भूतनाथ (उपन्यास) खण्ड 1 : देवकीनन्दन खत्री
Bhootnath (Novel) : Devaki Nandan Khatri
पहिला भाग : पहिला बयान
मेरे पिता ने तो मेरा नाम गदाधरसिंह रक्खा था और बहुत दिनों तक मैं इसी नाम से प्रसिद्ध भी था परन्तु समय पड़ने पर मैंने अपना नाम भूतनाथ रख लिया था और इस समय यही नाम बहुत प्रसिद्ध हो रहा है। आज मैं श्रीमान् महाराज सुरेन्द्रसिंह जी की आज्ञानुसार अपनी जीवनी लिखने बैठा हूँ, परन्तु मैं इस जीवनी को वास्तव में जीवन के ढंग और नियम पर न लिख कर उपन्यास के ढंग पर लिखूँगा, क्योंकि यद्यपि लोगों का कथन यही है, ‘‘तेरी जीवनी से लोगों को नसीहत होगी’’ परन्तु ऐबों और भयानक घटनाओं से भरी हुई मेरी नीरस जीवनी कदाचित लोगों को रुचिकर न हो, इस खयाल से जीवनी का रास्ता छोड़ इस लेख को उपन्यास के रूप में लाकर रस पैदा करना ही मुझे आवश्यक जान पड़ा। प्रेमी पाठक महाशय यही समझें कि किसी दूसरे ही आदमी ने भूतनाथ का हाल लिखा है, स्वयं भूतनाथ ने नहीं, अथवा इसका लेखक कोई और ही है।
जेठ का महीना और शुक्ल-पक्ष की चतुर्दशी का दिन है। यद्यपि रात पहर-भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है और आँखों में ठण्ढक पहुँचाने वाले चन्द्रदेव भी दर्शन दे रहे हैं परन्तु दिन भर की धूप और लू की बदौलत गरम भई हुई जमीन, मकानों की छतें और दीवारें अभी तक अच्छी तरह ठण्डी नहीं हुईं, अब भी कभी-कभी सहारा दे देने वाले हवा के झपटे में गर्मी मालूम पड़ती है और बदन से पसीना निकल रहा है।
बाग में सैर करने वाले शौकीनों को भी पंखे की जरूरत है, और जंगल में भटकने वाले मुसाफिरों को भी पेड़ों की आड़ बुरी मालूम पड़ती है।
ऐसे समय में मिर्जापुर से बाईस कोस दक्खिन की तरफ हट कर छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर जिस पर बड़े-बड़े घने पेड़ों की कमी तो नहीं है मगर इस समय पत्तों की कमी के सबब से जिसकी खूबसूरती नष्ट हो गई है, एक पत्थर की चट्टान पर हम ढाल-तलवार तथा तीर-कमान लगाए हुए दो आदमियों को बैठे देखते हैं जिनमें से एक औरत और दूसरा मर्द है। औरत की उम्र चौदह या पन्द्रह वर्ष की होगी मगर मर्द की उम्र बीस वर्ष से कम मालूम नहीं होती।
यद्यपि इन दोनों की पोशाक मामूली सादी और बिल्कुल ही साधारण ढंग की है मगर सूरत-शक्ल से यही जान पड़ता है कि ये दोनों साधारण व्यक्ति नहीं हैं बल्कि किसी अमीर बहादुर और क्षत्री खानदान के होनहार हैं। जिस तरह मर्द चपकन, पायजामा, कमरबन्द और मुड़ासा पहिरे हुए है उसी तरह औरत ने भी चपकन, पायजामा, कमरबन्द और मुड़ासे से अपनी सूरत मर्दाने ढंग की बना रक्खी है। यकायक सरसरी निगाह से देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि यह औरत है, मगर हम खूब जानते हैं कि यह कमसिन औरत नौजवान लड़की है जिसकी खूबसूरती मर्दानी पोशाक पहिरने पर भी यकताई का दावा करती है, मगर जिसकी शर्मीली आँखें कहे देती हैं कि इसमें ढिठाई और दबंगता बिल्कुल नहीं हैं।
इस समय ये दोनों परेशान और बद-हवास हैं, दिन-भर के चले और थके हुए हैं, चेहरे पर गर्द पड़ी है, सुस्त होकर पत्थर की चट्टान पर बैठ गए हैं। तथा रात्रि का समय भी है, इसलिए यहाँ पर इन दोनों की खूबसूरती तथा नखशिख का वर्णन करके हम श्रृंगार रस पैदा करना उचित नहीं समझ कर केवल इतना ही कह देना काफी समझते हैं कि ये दोनों सौ-दो-सौ खूबसूरतों में खूबसूरत हैं। इन दोनों की अवस्था इनकी बातचीत से जानी जायगी। अस्तु आइए और छिप कर सुनिए कि इन दोनों में क्या बातें हो रही हैं।
औरत : वास्तव में हम लोग बहुत दूर निकल आए।
मर्द : अब हमें किसी का डर भी नहीं है।
बाग में सैर करने वाले शौकीनों को भी पंखे की जरूरत है, और जंगल में भटकने वाले मुसाफिरों को भी पेड़ों की आड़ बुरी मालूम पड़ती है।
ऐसे समय में मिर्जापुर से बाईस कोस दक्खिन की तरफ हट कर छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर जिस पर बड़े-बड़े घने पेड़ों की कमी तो नहीं है मगर इस समय पत्तों की कमी के सबब से जिसकी खूबसूरती नष्ट हो गई है, एक पत्थर की चट्टान पर हम ढाल-तलवार तथा तीर-कमान लगाए हुए दो आदमियों को बैठे देखते हैं जिनमें से एक औरत और दूसरा मर्द है। औरत की उम्र चौदह या पन्द्रह वर्ष की होगी मगर मर्द की उम्र बीस वर्ष से कम मालूम नहीं होती।
यद्यपि इन दोनों की पोशाक मामूली सादी और बिल्कुल ही साधारण ढंग की है मगर सूरत-शक्ल से यही जान पड़ता है कि ये दोनों साधारण व्यक्ति नहीं हैं बल्कि किसी अमीर बहादुर और क्षत्री खानदान के होनहार हैं। जिस तरह मर्द चपकन, पायजामा, कमरबन्द और मुड़ासा पहिरे हुए है उसी तरह औरत ने भी चपकन, पायजामा, कमरबन्द और मुड़ासे से अपनी सूरत मर्दाने ढंग की बना रक्खी है। यकायक सरसरी निगाह से देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि यह औरत है, मगर हम खूब जानते हैं कि यह कमसिन औरत नौजवान लड़की है जिसकी खूबसूरती मर्दानी पोशाक पहिरने पर भी यकताई का दावा करती है, मगर जिसकी शर्मीली आँखें कहे देती हैं कि इसमें ढिठाई और दबंगता बिल्कुल नहीं हैं।
इस समय ये दोनों परेशान और बद-हवास हैं, दिन-भर के चले और थके हुए हैं, चेहरे पर गर्द पड़ी है, सुस्त होकर पत्थर की चट्टान पर बैठ गए हैं। तथा रात्रि का समय भी है, इसलिए यहाँ पर इन दोनों की खूबसूरती तथा नखशिख का वर्णन करके हम श्रृंगार रस पैदा करना उचित नहीं समझ कर केवल इतना ही कह देना काफी समझते हैं कि ये दोनों सौ-दो-सौ खूबसूरतों में खूबसूरत हैं। इन दोनों की अवस्था इनकी बातचीत से जानी जायगी। अस्तु आइए और छिप कर सुनिए कि इन दोनों में क्या बातें हो रही हैं।
औरत : वास्तव में हम लोग बहुत दूर निकल आए।
मर्द : अब हमें किसी का डर भी नहीं है।
औरत : है तो ऐसा ही परन्तु घोड़ों की तरफ से जरा-सा खुटका होता है, क्योंकि हम दोनों के मरे हुए घोड़े अगर कोई जान-पहिचान का आदमी देख लेगा तो जरूर इसी प्रान्त में हम लोगों को खोजेगा।
मर्द : फिर भी कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि उन घोड़ों को भी हम लोग कम-से-कम दो कोस पीछे छोड़ आए हैं।
औरत : बेचारे घोड़े अगर मर न जाते तो हम लोग और भी कुछ दूर आगे निकल गए होते।
मर्द : यह गर्मी का जमाना, इतने कड़ाके की धूप और इस तेजी के साथ इतना लम्बा सफर करने पर भी घोड़े जिन्दा रह जायं तो बड़े ताज्जुब की बात है!!
औरत : ठीक है, अच्छा यह बताइए कि अब हम लोगों को क्या करना होगा?
मर्द : इसके सिवाय और किसी बात की जरूरत नहीं है कि हम लोग किसी दूसरे राज्य की सरहद में जा पहुँचें। ऐसा हो जाने पर फिर हमें किसी का डर न रहेगा, क्योंकि हम लोग किसी का खून करके नहीं भागे हैं, न किसी की चोरी की है, और न किसी के साथ अन्याय या अधर्म करके भागे हैं, बल्कि एक अन्यायी हाकिम के हाथ से अपना धर्म बचाने के लिए भागे हैं। ऐसी अवस्था में किसी न्यायी राजा के राज्य में पहुँच जाते ही हमारा कल्याण होगा।
औरत : निःसन्देह ऐसा ही है, फिर आपने क्या विचार किया, किसके राज्य में जाने का इरादा है?
मर्द : मुझे तो राजा सुरेन्द्रसिंह का राज्य बहुत ही पसन्द है, वह राजा धर्मात्मा और न्यायी हैं तथा उनका राज्य भी बहुत दूर नहीं है, यहाँ से केवल तीन ही चार कोस और आगे निकल चलने पर उनकी सरहद में पहुँच जायेंगे।
औरत : वाह वाह! तो इससे बढ़ कर और क्या बात हो सकती है! आप यहाँ क्यों अटके हुए हैं? आगे बढ़ कर चलिए, जहाँ इतनी तकलीफ उठाई वहाँ थोड़ी और सही।
मर्द : मैं भी इसी खयाल में हूँ मगर अपने नौकरों का इन्तजार कर रहा हूँ, क्योंकि उन्हें अपने से मिलने के लिए यही ठिकाना बताया हु्आ है।
औरत : जब राजा सुरेन्द्रसिंह की सरहद इतनी नजदीक है और रास्ता आपका देखा हुआ है तो ऐसी अवस्था में यहाँ ठहर कर नौकरों का इन्तजार करना मेरी राय में तो ठीक नहीं है।
मर्द : तुम्हारा कहना ठीक है और नौगढ़ का रास्ता भी मेरा देखा हुआ है परन्तु रात का समय है और इस तरफ का जंगल बहुत ही घना और भयानक है तथा रास्ता भी पथरीला और पेचीदा है, सम्भव है कि रास्ता भूल जाऊँ और किसी दूसरी ही तरफ जा निकलूँ। यदि मैं अकेला होता तो कोई गम न था मगर तुमको साथ लेकर रात्रि के समय भयानक जानवरों से भरे हुए ऐसे घने जंगल में घुसना उचित नहीं जान पड़ता। मगर देखो तो सही (गर्दन उठा कर और गौर से नीचे की तरफ देख कर) वे शायद हमारे ही आदमी तो आ रहे हैं! मगर गिनती में कम मालूम होते हैं।
औरत : (गौर से देख कर) ये तो केवल तीन ही चार आदमी हैं, शायद कोई और हों।
मर्द : देखो ये लोग भी इसी पहाड़ी के ऊपर चले आ रहे हैं, अगर ये कोई और हैं तो उनका यहाँ आकर तुम्हें देख लेना अच्छा न होगा! इसलिए मैं जरा आगे बढ़ कर देखता हूँ कि कौन हैं।
इतना कह कर वह नौजवान उठ खड़ा हुआ और उसी तरफ बढ़ा जिधर से वे लोग आ रहे थे। कुछ ही दूर आगे बढ़ने और पहाड़ी के नीचे उतरने पर उन लोगों का सामना हो गया। यद्यपि रात का समय था और केवल चांदनी ही का सहारा था, तथापि सामना होते ही एक ने दूसरे को पहिचान लिया। हमारे नौजवान को मालूम हो गया कि ये हमारे दुश्मन के आदमी हैं और उन लोगों को निश्चय हो गया कि हमारे मालिक को इसी नौजवान की गिरफ्तारी की जरूरत है।
ये लोग जो दूर से गिनती में तीन-चार मालूम पड़ते थे वास्तव में छः आदमी थे जो हर तरह से मजबूत और लड़ाई के सामान से दुरुस्त थे। ढाल-तलवार के अलावे सभों के कमर में खञ्जर और हाथ में नेजा था। उन सभों में से एक ने आगे बढ़कर नौजवान से कहा, ‘‘बड़ी खुशी की बात है कि आप स्वयम् हम लोगों के सामने चले आए। कल से हम लोग आपकी खोज में परेशान हो रहे हैं बल्कि सच तो यों है कि ईश्वर ही ने हम लोगों को यहाँ तक पहुंचा दिया और यहाँ आपका सामना हो गया।
क्षमा कीजिएगा, आप हमारे अफसर और हाकिम रह चुके हैं इसलिए हम लोग आपके साथ बेअदबी नहीं करना चाहते मगर क्या करें मालिक के हुक्म से लाचार हैं, जिसका नमक खाते हैं। इस बात को हम लोग खूब जानते हैं कि आप बिल्कुल बेकसूर हैं और आप पर व्यर्थ ही जुल्म किया जा रहा है, परन्तु...
नौजवान : ठीक है, ठीक है, मेरे प्यारे गुलाबसिंह! मैं तुम्हें अभी तक वैसा ही समझता हूं और प्यार करता हूँ क्योंकि तुम वास्तव में नेक हो और मुझ से मुहब्बत रखते हो। तुम बेशक मुझे गिरफ्तार करने के लिए आये हो और मालिक के नमक का हक अदा किया चाहते हो, अस्तु मैं खुशी से तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि मुझे गिरफ्तार करके अपने मालिक के पास ले चलो, परन्तु क्षत्रियों का धर्म निबाहने के लिए मैं गिरफ्तार न होकर तुमसे लड़ाई अवश्य करूँगा, इसी तरह तुम्हें भी मेरा मुलाहिजा न करना चाहिए।
गुलाब० : ठीक है, बेशक ऐसा ही चाहिए, परन्तु (कुछ सोच कर) मेरा हाथ आपके ऊपर कदापि न उठेगा! मुझे अपने जालिम मालिक की तरफ से बदनामी उठाना मंजूर है परन्तु आप ऐसे बहादुर और धर्मात्मा के आगे लज्जित होना स्वीकार नहीं है। हाँ मैं अपने साथियों को ऐसा करने के लिए मजबूर न करूँगा, ये लोग जो चाहें करें।
यह सुनते ही गुलाबसिंह के साथियों में से एक आदमी बोल उठा, ‘‘नहीं नहीं, कदापि नहीं, हम लोग आपके विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकते और आपकी ही आज्ञापालन अपना धर्म समझते हैं। सज्जनों और धर्मात्माओं की आज्ञा पालने का नतीजा कभी बुरा नहीं होता!’’
इसके साथ ही गुलाबसिंह के बाकी साथी भी बोल उठे, ‘‘बेशक ऐसा ही है, बेशक ऐसा ही है!’’
गुलाब० : (प्रसन्नता से) ईश्वर की कृपा है कि मेरे साथी लोग भी मेरी इच्छानुसार चलने के लिए तैयार हैं। (नौजवान से) अब आप ही आज्ञा कीजिए कि हम लोग क्या करें? क्योंकि अब भी मैं अपने को आपका दास ही समझता हूँ।
नौजवानः मेरे प्यारे गुलाबसिंह, शाबाश!
इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारे ऐसे नेक और बहादुर आदमी का साथ बड़े भाग्य से होता है। मैं तुम्हें अपने आधीन पाकर बहुत ही प्रसन्न था और अब भी यही इच्छा रहती है कि ईश्वर तुम्हें मेरा साथी बनाये, मगर क्या करूँ, लाचार हूँ, क्योंकि आज मेरा वह समय नहीं है। आज मुसीबत के फन्दे में फंस जाने से मैं इस योग्य नहीं रहा कि तुम्हारे ऐसे बहादुरों का साथ....(लम्बी साँस लेकर) अस्तु ईश्वर की मर्जी, जो कुछ वह करता है अच्छा ही करता है, कदाचित् इसमें भी मेरी कुछ भलाई ही होगी। (कुछ सोच कर) मैं तुम्हें क्या बताऊँ कि क्या करो? तुम्हारे मालिक ने बेशक धोखा खाया कि मेरी गिरफ्तारी के लिए तुम्हें भेजा, इतने दिनों तक साथ रहने पर भी उसने तुम्हें और मुझे नहीं पहिचाना। मुझे इस समय कुछ भी नहीं सूझता कि तुम्हें क्या नसीहत करूं और किस तरह उस दुष्ट का नमक खाने से तुम्हें रोकूँ!
गुलाब० : (कुछ सोच कर) खैर कोई चिन्ता नहीं, जो होगा देखा जायगा। इस समय मैं आपका साथ कदापि न छोड़ूँगा और इस मुसीबत में आपको अकेले भी न रहने दूँगा। जो कुछ आप पर बीतेगी उसे मैं भी सहूँगा। (अपने साथियों से) भाइयो, अब तुम लोग जहाँ चाहे जाओ और जो मुनासिब समझो करो, मैं तो अब इनके दुःख-सुख का साथी बनता हूँ। यद्यपि ये (नौजवान) उम्र में मुझसे बहुत छोटे हैं परन्तु मैं इन्हें अपना पिता समझता हूँ और पिता ही की तरह इन्हें मानता हूँ, अस्तु जो कुछ पुत्र का धर्म है मैं उसे निबाहूँगा। मैं इनको गिरफ्तार करने की आज्ञा पाकर बहुत प्रसन्न था और यही सोचे हुआ था कि इस बहाने से इन्हें ढूँढ़ निकालूँगा और सामना होने पर इनकी सेवा स्वीकार करूँगा।
गुलाबसिंह की बातें सुन कर उसके साथियों ने जवाब दिया, ‘‘ठीक है, जो कुछ उचित था आपने किया परन्तु आप हम लोगों का तिरस्कार क्यों कर रहे हैं? क्या हम लोग आपकी सेवा करने के योग्य नहीं हैं? या हम लोगों को आप बेईमान समझते हैं?’’
गुलाब० : नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं है, मगर बात यह है कि जो कोई मुसीबत में पड़ा हो उसका साथ देने वाले को भी मुसीबत झेलनी पड़ती है, अस्तु मुझ पर तो जो कुछ बीतेगी उसे झेल लूँगा, तुम लोगों को जान-बूझ कर क्यों मुसीबत में डालूँ! इसी ख्याल से कहता हूँ कि जहाँ जी में आवे जाओ और जो कुछ मुनासिब समझो करो।
गुलाबसिंह के साथी: नहीं-नहीं, ऐसा कदापि न होगा और हम लोग आपका साथ कभी न छोड़ेंगे। आप आज्ञा दें कि अब हम लोग क्या करें।
गुलाब० : (कुछ सोच कर) अच्छा, अगर तुम लोग हमारा साथ देना ही चाहते हो तो जो कुछ हम कहते हैं उसे करो। यहाँ से इसी समय चले जाओ, (नौजवान की तरफ बता कर) इनके मकान में जिसे राजा साहब ने जब्त कर लिया है रात के समय जिस तरह सम्भव हो घुस कर जहाँ तक दौलत हाथ लगे और उठा सको निकाल कर ले आओ और पिपलिया घाटी में जहां का पता तुम लोगों को मालूम है हमसे मिलो, अगर वहाँ हमसे मुलाकात न हो तो टिक कर हमारा इन्तजार करो।
गुलाबसिंह की बात सुन कर उसके साथियों ने ‘‘जो आज्ञा’’ कह कर सलाम किया और वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद गुलाबसिंह ने नौजवान से कहा, ‘‘इस समय इन लोगों को बिदा कर देना ही मैंने उचित जाना। यद्यपि ये लोग मेरे साथ रहने में प्रसन्नता प्रकट करते हैं परन्तु कुछ टेढ़ा काम लेकर जाँच कर लेना जरूरी है।’’
नौजवान : ठीक है, तुम्हारे ऐसे होशियार आदमी के लिए यह कोई नई बात नहीं है।
गुलाब० : अच्छा अब यह बताइए कि आपको मुझ पर विश्वास है या नहीं? या इस विषय में आपको कुछ जांच करने की आवश्यकता है?
नौज० : नहीं-नहीं, मुझे कुछ जांच करने की जरूरत नहीं है, मुझे तुम पर पूरा-पूरा विश्वास और भरोसा है, मैं तुमसे मिलकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। ऐसी अवस्था में यकायक सामना हो जाने पर भी मुझे किसी तरह का खुटका नहीं हुआ था।
गुलाब० : ईश्वर आपका मंगल करे, अब कृपा कर यह बताइए कि आप मुझे अकेले क्यों दिखाई देते हैं और अब आपका इरादा क्या है?
