प्रभाकरसिंह वहाँ न आवें तब तक कहीं न जायँ। मैं इस घोड़े पर सवार होकर किसी काम के लिए जाता हूँ, (दूसरे सिपाही की तरफ देखकर) तुम इस दूसरे घोड़े पर सवार हो लो और मेरे साथ-साथ चलो।

इतना कहकर गुलाबसिंह घोड़े पर सवार हो गया, ‘‘जो हुक्म’’ कह कर एक सिपाही तो पीछे की तरफ लौट गया दूसरा घोड़े पर सवार होकर गुलाबसिंह के साथ रवाना हुआ।

दूसरा भाग : पाँचवाँ बयान

ऊपर लिखी वारदात को गुजरे आज कई दिन हो चुके हैं, इस बीच में कहाँ और क्या-क्या नई बातें पैदा हुई उनका हाल तो पीछे मालूम होगा, इस समय हम पाठकों को कला और बिमला की उसी सुन्दर घाटी में ले चलते हैं जिसकी सैर वे पहिले भी कई दफे कर चुके हैं।

उस घाटी के बीचोबीच में जो सुन्दर बंगला है उसी में चलिए और देखिए कि क्या हो रहा है।

रात घंटे भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है। बंगले के अन्दर एक कमरे में साफ और सुथरा फर्श बिछा हुआ है और उस पर कुछ आदमी बैठे आपुस में बातें कर रहे हैं, एक तो इन्द्रदेव हैं, दूसरी कला, तीसरी बिमला और चौथी इन्दुमति है जिसका नाम आजकल ‘चन्दा’ रक्खा गया है खैर सुनिये कि इनमें क्या-क्या बातें हो रही हैं।

बिमला : (इन्द्रदेव से) आपका कहना बहुत ठीक है, मैं भी भूतनाथ से इसी तरह पर बदला लेना पसन्द करती हूँ, तभी तो उसे यहाँ से निकल जाने का मौका दिया।

मैं समझता हूँ कि मरने वाले को कई सायत तक की मामूली तकलीफ तो होती है मगर मरने के बाद उसे कुछ भी ज्ञान नहीं रहता कि उसने किसके साथ कैसा सलूक किया था और उसने किस तरह पर उससे बदला लिया। प्राण का सम्बन्ध शरीर से नहीं छूटता उसे कोई-न-कोई शरीर अवश्य ही धारण करना पड़ता है, एक शरीर को छोड़ा तो दूसरा धारण करना पड़ा, यह उसकी इच्छानुसार नहीं होता बल्कि सर्वशक्तिमान जगदीश्वर के रचे हुए मायामय जगत का यह एक अकाट्य नियम ही है और इसी नियम के अनुसार ईश्वर भले-बुरे कर्मों का बदला मनुष्य को देता है।

एक देह को छोड़कर जब जीव दूसरी देह में प्रवेश करता है तब अपने भले-बुरे कर्मों का फल दूसरी देह में भोगता है, मगर इसका उसे कुछ भी परिज्ञान नहीं होता और उस सुख-दुख का कारण न समझकर वह सहज ही में उस कर्म फल की अथवा सुख-दुःख को भोग लेता है या भोगा करता है वह इस बात को नहीं समझ सकता कि पूर्व जन्म में मैंने यह पाप किया था जिसका बदला इस तरह पर मिल रहा है, बल्कि उसे वह एक मामूली बात समझता है, और दुःख को दूर करने का उद्योग किया करता है, यही कारण है कि वह पुनः पाप-कर्म में प्रवृत्त हो जाता है।

अगर मनुष्य जानता कि यह दुःख उसके किस पाप–कर्म का फल है तो कदाचित वह पुनः उस पाप-कर्म में प्रवृत्त होने का साहस न करता परन्तु उस महामाया की माया कुछ कही नहीं जाती और समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों होता है कदाचित उस दयामय दया के भाव ही के कारण हो इसी से मैं कहता हूँ कि दुश्मन को मार डालने से कोई फल नहीं होता उसके पाप-कर्म का बदला ईश्वर तो उसे देगा ही परन्तु मैं भी तो कुछ बदला दे दूँ यही मेरी इच्छा रहती हैं चाहे किसी मत के पक्षपाती लोग इसे भी ईश्वर की इच्छा ही कहें परन्तु मेरे चित्त को जो सन्तोष होता है वह विशेषता इसमें अधिक अवश्य है।

बिमला : निःसन्देह ऐसा ही हैं

इन्दु० : दुश्मन बहुत दिनों तक जीता रह कर पाप का प्रायश्चित भोगता रहे सो अच्छा, जितने ही ज्यादे दिनों तक वह पश्चाताप करे उतना ही अच्छा।

उसके शरीर को जितना ही कष्ट भोगना पड़े उतना ही उत्तम, वह अपने सचाई के साथ बदला देने वाले को प्रसन्न और हँसता हुआ देखकर जितना ही कुढ़े जितना ही शर्मिन्दा हो और जितना दुःख पा सके उतना ही शुभ समझना चाहिए, इसी विचार से मैं कहता हूँ कि भूतनाथ को मारो मत, बल्कि उसे जहाँ तक बने सताओ और दुःख दो, भला वह समझे तो सही कि मेरे किस कर्म का यह क्या फल मिल रहा है!!

मगर एक बात और विचारने के योग्य है, वह यह कि इस तरह पर दुश्मन से बदला लेना कुछ सहज काम नहीं है, इसके लिए बड़े ही उद्योग, बड़े ही साहस और बड़े ही धैर्य की जरूरत है और इसके लिए अपने चित्त के भाव को बहुत ही छिपाना पड़ता है, सो ये बातें मनुष्य से जल्दी निभती नहीं, इसी से कई विद्धानों का मत है कि ‘दुश्मन को जहाँ तक हो सके जल्द मिटा देना चाहिए, नहीं तो किसी विचार से तरह दे देने पर कहीं ऐसा न हो कि मौका पाकर वह बलवान हो जाय और तुम्हीं को अपने कब्जे में कर ले।’ यह सच है परन्तु यदि ईश्वर सहायक हो और मनुष्य धैर्य के साथ निर्वाह कर सके तो इस बदले से वह पहिला ही बदला अच्छा है जिसे मैं ऊपर बयान कर चुका हूँ।

भूतनाथ के साथ इस तरह का बर्ताव करने से एक फायदा यह भी हो सकता है कि सच्चे और झूठे मामले की जाँच भी हो जायगी कदाचित् उसने तुम्हारे पति को धोखे ही से मारा हो जान-बूझकर न मारा हो, जैसाकि उसका कथन है! भूतनाथ ऐसा बुद्धिमान और धुरन्दर ऐयार यदि अपने कर्मों का प्रायश्चित पाकर सुधर जाय और अच्छी राह पर लगे तो अच्छी हो बात है क्योंकि ऐसे बहादुर लोग दुनिया में कम पैदा होते हैं।

इन्द्रदेव की आखिरी बात कला और बिमला को पसन्द न आई मगर उन्होंने उनकी खातिर से यह जरूर कह दिया कि- आपका कहना ठीक है।

कला : खैर अब तो भूतनाथ को मालूम ही हो गया है कि जमना और सरस्वती जीती हैं, देखें हम लोगों के लिए क्या उद्योग करता है।

इन्द्र : कोई चिन्ता नहीं, मालूम हो गया तो होने दो, तुम होशियारी के साथ इस घाटी के अन्दर पड़ी रहो, किसी को यहाँ का रास्ता मत बताओ और जब कभी इस घाटी के बाहर जाओ तो उन अद्भुत हर्बों को जरूर अपने साथ रक्खो जो मैंने तुम लोगों को दिये हैं।

बिमला : जो आज्ञा।

कला : यहाँ का रास्ता अभी तक तो सिवाय प्रभाकरसिंह के और किसी नए आदमी को मालूम नहीं, मगर इधर प्रभाकरसिंह की जुबानी यह जाना गया है कि हम लोगों का कुछ हाल उन्होंने अपने दोस्त गुलाबसिंह को जरूर कह दिया है, मगर यहाँ का रास्ता, घाटी या इसका असल भेद उनको भी नहीं बताया है।

इन्द्र : (कुछ सोचकर) प्रभाकरसिंह बुद्धिमान आदमी हैं, उन्होंने जो कुछ किया होगा उचित किया होगा, इसके विषय में तुम लोग चिन्ता मत करो इसके अतिरिक्त गुलाबसिंह पर मैं भी विश्वास करता हूँ वह निःसंदेह उनका सच्चा हितैषी है और साथ ही इसके साहसी और बहादुर भी है। यदि गुलाबसिंह को वे इस घाटी के अन्दर भी ले आवें तो कोई चिन्ता की बात नहीं हैं। (मुस्कुरा कर) और बेटी, तुमने तो प्रभाकरसिंह को यहाँ का राज्य ही दे दिया, यहाँ के तिलिस्म की ताली ही दे दी है।

बिमला : सो आपकी आज्ञा से, मैंने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया, परन्तु फिर भी आपकी मदद पाये बिना वे कुछ कर न सकेगे। हाँ एक बात कहना तो मै भूल ही गई।

इन्दु० : वह क्या?

बिमला : भूतनाथ की घाटी का रास्ता मैंने बन्द कर दिया है, अब भूतनाथ अपने स्थान पर नहीं पहुँच सकता और उसके साथी और दोस्त लोग उसी के अन्दर पड़े-पड़े सड़ा करेंगे।

यह कहकर बिमला ने अपनी बेईमान लौंडी चन्दो की मौत और भूतनाथ की घाटी का दरवाजा बन्द कर देने तक का हाल पूरा-पूरा इन्द्रदेव से बयान किया।

इन्दु० : (कुछ सोच कर) मगर यह काम तो तुमने अच्छा नहीं किया! तुम लोगों को मैंने इस घाटी में इसलिए स्थान दिया था कि अपने दुश्मन भूतनाथ का हाल-चाल बराबर जाना करोगी, वह इस घाटी के पड़ोस में रहता है और यहाँ से उस घाटी का हाल बखूबी जाना जा सकता है इसी सुबीते को देखकर मैंने तुम लोगों को यहाँ छोड़ा था, सो सुबीता तुमने अपने से बिगाड़ दिया। यद्यपि भूतनाथ के संगी-साथी इससे परेशान होकर मर जायेंगे मगर इससे भूतनाथ का कुछ नहीं बिगड़ेगा।

वह इस स्थान को छोड़कर दूसरी जगह चला जायगा, फिर तुम्हें उसके काम-काज की भी कुछ खबर नहीं मिला करेगी। तुम ही सोचो कि यदि वह तुम्हारे किसी साथी या दोस्त को गिरफ्तार करता तो जरूर इस घाटी में ले आता और तुम्हें उसकी खबर लग जाती, तब तुम उसको छुड़ाने का उद्योग करती, मगर अब क्या होगा? अब तो अगर वह तुम्हारे किसी साथी को पकड़ेगा तो दूसरी जगह ले जायगा और ऐसी अवस्था में तुम्हें कुछ भी पता न लगेगा।

बिमला : (सिर झुका कर) बेशक यह बात तो हैं।

कला : निःसन्देह भूल हो गई!

इन्दु० : गहरी भूल हो गई। आखिर हम लोग औरत की जात, इतनी समझ कहाँ? अब इस भूल का सुधार क्योंकर हो?

इन्दु० : अब इस भूल का सुधार होना जरा कठिन है, भूतनाथ जरूर चौकन्ना हो गया होगा और अब वह अपने लिए दूसरा स्थान मुकर्रर करेगा। (कुछ विचार कर) मगर खैर एक दफे मैं इसके उद्योग जरूर करूँगा, कदाचित काम निकल जाय।

कला : क्या उद्योग कीजिएगा?

इन्दु० : सो अभी से कैसे कहूँ? वहाँ जाने पर और मौका देखने पर जो कुछ बन जाय। यदि भूतनाथ इस घाटी में बना रहेगा तो बहुत काम निकलेगा।

बिमला : तो क्या आप अकेले भूतनाथ की तरफ या उस घाटी में जायेंगे?

इन्दु० : हाँ। जा सकता हूँ क्योंकि वे लोग मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते और न मुझे भूतनाथ की परवाह ही है, मगर मेरा इरादा है कि इस काम के लिए दलीपशाह को भी अपने साथ लेता जाऊँ।

इतना कहकर इन्द्रदेव उठ खड़े हुए और उस कमरे में चले गए जो यहाँ नहाने-धोने के लिए मुकर्रर था।

दूसरा भाग : छठवाँ बयान

दिन तीन पहर से ज्यादे चढ़ चुका है, इस समय हम भूतनाथ को एक घने जंगल में अपने तीन साथियों के साथ पेड़ के नीचे बैठे हुए देखते हैं। यह जंगल उस घाटी से बहुत दूर था जिसमें भूतनाथ रहता था और जिसका रास्ता बिमला ने बन्द कर दिया था।

भूत० :(अपने साथियों से) मुझे इस बात का बड़ा ही दुख है कि मेरे साथी लोग इस घाटी में कैदियों की तरह बन्द होकर दुःख भोग रहे हैं। यद्यपि वहाँ पानी की कमी नहीं है और खाने के लिए भी इतना सामान है कि वे लोग महीनों तक निर्वाह कर सकें, मगर फिर कब तक! आखिर जब यह सामान चुक जायगा तो फिर वे लोग क्या करेंगे?

एक : ठीक है मगर साथ ही इसके यह खयाल भी तो होता है कि शायद हमारे दोस्तों को भी तकलीफ दी गई हो!

भूत० : हो सकता है लेकिन इस विचार पर मैं विशेष भरोसा नहीं करता क्योंकि दरवाजा बन्द कर देना सिर्फ एक जानकार आदमी का काम है मगर हमारे साथियों से लड़ कर बीस या पचीस आदमी पार नहीं पा सकते।

दूसरा : है तो ऐसी ही बात, इसीसे आशा होती है कि अभी तक वे सब जीते होंगे, अस्तु जिस तरह हो सके उन्हें बचाना चाहिए।

भूत० : मैं इसी फिक्र में पड़ा हूँ और सोच रहा हूँ कि उनको बचाने के लिए क्या इन्तजाम किया जाय।

एक : पहिले तो उसका पता लगाना चाहिये जिसने दरवाजा बन्द कर दिया है।

भूत० : हाँ और इस विषय में मुझे उन्हीं औरतों पर शक होता है, जो इस पड़ोस वाली घाटी में रहती हैं, जहाँ मैं कैद होकर गया था। और जहाँ सुनने में आया कि जमना और सरस्वती अभी तक जीती-जागती हैं और मुझसे दयाराम का बदला लेने के लिए उद्योग कर रही हैं। वास्तव में यह घाटी भी बड़ी विचित्र है। निःसन्देह वह तिलिस्म है और अगर मेरा खयाल ठीक है तो वहाँ की रहने वालियाँ आस-पड़ोस की घाटियों का हाल जानती होंगी, बल्कि मेरी इस घाटी से भी सम्बन्ध रखती हों तो ताज्जुब नहीं!

तीसरा : आपका विचार बहुत ठीक है, अगर वास्तव में जमना और सरस्वती जीती हैं और उसी घाटी में रहती हैं तो निःसन्देह यह काम उन्हीं का है और उन्हीं लोगों में से किसी को गिरफ्तार करने से हमारा काम निकल सकता है।

भूत : बेशक, और मैं उन लोगों में से किसी को जरूर गिरफ्तार करूँगा।

एक : आप जब गिरफ्तार होकर वहाँ गए तो वहाँ की अवस्था देखकर और उन लोगों की बातें सुनकर जमना व सरस्वती के विषय में आपने क्या विश्वास किया?

भूत० : मुझे विश्वास होता है कि जरूर वे दोनों जीती हैं।

दूसरा : तो यह घाटी उन लोगों को किसने रहने के लिये दी और इन लोगों का मददगार कौन है?

भूत० : यही तो एक विचार करने की बात है। मेरे खयाल से अगर इन्द्रदेव दोनों के पक्षपाती बने हों तो कोई ताज्जुब नहीं क्योंकि दयारामजी मेरे हाथ से मारे गये इस बात को दुनिया में मेरे सिवाय सिर्फ दो ही आदमी और जानते हैं, एक तो दलीपशाह दूसरा शम्भू। शम्भू तो इन्द्रदेव का शागिर्द ही ठहरा और दलीपशाह इन्द्रदेव का दिली दोस्त! यद्यपि दलीपशाह मेरा नातेदार है और उसने इस बात को छिपा रखने के लिए मुझसे कसम भी खाई है, मगर यह मालूम होता कि उसने अपनी कसम तोड़ दी और इस भेद को खोल दिया।

इस बात का सबसे बड़ा सबूत एक यह है कि जब मैं कैद होकर उस घाटी में गया था तो एक औरत ने जोर देकर मुझसे बयान किया था कि तुमने दयाराम को मारा है अस्तु मेरा यह विचार पक्का है कि निःसन्देह शम्भू और दलीपशाह ने भेद खोल दिया और सबसे पहिले उन्होंने जरूर अपने दोस्त इन्द्रदेव से वह हाल बयान किया होगा। ऐसी अवस्था में ताज्जुब नहीं कि इन्द्रदेव ही इन दोनों के पक्षपाती बने हो।

एक : तो इन्द्रदेव को क्या आपसे कुछ दुश्मनी है?

भूत० : नहीं इस बात का तो मुझे गुमान भी नहीं होता।

एक : और यदि इन्द्रदेव चाहें तो क्या आपको कुछ सता नहीं सकते? या आपको गिरफ्तार करके सजा नहीं दे सकते?

भूत० : बेशक इन्द्रदेव जो कुछ चाहें कर सकते हैं, उनकी ताकत का कोई अन्दाजा नहीं कर सकता, वे एक बहुत बड़े तिस्लिम के राजा समझे जाते हैं, मुझसे वे बहुत ज्यादे जबर्दस्त है और ऐयारी में भी मैं उन्हें अपने से बढ़कर मानता हूँ।

यद्यपि एक विषय में अपने को उनका कसूरवार मानता हूँ मगर फिर भी कह सकता हूँ कि वे मेरे दोस्त हैं।

दूसरा : तो आप ऐसे दोस्त पर इस तरह का शक क्यों करते हैं?

भूत० : दिल ही तो है, खयाल ही तो है! जब आदमी किसी मुसीबत में गिरफ्तार होता है तो उसके सोच-विचार और शक का कोई हिसाब नहीं रहता। मैं इस समय मुसीबत की जिन्दगी बिता रहा हूँ। मुझसे दो-तीन काम बहुत बुरे हो गये हैं जिनमें एक दयारामवाली वारदात है। इसमें मुझे बहुत ही बड़ा धोखा हुआ। मैंने कुछ जान-बूझकर अपने दोस्त को नहीं मारा, मगर खैर वह जो कुछ होना था हो गया, अब क्या मैं अपने को दुश्मन के हाथ सहज ही में सौंप दूँगा!

यद्यपि इन्द्रदेव को मैं अद्भुत व्यक्ति मानता हूँ। मगर मैं अपने को भी कुछ समझता हूँ, मुझे अपनी ऐयारी पर भी घमण्ड है, इसलिए मैं इन्द्रदेव से नहीं डरता और तुम लोगों से कहे देता हूँ कि दलीपशाह इन्द्रदेव का दोस्त है तो क्या हुआ मगर मैं उसे मारे बिना कभी न छोड़ूँगा, उस कम्बख्त से अपना बदला जरूर लूँगा।

केवल उसी को नहीं मारूँगा बल्कि उसके खानदान में किसी को जीता न रहने दूँगा। मैं इस बात को जरा भी न सोचूँगा कि वह मेरा नातेदार है। क्योंकि खुद उसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और मेरी बर्बादी के पीछे लग गया। मुझे यह खबर लगी है कि दलीपशाह ने जमानिया के दारोगा से भी दोस्ती पैदा कर ली है और उसकी तरफ से भी मुझे सताने के लिए तैयार है।

एक : ऐसी अवस्था में जरूर दलीपशाह का नाम-निशान मिटा देना चाहिए क्योंकि जब तक वह जीता रहेगा आप बेफिक्र नहीं हो सकते, साथ ही इसके शम्भू को भी मार डालना चाहिए। उन दोनों के मारे जाने पर आप इन्द्रदेव को अच्छी तरह समझा लेंगे और विश्वास दिला देंगे कि आपके हाथों से दयाराम नहीं मारे गये और अगर दलीपशाह और शम्भू ने उनसे ऐसा कहा है तो वह बात बिल्कुल ही झूठ है।

भूतनाथ : ठीक है, मैं जरूर ऐसा ही करूँगा, लेकिन इतने पर भी काम न चलेगा और यह बात मशहूर ही होती दिखाई देगी तो लाचार होकर मुझे और भी अनर्थ करना पड़ेगा, नाता और रिश्ता भूल जाना पड़ेगा, दोस्ती और मुरौवत को तिलांजली दे देनी पड़ेगी, और जिन-जिन को यह बात मालूम हो गई है, उन सभी को इस दुनिया से उठा देना पड़ेगा।

एक : जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकरसिंह को भी?

भूत० : बेशक, बल्कि गुलाबसिंह को भी।

दूसरा : यह बड़े कड़े कलेजे का काम होगा!

भूत० : मुझसे बढ़कर कठिन और बड़ा कलेजा किसका होगा जिसने लड़के-लड़की और स्त्री को भी त्याग दिया है? मगर अफसोस, इस समय मैं पाप पर पाप करने के लिए मजबूर हो रहा हूँ!

एक : खैर यह बताइए कि सबसे पहले कौन काम किया जायगा और इस समय आप हम लोगों को क्या हुक्म देते हैं?

भूत० : सबसे पहले मैं अपने दोस्तों को छुड़ाऊँगा और इसके लिए उस पड़ोस की घाटी में रहने वाली औरतों में से किसी को गिरफ्तार करना चाहिए।

खैर अब बताता हूँ कि तुम लोगों को क्या करना चाहिए। (चौंककर) देखो तो वह साधु कौन है! ऐसा गुमान होता है कि इसे मैंने कभी देखा है, यह तो हमारे उसी खोह की तरफ जा रहा है। पहिले इसी की सुध लेनी चाहिए फिर बताएँगे कि तुम लोगों को क्या करना चाहिए।

यह साधु जिस पर भूतनाथ की निगाह पड़ी बहुत ही बुड्ढा और तपस्वी जान पड़ता था इसके सर और दाढ़ी के बाल बहुत ही धने और लंबे थे। लंबा कंद, वृद्ध होने पर भी गठीला बदन और चेहरा रोआबदार मालूम होता था। कमर में क्या पहिरे हुए था इसका पता नहीं लगता था क्योंकि इसके बदन में बहुत लंबा गेरूए रंग का ढीला कुरता था जो घुटने से एक बित्ता नीचे तक पहुँच रहा था, मगर साथ ही इसके यह जान पड़ता था कि उसने अपने तमाम बदन में हलकी विभूति लगाई हुई है, इसके अतिरिक्त उसके पास और किसी तरह का सामान दिखाई न देता था अर्थात कोई माला या सुमिरनी तक इसके पास न थी।

भूतनाथ अपने साथियों को इसी जगह रहने का हुक्म देकर धीरे-धीरे उस साधु के पीछे रवाना हुआ मगर इस लापरवाह साधु को इस बात का कुछ भी खयाल न था कि उसके पीछे कोई आ रहा हैं।

थोड़ी ही देर में वह साधु उस खोह के मुहाने पर जा पहुँचा जिसमें भूतनाथ रहता था। जब खोह के अन्दर घुसने लगा तब भूतनाथ भी लपककर उसके पास पहुँचा।

साधु : (भूतनाथ को देखकर) तुम कौन हो?

भूत० : जी मेरा नाम गदाधरसिंह ऐयार है।

साधु : ठीक है, मैं तुम्हारा नाम सुन चुका हूँ, बहुत अच्छा हुआ कि तुमसे मुलाकात हो गई, मालूम होता है कि तुम्हीं ने इस घाटी में दखल जमा रखा है और जो लोग इसके अन्दर हैं वे सब तुम्हारे ही संगी-साथी हैं?