नौज० : मैं अकेला नहीं हूँ, मेरी स्त्री भी मेरे साथ है (हाथ का इशारा करके) उस पहाड़ी के ऊपर उसे अकेला छोड़ आया हूँ।
हम दोनों आदमी वहाँ बैठे अपने नौकरों का इंतजार कर रहे थे कि यकायक तुम लोगों पर निगाह पड़ी, अस्तु उसे उसी जगह छोड़ कर तुम लोगों का पता लगाने के लिए मैं नीचे उतर आया था, अब तुम मेरे साथ वहाँ चलो और उससे मिलो, वह तुम्हें देखकर बहुत ही प्रसन्न होगी। इस आफत में भी वह तुम्हें बराबर याद करती रही।
गुलाब० : चलिए, शीघ्र चलिए।
गुलाबसिंह को साथ लेकर नौजवान उस तरफ रवाना हुआ जहाँ अपनी स्त्री को अकेला छोड़ आया था।
गुलाबसिंह क्षत्री खानदान का एक बहादुर और ताकतवर आदमी था, वह बहुत ही नेक, रहमदिल और धर्म का सच्चा पक्षपाती था, साथ-ही-साथ वह बदमाशों की चालबाजियों को खूब समझता था और अच्छे लोगों में से बेईमानों और दगाबाजों को छाँट निकालने में भी विचित्र कारीगर था। वह उस नौजवान और उसकी स्त्री से सच्ची मुहब्बत और हमदर्दी रखता था। जिसका बहुत बड़ा सबब यह था कि उस स्त्री के पिता ने बहुत संकट के समय गुलाबसिंह की सच्ची सहायता की थी और गुलाबसिंह को लड़के की तरह मानता था।
इस जगह पर इस नौजवान और इसकी सुशीला स्त्री का नाम खोल देना उचित समझते हैं, मगर इस बात को अभी न खोलेंगे कि ये दोनों कौन हैं और इनके इस तरह बेसरोसामान भागने का सबब क्या है।
नौजवान का नाम प्रभाकरसिंह है और स्त्री का नाम इन्दुमति। प्रभाकरसिंह की शादी इन्दुमति के साथ भये हुए आज एक वर्ष और सात महीने हो चुके हैं।
प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह बातचीत करते हुए इन्दुमति की तरफ रवाना हुए और बहुत जल्द वहाँ पहुँचे जहाँ इन्दुमति चिन्ता-निमग्न बैठी हुई अपने पति का इन्तजार कर रही थी। पति को देखकर वह प्रसन्नता के साथ उठ बैठी और जब उसने गुलाबसिंह को पहिचाना तो बहुत खुश होकर बोली—
इन्दु० : मैं पहिले ही कहती थी कि गुलाबसिंह को हम लोगों के विषय में बड़ी चिन्ता होगी और वे जरूर हमारी सुध लेंगे।
गुलाब० : बेशक ऐसा ही है। इसीलिए जिस समय राजा साहब ने आप लोगों की गिरफ्तारी का काम मेरे सुपुर्द किया तो मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ और...
गुलाबसिंह अपनी बात पूरी न करने पाये थे कि लगभग चालीस-पचास गज की दूरी पर से सीटी बजने की आवाज आई जिसे सुनते ही तीनों चौंक पड़े और उसी तरफ देखने लगे। बेचारी इन्दु को दुश्मन का ख्याल आ गया और वह डरी हुई आवाज से बोली, ‘‘यहाँ तक भाग आने पर भी हम लोगों का खुटका न गया, इसी से मैं कहती थी कि जहाँ तक जल्द हो सके नौगढ़ की सरहद में हमें पहुँच जाना चाहिए!’’
गुलाब० : (इन्दु से) डरो मत, हम दोनों क्षत्रियों के रहते किसकी मजाल है कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ पहुँचा सके। इसके अतिरिक्त इस बात को भी समझ रक्खो कि आज दिन सिवाय उस बेईमान राजा के और कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है और उसकी तरफ से इस काम के लिए मैं ही भेजा गया हूँ, ऐसी अवस्था में किसी वास्तविक दुश्मन का ध्यान लगाना वृथा है, हाँ चोर-डाकू में से यदि कोई हो तो मैं नहीं कह सकता।
इन्दु० : खैर पेड़ों की आड़ में तो हो जाइए।
गुलाब० : हाँ इसके लिए कोई हर्ज नहीं।
इतने ही में पुनः सीटी की आवाज आई, मगर अबकी दफे की आवाज कुछ अजीब ढंग की थी। मालूम होता था कि कोई बंधे हुए इशारे के साथ झिरनी की आवाज देकर सीटी बुला रहा है। इस आवाज को सुनकर गुलाबसिंह हँस पड़ा और इन्दु तथा प्रभाकरसिंह की तरफ देख के बोला, ‘‘बस मालूम हो गया, डरने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि यह मेरे एक दोस्त की बजाई हुई सीटी है, मैं अभी जरूरी बातों से छुट्टी पाकर थोड़ी ही देर में आप लोगों से कहने वाला था कि यहाँ मेरे एक दोस्त का मकान है जिससे मिल कर आप बहुत प्रसन्न होंगे, और उनसे आपको सहायता भी पूरी-पूरी मिल सकती है। मैं अब इस सीटी का जवाब देता हूँ।
बहुत अच्छा हुआ जो अकस्मात वे खुद यहाँ आ पहुँचे। मालूम होता है कि मेरा यहाँ आना उन्हें मालूम हो गया!’’
इतना कह कर गुलाबसिंह ने भी कुछ अजीब ढंग की सीटी बजाई अर्थात् उस सीटी का जवाब दिया।
प्रभा० : भला अपने इस अनूठे दोस्त का नाम तो बता दो?
गुलाब० : आजकल इन्होंने अपना नाम भूतनाथ रख छोड़ा है।
प्रभा० :(कुछ सोच कर) यह नाम तो कई दफे मेरे कानों में पड़ चुका है और एक दफे ऐसा भी सुन चुका हूँ कि इस नाम का एक आदमी बड़ा ही भयानक है जिसके रहन-सहन का किसी को कुछ पता नहीं चलता।
गुलाब० : ठीक है, आपने ऐसा ही सुना होगा, परन्तु यह केवल दुष्टों और पापियों के लिए भयानक है।
गुलाबसिंह इससे ज्यादा कुछ कहने न पाया था कि सीटी बजाने वाला अर्थात् भूतनाथ वहाँ आ पहुँचा। प्रभाकरसिंह को सलाम करने के बाद भूतनाथ गुलाबसिंह के गले मिला और इसके बाद चारों आदमी पत्थर की चट्टानों पर बैठ कर इस तरह बातचीत करने लगे:-
गुलाब० : (भूतनाथ से) यहाँ यकायक आपका इस तरह आ पहुँचना बड़े आश्चर्य की बात है!!
भूतनाथ : आश्चर्य काहे का! यहाँ तो मेरा ठिकाना ही ठहरा, या यों कहिये कि यह दिन-रात का मेरा रास्ता ही है।
गुलाब० : ठीक है, मगर फिर भी आपका घर यहाँ से आधे घंटे की दूरी पर होगा ऐसी अवस्था में क्या जरूरी है कि आप दिन-रात इसी पहाड़ी पर दिखाई दें?
भूत० : (हँस कर) हाँ सो तो सच है, मगर आप जो यहाँ आ पहुँचे तो फिर क्या किया जाय, आखिर मुलाकात करना भी तो जरूरी ठहरा!
गुलाब० : (हँसी के साथ) बस तो सीधे यही क्यों नहीं कहते कि मेरा यहाँ आना आपको मालूम हो गया।
भूत० : बेशक आपका आना मुझे मालूम हो गया बल्कि और भी कई बातें मालूम हुईं हैं जिनसे आप लोगों को होशियार कर देना जरूरी है। (प्रभाकरसिंह की तरफ देखकर) अभी तक दुश्मनों से आपका पीछा नहीं छूटा, खाली गुलाबसिंह ही आपकी गिरफ्तारी के लिए नहीं भेजे गये बल्कि इनको भेजने के बाद आपके राजा साहब ने और भी बहुत से आदमी आप लोगों को पकड़ने के लिए भेजे जो इस समय इस पहाड़ी के इधर-उधर आ गये हैं और आपके आदमियों को भी उन लोगों ने गिरफ्तार कर लिया है जिनका शायद आप इन्तजार करते होंगे।
प्रभा० : (ताज्जुब में आकर) आपकी जुबानी बहुत-सी बातें मालूम हुईं! मुझे इन सब की कुछ भी खबर न थी। आप तो इस तरह बयान कर रहे हैं जैसे कोई जादूगर आइने के अन्दर जमाने भर की हालत देख-देख कर सभा में बयान करता हो!
गुलाब० : यही तो इनमें एक अनूठी बात है जिससे बड़े-बड़े नामी ऐयार दंग रहा करते हैं। इनसे किसी भेद का छिपा रहना बहुत ही कठिन है। (भूतनाथ से) अच्छा तो मेरे प्यारे दोस्त, मैं प्रभाकरसिंह और इन्दुमति को आपके सुपुर्द करता हूं। जिससे इनका कल्याण हो सो कीजिए। यह बात आपसे छिपी हुई नहीं है कि मैं इन्हें कैसा मानता हूँ।
भूत० : मैं सब जानता हूँ और इसीलिए यहाँ आया भी हूँ, परन्तु अब विशेष बातचीत करने का मौका नहीं, आप उठिए और मेरे पीछे आइए।
प्रभा० :(उठते हुए) मुझे अपने लिए कुछ भी फिक्र नहीं है, केवल बेचारी इन्दु के लिए मुझे नामर्दों की तरह भागने और अदने-अदने आदमियों से छिपकर चलने।।....
भूत० : (बात काट कर) मैं खूब जानता हूँ, मगर क्या कीजिएगा, समय पर सब कुछ करना पड़ता है, आँख रहते भी टटोलना पड़ता है!
सब कोई उठ कर भूतनाथ के पीछे-पीछे रवाना हुए।
जो कुछ हाल हम ऊपर बयान कर चुके हैं इसमें कई घंटे गुजर गये।
पिछले पहर की रात बीत रही है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, इन चारों के पैरों के तले दबने वाले सूखे पत्तों की चरमराहट के सिवाय और किसी तरह की आवाज सुनाई नहीं देती। भूतनाथ इन तीनों को साथ लिए हुए एक अनूठे और अनजान रास्ते से बात की बात में पहाड़ी के नीचे उतर आया और इसके बाद दक्षिण की तरफ जाने लगा।
जंगल ही जंगल लगभग आधा कोस के जाने के बाद ये लोग पुनः एक पहाड़ के नीचे पहुँचे। इस जगह का जंगल बहुत ही घना तथा रास्ता घूमघुमौवा और पथरीला था। भूतनाथ इस तरह घूमता और चक्कर देता हुआ पेचीली पगडंडियों पर जाने लगा कि कोई अनजान आदमी उसकी नकल नहीं कर सकता था, अथवा यों समझना चाहिए कि एक-दो दफे का जानकार आदमी भी धोखे में आकर भटक सकता था, किसी अनजान का जाना तो बहुत ही कठिन बात है।
कुछ ऊपर चढ़ने के बाद घूमता-फिरता भूतनाथ एक ऐसी जगह पहुँचा जहाँ पत्थरों के बड़े-बड़े ढोकों के अन्दर छिपी हुई एक गुफा थी। इन तीनों को लिए हुए भूतनाथ उस गुफा के अन्दर घुसा। आगे-आगे भूतनाथ, उसके पीछे गुलाबसिंह, उसके बाद इन्दुमति और सबसे पीछे प्रभाकरसिंह जाने लगे। कुछ दूर गुफा के अन्दर जाने के बाद भूतनाथ ने अपने ऐयारी बटुए में से सामान निकाल कर मोमबत्ती जलाई और उसकी रोशनी के सहारे अपने साथियों को ले जाने लगा, लगभग पचीस गज के जाने के बाद एक चौमुहानी मिली अर्थात् जहाँ से एक रास्ता सीधी तरफ चला गया था, दूसरा बाईं तरफ, और तीसरी सुरंग दाहिनी तरफ चली गई थी, तथा चौथा रास्ता वह था जिधर से ये लोग आये थे।
यहाँ तक तो रास्ता खुलता था मगर आगे का रास्ता बहुत ही बारीक और तंग था जिसमें दो आदमी बराबर से मिल कर नहीं चल सकते थे।
यहाँ पर आकर भूतनाथ अटक गया और मोमबत्ती की रोशनी में आगे की दोनों सुरंगों को बता कर अपने साथियों से बोला, ‘‘हमारे मकान में जाने वाले को इस दाहिनी तरफ वाली सुरंग में घुसना चाहिए। सामने अथवा बाईं तरफ वाली सुरंग में जाने वाला किसी तरह जीता नहीं बच सकता है।’’
इतना कह कर भूतनाथ दाहिनी तरफ वाली सुरंग में घुसा और कुछ दूर जाने के बाद उसने मोमबत्ती बुझा दी।
लगभग दो सौ कदम चले जाने के बाद यह सुरंग खतम हुई और उसका दूसरा मुहाना नजर आया। सबके पहले भूतनाथ सुरंग से बाहर हुआ, इसके बाद गुलाबसिंह और उसके पीछे इन्दुमति रवाना हुई, मगर प्रभाकरसिंह न निकले, तीनों आदमी घूमकर उनका इन्तजार करने लगे कि शायद पीछे रह गए हों मगर कुछ देर इन्तजार करने पर भी वे नजर न आये। इन्दुमति का कलेजा उछलने लगा, उसकी दाहिनी भुजा फड़क उठी और आँखों में आँसू डबडबा आये। भूतनाथ ने इन्दुमति और गुलाबसिंह को कहा, ‘‘तुम जरा इसी जगह दम लो, मैं सुरंग में घुस कर प्रभाकरसिंह का पता लगाता हूँ।’’ इतना कहकर भूतनाथ पुनः उसी सुरंग में घुस गया।
पहिला भाग : दूसरा बयान
प्रभाकरसिंह पीछे-पीछे चले आते थे, यकायक कैसे और कहाँ गायब हो गये? क्या उस सुरंग में कोई दुश्मन छिपा हुआ था जिसने उन्हें पकड़ लिया? या उन्होंने खुद हमें धोखा देकर हमारा साथ छोड़ दिया? इत्यादि तरह-तरह की बाते सोचती हुई इन्दु बहुत ही परेशान हुई, मगर इस आशा ने कि अभी-अभी भूतनाथ उनका पता लगा के सुरंग से लौटता ही होगा, उसे बहुत कुछ सम्हाला और वह एकदम सुरंग की तरफ टकटकी लगाये खड़ी देखती रही, परन्तु थोड़ी ही देर में उसकी यह आशा भी जाती रही जब उसने भूतनाथ को अकेले ही लौटते देखा और दुःख के साथ भूतनाथ ने बयान किया कि ‘उनसे मुलाकात नहीं हुई!
मेरी समझ मे नहीं आता कि क्या भेद है और उन्होंने हमारा साथ क्यों छोड़ा? क्योंकि अगर किसी छिपे हुए दुश्मन ने हमला किया होता तो कुछ मुँह से आवाज तो आई होती या चिल्लाते तो सही ’!
गुलाब० : नहीं भूतनाथ ऐसा तो नहीं हो सकता, प्रभाकरसिंह पर हम भागने का इलजाम तो नहीं लगा सकते।
भूत० : जी तो मेरा भी नहीं चाहता कि उनके विषय में मैं ऐसा कहूँ परन्तु घटना ऐसी विचित्र हो गई कि मैं किसी तरफ अपनी राय पक्की कर नहीं सकता।
हाँ इन्दुमति कदाचित इस विषय में कुछ कह सकती हों!
इतना कह कर भूतनाथ ने इन्दु की तरफ देखा मगर इन्दु ने कुछ जवाब न दिया, सिर झुकाये जमीन को देखती रही, मानों उसने कुछ सुना ही नहीं! अबकी दफे गुलाबसिंह ने उसे सम्बोधन किया जिससे वह चौकी और एकदम फूट-फूट कर रोने और कहने लगी, ‘‘बस मेरे लिए दुनिया इतनी ही थी, मालूम हो गया कि मेरी बदकिस्मती मेरा साथ न छोड़ेगी, मैं व्यर्थ ही आशा में पड़ कर दुःखी हुई और उन्हें भी दुःख दिया। मेरे ही लिए उन्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा और मुझ अभागिन के ही कारण उन्हें जंगल की खाक छाननी पडी। हाय, क्या अब मैं पूनः इस दुनिया में रह कर उनके दर्शन की आशा कर सकती हूँ? क्यों न इसी समय अपने दुखान्त नाटक का अन्तिम पर्दा गिरा कर निश्चिन्त हो जाऊँ?’’
इत्यादि इसी ढंग की बाते करती हुई इन्दु प्रलापावस्था को लांघ कर बेहोश हो गई और जमीन पर गिर पड़ी।
गुलाबसिंह और भूतनाथ को उसके विषय में बड़ी चिन्ता हुई और वे लोग उसे होश में लाकर समझाने-बुझाने तथा शान्त करने की चिन्ता करने लगे।
भूतनाथ का यह स्थान कुछ विचित्र ढंग का था। इसमें भूतनाथ की कोई कारीगरी न थी, इसे प्रकृति ही ने कुछ अनूठा और सुन्दर बनाया हुआ था। इसके विषय में अगर भूतनाथ की कुछ कारीगरी थी तो केवल इतनी ही कि उसने इसे खोज निकाला था, जिसका रास्ता बहुत ही कठिन और भयानक था। जिस जगह इन्दुमति, भूतनाथ और गुलाबसिंह खड़े हैं वहाँ से दिन के समय यदि आप आँख उठा कर चारों तरफ देखिये तो आपको मालूम होगा कि लगभग चौदह या पन्द्रह बिगहे की चौरस जमीन, चारों तरफ से ऊँचे-ऊँचे और सरसब्ज पहाड़ों से सुन्दर और सुहावने सरोवर के जल से घिरी हुई है। जिस तरह चारों तरफ के पहाड़ों पर खुशरंग फूल-पत्ती की बहुतायत दिखाई दे रही है उसी तरह यह जमीन भी नर्म घास की बदौलत सब्ज मखमली फर्श का नमूना बन रही हैं और जगह-जगह पर पहाड़ से गिरे हुए छोटे-छोटे चश्मे भी बह रहे हैं। यद्यपि आजकल पहाड़ों के लिये सरसब्जी का मौसम नहीं हैं मगर यहाँ पर कुछ ऐसी कुदरती तरावट है कि जिसके सबब से ‘पतझड़’ के मौसम का कुछ पता नहीं लगता, यों समझ सकते हैं कि बरसात के मौसिम में आजकल से कहीं बढ़-चढ़ कर खूबी खूबसूरती और सरसब्जी नजर आती होगी।
इस स्थान में किसी तरह की इमारत बनी हुई न थी मगर चारों तरफ के पहाड़ों में सुन्दर और सुहावनी गुफाओं और कन्दराओं की इतनी बहुतायत थी कि हजारों आदमी बड़ी खुशी और आराम के साथ यहाँ गुजारा कर सकते थे।
इन्हीं गुफाओं में भूतनाथ तथा उसके तीस-चालीस संगी-साथियों का डेरा था और इन्हीं गुफाओं में उसके जरूरत की सब चीजें और हर्बे इत्यादि रहा करते थे, तथा उसके पास जो कुछ दौलत थी वह भी कहीं इन्हीं जगहों में होगी, जिसका ठीक-ठीक पता उसके साथियों को भी न था, भूतनाथ का कथन है कि ऐसे-ऐसे कई स्थान उसके कब्जे में हैं और इस बात का कोई निश्चय नहीं हैं कि कब या कितने दिनों तक वह किस स्थान में अपना डेरा रखता है या रखेगा।
सुबह की सफेदी अच्छी तरह फैल चुकी थी भूतनाथ और गुलाबसिंह के उद्योग से इन्दुमति होश में आई। यद्यपि वह खुद इस खोह के बाहर होकर प्रभाकरसिंह की खोज में जान तक देने के लिए तैयार थी और ऐसा करने के लिए वह जिद्द भी कर रही थी मगर भूतनाथ और गुलाबसिंह ने उसे बहुत समझा-बुझा कर ऐसा करने से बाज रक्खा और वादा किया कि बहुत जल्द उनका पता लगाकर उनके दुश्मनों को नीचा दिखाएँगे।
ये सब बातें हो ही रही थीं कि भूतनाथ के आदमी गुफाओं और कन्दराओं मे से निकल कर वहाँ आ पहुँचे जिन्हें भूतनाथ ने अपनी ऐयारी भाषा में कुछ समझा-बुझा कर बिदा किया। इसके बाद एक स्वच्छ और प्रशस्त गुफा में जो उसके डेरे के बगल में थी इन्दुमति का डेरा लगा कर और गुलाबसिंह को उसके पास छोड़ कर वह भी उन दोनों से बिदा और अपने एक शागिर्द को साथ लेकर उसी सुरंग की राह अपनी इस दिलचस्प पहाड़ी के बाहर हो गया।
जब भूतनाथ सुरंग के बाहर हुआ तो सूर्य भगवान उदय हो चुके थे। उसे जरूरी कामों अथवा नहाने –धोने, खाने-पीने की कुछ भी फिक्र न थी, वह केवल प्रभाकरसिंह का पता लगाने की धुन में था।
यह वह जमाना था जब चुनार की गद्दी पर महाराज शिवदत्त को बैठे दो वर्ष का समय बीत चुका था, उसकी ऐयाशी की चर्चा घर-घर में फैल रही थी और बहुत से नालायक तथा लुच्चे शोहदे उसकी जात से फायदा उठा रहे थे।
उधर जमानिया में दारोगा साहब की बदौलत तरह-तरह की साजिशें हो रही थीं और उनकी कमेटी का दौरदौरा खूब अच्छी तरह तरक्की कर रहा था१ अस्तु इस समय खड़े होकर सोचते हुए भूतनाथ का ध्यान एक दफे जमानिया की तरफ और फिर दूसरी दफे चुनारगढ़ की तरफ गया।
सुरंग से बाहर निकल कर एक घने पेड़ के नीचे भूतनाथ बैठ गया और उसने अपने शागिर्द से, जिसका नाम भोलासिंह था, कहा–
भूत० : भोलासिंह, मुझे इस बात का शक होता है कि किसी दुश्मन ने इस खोह का रास्ता देख लिया और मौका पाकर उसने प्रभाकरसिंह को पकड़ लिया।
भोला० : मगर गुरु जी, मेरे चित्त में तो यह बात नहीं बैठती। क्या प्रभाकरसिंह इतने कमजोर थे कि आपके पीछे आते समय एक आदमी ने उन्हें पकड़ लिया और उनके मुँह से आवाज तक न निकली? इसके अतिरिक्त यह तो सम्भव ही न था कि बहुत से आदमी आपके पीछे-पीछे आते और आपको आहट भी न मिलती।
१. इसका खुलासा हाल ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ में लिखा जा चुका है.
भूत० : तुम्हारा कहना ठीक है और इन्हीं बातों को सोच कर मैं कह रहा हूँ कि दुश्मन के आने का शक होता है, यह नहीं कहता कि निश्चय होता है अस्तु जो कुछ हो, मैं प्रभाकरसिंह का पता लगाने के लिए जाता हूँ और तुमको इसी जगह छोड़ कर ताकीद कर जाता हूँ कि जब तक मैं लौट कर न आऊँ तब तक सूरत बदले हुए यहाँ पर रहो और चारों तरफ घूम-फिर कर टोह लो कि किसी दुश्मन ने इस सुरंग का पता तो नहीं लगा लिया हैं। अगर ऐसा हुआ होगा तो कोई-न-कोई यहाँ आता-जाता तुम्हें जरूर दिखाई देगा। यदि कोई जरूरत पड़े तो तुम निःसन्देह अपने डेरे (सुरंग के अन्दर) चले जाना, मैं इसके लिए तुम्हें मना नहीं करता मगर जो कुछ मेरा मतलब है उसे तुम जरूर अच्छी तरह समझ गए होगे।
भोला० : जी हाँ मैं अच्छी तरह समझ गया, जहाँ तक हो सकेगा मैं इस काम को होशियारी के साथ करूँगा, आप जहाँ इच्छा हो जाइए और इस तरफ से बेफिक रहिए।
भूत० : अच्छा तो अब मैं जाता हूँ।
इतना कहकर भूतनाथ भोलासिंह से बिदा हुआ और उसी घूमघुमौवे रास्ते से होता हुआ पहाड़ी के नीचे उतर आया, और इधर भोलासिंह देहाती ब्राहाण की सूरत बना जंगल में इधर-उधर घूमने लगा।
ठीक दोपहर का समय था धूप खूब कड़ाके की और गर्म-गर्म लू के झपेटे बदन को झुलसा रहे थे। ऐसे समय में भूतनाथ का शागिर्द भोलासिंह गर्मी से परेशान होकर एक घने पेड़ के नीचे बैठा आराम कर रहा था। यह स्थान यद्यपि उस सुरंग से लगभग दो-ढाई सौ कदम की दूरी पर होगा परन्तु यहाँ से घूमघुमौवे रास्ते और जंगली पेड़ों तथा लताओं की झाड़ियों के कारण बहुत ध्यान देने पर भी उस सुंरग का मुहाना दिखाई नहीं देता था। भोलासिंह बैठा सोच रहा था कि यकायक उसके कान में कुछ आदमियों के बोलने की आहट मालूम हुई।
हमारे पाठकों में से जो महाशय जंगल की हवा खा चुके या पहाड़ों की सैर कर चुके हैं उन्हें यह बात जरूर मालूम होगी कि जंगल में सन्नाटे के समय मुसाफिरों के बातचीत करते हुए चलने की आहट बहुत दूर-दूर तक के लोगों को मिल जाती है।
यहाँ तक कि आध कोस की दूरी पर भी यदि दो-चार आदमी बातचीत करते चले जाते हों तो ऐसा मालूम होगा कि थोड़ी दूर पर कुछ आदमी बातें कर रहे हैं परन्तु शब्द साफ-साफ सुनाई न देंगे, साथ ही इसके इस बात का पता लगाना भी जरा कठिन होगा कि ये बातचीत करते हुए जाने वाले आदमी किधर और कितनी दूर होगे, अस्तु जब भोलासिंह को कुछ आदमियों के बोलने की आहट मालूम हुई तो ठीक-ठीक पता लगाने और जाँच करने की नीयत से वह उस पेड के ऊपर चढ़ गया और चारों तरफ गौर से देखने लगा मगर कुछ पता न लगा और न कोई आदमी ही दिखाई पड़ा। लाचार वह पेड़ के नीचे उतर आया और उसी आहट की सीध पर खूब गौर करता हुआ उत्तर की तरफ चल पड़ा जिधर के जंगली पेड़ बहुत घने और गुजान थे।
कुछ दूर तक चले जाने पर भी भोलासिंह को किसी आदमी का तो पता न लगा मगर एक छोटे से पेड के नीचे बेहोश प्रभाकरसिंह पड़े जरूर दिखाई दिए यद्यपि उसने आज रात के समय प्रभाकरसिंह को देखा न था क्योंकि उस घाटी में जहाँ भूतनाथ का डेरा था पहुँचने के पहिले ही वह गायब हो चुके थे, परन्तु प्रभाकरसिंह एक अमीर बहादुर और नामी आदमी थे इसलिए भोलासिंह उन्हें पहिचानता जरूर था और कई दफे ऐयारी की धुन में शहर में घूमते हुए उसने प्रभाकरसिंह को देखा भी था, इसके अतिरिक्त आज भूतनाथ ने उसे यह भी बता दिया था कि जिस समय प्रभाकरसिंह हमारे साथ से गायब हुए हैं उस समय उनकी पोशाक फलाने ढंग की थी तथा उनके पास अमुक हर्बे थे।
इन सब कारणों से भोलासिंह को उनके पहिचानने में किसी तरह की कोई दिक्कत न हुई और वह उन्हें ऐसी अवस्था में पड़े हुए देखते ही चौंक पड़ा वह उनके पास बैठ गया और गौर से देखने लगा कि क्या उन्हें किसी तरह की चोट आई है या कोई आदमी जान से मार कर छोड़ गया हैं किसी तरह की चोट का पता तो न लगा मगर इतना मालूम हो गया कि मरे नहीं बल्कि बेहोश पड़े हैं।
भोलासिंह ने अपने ऐयारी के बटुए में से लखलखा निकाल और सुंघाने लगा थोड़ी ही देर में प्रभाकरसिंह होश में आ गए और उन्होंने अपने सामने एक देहाती ब्राहाण को बैठे देखा।
प्रभा० : आप कौन हैं? कृपा कर अपना परिचय दीजिए मैं आपका बड़ा ही कृतज्ञ हूँ क्योंकि आज निःसन्देह आपने मेरी जान बचाई है।
भोला० : मैं एक गरीब देहाती ब्राहाण हूँ। इस राह से जा रहा था कि यकायक आपको इस तरह पड़े हुए देखा, फिर जो कुछ बन सका किया।
प्रभा० :(सिर हिला कर) नहीं, कदापि नहीं, आप ब्राहाण भले ही हों परन्तु देहाती और गरीब नहीं हो सकते, आप जरूर कोई ऐयार हैं।
भोला० : यह शक आपको कैसे हुआ?
प्रभा० : यद्यपि मैं ऐयारी नहीं जानता परन्तु ऐसे मौके पर आपको पहिचान लेना कोई कठिन काम न था क्योंकि आपने बहुत उम्दा लखलखा सुँघा कर मेरी बेहोशी दूर की है जिसकी खुशबू अभी तक मेरे दिमाग में गूँज रही है, क्या कोई आदमी जो ऐयारी नहीं जानता हो ऐसा लखलखा बना सकता हैं? आप ही बताइये!
भोला० : आपका कहना ठीक है मगर मैं।।
प्रभा० : (बात काट कर) नहीं-नहीं इसमें कुछ सोचने और बात बनाने की जरूरत नहीं है, मैं आपसे मिल कर बड़ा प्रसन्न हुआ क्योंकि मुझे निश्चय है कि आप जरूर मेरे दोस्त भूतनाथ के ऐयार हैं जिनसे सिवाय भलाई के बुराई की आशा हो ही नहीं सकती।
भोला० : (कुछ सोच कर) बात तो बेशक ऐसी ही है, मैं जरूर भूतनाथ का ऐयार हूँ और वे आपका पता लगाने के लिए गए हैं, मगर यह तो बताइए कि आप यकायक गायब क्यों हो गए और आपकी ऐसी दशा किसने की हैं?
प्रभा० : मैं यह सब हाल तुमसे बयान करूँगा और यह भी बताऊँगा कि क्यों कर मेरी जान बच गई, मगर इस समय नहीं क्योंकि दुश्मनों के हाथ से तकलीफ उठाने के कारण मैं बहुत ही कमजोर हो रहा हूँ और अब मुझमें ज्यादा बात करने की भी ताकत नहीं हैं।
अस्तु जिस तरह हो सके मुझे अपने डेरे पर ले चलो, वहाँ सब कुछ सुन लेना और उसी समय इन्दुमति तथा गुलाबसिंह को भी मेरा हाल मालूम हो जायगा. यद्यपि मुझमें चलने की ताकत नहीं हैं मगर तुम्हारे मोढ़े का सहारा लेकर धीरे-धीरे वहाँ तक पहुँच ही जाऊँगा.
भोला० : अच्छी बात है, मैं तो आपकी पीठ पर लाद कर भी ले जा सकता हूँ.
प्रभा० : ठीक है मगर इसकी कोई जरूरत नहीं हैं, अच्छा अब अपना नाम तो बता दो.
भोला० : मेरा नाम भोलासिंह हैं.
इतना कह कर भोलासिंह उठ खड़ा हुआ और उसने हाथ का सहारा देकर प्रभाकरसिंह को भी उठाया. वह बहुत ही सुस्त और कमजोर मालूम हो रहे थे इसलिये भोलासिंह उन्हे टेकाता और सहारा देता हुआ बड़ी कठिनता से सुरंग के मुहाने पर ले आया. वहाँ पर प्रभाकरसिंह ने बैठ कर कुछ देर तक सुस्ताने की इच्छा प्रकट की अस्तु उन्हें बैठा कर भोलासिंह भी उनके पास बैठ गया.
इस समय दिन पहर भर के लगभग रह गया होगा. आह, यहां पर भोलासिंह ने बेढब धोखा खाया. यह जो प्रभाकरसिंह उसके साथ भूतनाथ की घाटी में जा रहे हैं वह वास्तव में प्रभाकरसिंह नहीं हैं बल्कि उनके दुश्मनों में से एक ऐयार है जिसका खुलासा हाल आगे के किसी बयान में मालूम होगा, यह उसे तथा भूतनाथ और उसके ऐयारों को धोखा दिया चाहता है और इन्दुमति पर कब्जा कर लेने की धुन में हैं.
यद्यपि भोलासिंह भी ऐयार और बुद्धिमान हैं मगर साथ ही इसके उसे भांग का बहुत शौक है. सुबह दोपहर और शाम तीनों वक्त छाने बिना उसका जी नहीं मानता. इतने पर भी लगा लिया करता है और यही सबब है कि वह कभी-कभी बेढब धोखा खा जाता है. मगर यह ऐयार भी बड़ा ही मक्कार है जो उसके साथ जा रहा है, देखना चाहिए दोनों में क्योंकर निपटती है. भोलासिंह तो खुश है कि हमने प्रभाकरसिंह को खोज निकाला, और वह ऐयार सोचता है कि अब इन्दुमति पर कब्जा करना कौन बड़ी बात है?
कुछ देर के बाद दोनों आदमी उठ खडे हुए और भोलासिंह उस नकली प्रभाकरसिंह को साथ लिए हुए सुरंग के अन्दर चला गया।
पहिला भाग : तीसरा बयान
बेचारी इन्दुमति बड़े ही संकट में पड़ गई है। प्रभाकरसिंह का इस तरह यकायक गायब हो जाना उसके लिए बड़ा ही दुःखदायी हुआ इस समय उसके आगे दुनिया अंधकार हो रही है। उसे कहीं भी किसी तरह का सहारा नहीं सूझता। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता कि अब उसका भविष्य कैसा होगा, उसे न तो तनोबदन की सुध है और न नहाने-धोने की फिक्र। वह सिर झुकाए अपने प्यारे पति की चिन्ता में डूबी हुई है।
गुलाबसिंह उसके पास बैठे हुए तरह-तरह की बातों से उसे सन्तोष दिलाना चाहते हैं मगर किसी तरह भी उसके चित्त को शान्ति नहीं होती और वह अपने मन की दो-चार बातें कह कर चुप हो जाती है! हाँ जब-जब उसके कान में ये शब्द पड़ जाते हैं कि ‘भूतनाथ का उद्योग कदापि वृथा नहीं हो सकता, वह जरूर प्रभाकरसिंह को खोज निकालेंगे और यह अपने साथ ले कर ही आवेंगे’ तब-तब वह चौंक पड़ती हैं। आशा के फेर में पड़ कर उसका ध्यान सुरंग के मुहाने की तरफ जा पड़ता है और कुछ देर के लिए उधर की टकटकी बंध जाती हैं
इस बीच में इन्दु ने कई दफे गुलाबसिंह से कहा, ‘‘तुम मुझे साथ लेकर इस सुरंग के बाहर निकलो, मैं खुद मर्दाना भेष बना कर उसका पता लगाऊँगी’’, मगर गुलाबसिंह ने ऐसा करना स्वीकार न किया जिससे उसका चित्त और भी दुःखी हो गया और उसने रोते कलपते ही बची हुई रात और अगला दिन बिता दिया।
अन्त में दिन बीत जाने पर संध्या के समय जब सूर्य भगवान अस्त हो रहे थे लाचार होकर गुलाबसिंह ने इन्दु से वादा किया कि अच्छा अगर कल तक भूतनाथ लौट कर न आ जायेंगे तो मैं तुम्हें साथ लेकर सुरंग के बाहर निकल चलूंगा और फिर जैसा तुम कहोगी वैसा ही करूँगा।
गुलाबसिंह के इस वादे से इन्दु को कुछ थोड़ी-सी ढाढ़स मिल गई और उसने साहस करके अपने को सम्हाला। इसके बाद गुलाबसिंह से बोली कि ‘इस समय तो मैं स्नान इत्यादि कुछ भी नहीं करूँगी, हाँ यदि तुम आज्ञा दो तो मैं थोडी देर के लिए नीचे उतर कर मैदान में टहलूँ और दिल बहलाऊँ। गुलाबसिंह ने उसकी इस बात को भी गनीमत समझा और घूमने-फिरने की इजाजत दे दी।
इन्दुमति का घूमने-फिरने के लिए गुलाबसिंह से आज्ञा ले लेना केवल इसी अभिप्राय से न था कि वह अपना दिल बहलावे बल्कि उसका असल मतलब यह था कि वह अकेले में बैठ कर या घूम-फिर कर इस विषय पर विचार करे कि अब उसे क्या करना चाहिए क्योंकि वह गुलाबसिंह की समझाने-बुझाने वाली बातों से दुःखी हो गई थी। उसका हरदम पास बैठे रह कर दिलासा देना या ढाढंस बंधाना उसे बहुत बुरा मालूम हुआ इस बहाने से उसने अपना पीछा छुड़ाया।
उदास और पति की जुदाई से व्याकुल इन्दुमति गुलाबसिंह के पास से उठी और धीरे-धीरे चल कर नीचे वाले सरसब्ज मैदान में पहुँच कर टहलने लगी, उधर गुलाबसिंह भी दिन भर का भूखा-प्यासा था अतः जरूरी कामों से निपटने और कुछ खाने-पीने की फिक्र में लगा।
धीरे-धीरे घूमती-फिरती इन्दुमति उस संरग के मुहाने के पास आ पहुँची जो यहाँ आने-जाने का रास्ता था और पहाड़ी के साथ एक पत्थर की साफ चट्टान पर बैठ कर सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए उसका मुँह सुरंग की तरफ था और इस आशा से बराबर उसी तरफ देख रही थी कि प्रभाकरसिंह को लिए हुए भूतनाथ अब आता ही होगा, उसी समय नकली प्रभाकर सिंह को लिए भोलासिंह वहाँ आ पहुँचा और सुरंग के बाहर निकलते ही इन्दु की निगाह उन पर पड़ी तथा उन दोनों ने भी इन्दु को देखा।
इस समय भोलासिंह अपनी असली सूरत में था और उसे भूतनाथ के साथ जाते हुए इन्दु ने देखा भी था इसलिए वह जानती थी कि भूतनाथ का ऐयार है।
अस्तु निगाह पड़ते ही उसे विश्वास हो गया कि भूतनाथ ने मेरे पति को भोलासिंह के साथ वहाँ भेज दिया है और भोलासिंह सुरंग से निकल कर पाँच कदम आगे न बढ़े होंगे कि प्रभाकरसिंह को देखते ही इन्दुमति पागलों की तरह दौड़ती हुई उनके पास पहुँची और उनके पैरों पर गिर पड़ी।
हाय, बेचारी इन्दु को क्या खबर थी कि यह वास्तव में मेरा पति नहीं बल्कि कोई मक्कार उसकी सूरत बना मुझे धोखा देने के लिए यहाँ आया है। तिस पर भोलासिंह के साथ रहने से उसे इस बात पर शक करने का मौका भी न मिला। वह उसे अपना पति समझ कर उसके पैरों पर गिर पड़ी और वियोग के दुख को दूर करती हुई प्रसन्नता ने उसे गदगद कर दिया। कण्ठ रूद्ध हो जाने के कारण वह कुछ बोल न सकी, केवल गरम-गरम आँसू गिराती रही। भोलासिंह भी चुपचाप खड़ा आश्चर्य के साथ उसकी इस अवस्था को देखता रहा।
नकली प्रभाकरसिंह ने इन्दुमति से कुछ न कह कर भोलासिंह से कहा, ‘‘भाई भोलासिंह अब तो मैं बिल्कुल ही थक गया हूँ। मेरी कमजोरी अब एक कदम भी आगे नहीं चलने देती। इन्दु से मिलने का उत्साह मुझे यहाँ तक साहस देकर ले आया यही गनीमत है, नहीं दुश्मनों के लिए हुए जहर की बदौलत बिल्कुल ही कमजोर हो गया हूँ।
इत्तिफाक की बात है कि इन्दु मुझे इसी जगह मिल गई। अब मैं कुछ देर तक सुस्ताए बिना एक कदम भी आगे नहीं चल सकता अस्तु तुम जाओ, गुलाबसिंह को भी खुशखबरी देकर इसी जगह बुला लाओ तब तक मैं भी अच्छी तरह आराम कर लूँ।''
‘‘बहुत अच्छा’’ कह कर भोलासिंह वहाँ से चला गया। यहाँ से गुलाबसिंह का डेरा सैकड़ों कदम की दूरी पर था, तमाम मैदान पार करने के बाद पहाड़ी पर चढ़ कर वह गुफा थी जिसमें गुलाबसिंह का डेरा था, अस्तु वहाँ तक जाने और आने में घड़ी भर से भी ज्यादा देर लग सकती थी तथापि भोलासिंह दौड़ा-दौड़ा जाकर गुलाबसिंह से मिला और उन्हें प्रभाकरसिंह के आने की खुशखबरी सुनाई। उस समय गुलाबसिंह रसोई बनाने की फिक्र में थे मगर यह खबर सुनते ही उन्होंने सब काम छोड़ दिया और प्रभाकरसिंह से मिलने के लिए भोलासिंह के साथ चल पड़े।
जिस समय गुलाबसिंह को साथ लिए हुए भोलासिंह सुरंग के मुहाने पर पहुँचा तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था। न तो प्रभाकरसिंह दिखाई पड़े और न इन्दुमति ही नजर आई। ऐसी अवस्था देख भोलासिंह सन्नाटे मे आ गया और अब उसे मालूम हुआ कि उसने धोखा खाया। वह घबड़ा कर चारों तरफ देखने के बाद यह कहता हुआ जमीन पर बैठ गया -‘‘हाय, मैंने बुरा धोखा खाया। प्रभाकरसिंह के साथ ही-साथ इन्दुमति को भी हाथ से खो बैठा।''
पहिला भाग : चौथा बयान
अब हम यहाँ पर कुछ हाल प्रभाकरसिंह का लिखना जरूरी समझते हैं। पहिले बयान में हम लिख आए हैं कि ‘प्रभाकरसिंह इन्दुमति और गुलाबसिंह को लेकर भूतनाथ अपनी घाटी में गया तो रास्ते में सुरंग के अन्दर से यकायक प्रभाकरसिंह गायब हो गए’। अस्तु इसी जगह से हम प्रभाकरसिंह का हाल लिखना शुरू करते हैं।
जब भूतनाथ उन लोगों को साथ लिए हुए सुरंग में गया और कुछ दूर जाने के बाद चौमुहानी पर पहुँचा तो रास्ते का हाल बता कर कुछ आगे चलने के बाद भूतनाथ ने मोमबत्ती बुझा दी और उसे यही खयाल रहा कि हमारे तीनों मेहमान हमारे पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। मगर वास्तव में ऐसा न था, चौमुहानी से थोड़ी ही दूर आगे बढ़ने के बाद किसी ने प्रभाकरसिंह के दाहिने मोढ़े पर अपना हाथ रक्खा जो सबके पीछे-पीछे जा रहे थे।
प्रभाकरसिंह ने चौंक कर पीछे की तरफ देखा मगर अंधकार में कुछ भी दिखाई न दिया, हाँ एक हलकी-सी आवाज यह सुनाई पड़ी ‘ठहरो, और जरा मेरी बात सुन कर तब आगे बढ़ो।’ ठहरे या न ठहरें, भूतनाथ को रोकें अथवा चुप रहें इत्यादि सोचते हुए प्रभाकरसिंह कुछ ही देर रुके थे कि उनके कान में पुनः एक बारीक आवाज आई, ‘‘घबड़ाओ मत, जरा-सा रुक कर सुनते जाओं कि अब तुम कैसी आफत में फंसना चाहते हो और उससे छुटकारा पाने की क्या तदबीर है!’’