भूत० : जी हां, बात ऐसी ही है।

साधु : मैं इसी फिक्र में पड़ा हुआ था और सोच रहा था कि इस घाटी में किसने अपना दखल जमा लिया है। शायद तुम्हें यह बात मालूम नहीं हैं खैर अब समझ लो कि मैं इस घाटी में पचास वर्ष से रहता हूँ और यहाँ का हाल जितना मैं जानता हूँ किसी दूसरे को मालूम नहीं है, इधर कई वर्ष हुए हैं कि मैं इस घाटी को छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए चला गया था, मेरा विचार था कि फिर लौट कर यहाँ न आऊँ और इसीलिए इसका दरवाजा खुला छोड़ गया था, पर ईश्वर की प्रेरणा से मैं घूमता-फिरता फिर यहाँ चला आया और जब इस घाटी के अन्दर गया तो देखा कि इसमें किसी दूसरे की अमलदारी हो रही है।

अस्तु मैं इसका दरवाजा बन्द करता हुआ बाहर निकल आया और फिक्र में पड़ा कि इसके मालिक का पता लगाना चाहिए, क्योंकि इसके अन्दर जितने आदमी दिखाई पड़े उनमें से कोई भी ऐसा नजर न आया जिसे मैं यहाँ का मालिक समझूँ। इसीलिये मैं इसके अन्दर किसी से मिला नहीं और न किसी ने मुझे देखा। खैर यह जान कर मुझे प्रसन्नता होगी कि तुम यहाँ रहते हो, मैं बहुत ही प्रसन्न होता यदि तुम्हारी गृहस्थी या तुम्हारे बाल-बच्चे भी यहाँ दिखाई देते। मगर खैर जो कुछ है वही गनीमत है। मैं तुम्हें मुहब्बत की निगाह से देखता हूँ क्योंकि तुमसे मुझे एक गहरा सम्बन्ध है।

भूत० : (आश्चर्य से) वह कौन-सा सम्बन्ध है?

साधु : सो कहने की बात आवश्यकता नहीं क्योंकि भूलता हूँ जो तुमसे सम्बन्ध रखने की बात कहता हूँ। जो साधु है और जिसने दुनिया से सम्बन्ध छोड़ दिया उसे फिर किसी से सम्बन्ध रखने की जरूरत ही क्या है, मगर खैर फिर कभी जब तुमसे मिलूँगा तब बताऊँगा कि मैं कौन हूँ, उस समय तुम मुझे मुहब्बत की निगाह से देखोगे और समझ जाओगे कि मैं तुम पर क्यों कृपा करता हूँ अस्तु जाने दो अच्छा तुम खुशी से इस घाटी में रहो, मैं इसका दरवाजा खोल देता हूँ बल्कि यह भी बताये देता हूँ कि किस तरह यह दरवाजा खुलता और बन्द होता है,

भूत० : (प्रसन्नता से) ईश्वर ही ने मुझे आपसे मिलाया! मैं बड़े ही तरद्दुद मंा पड़ा हुआ था। अपने दोस्तों की तरफ से मुझे बड़ी फिक्र थी जो इस घाटी के अन्दर इस समय कैद हो रहे हैं।

मैं समझ रहा था कि मेरा कोई दुश्मन यहाँ आ पहुँचा जो इस घाटी का हाल अच्छी तरह जानता है और उसी ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया है। मगर अब मेरा तरद्दुद जाता रहा और यह जान कर प्रसन्नता हुई कि इसके मालिक आप हैं, मगर आप मुझे बेतरह खुटके में डाल रहे हैं जो अपना पूरा परिचय नहीं देते। मैं क्योंकर समझूँ कि आप मेरे बड़े और सरपरस्त हैं?

साधु : (मुस्करा कर) खैर तुम मुझे अपना सरपरस्त या मददगार न भी समझोगे तो इसमें मेरी या तुम्हारी किसी की भी हानि नहीं हैं परन्तु फिर भी मैं वादा करता हूँ कि बहुत जल्द एक दफे पुनः तुमसे मिलूँगा और तब अपना ठीक–ठीक परिचय तुमको दूँगा, इस समय तुम मेरी फिक्र न करो और अपने दुश्मनों से बेफिक्र होकर इस घाटी में रहो। यहाँ थोड़ी-सी दौलत भी है जिसका पता तुम्हें मालूम न होगा, चलो वह भी मैं तुम्हें दे देता हूँ, जो कि तुम्हारे काम आवेगी, अब क्योंकि मुझे दौलत की कुछ जरूरत नहीं रही और आवश्यकता पड़े भी तो मुझे किसी तरह की कमी नहीं है।

भूत० : (प्रसन्न होकर) केवल धन्यवाद देकर मैं आपसे उऋण नहीं हो सकता आप मुझ पर बड़ी ही कृपा कर रहें हैं।

साधु : इसे कृपा नहीं कहते, यह केवल प्रेम के कारण है, अस्तु अब तुम विलम्ब न करो और शीघ्रता से चलो, जो कुछ मुझे करना है उसे जल्द निपटा करके बद्रिकाश्रम की यात्रा करूँगा।

भूतनाथ के दिल में इस समय तरह-तरह के विचार उठ रहे थे। वह न मालूम किन-किन बातों को सोच रहा था मगर प्रकट में यही जान पड़ता था कि वह बड़ी होशियारी से साथ सचेत बना हुआ खुशी-खुशी साधु के साथ सुरंग के अन्दर जा रहा है जब उस चौमुहानी पर पहुँचा जिसका जिक्र कई दफे हो चुका है तो भूतनाथ ने साधु से पूछा-

भूत० : ये बाकी के दोनों रास्ते किधर को गये हैं और उधर क्या है?

साधु : इस घाटी के साथ ही और भी दो घाटियाँ है और उन्ही में जाने के लिये ये दोनो रास्ते हैं मगर उन्हें मैंने बहुत ही अच्छी तरह से बन्द कर दिया है क्योंकि उन घाटियों में रहने वालों के आने-जाने के लिए और भी कई रास्ते मौजूद हैं अब इन रास्तों से कोई आ-जा नहीं सकता तुम हम इस तरफ से बिलकुल बेफिक्र रहो मगर इस तरफ से उस तरफ जाने का उद्योग कभी न करना।

भूत० : जी नहीं, मैं तो उस तरफ जाने का खयाल कभी करता ही नहीं परन्तु आज उस तरफ वाली घाटी में बहुत-से आदमी आकर बस गये हैं और वे सब मेरे साथ दुश्मनी करते हैं बस इसीलिए जरा खयाल होता हैं.

साधु : (लापरवाही के साथ) खैर अगर उस घाटी में कोई रहता भी होगा तो यहाँ अर्थात इस घाटी में आकर तुम्हारे साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं कर सकता यों तो दुनिया में सभी जगह दोस्त और दुश्मन रहा करते हैं, उसका बन्दोबस्त दूसरे ढंग पर कर सकते हो.

भूत० : जैसी मर्जी आपकी.

साधु : हाँ बेहतर यही है कि तुम बेफिक्री से साथ यहाँ रह कर अपने दुश्मनों का प्रबन्ध करो और मेरा इन्तजार करो, मैं बहुत जल्द इसी घाटी में आकर तुमसे मिलूँगा उसी समय मैं तुमको कुछ और भी लाभदायक वस्तुएँ दूँगा और कुछ उपदेश भी करूँगा.

इतना कह कर साधु आगे की तरफ बढ़े और बहुत जल्द उस दरवाजे के पास जा पहुँचे जिसे बिमला ने बन्द कर दिया था. जिस तरह से बिमला ने उसे दरवाजे को बन्द किया था उसी तरह साधु ने उसे खोला और खोलने तथा बन्द करने का ढंग भी भूतनाथ को बता दिया.

अब भूतनाथ सहज ही में साधु के साथ घाटी के अन्दर जा पहुँचा और अपने साथियों से मिल कर बहुत प्रसन्न हुआ बातचीत करने पर मालूम हुआ कि उसके साथी लोगों ने कई दफे इस घाटी के बाहर निकलने का उद्योग किया था मगर रास्ता बन्द होने के कारण बाहर न जा सके और इस वजह से वे लोग बहुत घबड़ा रहे थे,

भूतनाथ ने अपने सब साथियों से बाबाजी की मेहरबानी का हाल बयान किया और उन सभों को महात्मा के पैरों पर गिराया.

भूतनाथ यद्यपि जानता था कि साधु महाशय मुझ पर बड़ी कृपा कर रहे हैं और उन्हें मुझसे किसी तरह का फायदा भी नजर नहीं आता, तथापि वह अभी तक उन पर अच्छी तरह भरोसा करने का साहस नहीं रखता था, यह बात चाहे ऐयार नियम के अनुसार कहिये चाहे भूतनाथ की प्रकृति के कारण समझिये, हाँ, इतना जरूर था कि बाबाजी की मेहरबानियों से भूतनाथ दबा जाता था और सोचता था कि यदि इन्होंने कोई खजाना मुझे दे दिया जैसाकि कह चुके हैं। तो मुझे मजबूर होकर इन पर भरोसा करना पड़ेगा और समझना पड़ेगा कि ये वास्तव में मुझसे स्नेह रखते हैं और मेरे कोई अपने ही हैं।

साधु महाशय की आज्ञानुसार भूतनाथ ने उन्हें वे सब गुफाएँ दिखाईं जिनमें वह अपने साथियों के साथ रहता था और बताया कि इस ढंग पर इस स्थान को हम लोग बरतते हैं, इसके बाद साधु महाशय उसे अपने साथ लिये पूरब तरफ की चट्टान पर चले गये जिधर छोटी-बड़ी कई गुफाएँ थीं।

साधु : देखो भूतनाथ, मैं जब यहाँ रहता था तो इसी तरफ की गुफाओं में गुजारा करता था और इस पड़ोसवाली घाटी में जिसे तुम अपने दुश्मनों का स्थान बता रहे हो, इन्द्रदेव रहता था जिसे तुम पहिचानते होगे।

भूत० : जी हाँ, मैं खूब जानता हूँ।

साधु : उन दिनों इन्द्रदेव का दिमाग बहुत ही बढ़ा-चढ़ा था और वह मुझसे दुश्मनी रखता था, क्योंकि जिस तरह वह एक तिलिस्म का दारोगा है उसी तरह मैं भी एक तिलिस्म का दारोगा हूँ, अस्तु वह चाहता था कि मेरे कब्जे में जो तिलिस्म है उसका भेद जान ले और उस पर कब्जा करले, मगर वह कुछ भी न कर सका और कई साल तक यहाँ रहने पर भी वह यह न जान सका कि फलाना ब्रह्मचारी इस पड़ोसवाली घाटी में रहता है।

इस समय मैं तुमसे ज्यादे न कहूँगा और न ज्यादे देर तक रहने की मुझे फुरसत ही है, तुम्हें बड़ा ताज्जुब होगा जब मैं अपना परिचय तुम्हें दूँगा और उस समय तुम भी मुझसे उतनी ही मुहब्बत करोगे जितना इस समय मैं तुमसे करता हूँ।

भूत० :ठीक है, मैं परिचय देने के लिये इस समय जिद्द भी नहीं कर सकता क्योंकि आप बड़े हैं, आपकी आज्ञानुसार मुझे चलना ही चाहिये, अच्छा यह तो बताएँ कि वह तिलिस्म जिसके आप दारोगा हैं अभी तक आपके कब्जे में है या नहीं?

साधु : हाँ अभी तक वह तिलिस्म मेरे ही कब्जे में है।

भूत० : वह किस स्थान में है?

साधु : इसी घाटी में वह तिलिस्म है, मैं अगली दफे जब यहाँ आकर तुमसे मिलूँगा तो उसका कुछ हाल कहूँगा और अगर तुम इस घाटी में अपना कब्जा बनाये रहोगे और तुम्हारा चालचलन अच्छा देखूँगा तो एक दिन तुमको उस तिलिस्म के नियमानुसार अपने बाद के लिये दारोगा बना दूँगा।

साधु महाशय की इस आखिरी बात को सुनकर भूतनाथ बहुत ही प्रसन्न हुआ वह जानता था कि तिलिस्म का दारोगा बनना कोई मामूली बात नहीं है, उसके कब्जे में बेअन्दाज दौलत रहती है और उसकी ताकत तिलिस्मी सामान की बदौलत मनुष्य की ताकत से कहीं बढ़-चढ़कर रहती है, उसी समय भूतनाथ का खयाल एक दफे इन्द्रदेव की तरफ गया और उसने मन में कहा कि देखो तिलिस्मी दारोगा होने के कारण ही इन्द्रदेव कैसे चैन और आराम के साथ रहता है, दुश्मनों का उसे जरा भी डर नहीं हैं और वास्तव में उसके दुश्मन उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। मगर अफसोस!

भूतनाथ ने इस बात पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया कि इन्द्रदेव कैसा नेक, ईमानदार और साधु आदमी है तथा उसमें सहनशीलता और क्षमा-शक्ति कितनी भरी हुई है, तिस पर भी वह दुश्मनों के हाथ कैसा सताया गया।

भूत० : (बहुत नरमी के साथ) तो आप पुनः कब तक लौटकर यहाँ आवेंगे?

साधु : इस विषय में जो कुछ मेरे विचार हैं उसे प्रकट करना अभी मैं उचित नहीं समझता।

भूत० : जैसी मर्जी आपकी। आजकल मेरी आर्थिक दशा बहुत ही खराब हो रही है, रुपये-पैसे की तरफ से मैं बहुत ही तंग हो रहा हूँ।

साधु : तो इस समय जो खजाना मैं तुम्हें दे रहा हूँ वह तुम्हारे लिये कम नहीं है, यदि तुम उसे उचित ढंग पर खर्च करोगे तो वर्षों तक अमीर बने रहोगे और राज्य-सुख भोगोगे, आओ मेरे पीछे-पीछे चले आओ।

इतना कह कर साधु एक गुफा की तरफ बढ़ा और भूतनाथ खुशी-खुशी उसके पीछे रवाना हुआ।

खोह के अन्दर बहुत अँधकार था मगर भूतनाथ बेधड़क साधु के पीछे-पीछे दूर तक चला गया। जब लगभग दो–तीन सौ कदम चला गया तो साधु ने कहा, ‘‘लड़के देख, मैं इस खोह के अन्दर अन्दाज से चला आकर सब काम कर सकता हूँ मगर तुझे इस काम में तकलीफ होगी क्योंकि तेरे लिये यह पहिला मौका है, इसलिये मैं उचित समझता हूँ, कि तू अपने ऐयारी के बटुए में से सामान निकाल कर रोशनी कर ले और अच्छी तरह से सब कुछ देख ले, फिर दूसरी दफे तेरे ऐसे होशियार आदमी को रोशनी की जरूरत न पड़ेगी।’’

भूतनाथ ने ऐसा ही किया, अर्थात् रोशनी करके अच्छी तरह से देखता हुआ साधु की पीछे-पीछे जाने लगा और ऐसा कहने और करने से साधु पर उसका विश्वास भी ज्यादे हो गया।

करीब-करीब पाँच सौ कदम चले जाने के बाद रास्ता बन्द हो गया और साधु महाशय ने खड़े होकर भूतनाथ से कहा, ‘‘बस आगे जाने के लिए रास्ता नहीं, देख वह बगल वाले आले में कैसा अच्छा नाग बना हुआ है जिसे देखकर डर मालूम होता है! यह वास्तव में लोहे का है। इसको पकड़ कर जब तू अपनी तरफ खैंचेगा तो यहाँ का दरवाजा खुल जायेगा, मगर इस बात से होशियार रहियो कि इसके सिर अथवा फन के ऊपर कभी हाथ न लगने पावे नहीं तो धोखा खायेगा।’’

भूत० : जो आज्ञा। पहिले आप ही इसे खैंचें जिससे मैं अच्छी तरह समझ लूँ।

साधु : (जोर से हँस कर) अभी तक तुझको मुझ पर भरोसा नहीं होता!

मगर खैर कोई चिन्ता नहीं, ऐयारों के लिये यह ऐसा अनुचित नहीं है।

इतना कहकर साधु ने साँप की दुम पकड़ ली और अपनी पूरी ताकत के साथ खैंचा। दो हाथ के लगभग वह दुम खिंचकर आले के बाहर निकल आई, इसके साथ ही बगल में एक छोटा-सा दरवाजा खुला हुआ दिखाई दिया।

भूतनाथ को लिये हुए वह साधु उसके अन्दर घुस गया और उसी समय वह दरवाजा आप-से-आप बन्द हो गया। उस समय साधु ने भूतनाथ से कहा, ‘‘देख गदाधरसिंह, इधर भी उसी तरह का नाग बना हुआ है, बाहर निकलते समय इधर से भी उसी तरह दरवाजा खोलना पड़ेगा।’’

भूतनाथ ने उसे अच्छी तरह देखा और फिर उस कोठरी की तरफ निगाह दौड़ाई जिसमें इस समय वह मौजूद था। उसने देखा कि वहाँ चाँदी के कितने ही बड़े-बड़े देग या हण्डे रखे हुए हैं जिनके मुँह सोने के ढक्कनों से ढके हुए हैं। भूतनाथ ने साधु की आज्ञा पाकर उन हण्डों का मुँह खोला और देखा कि उनमें आशर्फियाँ भरी हुई हैं।

इस समय भूतनाथ की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था और उसने सोचा कि निःसन्देह ऐसे कई खजाने इस घाटी में होंगे मगर उनका पता जानने के लिये साधु से इस समय जिद करना ठीक न होगा, अवश्य यह पुनः यहाँ आवेंगे और मुझ पर कृपा करेंगे।

लौटते समय आज्ञा पाकर भूतनाथ ने अपने हाथ से वह दरवाजा बन्द किया और साधु के पीछे-पीछे चल कर खोह के बाहर निकल आया।

उस समय साधु ने कहा, ‘‘गदाधरसिंह, अब मैं जाता हूँ, जब लौट कर पुनः यहाँ आऊँगा तो ऐसे-ऐसे कई खजाने तुझे दूँगा और तिलिस्म का दारोगा भी बनाऊँगा मगर मैं तुझे समझाये जाता हूँ कि इन्द्रदेव के साथ दुश्मनी का ध्यान भी कभी अपने दिल में न लाइयो नहीं तो बर्बाद हो जायेगा, और दुःख भोगेगा।

वह तुझसे बहुत जबर्दस्त है। अच्छा अब मैं जाता हूँ, मेरे साथ आने की कोई जरूरत नहीं है।’’

इतना कहकर साधु महाशय रवाना हो गए और आश्चर्य में भरे हुए भूतनाथ को उसी जगह छोड़ गये।

भूतनाथ बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा इस बात को सोचता रहा कि यह साधु महाशय कौन हैं और मुझ पर इतनी कृपा करने का सबब क्या है? सोचते-सोचते उसका खयाल देवदत्त ब्रह्मचारी की तरफ चला गया जिन्होंने उसे पाला था और ऐयारी सिखा कर इस लायक बना दिया था कि किसी राजा या रईस के यहाँ रह कर इज्जत और हुर्मत पैदा करे।१ (१. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति बाईसवां भाग, भूतनाथ की जीवनी।)

भूतनाथ सोचने लगा कि ताज्जुब नहीं यदि यह मेरे गुरु महाराज देवदत्त ब्रह्मचारी हों जो बहुत दिनों से लापता हो रहे हैं।

मुझे रणधीरसिंहजी के यहाँ नौकर रखा देने के बाद यह कह कर चले गये थे कि ‘‘अब मैं योगाभ्यास करने के लिए उत्तराखंड चला जाऊंगा, तुम मुझसे मिलने के लिए उद्योग मत करना’’। या संभव है कि उनके भाई ज्ञानदत्त ब्रह्मचारी हों जिनकी प्रायः गुरुजी तारीफ किया करते थे और कहते थे कि वे अद्भुत तिलिस्म के दारोगा भी हैं। जहाँ तक मेरा खयाल है उन्हीं दोनों में से कोई न कोई जरूर हैं।

ताज्जुब नहीं कि मैं कुछ दिनों में तिलिस्म का दारोगा बन जाऊँ। अब मैं इस घाटी को कदापि न छोड़ूँगा और देखूँगा कि किस्मत क्या दिखाती है। अब प्रभाकसिंह को भी लाकर इसी घाटी में रखना चाहिये। वास्तव में आजकल मैं बड़े संकट में पड़ गया हूँ।

मैं अपने मित्र इन्द्रदेव पर किस तरह अविश्वास करूँ और किस तरह भरोसा ही करूँ, किस तरह समझूँगा कि जमना और सरस्वती बिना किसी की मदद से दुश्मनी करने के लिये तैयार हो रही हैं। खैर जो कुछ होगा देखा जायेगा अब प्रभाकरसिंह को शीघ्र इस घाटी में ले आना चाहिए और उसके बाद इन्द्रदेव से मिलना चाहिये। उनसे मुलाकात होने पर बहुत-सी बातों का पता लग जायेगा, मैं इन्द्रदेव के सिवाय और किसी से डरने वाला भी नहीं हूँ, इत्यादि तरह-तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ अपने दोस्तों और साथियों के पास चला गया और उनसे अपने कर्त्तव्य के विषय में बातचीत करने लगा, मगर साधु महाशय की कृपा से खजाना मिलने का हाल उसने उन लोगों से नहीं कहा।

दूसरा भाग : सातवाँ बयान

जमानिया वाला दलीपसिंह का मकान बहुत ही सुन्दर और अमीराना ढंग पर गुजारा करने लायक बना हुआ है। उसमें जनाना और मर्दाना किला इस ढंग से बना है कि भीतर से दरवाजा खोलकर जब चाहे एक कर लें और भीतर रास्ता बन्द कर दिया जाय तो एक को दूसरे से कुछ भी संबंध न मालूम पड़े, यहाँ तक कि अगर मर्दाने मकान में कोई मेहमान आकर टिके तो उसे यकायक इस बात का पता भी न लगे कि जनाने लोग कहाँ रहते हैं और उस तरफ आने-जाने के लिये इस तरफ से कोई रास्ता भी है या नहीं।

इस मकान के सामने एक छोटा-सा सुन्दर नजरबाग बना हुआ था और उसके सामने अर्थात् पूरब तरफ ऊँची दीवार और फाटक था। मकान के बाईं तरफ लम्बा खपरैल था जिसका एक सिरा तो मकान के साथ सटा हुआ था और दूसरा सिरा सामने अर्थात् फाटकवाली दीवार के साथ। उसके बीच में छोटे-बड़े कई दालान और कोठरियाँ बनी हुई थीं जिसमें दलीपशाह के खिदमतगार और सिपाही लोग रहा करते थे। इसी तरह मकान के दाहिनी तरफ इस सिरे से लेकर उस सिरे तक कुछ ऐसी इमारतें बनी हुई थीं जिनमें कई गृहस्थियों का गुजारा हो सकता था और उनमें दलीपशाह के शागिर्द ऐयार लोग रहा करते थे, इस ढंग पर वह नजरबाग बीच में अर्थात् चारों तरफ से घिरा हुआ था। सरसरी तौर पर खयाल करने से भी साफ मालूम होता था कि दलीपशाह बहुत ही अमीराना ढंग पर रह कर जिन्दगी के दिन बिता रहा है।

इस इमारत के बगल ही में दलीपशाह का एक बहुत बड़ा खुला हुआ बाग था जिसमें बड़े-बड़े आम, नीबू और अमरूद तथा इसी तरह के और भी बहुत किस्म के दरख्त लगे हुए थे। दलीपशाह अपने मर्दाने मकान में सुन्दर सजे हुए कमरे के बाहर दालान में चौकी के ऊपर फर्श पर बैठे हुए अपने दोस्त इन्द्रदेव से बातचीत कर रहे हैं। इस जगह से सामने का नजरबाग और उसके बाद फाटक अच्छी तरह दिखाई दे रहा है। आज इन्द्रदेव इनसे मिलने के लिये आये हुए हैं और इस समय इनके पास बैठे हुए कई जरूरी मामलों पर सलाह और बातचीत कर रहे हैं।

दलीप० : भाई साहब, गदाधरसिंह आपका दोस्त है इसलिये मैं लाचार होकर उसे अपना दोस्त मानता हूँ, मगर सच तो ये है कि उसके साथ रिश्तेदारी होने पर भी मैं उसे दिल से पसन्द नहीं करता।

इन्द्र० : हाँ, उसकी चालचलन तो कुछ खराब जरूर है मगर आदमी बड़े ही जीवट का है और ऐयारी का ढंग भी बहुत जानता है।

दलीप० : इस बात को मैं जरूर मानता हूँ बल्कि जोर देकर कह सकता हूँ कि अगर वह ईमानदारी के साथ काम करता हुआ रणधीरसिंहजी के यहाँ कायदे से बना रहता तो एक दिन ऐयारों का सिरताज गिना जाता।

इन्द्र० : ठीक है मगर उसे रणधीरसिंह का साथ छोड़ तो नहीं दिया!