इन शब्दों ने प्रभाकरसिंह को और भी रोक लिया और वह कुछ ठिठके-से रह कर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए।
इतने ही में पिछली तरफ रोशनी मालूम हुई जो उसी चौराह पर थी जिसे यह लोग छोड़ कर कुछ दूर आगे बढ़ आये थे। उस रोशनी में दो औरतें दिखाई पड़ी और यह भी मालूम पड़ा कि जिसने प्रभाकरसिंह के मोढ़े पर हाथ रख कर उन्हें रोका था वह भी एक औरत ही है जो अब कुछ पीछे हट इन्हें पुनः अपनी तरफ बुला रही हैं।
यद्यपि इस कार्रवाई में बहुत थोड़ी देर लगी तथापि इसी बीच में उस अनूठी और पेचीली सुरंग में गुलाबसिंह और इन्दुमति को लिए हुए भूतनाथ इतना आगे बढ़ गया कि न तो वह इन दोनों की बात ही सुन सका और न चौमुहानी वाली रोशनी ही पर उसकी निगाह पड़ी। कुछ वर्तमान और कुछ भविष्य को सोचते हुए प्रभाकरसिंह अटके और उन औरतों से जो कम-उम्र, नाजुक और सुन्दर थीं, डरना व्यर्थ समझ कर चौमुहानी की तरफ मुंड कर उस औरत की तरफ चले जिसने इन्हंद रोका था
इन तीनों औरतों का नखशिख बयान करने और इनकी खूबसूरती के बारे में लिखने की यहाँ कुछ जरूरत नहीं है, यहाँ इतना ही कहना काफी है जितना कह आये हैं अर्थात तोनों कम उम्रकी थी, नाजुक थीं, सुन्दर थीं भड़कीली पोशाक पहिरे हुए थी।
जब चौमुहानी पर पहुँचे तो उन दोनों औरतों में से एक ने जो पहिले ही से वहा खडी थी प्रभाकरसिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘भूतनाथ ने जरूर आप को कहा होगा कि चौमुहानी से उसके घर का रास्ता छोड़ कर बाकी दोनों तरफ जाना खतरनाक हैं। मगर नहीं, वह बिलकुल झुठा हैं आप जरा इधर आइए और देखिए मैं आपको कैसा अनूठा तमाशा दिखाती हूँ’’,
इतना कह कर दोनों बल्कि तीनों औरतों प्रभाकरसिंह को सुरंग के उस रास्ते मे ले चली जिधर जाने के लिए भूतनाथ ने मना किया था । हम नहीं कह सकते कि क्या सोच-समझ कर प्रभाकरसिंह ने इन औरतों की बात मान ली और भूतनाथ की नसीहत पर कुछ भी ध्यान न दिया अथवा भूतनाथ का साथ छोड़ दिया। क्या सम्भव है कि वे तीनों औरतों को पहिले से पहिचानते हों?
लगभग पन्द्रह या बीस कदम जाने के बाद तीसरी औरत ने जिसके हाथ में रोशनी थी नखरे के साथ हाथ से मोमबत्ती गिरा दी जिससे अंधकार हो गया। उसने यही जाहिर किया कि यह बात धोखे में उससे हो गई। इसके बाद उस औरत ने इनका हाथ छोड़ दिया। प्रभाकरसिंह अटक कर कुछ सोचने लगे और बोले ‘‘जो हुआ सो हुआ, अब रोशनी करो तो मैं तुम्हारे साथ आगे बढूँगा नहीं तो पीछे की तरफ मुड़ जाऊँगा,’’ मगर उनकी इस बात का किसी ने भी जवाब न दिया। आश्चर्य के साथ प्रभाकरसिंह ने पुनः पुकारा मगर फिर जवाब न मिला, मानो वहाँ कोई था ही नहीं।
आश्चर्य और चिन्ता के शिकार प्रभाकरसिंह कुछ देर तक खड़े सोचने के बाद अफसोस करते हुए पीछे की तरफ लौटे मगर अपने ठिकाने न पहुँच सके, आठ ही दस कदम पीछे हटे थे कि दीवार से टकरा कर खड़े हो गए और सोचने लगे-‘‘हैं, यह क्या मामला है! अभी-अभी तो हम लोग इधर से आ रहे हैं, फिर यह दीवार कैसी? रास्ता क्योंकर बंद हो गया? क्या अब इस तरफ का रास्ता बन्द ही हो गया!’’ इत्यादि।
वास्तव में पीछे फिरने का रास्ता बन्द हो गया था मगर अँधेरे में इस बात का पता नही लग सकता था कि यह कोई दीवार बीच मे आ पड़ी है या किसी तरह के तख्ते या दरवाजे ने बगल से निकल कर रास्ता बन्द कर दिया है अथवा क्या है!
जो हो, प्रभाकरसिंह को निश्चय हो गया कि अब पीछे की तरफ लौटना असम्भव अस्तु यही अच्छा होगा कि आगे की तरफ बढ़े, शायद कहीं उजेले की सूरत दिखाई दे तब जान बचे। आह! मैं इन औरतों को ऐसा नहीं समझता था और इस बात का स्वप्न में भी गुमान नहीं होता था कि ये मेरे साथ दगा करेंगी।
लाचार प्रभाकरसिंह अंधेरे में अपने दोनों हाथों को फैला कर टटोलते हुए आगे की तरफ बढ़े मगर बहुत धीरे-धीरे जाने लगे जिसमें किसी तरह का धोखा न हो। रास्ता पेचीला और ऊँचा था तथा आगे की तरफ से तंग भी होता जाता था, अढ़ाई-तीन सौ कदम जाने के बाद रास्ता इतना तंग हो गया कि एक आदमी से ज्यादा के चलने की जगह न रही।
कुछ आगे बढ़ने पर रास्ता रास्ता खतम हुआ और एक बन्द दरवाजे पर हाथ पड़ा। धक्का देने से वह दरवाजा खुल गया और प्रभाकरसिंह ने चौखट के अन्दर पैर रक्खा। दो ही कदम जाने के बाद यह दर्वाजा पुनः बन्द हो गया और साथ ही इसके आसपास की सफेदी पर भी प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी जो उनके सामने की तरफ बढ़ती हुई मालूम पड़ती थी। लगभग पच्चीस-तीस कदम जाने के बाद प्रभाकरसिंह खोह के बाहर निकले और तब उन्होने अपने को एक सरसब्ज पहाड़ की ऊँचाई पर किसी गुफा के बाहर खड़ा पाया।
इस समय सवेरा हो चुका था और पूरब तरफ पहाड़ की चोटी के पीछे सूरज की लालिमा दिखाई दे रही थी। प्रभाकरसिंह ने अपने को ऐसे स्थान में पाया जिसे एक सुन्दर और सोहावनी घाटी कह सकते हैं। यह घाटी त्रिकोण अर्थात तीन तरफ से पहाड़ के अन्दर दबी हुई थी और जमीन के बीचोबीच में एक सुन्दर बंगला बना हुआ था जो इस जगह से जहाँ प्रभाकरसिंह खडे़ थे लगभग चौथाई कोस की दूरी पर पहाड़ के नीचे की तरफ था। प्रभाकरसिंह वहाँ पहुँचने के लिए रास्ता तलाश करने लगे मगर सुभीते से उतर जाने के लायक कोई पगडण्डी नजर न आई, तथापि प्रभाकरसिंह हतोत्साह न हुए और किसी-न-किसी तरह से उद्योग करके नीचे की तरफ उतरने ही लगे।
वह सोच रहे थे कि देखें हमारा दिन कैसा कटता है, किस ग्रहदशा के फेर में पड़ते है, किसका सामना पड़ता है और खाने-पीने के लिए क्या चीज मिलती है अथवा यहाँ से निकलने का रास्ता ही क्योंकर मिलता है। उस बंगले तक पहुँचने में प्रभाकरसिंह को दो घंटे से ज्यादा देर लगी। पहाड़ की चोटियों पर धूप अच्छी तरह फैल चुकी थी मगर बंगले के पास धूप का नामनिशान नहीं था।
बंगले के दरवाजे पर दो जवान लड़के पहरा दे रहे थे जिन्होंने प्रभाकरसिंह को रोका और पूछा, ‘‘तुम यहाँ क्योंकर आए?’’
इसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने क्रोध में आकर कहा, ‘‘जिस तरह हम आए हैं वह जरूर तुम्हें मालूम होगा और जरूर वे तीनों कम्बख्त औरतें भी इसी बंगले के भीतर होंगी जिन्होने मुझे धोखा देकर गुमराह किया है। तुम जाओ, उन्हें इत्तिला दो कि प्रभाकरसिंह आ पहुँचे।’’
उन दोनों पहरे वालों ने प्रभाकरसिंह की बात का कुछ भी जवाब न दिया। प्रभाकरसिंह गुस्से में आकर कुछ कहा ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक मौल –सिरी के पेड़ के ऊपरी हिस्से पर जा पड़ी जो इसी बंगले के चारों कोनों पर चार मौलसिरी के बड़े-बड़े दरख्त में से एक था। ये पेड़ इस समय खूब ही हरे-भरे थे और उनके फूलों से वहाँ की जमीन ढक रही थी तथा खुशबू से प्रभाकरसिंह का दिमाग मुअत्तर हो रहा था।
जिस मौलसिरी के पेड़ के ऊपर प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी उसके ऊपरी हिस्से में रेशमी डोर के साथ एक हिडोला लटक रहा था जो झुकी हुई डालियों की आड़ में छिपा था। जब पत्तियाँ हटती थीं तो उस हिडोले पर एक सुन्दर औरत बैठी हुई दिखाई देती थी और इसी पर प्रभाकरसिंह की निगाह पड़ी थी। गौर से देखने पर प्रभाकरसिंह को इन्दुमति का गुमान हुआ और ये दौड़ कर उस पेड़ के नीचे जा खड़े हुए।
प्रभाकरसिंह ने सर उठा कर पुनः उस औरत को देखा – इस आशा से कि यह इन्दुमति है या नहीं, इस बात का निश्चय कर लें, मगर प्रभाकरसिंह का खयाल गलत निकला क्योंकि वह वास्तव में इन्दुमति न थी, हाँ, इन्दुमति से उसकी सूरत रुपये में बारह आना जरूर मिलती-जुलती थी यहाँ तक कि यदि यह औरत केवल अपने दोनों होंठ और अपनी ठुड्डी हाथ से ढांक कर प्रभाकरसिंह की तरफ देखती होती तो दोपहर की चमचमाती हुई रोशनी में और दस हाथ की दूरी से भी वे इसे न पहिचान सकते और यही कहते कि यह जरूर मेरी इन्दुमति हैं।
इस समय वह औरत भी प्रभाकरसिंह की तरफ देख रही थी। जब वे उस पेड़ के नीचे आए तब उसने हाथ के इशारे से उन्हें भाग जाने को कहा जिसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘तुम इस बात का गुमान भी न करो कि तुम्हारा हाल जाने बिना मैं यहाँ से चला जाऊँगा।’’
औरत : (अपने माथे पर हाथ रख कर) बात तो यह है कि आप अब यहाँ से जा नहीं सकते और न आपको निकल जाने का रास्ता ही मिल सकता हैं।
प्रभा० : तुम्हारे इस कहने से तो निश्चय होता है कि तुम्हारी जुबानी मुझे यहाँ का सच्चा-सच्चा हाल मालूम हो जाएगा और मैं अपने दुश्मनों से बदला ले सकूंगा।
औरत : नहीं, क्योंकि एक तो मुझे यहाँ का पूरा-पूरा हाल मालूम नहीं, दूसरे अगर कुछ मालूम भी है तो उसके कहने का मौका मिलना कठिन हैं, क्योंकि अगर कुछ कहने की कोशिश करूँगी तो मेरी ही तरह से आप भी कैद कर लिए जाएँगे।
प्रभा० : तो तुम कैदी हो?
औरत : (आँचल से आँसू पोंछ कर) जी हाँ!!
प्रभा० : तुम्हें यहाँ कौन ले आया?
औरत : मेरी बदकिस्मती!
प्रभा० : तुम्हारा क्या नाम हैं?
औरत : तारा
प्रभा० : (ताज्जुब से) तुम्हारे बाप का क्या नाम हैं?
औरत : (रो कर) वही जो आपकी इन्दुमति के बाप का नाम हैं!! अफसोस, आपने मुझे अभी तक नहीं पहिचाना!
इतना करके वह और भी खुल कर रोने लगी जिससे प्रभाकरसिंह का दिल बेचैन हो गया और उन्होंने पहिचान लिया कि यह बेशक उनकी साली हैं, वह चाहते थे कि पेड़ पर चढ़ कर उसे नीचे उतारें और अच्छी तरह बात करें मगर इसी बीच में कई आदमियों ने आकर उन्हें घेर लिया। बंगले के दरवाजे पर पहरा देने वाले दोनों नौजवान लड़कों ने प्रभाकरसिंह को जब उस औरत से बातचीत करते देखा तब तेजी के साथ वहाँ से चले गए और थोड़ी ही देर में कई आदमियों ने आकर उनको घेर लिया।
पहिला भाग : पाँचवाँ बयान
संध्या का समय था जब नकली प्रभाकरसिंह इन्दुमति को बहका कर और धोखा देकर भूतनाथ की विचित्र घाटी से उसी सुरंग की राह ले भागा जिधर से वे लोग गए थे। उस समय इन्दुमति की वैसी ही सूरत थी जैसी कि हम पहिले बयान में लिख आए हैं, अर्थात मर्दानी सूरत मे तीर-कमान और ढाल-तलवार लगाए हुए थी।
सम्भव था कि नकली प्रभाकरसिंह को उसके पहिचाननें में धोखा होता परन्तु नहीं, उसका इन्दुमति से कुछ ऐसा समबन्ध था कि उसने उसके पहिचानने में जरा भी धोखा नहीं खाया बल्कि इन्दुमति को हर तरह से धोखे में डाल दिया। इन्दुमति ने भी प्रभाकरसिंह को वैसे ही ढ़ग और पोशाक में पाया जैसा छोड़ा था परन्तु यदि वह विकल, दुखित और घबड़ाई हुई न होती तो उसके लिए नकली प्रभाकरसिंह को पहिचान लेना कठिन न था।
सुरंग के बाहर होने बाद आसमान की तरफ देख कर इन्दुमति को इस बात का खयाल हुआ कि रात हुआ ही चाहती है। वह सोचने लगी कि इस भयानक जंगल से क्योंकर पार होगें और रात-भर कहाँ पर आराम से बिता सकेंगे, साथ ही उसे यकायक इस तरह गुलाबसिंह को छोड़ना और भूतनाथ की घाटी से निकल भागना भी ताज्जुब में डाल रहा था।
पूछने पर भी प्रभाकरसिंह ने उसकों ठीक –ठीक सबब नहीं बताया था। हाँ बताने का वादा किया, मगर इससे उसकी बेचैनी दूर नहीं हुई थी। उसका जी तरह-तरह के खुटको में पड़ा हुआ था और यह जानने के लिए वह बेचैन हो रही थी कि गुलाबसिंह ने उनका क्या नुकसान किया था जो उसको भी छोड़ दिया गया।
सुरंग के मुहाने से थोड़ी दूर आगे जाने बाद इन्दुमति ने प्रभाकरसिंह से कहा, ‘‘आपकी चाल इतनी तेज है कि मैं आपका साथ नहीं दे सकती।’’
नकली प्रभाकर : (धीमी चाल करके) अच्छा लो मैं धीरे-धीरे चलता हूँ मगर जहाँ तक जल्दी हो सके यहाँ से निकल ही चलना चाहिए.
इन्दुमतिः आखिर इसका सबब क्या है, कुछ बताओ भी तो सही?
नकली प्रभाकरः अभी नहीं, थोडी देर के बाद इसका सबब बताऊँगा।
इन्दुमति : यही कहते –कहते तो यहाँ तक आ पहुँचे अच्छा यही बताओं कि हम लोगों को कहाँ जाना होगा और कितना बड़ा सफर करना पड़ेगा?
नकली प्रभाकरः कुछ नहीं, थोड़ी ही दूर और चलना है। इसके बाद सवारी तैयार मिलेगी जिस पर चढ़ कर हम लोग निकल जाएँगे।
सवारी का नाम सुन इन्दुमति चौंकी और उसके दिल में तरह-तरह की बाते पैदा होने लगीं। कई सायत सोचने के बाद उसने पुनः नकली प्रभाकरसिंह से पूछा,
‘‘ऐसे मुसीबत के जमाने में यकायक आपको सवारी कैसे मिल गई?’’
नकली प्रभाकरः इसका जवाब भी आगे चल कर देंगे।
प्रभाकरसिंह की इस बात ने इन्दुमति को और भी तरददुद में डाल दिया। वह चलते-चलते रूक कर खड़ी हो गई और इस बीच में नकली प्रभाकरसिंह जो आगे जा रहा था कई कदम आगे निकल गया।
हम नहीं कह सकते कि अब यकायक इन्दुमति के जी में क्या आया कि वह प्रभाकरसिंह के साथ जाते-जाते एकदम रुक ही नहीं गई बल्कि जब प्रभाकरसिंह अपनी तेजी और जल्दबाजी में पीछे की सुध न करके इन्दुमति से कुछ आगे बढ़ गया तो दाहिनी तरफ हट कर एक गुंजान पेड़ पर चढ़ गई और छिप कर इन्तजार करने लगी कि देखें अब जमाना क्या दिखाता हैं।
नकली प्रभाकरसिंह लगभग दो-सौ कदम से भी ज्यादे आगे बढ़ गया तब उसे मालूम हुआ कि उसके पीछे इन्दुमति नहीं है, वह घबरा कर पीछे की तरफ लौटा और ‘‘इन्दुमति’’ कह कर ऊँचे स्वर से पुकारने लगा।
इन्दुमति पेड़ पर चढ़ कर छिपी हुई उसकी आवाज सुन रही थी मगर उसे खूब याद था कि उसके प्यारे पति ने आवश्यकता पड़ने पर कभी उसे इन्दुमति कह कर नहीं पुकारा, यह एक ऐसी बात थी जो केवल उन दोनों पति-पत्नी ही से सम्बन्ध रखती थी, कोई तीसरा आदमी इसके जानने का अधिकार न था।
नकली प्रभाकरसिंह इन्दुमति को पुकारता हुआ उससे ज्यादे पीछे हट गया जहाँ इन्दु छिपी हुई थी और इस बीच में उसने तीन दफे जफील (सीटी) भी बुलाई, साथ ही इसके यह भी उसके मुँह से निकल पड़ा, ‘‘कम्बख्त ठिकाने पहुँच कर गायब हो गई!’’ यह बात इन्दुमति ने भी सुन ली।
जफील की आवाज से वहाँ कई आदमी और भी आ पहुँचे तथा नकली प्रभाकरसिंह के साथी बन गये जिन्हे देख इन्दुमति को विश्वास हो गया कि जो कुछ हो, अब वह बेतरह दुश्मनों के काबू मे पड़ी हुई है।
इन्दुमति को खोजने वाले अब कई आदमी हो गये और वे इधर-उधर फैल कर पेडों की आड तथा झुरमुट मे उसे खोजने लगे।
तिथि के अनुसार रात की पहली कालिमा (अंधेरी) बीत चुकी थी और चन्द्रदेव उदय होकर धीरे-धीरे ऊँचे उठने लगे थे जिससे इन्दू घबरा गई और मन में सोचने लगी कि यह तो बड़ा अन्धेर हुआ चाहता है, एक छिपे हुए इन्दु को यह अपना-सा किया चाहता हैं! अब मैं क्या करूँ?’’
प्रभाकरसिंह के साथ ही साथ जमाने ने भी उसे बहुत कुछ सिखला दिया था, तलवार चलाना और तीर का निशाना लगाना वह बखूबी जानती थी, बल्कि तीरन्दाजी में उसे एक तरह का घमंड था इस समय उसके पास यह सामान मौजूद भी था।
जैसा कि हम ऊपर इशारा कर चुके हैं कि ‘इस समय इसकी पोशाक और सूरत वैसी ही थी जैसी कि हम पहिले बयान में दिखा चुके हैं।
जब कई दुश्मनों ने इन्दुमति को घेर लिया और चांदनी भी फैल कर वहाँ की हर एक चीज को दिखाने लगी तब उसे विश्वास हो गया कि अब वह किसी तरह छिपी नहीं रह सकती, लोग जरूर उसे देख लेंगे और गिरफ्तार कर लेगें अतएव उसने कमान पर तीर चढ़ाया और संभलकर बैठ गई, सोच लिया कि जब तक तरकश मे एक भी तीर मौजूद रहेगा किसी को अपने पास फटकने न दूँगी।
इसी बीच में मौका पाकर उसने नकली प्रभाकरसिंह को अपने तीर का निशाना बनाया। इन्दु के हाथ से निकला हुआ तीर नकली प्रभाकरसिंह के पैर में लगा और बोले, ‘‘बेशक वह इसी जगह कहीं है और यह तीर उसी ने मारा है। अब उसे हम जरूर पकड़ लेगे, तीर पूरब तरफ से आया हैं!’’ एक और तीर आया और वह एक आदमी की पीठ को छेद कर छाती की तरफ से पार निकल गया।
अब तो उन लोगों में खलबली पड़ गई और खोजने की हिम्मत जाती रही बल्कि जान बचाने की फिक्र पड़ गई, मगर इस खयाल से कि तीर पूरब तरफ से आया है और मारने वाला भी उसी तरफ किसी पेड़ पर छिपा हुआ होगा, दोनों व्यक्तियों को छोड़ कर बाकी के लोग इन्दु की तरफ झपटे और चांदनी की मदद पाकर बहुत जल्द उस पेड़ को घेर लिया जिस पर इन्दु छिपी हुई थी।
अब इन्दु ने अपने को जाहिर कर दिया और जरा ऊँची आवाज में उसने दुश्मनों से कहा, ‘‘हाँ हाँ, बेशक मैं इसी पेड़ पर हूँ, मगर याद रक्खो कि तुम लोगों को अपने पास आने न दूँगी बल्कि देखते ही देखते इस दुनिया से उठा दूँगी’’,
इतना कह कर उसने पेड़ के नीचे के और भी एक आदमी को तीर से घायल किया। इसी समय ऊपर की तरह से आवाज आई, ‘‘शाबाश इन्दु शाबाश! इन लोगों की बातचीत से मैं पहिचान गया कि तू इन्दुमति है!’’
यह बोलने वाला भी उसी पेड़ पर था जिस पर इन्दु थी मगर उससे ऊपर की एक ऊँची डाल पर बैठा हुआ था जिसकी आवाज सुन कर इन्दुमति घबरा गई और सोचने लगी कि यह कोई दु्श्मन तो नहीं हैं! उसने पूछा,’’ तू कौन है और यहाँ कब से बैठा हुआ है?’’
जवाबः मैं तुमसे थोड़ी देर पहिले यहाँ आया हूँ बल्कि यों कहना चाहिए कि दूर से तुम लोगों को आते देख कर इस पेड़ पर चढ़ बैठा था। मैं तुम्हारा पक्षपाती हूँ और मेरा नाम भूतनाथ है तुम तीर-कमान मुझको दो, मैं अभी तुम्हारे दुश्मनों को जहन्नुम में पहुँचा देता हूँ।
इन्दु० : बस-बस-बस- मैं ऐसी बेवकूफ नहीं हूँ कि इस समय तुम्हारी बातों पर विश्वास कर लूँ और अपना तीर-कमान जिससे मैं अपनी रक्षा कर सकती हूँ तुम्हारे हवाले करके अपने को तुम्हारी दया पर छोड़ दूँ। यद्यपि मैं औरत हूँ और मेरी कमान कड़ी नहीं है तथा मेरे फेंके तीर दूर तक नहीं जाते, तथापि मेरा निशाना नहीं चूक सकता और मैं नजदीक के दुश्मनों को बच कर नहीं जाने दे सकती खैर तुम जो कोई भी हो समझ रक्खो कि इस समय मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास न करूंगी और तुम्हें कदापि नीचे न उतरने दूँगी, जरा भी हिलोगे तो मैं तीर मार कर तुम्हें दूसरी दुनिया में पहुँचा दूँगी,
इतने ही में नीचे कोलाहल बढ़ा और इन्दुमति ने तीर मार और एक आदमी को गिरा दिया फिर ऊपर से आवाज आई-‘‘शाबाश इन्दु शाबाश! तू मुझे नीचे उतरने दे, फिर देख मैं तेरे दुश्मनों से कैसा बदला लेता हूँ!’’
इन्दु० : कदापि नहीं, मैं अपने दुश्मनों से आप समझ लूँगी।
आवाज : और जब तुम्हारे तीर खत्म हो जाएँगे तब तुम क्या करोगी?
इन्दुमति : मेरे तीरों की गिनती दुश्मनो की गिनती से बहुत ज्यादा है, तुम इसकी चिन्ता मत करो और चुपचाप बैठे रहो।
आवाज : नहीं इन्दु नहीं, तुम्हें मालूम नहीं है कि तुम्हारे दुश्मन यहाँ बहुत ज्यादा है, थोडी देर में वे सब इकट्ठे हो जायेंगे और तब तुम्हारे तीरों की गिनती कुछ काम न करेगी।
इन्दु० : ऐसी अवस्था में तुम्हीं क्या कर सकते हो जो एक औरत का मुकाबला करके नीचे नहीं उतर सकते! खबरदार! व्यर्थ की बकवास करके मेरा समय नष्ट न करो!!
फिर नीचे कोलाहल बढ़ा और इन्दुमति के तीर ने पुनः एक आदमी का काम तमाम किया, इन्दु के ऊपर की तरफ बैठा हुआ आदमी नीचे उतरने लगा और बोला, ‘‘खबरदार इन्दु, मुझ पर तीर न चलाइयो और सच जानियो कि मैं भूतनाथ हूँ, और अब नीचे उतरे बिना नहीं रह सकता!’’
इन्दु० : मैं जरूर तीर मारूँगी और भूतनाथ के नाम का मुलाहिजा न करूँगी इतना कहकर इन्दु ने उसकी तरफ तीर सीधा किया मगर घबड़ा कर दिल में सोचने लगी कि कहीं वह भूतनाथ ही न हो उसी समय किसी हर्बे की चमक उसकी आँखों में पड़ी और उसकी तेज अक्ल ने तुरन्त समझ लिया कि यह बरछी है जिससे कुछ आगे बढ़ कर वह जरूर मुझ पर हमला करेगा, अस्तु दिल कड़ा करके इन्दु ने उस पर तीर चला ही दिया जो कि उसके मोढ़े में लगा, मगर इस चोट को सह कर और कुछ नीचे उतर कर उसने इन्दु पर बरछी का वार किया, साथ ही इन्दु का दूसरा तीर पहुँचा जो कि न मालूम कहाँ लगा कि वह लुढ़क कर जमीन पर आ रहा और बेहोश हो गया।
परन्तु उसकी बरछी का वार भी खाली नहीं गया। इन्दु के जंघे में चोट आई, खून का तरारा बह चला और दर्द से वह बेचैन हो गई। कुशल हुआ कि वह बखूबी इन्दु के पास नहीं पहुँचा था अन्दाज से कुछ दूर ही था इसलिए बरछी की चोट भी पूरी न बैठी, और कुछ और नजदीक आ गया होता तो इन्दु भी पेड़ पर न ठहर सकती, जरूर नीचे गिर पड़ती।
इन्दु जनाना थी मगर उसका दिल मर्दाना था। यद्यपि इस समय वह दुश्मनों से घिरी हुई थी और बचने की आशा बहुत कम थी तथापि उसने अपने दिल को खूब सम्हाला और दुश्मनों को अपने पास फटकने न दिया।
पेड़ पर से जिस आदमी ने इन्दु को जख्मी किया था, इन्दु के हाथ से जख्मी होकर उसके गिरने के साथ ही नीचे वालों में खलबली मच गई। सभी ने गौर के साथ उसे देखना और पहिचानना चाहा एक ने कहा, ‘‘यह तो भूतनाथ हैं!’’ दूसरे ने कहा, ’’ फिर इन्दु ने इसे क्यों मारा!’’
इत्यादि बाते होने लगी जो इन्दु के दिल में तरह-तरह का खुटका पैदा करने वाली थीं मगर उसने उसकी कुछ भी परवाह न की और दुश्मनों पर तीर का वार करने लगी, ग्यारह दुश्मनों में से सात को उसने जख्मी किया जिसमें उसके बारह तीर खर्च हुए मगर चार-पाँच दुश्मनों ने बड़ी चालाकी से अपने को बचाया और सर पर ढाल रख के इन्दु को पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने लगे, इन्दु ने पुनः तीर मारना आरम्भ किया मगर इसका कोई अच्छा नतीजा न निकला क्योंकि उसके चलाए हुए तीर अब ढाल पर टक्कर खा कर बेकार हो जाते थे।
अब इन्दु का कलेजा धड़कने लगा, वह जख्मी हो चुकी थी और उसका तरकस भी खाली हो चला था, पेड़ पर चढ़ने वाले बड़े ही कट्टर और लड़ाके आदमी थे अतएव उन्होंने इन्दु के तीरों की कुछ परवाह न की और उसके पास पहुँच कर उसे गिरफ्तार करने पर ही तुल गए ऐसी हालत देख इन्दु ने भी अपने को उनके हाथ में फंसने की बनिस्बत जान दे देना अच्छा समझा, वह लुढक कर पेड़ के नीचे गिर पडी और सख्त चोट खाकर बेहोश हो गई।
पहिला भाग : छठवाँ बयान
जब इन्दु होश में आई और उसने आँखे खोली तो अपने को एक सुन्दर मसहरी पर पड़े पाया और मय सामान कई लौंडियों को खिदमत के लिए हाजिर देख कर ताज्जुब करने लगी।
आँख खुलने पर इन्दु ने एक ऐसी औरत को भी अपने सामने इज्जत के साथ में पेश आते देखा और वह समझ गई कि वही इन्दुमति का इलाज कर रही है।
निःसन्देह इन्दुमति को गहरी चोट लगी थी और उसे करवट बदलना भी बहुत कठिन हो रहा था, उसे इस बात का बड़ा ही दुःख था कि वह जीती बच गई और दुश्मनों के हाथ में फंस गई परन्तु इस तरह जितनी औरते वहाँ मौजूद थीं, सभी खूबसूरत, कमसिन खुशदिल, हंसमुख और हमदर्द मालूम होती थीं, सभी को इस बात की फिक्र थी कि इन्दुमति शीघ्र अच्छी हो जाय और उसे किसी तरह की तकलीफ न रहे, सभी प्यार के साथ उसकी खिदमत करती थी दिल बहलाने की बातें करती थीं, और कई उसके पास बैठी सर पर हाथ फेरती हुई प्रेम से पूँछतीं कि ‘कहो बहन, मिजाज कैसा है?
अब तुम किसी बात की चिन्ता न करो, यह घर तुम्हारे दुश्मनों का नहीं है बल्कि दोस्तों का है जो कि बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जायगा कि दुश्मनों के हाथों से तुम किस तरह छुड़ा ली गई, जरा तुम्हारी तबीयत अच्छी हो जाय तो मैं सब रामकहानी कह सुनाऊँगी, तुम किसी तरह की चिन्ता न करो! इत्यादि!
इन बातों से मालूम होता था कि ये सब-की-सब लौंडी ही न थी बल्कि अच्छे खानदान की लड़कियाँ थी और दो-एक तो ऐसी थीं जो बराबरी का (बल्कि उससे भी बढ़ कर होने का) दावा रखती थी।
यह सब कुछ था परंतु इन्दुमति को इस बात का ठीक पता नहीं लगता था कि वह वास्तव में दुश्मनों की मेहमान है या दोस्तों की। यद्यपि उसकी हर तरफ से खिदमत होती थी, उसकी खातिरदारी की जाती थीं, उसे भरोसा दिलाया जाता था और जिससे खुश हो, वह करने के लिए सब तैयार रहती थीं,यह सब कुछ था मगर फिर भी उसके दिल को भरोसा नही होता था।
इसी तरह समय बीतता गया और इन्दु की तबीयत सम्हलती गई। उसे होश में आये आज तीसरा दिन है, दर्द में भी बहुत कमी है और वह दस-बीस कदम टहल भी सकती है आज ही उसने कुछ थोड़ा-बहुत भोजन भी लिया है और इस फिक्र में तकिए का सहारा लगाए बैठी है कि आज किसी-न-किसी तरह इस बात का निश्चय जरूर करूँगी कि वास्तव में मै किसके कब्जे में हूँ।
उसकी खातिर करने वालियों में दो औरतें ऐसी थीं जिन पर इन्दु को भरोसा हो गया था और जिन्हें इन्दु सबसे बढ़ कर उच्च कुल की नेक और होनहार समझती थी, एक का नाम कला और दूसरी का नाम बिमला था सबसे ज्यादे ये ही दोनों इन्दु से साथ रहा करती थी।
रात पहर भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है चिन्तानिमग्न इन्दु अपनी चारपाई पर लेटी हुई तरह-तरह की बातें सोच रही थी, उसी के पास दो चारपाइयाँ और बिछी हुई थीं जो कला और बिमला के सोने के लिए थीं कला अपनी चारपाई पर नहीं बल्कि इन्दु के पास उसकी चारपाई का ढासना लगाये बैठी हुई थी मगर बिमला अभी तक यहाँ आई न थी, कई सायत तक सन्नाटा रहने के बाद इन्दु ने बातचीत शुरू की।
इन्दु० : कला, कुछ समझ नहीं आता कि तू मुझसे यहाँ का भेद क्यों छिपाती है और साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि यह किसका मकान हैं?
कला : बहिन, मैं जो तुमसे कह चुकी कि यह तुम्हारे दुश्मन का मकान नहीं है बल्कि तुम्हारे दोस्त का है तो फिर क्यों तरददुद करती हो?
इन्दु० : तो क्या मैं अपने दोस्त का नाम नहीं सुन सकती? आखिर नाम छिपाने का सबब ही क्या है?
कला : छिपाने का सबब केवल इतना ही है कि यहाँ का हाल सुन कर जितना तुम्हें आनन्द होगा उतना ही बल्कि उससे ज्यादे दुःख होगा और हकीमिनजी का हुक्म है कि अभी तुम्हें कोई ऐसी बात न कही जाय जिससे रञ्ज हो।
इन्दु० : यह कोई बात नहीं है, अगर है तो हकीमिनजी का केवल नखरा है और तुम लोगों का बहाना।
कला : अगर तुम ऐसा ही समझती हो तो लो आज मैं वह सब हाल कह दूँगी, मगर शर्त यह है कि सिवाय बिमला के और किसी को भी मालूम न हो कि मैंने तुमसे कुछ कहा था।
इन्दु० : नहीं-नहीं, मैं कसम खाकर कहती हूँ कि अपनी जुबान से किसी से भी कुछ न कहूँगी।
कला : अच्छा तो कुछ और रात बीत जाने दो और बिमला को भी आ जाने दो।
इतने ही में बिमला मे भी चौखट के अन्दर पैर रखा!
इन्दु० : लो बिमला भी आ गई।
कला : अच्छा हुआ मगर जरा सन्नाटा हो जाने दो!
बिमला : (कला के पास बैठ कर) क्या बात हैं?
कला : (धीरे से) ये यहाँ का हाल जानने के लिए बेताब हो रही हैं
बिमला : इनका बेताब होना उचित ही है मगर (इन्दु की तरफ देख के) आप तन्दुरूस्त हो जाती तब इसे पूछती तो अच्छा था नहीं तो...
इन्दु० : यही हठ तो और भी उत्कण्ठित करती है।
बिमला : सुनने से आपको जितनी खुशी होगी उससे ज्यादे रंज होगा।
इन्दु० : बला से, जो होगा देखा जायगा! मगर (उदासी से ) तुमसे तो मुझे ऐसी आशा नहीं थी कि ...
बिमला : (इन्दु का हाथ प्रेम से दवा कर) बहिन मैं तुमसे कोई बात नहीं छिपाऊँगी, कहूँगी, जरूर कहूँगी।
इन्दु० : तो फिर कहो।
बिमला : अच्छा सुनो मगर किसी के सामने इस बात को कभी दोहराना मत।
इन्दु० : कदापि नहीं।
बिमला : अच्छा खैर...यह बताओ कि तुम्हें अपना मायका (बाप का घर) छोड़े कितने दिन हुए?
इन्दु० : (कुछ सोच के) सहभग एक वर्ष और सात महीने के हुए होंगे। शादी भई और मायका छूटा तब से आज तक दुःख –ही-दुःख उठाती रही मैं अपनी माँ और मौसेरी बहिनों को फूट-फूट कर रोती हुई छोड़ कर पति के साथ रवाना हुई थी, वह दिन कभी भूलने वाला नहीं।
इतना सुनते ही कला और बिमला की आँखो में आँसू आ गये।
बिमला : (आँसू पोंछ कर) मुझे भी वह दिन नहीं भूलने का!
इन्दु० : (आश्चर्य से) बहिन, तुम्हें वह दिन कैसे याद है,तुम वहां कहाँ थीं?
बिमला : मैं थी और जरूर थी, बल्कि हम दोनों बहनें (कला का तरफ इशारा करके) वहाँ थीं।
इन्दु० : सो कैसे, कुछ कहो भी तो।
बिमला : बस इतना ही तो असल भेद है, सब बातें इसी से सम्बन्ध रखती हैं। (धीरे से) तुम्हारी वे दोनों मौसेरी बहिनें हम दोनों कला और बिमला के नाम से आज साल-भर से यहाँ निवास करती हैं यद्यपि देखनें में हर तरह से सुख भोग रही है मगर वास्तव में हमारे दुःख का कोई पारावार नहीं!
इन्दु० : (बड़े ही आश्चर्य से) यह तो तुम ऐसी बात कहती हो कि जिसका स्वप्न में भी गुमान हीं हो सकता! यद्यपि तुम दोनों की उम्र वही होगी,चाल-ढाल, बातचीत सब उसी ढंग की है, मगर सूरत-शक्ल में जमीन-आसमान का फर्क हैं। ओह! नहीं, यह कैसे हो सकता हैं। मुझे कैसे विश्वास हो सकता हैं?
बिमला : (मुस्करा कर) हम दोनों की सूरत –शक्ल में भी किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा मैं सहज ही में विश्वास दिला दूँगी कि जो कुछ कहती हूँ वह बाल-बाल सच हैं अच्छा ठहरो, मैं तुम्हें अभी बता देती हूँ।
इतना कह कर बिमला उठी और उसने इस कमरे के कुल दरवाजे बन्द कर दिए।
इन्दु (सोचती है): हैं, तब से इसी कमरे में हैं, और इसके बाहर का हाल कुछ भी मालूम नहीं हैं, वह नहीं जानती कि इस कमरे के बाहर कोठरी है या उसमें अभी बाहर निकलने की ताकत ही नहीं आई। हाँ। इसके भीतर की तरफ दो कोठरी, एक पायखाना और एक नहाने का घर हैं, इन्हें इन्दु जरूर जानती है क्योंकि इन कोठरियों से उसे वास्ता पड़ चुका हैं।
बिमला इन्दु के पास से उठ कर दरवाजा बन्द करने के बाद उसी नहाने वाली कोठरी में चली गई और थोड़ी ही देर मे लौट कर मुस्कराती हुई इन्दु के पास आई और बोली, ‘‘अब तुम मुझे गौर से देखो और पहचानो कि मैं कौन हूँ!’’
यद्यपि इन्दु बीमार, कमजोर और हतोत्साह थी तथापि बिमला की नवीन सूरत देखते ही चौंकी और उठ कर उसके गले से लिपट गई।
बिमला : बस समझ लो कि इसी तरह कला भी सूरत बदले हुए है। हम दोनों बहनें एक साथ एक ही तरह कला भी सूरत बदले हुए हैं। हम दोनों बहने एक साथ एक ही अनुष्ठान साधन के लिए सूरत बदल कर ग्रहदशा के दिन काट रही हैं। जब तक कमबख्त भूतनाथ से बदला न ले लेंगी तब तक ...
इन्दु० : (बिमला को छोड़ कर) अहा! मुझे कब आशा थी कि इस तरह अपनी बहिन जमना, सरस्वती को देखूंगी, मगर भूतनाथ...