दलीप० : अब इसे छोड़ना नहीं तो क्या कहते हैं? दो-दो महीने तक गायब रहना और मालिक को मुँह तक नहीं दिखाना, क्या इसी को नौकरी कहते हैं? आप ही कहिये कि अबकी कै महीने के बाद आया था? सिर्फ दो दिन रह कर चला गया। उससे तो उसकी स्त्री अच्छी है जो अपने मालिक अर्थात् रणधीरसिंह की स्त्री का साथ नहीं छोड़ती।

इन्द्र० : ठीक है मगर उसने रणधीरसिंह के यहाँ बदले में अपना शार्गिर्द रख दिया है, इसके अतिरिक्त जब रणधीरसिंहजी को उसकी जरूरत पड़ती है तो उसी शार्गिर्द की मार्फत उसे बुलवा भेजते हैं। अभी हाल ही में देखिये उसने कैसी बहादुरी के काम किये।

दलीप० : अजी यह तो मैं खुद कह रहा हूँ कि वह ऐयार परले सिरे का है, मगर इस जगह बहस तो ईमानदारी की हो रही है।

इन्द्र० : (दबी जुबान से) हाँ, वह लालची तो जरूर है मगर अभी नई जवानी है, सम्भव है आगे चल कर सुधर जाय!

दलीप० : (हँसकर) जी हाँ, बात तो यही है कि वह कमबख्त आपके सामने ढोंग रचता है और दयारामजी के मामले पर उदासी दिखला कहता है कि अब मैं दुनिया ही छोड़ दूँगा, मगर मैं इस बात को कभी नहीं मान सकता, हाँ उसका यह कहना शायद सच हो कि दयारामजी के मामले में उसने धोखा खाया।

इन्द्र० : भाई, उसकी यह बात तो जरूर सच है, वह जान-बूझकर दयाराम को कदापि नहीं मार सकता है।

दलीप० : जी हाँ, मैं भी यही सोचता हूँ मगर आप देख लीजियेगा कि कुछ दिन के बाद वह हमारे और आपके ऊपर भी सफाई का हाथ जरूर फेरेगा। आपके ऊपर चाहे मेहरबानी भी कर जाये क्योंकि आपसे डरता है और उसे विश्वास है कि आप ऐयारी में किसी तरह उससे कम नहीं हैं, मगर मुझे कभी न छोड़ेगा।

इन्द्र० : अजी भविष्य में जैसा करेगा वैसा पावेगा, इस समय तो वह हमारा-आपका किसी का भी कसूरवार नहीं है!

दलीप० : (खिलाखिला कर हँसने के बाद धीरे से) तब क्यों आपने बेचारे के पीछे जमना और सरस्वती को लगा दिया है?

इन्द्र० : केवल उन दोनों का प्रण पूरा करने के लिये मैंने यह कार्रवाई कर दी है नहीं तो तुम ही सोचो कि बेचारी लड़कियाँ उसका क्या बिगाड़ सकती हैं। दलीप० : तो आप उन लड़कियों के साथ धोखेबाजी का काम करते हैं, सच्चे दिल से उनकी मदद नहीं करते!

इन्द्र० : (दाँत से जुबान दबाने के बाद) नहीं-नहीं, मैं जरूर उनकी मदद करता हूँ मगर मेरी इच्छा यही है कि गदाधरसिंह मारा न जाये और दोनों लड़कियों की अभिलाषा भी पूरा हो जाये।

दलीप० : यह एक अनूठी बात है, खरबूजा खा भी लें और वह काटा भी न जाये! मैं तो समझता हूँ वह एक दिन जमना और सरस्वती को मार डालेगा।

इन्द्र०: नहीं ऐसा तो न करेगा।

दलीप० : अजी आप तो निरे ही साधु हैं, इतने बड़े ऐयार होकर भी धोखा खाते हैं, मगर इसमें आपका कोई कसूर नहीं है, ईश्वर ने आपका दिल ही ऐसा नरम बनाया है कि बुराई पर ध्यान नहीं देते, मगर भाईजान मैं तो उससे बराबर खटका रहता हूँ। इससे आप यह न समझिये कि मैं उसका दुश्मन हूँ, आपकी तरह मैं भी यही चाहता हूँ कि वह किसी तरह अच्छे ढर्रे पर आ जाये मगर यह उम्मीद नहीं। अच्छा यह बताइये कि उन लोगों के विषय में आजकल क्या कार्रवाई हो रही है अर्थात् जमना और सरस्वती क्या कर रही हैं?

इन्द्र० : बस गदाधरसिंह के पीछे पड़ी हुई हैं, आज कई दिन हुए कि उसे गिरफ्तार भी कर लिया था मगर सिर्फ डरा-धमका के छोड़ दिया, क्योंकि मैंने अच्छी तरह समझा दिया है कि दुश्मन को सता के और दु:ख दे के बदला लेना चाहिए न कि जान से मार के। वे बेचारियाँ तो मेरी बात मान जायेंगी मगर गदाधरसिंह की तरफ से मैं डरता हूँ, ऐसा न हो कि वह उन दोनों का सफाया कर दे।

दलीप० : (मुस्करा कर) मगर आप तो उसे नेक बना रहे हैं, उस पर भरोसा कर रहे हैं! अभी-अभी कह चुके हैं कि वह उन दोनों के साथ बुराई कभी न करेगा।

इन्द्र० : आशा तो ऐसी ही है जो मैं कह चुका हूँ, फिर भी डरता हूँ क्योंकि आजकल उसका रंग-ढंग और रहन-सहन ठीक नहीं है।

दलीप० : आप तो अच्छी दोतर्फी बात करते हैं!

इन्द्र० : ऐसा नहीं है मेरे दोस्त, मैं खूब समझता हूँ कि वह आजकल बिगड़ा हुआ है मगर मैं उसे सुधारना चाहता हूँ, मेरा खयाल है कि वह दु:ख भोग कर सुधर सकता है, अगर उसकी यातना की जाये तो ताज्जुब नहीं कि वह राह पर आ जाये।

दलीप० : तो क्या बेचारी जमना और सरस्वती ही के हाथ से उसकी यातना कराइयेगा?

इन्द्न० : नहीं, वे बेचारियाँ भला क्या कर सकेंगी, मैं अब आपके पास इसीलिए आया हूँ कि इस काम में आप से मदद लूँ।

दलीप० : वह क्या? मैं आपके के लिए हर तरह से तैयार हूँ।

इन्द्र० : आप जानते ही हैं मैं अपना स्थान किसी तरह छोड़ नहीं सकता।

दलीप० : बेशक ऐसा ही है।

इन्द्र० : इसलिए मैं चाहता था कि आप कुछ दिनों तक उन लड़कियों के साथ रह कर उनकी मदद करें मगर मैं देखता हूँ कि आप बेतरह गदाधरसिंह पर टूटे हुए हैं। मैं यह नहीं चाहता कि वह जान से मारा जाय।

दलीप० : तो क्या आप समझते हैं कि मैं आपकी इच्छा के विपरीत चलूँगा?

इन्द्र० : नहीं-नहीं, ऐसा तो मुझे स्वप्न में भी गुमान नहीं हो सकता। हाँ यह सोचता हूँ कि मेरा कहना आपकी इच्छा के विरुद्ध कहीं न हो।

दलीप० : चाहे जो हो मगर मैं आपकी बात कभी न टालूँगा, इसके अतिरिक्त आप जानते ही हैं कि वह मेरा रिश्तेदार है, उसकी स्त्री शान्ता है तो मेरी साली, मगर मैं उसे बहिन की तरह मानता और प्यार करता हूँ, ऐसी अवस्था में मैं कब चाहूँगा कि गदाधरसिंह मारा जाय और उसकी स्त्री विधवा होकर मेरी आँखों के सामने आवे! मगर बात जो असल है वह जरूर कहने में आती है।

इन्द्र० : ठीक है मगर गदाधरसिंह खुद अपने पैर में कुल्हाड़ी मार रहा है। खैर जैसा करेगा वैसा पावेगा। हम लोग जहाँ तक हो सकेगा उसको सुधारने की कोशिश करेंगे, आगे जो ईश्वर की मर्जी।

दलीप० : खैर मुझे आप क्या काम सुपुर्द करते हैं सो कहिए?

इन्द्र० : मैं चाहता हूँ कि आप कुछ दिनों तक जमना और सरस्वती के साथ रहकर उनकी मदद कीजिए, मगर इस तरह पर नहीं कि जो कुछ वे कहती जायँ आप करते जायँ।

दलीप० : तब किस तरह से?

इन्द्र० : इस तरह से कि दोनों जिस तरह चाहें स्वयं काम करके अपना हौसला पूरा करें और यही उनकी इच्छा भी है, मगर जब कभी वह धोखा खा जायँ या किसी मुसीबत में फँस जायँ तब आप उनकी रक्षा करें।

दलीप० : यह तो बड़ा कठिन काम है!

इन्द्र० : बेशक कठिन काम है और इसे सिवाय आपके दूसरा पूरा नहीं कर सकता।

दलीप० :(कुछ सोचकर) बहुत अच्छा, मैं तैयार हूँ।

इन्द्र० : तो बस जी आज ही आप मेरे साथ चलिए, मैं उन दोनों को आपके सुपुर्द कर दूँ और उस घाटी के भेद भी आपको बता दूँ तथा जो कुछ मैं कर आया हूँ उसे भी समझा दूँ।

दलीप० : जब आपकी इच्छा हो तो चलिए। (फाटक की तरफ खयाल करके) देखिए गुलाबसिंह चले आ रहे हैं, इन्हें चुनार से क्योंकर छुट्टी मिली!

इन्द्र० : इनका हाल आपको मालूम नहीं है पर मैं सुन चुका हूँ और इस समय आपसे कहने ही वाला था कि इन्दुमति भी आजकल जमना और सरस्वती के पास पहुँची हुई है, मगर अब कहने की कोई जरूरत नहीं, खुद गुलाबसिंह की जुबानी आप सब कुछ सुन लेंगे और शायद इसीलिए वह यहाँ आए भी हैं।

दलीप० : शिवदत्त भी नया राज्य पाकर आजकल अन्धा हो रहा है।

इन्द्र० : बेशक ऐसा ही है।

इतने ही में दरबान ने ऊपर आकर गुलाबसिंह के आने की इत्तिला की और इन्हें ले आने का हुक्म पाकर चला गया। थोड़ी ही देर में गुलाबसिंह वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने बड़े अदब के साथ इन्द्रदेव को सलाम किया और दलीपसिंह से मिले।

इशारा पाकर गुलाबसिंह एक कुर्सी पर बैठ गए और इस तरह बातचीत होने लगी:-

दलीप० : कहो भाई गुलाबसिंह जी, आज तो बहुत दिनों के बाद आप से मुलाकात हुई है, सब कुशल तो है?

गुलाब० : जी कुशलता तो नहीं है, और इसीलिए मुझे चुनारगढ़ से भागना पड़ा।

दलीप० : क्या महाराज शिवदत्त की नौकरी आपने छोड़ दी?

गुलाब० : हाँ, मजबूर होकर मुझे ऐसा करना पड़ा, क्योंकि मैं प्रभाकरसिंह के साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव नहीं कर सकता था।

दिलीप० : प्रभाकरसिंह भी तो उन्हीं के यहाँ सेनापति का काम करते हैं?

गुलाब० : हाँ, मगर महाराज ने उनके साथ बहुत ही बुरा बर्ताव किया, उनकी इन्दुमति पर हजरत आशिक हो गए और बड़ी-बड़ी चालबाजियों से अपने महल में बुलवा लिया, मगर जब वह किसी तरह राजी न हुई जान देने पर तैयार हो गई तब लाचार उसे महल के अंदर कैद कर रक्खा और प्रभाकरसिंह को मार डालने का बंदोबस्त करने लगे जिसमें निश्चिन्त होकर इन्दुमति को काम में लावे, परन्तु प्रभाकरसिंह को इस बात का पता लग गया और वे महल में घुसकर बड़ी बहादुरी से इन्दुमति को छुड़ा लाए। तो भी शिवदत्त का मुकाबला नहीं कर सकते थे इसलिए अपनी स्त्री को साथ लेकर वहाँ से भाग खड़े हुए।

इसके बाद शिवदत्त ने उसकी गिरफ्तारी के लिए मुझे मुकर्रर किया, मैंने इसी बात को गनीमत समझा और कई आदमियों को साथ लेकर उनकी खोज में निकला। आखिर उनसे मुलाकात हो गई और तब से उनकी ताबेदारी में रहने लगा क्योंकि उनके बुर्जुर्गों ने जो कुछ भलाई मेरे साथ की है उसे मैं भूल नहीं सकता। नौगढ़ की सरहद के पास ही उनसे मुलाकात हुई थी और अकस्मात् उसी जगह भूतनाथ भी मुझसे मिल गया। मैंने भूतनाथ से मदद माँगी और वह मदद देने के लिए तैयार होकर हम लोगों को अपने डेरे पर ले गया, मगर कई मामले ऐसे हो गए कि भूतनाथ दोस्ती का इस्तीफा देकर दुश्मन बन बैठा और उसके सबब से भी हमें तकलीफ ही उठानी पड़ी!

इतना कहकर गुलाबसिंह ने इन्द्रदेव की तरफ देखा।

इन्द्र० : हाँ-हाँ गुलाबसिंह, तुम कहते जाओ रुको, मत, दलीपशाह से कोई बात छिपी हुई नहीं है।

गुलाब० : (हाथ जोड़ कर) जी नहीं, अब जो कुछ कहना बाकी है आप ही इन्हें समझा दें, मैं डरता हूँ कि कदाचित् मेरी जुबान से ऐसी कोई बात निकल पड़े जिसे आप नापसंद करते हों तो.....

इन्द्र० : (मुस्कराकर) अजी नहीं गुलाबसिंह, मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ, तुम बड़े ही नेक और सज्जन आदमी हो, जमना और सरस्वती ने जो कुछ भेद की बातें प्रभाकरसिंह से कही हैं सो मुझे मालूम हैं और प्रभाकरसिंह ने जो कुछ तुम्हें बताया है उसे भी मैं कदाचित् जानता हूँ, अस्तु तुम जो कहना चाहते हो बेधड़क कह जाओ।

गुलाब० : जो आज्ञा, अच्छा तो मैं संक्षेप ही में कह डालता हूँ, (दलीपशाह से) भूतनाथ जिस घाटी में रहता है उसके पास ही जमना और सरस्वती भी रहती हैं। वह किसी तरह प्रभाकरसिंह को अपने यहाँ ले गईं मगर इसके बाद ही इन्दुमति पुन: दुश्मनों के हाथ में फँस गई, उसे भी दोनों बहिनें छुड़ाकर अपने यहाँ ले गईं। तब से इन्दुमति उन्हीं के यहाँ रहती है।

प्रभाकरसिंह उस खोह में बाहर आए और कई दिनों के बाद हम दोनों आदमी चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए इसलिए कि कुछ सिपाहियों का बन्दोबस्त करके दुश्मन से बदला लें, मगर भूतनाथ जिसे जमना और सरस्वती ने गिरफ्तार करके नीचा दिखाया था हम लोगों का दुश्मन बन बैठा और धोखा देकर प्रभाकरसिंह को कैद अपने घर ले गया, कहाँ रक्खा मुझे मालूम नहीं।

इसके बाद गुलाबसिंह ने वह किस्सा खुलासे तौर पर दलीपशाह और इन्द्र देव से बयान किया। इन्द्रदेव को प्रभाकरसिंह की गिरफ्तारी का हाल अभी तक मालूम नहीं हुआ था अस्तु उन्हें यह सुन कर बड़ा दु:ख हुआ और उन्होंने दलीपशाह से कहा, ‘‘मेरे दोस्त, मुझे प्रभाकरसिंह के हाल पर अफसोस होता है।

भूतनाथ ने भी यह काम अच्छा नहीं किया। खैर कोई चिन्ता नहीं, प्रभाकरसिंह को उसके कब्जे से निकाल लेना कोई बड़ी बात नहीं है। अब तुम सफर की तैयारी करो, और जमना और सरस्वती के साथ-ही-साथ प्रभाकरसिंह की मदद करो, मैं खुद तुम्हारे साथ चल कर प्रभाकर सिंह को कैद से छुट्टी दिलाऊँगा!’’

इतना कह कर इन्द्रदेव दलीपशाह को कमरे के अंदर ले गये और आधे घण्टे तक एकान्त में न-मालूम क्या समझाते रहे, इसके बाद बाहर आए और बहुत देर तक गुलाबसिंह से बातचीत करते रहे।

दूसरा भाग : आठवाँ बयान

भूतनाथ को जब अपनी घाटी में घुसने का रास्ता नहीं मिला तो प्रभाकरसिंह को एक दूसरे ही स्थान में ले जाकर रख आया था और अपने दो आदमी उनकी हिफाजत के लिए छोड़ दिये थे। अब जब भूतनाथ महात्माजी की कृपा से अपनी सुहावनी घाटी में पहुँच गया, सुरंग का रास्ता उसके लिए साफ हो गया, दरवाजा खोलने और बन्द करने की तरकीब मिल गई बल्कि उसके साथ-ही-साथ बेअन्दाज दौलत का भी मालिक बन बैठा, तो उसका हौसला बनिस्बत पहिले के सौगुना बढ़ गया और उसने चाहा कि प्रभाकरसिंह को भी लाकर उसी घाटी में रख छोड़े अस्तु महात्माजी को विदा करने के बाद दूसरे दिन वहाँ से रवाना हुआ और संध्या होते-होते तक प्रभाकरसिंह को इस घाटी में ले आया। प्रभाकरसिंह दवा के नशे में बेहोश थे और उनके हाथ में हथकड़ी तथा पैरों में में बेड़ी पड़ी हुई थीं।

भूतनाथ ने उन्हें एक बहुत बड़ी साफ और सुन्दर चट्टान पर रख दिया, पैर की बेड़ी खोल दीं, और लखलखा सुँघा कर उनकी बेहोशी दूर की जब प्रभाकरसिंह उठ कर बैठ गये तो इस तरह बातचीत होने लगी:-

प्रभा० :(चारों तरफ देख कर) क्या अभी तक मेरी गिनती कैदियों ही में है? मैं पुन: बेहोश करके इस घाटी में क्यों लाया गया और तुम क्यों नहीं बताते कि इस तरह दु:ख देने से तुम्हारा क्या मतलब है?

भूत० : प्रभाकरसिंह, तुम खूब जानते हो कि ऐयारों को जरा-जरा से काम के लिए बड़े-बड़े नाजुक और अमीर आदमियों को तकलीफ देनी पड़ती है। मैं हर तरह से बेफिक्र कर देता, मगर अफसोस, तुमने मेरे दुश्मनों से मिल कर मुझे धोखा दिया और गुलाबसिंह को भी जो मेरा दोस्त था बहका दिया!

प्रभा० : मैंने तुम्हारे किस दुश्मन से मिल कर तुम्हारा क्या नुकसान किया सो साफ-साफ क्यों नहीं कहते?

भूत० : क्या तुम नहीं जानते जो साफ-साफ कहने की जरूरत है? जमना और सरस्वती ने मुझे तकलीफ देने के लिए ही अवतार लिया है और तुम उनके पक्षपाती बन गये हो, वे तो भला औरत की जात है, ना समझ कहलाती हैं, पर तुम्हीं ने उनका भ्रम क्यों नहीं दूर कर दिया कि भूतनाथ ने दयाराम को कदापि न मारा होगा क्योंकि वह उनके साथ मुहब्बत रखता था और उनका दोस्त था!

प्रभा० : (हँस कर) तुमको भी तो वे गिरफ्तार करके उस घाटी में ले गई थीं, फिर तुम्हीं ने क्यों नहीं उनका भ्रम दूर कर दिया? तुम ऐयार कहलाते हो, हर तरह से बात बनाना जानते हो!

भूत० : मुझे तो कसूरवार ही समझती हैं, फिर भला मेरी बात क्यों मानने लगीं?

प्रभा० : इसी तरह मैं भी तो उनका रिश्तेदार ठहरा, मैं उनकी इच्छा के विरुद्ध क्यों करने लगा? तुम जानों और वे जाने मुझे इन झगड़ों से मतलब ही क्या? बेचारी औरत की जात अबला कहलाती है और तुम इतने बड़े नामी ऐयार हो, फिर भी जरा से मामले के लिए मुझसे मदद माँगते हो और चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए अपने एक रिश्तेदार के साथ बेमुरौवती करूँ जो दया करने के योग्य है। तुम्हें शर्म नहीं आती! हाँ अगर मैं तुम्हारे साथ किसी तरह की बुराई करूँ तो जरूर मुझसे बदला लेना उचित था।

भूत० : (मुस्करा कर) सत्य वचन! मालूम हुआ कि आप बड़े सच बोलने वाले हैं और सिवाय सच के कभी झूठ नहीं बोलते। अच्छा खैर इन बातों से कोई मतलब नहीं, मैं तुमसे बहस करना पसन्द नहीं करता। मैं जो कुछ पूछता हूँ उसका साफ-साफ जवाब दो नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा।

प्रभा० : अब इस धमकी में तुम्हारी बातों का जवाब नहीं दे सकता, मुलायमियत से अगर पूछते तो शायद कुछ जवाब दे भी देता क्योंकि न तो तुम्हारे किसी अहसान का बोझ मेरी गर्दन पर है न मैं तुमसे डरता ही हूँ।

भूत० : ऐसी अवस्था में भी तुम मुझसे नहीं डरते? देख रहे हो कि तुम्हारे हर्बे छीन लिए गए, हथकड़ी तुम्हारे हाथों में पड़ी हुई है, और इस समय तुम हर तरह से मजबूर और कमजोर हो!

‘‘यह हथकड़ी तो कोई चीज नहीं है, मेरे ऐसे क्षत्री के लिए तुमने इसे पसन्द किया यह तुम्हारी भूल है!’’ इतना कहकर बहादुर प्रभाकरसिंह ने एक झटका ऐसा दिया कि हथकड़ी टूट कर उनके हाथों से अलग हो गई और साथ ही इसके वे अपनी कमर से तलवार खैंच कर भूतनाथ सामने खड़े हो गये और बोले, ‘‘बताओ क्या अब भी मैं तुम्हारा कैदी हूँ?’’

प्रभाकरसिंह की कमर में एक ऐसी तलवार थी जो बदन के साथ पेटी की तरह लपेट कर बाँधी जा सकती थी, चमड़े की मुलायम म्यान उसके ऊपर चढ़ी हुई थी और उसे प्रभाकरसिंह कपड़े के अन्दर कमर में लपेट कर धोती और कमरबन्द से छिपाये हुए थे, अभी तक उस पर भूतनाथ की निगाह नहीं गई थी, बल्कि उसे इस बात का कुछ गुमान भी न था, यह तिलिस्मी तलवार बिमला ने प्रभाकरसिंह को दी थी और बिमला ने इन्द्रदेव से पाई थी। इन्द्रदेव का बयान है कि उन्हें इसी तरह के कई हर्बे कुँवर गोपालसिंह ने अपने जमानिया के तिलिस्म में से निकाल कर दिये थे।

इस तलवार में करीब-करीब वही गुण थे जो तिलिस्मी खंजर और नेजे में था जिसका हाल हम चन्द्रकान्ता सन्तति में लिख आये हैं, फर्क बस इतना था कि जिस तरह उन खंजरों में कब्जा दबाने से चमक पैदा होती थी उस तरह इससे चमक नहीं पैदा होती थी और न इसके छूने से आदमी बेहोश ही होता था मगर इसका जख्म लगने से बिजली के असर से आदमी बेहोश हो जाता था। उसकी तरह इसके जोड़े की भी एक खूबसूरत अँगूठी जरूरी थी जो इस समय प्रभाकरसिंह की तर्जनी उँगली में पड़ी हुई थी। इस अँगूठी में यह भी गुण था कि अगर धोखे में उन्हीं को इसका जख्म लग जाय तो उन्हें कुछ असर न हो।

प्रभाकरसिंह की हिम्मते-मर्दानगी और ताकत देखकर भूतनाथ हैरान हो गया बल्कि यों कह सकते हैं कि घबड़ा गया, यद्यपि भूतनाथ भी मर्दे-मैदान और लड़ाका था तथा यहाँ पास ही में उसके कई मददगार भी थे जो उसके आवाज देने के साथ ही पहुँच सकते थे मगर फिर भी थोड़ी देर के लिए उसके ऊपर प्रभाकरसिंह का रोब छा गया और वह खड़ा होकर मुँह देखने लगा।

प्रभा० : हाँ बताओ तो क्या मैं अब भी कैदी हूँ।

भूत० : (बनावटी मुस्कुराहट के साथ) हाँ बेशक तुम ताकतवर और बहादुर हो, मगर समझ रक्खो कि ऐयारों का मुकाबला करना तुम्हारा काम नहीं है।

प्रभा० : हाँ बेशक इस बात को मैं मानता हूँ, मगर खैर जैसा मौका होगा देखा जायेगा। इस समय तुम्हारा क्या इरादा है सो साफ-साफ कह डालो, अगर लड़ना चाहते हो तो मैं लड़ने के लिए तैयार हूँ।

भूत० : मुझे न तो तुम्हारे साथ किसी प्रकार की दुश्मनी ही है और न मैं व्यर्थ लड़ना ही चाहता हूँ, हाँ, इतना जरूर चाहता हूँ कि जमना और सरस्वती का सच्चा-सच्चा हाल मुझे मालूम हो जाय। न-मालूम किस नालायक ने उन्हें समझा दिया है कि मैं अपने दोस्त दयारामजी का घातक हूँ तथा इस बात पर विश्वास करके उन्होंने मेरे साथ दुश्मनी करने पर कमर बाँध ली है, और.....