कला : (बिमला से) बस बहिन, अब बातें पीछे करना पहिले अपनी सूरत बदलो और उस झिल्ली१ को चढ़ा कर बिमला बन जाओ, दरवाजे खोल दो और आराम से बातें करो।
१. इस झिल्ली को वैसा ही समझना चाहिए जैसा ‘चन्द्रकान्ता’ चौथे भाग के आखिर में चन्द्रकान्ता चपला और चम्पा ने उतारकर दिखाई थी.
बिमला उठी और पुनः उसी कमरे में जाकर अपनी सूरत पहिले जैसी बनाकर लौट आई। काम केवल इतना ही किया था कि एक अदभूत झिल्ली जो अपने चेहरे से उतारी थी फिर चढ़ा कर जैसी-की-तैसी बन बैठी। कला ने कमरे के दरवाजे खोल दिए और आराम के साथ बैठकर फिर तोनों बातचीत करने लगीं।
इन्दु० : बहिन, तुमने मिल कर मैं बहुत प्रसन्न हुई, अब तुम अपना हाल कह जाओ और यह बताओ कि यह मकान किसका है, मेरी मौसी का या मेरी मां का!
बिमला : दोनों में किसी का भी नहीं।
इन्दु० : (ताज्जुब से) तो क्या तुम दोनों लावारिस हो गई? कोई तुम्हारा मालिक नहीं रहा?
बिमला : रहा और नहीं भी रहा!
इन्दु० : सो कैसी बात? यह मैं जानती हूँ कि दयारामजी के मरने से तुम दोनों विधवा हो गई क्योंकि भाग्यवश दोनों बहिनें एक ही साथ ब्याही गई थीं फिर भी हम लोगों के माँ-बाँप ऐसे गए-गुजरे नहीं कि हम लोग लावारिस समझी जायें।
बिमला : (अपनी आँखों से आँसू पोंछ कर) नहीं लावारिस तो नहीं है मगर अभागी और दैव की सताई हुई जरूर हैं। हम दोनों बहिनों को मालूम हो गया कि हमारे निर्दोष पति को गदाधरसिंह ने मारा है और बस यही जान लेना हमारी इस ग्रहदशा का कारण है।
इन्दु० : (चौंक कर) हैं।! कौन गदाधरसिंह?
बिमला : वही जो हमारे ससुर का ऐयार और हमारे पति का दिलीदोस्त कहलाता है।
इन्दु० : (बड़े ही आश्चर्य से) यह बात तबीयत में नहीं जमती। ऐयारी के फन से यह बिल्कुल विरुद्ध है। ऐयार चाहे कैसा ही बेईमान क्यों न हो मगर मालिक के साथ ऐसा फरेब कभी नहीं करेगा और गदाधरसिंह तो एक नेक ऐयार गिना जाता है, एक दफे मैंने भी उसकी सूरत देखी है।
बिमला : बहिन, बेशक ऐसा ही है, यद्यपि अभी किसी को इस बात की खबर नहीं है, यहाँ तक कि मेरे माँ-बाप और ससुर को भी इस बात का विश्वास नहीं हो सकता है पर मुझे तो जो कुछ पता लगा है वह यही है और बहुत ठीक भी है।
कला : और इतना भी मैं कहूँगी कि मेरे ससुर को भी इस बात का शक जरूर हो गया, खास करके तब से जब से गदाधरसिंह ने अपना काम या हमारे यहाँ का रहना एक प्रकार से छोड़ दिया है, यद्यपि हमारे ससुर इस विचार को प्रकट नहीं करते।
बिमला : इस समय वही गदाधरसिंह तुम्हारा रक्षक बना है और भूतनाथ के नाम से तुम्हारे साथ दोस्ती दिखलाता है, मगर हम दोनों कब उस पर विश्वास करने लगीं!
इन्दु० : (चौंककर) हैं!! क्या वही गदाधरसिंह भूतनाथ बना है?
बिमला : हाँ वही भूतनाथ है जिसके फन्दे से बचा कर मैं तुमको यहाँ ले आई।
कला : बहिन, हम दोनों वे बातें जानती हैं जो अभी दुनिया में किसी को मालूम नहीं हैं या अगर मालूम हैं भी तो केवल दो ही चार आदमियों को।
बिमला : मैं भी भूतनाथ को वह मजा चखाऊँगी कि उसे नानी याद आ जायगी और वह समझ जायगा कि दुनिया में औरतें कहां तक कर सकती हैं।
इन्दु० : तुम्हारी बातों ने तो मुझे पागल बना दिया! मैं वे बातें सुन रही हूँ जिनके सुनने की आशा न थी। तो तुम यह भी कहोगी कि गुलाबसिंह ने भी हम लोगों के साथ दगा की और जान-बूझकर हम दोनों को भूतनाथ के हवाले कर दिया?
बिमला : कौन गुलाबसिंह, भानुमति वाला?
बिमला : (कुछ सोच कर) इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकती क्योंकि अभी, मैंने तुम्हारी जुबानी तुम्हारा हाल कुछ भी नहीं सुना, मैं नहीं जानती कि तुम क्योंकर घर से निकलीं, तुम पर क्या आफतें आईं, और गुलाबसिंह ने तुम्हारे साथ क्या सलूक किया।
तथापि गुलाबसिंह पर शक करने की इच्छा नहीं होती क्योंकि वह बड़ा नेक और ईमानदार आदमी है तथा हमारे घर के कई एहसान भी उसके ऊपर हैं यदि वह माने, यों तो आदमी का ईमान बिगड़ते देर नहीं लगती क्योंकि आदमी का शैतान हरदम आदमी के साथ रहता है।
इन्दु० : ठीक है, अच्छा मैं भी अपना हाल कह सुनाऊँगी मगर पहिले यह सुन लूँ कि क्योंकर यहाँ आई और क्योंकर तुमने मुझे दुश्मनों के हाथ से बचाया है।
बिमला : हाँ-हाँ, मैं कहती हूँ सुनो, अच्छा यह बताओ कि तुम उन दुश्मनों को जानती हो जिनके हाथ में फंसी थीं?
बिमला : वे महाराज शिवदत्त के आदमी थे!
इन्दु० : ओफ ओह, जिसके खौफ से हम लोग भागे हुए थे! मगर अभी तुम कह चुकी हो कि तुमने मुझे भूतनाथ के हाथ से बचाया है।
बिमला : हाँ, बेशक वैसा भी कह सकते हैं क्योंकि भूतनाथ तो हम लोगों का सबसे बड़ा दुश्मन ठहरा, मगर इधर तुम शिवदत्त ही के आदमियों के हाथ में फँसी थीं। इत्तिफाक से हम लोग भी उसी समय वहाँ जा पहुँचे और लड़-भिड़ कर उन लोगों के हाथ से तुम्हें छुड़ा लाए। बस यही तो मुख्तसर हाल है।
इन्दु० : (आश्चर्य से) तुममें इतनी ताकत कहाँ से आ गई कि उन लोगों से लड़ कर मुझे छुड़ा लाईं?
बिमला : (मुस्कराती हुई) हाँ इस समय मुझमें इतनी ताकत है, मेरे पास दो ऐयार हैं तभी बीस-पचीस सिपाही भी रखती हूँ।
इन्दु० : तो ये सब तुम्हारे बाप या ससुर को नौकर होंगे? जरूरत पड़ने पर तुम्हें उनसे इजाजत लेनी पड़ती होगी?
बिमला : (एक लम्बी साँस लेकर) नहीं बहिन, ऐसा नहीं है। हम दोनों अपने घर और ससुराल से मंजिलों दूर पड़े हुए हैं। हम लोगों की किसी को कुछ खबर ही नहीं बल्कि यों कहना कुछ अनुचित न होगा कि अपने नातेदारों के खयाल से हम दोनों बहिनें मर चुकी हैं और किसी को खोजने या पता लगाने की भी जरूरत नहीं।
इन्दु० : (आश्चर्य से) तुम्हारी बातें तो बड़ी ही विचित्र हो रही हैं, अच्छा तो तुम यहाँ किसके भरोसे पर बैठी हो और तुम्हारा मददगार कौन है?
बिमला : यह बहुत ही गुप्त बात है, तुम भी किसी से इसका जिक्र न करना, मैं यहाँ इन्द्रदेव के भरोसे पर हूँ, वही मेरे मददगार हैं और यह उन्हीं का स्थान है, वही मेरे बाप हैं, वही मेरे ससुर हैं, और वही इस समय वही मेरे पूज्य इष्टदेव हैं?
इन्दु० : कौन इन्द्रदेव?
बिमला : वही तिलिस्मी इन्द्रदेव! मेरे ससुर के सच्चे मित्र!!
इन्दु० : (सिर हिलाकर) आश्चर्य! आश्चर्य!! और तुम्हारे ससुर को इस बात की खबर नहीं है।
बिमला : हाँ बिलकुल नहीं है।
इन्दु० : यह कैसी बात है?
बिमला : ऐसी ही बात है। मैं जो कह चुकी कि उन लोगों के ख्याल से हम दोनों इस दुनिया में नहीं हैं।
इन्दु० : आखिर उन्हें इस बात का विश्वास कैसे हुआ कि जमना और सरस्वती मर गईं?
बिमला : सो मैं नहीं जानती क्योंकि यह कार्रवाई इन्द्रदेवजी की है। मैं सूर्यमासी (इन्द्रदेव की स्त्री) के यहाँ न्योते में आई थी, उसी जगह उन्होंने (इन्द्रदेव ने) मुझे गुप्त भाव से बताया कि भूतनाथ ने मेरे पति के साथ कैसा सलूक किया। मालूम होते ही मेरे तन-बदन में आग-सी लग गई और मैंने उसी समय उनके सामने प्रतिज्ञा की कि ‘भूतनाथ से इसका बदला जरूर लूँगी; (एक लम्बी साँस लेकर) गुस्से में प्रतिज्ञा तो कर गई मगर जब बिचारा तो कहाँ मैं और कहाँ भूतनाथ।
पहाड़ और राई का मुकाबला कैसा? ऐसा ख्याल आते ही मैं इन्द्रदेव के पैरों पर गिर पड़ी और बोली कि ‘मेरी इस प्रतिज्ञा की लाज आपको है, बिना आपकी मदद के मेरी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो सकती और वैसी अवस्था में मुझे आपके सामने भी ही प्राण दे देना पड़ेगा’ इत्यादि।
इन्द्रदेव को भी इस अनुचित घटना का बड़ा दुख था परन्तु मेरी उस अवस्था ने उन्हें और दुःखित कर दिया तथा मेरी प्रार्थना पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया बल्कि मेरी प्रतिज्ञा पूरी करना उन्होंने आवश्यक और धर्म समझ लिया। बस फिर क्या था, मेरे मन की भई! जैसा कि मैं चाहती थी उससे बढ़ कर उन्होंने मुझे मदद दी और सच तो यह है कि उनसे बढ़ कर इस दुनिया में मुझे कोई मदद दे ही नहीं सकता। खैर मैं खुलासा हाल फिर कभी सुनाऊँगी, मुख्तसर यह है कि उन्होंने हर प्रकार की मदद करने का बन्दोबस्त करके हम दोनों को समझाया कि अब किस तरह की जिन्दगी हम दोनों को अख्तियार करनी चाहिए।
सबसे पहले इन्द्रदेवजी ने यही बताया कि ‘प्रकट में तुम दोनों बहिनों को इस दुनिया से उठ जाना चाहिए अर्थात् तुम्हारे रिश्तेदार के साथ-ही-साथ और सभों को यह मालूम हो जाना चाहिए कि जमना और सरस्वती मर गईं। यह बात मुझे पसन्द आई। आखिर इन्द्रदेव ने हम दोनों की सूरत बदलकर रहने और अपना काम करने का बन्दोबस्त करके न मालूम हमारे रिश्तेदारों को कैसे क्या समझा दिया और क्योंकर विश्वास दिला दिया कि सब कोई हमारी तरफ से निश्चिन्त हो गए, उनकी इच्छानुसार बहुत ही गुप्त भाव से हम दोनों यहाँ कला और बिमला के नाम से रहती हैं। जो लोग हमारे साथ हैं वे सब इन्द्रदेव के आदमी हैं मगर उनको भी यह नहीं मालूम है कि हम दोनों वास्तव में जमना और सरस्वती हैं!
इन्दु० : (आश्चर्य से) क्या तुम्हारे घर में जितने आदमी है उनमें से किसी को भी तुम्हारा सच्चा हाल मालूम नहीं है?
बिमला : किसी को भी नहीं।
इन्दु० : तो फिर मेरे बारे में तुमने लोगों को क्या समझाया है?
बिमला : मैंने यह किसी को भी नहीं कहा कि तुम मेरी रिश्तेदार हो, केवल यही कहा है कि तुम्हें भूतनाथ तथा शिवदत्त के हाथ से बचाना हमारा धर्म है। अस्तु अब उचित यही है कि हमारी तरह तुम भी अपनी सूरत बदल कर यहाँ रहो और अपने दुश्मनों से बदला लो, हम लोगों का बाकी हालचाल तुम्हें आप ही धीरे-धीरे मालूम हो जायगा।
इन्दु० : ठीक है, और जैसा तुम कहती हो मैं वैसा ही करूँगी, मगर (सिर झुका कर) मेरे पति का मुझसे...
बिमला : (बात काट कर) नहीं-नहीं उनके बारे में तुम कुछ भी चिन्ता मत करो, आज मैं उनको तुम्हें जरूर दिखा दूँगी और फिर ऐसा बन्दोबस्त करूँगी कि तुम दोनों एक साथ...
इन्दु० : (प्रसन्न होकर) इससे बढ़ कर मेरे लिए और कोई दूसरी बात नहीं हो सकती, मगर यह तो बताओ कि इस समय वे कहां हैं?
बिमला : (मुस्कराती हुई) इस समय वे मेरे ही घर में हैं और मेरे कब्जे में हैं,
इन्दु० : (घबड़ा कर) यह कैसी बात है? अगर यहीं हैं तो मुझे दिखाओ।
बिमला : मैं दिखाऊँगी, मगर जरा रुकावट के साथ।
इन्दु० : सो क्यों?
बिमला (कुछ सोच कर) अच्छा चलो पहिले मैं तुम्हें उनके दर्शन करा दूँ फिर सलाह विचार कर के जैसा होगा देखा जाएगा। मगर इस सूरत में मैं तुम्हें उनके सामने न ले जाऊँगी।
इन्दु० : सो क्यों?
बिमला : तुम अपनी सूरत बदलो और इस बात का वादा करो कि जब मैं उनके सामने तुम्हें ले जाऊँ तो चुपचाप देख लेने के सिवाय उनके सामने एक शब्द भी मुँह से न निकालोगी।
इन्दु० : आखिर इसका सबब क्या है?
बिमला : सबब पीछे बताऊँगी।
इन्दु० : अच्छा तो फिर जो कुछ तुम कहती हो मुझे मंजूर है।
‘‘अच्छा लो मैं बन्दोबस्त करती हूँ।’’ यह कह कर बिमला उठी और कुछ देर के लिए कमरे के बाहर चली गई।
जब लौटी तो उसके हाथ में एक छोटी-सी सन्दूकड़ी थी, उसी में से सामान निकाल कर उसने इन्दुमति की सूरत बदली और वैसी ही एक झिल्ली उसके चेहरे पर भी चढ़ाई जैसी आप पहरे हुए थी। जब हर तरह से सूरत दुरुस्त हो गई तब हाथ का सहारा देकर उसने इन्दु को उठाया और कमरे के बाहर ले गई।
कमरे के बाहर एक दालान था जिसके एक बगल में तो ऊपर की मंजिल में चढ़ जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं तथा उसी के बगल में नीचे उतर जाने का रास्ता था और दालान के दूसरी तरफ बगल में सुरंग का मुहाना था मगर उसमें मजबूत दरवाजा लगा हुआ था। इन्दु को उसी सुरंग में बिमला के साथ जाना पड़ा।
सुरंग बहुत छोटी थी, तीस-पैंतीस कदम जाने के बाद उसका दूसरा मुहाना मिल गया जहाँ से सुबह की सुफेदी निकल आने के कारण मैदान की सूरत दिखाई दे रही थी। जब इन्दुमति वहां हद्द पर पहुँची तब उसकी आँखों के सामने वही सुन्दर घाटी या मैदान तथा बंगला था जिसका हाल हम इस भाग के चौथे बयान में लिख आए हैं या यों कहिए कि जहाँ पर एक पेड़ के साथ लटकते हुए हिंडोले पर प्रभाकरसिंह ने तारा को बैठा देखा था।
वही त्रिकोण घाटी और वही सुन्दर बंगला जिसके चारों कोनों पर मौलसिरी (मालश्री) के पेड़ थे इन्दुमति की आँखों के सामने था जिन्हें वह बड़े गौर से देख रही थी बल्कि यों कहना चाहिए कि वहाँ की सुन्दरता और कुदरती गुलबूटों ने इन्दु की निगाह पड़ने के साथ ही लुभा लिया और इसके साथ ही प्रभाकरसिंह की याद ने आँसू बनकर निगाह के आगे पर्दा डाल दिया।
आँखें साफ करके वह हरएक चीज को गौर से देखने लगी। इसी बीच एक चट्टान पर बैठे हुए प्रभाकरसिंह पर उसकी निगाह पड़ी जिनके चारों तरफ कुदरती सुन्दर पौधे और खुशरंग फूलों के पेड़ बहुतायत से थे जो उदास आदमी के दिल को भी अपनी तरफ खींच लेते थे और जिन पर सूर्य भगवान की ताजी-ताजी किरणें पड़ रही थीं।
आह, प्रभाकरसिंह को देख कर इन्दुमति की कैसी अवस्था हो गई यह लिखना हमारी सामर्थ्य के बाहर है।
कुछ देर तक एकटक उनकी तरफ देखती रही। न तो वहाँ से नीचे की तरफ उतरने का कोई रास्ता था और न वह यही जानती थी कि वहां तक क्योंकर पहुँच सकेगी, अस्तु वह बेचैन होकर घूमी और यह कहती हुई बिमला के गले से लिपट गई कि ‘बहिन, तुम बेशक तिलिस्म की रानी हो गई हो’!
बिमला : बहिन, घबड़ाओ मत, जरा गौर से देखो तो...
इन्दु० : (बिमला को छोड़कर) तो क्या जो कुछ मैं देख रही हूँ केवल भ्रम है?
बिमला : नहीं, ऐसा नहीं है।
इन्दु० : तो फिर यह स्थान किसका है?
बिमला : इस समय तो मेरा ही है।
इन्दु० : तो क्या ये भी तुम्हारे मेहमान हैं?
बिमला : बेशक।
इन्दु० : कब से?
बिमला : कई दिनों से, या यों कहो कि जब से तुम आई हो उससे भी पहिले...
इन्दु० : (आश्चर्य, दुःख और क्लेश से) तब तुमने इनसे मुझे मिलाया क्यों नहीं बल्कि हाल तक नहीं कहा, ऐसा क्यों?
बिमला : इसके कहने का मौका ही कब मिला! आज ही तो इस योग्य हुई हो कि कुछ बातें कर सकूँ। इसके अतिरिक्त तुम्हारी मुलाकात के बाधक वे स्वयं भी हो रहे हैं। जिस तरह तुम मेरा साथ दिया चाहती हो उस तरह वे मेरा साथ नहीं दिया चाहते हैं, जिस तरह तुमसे मुझे उम्मीद है उस तरह उनसे नहीं, जिस तरह तुम मेरा पक्ष कर सकती हो और करोगी उस तरह वे नहीं करते बल्कि आश्चर्य यह है कि वे भूतनाथ के पक्षपाती हैं और इसी बात का उन्हें हठ है, फिर तुम ही सोचो कि मैं क्योंकर...
इन्दु० : (जोर देकर) नहीं बहिन! ऐसी भला क्या बात है। उन्हें सच्चे मामले की खबर न होगी!
बिमला : सब कुछ खबर है। इसी वास्ते मैं उन्हें यहाँ लाई थी और भूतनाथ के कब्जे से पहिले ही दिन, जब तुम लोग सुरंग में घुसे थे छुड़ाने का उद्योग किया था परन्तु खेद है कि वे (प्रभाकरसिंह) तो मेरे कब्जे में आ गए और तुम आगे निकल गई जिससे तुम्हें इतना कष्ट भी भोगना पड़ा।
इन्दु० : (आश्चर्य) सो कैसी बात? तुम्हीं ने उन्हें मुझसे जुदा किया था? बिमला : हाँ ऐसा ही है। (हाथ का इशारा करके) बस इसी घाटी के बगल ही में उस तरफ भूतनाथ का स्थान है, रास्ता भी करीब-करीब मिलता-जुलता है। भूतनाथ की घाटी में जाने के लिए जो रास्ता या सुरंग है उसी में से एक रास्ता और भी है जिससे प्रायः हम लोग आया-जाया करते हैं। जिस समय तुम लोग भूतनाथ के साथ सुरंग में घुसे थे उस समय मैं देख रही थी।
इन्दु० : फिर तुमने कैसे उन्हें बुला लिया?