प्रभा० : (बात काट कर) ओफ, इन पचड़ों को मैं सुनना पसन्द नहीं करता, इस बारे में मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि तुम जानो और वे जानें, मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूँ कि तुम्हारे लिए उनको समझाने जाऊँ।

भूत० : (क्रोध के साथ) तुम अजब ढंग से बातें कर रहे हो! तुम्हारा मिजाज तो आसमान पर चढ़ा हुआ है!!

प्रभा० : बेशक ऐसा ही है, तुम धोखा देकर मुझे गिरफ्तार कर लाए हो इसलिए मैं तुमसे बात करना भी पसन्द नहीं करता।

भूत० : फिर ऐसा करने से तो नहीं चलता, तुम्हें झख मार कर मेरी बातों का जवाब देना पड़ेगा।

यह कहकर भूतनाथ ने भी म्यान से तलवार निकाली और पैंतरा बदलकर सामने खड़े हो गया।

प्रभा० : तुम्हारी तलवार बिल्कुल बेकार है, कुछ भी काम नहीं देगी, चलाओ और देखो क्या होता है।

भूत० : हाँ-हाँ, देखो यह तलवार कैसा मजा करती है, मैं तुम्हें जान से न मारूँगा बल्कि बेकार छोड़ दूँगा।

इतना कहके भूतनाथ ने प्रभाकरसिंह पर वार किया जिसे उन्होंने बड़ी चालाकी के साथ अपनी तलवार पर रोका।

प्रभाकरसिंह की तलवार पर पड़ने के साथ ही भूतनाथ की तलवार कट कर दो टुकड़े हो गई क्योंकि वह हर एक हर्बे को काट सकती थी। भूतनाथ ने टूटी तलवार फेंक दी और कमर से खंजर निकाल कर वार क्या चाहता था कि प्रभाकरसिंह ने अपनी तलवार से उसे काट कर टुकड़े कर दिया। भूतनाथ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह सोचने लगा कि यह अनूठी तलवार किस लोहे की बनी हुई है जो दूसरे हर्बों को इतने सहज ही में काट डाला करती है!

थोड़ी ही दूर पर भूतनाथ के कई आदमी खड़े यह तमाशा देख रहे थे मगर मालिक का इशारा पाये बिना पास नहीं आ सकते थे। इस समय भूतनाथ ने इशारा किया और वे लोग जो गिनती में आठ थे वहाँ आ मौजूद हुए। यह कैफियत देख कर प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘भूतनाथ, ‘‘मैं केवल तुम्हीं से नहीं बल्कि एक साथ इन सभों से लड़ने के लिए तैयार हूँ।’’

यह बात भूतनाथ को बहुत बुरी मालूम हुई और अपने एक साथी के हाथ से तलवार लेकर उसने पुन: प्रभाकरसिंह पर वार किया और साथ-साथ अपने साथियों को भी मदद के लिए इशारा किया।

प्रभाकरसिंह बड़ा ही बहादुर आदमी था और लड़ाई के फन में तो वह लासानी थी। अगर वह चाहता तो सहज ही में अपनी तिलिस्मी तलवार से जख्मी करके सभों को बेहोश कर देता, मगर नहीं, उसने कुछ देर तक लड़ कर सभों को दिखला दिया कि हमारे सामने तुम लोग कुछ भी नहीं हो! यद्यपि उसके बदन पर भी कई जख्म लगे, मगर उसने सभों के हर्बे बेकार कर दिये और अन्त में भूतनाथ तथा उसके सभी साथी जख्मी होकर तलवार वाली बिजली के असर से बेहोश हो जमीन पर गिर पड़े। प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे मस्तानी चाल से चलते हुए वहाँ से रवाना हुए, मगर जब सुरंग में आये और दरवाजा बन्द पाया तब मजबूर होकर उन्हें रुक जाना पड़ा।

प्रभाकरसिंह पुन: लौट कर वहाँ आये जहाँ भूतनाथ और उसके साथी लोग बेहोश पड़े हुए थे। तिलिस्मी तलवार के जोड़ के अँगूठी उन्होंने भूतनाथ के बदन से लगाई, उसी समय भूतनाथ की बेहोशी जाती रही। वह उठ कर खड़ा हो गया और ताज्जुब के साथ प्रभाकरसिंह का मुँह देखने लगा।

भूत० : मैं समझ गया कि तुम बहादुर आदमी हो और तुम्हारे हाथ की यह तलवार बड़ी ही अनूठी है जिसके सबब से तुम और भी जबर्दस्त हो रहे हो। (मुस्करा कर) सच कहना यह तलवार तुमने कहाँ से पाई! पहिले तो यह तुम्हारे पास न थी, अगर होती तो बेइज्जती के साथ तुम चुनारगढ़ से न भागते!

प्रभा० : ठीक है मगर इससे तुम्हें क्या मतलब, चाहे कहीं से यह तलवार मुझे मिली हो।

भूत० : (मुलायमियत के साथ) नहीं-नहीं प्रभाकरसिंह, बुरा मत मानो, मेरी बातों का जवाब देने से तुम कुछ छोटे नहीं हो जाओगे। बताओ तो सही क्या यह तलवार जहर में बुझाई हुई है? क्योंकि इसका जख्म लगने के साथ ही नशा चढ़ आता है।

प्रभा० : कदाचित् ऐसा ही हो, मैं ठीक नहीं कह सकता!

भूत० : देखो मेरे साथी लोग अभी तक बेहोश पड़े हुए हैं।

प्रभा० : अभी बड़ी देर तक ये बेहोश पड़े रहेंगे मगर मरेंगे नहीं। तुम्हारी बेहोशी तो मैंने खुद दूर कर दी है, खैर यह बताओ कि अब तुम मेरे साथ क्या किया चाहते हो?

भूत० : कुछ भी नहीं, मैं जो कुछ कर चुका हूँ उसी के लिए आपसे माफी माँगता हूँ और चाहता हूँ कि आइन्दा के लिए हमारे और आपके बीच सुलह हो जाय।

प्रभा० : जैसा तुम बर्ताव करोगे मैं वैसा ही जवाब दूँगा, मुझे खास तौर पर तुम्हारे साथ किसी तरह की दुश्मनी नहीं है।

भूत० : अच्छा तो चलिए मैं आपको इस घाटी के बाहर कर आऊँ क्योंकि बिना मेरी मदद के आप यहाँ से बाहर नहीं जा सकते।

प्रभा० : चलो।

भूत०: मगर मैं देखता हूँ कि आप बहुत जख्मी हो रहे हैं और खून से आपका कपड़ा तरबतर हो रहा है, मुझे आज्ञा दीजिए तो आपके जख्मों को धोकर उन पर गीले कपड़े की पट्टी बाँध दूँ।

प्रभा० : नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं है, घाटी के बाहर निकल कर मैं इसका उपाय कर लूँगा।

भूत० : आखिर क्यों ऐसा किया जाय, जितनी देर होगी उतना ज्यादे खून निकल जायगा, आप इसके लिए जिद्द न करे, आप मुझ पर भरोसा करें और आज्ञा दें इन जख्मों पर पट्टी बाँध दूँ.

प्रभा० : खैर जैसी तुम्हारी मर्जी, मैं तैयार हूँ,

भूतनाथ तेजी के साथ उस गुफा में चला जिसमें उसका डेरा था और पीतल की गगरी पानी से भरी हुई और एक लोटा तथा कुछ कपड़ा पट्टी बाँधने के लिए लेकर प्रभाकरसिंह के पास आया.

प्रभाकरसिंह ने कपड़े उतारे और भूतनाथ ने जख्मों को धोकर उन पर पट्टियाँ बाँधी इसके बाद प्रभाकरसिंह कपड़ा पहिन कर चलने के लिए तैयार हो गए. भूतनाथ ने अपने आदमियों के विषय में प्रभाकरसिंह से पूछा कि इन सभों की बेहोशी खुद-ब-खुद जाती रहेगी या इसके लिए कोई इलाज करना होगा?

पहिले तो प्रभाकरसिंह के जी में आया कि अपने हाथ की अंगूठी छुआ कर उन सभों की बेहोशी दूर कर दें मगर फिर कुछ सोच कर रुक गए और बोले, ‘‘नहीं इनकी बेहोशी आप-से-आप थोड़ी देर में जाती रहेगी, कुछ उद्योग करने की जरूरत नहीं.’’

आगे-आगे भूतनाथ और पीछे-पीछे प्रभाकरसिंह वहाँ से रवाना हुए, सुरंग में घुसकर भूतनाथ ने वह दरवाजा खोला जो बन्द था मगर प्रभाकरसिंह को यह नहीं मालूम हुआ कि वह दरवाजा किस ढंग से खोला गया.

घाटी के बाहर निकल जाने पर भी भूतनाथ बहुत दूर तक पहुँचाने के लिए प्रभाकरसिंह के साथ मीठी-मीठी बातें करता हुआ चला गया लगभग आध कोस तक दोनों आदमी चले गये होंगे जब प्रभाकरसिंह का सर घूमने लगा और धीरे-धीरे बेहोश होकर वे जमीन पर गिर पड़े.

भूतनाथ बड़ा ही चालाक और काँइया था और उसने प्रभाकरसिंह को बुरा धोखा दिया हमदर्दी दिखा कर जख्म धोने के बहाने से वह बेहोशी की दवा का बर्ताव कर गया.

जो पानी वह अपनी गुफा में से लेकर आया था उसमें जहरीली दवा मिली हुई थी मगर वह दवा ऐसी न थी जिससे जान जाती रहे बल्कि ऐसी थी कि खून के साथ मिल कर बेहोशी का असर पैदा करे।

जब प्रभाकरसिंह बेहोश हो गए तब भूतनाथ ने पहिले तो अगूँठी और तलवार पर कब्जा किया और बहुत ही खुश हुआ इसके बाद प्रभाकरसिंह को गठरी में बाँध पीठ पर लाद अपनी घाटी की तरफ रवाना हुआ बेचारे प्रभाकरसिंह पुनः भूतनाथ के फन्दे में फँस गए, देखा चाहिए अब भूतनाथ उनके साथ क्या सलूक करता है!

दूसरा भाग : नौवाँ बयान

अबकी दफे भूतनाथ ने प्रभाकरसिंह को बड़ी सख्ती के साथ कैद किया, पैरों में बेड़ी और हाथों में दोहरी हथकड़ी डाल दी और उसी गुफा के अन्दर रख दिया जिसमें स्वयं रहता था और उसके (गुफा के) बाहर आप चारपाई डाल रात को पहरा देने लगा।

भूतनाथ ने बहुत कुछ दम-दिलासा देकर प्रभाकरसिंह ने जमना और सरस्वती का हाल पूछा मगर उन्होने उनका कुछ भी भेद न बताया इस पर भी भूतनाथ ने प्रभाकरसिंह को किसी तरह का दुःख नहीं दिया हाँ इस बात का जरूर खयाल रक्खा कि वे किसी तरह भाग न जायँ।

इसी तरह प्रभाकरसिंह की हिफाजत करते-करते बहुत दिन गुजर गए मगर भूतनाथ की इच्छानुसार कोई कार्रवाई नहीं हुई भूतनाथ ने जमना और सरस्वती के विषय में भी पता लगाने के लिए बहुत उद्योग किया मगर कुछ नतीजा न निकला।

भूतनाथ ने अपने कई शगिर्दों को तरह-तरह का काम सुपुर्द करके चारों तरफ दौड़ाया और कइयों को सुरंग के इर्द-गिर्द घूम कर टोह लगाने के लिए मुकर्रर किया जिसकी राह से कला ने उसे खोह के बाहर किया था।

भूतनाथ को अपने शागिर्द भोलासिंह की बड़ी फिक्र थी क्योंकि वह मुद्दत से गायब था और हजार कोशिश करने पर भी उसका कुछ पता नहीं लगता था। वह भूतनाथ का बहुत ही विश्वासी शागिर्द था और भूतनाथ उसे दिल से मानता था।

एक दिन दोपहर के समय भूतनाथ अपनी घाटी से बाहर निकला और सुरंग के मुहाने पर बाहर की तरफ पेड़ों की ठण्डी छाया में टहलने लगा। सम्भव है कि वह अपने किसी शागिर्द का इन्तजार कर रहा हो। उसी समय दूर से आते हुए भोलासिंह पर उसकी निगाह पड़ी, वह बड़ी खुशी के साथ भोलसिंह की तरफ बढ़ा और भोलासिंह भी भूतनाथ को देखकर दौड़ता हुआ आया और उसके पैरों पर गिर पड़ा भूतनाथ ने भोलासिंह को गले से लगा लिया और पूछा, ‘‘इतने दिन तक तुम कहाँ थे? मुझे तुम्हारे लिए बड़ी ही फिक्र थी और दिन-रात खटके में जी लगा रहता था!’’

भोला० : गुरुजी मैं तो बड़ी आफत में फँस गया था, ईश्वर ही ने मुझे बचाया नहीं तो मैं बिल्कुल ही निराश हो चुका था।

भूत० : क्या तुम्हें किसी दुश्मन ने गिरफ्तार कर लिया था?

भोला० : जी हाँ।

भूत० : किसने?

भोला० : दो औरतों ने, जिन्हें मैं बिल्कुल ही नहीं पहिचानता।

भूत० : मालूम होता है कि तुम्हें भी जमना और सरस्वती ने गिरफ्तार कर लिया था?

भोला० : जमना और सरस्वती कौन?

भूत० : हमारे प्यारे दोस्त और मालिक दयाराम की स्त्रियाँ जिनका जिक्र मैं कई दफे तुमसे कर चुका हूँ।

भोला : हाँ-हाँ, अब मुझे याद आया, मगर आपने तो कहा था कि वे मर गईं?

भूत० : हाँ, मुझे ऐसा ही विश्वास था, मुझे क्या तमाम दुनिया यही जानती है कि दोनों मर गईं मगर अब मुझे मालूम हुआ कि वे दोनों जीती हैं और (हाथ का इशारा करके) इसी पड़ोस वाली घाटी में रहती हैं तथा उन्होंने अपने को कला और बिमला के नाम से मशूहर किया है, इसलिए कि मुझे सता कर अपना कलेजा ठंडा करें क्योंकि किसी ने दोनों को विश्वास दिलाया है कि दयाराम को भूतनाथ ही ने मार डाला है।

भोला० : शिव शिव शिव! भला यह भी कोई बात है! अच्छा तो ये सब बातें आपको किस तरह मालूम हुईं?

भूत० : मैं एक दफे उनके फंदे में पड़ गया था, वे मुझे गिरफ्तार करके अपनी घाटी में ले गईं और कैद कर दिया।

भोला० : फिर आप छूटे किस तरह से?

भूत० : वहाँ मैंने एक लौंडी को धोखा देकर अपना बटुआ जो छिन गया था मँगवा लिया, फिर कैदखाने से बाहर निकल जाना मेरे लिए कोई कठिन काम न था। इसके बाद मैंने उसी अँधेरी रात में पुनः एक लौंडी को गिरफ्तार किया और लालच दे कुछ पता लगाना चाहा मगर वह लालच में न पड़ी, तब मैंने अपने चाबुक से काम लिया, मुख्तसर यह कि वह मार खाते-खाते मर गई पर इससे ज्यादे और कुछ भी न बताया कि हाँ जमना और सरस्वती यहाँ रहती हैं और उन्होंने अपना नाम कला और बिमला रखा।

इसके बाद एक ऐसा मौका हाथ आया कि मैंने कला को पकड़ लिया उस समय मुझे विश्वास हो गया कि जमना या सरस्वती में से किसी एक को पकड लिया, मगर दिन के समय जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मालूम हुआ कि जमना, सरस्वती दोनों में से कोई नहीं है। क्योंकि नाम बदल दिया तो क्या हुआ मैं उन दोनों को अच्छी तरह पहिचानता हूँ, मगर नहीं पानी से मुँह धुवाने पर वह शक भी जाता रहा।

इतना कह कर भूतनाथ ने अपना खुलासा हाल उसी घाटी में गिरफ्तार हो कर जाने और फिर बाहर निकलने का तथा प्रभाकरसिंह को गिरफ्तार करने का बयान किया और कहा, ‘‘मालूम होता है कि उन्हीं में से किसी ने तुम्हें गिरफ्तार कर लिया था, खैर खुलासा हाल कहो तो कुछ मालूम हो!’’

भोला० : जी हाँ, बेशक उन्हीं ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था। जब तक मैं उनके वहाँ कैद रहा तब तक रोज उन दोनों से मुलाकात होती रही, क्योंकि वह रोज ही मुझे समझाने-बुझाने के लिए आया करती थीं, मैंने यहाँ पर एक नया ही ढंग रचा, जिस पर कई दिनों तक तो उन्हें विश्लास ही न हुआ मगर अन्त में उन्होंने मान लिया कि जो कुछ मैं कहता हूँ वह सब सच है, मैंने इन्हें यह भी समझाया कि मैं भूतनाथ का नौकर या शागिर्द नहीं हूँ बल्कि राजा सुरेन्द्रसिंह का ऐयार हूँ, जिनसे चुनार के राजा शिवदत्त से आजकल में लड़ाई हुआ ही चाहती है। महाराज सुरेन्द्रसिंह ने सुना है कि गदाधरसिंह राजा शिवदत्त की मदद पर है इस लिए उन्होंने मुझे तथा अपने कई ऐयारों को गदाधरसिंह को गिरफ्तार करने के लिए भेजा है।

भूतनाथ : (मुस्करा कर) खूब समझाया, अच्छी सूझी!

भोला० : जी हाँ, आखिर उन्हें मेरी बातों पर विश्वास हो गया और कई तरह के वादे करा के उन्होंने मुझे छोड़ दिया।

भूत० : किस राह से तुम्हें बाहर निकाला?

भोला० : सो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि उस समय मेरी आँखों पर पट्टी बाँध दी गई थी, जब पट्ठी खोली गई तो मैंने देखा कि वहाँ बहुत-से सुन्दर और सुहाने बेल तथा पारिजात के पेड़ लगे हुए हैं और दाहिनी तरफ कई कदम की दूरी पर साफ पानी का एक सुन्दर चश्मा भी बह रहा है...

भूत० : (बात काट के) ठीक है, मैं समझ गया, मैं भी उसी सुरंग से बाहर निकाला गया था। परन्तु मैं समझता हूँ कि उसके अतिरिक्त और भी कोई रास्ता उस घाटी में जाने के लिए जरूर है क्योंकि जब मैं गिरफ्तार हुआ था तो किसी दूसरे ही मुहाने पर था। उस समय मुझे छुरी का एक जख्म लगा था जो अभी तक तकलीफ दे रहा है।

भोला० : सम्भव है, हो सकता है। इसमें आश्चर्य ही क्या है!

इसके बाद दोनों आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर देर तक बातें करते रहे। भूतनाथ पर जो कुछ बीती थी उसने ब्यौरेवार बयान किया और भोलासिंह ने जो कुछ कहा, बड़े गौर से सुना।

भोलासिंह भूतनाथ का बहुत ही विश्वासपात्र था इसलिये साधु महाशय की कृपा का हाल भूतनाथ ने यद्यपि अपने किसी शागिर्द या आदमी से बयान नहीं किया था मगर भोलासिंह से साफ और पूरा-पूरा बयान कर दिया। चाहे अभी यह नहीं बताया कि उस खजाने का दरवाजा किस तरह खुलता और बन्द होता है, हाँ, अन्त में इतना जरूर कह दिया कि मैं तुम्हें उस खजाने वाले घर में ले चलूँगा और दिखाऊँगा कि वहाँ कितनी बेशुमार दौलत है!

संध्या होते ही भोलासिंह को लेकर भूतनाथ अपनी अनूठी घाटी में चला गया। रास्ते में उस दरवाजे का हाल और भेद भोलासिंह को बताता गया जिसे बिमला ने बन्द कर दिया था और जिसे साधु महाशय की कृपा से भूतनाथ ने खोला था।

भोलासिंह जब उस घाटी के अन्दर पहुँच गया तो भूतनाथ ने सबसे पहिले प्रभाकरसिंह से उसकी मुलाकात कराई भोलासिंह को देखकर और यह सुन कर कि इसका नाम भोलासिंह है प्रभाकरसिंह चौंके और गौर से उसकी तरफ देखकर चुप ही रहे।

इसके बाद भोलासिंह को साथ लेकर भूतनाथ उस गुफा की तरफ रवाना हुआ जिसमें खजाना था, वह खजाना जो साधुमहाशय की कृपा से मिला था, रोशनी न करके अँधेरे ही में भोलासिंह को सुरंग के अन्दर अपने पाछे-पीछे आने के लिए भूतनाथ ने कहा और भोलासिंह भी बेखौफ कदम बढ़ाये चला गया। मगर अन्त में जब भूतनाथ खजाने के दरवाजे पर पहुँचा और वह दरवाजा खोल चुका था तब उसने ऐयारी के बटुए में से सामान निकाल कर रोशनी की और भोलासिंह को कोठरी के अन्दर आने के लिए कहा।

भूत० : देखो भोलासिंह, इस तरफ निगाह दौड़ाओ, ये सब चाँदी के देग अशर्फियों से नकानक भरे हैं। इसमें से सिर्फ एक देग मैंने खाली किया हैं।

भोला० : (देगों या हंडों की तरफ देख के) बेशक यह यह बहुत दिनों तक काम देंगे।

भूत० : बेशक, साथ ही इसके यह भी सुन रखो कि वह साधु महाराज पुनः यहाँ आवेंगे तो ऐसे और भी कई खजाने मुझे देंगे!

भोला० : ईश्वर की कृपा है अपने ऊपर! हाँ यदि आप आज्ञा दीजिए तो मैं भी जरा इन अशर्फियों के दर्शन कर लूँ।

भूत० : हाँ-हाँ, अपने हाथों से ही ढकना खोलते जाओ और देखते जाओ, बल्कि मैं यह भी हुक्म देता हूँ कि इस समय जितनी अशर्फियाँ तुमसे उठाते बने उठा लो और अपने घर ले जाकर बाल-बच्चों को दे आओ, तुम खूब जानते हो कि मैं तुम्हें अपने लड़के की तरह मानता हूँ।

भोला० : निःसन्देह ऐसा ही है मगर मैं इस समय अशर्फियाँ लेकर क्या करूँगा, आपकी बदौलत मुझे किसी बात की कमी तो है ही नहीं।

भूत० : नहीं-नहीं, तुम्हें जरूर लेना पड़ेगा।

भोला० : (कई देगों के ढकने उठाकर देखने के बाद) मगर इनमें से तो कई हंडे खाली हैं, आप कहते हैं कि सिर्फ एक ही हंडे की अशर्फिया निकाली गई हैं।

भूत० : (ताज्जुब से) क्या कई हंडे खाली पड़े हैं!

इतना कह कर भूतनाथ ने एक-एक करके उन हण्डों को देखना शुरू किया मगर यह मालूम करके आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि उसका आधा खजाना एकदम से खाली हो गया हैं अर्थात आधें हण्डों में अशर्फियों की जगह एक कौड़ी भी नहीं है।

भूत० : हैं, यह हुआ! मैं खूब जानता हूँ कि इन सब हण्डों में अशर्फियाँ भरी हुई थीं, मैंने अपने हाथ से इन सभों का ढकना उठाया था और अपनी आँखों से देखा था...

भोला० : (बात काट कर) बेशक-बेशक आपने देखा होगा मगर ब़ड़े आश्चर्य की बात है कि इतनी हिफाजत के साथ रहने पर भी अशर्फियां गायब हो गई। मैं कह तो नहीं सकता मगर हमारे साथियों में से किसी-न-किसी की नीयत...

भूत० : जरूर खराब हो गई, मैंने अपनी जुबान से इस खजाने का हाल अपने किसी साथी से भी नहीं कहा तिस पर यह हाल!

भोला० : सम्भव है कि आपके पीछे-पीछे आकर किसी ने देख लिया हो और यह भेद मालूम कर लिया हो,

भूत० : अगर ऐसा नहीं हुआ तो हुआ क्या? इसका पता लगाना चाहिए और जानना चाहिए कि हमारे साथियों में किस-किस का दिल बेईमान हो गया हैं क्योंकि इसमें तो कोई शक नहीं कि हमारे साथियों ही में से किसी ने यह चोरी की है।

भोला० : मेरा खयाल तो यह है कि कई आदमियों ने मिलकर चोरी की है।

भूत० : हो सकता है, भला तुम ही कहो कि अब मैं कब अपने साथियों का विश्वास कर सकता हूँ,

भोला० : कभी नहीं, मेरा विश्वास अब इन सभों के ऊपर से उठ गया है। हाय-हाय इतना खजाना और ऐसी नमकहरामी!

भूत० : देखो तो सही मैं कैसा इन लोगों को छकाता हूँ।

भोला० : आप जल्दी न कीजिए, एक-दो रोज और देख लीजिए।

भूत० : कहीं ऐसा न हो कि एक-दो दिन ठहरने से यह जो बचा है जाता रहे।

इतना कहकर भूतनाथ कोठरी के बाहर निकल आया और दरवाजा बन्द कर पेचोताब खाता हुआ सुरंग के बाहर हो उस तरफ रवाना हुआ जिधर उसका डेरा था।

भूतनाथ को इन अशर्फियों के गायब होने का बड़ा ही दुःख हुआ। रात के समय उसने किसी को कुछ कहना मुनासिब न समझा और चुप ही रहा, मगर रात-भर उसे अच्छी तरह नींद न आई क्रोध के मारे उसने कुछ भोजन भी नहीं किया।

भोलासिंह कुछ देर बाद उसके पास से हट गया और किसी दूसरी ही गुफा के बाहर बैठकर उसने रात बिताई, जब घंटे-भर रात बाकी रही तब वह घबड़ाया हुआ भूतनाथ के पास आया और देखा कि वह गहरी नींद में सो रहा है। भोलासिंह हाथ से हिलाकर भूतनाथ को सचेत किया। वह घबड़ाकर उठ बैठा और बोला, ‘‘ क्या हो गया है!

भोला० : मालूम होता है कि आज फिर आपकी चोरी हुई!

भूत० : सो कैसे?

भोला० : मैंने कई आदमियों को उस खजाने वाले सुरंग के अन्दर जाते और वहाँ से लदे हुए बाहर निकलते देखा है।

भूत० : मालूम होता है कि सब घाटी के बाहर निकल गये, मैं उन लोगों को नीचे उतरकर उस सुरंग में जो बाहर निकलने का रास्ता है जाते देख लपका हुआ आपके पास आया हूँ, अतः आप शीघ्र उठिए और उन लोगों का पीछा कीजिए।

भूतनाथ घबड़ाकर उठ बैठा और बोला, ‘‘जरा देख तो लो कि यहाँ से कौन-कौन गायब है?’’

भोला० : इस देखा-देखी में तो बहुत देर हो जायगी और वे लोग दूर निकल जायँगे।

भूत० : अच्छा चलो पहिले बाहर ही चलें।

दोनों आदमी तेजी के साथ पहाड़ी के नीचे उतर आए और सुरंग में घुसकर उस घाटी के बाहर निकले, यहाँ बिल्कुल ही सन्नाटा था, थोड़ी देर तक ये दोनों इधर-उधर घूमते रहे मगर जब कुछ पता न लगा तो लौटकर सुरंग के मुहाने पर चले आए और यों बातचीत करने लगे :-

भोला० : मालूम होता है कि वे लोग दूर निकल गये, किस तरफ गये हैं इसका पता लगाना जल्दी में नहीं हो सकता।

भूत० : अच्छा तो तुम घाटी के अन्दर जाओ और वहाँ जो लोग हैं उनका खयाल रखो, मैं पुनः घूमकर टोह लगाता हूँ कि वे लोग कहाँ गये।

भोला० : नहीं आप ही घाटी के अन्दर जाइए और मुझे उन लोगों का पता लगाने की आज्ञा दीजिए, क्योंकि जो लोग यहाँ से गए हैं वे अगर अपने ही आदमी हैं तो आखिर लौटकर यहाँ आवेंगे जरूर ऐसी अवस्था में ज्यादे देर तक पीछा करने की कोई जरूरत नहीं, इसके अतिरिक्त आप घाटी में जाकर इस बात का निश्चय कर सकते हैं कि वहाँ से कौन-कौन आदमी गायब हैं क्योंकि यह बात मुझे बिल्कुल ही नहीं मालूम है कि आजकल किस-किस को आपने किस-किस काम पर मुस्तैद किया है तथा घाटी के अन्दर कौन-कौन रहता है।

भूत० : ठीक है, अच्छा मैं ही घाटी के अन्दर जाकर पता लगाता हूँ कि कौन-कौन गायब है, अफसोस! सुरंग के अंदर का दरवाजा खोलना-बंद करना मैंने अपने सब आदमियों को बता दिया है अगर बताता नहीं तो काम भी नहीं चल सकता था क्योंकि नित्य ही लोग आते-जाते रहते हैं, मेरी गैरहाजिरी में भी उन लोगों को आना-जाना पड़ता था।

भोला० : ठीक है, बिना बताए काम नहीं चल सकता था।

भूत० : इसके अतिरिक्त मैंने उन सभों को यह भी हुक्म दे रखा है कि नित्य ही प्रातःकाल सूर्योदय के पहिले बारी-बारी से दो-चार आदमी घाटी के बाहर निकलकर इधर-उधर घूमा-फिरा करे, अगर वे लोग जिन्हें तुमने जाते देखा है लौटकर आवेंगे भी तो यही कहेंगे कि हम बालादवी १ के लिए बाहर गए थे, फिर उन्हें कायल करने और चोर सिद्ध करने के लिए क्या तरकीब हो सकती है? (१. घूम फिर-कर पहरा देने और लगाने को बालादवी कहते हैं।)

भोला० : ठीक ही तो है, फिर आप जानिये जो मुनासिब समझियेगा कीजियेगा मगर पहले जाकर देखिए तो सही कि कौन गायब है और उस खजाने को भी एक नजर देख लीजिएगा कि बनिस्बत कल के कुछ और भी कम हुआ है या नहीं जरूर कम हुआ होगा क्योंकि मैंने अपनी आँखों से उन लोगों की कार्रवाई देखी है।

‘‘खैर मैं जाता हूँ’’ इतना कहकर भूतनाथ घाटी के अन्दर चला गया, सबके पहिले उसने खजाने को देखना मुनासिब समझा और पहिले उसी तरफ गया जिधर खजाने वाली गुफा थी।

गुफा के अन्दर घुसकर और खजाने वाली कोठरी का दरवाजा खोल जब भूतनाथ और अन्दर गया और रोशनी करके गौर से उन हण्डों को देखा तो मालूम हुआ कि और भी कई हण्डे खाली हो गये हैं, भोलासिंह को लेकर जिस समय वह इस कोठरी में आया था उस समय जिन हण्डों या देगों में भोलासिंह ने अशर्फियाँ देखी थीं और भूतनाथ ने भी देखी थीं उनमें से चार हण्डे इस समय बिल्कुल खाली दिखाई दे रहे थे। भूतनाथ ने मन में सोचा कि ‘भोलासिंह का कहना बहुत ठीक है जरूर हमारे आदमियों ने रात को चोरी की है, खैर अब मैं इन हरामखोरों से जरूर समझूँगा। मगर मामला बड़ा कठिन आ पड़ा है। अगर इन शैतानों को यहाँ से निकाल दूँ तब भी काम नहीं चल सकता है क्योंकि यहाँ का रास्ता इन लोगों का देखा हुआ है। अब तो कुछ डरते भी हैं, फिर दुश्मनी की नियत से यहाँ छिपकर आया करेंगे, और यदि मैं खुद इस घाटी को छोड़ दूँ और बचा हुआ खजाना लेकर दूसरी जगह जा रहूँ तो बाबाजी से मुलाकात करनी है। फिर इन सभोंको निकाल देने से भी मैं निश्चिन्त नहीं हो सकता क्योंकि ये सब दुश्मन हो जायेंगे और दुश्मनों से जा मिलेंगे, इससे यही बेहतर है कि इन सभों को जान से मारकर बखेड़ा तै किया जाय!’’

इसी तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ अपने डेरे की तरफ गया जहाँ प्रभाकरसिंह को कैद रखा था। वहाँ पहुँच कर देखा तो प्रभाकरसिंह भी गायब हैं। क्रोध के मारे भूतनाथ की आँखे लाल हो गईं, उसे विश्वास हो गया कि यह काम भी उसके आदमियों का ही है।

भूतनाथ ने अपनी गुफा के बाहर निकलकर इशारे की जफील बुलाई जिसके सुनते ही वे सब शागिर्द और ऐयार उसके पास आकर इकट्ठे हो गए जो इस समय वहाँ मौजूद थे, ये लोग गिनती में बाहर थे जिनमें चार आदमी कुछ रात रहते ही बालादवी के लिए चले गए थे और बाकी आठ आदमी थे जो इस समय भूतनाथ के सामने आये। कौन-कौन आदमी बाहर गया हुआ है यह पूछने के बाद भूतनाथ ने कहा –

भूत० : (सभों की तरफ देख कर) बड़े ताज्जुब की बात है कि प्रभाकरसिंह इस गुफा के अन्दर से गायब हो गये!

एक : यह तो आप ही जानिए, क्योंकि रात को आप ही उनके पहरे पर थे हम लोगों में से कोई यहाँ था नहीं?

भूत० : सो तो ठीक है मगर तुम्हीं सोचों कि यकायक यहाँ से उनका गायब हो जाना कैसी बात है!

दूसरा : बेशक ताज्जुब की बात है।

देखी थीं और भूतनाथ ने भी देखी थीं उनमें से चार हण्डे इस समय बिल्कुल खाली दिखाई दे रहे थे। भूतनाथ ने मन में सोचा कि ‘भोलासिंह का कहना बहुत ठीक है जरूर हमारे आदमियों ने रात को चोरी की है, खैर अब मैं इन हरामखोरों से जरूर समझूँगा। मगर मामला बड़ा कठिन आ पड़ा है। अगर इन शैतानों को यहाँ से निकाल दूँ तब भी काम नहीं चल सकता है क्योंकि यहाँ का रास्ता इन लोगों का देखा हुआ है। अब तो कुछ डरते भी हैं, फिर दुश्मनी की नियत से यहाँ छिपकर आया करेंगे, और यदि मैं खुद इस घाटी को छोड़ दूँ और बचा हुआ खजाना लेकर दूसरी जगह जा रहूँ तो बाबाजी से मुलाकात करनी है। फिर इन सभोंको निकाल देने से भी मैं निश्चिन्त नहीं हो सकता क्योंकि ये सब दुश्मन हो जायेंगे और दुश्मनों से जा मिलेंगे, इससे यही बेहतर है कि इन सभों को जान से मारकर बखेड़ा तै किया जाय!’’

इसी तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ अपने डेरे की तरफ गया जहाँ प्रभाकरसिंह को कैद रखा था। वहाँ पहुँच कर देखा तो प्रभाकरसिंह भी गायब हैं। क्रोध के मारे भूतनाथ की आँखे लाल हो गईं, उसे विश्वास हो गया कि यह काम भी उसके आदमियों का ही है।

भूतनाथ ने अपनी गुफा के बाहर निकलकर इशारे की जफील बुलाई जिसके सुनते ही वे सब शागिर्द और ऐयार उसके पास आकर इकट्ठे हो गए जो इस समय वहाँ मौजूद थे, ये लोग गिनती में बाहर थे जिनमें चार आदमी कुछ रात रहते ही बालादवी के लिए चले गए थे और बाकी आठ आदमी थे जो इस समय भूतनाथ के सामने आये। कौन-कौन आदमी बाहर गया हुआ है यह पूछने के बाद भूतनाथ ने कहा –

भूत० : (सभों की तरफ देख कर) बड़े ताज्जुब की बात है कि प्रभाकरसिंह इस गुफा के अन्दर से गायब हो गये!

एक : यह तो आप ही जानिए, क्योंकि रात को आप ही उनके पहरे पर थे हम लोगों में से कोई यहाँ था नहीं?

भूत० : सो तो ठीक है मगर तुम्हीं सोचों कि यकायक यहाँ से उनका गायब हो जाना कैसी बात है!

दूसरा : बेशक ताज्जुब की बात है।

भूत० : इसके अतिरिक्त और भी एक बात सुनने लायक है (उँगली से बता के) इस गुफा के अन्दर हमारा खजाना रहता है, उसमें से भी आज लाखों रुपये की जमा चोरी हो गई है, इसके पहिले भी एक दफा चोरी हो चुकी है।

एक : यह तो आप और ताज्जुब की बात सुनाते हैं! भला यहाँ चोर क्योंकर आ सकता है? इसके सिवाय उस गुफा में पचासों दफे हम लोग गए हैं मगर वहाँ खजाना वगैरह तो कभी नहीं देखा, न आप ही ने हम लोगों से कहाकि वहाँ खजाना रख आये हैं।

भूत० : उस गुफा के भीतर एक दरवाजा है और उसके अन्दर जो कोठरी है उसी में खजाना था। उस दिन जो साधु महाशय आए थे उन्हीं का वह खजाना था और वे ही मुझे दे गए थे तथा वे उस कोठरी को खोलने-बन्द करने की तरकीब भी बता गए थे, मगर अब हम जो देखते हैं तो वह खजाना आधा भी नहीं रह गया।

तीसरा : अब ये सब बातें तो आप जानिए, हमें तो कभी आपने इनकी इत्तिला नहीं दी थी इसलिए हम लोगों को उस तरफ कुछ खयाल भी नहीं था।

भूत० : तो क्या हम झूठ कहते हैं?

चौथा : यह तो हम लोग नहीं कह सकते मगर इसके जिम्मेदार भी हम लोग नहीं हैं।

भूत० : फिर कौन इसका जिम्मेदार है?

चौथा : आप जिम्मेदार हैं या फिर जो चुरा ले गया है वह जिम्मेदार हैं! आप तो हम लोगों से इस तरह पूछते हैं जैसे कोई लौंडी या गुलाम से आँख दिखाकर पूछता है, हम लोग आपके पास शागिर्दी का काम करते हैं, ऐयारी सीखते हैं, आपके लिए दिन-रात दौड़ते परेशान होते हैं और हरदम हथेली पर जान लिए रहते हैं, मरने की भी परवाह नहीं करते, तिस पर आप हम लोगों को चोर समझते हैं और ऐसा बर्ताव करते हैं! यह हम लोगों के लिए एक नई बात है, आज के पहिले कभी आप ऐसे बेरुख नहीं हुए थे।

भूत० : हाँ, बेशक आज के पहिले हम तुम लोगों को ईमानदार समझते थे, यह तो आज मालूम हुआ कि तुम लोग ऐयार नहीं बल्कि चोर और बेईमान हो।

पाँचवाँ : देखिए जुबान सम्हालिए, हम लोगों को ऐसी बातें सुनने की आदत नहीं है।

भूत० : अगर आदत नहीं होती तो ऐसा काम नहीं करते।

छठा : (क्रोध में भर कर) सीधी तरह से यह क्यों नहीं कह देते कि यहाँ से चले जाओ। इस तरह इज्जत लेने और देने की जरूरत ही क्या हैं?

भूत० : वाह-वाह क्या अच्छी बात कही है। तमाम खजाना उठाकर हजम कर जाओ और इसके बदले में हम बस इतना ही कहकर रह जायं कि चले जाओ।

इस तरह की बातें हो रही थीं कि वे बाकी के चार आदमी भी आ गये जो बालादवी के लिए कुछ रात रहते घाटी के बाहर निकल गये थे, भूतनाथ ने उन सभों से भी इस तरह की बातें की और अच्छी तरह डाँट बताई। उन लोगों ने भी इसकी जानकारी से इनकार किया और कहा कि हम लोगों को कुछ भी नहीं मालूम कि कहाँ आपका खजाना रहता है, कब कौन उठाकर ले गया तथा प्रभाकरसिंह को किसने यहाँ से भगा दिया।

भूतनाथ बड़ा ही लालची आदमी था, रुपये-पैसे के लिए वह बहुत जल्द बेमुरौवत बन जाता था रुपये-पैसे के विषय में वह किसी का एतबार ही नहीं करता था।

आज उसकी बहुत बड़ी रकम गायब हो गई थी और मारे क्रोध के वह जल-भुन कर खाक हो गया था। अपने आदमियों पर उसने इतनी ज्यादे सख्ती की और ऐसे बुरे शब्दों का प्रयोग किया कि वे सब एकदम बिगड़ खड़े हुए क्योंकि ऐयार लोग इस तरह की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकते।

इन आदमियों या शागिर्दों के अतिरिक्त भूतनाथ के पास और भी कई आदमी थे जो दूसरी जगह रहते थे तथा तथा और कामों पर मुकर्रर कर दिए गए थे मगर इस घाटी के अन्दर आजकल ये ही बारह आदमी रहते थे जो आज भूतनाथ की बातों से नाराज होकर बेदिल हो गए थे मगर भूतनाथ ने उन्हें सीधी तरह जाने भी नहीं दिया बल्कि तलवार खैंचकर सभों को सजा देने के लिए तैयार हो गया।

भूतनाथ की कमर में वही अनूठी तलवार थी जो उसने प्रभाकरसिंह से पाई थी, इस तलवार को वह बहुत प्यार करता था और उसे अपनी फतहमन्दी का सितारा समझता था। उसके आदमियों को इस बात की कुछ खबर न थी कि इस तलवार में कौन-सा गुण है अस्तु लाचार हो वे लोग भी खंजर और तलवारें खींच मुकाबला करने के लिए तैयार हो गए।

भूतनाथ अकेला ही सभों से लड़ने को तैयार हो गया बल्कि बहुत देर तक लड़ा भूतनाथ के बदन पर छोटे-छोटे कई जख्म लगे मगर भूतनाथ के हाथ की तलवार का जिसको जरा-सा चरका लगा वह बेकार हो गया और तुरन्त बेहोश होकर जमीन पर गिर गया, यह देख उन लोगों को बड़ा ही ताज्जुब हो रहा था, थोड़ी ही देर में कुल आदमी जख्मी होने के कारण बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। और भूतनाथ ने सभों की मुश्कें बाँध कर गुफा में कैद कर दिया।

इसके बाद भूतनाथ घाटी के बाहर निकला और भोलासिंह की खोज में चारों तरफ घूमने लगा मगर तमाम दिन बीत जाने पर भी भोलासिंह का कहीं पता न लगा।

सन्ध्या होने पर भूतनाथ पुनः लौट कर अपनी घाटी में आया और यह देखने के लिए उस गुफा के अन्दर गया जिसमें अपने शागिर्दों को कैद किया था कि उन सभों की बेहोशी अभी दूर हुई या नहीं, मगर अफसोस भूतनाथ ने वह तमाशा देखा जो कभी उसके खयाल में भी नहीं आ सकता था, अर्थात उसके कैदी शागिर्दों में से वहाँ एक भी मौजूद न था, हाँ उनके बदले वह सब सामान वहाँ जमीन पर जमा दिखाई दे रहा था जिससे उनके हाथ-पैर बेकार कर दिये गये थे या उनकी मुश्कें बाँधी गई थीं।

अपने शागिर्दो को कैदखाने में न देखकर भूतनाथ को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वह सोचने लगा कि वे सब कैदखाने में से निकलकर किस तरह भाग गये! मैं इनके हाथ-पैर बड़ी मजबूती के साथ बाँध गया था जो बिना किसी की मदद के किसी तरह भी खुल नहीं सकते थे फिर ये लोग क्योंकर निकल गये? मालूम होता है कि उनका कोई-न-कोई मददगार यहाँ जरूर आया चाहे वह मेरे शागिर्दों का दोस्त हो या मेरा दुश्मन इधर कई दिनों से ऐसी बातें हो रही हैं कि मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता है।

क्या सम्भव है कि इन लोगों ने होश में आने के बाद आपस में मिल-जुल कर किसी तरह अपने हाथ-पैर खोल लिए हों? हाँ हो भी सकता है! अस्तु अब मुझे मानना पड़ेगा कि मेरे दुश्मनों की गिनती बढ़ गई क्योंकि वे लोग भी अब मेरे साथ जरूर दुश्मनी करेंगे और ऐसी अवस्था में मैं किस-किस का वार सम्हाला करूँगा?

मैं तो यही सोचे हुए था कि इन लोगों को एकदम मार बखेड़ा तै करूँगा क्योंकि दुश्मनों की गिनती बढ़ाना अच्छा नहीं मगर अफसोस तो यह है कि अब मैं अकेला क्या करूँगा? दो-चार साथी अगर और हैं भी तो अब उनका क्या भरोसा? ये लोग अब जरूर उनकों भी भड़कावेंगे और उन लोगों को जब यह मालूम हो जाएगा कि मैं अपने शागिर्दों को इस तरह पर सजा दिया करता हूँ तो वे लोग भी मेरा साथ छोड़ देंगे, बल्कि ताज्जुब नहीं कि भविष्य में कोई भी मेरा साथी बनना पसन्द न करे। आह मैं मुफ्त परेशानी उठा रहा हूँ, व्यर्थ का दुःख भोग रहा हूँ!

अगर अपने मालिक के पास चुपचाप बैठा रहता तो काहे को इस तरद्दुद में पड़ता, मगर अब तो मैं वहाँ भी जाना पसन्द नहीं करता क्योंकि दयाराम की दोनों स्त्रियाँ वहाँ मुझे और भी विशेष कष्ट देंगी।

अफसोस यह बात रणधीरसिंह जी ने मुझसे व्यर्थ ही छिपाई और कह दिया कि दयाराम की दोनों स्त्रियों का देहान्त हो गया, मगर जहाँ तक मैं खयाल करता हूँ इसमें उनका कसूर कुछ भी नहीं जान पड़ता सम्भव है कि मेरी तरह वे भी धोखे में डाल दिए गए हों और अभी तक उन्हें इस बात की खबर भी न हो कि जमुना और सरस्वती जीती हैं।

मगर इस घाटी को छोड़ना जरा कठिन हो रहा है। क्योंकि अगर मैं यहाँ से चला जाऊँगा तो फिर साधु महाशय से मुलाकात न होगी और मैं उस दौलत को न पा सकूँगा जो उनकी बदौलत मिलने वाली है मगर यहाँ का रहना भी अब कठिन हो रहा है। अच्छा कुछ दिन के लिए इस स्थान को अब छोड़ ही देना चाहिए और जो कुछ बचा हुआ खजाना है उसे निकाल ले जाना चाहिए।

इस तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ उस गुफा की तरफ रवाना हुआ जिसमें उसका खजाना था। जब गुफा के अन्दर जाने के बाद रोशनी लिए हुए खजाने वाली कोठरी में पहुँचा तो देखा कि अब उन हण्डों में एक अशर्फी बाकी नहीं है, सब-की-सब गायब हो गई बल्कि वे हण्डे तक भी अब नहीं दिखाई देते जिनमें अशर्फियाँ रक्खी गई थीं। भूतनाथ का दिमाग हिल गया और वह अपना सिर पीट कर उसी जगह बैठ गया।

थोड़ी देर बाद भूतनाथ उठा और मोमबत्ती रोशनी में उसने उस कोठरी को अच्छी तरह देखा, इसके बाद दरवाजा बन्द करके निकल आया और गुफा की जमीन को बड़े गौर से देखता तथा यह सोचता हुआ पहाड़ी के नीचे उतर गया कि ‘‘अब यहाँ रहना उचित नहीं है’’

दूसरा भाग : दसवाँ बयान

दोपहर का समय है मगर सूर्यदेव नहीं दिखाई पड़ते। आसमान गहरे बादलों से भरा हुआ है ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है और जान पड़ता है कि मूसलाधार पानी बरसा ही चाहता है।

भूतनाथ अपनी घाटी के बाहर निकल कर अकेला ही मैदान और जंगल की सैर कर रहा है उसके दिल में हर तरह की बातें उठ रही हैं, तरह-तरह के विचार पैदा हो और मिट रहे हैं। कभी वह अटक कर इस तरह चारों तरफ देखने लग जाता है जैसे किसी के आने की आहट लेता हो और कभी जफील बजा कर उसके जवाब का इन्तजार करता है।

इसी तरह वह बहुत देर तक घूमता रहा, आखिर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया और कुछ सोचने लगा भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और उसी तरफ रवाना हुआ जिधर से जफील की आवाज आई थी थोड़ी दूर जाने पर उसके अपने एक शागिर्द को देखा जिसका नाम रामदास था। इसे भूतनाथ बहुत ही प्यार करता और अपने लड़के के समान मानता था और वास्तव में रामदास बहुत चालाक और धूर्त था भी। यद्यपि उसकी उम्र बीस साल के ऊपर होगी मगर देखने में वह बारह या तेरह वर्ष से ज्यादे का नहीं मालूम होता था।

उसकी रेख बिलकुल ही नहीं आई थी और उसकी सूरत में कुदरती तौर पर जनानापन मालूम होता था, यही सबब था कि वह औरतों की सूरत में बहुत काम कर गुजरता था और हाव-भाव में भी उससे किसी तरह की त्रुटि नहीं होती थी, इस समय उसकी पीठ पर एक गठरी लदी हुई थी जिसे देख भूतनाथ को आश्चर्य हुआ और उसने आगे बढ़कर पूछा, ‘‘कहो रामदास, खैरियत तो है? यह तुम किसे लाद लाए हो? मालूम होता है कोई अच्छा शिकार किया है?’’