इसके जवाब में बिमला ने खुलासा हाल जिस तरह प्रभाकरसिंह को सुरंग के अन्दर धोखा देकर अपने कब्जे में ले आई थी बयान किया जो कि हम चौथे बयान में लिख चुके हैं।
अब हमारे पाठक समझ गये होंगे कि भूतनाथ के पीछे-पीछे सुरंग के अन्दर चलने वाले प्रभाकरसिंह को जिन्होंने धोखा देकर गायब किया वे बिमला और कला यही दोनों बहिनें थीं और यह काम उन्होंने नेकनीयत के साथ किया था ऐसा ही इन्दुमति का विश्वास है।
खुलासा हाल सुनकर इन्दुमति कुछ देर तक चुप रही फिर बोली—
इन्दु० : अच्छा यह बताओ कि मेरे आने की उन्हें खबर भी है या नहीं?
बिमला : कुछ-कुछ खबर है! तुम्हारे लिए वे बहुत ही बेचैन हैं, कलपते हैं, रोते हैं, मगर फिर भी भूतनाथ का पक्ष नहीं छोड़ते।
इन्दु० : तुमने अपने को उन पर प्रकट कर दिया?
बिमला : हां, भेद छिपा रखने की कसम खिला कर मैं उन्हें बतला दिया कि हम दोनों बहिनें जमना और सरस्वती हैं जिसे जान कर वे बहुत ही प्रसन्न हुए मगर इस बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि भूतनाथ मेरे पति के घातक हैं, गुलाबसिंह भूतनाथ का दोस्त है और गुलाबसिंह पर उन्हें पूरा विश्वास है।
इन्दु० : अच्छा तुम मुझे उनके सामने ले चलो, देखें वे क्योंकर राजी नहीं होते और कैसे तुम्हारा साथ नहीं देते।
बिमला : मुझे इसमें कोई उज्र नहीं है मगर तुम हर एक बात को अच्छी तरह सोच-विचार लो।
इन्दु० : (जोर देकर) कोई परवाह नहीं, तुम वहाँ चलो, (कुछ सोच के) मगर मैं अपनी असली सूरत में उनके सामने जाऊँगी!
बिमला : जैसी तुम्हारी मर्जी। चलो पीछे की तरफ लौटो, एक सुरंग के रास्ते पहिले (उंगली का इशारा करके) उस बीच वाले बंगले में पहुँचना होगा तब उनके पास जा सकोगी।
पहिला भाग : सातवाँ बयान
प्रभाकरसिंह को इस घाटी में आए यद्यपि आज लगभग एक सप्ताह के हो गया मगर दिली तकलीफ के सिवाय और किसी बात की उन्हें तकलीफ नहीं हुई। नहाने-धोने, खाने-पीने, सोने-पहिरने इत्यादि सभी तरह का आराम था परन्तु इन्दु के लिए वे बहुत ही बेचैन और दुःखी हो रहे थे। जिस समय वे उस घाटी में आये थे उस समय बल्कि उसके दो-तीन घंटे बाद तक वे बड़े ही फेर और तरद्दुद में पड़े रहे क्योंकि कला बिमला ने उनके साथ बड़ी दिल्लगी की थी, मगर इसके बाद उनकी घबराहट कम हो गई जब कला और बिमला ने उन्हें बता दिया कि वे दोनों वास्तव में जमना और सरस्वती हैं।
पेड़ के पास लटकते हुए हिंडोले पर बैठने वाली औरत ने उन्हें थोड़ी देर के लिए बड़े ही धोखे में डाला। जब उन्होंने पेड़ पर चढ़ने का इरादा दिया तो वहाँ पहरा देने वाले दोनों नौजवान लड़कों ने गड़बड़ मचा दिया दौड़ते हुए और कई आदमियोंको बुला लाए जिन्होंने प्रभाकरसिंह को घेर लिया मगर किसी तरह की तकलीफ नहीं दी और न कोई कड़ी बात ही कही।
दोनों नौजवान लड़कों के हल्ला मचाने पर जितने आदमी इकट्ठे हो गए थे वे सब कद में छोटे बल्कि उन्हीं दोनों नौजवान सिपाहियों के बराबर थे जिन्हें देख प्रभाकरसिंह ताज्जुब करने लगे और विचारने लगे कि क्या वे लोग वास्तव में मर्द हैं?
पहिले तो क्रोध के मारे प्रभाकरसिंह की आँखें लाल हो गईं मगर जब कुछ सोचने-विचारने पर उन्हें मालूम हो गया कि ये सब मर्द नहीं औरतें हैं तब उनका गुस्सा कुछ शान्त हुआ और उन सभों की इच्छानुसार वे उस बंगले के अन्दर चले गए जिसमें छोटे-बड़े सब मिला कर ग्यारह कमरे थे।
बीच वाले बड़े कमरे में साफ और सुथरा फर्श बिछा हुआ था। वहाँ पहुँचने के साथ ही बिमला पर उनकी निगाह पड़ी और वे पहिचान गए कि मुझे भुलावा देकर यहाँ लाने वालियों में से यह भी एक औरत है जो बड़ी ढिठाई के साथ इस अनूठे ढंग पर इस्तकबाल कर रही है।
प्रभाकरसिंह ने बिमला से कहा, ‘‘मालूम होता है कि यह मकान आप ही का है!’’
बिमला : जी हाँ, समझ लीजिए कि आप ही का है।
प्रभाकर : अच्छा तो मैं पूछता हूँ कि तुमने मेरे साथ ऐसा खोटा बर्ताव क्यों किया?
बिमला : मैंने आपके साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं किया बल्कि सच तो यों है कि आपको एक भयानक खोटे बेईमान और झूठे ऐयार के पंजे से बचाने का उद्येग किया जो कि सिवाय बुराई के कभी कोई भलाई का काम आपके साथ नहीं कर सकता था। अफसोस, आपको तो हम उसके फन्दे से निकाल लाए मगर बेचारी इन्दु फँसी रह गई जिसे बचाने के लिए हम लोग तन-मन-धन सभी अर्पण कर देंगे।
प्रभाकर : इसमें कोई सन्देह नहीं कि इन्दु के लिए मुझे बहुत बड़ी चिन्ता है और मैं यह नहीं चाहता कि वह किसी अवस्था में भी मुझसे अलग हो, मगर मैं इस बात का कभी विश्वास नहीं कर सकता कि भूतनाथ हम लोगों के साथ खोटा बर्ताव करेगा। मैं गुलाबसिंह की बात पर दृढ़ विश्वास रखता हूँ जिसने उसकी बड़ी तारीफ मुझसे की थी।
बिमला : नहीं, ऐसा नहीं है, वह...
प्रभा० : (बात काट कर) तुम्हारी बात मान लेना सहज नहीं है जिसने खुद मेरे साथ बुराई की! (क्रोध की मुद्रा से) बेशक तुमने मेरे साथ दुश्मनी की कि इन्दु को मुझसे जुदा करके एक आफत में डाल दिया! क्या जाने इस समय उस पर क्या बीत रही होगी!! हा, कहां है वह जिसे मैं अपनी साली समझता था जिसकी बात मान कर मैंने यह कष्ट उठाया! क्या अब वह अपना मुँह न दिखलावेंगी?
बिमला : आप क्रोध न करें, आपकी साली जरूर आपके सामने आवेगी और उसके साथ-साथ मैं भी इस बात को साबित कर दूँगी कि हम लोग आपके साथ दुश्मनी नहीं करते। इन्दु हमारी बहुत ही प्यारी बहिन है और उसे हम लोग हद्द से ज्यादे प्यार करते हैं, जिस तरह...
प्रभाकर : (सिर हिला कर) नहीं-नहीं, अगर तुम इन्दु को प्यार करती होतीं तो इस तरह मुझसे अलग कर के संकट में न डालतीं। कुछ देर के लिए यह भी मान लिया जाय कि भूतनाथ हमारा दुश्मन है, गुलाबसिंह ने हमसे जो कुछ कहा वह झूठ था, और तुमने वास्तव में हमें एक दुश्मन के हाथ से बचाना चाहा, मगर फिर भी यह कहना पड़ेगा कि वहाँ से बचा लाने के लिए वह ढंग अच्छा न था जो तुमने किया।
अच्छा होता यदि तुम मुझे यहाँ ले आने के बदले में उस जगह केवल इतना ही कह देतीं कि ‘देखो खबरदार हो जाओ, भूतनाथ का विश्वास मत करो, इन्दु को लेकर निकल भागो और फलानी राह से मेरे पास चले आओ’। बस अगर तुम ऐसा करतीं तो मैं तुम्हारी इज्जत करता।
बिमला : ठीक है मगर मुझे विश्वास नहीं था कि आप यकायक मेरी बात मान जायंगे।
‘‘यह सब तुम्हारी बनावटी बातें हैं।’’ इतना कह कर प्रभाकरसिंह एक उचित स्थान पर बैठ गए और बिमला भी उनके सामने बैठ गई।
प्रभाकर : (कई सायत तक कुछ सोचने के बाद) खैर पहिले यह बताओ कि जमना कहाँ है जिसके कारण मैं यहाँ तक आया?
बिमला : वे भी इसी जगह कहीं हैं, डर के मारे आपके सामने नहीं आतीं। उन्होंने मुझे यह कह कर आपके पास भेजा है कि ‘जीजाजी से मेरा प्रणाम कहो और यह कहो कि मैं यहाँ बड़े संकट में पड़ी हुई ग्रहदशा के दिन काट रही हूँ।
किसी कारणवश हर वक्त अपनी सूरत बदले रहती हूँ, दुश्मन पड़ोस में है जिसका हर दम डर ही लगा रहता है, अस्तु यदि आप मेरी रक्षा करने और मेरा भेद छिपाये रहने की प्रतिज्ञा करें तो मैं आपके सामने आऊं नहीं तो...
प्रभाकर : (आश्चर्य से) वाह वाह वाह!! (कुछ देर तक सोच कर) खैर जो कुछ हो, जमना को मैं इज्जत के साथ प्यार करता हूँ, वह मेरी बहुत ही नेक साली है। यद्यपि उसका यहाँ होना मेरे लिए ताज्जुब की बात है तथापि उसे देख कर मैं बहुत प्रसन्न होऊँगा। यदि यह उसी का मकान है तो मैं विशेष चिन्ता भी न करूंगा। तुम शीघ्र जाकर उसे कह दो कि मेरे सबब से तुम्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती, तुम्हारे भेद तुम्हारी इच्छानुसार मैं जरूर छिपाऊँगा।
प्रभाकरसिंह की बात समाप्त होते ही प्रसन्नता के साथ बिमला ने अपने चेहरे से झिल्ली उतार कर अलग रख दी और प्रभाकरसिंह के पैरों पर गिर पड़ी।
प्रभाकर : (बिमला को पैरों पर से उठा कर) जमना! अहा, क्या तुम वास्तव में जमना हो?
बिमला : जी हां, मैं वास्तव में जमना हूँ, इसमें आप कुछ भी संदेह न करें। ज्यादे देर तक तरददुद में न डाल कर मैं अभी आपका भ्रम दूर कर देती हूँ!
अपने जमना होने के सबूत में मैं आपको उस दिन की चिकोटी याद दिलाती हूँ जिस दिन मेरे यहाँ सत्यनारायण की कथा थी और जिसका हाल सिवाय आपके और किसी को नहीं मालूम है।
प्रभाकर : (प्रसन्न होकर) बेशक, बेशक, अब मुझे कुछ भी सन्देह नहीं रहा, परन्तु आश्चर्य! आश्चर्य!! तुम्हारे ससुर ने हाल ही में अपने हाथ से मुझे चीठी लिखी थी कि जमना और सरस्वती दोनों मर गई हैं! मैंने यह हाल अभी तक तुम्हारी बहिन इन्दु से नहीं कहा क्योंकि इस संकट के जमाने में इस खबर को सुना कर उन्हें और दुःख देना मैंने उचित नहीं जाना। मगर अब मुझे कहना पड़ा कि तुम्हारे ससुर ने झूठ लिखा, न मालूम क्यों?
बिमला : नहीं-नहीं, उन्होंने झूठ नहीं लिखा, उन्हें यही मालूम है कि जमना-सरस्वती दोनों मर गईं, मगर वास्तव में हम दोनों जीती हैं।
प्रभाकर : यह तो तुम और भी आश्चर्य की बात सुनाती हो!
बिमला : आपके लिए बेशक आश्चर्य की बात है। इसी से तो मैंने आपसे प्रतिज्ञा करा ली कि मेरे भेद आप छिपाये रहें, जिनमें से एक यह भी बात है कि हमारा जीते रहना किसी को मालूम न होने पाये।
इतना कह कर बिमला ने ताली बजाई। उसी समय तेजी के साथ सरस्वती (कला) एक दरवाजा खोल कर कमरे के अन्दर आई और प्रभाकरसिंह के पैरों पर गिर पड़ी। प्रभाकरसिंह ने प्रेम से उसे उठाया और कहा, ‘‘आह! मैं इस समय तुम दोनों को देख कर बहुत ही प्रसन्न हुआ क्योंकि सुरंग में तुम दोनों को देखना विश्वास के योग्य न था।
अब यह मालूम होना चाहिये कि तुम लोग यहाँ क्यों, किसके भरोसे पर और किस नीयत से रहती हो, तथा बाहर मौलसिरी (मालश्री) के पेड़ पर मैंने किसे देखा? नहीं-नहीं, वह इस सरस्वती के सिवाय कोई और न थी, मैं पहिचान गया, इसी की सूरत इन्दु से विशेष मिलती है!’’
बिमला : बेशक वह सरस्वती ही थी, क्षण-भर के लिए इसने आपके साथ दिल्लगी की थी।
कला : (मुस्कराती हुई) मगर जो कुछ मैं किया चाहती थी वह न कर सकी।
प्रभाकर : वह क्या?
कला : बस अब उसका कहना ठीक नहीं।
प्रभाकर : अच्छा यह बताओ कि तुम लोग यहाँ छिप कर क्यों रहती थीं?
बिमला : इसलिए कि कम्बख्त भूतनाथ से बदला लेकर कलेजा कुछ ठंडा करें, आपको नहीं मालूम कि वह मेरे पति का घातक है। उसने अपने हाथ से उन्हें मार कर हम दोनों बहिनों को विधवा बना दिया!!
प्रभाकर : (आश्चर्य से) यह तुम क्या कह रही हो?
बिमला : बेशक ऐसा ही है आपने उस कमीने को पहिचाना नहीं। वह वास्तव में गदाधरसिंह हैं, सूरत बदले हुए चारों तरफ घूम रहा है। आजकल वह अपनी नौकरी पर अर्थात् मेरे ससुर के यहाँ नहीं रहता।
प्रभाकर : यह तो मुझे भी मालूम है, गदाधरसिंह लापता हो रहा है और किसी को उसका ठीक हाल मालूम नहीं है, मगर यह बात मेरे दिल में नहीं बैठती कि भूतनाथ वास्तव में वही गदाधरसिंह है।
बिमला : मैं जो कहती हूँ बेशक ऐसा ही है।
प्रभाकर : (सिर हिलाकर) शायद हो। (कुछ सोच कर) खैर पहिले मैं इन्दु को उसके यहाँ से हटाऊँगा और तब साफ-साफ उससे पूछूँगा कि बताओ तुम गदाधरसिंह हो या नहीं? मगर फिर भी इसका सबूत मिलना कठिन होगा कि दयाराम को उसी ने मारा है।
बिमला : नहीं-नहीं, आप ऐसा कदापि न करें नहीं तो हमारा सब उद्योग मिट्टी में मिल जायगा।
प्रभाकर : नहीं, मैं जरूर पूछूंगा और यदि तुम्हारा कहना ठीक निकला तो मैं स्वयं उससे लड़ूँगा।
बिमला : (उदासी से) ओह! तब तो आप और भी अँधेर करेंगे!!
प्रभाकर : नहीं, इस विषय में मैं तुमसे राय न लूँगा।
बिमला : तब आप अपनी प्रतिज्ञा भंग करेंगे।
प्रभाकर : ऐसा भी न होने पावेगा (कुछ सोच कर) खैर यह तो पीछे देखा जायगा पहिले इन्दु की फिक्र करनी चाहिए। यद्यपि गुलाबसिंह उसके साथ है अभी यकायक उसे किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती।
बिमला : मैं उसके लिए बन्दोबस्त कर चुकी हूँ।
प्रभाकर: आप यहाँ से जाने दो, भूतनाथ के घर जाकर सहज ही में यदि तुम चाहती हो तो उसे यहाँ तुम्हारे पास ले आऊँगा!
बिमला : जी नहीं, ऐसा करने से मेरा भेद खुल जायगा। वह बड़ा ही कांइयाँ है, बात-ही-बात में आपसे पता लगा लेगा कि उसकी घाटी के साथ एक और स्थान है जहाँ कोई रहता है। अभी उसे यह मालूम नहीं।
प्रभाकर : नहीं-नहीं, मैं किसी तरह तुम्हारा भेद खुलने न दूँगा।
बिमला : अस्तु इस समय तो आप रहने दीजिए, पहिले जरूरी कामों से निपटिए, ध्यान, पूजा-पाठ कीजिए, भोजन इत्यादि से छुट्टी पाइए, फिर जैसी राय होगी देखा जाएगा। मैं कुछ इन्दु बहिन की दुश्मन तो हूं नहीं जो उसे तकलीफ होने दूँगी आपसे मुझे खुटका लगा हुआ है, अगर वह यहाँ न आई तो मैंने किया ही क्या!
प्रभाकर : खैर जैसी तुम्हारी मर्जी, थोड़ी देर के लिए ज्यादे जोर देने की भी अभी जरूरत नहीं।
बिमला : अच्छा तो अब आप कुछ देर के लिए हम दोनों को छुट्टी दीजिए, मैं आपके लिए खाने-पीने का इन्तजाम करूँ, तब तक आप इस (उंगली का इशारा करके) कोठरी में जाइए और फिर बंगले के बाहर जाकर मैदान और कुदरती बाग में जहाँ चाहिए घूमिए-फिरिये। मैं बहुत जल्द हाजिर होऊँगी, मगर आप इस बात का खूब ख्याल रखिएगा कि अब हम दोनों को जमना और सरस्वती के नाम से सम्बोधित न कीजिएगा और न हम दोनों घड़ी-घड़ी जमना और सरस्वती की सूरत में आपको दिखाई देंगी। हम दोनों का नाम बिमला और कला बस यही ठीक है।
उसके बाद और भी कुछ समझा-बुझा कर कला को साथ लिए हुए बिमला कमरे के बाहर चली गई।
प्रभाकरसिंह भी उठ खड़े हुए और कुछ सोचते हुए उस कमरे में टहलने लगे-वे सोचने लगे—क्या जमना का कहना सच है? क्या भूतनाथ वास्तव में गदाधरसिंह ही है? फिर मैंने उसे पहिचाना क्यों नहीं! संभव है कि रात का समय होने के कारण मुझे धोखा हुआ हो या उसी ने कुछ सूरत बदली हुई हो! मेरा ध्यान भी तो इस तरफ नहीं था कि गौर से उसे देखता और पहिचानने की कोशिश करता, लेकिन अगर वह वास्तव में गदाधर सिंह है तो निःसन्देह खोटा है और कोई भारी घात करने के लिए उसने यह ढंग पकड़ा है।
ऐयार भी तो पहले दर्जे का है, वह जो न कर सके थोड़ा है, मगर ऐसा तो नहीं हो सकता कि उसने दयाराम को मारा हो। अच्छा उसने रणधीरसिंह का घर क्यों छोड़ दिया जिनका ऐयार था और जो बड़ी खातिर से उसे रखते थे? सम्भव है कि दयाराम के मारे जाने पर उसने उदास होकर अपना काम छोड़ दिया हो, या यह भी हो सकता है कि दयाराम के दुश्मन और खूनी का पता लगाने के लिए ही उसने अपना रहन-सहन का रंग-ढंग बदल दिया हो। अगर ऐसा है तो रणधीरसिंहजी इस बात को जानते होंगे। गुलाबसिंह ने वह भेद मुझ पर क्यों नहीं खोला!