रामदास : (कानी आँख से प्रणाम करके) हाँ, चाचा, मैं बहुत अच्छा शिकार कर लाया हूँ!

भूतनाथ : (प्रसन्न होकर) अच्छा-अच्छा आओ इस पत्थर की चट्टान पर बैठ जाओ, देखें तुम्हारा शिकार कैसा है?

भूतनाथ ने गठरी उतारने में उसे मदद दी दोनों आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये। भूतनाथ ने गठरी खोल कर देखा तो एक बेहोश औरत पर निगाह पड़ी। उसने पूछा, ‘‘यह कौन है?’’

रामदास : यह जमना और सरस्वती की लौंडी है।

भूत० : अच्छा, तुमने इसे कहाँ पाया?

रामदास : उसी घाटी के बाहर जिसमें वे दोनों रहती हैं। यह किसी काम के लिए बाहर आई थी और मैं आपकी आज्ञानुसार उसी जगह छिपकर पहरा दे रहा था, मौका मिलने पर मैंने इसे गिरफ्तार कर लिया और जबर्दस्त बेहोश करके एक गुफा के अन्दर छिपा आया जहाँ किसी को यकायक पता नहीं लग सकता था।

इसके बाद मैं इसी की सूरत बन कर उस सुरंग के पास चला आया जो उस घाटी के अन्दर जाने का रास्ता है और जहाँ मैंने इसे गिरफ्तार किया था। मेरी यह प्रबल इच्छा थी कि उस घाटी के अन्दर जाऊँ मगर इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह औरत जिसे मैंने गिरफ्तार किया है किस दर्जे की है या किस काम पर मुकर्रर है और इसका नाम क्या है, अस्तु इसके जानने के लिए मुझे कुछ पाखण्ड रचना पड़ा जिसमें एक दिन की देर तो हुई मगर ईश्वर की कृपा से मेरा काम बखूबी चल गया, मैंने सूरत बदलने के बाद इस लौंडी के कपड़े तो पहिर ही लिए थे तिस पर भी मैं चुटीला बना कर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया और इन्तजार करने लगा कि घाटी के अन्दर से कोई आवे तो मैं उसके साथ भीतर पहुँच जाऊँ।

थोड़ी देर बाद जमना और सरस्वती स्वयं घाटी के बाहर आईं, उस समय मुझे यह नहीं मालूम हुआ कि यह जमना और सरस्वती हैं मगर जब घाटी के अन्दर चला गया और तरह-तरह की बाते सुनने में आईं तब मालूम हुआ कि यही जमना और सरस्वती हैं, यद्यपि ये दोनों कला और बिमला नाम से पुकारी जाती थीं मगर यह तो मैं आपसे सुन ही चुका था कि इन्होंने अपना नाम कला और बिमला रक्खा हुआ है इसलिए मुझे कला और बिमला ने देखा तो पूछा, ‘‘अरी हरदेई, अभी तक इसी जगह बैठी हुई है?’’

मैंने धीरे से इसका जवाब दिया, ‘‘ मैं पहाड़ी के ऊपर से गिरकर बहुत चुटीली हो रही हूँ, मुझ में दस कदम चलने की भी ताकत नहीं है बल्कि बात करने में भी तकलीफ मालूम होती है।’’ इसके बाद मैंने कई जगह छिले और कटे हुए जख्म दिखाए जो कि अपने हाथों से बनाये थे, मेरी अवस्था पर उन दोनों को बहुत अफसोस हुआ और वे दोनों मदद देकर मुझे अपनी घाटी के अन्दर ले गईं और दवा-इलाज करने लगीं। दो दिन तक मैं चारपाई पर खड़ा रहा और इस बीच मुझे बहुत-सी बात मालूम हो गई जिन्हें मैं बहुत ही संक्षेप के साथ इस समय बयान करूँगा दो दिन के बाद मैं चंगा हो गया और उन सभों के साथ मिल-जुल कर काम करने लगा क्योंकि इस बीच में मतलब की सभी बातें मुझे मालूम हो चुकी थीं।

भूत० : निःसन्देह तुमने बड़ी हिम्मत का काम किया अच्छा तो कौन-कौन बातें वहाँ तुम्हें मालूम हुईं?

रामदास : पहिली बात तो यह मालूम हुई कि बेचारा भोलासिंह उन दोनों के हाथ से मारा गया। खुद कला और बिमला ने उसे मारा था, यद्यपि यह नहीं मालूम हुआ कि कब किस ठिकाने और किस तरह से उसे मारा मगर इसे कई सप्ताह हो गये।

भूत० : (आश्चर्य से) क्या वह मारा गया?

रामदास : निःसन्देह मारा गया।

भूत० : अभी तो कल-परसों वह मेरे साथ था!

राम- वह कोई दूसरा होगा जिसने भोलासिंह बनकर आपको धोखा दिया।

भूत० : (कुछ सोचकर) बेशक वह कोई दूसरा ही था, अब जो सोचता हूँ तो तुम्हारा कहना ठीक मालूम होता है। हाय मुझसे बड़ी भूल हो गई और मैंने अपने को बर्बाद कर दिया। मेरे साथी-शागिर्द लोग बेचारे अपने दिल में क्या कहते होंगे! वे लोग अगर मेरे साथ दुश्मनी करें तो इसमें उनका कोई कसूर नहीं।

राम : यह क्या बात हुई, भला कुछ मैं भी सुनूँ।

भूत० : तुमसे कुछ छिपा न रहेगा, मैं सब कुछ तुमसे बयान करूँगा, पहले तुम अपना किस्सा कह जाओ।

राम : नहीं-नहीं पहिले मैं आपका यह हाल सुन लूँगा तब कुछ कहूँगा।

रामदास ने इस बात पर बहुत जिद्द किया, आखिर लाचार होकर भूतनाथ को अपना सब हाल बयान करना ही पड़ा जिसे सुनकर रामदास को बड़ा ही दुःख हुआ।

भूत० : अच्छा और क्या तुम्हें मालूम हुआ?

राम : और यह मालूम हुआ कि जिस साधु महाशय का अभी-अभी आपने जिक्र किया है, जिन्होंने आपको खजाना दिया, वह कला और बिमला के पक्षपाती हैं।

जो रंग-ढंग आपने उनके अभी बयान किये हैं ठीक उसी सूरत-शक्ल में मैंने उन्हें वहाँ देखा और यह कहते अपने कानों से सुना था कि -‘भूतनाथ को मैंने खूब ही लालच में फंसा लिया है, अब वह इस घाटी को कदापि न छोड़ेगा और प्रभाकरसिंह को भी इसी जगह ले आवेगा, तब हम लोग उन्हें सहज ही में छुड़ा लेंगे’। इसके अतिरिक्त मुझे यह भी निश्चय हो गया कि वह साधु अपनी असली सूरत में नहीं है बल्कि कोई ऐयार है, मेरे सामने ही उसने बिमला से कहा था कि ‘‘अब मैं इसी सूरत में आया करूँगा।’

भूत० : बेशक वह कोई ऐयार था, मगर अशर्फियाँ किस तरह निकल गईं इसका भी पता कुछ लगा?

राम : इस विषय में तो मैं कुछ नहीं कह सकता।

भूत० : खैर इस बारे में फिर सोचेंगे, अच्छा और क्या देखा-सुना?

राम : और यह भी मालूम हुआ कि गुलाबसिंह आपकी शिकायत लेकर दलीपशाह के पास गये थे, उस समय भी उस बुड्ढे साधु को मैंने उन दोनों के साथ देखा था।

भूत० : खैर तो अब मालूम हुआ कि दलीपशाह के सिर में भी खुजलाहट होने लगी।

राम : बात तो ऐसी ही हैं, यह आपका बगली दुश्मन ठीक नहीं। उससे होशियार रहना चाहिये।

भूत० : बेशक वह बड़ा ही दुष्ट है, आश्चर्य नहीं कि वही भोलासिंह बनकर मेरे पास आया हो।

राम : हो सकता है वही आया हो।

भूत० : खैर उससे समझ लिया जायगा। अच्छा यह बताओ कि कुछ इन्द्रदेव का हाल भी तुम्हें मालूम हुआ या नहीं? मुझे शक होता है कि इन्द्रदेव उन दोनों की मदद पर हैं, ताज्जुब नहीं कि वहाँ वे भी जाते हों।

राम : इन्द्रदेव को तो मैंने वहाँ नहीं देखा और न उनके बिषय में कुछ सुना मगर वे तो आपके मित्र हैं फिर आपके विरुद्ध क्यों कोई कार्रवाई करेंगे?

भूत० : हाँ, मैं भी यही ख्याल करता हूँ, खैर अब और बताओ क्या-क्या...

राम : प्रभाकरसिंह मेरे सामने ही वहाँ पहुँच गये थे मगर मैं उनके बारे में कुछ विशेष हाल न जान सका क्योंकि और ज्यादे दिन वहाँ रहने की हिम्मत न पड़ी। मुझे मालूम हो गया कि अब अगर और यहाँ रहूँगा तो मेरा भेद खुल जायगा क्योंकि दलीपशाह ने दो-तीन दफे मुझे जाँच की निगाह से देखा, अस्तु लाचार हो मैं बहाना करके एक लौंडी के साथ जो सुरंग का दरवाजा खोलना और बन्द करना जानती थी, घाटी के बाहर निकल आया।

भूत० : तुम्हें सुरंग का दरवाजा खोलने और बन्द करने की तरकीब मालूम हुई या नहीं?

राम : नहीं, लेकिन अगर दो-चार दिन और वहाँ रहता तो शायद मालूम हो जाती।

इतने ही में पानी बरसने लगा और हवा में भी तेजी आ गई

राम : अब यहाँ से उठना चाहिये।

भूत० : हाँ, चलो किसी आड़ की जगह में चलकर आराम करें, मेरी राय में तो अब इस घाटी में रहना मुनासिब न होगा, और साथ ही अब भविष्य के लिये बचे हुए आदमियों को आपस में कोई इशारा कायम कर लेना चाहिये जिसे मुलाकात होने पर हम लोग जाँच के खयाल से बरता करें। जिसमें फिर कभी ऐसा धोखा न हो जैसा भोलासिंह के विषय में हुआ है, तुम्हारा इशारा अर्थात एक आँख बन्द करके प्रणाम करना तो बहुत ठीक है, तुम्हारे विषय में किसी तरह धोखा नहीं हो सकता।

राम : बहुत मुनासिब होगा, अब यह सोचना चाहिये कि हम लोग अपना डेरा कहाँ कायम करेंगे?

भूत० : तुम ही बताओ।

राम : मेरी राय में तो लामाघाटी१ उत्तम होगी।

भूत० : खूब कहा, इस राय को मैं पसन्द करता हूँ!

इतना कह के भूतनाथ ने पुनः उस औरत की गठरी बाँधी जिसे रामदास ले आया था और अपनी पीठ पर लाद वहाँ से रवाना हुआ। रामदास भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

दूसरा भाग : ग्यारहवाँ बयान

भूतनाथ के हाथ से छुटकारा पाकर प्रभाकरसिंह अपनी स्त्री से मिलने के लिये उस घाटी में चले गये जिसमें कला और बिमला रहती थी, सन्ध्या का समय था जब वे उस घाटी में पहुँचकर कला, बिमला और इन्दुमति से मिले उस समय वे तीनों बँगले के आगे सुन्दर मैदान में पत्थर की चट्टानों पर बैठी आपस में बात कर रही थीं।

प्रभाकरसिंह को देख कर वे तीनों बहुत प्रसन्न हुईं कई कदम आगे बढ़कर उनका इस्तकबाल किया तथा उसी जगह लाकर अपने पास बैठाया जहाँ वे सब बैठी हुई थीं।

बिमला : मैं भूतनाथ के हाथ से छुट्टी मिलने पर आपको मुबारकबाद देती हूँ वास्तव में इन्द्रदेव ने इस विषय में बड़ी चालाकी की, नहीं तो हम लोगों से गहरी भूल हो गई थी कि भूतनाथ की घाटी १ का रास्ता बन्द कर दिया था। उन्होंने साधु बन कर भूतनाथ को ऐसा धोखा दिया कि वह जन्म-भर याद रक्खेगा।

१. लामाघाटी का जिक्र चन्द्रकान्ता सन्तति में आ चुका है।

प्रभा० : बेशक ऐसी ही बात है, मुझे अभी थोड़ी देर हुई है यहाँ आते समय इन्द्रदेवजी रास्ते में मिले थे जो तुम्हारे पास होकर जा रहे थे, उन्होंने सब हाल मुझसे कहा था और उस समय भी वे उसी तरह साधु महात्मा बने हुए थे।

बिमला : जी हाँ, अब वे बराबर उसी सूरत में यहाँ आया करेगे, उनका खयाल है कि असली सूरत में आने-जाने से कभी न कभी भूतनाथ को जरूर पता लग जायगा और भूतनाथ उनसे खटक जायगा क्योंकि वह बड़ा ही चांगला है।

प्रभा० : उनका खयाल बहुत ही ठीक है, मुझ से भी ऐसा ही कहते थे। उन्होंने मुझसे यह भी पूछा था कि अब तुम्हारा क्या इरादा है, भूतनाथ का पीछा करोगे या नहीं? इसके जवाब में मैंने कहा कि भूतनाथ का पीछा करने की बनिस्बत मैं नौगढ़ के राजा से मिल कर चुनारगढ़ पर चढ़ाई करना अच्छा समझता हूँ क्योंकि राजा शिवदत्त से बदला लिए बिना मेरा जी ठिकाने न होगा और इस काम को मैं सबसे बढ़कर समझता हूँ इन्द्रदेवजी ने मेरी यह बात स्वीकार कर ली और इस विषय में जो-जो बातें मैंने सोची थीं उन्हें भी पसन्द किया।

इन्दु० : तो क्या अब आप नौगढ़ जाकर चुनार की लड़ाई में शरीक होंगे।

प्रभा० :हाँ मैं जरूर ऐसा ही करूँगा, आजकल कुमारी चन्द्रकान्ता की बदौलत बीरेन्द्रसिंह से और शिवदत्त से खूब खिंचाखिची हो रही है, मेरे लिए इससे बढ़कर और कौन-सा मौका मिलेगा!

बिमला : आप स्वयं फौज तैयार करके चुनार पर चढ़ाई कर सकते हैं इस काम में मैं आपकी मदद करूँगी वे सब अशर्फियाँ जो भूतनाथ को दिखाई गई थीं और पुनः ले ली गई मैं आपको दे सकती हूँ क्योंकि इन्द्रदेवजी ने सब मुझे दे दी हैं आप जानते ही हैं कि घाटी में जाने के लिए कई रास्ते हैं, इसी तरह उस खजानेवाली कोठरी में भी जाने के लिए एक रास्ता यहाँ से है और इसी रास्ते से हम लोग उन अशर्फियों को उठा लाये थे।

प्रभा० : मुझे मालूम है, यह हाल इन्द्रदेव से सुन चुका हूँ, मगर चुनार के विषय में मैं इस राय को पसन्द नहीं करता और न इस मामले में किसी से विशेष मदद ही लूगा। हाँ मेरे दोस्त गुलाबसिंह जरूर मेरा साथ देंगे मगर सुना है कि वे इस समय दलीपशाह के साथ कहीं गये हैं और दलीपशाह भी सुबह-शाम में यहाँ आने वाले हैं।

बिमला : भोलासिंह की सूरत बनाकर दलीपशाह जब से गए हैं तब से पुनः मुझसे नहीं मिले।

प्रभा० : क्या हुआ अगर नहीं मिले तो, इन्द्रदेवजी ने मुझसे कहा है कि वे कल तक यहाँ आवेंगे।

बिमला : मालूम होता है कि आपने इन्द्रदेव जी से अपने बारे में सब बाते तै कर ली हैं!

प्रभा० : हाँ जो कुछ मुझे करना है कम-से-कम उसके विषय में तो मैंने सभी बातें तै कर ली हैं।

बिमला : तो आप जरूर नौगढ़ जायँगे?

प्रभा० : जरूर।

बिमला : दूसरे ढंग से बदला नहीं लेंगे?

प्रभा० : नहीं।

इन्दु० : तब मैं कहाँ रहूँगी?

प्रभा० : तुम्हारे बारे में यह निश्चय हुआ है कि तुम्हें मैं तब तक के लिए जमानिया में राजा साहब के यहाँ रख दूँ क्योंकि इस समय वे ही मेरे बड़े और बुजर्ग जो कुछ हैं सो हैं।

बिमला : (चौंक कर) मगर ऐसा करने से तो मेरा भेद खुल जायगा।

प्रभा० : तुम्हारा भेद क्यों खुलेगा? मैं इन्द्रदेव से वादा कर चुका हूँ कि इन सब बातों का वहाँ कभी जिक्र तक न करूँगा, मेरी जुबानी तुम्हारा हाल उन्हें कभी मालूम न होगा, इन्दु को भी मैं ऐसा ही करने के लिए ताकीद करूँगा और तुम भी अच्छी तरह समझा देना। क्या मैं नहीं समझता कि तुम्हारा भेद खुल जाने से आपस में कई आदमियों की खटपट हो जायगी और बेदाग दोस्ती तथा मुहब्बत में बट्टा लग जायगा।

बिमला : अगर भूतनाथ किसी तरह इन्दु को वहाँ देख ले तो क्या होगा। क्योंकि वह अक्सर जमानिया जाया करता है?

प्रभा० : तब क्या होगा? भूतनाथ अपने मुँह से इन सब बातों का जिक्र कदापि न करेगा।

बिमला : मगर दुश्मनी तो जरूर करेगा, क्योंकि उसे इस बात का डर हो जायगा कि कहीं इन्दु इन सब बातों का भेद किसी से खोल न दे।

प्रभा० : एक तो वह जमानिया विशेष जाता ही नहीं है दूसरे अगर कभी गया भी तो महल के अन्दर उसकी गुजर नहीं होती, तीसरी अगर वह किसी तरह इन्दु को देख भी लेगा तो वहाँ कुछ गड़बड़ी करने की उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ेगी। फिर इसके अतिरिक्त और मैं कर ही क्या सकता हूँ, मेरे लिए दूसरा कौन-सा घर हैं? हाँ अपने साथ नौगढ़ ले चलूँ तो हो सकता है, वहाँ भूतनाथ को जाने का डर नहीं है।

इन्दु० : मेरा खयाल तो यही है कि जमानिया की बनिस्बत नौगढ़ में मैं ज्यादा निडर रहूँगी।

बिमला : तो आप इन्हें इसी जगह हमारे पास क्यों नहीं छोड़ जाते?

प्रभा० : यहाँ तुम लोग स्वयं ही तरद्दुद में पड़ी हुई हो, इसके सबब से और भी...

बिमला : नहीं-नहीं, इनके सबब से किसी तरह की तकलीफ मुझे नहीं हो सकती है, और फिर अगर मैं ज्यादे बखेड़ा देखूँगी तो इन्हें इन्द्रदेव के सुपुर्द कर दूँगी वे अपने घर ले जाएँगे।

प्रभा० : यह सब ठीक है, इन्द्रदेव का घर हमारे लिए सबसे अच्छा है और उन्होंने ऐसा कहा भी था कि अगर तुम्हारी राय हो तो इन्दु को मेरे घर पर रख सकते हो।

बिमला : तो बस यही ठीक रखिये और इन्हें मेरे पास छोड़ जाइये। प्रभाकरसिंह और कला, बिमला तथा इन्दुमति में इस विषय पर बड़ी देर तक बहस होती रही और अन्त में लाचार होकर प्रभाकरसिंह को बिमला की बात माननी पड़ी अर्थात इन्दुमति को बिमला ही के पास छोड़ देना पड़ा।

रात-भर प्रभाकरसिंह वहाँ रहे और प्रातःकाल सभों से मिल-जुल कर नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

दूसरा भाग : बारहवाँ बयान

गुलाबसिंह को साथ लेकर प्रभाकरसिंह नौगढ़ चले गये, वहाँ उन्हें फौज में एक ऊँचे दर्जे की नौकरी मिल गई और चुनार पर चढ़ाई होने से उन्होंने दिल का हौसला खूब ही निकाला वे मुद्दत तक लौटकर इन्दुमति के पास न आये और न इस तरफ का कुछ हाल ही उन्हें मालूम हुआ।

जब चुनारगढ़ फतह हो गया, राजा शिवदत्त उदासीन होकर भाग गए। चन्द्रकान्ता की शादी हो गई और चुनार की गद्दी पर राजा बीरेन्द्रसिंह बैठ गये तब बहुत दिनों के बाद प्रभाकरसिंह को इस बात का मौका मिला कि वे जाकर इन्दुमति से मुलाकात करें।

प्रभाकरसिंह के दिल में तरह-तरह का खुटका पैदा हो रहा था और यह जानने के लिए वे बहुत-ही उत्सुक हो रहे थे कि उनके पीछे कला, बिमला और इन्दुमति पर क्या-क्या बीती, अस्तु वे गुलाबसिंह को साथ लिए हुए बहुत तेजी के साथ कूच और मुकाम करते एक दिन दोपहर के समय उस पहाड़ी के पास पहुँचे जिसके अन्दर वह सुन्दर घाटी थी जिसमें कला और बिमला रहती थीं सोच रहे थे कि अब थोड़ी ही देर में उन लोगों से मुलाकात हुआ चाहती है जिनसे मिलने के लिए जी बेबैन हो रहा है।

आज कई वर्ष के बाद प्रभाकरसिंह इस घाटी के अन्दर पैर रक्खेंगे आज पहिले की तरह गर्मी या बरसात का मौसम नहीं है, बल्कि जाड़े के दिनों में प्रभाकरसिंह उस घाटी के अन्दर जा रहे हैं, देखना चाहिए वहाँ का मौसम कैसा दिखाई देता है।

सुरंग का दरवाजा खोलना और बन्द करना उन्हें बखूबी मालूम था, बल्कि इस घाटी के विषय में वे और भी बहुत-कुछ जान चुके थे।

अस्तु गुलाबसिंह को बाहर ही छोड़कर वे सुरंग के अन्दर घुसे और दरवाजा खोलते और बन्द करते हुए उस घाटी के अन्दर चले गये, मगर उन्हें पहुँचने के साथ ही वहाँ कुछ उदासी-सी मालूम हुई ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखते हुए बँगले के अन्दर गये और वहाँ बिलकुल ही सन्नाटा पाया जिस बँगले को ये पहिले सजा हुआ देख चुके थे और जिसके अन्दर पहिले-तरह-तरह के सामान मौजूद थे आज वह बँगला बिलकुल ही खाली दिखाई दे रहा है, सजावट की बात तो दूर रही वहाँ एक चटाई बैठने के लिये और एक लुटिया पानी पीने के लिए भी मौजूद न थी, यही हाल वहाँ की अलमारियों का भी था जिनमें से एक भी पहिले खाली नहीं दिखाई देती थी। आज वहाँ हर तरह से सन्नाटा छाया हुआ है और ऐसा मालूम होता है कि वर्षों से इस बँगले के अन्दर किसी आदमी ने पैर नहीं रक्खा।

इस बँगले में से एक रास्ता उस मकान के अन्दर जाने के लिए था जिसमें कला और बिमला खास तौर पर रहती थीं, अथवा जिस मकान में पहिले-पहल इन्दुमति की बेहोशी दूर हुई थी। प्रभाकरसिंह हैरान और परेशान उस मकान में पहुँचे मगर देखा कि वहाँ की उदासी उस बँगले से भी ज्यादे बड़ी-चढ़ी है और एक तिनका भी वहाँ दिखाई नहीं देता।

‘‘यह क्या मामला है, यहाँ ऐसा सन्नाटा क्यों छाया हुआ है? कला, बिमला और इन्दुमति कहाँ चली गईं? अगर कहीं किसी आपस वाले के घर में चली गई तो यहाँ इस तरह उजाड़ कर जाने की क्या जरूरत थी? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वे तीनों भूतनाथ के कब्जे में पड़ गई हों और भूतनाथ ने ही इस मकान को ऐसा उजाड़ बना दिया हो!’’ इन सब बातों को सोचते हुए प्रभाकरसिंह उदास और दुःखित चित्त से बहुत देर तक चारों तरफ घूमते रहे और तब यह निश्चय कर वहाँ से चल पड़े कि अब भूतनाथ की घाटी का हाल मालूम करना चाहिये और देखना चाहिये कि वह किस अवस्था में है।

पहिले प्रभाकरसिंह उस सुरंग में घुसे जिसमें से उन्होंने पहिले दिन भूतनाथ की घाटी में इन्दुमति को एक अपनी ही सूरत वाले के साथ ठगे जाते हुए देखा था। सुरंग के अन्त में पहुँच सुराख की राह से उन्होंने देखा कि भूतनाथ की घाटी में भी बिलकुल सन्नाटा छाया हुआ है अर्थात यह नहीं जान पड़ता कि इसमें कोई आदमी रहता है, कुछ देर तक देखने और गौर करने के बाद प्रभाकरसिंह सुरंग के बाहर निकल आये।

तब उनकी हिम्मत न पड़ी कि एक सायत के लिए भी उस घाटी के अन्दर ठहरें, उदास और दुःखित चित्त से सोचते और गौर करते हुए वे वहाँ से रवाना हुए और सुरंग की राह से कहीं निकलकर सन्ध्या होने के पहिले ही उस ठिकाने पहुँचे जहाँ गुलाबसिंह को छोड़ गये थे। दूर ही से प्रभाकरसिंह की सूरत और चाल देखकर गुलाबसिंह समझ गए कि कुछ दाल में काला है, रंग अच्छा नहीं दिखाई देता, जब गुलाबसिंह के पास प्रभाकरसिंह पहुँचे तो सब हाल बयान किया और उदास होकर उनके पास बैठ गए। गुलाबसिंह को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वे सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये।

प्रभाकरसिंह के दिल पर क्या गुजरी होगी इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। उनके लिए दुनिया ही उजाड़ हो गई थी और चुनारगढ़ की लड़ाई में जो कुछ बहादुरी कर आये थे वह सब व्यर्थ ही जान पड़ती थी। दोनों बहादुरों ने मुश्किल से उस जंगल में रात बिताई और सवेरा होने पर अच्छी तरह निश्चय करने के लिए भूतनाथ की घाटी जाने का इरादा किया, दोनों आदमी वहाँ से रवाना हुए और कुछ देर के बाद उस सुरंग के मुहाने पर जा पहुँचे जिस राह से भूतनाथ अपनी घाटी में आया-जाया करता था। रास्ते तथा दरवाजे का हाल प्रभाकरसिंह से कुछ छिपा न था अस्तु वे दोनों शीघ्र ही घाटी के अन्दर जा पहुँचे और देखा कि वास्तव में यहाँ भी सब उजाड़ पड़ा हुआ है और लक्षणों से जाना जाता था कि यहाँ वर्षों से कोई नहीं आया और न कोई रहता है। अब कहाँ चलना चाहिये!

तरह-तरह की बातें सोचते-विचारते प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह घाटी के बाहर निकल आये और एक पेड़ के नीचे बैठकर इस तरह बातचीत करने लगे-

गुलाबः आश्चर्य की बात तो यह है कि दोनों घाटियाँ एकदम से खाली हो गईं, अब रणधीरसिंह के यहाँ चलकर पता लगाना चाहिये कि भूतनाथ का क्या वे तीनों औरतें भूतनाथ के कब्जे में आ गई हों, वहाँ चलने से कुछ-न-कुछ पता जरूर लग जायगा।

प्रभा० : रणधीरसिंह जी के यहाँ तो मैं किसी तरह नहीं जा सकता। यद्यपि वे मेरे रिश्तेदार हैं मगर इस समय मैं उनके दामाद (शिवदत्त) से लड़कर आ रहा हूँ।

इसलिए मुझे देखते ही वे आग हो जायेंगे क्योंकि उन्हें अपने दामाद और अपनी लड़की की अवस्था पर बहुत दुःख हो रहा होगा।

गुलाब : ठीक है, ऐसा जरूर होगा, मगर मैं यह तो नहीं कहता कि आप सीधे रणधीरसिंह के पास चले चलिये, मेरा मतलब यह है कि हम लोग सौदागरों की सूरत में वहाँ जाकर किसी सराय में डेरा डालें तथा ऊपर-ही-ऊपर लोगों से मिल-जुल कर भूतनाथ का पता लगावें और जो कुछ हाल हो मालूम करें।

प्रभा० : हाँ यह हो सकता हैं अच्छा तो अब यहाँ ठहरना व्यर्थ हैं, चलो उठो मैं समझता हूँ कि इन्द्रदेवजी से मुलाकात किये बिना दिल को तसल्ली न होगी।

गुलाब० : जरूर, वहाँ भी चलना ही होगा, मगर पहिले भूतनाथ की खबर लेनी चाहिये।

इतना कहकर गुलाबसिंह उठ खड़े हुए, प्रभाकरसिंह ने भी उसका साथ दिया और दोनों आदमी मिर्जापुर की तरफ रवाना हुए, इस बात का भी कुछ भी खयाल न किया कि समय कौन हैं और रास्ता कैसा कठिन हैं।

दूसरा भाग : तेरहवाँ बयान

प्रेमी पाठक महाशय, अभी तक भूतनाथ के विषय में जो कुछ हम लिख आये हैं उसे आप भूतनाथ के जीवन की भूमिका ही समझें, भूतनाथ का मजेदार हाल जो अद्भुत घटनाओं से भरा हुआ है पढ़ने के लिए अभी आप थोड़ा-सा और सब्र कीजिए, अब उसका अनूठा किस्सा आया ही चाहता है, यद्यपि चन्द्रकान्ता सन्तति में प्रभाकरसिंह और इन्दुमति का नाम नहीं आया है मगर भूतनाथ की जीवनी का इन दोनों व्यक्तियों से बहुत ही घना सम्बन्ध है और भूतनाथ की बरबादी या ढिठाई का जमाना शुरू होने के बहुत दिन पहिले ही से भूतनाथ का इन दोनों से वास्ता पड़ चुका था और इन्हीं दोनों के सबब से इन्द्रदेव और दलीपशाह के ऊपर भी भूतनाथ की निगाह पड़ चुकी थी।

इसलिए हमें सबसे पहिले प्रभाकरसिंह और इन्दुमति का परिचय देना पड़ा, तथापि आपको आगे चलकर प्रभाकरसिंह और इन्दुमति की अवस्था पर आश्चर्य करना पड़ेगा।

यद्यपि इन्दुमति का पता न लगने से प्रभाकरसिंह को बहुत दुःख हुआ परंतु इन्द्रदेव का खयाल उन्हें ढाढ़स दे रहा था। वे समझते थे कि इन्दुमति अपनी दोनों बहिनों के साथ जरूर इन्द्रदेव के यहाँ होंगी, अस्तु सबसे पहिले इन्द्रदेव के यहाँ चल कर उसका पता लगाना चाहिए, इस बात का निश्चय कर गुलाबसिंह को साथ लिए हुए प्रभाकरसिंह इन्द्रदेव से मिलने के लिए रवाना हुए।

जमना और सरस्वती की जुबानी प्रभाकरसिंह को मालूम हो चुका था कि इन्द्रदेव वास्तव में किसी तिलिस्म के दारोगा हैं परंतु इन्द्रदेव ने अपने को ऐसा मशहूर नहीं किया था और न साधारण लोगों को उनके विषय में ऐसा खयाल ही था। उसके मुलाकातियों में से भी बहुत कम आदमियों को यह बात मालूम थी कि इन्द्रदेव किसी तिलिस्म के दारोगा हैं और यदि कोई इस बात को जानता भी था तो उसे तिलिस्म के विषय में कुछ ज्ञान ही न था।

अगर कोई इन्द्रदेव से तिलिस्म के विषय में कुछ पूछता भी तो इन्द्रदेव समझा देते कि यह सब दिल्लगी की बातें हैं हाँ, दो-चार आदमियों को इस बात का पूरा-पूरा विश्वास था कि इन्द्रदेव किसी भारी तिलिस्म के दारोगा हैं, मगर अपनी जुबान से उन्हें भी पूरा-पूरा पता नहीं लगने देते थे, इसके अतिरिक्त इन्द्रदेव का रहन-सहन ऐसा था कि किसी को उनके विषय में जानने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी और न वे विशेष दुनियादारी के मामले में ही पड़ते थे, वह वास्तव में साधु और महात्मा की तरह अपनी जिन्दगी बिताते थे मगर ढंग उनका अमीराना था।

मतलब यह है कि सर्वसाधारण को इन्द्रदेव के विषय में पूरा-पूरा ज्ञान नहीं था, हाँ इतना जरूर मशहूर था कि इन्द्रदेव ऊँचे दर्जे के ऐयार हैं और उनके बुजुर्गों ने ऐयारी के फन में बहुत दौलत पैदा की हैं जिसकी बदौलत आज तक इन्द्रदेव बहुत रईस और अमीर बने हुए हैं।

यह सब कुछ था सही परंतु इन्द्रदेव के दो-चार दोस्त ऐसे भी थे जिन्हें इन्द्रदेव का पूरा-पूरा हाल मालूम था, मगर इन्द्रदेव की तरह वे लोग भी इस बात को मंत्र की भाँति छिपाये रहते थे।

इन्द्रदेव का रहने का स्थान कैसा था और वहाँ जाने के लिए कैसी-कैसी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं इसका हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है यहाँ पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है, हाँ इतना कह देना आवश्यक जान पड़ता है कि जिन दिनों का हाल इस जगह लिखा जा रहा है उन दिनों इन्द्रदेव निश्चित रूप से उस तिलिस्मी घाटी ही में नहीं रहा करते थे बल्कि अपने लिए उन्होंने एक मकान तिलिस्मी घाटी के बाहर उसके पास ही एक पहा़ड़ी पर बनवाया हुआ था जिसका नाम ‘‘कैलाश’’ रखा था और इसी मकान में वह ज्यादा रहा करते थे, हाँ, जब जमाने के हाथों से वह ज्यादे सताये गये और उन्होंने उदास होकर दुनिया ही को तुच्छ समझ लिया तब उन्होंने बाहर का रहना एकदम से बन्द कर दिया जैसाकि चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है।

प्रभाकसिंह जब इन्द्रदेव से मिलने गये तब उस ‘‘कैलाश भवन’’ में मुलाकात हुई। उन दिनों इन्द्रदेव बीमार थे, यद्यपि उनकी बीमारी ऐसी न थी कि चारपाई पर पड़े रहते परन्तु घर के बाहर निकलने योग्य भी वह न थे।

प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह से मिल कर इन्द्रदेव ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और बड़ी खातिरदारी से इन दोनों को अपने यहाँ रखा प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह ने भी इन्द्रदेव की बीमारी पर खेद प्रकट किया और इसी के साथ अपने आने का सबब भी प्रभाकरसिंह ने बयान किया जिसे सुन कर इन्द्रदेव की आँखें डबडबा आईं और एकान्त होने पर उन दोनों में इस तरह बातचीत होने लगी, इस बात-चीत में गुलाबसिंह शरीक नहीं थे।

इन्द्र : प्रभाकरसिंह, तुम्हें यह सुन कर बहुत दुःख होगा कि तुम्हारी स्त्री इन्दुमति हमारे यहाँ नहीं है तथा जमना और सरस्वती का भी कुछ पता नहीं लगता कि वे दोनों कहाँ गायब हो गईं, अफसोस उन दोनों ने मेरी शिक्षा पर कुछ ध्यान नहीं दिया और अपनी बेवकूफी से अपने को थोड़े ही दिनों में जाहिर कर दिया। अगर वे मेरी आज्ञानुसार अपने को छिपाये रहतीं और धीरे-धीरे करती तो धोखा न उठातीं।

प्रभा० : (दुःखित चित्त से) निःसन्देह ऐसा ही है, उस घाटी में पहिले जब मुझसे मुलाकात हुई थी तब उन्होंने कहा था कि ऐसे स्थान में रह कर भी हम लोग अपने को हर वक्त छिपाये रहती हैं, यहाँ तक कि अपनी लौंडियों को भी अपनी असली सूरत नहीं दिखाई...

इन्द० : (बात काट के) बेशक ऐसी ही बात थी और मैंने ऐसा ही प्रबन्ध कर दिया था कि उनके साथ रहने वाली लौंडियों को भी इस बात का ज्ञान न था कि ये दोनों वास्तव में जमना-सरस्वती हैं, वे सब उन दोनों को कला और बिमला ही जानती थीं। मगर इस बात को जमना ने बहुत जल्द चौपट कर दिया और लौंडि़यों पर भरोसा करके शीघ्र ही अपने को प्रकट कर दिया। अगर लौंडियों को यह भेद मालूम न हो गया होता तो भूतनाथ की समझ में खाक न आता कि वे दोनों कौन है और क्या चाहती हैं।

प्रभा० : आपका कहना बहुत ठीक हैं।

इन्दु० : बड़ों ने सच कहा है कि स्त्रियों के विचार में स्थिरता नहीं होती और वे किसी भेद को ज्यादे दिनों तक छिपा नहीं सकतीं, कइयों का कथन तो यह हैं कि स्त्रियों की बुद्धि प्रलय करने के सिवाय और मैं क्या कहूँ, इन बखेड़ों में मैं तो व्यर्थ ही पीसा गया, मेरे हौंसले सब मटियामेट हो गये और मैं भी न रहा।

प्रभा० : मैं क्या कहूँ कैसी उम्मीदें अपने साथ लेकर आपके पास आया था, मगर ...

इन्दु० : प्रभाकरसिंह, तुम एकदम से हताश न हो जाओ और उद्योग का पल्ला मत छोड़ो। क्या कहूँ, मैं बहुत दिनों से बीमार पड़ा हुआ हूँ और इस योग्य नहीं कि स्वयं कुछ कर सकूँ तथापि मैंने अपने कई आदमी उन सभों की खोज में दौड़ा रखे हैं। दलीपशाह का भी बहुत दिनों से पता नहीं हैं, वे भी उन सभों के साथ ही गायब हैं।

प्रभा० : और भूतनाथ?

इन्द्र : भूतनाथ अपने मालिक के यहाँ स्थिर भाव से बैठा हुआ है मुद्दत से वह कहीं आता-जाता नहीं है, रणधीरसिंह जी को जो उसकी तरफ से रंज हो गया था उसे भी भूतनाथ ने ठीक कर लिया।

अब तो ऐसा मालूम होता हैं कि मानों भूतनाथ ने कभी रंग बदला ही न था। इधर सालःभर में चार-पाँच कफे भूतनाथ मुझसे मिलने के लिए आया था मगर जमना और सरस्वती के विषय में न तो मैंने ही कुछ जिक्र किया और न उसने ही कुछ छेड़ा, यद्यपि मालूम होता है कि भूतनाथ उसी विषय में छेड़छाड़ करने के लिए आया था मगर मैंने कुछ चर्चा उठाना मुनासिब न समझा।

प्रभा० : अस्तु अब क्या करना चाहिए सो कहिये मैं तो आपका बहुत भरोसा रख के यहाँ आया था परन्तु यह जान कर मुझे आश्चर्य हुआ कि आपने जमना सरस्वती के लिए कुछ भी नहीं किया।

इन्द्र : ऐसा मत कहो मैंने उन सभों के लिए बहुत उद्योग किया मगर लाचार हूँ कि उद्योग का कोई अच्छा नतीजा न निकला, हाँ यह जरूर मानना पड़ेगा कि मैं स्वयं अपने हाथ-पैर से कुछ न कर सका। इसका सबसे बड़ा सबब तो यह है कि मैं इस मामले में अपने को प्रकट करना उचित नहीं समझता। दूसरे बीमारी से भी लाचार हो रहा हूँ, खैर जो कुछ होना था सो तो हो गया, अब तुम आ गये हो तो उद्योग करो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेगा और मैं भी हर तरह से तुम्हारी मदद के लिए तैयार हूँ, मेरी प्रबल इच्छा है कि किसी तरह उन तीनों का पता लगे, यदि मुझे इस बात का निश्चय हो जायगा कि उन तीनों से भूतनाथ ने कोई अनुचित व्यवहार किया हैं तो मैं निःसन्देह भूतनाथ से बदला लूँगा मगर जब तक इस बात का निश्चय न होगा मैं कदापि भूतनाथ से सम्बन्ध न तोड़ूँगा, हाँ, तुम्हें हर तरह से मदद बराबर देता रहूँगा।

प्रभा० : अच्छा तो फिर मुझे शीघ्र बताइये कि अब क्या करना चाहिए, अब मुझसे बैठे रहने की सामर्थ्य नहीं है।

इन्द्र : जल्दी न करो, मैं सोच-विचार कर कल तुमसे कहूँगा कि अब क्या करना चाहिए, एक दिन के लिए और सब्र करो।

प्रभा० : जो आज्ञा, परन्तु....

लाचार होकर प्रभाकरसिंह को इन्द्रदेव की बात माननी पड़ी परन्तु इस बात का उनको आश्चर्य बना ही रहा कि इन्द्रदेव ने जमना और सरस्वती के लिए इतनी सुस्ती क्यों की और वास्तव में जमना और सरस्वती गायब हो गई हैं या इसमें भी कोई भेद है।

दूसरा भाग : चौदहवाँ बयान

अब हम कुछ हाल जमना, सरस्वती और इन्दुमति का बयान करना उचित समझते हैं, जब महाराज शिवदत्त से बदला लेने का विचार करके प्रभाकरसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हो गये उनके चले जाने के बाद बहुत दिनों तक जमना और सरस्वती को कोई भी ऐसा मौका हाथ न आया कि भूतनाथ से कुछ छेड़छाड करें और न भूतनाथ ही ने उनके साथ कोई बदसलूकी की, हाँ यह जरूर होता रहा कि जमना और सरस्वती भूतनाथ की घाटी में ताकझाँक करके इस बात की बराबर टोह लगाती रहीं कि भूतनाथ क्या करता है अथवा किस धुन में है।

थोड़ी ही दिनों में उन दोनों को मालूम हो गया कि भूतनाथ अब इस घाटी में नहीं रहता। न–मालूम वह कहीं चला गया या उसने जगह बदल दी बहुत दिनों तक उनकी लौड़ियाँ और ऐयार इस विषय का पता लगाने के लिए इधर-उधर दौड़ती रहीं मगर सफल-मनोरथ न हो सकीं, कुछ दिन बीत जाने के बाद यह मालूम हुआ कि भूतनाथ अपने मालिक रणधीरसिंह के यहाँ चला गया तथा बराबर एक चित्त से उन्हीं का काम किया करता है और उन्हीं के यहाँ स्थिर भाव से रहता है, अब भूतनाथ से बदला लेना कठिन हो गया तथा अब बिना प्रकट भये काम नहीं चलेगा।

कई दफे दोनों ने सोचा कि रणधीर सिंह के यहाँ चली जायें और जो कुछ मामला हो चुका है उसें साफ कह के भूतनाथ को सजा दिलावें, परन्तु इन्द्रदेव ने ऐसा करने से मना किया और समझाया कि अगर तुम वहाँ चली जाओगी तो रणधीरसिंह मुझसे इस बात के लिए रंज हो जायेंगे कि मैंने इतने दिनों तक तुम दोनों को छिपा रक्खा और झूठ ही मशहूर कर दिया कि जमना और सरस्वती मर गयीं, साथ ही इसके हमसे और भूतनाथ से भी खुल्लम-खुल्ला लड़ायी हो जायगी, केवल इतना ही नहीं, यह भी सोच रखना चाहिये कि रणधीरसिंह भूतनाथ का कुछ बिगाड़ न सकेंगे, सिवाय इसके कि उसे अपने यहाँ से निकाल दें बल्कि ताज्जुब नहीं कि भूतनाथ रणधीरसिंह से रंज होकर उन्हें भी किसी तरह की तकलीफ पहुँचावे।

इन्द्रदेव का यह विचार भी बहुत ठीक था, इसलिए दोनों बहुत दिनों तक चुप-चाप बैठी रह गयीं और रणधीरसिंह के यहाँ भी न गईं।

इसी तरह सोचते-विचारते और समय का इन्तजार करते वर्षों बीत गये और इस बीच में जमना, सरस्वती और इन्दुमति प्रायः घूमने-फिरने के लिए इस घाटी से बाहर निकलती रहीं।

एक दिन माघ के महीने में दोपहर के समय अपनी कई लौंडियों को साथ लिए हुए वे तीनों भेष बदले हुए उस घाटी के बाहर निकलीं और जंगल में चारों तरफ घूम-फिरकर दिल बहलाने लगीं, यकायक उनकी निगाह एक मरे हुए घोड़े पर पड़ी जिस पर अभी तक चारजामा कसा हुआ था। वे सब ताज्जुब में आकर उसके पास गईं और गौर से देखने लगीं, यह घोड़ा कई जगह से जख्मी हो रहा था जिससे गुमान होता था कि किसी लड़ाई में इसके सवार ने बहादुरी दिखाई और अन्त में किसी सबब से यह भाग निकला है। संभव है इसका सवार लड़ाई में गिर गया हो। मगर इस बात पर भी बिमला का विचार नहीं जमा वह यही सोचती थी कि जरूर यह अपने सवार को लेकर भागा है, अस्तु बिमला आँख फैलाकर चारों तरफ इस खयाल से देखने लगी कि शायद इस घोड़े की तरह गिरा हुआ कोई आदमी भी कहीं दिखाई दे जाय।

बिमला, कला और इन्दुमति घूम-घूमकर इसका पता लगाने लगीं और आखिर थोड़ी देर में एक आदमी पर उनकी निगाह पड़ी, ये सब तेजी के साथ घबराई हुई उसके पास गईं और देखा कि प्रभाकरसिंह बेहोश पड़े हुए हैं, उनका कपड़ा खून से तरबतर हो रहा है, और उनके बदन में कई जगह तलवार के जख्म लगे हुए हैं तथा सर में भी एक भारी जख्म लगा हुआ हैं जिससे निकले हुए खून के छींटे चेहरे पर अच्छी तरह पड़े हुए हैं। लड़ाई के समय जो तलवार उनके हाथ में थी इस समय भी उसका कब्जा उनके हाथ ही में है।

प्रभाकरसिंह को इस अवस्था में देखते ही इन्दुमति एक दफे चिल्ला उठी और उसकी आँखों में आँसू भर आए, परन्तु तुरन्त ही उसने अपने दिल को सम्भाल लिया तथा जमना और सरस्वती की तरफ देखा जिनकी आँखों से आँसू की धारा बह रही थी और जो बड़े गौर से प्रभाकरसिंह के चेहरे पर निगाह जमाये हुए थीं।

इन्दु० : (जमना से) बहिन, तुम इनके चेहरे की तरफ क्या देख रही हो? जो बातें देखने लायक हैं पहिले उन्हें देखो इसके बाद रोने-धोने का खयाल करना।

जमना : (ताज्जुब से) सो क्या है?

इन्दु० : पहिले तो यह देखो कि इनके पीठ में भी कोई जख्म लगा है या नहीं जिससे यह मालूम हो सके कि इन्होंने लड़ाई में पीठ नहीं दिखाई है, इसके बाद इस बात की जाँच करो कि इनमें कुछ दम है या नहीं, अगर इन्होंने लड़ाई में वीरता दिखाई और बहादुरी के साथ प्राण-त्याग किया है तो कोई चिन्ता नहीं मैं बड़ी प्रसन्नता से इनके साथ सती होकर कर्तव्य पूरा करूँगी, और इनके हाथ की तलवार मुझे विश्वास दिलाती है कि उन्होंने लड़ाई में पीठ नहीं दिखाई।

जमना : मेरा भी यही खयाल है, और वीर पत्नियों के लिए रोना कैसा?

उन्हें तो हरदम अपने पति के साथ जाने के लिए तैयार रहना चाहिए।

सरस्वती : (प्रभाकरसिंह की नाक पर हाथ रख कर) जीते हैं! जख्मी होने के सबब से बेहोश हो गये हैं!!

सरस्वती की बात सुनकर जमना और इन्दुमति ने भी उन्हें अच्छी तरह देखा और निश्चय कर लिया कि प्रभाकरसिंह मरे नहीं हैं और इलाज करने से बहुत जल्द अच्छे हो जायेगें, अब पुनः इन्दुमति की आँखों से आँसू की धारा बहने लगी तथा जमना और सरस्वती ने उसे समझाया और दिलासा दिया इसके बाद सब कोई मिल-जुल कर प्रभाकरसिंह को उठाकर घाटी के अन्दर ले गईं और बँगले के बाहर दालान में एक सुन्दर चारपाई पर लेटाकर उन्हें होश में लाने का उद्योग करने लगीं।

मुँह पर केवड़ा और बेदमुश्क छिड़कने तथा लखलखा सुँघाने से थोड़ी ही देर में प्रभाकरसिंह चैतन्य हो गए और जमना की तरफ देखकर बोले, ‘‘मैं कहाँ हूँ?’’

जमना : आप घाटी में हैं जहाँ हम दोनों बहिनों तथा इन्दुमति से मुलाकात हुई थी।

प्रभा० : (चारों तरफ देख कर) ठीक है, मगर मैं यहाँ कैसे आया?

जमना : पहिले यह बताइये कि आपकी तबीयत कैसी है?

प्रभा० : अब मैं अच्छा हूँ, होश में हूँ और सब कुछ समझ सकता हूँ मगर आश्चर्य में हूँ कि यहाँ कैसे आया!

जमना : हम लोग घाटी के बाहर घूमने के लिए गई हुई थीं जहाँ आपको बेहोश पड़े हुए देख कर उठा लाईं, उस जगह एक घोड़ा भी मरा हुआ दिखाई दिया कदाचित वह आप ही का घोड़ा हो।

प्रभा० : बेशक वह मेरा ही घोड़ा होगा, जानवर होकर भी उसने मेरी बड़ी सहायता की और आश्चर्य है कि इतनी दूर तक उड़ाये हुए ले आया।

इन्दु० : क्या वह घोड़ा लड़ाई में से आपको भगा लाया था?

प्रभा० : हाँ, लड़ाई ऐसी गहरी हो गई थी कि संध्या हो जाने पर भी दोनों तरफ की फौजें बराबर दिल तोड़कर लड़ती ही रह गईं यहाँ तक कि आधी रात हो जाने पर मैं और महाशय सुरेन्द्रसिंह का सेनापति तथा कुँअर बीरेन्द्रसिंह लड़ते हुए दुश्मन की फौज में घुस गये और मारते हुए उस जगह पहुँचे जहाँ कम्बख्त शिवदत्त खड़ा हुआ अपने सिपाहियों को लड़ने के लिए ललकार रहा था, चाँद की रोशनी खूब फैली हुई थीं और बहुत से माहताब भी जल रहे थे इसलिए एक-दूसरे के पहिचानने में किसी तरह तकलीफ नहीं मालूम हो सकती थी।

महाराज शिवदत्त मुझे अपने सामने देखकर झिझका और घोड़ा घुमाकर भागने लगा, मगर मैंने उसे भागने की मोहलत नहीं दी और एक हाथ तलवार का उसके सर पर ऐसा मारा कि वह घोड़े की पीठ पर से लुढ़क कर जमीन पर आ रहा मुझे उस समय बहुत जख्म लग चुके थे और मैं सुबह से उस समय तक बराबर लड़ते रहने के कारण बहुत ही सुस्त हो रहा था। जिस पर महाराज शिवदत्त के गिरते ही बहुत-से दुश्मनों ने एक साथ मुझ पर हमला किया और चारों तरफ से घेर कर मारने लगे मगर मैं हताश न हुआ, दुश्मनों के वार को रोकता और तलवार चलाता हुआ उस मण्डली को चीरकर बाहर निकला, उस समय मेरा सर घूमने लगा और मैं दोनों हाथों से घो़ड़े का गला थाम उससे चिपट गया।

फिर मुझे कुछ भी खबर न रही मैं नहीं कह सकता कि इसके आगे क्या हुआ!

इन्दु० : (प्रसन्न होकर) बेशक आपने बड़ी बहादुरी की। घोड़ा भी उस समय समझ गया कि अब बेहोश हो गए हैं और इसलिए आपको वहाँ से ले भागा।

प्रभा० : बेशक ऐसा ही हुआ होगा।

जमना : अब आप आज्ञा दीजिए तो कपड़े उतार कर आपके जख्म धोये जायँ।

प्रभा० : जरा और ठहर जाओ क्योंकि मैं उठकर मैदान जाने का इरादा कर रहा हूँ। जख्म मुझे बहुत गहरे नहीं लगे हैं, इन पर कुछ दवा लगाने की जरूरत न पड़ेगी, केवल धोकर साफ कर देना ही काफी होगा! मेरे लिए एक धोती और गमछे का बन्दोबस्त करो और आदमी सहारा देकर उठाओ तथा मैदान की तरफ ले चलो।

जमना : बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।

इतना कहकर जमना ने एक लौंडी की तरफ देखा, वह सामान दुरूस्त करने के लिए वहाँ से चली गई दूसरी लौंडी ने बाहर जाने के लिए जल का लोटा भरकर अलग रख दिया। प्रभाकर सिंह ने उठने का इरादा किया। जमना, सरस्वती और इन्दु ने सहारा देकर उन्हें उठाया बल्कि खड़ा कर दिया। जमना इन्दु का हाथ थामे हुए प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे वहाँ से मैदान की तरफ रवाना हुए तथा पीछे कई लौंडियाँ भी जाने लगीं, उस समय वहाँ हरदेई लौंडी भी मौजूद थी जिसका हाल ऊपर के बयान में लिख आए हैं। हरदेई ने जल से भरा हुआ लोटा उठा लिया और प्रभाकरसिंह के साथ जाने लगी।

कुछ दूर आगे जाने पर प्रभाकरसिंह ने कहा ‘‘इस तरह चलने और घूमने से तबीयत साफ हो जाती है, तुम लोग अब ठहर जाओ मैं अब सिर्फ एक लौंडी के हाथ का सहारा लेकर और आगे जाऊँगा,’’ इतना कहकर प्रभाकरसिंह ने हरदेई की तरफ देखा और जमना तथा इन्दु का हाथ छोड़ दिया, हरदेई जल का लोटा लिए आगे बढ़ आई और अपने दूसरे हाथ से प्रभाकरसिंह का हाथ थाम कर धीरे-धीरे आगे की तरफ बढ़ी।

जमना, सरस्वती और इन्दुमति वहाँ से पीछे हटकर एक सुन्दर चट्टान पर बैठ गईं और इन्तजार करने लगीं कि प्रभाकरसिंह मैदान से होकर लौटें और चश्में पर जाय तो हम लोग भी उनके पास चलें मगर ऐसा न हो सका क्योंकि घण्टे-भर से भी कम देर में सब कामों से छुट्टी पाकर हरदेई के हाथ का सहारा लिए हुए प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे चलते हुए उस जगह आ पहुँचे जहाँ जमना सरस्वती और इन्दुमति बैठी हुई उनका इन्तजार कर रही थीं जख्मों के विषय में सवाल करने पर प्रभाकरसिंह ने उत्तर दिया कि नहर के जल से मैं सब जख्मों को साफ कर चुका हूँ अब उनके विषय में चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।

प्रभाकरसिंह भी उन तीनों के पास बैठ गये और लड़ाई के विषय में तरह-तरह की बातें करने लगे, जब संध्या होने में थोड़ी देर रह गई और हवा में सर्दी बढ़ने लगी तब सब कोई वहाँ से उठ कर बँगले के अन्दर चले गये एक कमरे के अन्दर जाकर प्रभाकरसिंह चारपाई पर लेट रहे थोड़ी देरतक वहां सन्नाटा रहा क्योंकि जरूरी कामों से छुट्टी पाने तथा भोजन की तैयारी करने के लिए जमना और सरस्वती वहाँ से चली गईं और केवल चारपाई की पाटी पकड़े हुए इन्दुमति तथा पैर दबाती हुई हरदेई वहाँ रह गई।

कुछ देर बाद प्रभाकरसिंह ने इन्दुमति को यह कह कर बिदा किया कि ‘मैं भूख से बहुत दुःखी हो रहा हूँ, जो कुछ तैयार हो थोड़ा-बहुत खाने के लिए जल्द लाओ।’

आज्ञानुसार इन्दुमति वहाँ से उठ कर कमरे के बाहर चली गई और तब प्रभाकरसिंह और हरदेई में धीरे-धीरे इस तरह की बातचीत होने लगी-

प्रभा० : हाँ, तुम्हें दरवाजा खोलने का ढंग अच्छी तरह मालूम हो चुका है?

हरदेई : जी हाँ, उसके लिए कोई चिन्ता न करें।

प्रभा० : मैं तो इसी फिक्र में लगा हुआ था कि पहले किसी तरह दरवाजा खोलने की तरकीब मालूम कर लूँ तब दूसरा काम करूँ।

हरदेई : नहीं, अब आप अपनी कार्रवाई कीजिए, सुरंग का दरवाजा खोलना और बन्द करना अब मेरे लिए कोई कठिन काम नहीं है।

प्रभा० : (अपने जेब में से एक पुड़िया निकाल कर और हरदेई के हाथ में दे कर) अच्छा तो अब तुम इस दवा को भोजन के किसी पदार्थ में मिला देने का उद्योग करो, फिर मैं समझ लूँगा।

हरदेई : अब इन्दुमति आ जायँ तो मैं जाऊँ।

प्रभा० : हाँ मेरी भी यही राय है।

थोड़ी देर बाद चाँदी की रकाबी में कुछ मेवा लिए हुए इन्दुमति वहाँ आ पहुँची उसके साथ एक लौंडी चाँदी के लोटे में जल और एक गिलास लिए हुए थी।

प्रभाकरसिंह ने मेवा खाकर जल पीया और इसी बीच में हरदेई किसी काम के बहाने से उठ कर कमरे के बाहर चली गई।

दूसरा भाग : पन्द्रहवाँ बयान

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है बँगले के अन्दर जितने आदमी हैं सभी बेहोशी की नींद सो रहे हैं क्योंकि हरदेई ने जो बेहोशी की दवा खाने की वस्तुओं में मिला दी थी उसके सबब से सभी आदमी (उस अन्न के खाने से) बेहोश हो रहे हैं हरदेई एक विश्वासी लौंडी थी और जमना तथा सरस्वती उसे जी-जान से मानती थीं इसलिए कोई आदमी उस पर शक नहीं कर सकता था, परन्तु इस समय हमारे पाठक बखूबी समझ गये होंगे कि यह हरदेई नहीं हैं बल्कि जिस तरह भूतनाथ प्रभाकरसिंह का रूप धारण किये है उसी तरह भूतनाथ का शागिर्द रामदास हरदेई की सूरत में काम कर रहा है, असली हरदेई को तो वह गिरफ्तार करके ले गया था, और सभों की तरह नकली प्रभाकरसिंह भी अपनी चारपाई पर बेहोश पड़े हुए हैं- हरदेई ने आकर प्रभाकरसिंह को लखलखा सुँघाया और जब वे होश में आ गए तो उनसे कहा, ‘‘अब उठिए, काम करने का समय आ गया’’।

प्रभा० : कितनी रात जा चुकी है?

हरदेई : आधी से ज्यादे।

प्रभा० : सभों के साथ मुझे भी वही अन्न खाना पड़ा, यद्यपि मैंने बहुत कम भोजन किया था तथापि बेहोशी का असर ज्यादे रहा।

इतना कह प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए और सब तरफ घूम कर देखने लगे कि कहाँ कौन सोया हुआ है, जमना सरस्वती, और इन्दुमति तो उसी कमरे में फर्श के ऊपर सोई हुई थीं जिसमें प्रभाकरसिंह थे और बाकी की सब लौंडियाँ तथा ऐयार दूसरे कमरे में पडे हुए थे।

प्रभाकरसिंह ने जमना और सरस्वती की तरफ देख कर हरदेई से कहा, ‘‘पहिले तो मुझे यह देखना है कि इन लोगों ने किस ढंग पर अपना चेहरा रंगा हुआ है।’’

हरदेई : मैं आपसे कह चुका हूँ कि इन लोगों ने एक प्रकार की झिल्ली चेहरे पर चढ़ाई हुई है जिस पर पानी का असर नहीं होता।

प्रभा० : (जमना और सरस्वती के चेहरे पर से झिल्ली उतार कर) बेशक यह एक अनूठी चीज है, इसे मैं अपने पास रक्खूँगा।

हरदेई : (अथवा रामदास) बेशक यह चीज रखने योग्य है।

प्रभा० : इन लोगों ने भी बड़ा ही उत्पात मचा रक्खा था, आज इनकी चाल-बाजियों का अन्त हुआ। अब इन्हें शीघ्र ही दुनिया से उठा देना चाहिए नहीं तो एक-न-एक इन दोनों की बदौलत बड़ा ही अनर्थ हो जायगा और मैं किसी को अपना मुँह दिखाने लायक न रहूँगा। (कुछ सोचकर) मगर मुझसे इनके गले पर छुरी न चलाई जायेगी, यद्यपि मैं इनकी जान लेने के लिए तैयार हूँ मगर लाचारी से।

हरदेई : यदि दया आती हो तो इन्हें किसी कुएँ में ढकेल कर निश्चिन्त हो जाइये। इस जंगल के पीछे की तरफ पहाड़ी के कुछ ऊपर चढ़ के एक कुआँ है जो इस काम के लिए बहुत ही मुनासिब होगा, मैं अच्छी तरह जाँच कर चुका हूँ कि वह बहुत गहरा और अँधेरा है, उसमें गया हुआ आदमी फिर नहीं निकल सकता।

प्रभा० : अच्छी बात हैं, दोनों को ले चल कर उसी कूँए में डाल दो, मगर इन्दुमति को मैं अपने घर अर्थात लामाघाटी में ले जाऊँगा क्योंकि इसकी जुबानी बहुत-सी बातों का पता लगाना है।

हरदेई : मैं इस रायको पसन्द नहीं करता, मैं इन्दुमति को भी उसी कुएँ में पहुँचाना मुनासिब समझता हूँ।

प्रभा० : (कुछ सोच कर) अच्छा खैर इसे भी उसी में दाखिल करो।

इतना कह कर नकली प्रभाकरसिंह ने जमना को और रामदास ने सरस्वती को उठा कर पीठ पर लाद लिया और उस कुएँ पर चले गये जिसका पता रामदास ने दिया था।

यह कुआँ बँगले के पश्चिम तरफ पहाड़ी के कुछ ऊपर चढ़ कर पड़ता था। कुआँ बहुत प्रशस्त और गहरा था मगर इसका मुँह इतना छोटा था कि वहाँ के रहने वालों ने एक मामूली पत्थर की चट्टान से उसे ढाँक रक्खा था। कदाचित रामदास को इसका पता अच्छी तरह लग चुका था इसलिए वह नकली प्रभाकरसिंह को लिए हुए बहुत जल्द वहाँ जा पहुँचा जमना और सरस्वती को जमीन पर रख दोनों ने मिल कर उस कुएँ का मुँह खोला और फिर उन दोनों औरतों को एक-एक करके उसके अन्दर फेंक दिया अफसोस! अफसोस! अफसोस! भूतनाथ को इस दुष्कर्म का क्या नतीजा भोगना पड़ेगा इस पर उसके कुछ भी ध्यान न दिया!

दोनों बेचारियों को कुएँ में ढकेल कर भूतनाथ ने ध्यान देकर और कान लगा कर सुना कि नीचे गिरने की आवाज आती हैं या नहीं मगर किसी तरह की आवाज उसके कान में न गई जिससे उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ।

उन दोनों को कुएँ में ढकेलने के बाद रामदास दौड़ा हुआ गया और इन्दुमति को उठा लाया। भूतनाथ ने उसे भी कुएँ के अन्दर ढकेल दिया और फिर पत्थर से उसका मुँह उसी तरह ढांक दिया जैसा पहिले था।

इस काम से छुट्टी पाकर भूतनाथ और रामदास ने यह सोचा कि अब बाकी की औरतें जो इस घाटी में मौजूद हैं उन्हें भी मार कर बखेड़ा तय कर देना चाहिए क्योंकि इनमें से अगर एक भी जीती रह जायगी तो भण्डा फूटने का डर लगा ही रह जायगा अस्तु यह निश्चय किया गया कि उन सभों के लिये कोई दूसरा कुआँ खोजना चाहिए, क्योंकि जिस कुएँ में जमना और सरस्वती तथा इन्दु को डाला है उसके अन्दर घुस कर देखना उचित है कि उसमें पानी हैं कि नहीं अथवा उसके अन्दर का क्या हाल है।

आखिर ऐसा ही हुआ, उस कुएँ से थोड़ी दूर पहाड़ के कुछ ऊपर चढ़ कर एक कुआँ और था जिसका मुँह बहुत चौड़ा था। भूतनाथ और रामदास दोनों आदमी सब बेहोश लौंडियों को बँगले के अन्दर और बाहर से उठा लाये और एक-एक करके उस कुएँ के अन्दर डाल दिया। आह, भूतनाथ का कैसा कड़ा कलेजा था और यह कैसा घृणित काम उसने किया! अब उस घाटी के अन्दर कोई भी न रहा जो इन दोनों की खबर ले।

अब सबेरा हो गया बल्कि सूर्य भगवान भी उदयाचल से निकल कर अपनी आँखों से भूतनाथ और रामदास के कुकर्म देखने लगे।

भूतनाथ और रामदास उस कुएँ पर आये जिसमें जमना, सरस्वती और इन्दुमति को ढकेल दिया था। भूतनाथ ने रामदास से कहा कि तू कमन्द के सहारे इस कुएँ के अन्दर उतर जा और देख कि इसमें पानी है या नहीं।

भूतनाथ की आज्ञानुसार रामदास कमन्द थाम कर उसके अन्दर उतर गया। कमन्द का दूसरा सिरा भूतनाथ ने एक पत्थर से मजबूती के साथ अड़ा दिया था, रामदास ने नीचे आकर आवाज दी- ‘‘गुरुजी, यह कुआँ इस लायक नहीं था कि इसके अन्दर दुश्मनों को डाला जाता बल्कि यह तो स्वर्ग से भी बढ़ कर सुख देने वाला है। लीजिए अब कमन्द को छोड़ता हूँ लीजिये, क्योंकि अब मैं बाहर आने से रहा।

रामदास की बात सुन कर भूतनाथ को बड़ा आश्चर्य हुआ और जब उसने कमन्द खैंच कर देखा तो वास्तव में उसे ढीला पाया।

दूसरा भाग : सोलहवाँ बयान

धीरे-धीरे बिल्कुल कमन्द खिंच कर भूतनाथ के हाथ में आ गया और तब वह बड़ी ही बेचैनी के साथ कुएँ के अन्दर झाँक कर देखने लगा मगर अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं दिया।

रामदास भूतनाथ का बहुत ही प्यारा शागिर्द था और साथ ही इसके भूतनाथ को उस पर विश्वास भी परले सिरे का था इस मौके पर हरदेई की सूरत में जो कुछ काम उसने किया था उससे भूतनाथ बहुत प्रसन्न था और समझता था कि मेरा यह होनहार शागिर्द निःसन्देह किसी दिन मेरा ही स्वरूप हो जायगा! केवल इतना ही नहीं, जिस तरह भूतनाथ उसे लड़के के समान मानता था उसी तरह रामदास भी भूतनाथ को पिता-तुल्य मानता था, अस्तु ऐसे रामदास का इस तरह कुएँ के अन्दर जाकर बेमुरौवत हो जाना कोई मामूली बात न थी, इससे भूतनाथ को बड़ा ही सदमा हुआ और उसने ऐसा समझा कि मानों पला-पलाया और दुनिया में नाम पैदा करने वाला बराबर का लड़का जिसे निधिरूप समझता था हाथ से निकला जा रहा हैं।

भूतनाथ इस सदमे को बर्दाशत नहीं कर सकता था और उससे यह नहीं हो सकता था कि ऐसी अवस्था में छोड़ कर वहाँ से चला जाय।

कुछ देर तक सोचने और विचारने के बाद भूतनाथ ने कमन्द का एक सिरा पत्थर के साथ अड़ाया और तब खुद भी उसी सहारे नीचे उतर गया।

भूतनाथ को विश्वास था कि कुएँ के नीचे या तो पानी होगा या बिल्कुल सूखे में कला बिमला और इन्दुमति की लाश पावेगा और वहीं अपने प्यारे शागिर्द रामदास को भी देखेगा मगर ये सब कुछ भी बातें न थीं। न तो वह कुआँ सूखा था और न उसमें पानी ही दिखाई दिया इसी तरह कला बिमला इन्दुमति और रामदास का भी वहाँ नामोनिशान न था।

कमर बराबर मुलायम और गुदगुदी घास कुएँ की तह में जमी हुई थी जिस पर खड़े होकर भूतनाथ ने सोचा कि कोई आदमी ऊपर से इस घास पर गिर कर चुटीला नहीं हो सकता, अतएव निश्चय है कि कला बिमला और इन्दुमति मरी न होगी मगर आश्चर्य है कि यहाँ उनमें से एक भी नजर नहीं आती और न रामदास ही का कुछ पता है।

उस कुएँ की तह में बिल्कुल ही अंधकार था इसलिए अच्छी तरह देखने-ढूँढने और जाँच करने के लिए भूतनाथ ने अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर रोशनी की और बड़े गौर से तरफ देखने लगा।

अन्दर से वह कुआँ बहुत चौड़ा था और उसकी दीवारें संगीन थीं। जब कोई आदमी वहाँ नजर न आया तब भूतनाथ ने उस घास के अंदर टटोलना और ढूँढना शुरू किया मगर इससे भी कोई काम न चला।

हाँ, दो बातें जरूर ताज्जुब की वहाँ दिखाई पड़ीं एक तो उस कुएँ की दीवार में से (चारों तरफ) थोड़ा-थोड़ा पानी टपक कर तह में आ रहा था जिससे सिर्फ वहाँ की घास जो एक अजीब किस्म की थी बराबर तह और ताजा बनी रहती थी, दूसरे छोटे-छोटे दो दरवाजे भी दीवार में दिखाई दिये जो एक-दूसरे के मुकाबले में थे भूतनाथ बड़े ही आश्चर्य से उन दोनों दरवाजों को देख रहा था क्योंकि जब कुएँ में इधर-उधर घूमता तो कभी कोई दरवाजा (उन दोनो में से) बंद हो जाता और कोई खुल जाता मगर जब वह कुछ देर तक एक ही जगह पर स्थिर भाव से खड़ा रह जाता तब वे दरवाजे भी ज्यों-के-त्यों एक ही ढंग पर कायम रह जाते अर्थात जो खुल जाता वह खुला ही रह जाता और जो बन्द होता वह बन्द ही रह जाता अस्तु भूतनाथ ने समझा कि इन दरवाजों के खुलने और बन्द होने के लिए वहाँ की जमीन ही में कदाचित कोई कमानी लगी हुई है। वह बहुत देर तक इधर-उधर घूम कर इन दरवाजों के खुलने और बन्द होने का तमाशा देखता रहा।

इसी बीच में एकाएक गाने की सुरीली आवाज भूतनाथ के कानों में पड़ी जो किसी औरत की मालूम पड़ रही थी और उन्हीं दोनों में से एक दरवाजे के अन्दर से आ रही थी तथा थोड़ी देर बाद ही पखावज तथा कई पाजेबों के बजने की आवाज आई जो सम और ताल से खाली न थी। कभी-कभी गाने की आवाज एक-दम बंद हो जाती और केवल पाजेब की आवाज सुनाई देती जिससे भास होता कि वे सब औरतें (या जो कोई हों) पखावज की गत के साथ मिल कर नाच रही हैं।

अब भूतनाथ से ज्यादे देर तक ठहरा न गया और वह हाथ में मोमबत्ती लिए हुए उस दरवाजे के अन्दर घुस गया जिसके अन्दर से गाने तथा घुँघरू के बजने की आवाज आ रही थीं।

दरवाजे के अन्दर पैर रखते ही भूतनाथ को मालूम हो गया कि यहाँ तो खासी लम्बी-चौड़ी इमारत बनी हुई है और ताज्जुब नहीं कि कुछ और आगे बढ़ने से बड़े-बड़े दालान और कमरे भी दिखाई पड़ें, वास्तव में बात भी ऐसी ही थी।

कुछ दूर आगे बढ़ते ही भूतनाथ ने उजाला पाया और देखा कि एक सुन्दर दालान में चार या पाँच औरतें हाथ में मशाल लिये खड़ी हैं और कई औरतें गा-बजा तथा कई नाच रही हैं। यद्यपि भूतनाथ के दिल में आगे बढ़ कर देखने और उन लोगों को पहिचानने का उत्साह भरा हुआ था मगर साथ ही इसके वह डरता भी था कि आगे बढ़ने से कहीं मुझ पर कोई आफत न आवे।

भूतनाथ ने मोमबत्ती बुझा कर बटुए में रख ली और हाथ में खंजर लेकर दबे कदम धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। ओफ, यह क्या भूतनाथ के लिए कोई कम आश्चर्य की बात है कि उन औरतों में भूतनाथ ने अपने प्यारे शागिर्द रामदास को भी नाचते हुए देखा और मालूम किया कि वह अपनी धुन में ऐसा मस्त हो रहा है कि उसे किसी बात की मानो परवाह ही नहीं है। सबसे ज्यादे आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह (रामदास) भूतनाथ को देखकर बहुत रंज हुआ और कड़े शब्दों की बौछार करते हुए उसने भूतनाथ को निकल जाने के लिए कहा।

।। दूसरा भाग समाप्त ।।



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