हो सकता है कि उन्हें यह सब मालूम न हो या वे धोखे में आ गए हों, परन्तु नहीं, गदाधरसिंह तो ऐसा आदमी नहीं था। अस्तु जो हो, बिना विचारे और अच्छी तरह हकीकत किए किसी पक्ष को मजबूती के साथ पकड़ लेना उचित नहीं है। इसके अलावे यह भी तो मालूम करना चाहिए कि जमना और सरस्वती इस तरह स्वतंत्र क्यों हो रही हैं और उन्होंने अपने को मुर्दा क्यों मशहूर कर दिया तथा यह अनूठा स्थान इन्हें कैसे मिल गया और यहाँ किसका सहारा पाकर ये दोनों रहती हैं। भूतनाथ से दुश्मनी रखना और बदला लेने का व्रत धारण करना कुछ हंसी-खेल नहीं है और इस तरह रहने से रुपये-पैसे की भी कम जरूरत नहीं है।
आखिर यह है क्या मामला! यह तो हमने पूछा ही नहीं कि यह स्थान किसका है और तुम लोग आजकल किसकी होकर रहती हो। खैर सब पूछ लेंगे। कोई-न-कोई भारी आदमी इनका साथी जरूर है, उसे भी भूतनाथ से दुश्मनी है।
क्या इन दोनों पर व्याभिचार का दोष भी लगाया जा सकता है। कैसे कहें ‘हाँ’ या ‘नहीं’ ऐसे खोटे दिल की तो ये दोनों थीं नहीं। मगर ये सती और साध्वी हैं तो इनका मददगार भी कोई इन्हीं का रिश्तेदार जरूर होगा, मगर वह भी कोई साधारण व्यक्ति न होगा जिसका यह अनूठा स्थान है। हाँ यह भी तो है कि यदि ये व्याभिचारिणी होती तो मुझे यहाँ न लातीं और इन्दु को भी लाने की चेष्टा न करतीं...मगर अभी यह भी क्योंकर कह सकते हैं कि इन्दु को यहाँ लाने की चेष्टा कर रही हैं! अच्छा जो होगा देखा जायगा, चलो पहिले मैदान में घूम आवें तब फिर उन दोनों के आने पर बातचीत से सब मामले की थाह लेंगे।’’
प्रभाकरसिंह दरवाजा खोल कर उस कोठरी में घुस गए जिसकी तरफ बिमला ने इशारा किया था। उसके अंदर नहाने तथा सन्ध्या-पूजा करने का पूरा-पूरा सामान रक्खा हुआ था, बल्कि एक छोटी-सी आलमारी में कुछ जरूरी कपड़े और भोजन करने के अच्छे-अच्छे पदार्थ भी मौजूद थे। प्रभाकरसिंह ने अपनी ढाल-तलवार एक खूँटी से लटका दी और तीर-कमान भी एक चौकी पर रख कर कपड़े का कुछ बोझ हलका किया और जल से भरा हुआ लोटा उठा कर कोठरी के बाहर निकले। कई कदम आगे गए होंगे कि कुछ सोचकर लौटे और उस कोठरी में जाकर अपनी तलवार खूँटी पर से उतार लाये और बंगले के बाहर निकले।
दिन पहर भर से ज्यादा चढ़ चुका था और धूप मैं गर्मी ज्यादे आ चुकी थी मगर उस सुन्दर घाटी में जिसमें पहाड़ी से सटा हुआ एक छोटा-सा चश्मा भी बह रहा था, जंगली गुलबूटे और सुन्दर पेड़ों की बहुतायत होने के कारण हवा बुरी नहीं मालूम होती थी। प्रभाकरसिंह पूरब तरफ मैदान की हद तक चले गए और नहर लाँघ कर पहाड़ी के कुछ ऊपर बढ़ गए जहाँ पेड़ों का एक बहुत अच्छा छोटा-सा झुरमुट था।
जब कुछ देर बाद वहाँ से लौटे तो नहाने और सन्ध्या पूजा के लिए इन्हें वह चश्मा ही प्यारा मालूम हुआ अस्तु वे उसके किनारे एक सुन्दर चट्टान पर बैठ गए। घंटे-डेढ़ घंटे के अंदर ही प्रभाकरसिंह सब जरूरी कामों से निश्चिंत हो गए तथा अपने कपड़े भी धोकर सुखा लिए।
इसके बाद उस बंगले में पहुँचे और इस आशा में थे कि जमना और सरस्वती यहाँ आ गई होंगी मगर एक लौंडी के सिवाय वहाँ और किसी को भी न देखा जिसकी जुबानी मालूम हुआ कि ‘उनके आने में अभी घंटे भर की देर है, तब तब तक आप कुछ जल-पान खा लीजिए जिसका सामान उस नहाने वाली कोठरी में मैजूद है।’
‘‘अच्छा’’ कह कर प्रभाकरसिंह ने उस लौंडी को तो बिदा कर दिया और आप एक किनारे फर्श पर तकिए का सहारा लेकर लेट गए और कुछ चिन्ता करने लगे।
घंटे भर क्या कई घंटे बीत गये पर जमना और सरस्वती न आईं और प्रभाकरसिंह तरह-तरह की चिन्ता में डूबे रहे, यहाँ तक कि उन्होंने कुछ जलपान भी न किया। जब थोड़ा-सा दिन बाकी रह गया तब वह घबड़ा कर बंगले के बाहर निकले और मैदान में घूमने लगे। अभी उन्हें घूमते हुए कुछ ज्यादे देर नहीं हुई थी कि एक लौंडी बँगले के अंदर से निकली और दौड़ती हुई प्रभाकरसिंह के पास आई तथा एक चीठी उनके हाथ में देकर जवाब कि इन्तजार किए बिना ही वापस चली गई।
प्रभाकरसिंह ने चीठी खोलकर पढ़ी, यह लिखा हुआ था :-
‘‘श्रीमान् जीजाजी,
मैं एक बड़े ही तरद्दुद में पड़ गई हूँ। मुझे मालूम हुआ है कि इन्दु बहिन बुरी आफत में पड़ा चाहती हैं, अस्तु मैं उन्हीं की फिक्र में जाना चाहती हूँ। लौटकर सब समाचार कहूँगी। आशा है कि तब तक आप सबके साथ यहाँ रहेंगे।
बिमला
इस चीठी ने प्रभाकरसिंह को बड़े ही तरद्दुद में डाल दिया और तरह-तरह की चिन्ता करते हुए वह उस मैदान में टहलने लगे। उन्हें कुछ भी सुध न रही कि किस तरफ जा रहे हैं और किधर जाना चाहिए। उत्तर तरफ का मैदान समाप्त करके वे पहाड़ी के नीचे पहुँचे और कई सायत तक रुके रहने के बाद एक पगडंडी देख ऊपर की तरफ चलने लगे।
लगभग तीस या चालीस कदम के ऊपर गये होंगे कि एक छोटा-सा काठ का दरवाजा नजर आया जिस पर साधारण जंजीर चढ़ी हुई थी।
वे इस दरवाजे को देख कर चौंके और चारों तरफ निगाह दौड़ा कर सोचने लगे, ‘‘हैं! यह दरवाजा कैसा? मैं तो बिना इरादा किये ही यकायक यहाँ आ पहुँचा मालूम होता है कि यह कोई सुरंग है। मगर इसके मुँह पर किसी तरह की हिफाजत क्यों नहीं है? यह दरवाजा तो एक लात भी नहीं सह सकता। शायद इसके अन्दर किसी तरह की रुकावट हो जैसी कि उस सुरंग के अंदर थी जिसकी राह से मैं यहाँ आया था? खैर इसके अन्दर चल के देखना तो चाहिए कि क्या है। कदाचित इस कैदखाने के बाहर ही निकल जाऊँ, बेशक यह स्थान सुन्दर और सुहावना होने पर भी मेरे लिए कैदखाना ही है।
यदि इस राह से मैं बाहर निकल गया तो बड़ा ही अच्छा होगा, मैं इन्दु को जरूर बचा लूँगा जो हो, मैं इस सुरंग के अन्दर जरूर चलूँगा मगर इस तरह निहत्थे जाना तो उचित नहीं पहिले बँगले के अन्दर चल कर अपनी पूरी पोशाक पहिरना और अपने हरबे लगा लेना चाहिये, न मालूम इसके अन्दर चल कर कैसा मौका पड़े! न भी मौका पड़े तो क्या? कदाचित् इस घाटी के बाहर ही हो जायें तो अपने हर्बे क्यों छोड़ जायें?’’
इस तरह सोच-विचार कर प्रभाकरसिंह वहाँ से लौटे और तेजी के साथ बँगले के अन्दर चले गये। बात-की-बात में अपनी पूरी पोशाक पहिर और हर्बे लगा कर वे बाहर निकले और मैदान तय करके फिर उसी सुरंग के मुहाने पर जा पहुँचे।
दरवाजा खोलने में किसी तरह की कठिनाई न थी अतएव वे सहज ही में दरवाजा खोल कर उस सुरंग के अन्दर चले गये। सुरंग बहुत चौड़ी-ऊँची न थी, केवल एक आदमी खुले ढंग से उसमें चल सकता था, अगर सामने से कोई दूसरा आदमी आता हुआ मिल जाय तो बड़ी मुश्किल से दोनों एक-दूसरे को निकाल कर अपनी-अपनी राह ले सकते थे। हाँ लम्बाई में यह सुरंग बहुत छोटी न थी बल्कि चार-साढ़े चार सौ कदम लम्बी थी।
सुरंग में पूरा अंधकार था और साथ ही इसके वह भयानक भी मालूम होता थी, मगर प्रभाकरसिंह ने इसकी कोई परवाह न की और हाथ फैलाये आगे की तरफ बढ़े चले गए। जैसे-जैसे आगे जाते थे सुरंग तंग होती जाती थी।
जब प्रभाकरसिंह सुरंग खतम कर चुके तो आगे का रास्ता बन्द पाया, लकड़ी या लोहे का कोई दरवाजा नहीं लगा हुआ था जिसे बन्द कहा जाय बल्कि अनगढ़ पत्थरों ही से वह रास्ता बन्द था। प्रभाकरसिंह ने बहुत अच्छी तरह टटोलने और गौर करने पर यही निश्चय किया कि बस अब आगे जाने का रास्ता नहीं है, मालूम होता है कि सुरंग बनाने वालों ने इसी जगह तक बना कर छोड़ दिया है और यह सुरंग अधूरी रह गई।
इस विचार पर भी प्रभाकरसिंह का दिल न जमा, उन्होंने सोचा कि जरूर इसमें कोई बात है और यह सुरंग व्यर्थ नहीं बनाई गई होगी। उन्होंने फिर अच्छी तरह आगे की तरफ टटोलना शुरू किया। मालूम होता था कि आगे छोटे-बड़े कई अनगढ़ पत्थरों का ढेर लगा हुआ है, इस बीच में दो-तीन पत्थर कुछ हिलते हुए भी मालूम पड़े जिन्हें प्रभाकरसिंह ने बलपूर्वक उखाड़ना चाहा। एक पत्थर तो सहज में ही उखड़ आया और जब उन्होंने उसे उठा कर अलग रक्खा तो छोटे-छोटे दो छेद मालूम पड़े जिनमें से उस पार की चीजें दिखाई दे रही थीं और यह भी मालूम होता था कि अभी कुछ दिन बाकी है, अब उन्हें और भी विश्वास हो गया कि अगर इस तरह और दो-तीन पत्थर अपने ठिकाने से हटा दिए जायें तो जरूर रास्ता निकल आयेगा अस्तु उन्होंने फिर जोर करना शुरू किया।
तीन पत्थर और भी अपने ठिकाने से हटाये गए और अब छोटे-छोटे कई सूराख दिखाई देने लगे मगर इस बात का निश्चय नहीं हुआ कि कोई दरवाजा भी निकल आवेगा।
उन सुराखों से प्रभाकरसिंह ने गौर से दूसरी तरफ देखना शुरू किया। एक बहुत ही सुन्दर घाटी नजर पड़ी और कई आदमी भी इधर-उधर चलते-फिरते नजर आये।
यह वही घाटी थी जिसमें भूतनाथ रहता था, जहाँ जाते हुए यकायक प्रभाकरसिंह गायब हो गए थे, और जहाँ इस समय गुलाबसिंह और इन्दुमति मौजूद हैं।
प्रभाकरसिंह ने उस घाटी को देखा नहीं था इसलिए बड़े गौर से उसकी सुन्दरता को देखने लगे। उन्हें इस बात की क्या खबर थी कि यह भूतनाथ का स्थान है और इस समय इसी में इन्दुमति विराज रही है तथा इस समय उनके देखते-ही-देखते वह एक भारी आफत में फँसा चाहती है।
प्रभाकरसिंह बराबर उद्योग कर रहे थे कि कदाचित् पत्थरों के हिलाने-हटाने से कोई दरवाजा निकल आये और साथ ही इसके घड़ी-घड़ी उन सुराखों की राह से उस पार की तरफ देख भी लेते थे। इस बीच में उनकी निगाह यकायक इन्दुमति पर पड़ी जो पहाड़ की उँचाई पर से धीरे-धीरे नीचे की तरफ उतर रही थी। बस फिर क्या था! उनका हाथ पत्थरों को हटाने के काम से रुक गया और वे बड़े गौर से उसकी तरफ देखने लगे, साथ ही इसके उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि यही भूतनाथ का वह स्थान है जहाँ हम इन्दुमति के साथ आने वाले थे।
थोड़ी ही देर में इन्दु भी नीचे उतर आई और धीरे-धीरे उस कुदरती बगीचे में टहलती हुई उस तरफ बढ़ी जिधर प्रभाकरसिंह थे और अन्त में एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गई जो प्रभाकरसिंह से लगभग पचास-साठ कद की दूरी पर होगी।
अब प्रभाकरसिंह उससे मिलने के लिए बहुत बेचैन हुए मगर क्या कर सकते थे, लाचार थे, तथापि उन्होंने उसे पुकारना शुरु किया। अभी दो ही आवाज दी थी कि उनकी निगाह और भी दो आदमियों पर पड़ी जो इन्दु से थोड़ी दूर पर एक मुहाने या सुरंग के अन्दर से निकले थे और इन्दु की तरफ बढ़ रहे थे। उन्हें देखते ही इन्दु भी घबराकर उनकी तरफ लपकी और पास पहुँच कर एक आदमी के पैरों पर गिर पड़ी जो शक्ल-सूरत में बिलकुल ही प्रभाकरसिंह से मिलता था या यों कहिए कि वह सचमुच का एक दूसरा प्रभाकरसिंह था।१
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१. देखिए तीसरा बयान, नकली प्रभाकरसिंह का भोलासिंह और इन्दु को धोखा देना।
प्रभाकरसिंह के कलेजे में एक बिजली-सी चमक गई। अपनी-सी सूरत बने हुए एक ऐयार का वहाँ पहुंचना और इन्दु का उसके पैरों पर गिर पड़ना उनके लिए कैसा दुखदायी हुआ इसे पाठक स्वयं विचार सकते हैं। केवल इतना ही नहीं उनके देखते-ही-देखते नकली प्रभाकरसिंह ने अपने साथी को विदा कर दिया और इसके बाद वह इन्दुमति को कुछ समझा कर अपने साथ ले भागा।
प्रभाकरसिंह चुटीले साँप की तरह पेंच खाकर रह गए, कर ही क्या सकते थे? क्योंकि वहाँ तक इतना पहुँचना बिलकुल असम्भव था।
उन्होंने पत्थरों को हटाकर रास्ता निकालने का फिर एक दफे उद्योग किया और जब नतीजा न निकला तो पेचोताब खाते हुए वहाँ से लौट पड़े। जब सुरंग के बाहर हुए तो देखा कि सूर्य भगवान अस्त हो चुके हैं और अंधकार चारों तरफ से घिरा आ रहा है अस्तु तरह-तरह की बातें सोचते और विचारते हुए प्रभाकरसिंह बंगले की तरफ लौटे और जब वहाँ पहुंचे तो देखा कि हर एक स्थान में मौके-मौके से रोशनी हो रही है।
प्रभाकरसिंह उसी कमरे में पहुँचे जिसमें बिमला से मुलाकात हुई थी और फर्श पर तकिए के सहारे बैठ कर चिन्ता करने लगे। वे सोचने लगे—
‘‘वह कौन आदमी होगा जिसने आज इन्दु को इस तरह से धोखे में डाला? इन्दु की बुद्धि पर भी कैसा पर्दा पड़ गया कि उसने उसे बिल्कुल नहीं पहिचाना! पर वह पहिचनाती ही क्योंकर? एक तो वह स्वयं घबड़ायी हुई थी दूसरे संध्या होने के कारण कुछ अंधकार-सा भी हो रहा था, तीसरे वह ठीक-ठीक मेरी सूरत बन कर वहाँ पहुँचा भी था, मुझमें और उसमें कुछ भी फर्क नहीं था, कम्बख्त पोशाक भी इसी ढंग की पहिने हुए थे, न मालूम इसका पता उसे कैसे लगा! नहीं, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि इस समय भी मेरी पोशाक वैसी ही है जैसी हमेशा रहती थी, इससे मालूम होता है कि वह आदमी मेरे लिए कोई नया नहीं हो सकता। अस्तु जो हो मगर इस समय इन्दु मेरे हाथ से निकल गई। न मालूम अब उस बेचारी पर क्या आफत आवेगी!
हाय, यह सब खराबी बिमला की बदौलत हुई है न वह मुझे बहका कर यहाँ लाती और न यह नौबत पहुँचती। हाँ, यह भी सम्भव है कि यह कार्रवाई बिमला ही ने की हो क्योंकि अभी कई घंटे बीते हैं कि उसने मुझे लिखा भी था कि इन्दु किसी आफत में फँसना चाहती है, उसकी मदद को जाती हूँ। शायद उसका मतलब इसी आफत से हो! क्या यह भी हो सकता है कि बिमला ही ने यह ढंग रचा हो और उसी ने किसी आदमी को मेरी सूरत बना कर इन्दु को निकाल लाने के लिए भेजा हो!
नहीं, अगर ऐसा होता तो वह यह न लिखती ‘इन्दु बहिन बुरी आफत में पड़ना चाहती है।’ हाँ, यह हो सकता है कि इस होने वाली घटना का पहिले से उसे पता लगा हो और इसी दुष्ट के कब्जे से इन्दु को छुड़ाने के लिए वह गई हो, जो हो, कौन कह सकता है कि इन्दु किस मुसीबत में गिरफ्तार हो गई! अफसोस इस बात का है कि मेरी आँखों के सामने यह सब कुछ हो गया और मैं कुछ न कर सका।’’
इसी तरह की बातें प्रभाकरसिंह को सोचते कई घंटे बीत गए मगर इस बीच में कोई शान्ति दिलानेवाला वहाँ न पहुँचा। कई नौजवान लड़के जो बँगले के बाहर पहरे पर दिखाई दिए थे इस समय उनका भी पता न था। दिनभर उन्होंने कुछ भोजन नहीं किया था मगर भोजन करने की उन्हें कोई चिन्ता भी न थी, वे केवल इन्दुमति की अवस्था और अपनी बेबसी पर विचार कर रहे थे, हाँ, कभी-कभी इस बात पर भी उनका ध्यान जाता कि देखो अभी तक किसी ने भी सुध न ली और न खाने-पीने के लिए ही किसी ने पूछा!
चिन्ता करते-करते उनकी आँख लग गई और नींद में भी वे इन्दुमति के विषय में तरह-तरह के भयानक स्वप्न देखते रहे। आधी रात जा चुकी जब एक लौंडी ने आकर उन्हें जगाया!
प्रभाकर : (लौंडी से) क्या है?
लौंडी : मैं आपके लिए भोजन की सामग्री लाई हूँ।
प्रभाकर : कहाँ है?
लौंडी : (उँगली से इशारा करके) उस कमरे में।
प्रभाकर : मैं भोजन न करूँगा, जो कुछ लाई हो उठा ले जाओ।
लौंडी : मैं ही नहीं कला जी भी आई हैं जो कि उसी कमरे में बैठी आपका इन्तजार कर रही हैं।
कला का नाम सुनते ही प्रभाकर उठ बैठे और उस कमरे में गए जिसकी तरफ लौंडी ने इशारा किया था। यह वही कमरा था जिसको दिन के समय प्रभाकरसिंह देख चुके थे और जिसमें नहाने-धोने का सामान तथा जलपान के लिए भी कुछ रखा हुआ था।
कमरे के अन्दर पैर रखते ही कला पर उनकी निगाह पड़ी जो एक कम्बल पर बैठी हुई थी। प्रभाकरसिंह को देखते ही वह उठ खड़ी हुई और उसने बड़े आग्रह से उन्हें उस कम्बल पर बैठाया जिसके आगे भोजन की सामग्री रक्खी हुई थी। बैठने के साथ ही प्रभाकरसिंह ने कहा—
प्रभा० : कला, आज तुम लोगों की बदौलत मुझे बड़ा ही दुःख हुआ।
कला : (बैठ कर) सो क्या?
प्रभा० : (चिढ़े हुए ढंग से) मेरी आँखों के सामने से इन्दु हर ली गई और मैं कुछ न कर सका!!
कला : ठीक है, आपने किसी सुरंग से यह हाल देखा होगा,
प्रभा० : सो तुमने कैसे जाना?
कला : यहाँ दो सुरंगें ऐसी हैं जिनके अन्दर से भूतनाथ की घाटी बखूबी दिखायी देती है। उनमें से एक के अन्दर के सुराख पत्थर के ढोकों से मामूली ढंग से बन्द किए हुए हैं और दूसरी के सूराख खुले हुए हैं जिनकी राह से हम लोग बराबर भूतनाथ के घर का रंग-ढंग देखा करती हैं।
प्रभाकर : ठीक है, इत्तिफाक से मैं उसी सुरंग के अन्दर पहुँच गया था जिसमें देखने के सूराख पत्थर के ढोकों से बन्द किए हुए थे।
कला : जी हाँ, मगर हम लोगों को आपसे पहिले इस बात की खबर लग चुकी थी।
प्रभाकर : तब तुम लोगों ने क्या किया?
कला : यही किया कि इन्दु बहिन को उस आफत से छुड़ा लिया।
प्रभा० : (प्रसन्नता से) तो इन्दु कहाँ है?
कला : एक सुरक्षित और स्वतंत्र स्थान में। अब आप भोजन करते जाइए और बातें किए जाइए, नहीं तो मैं कुछ नहीं कहूँगी, क्योंकि आप दिन-भर के भूखे हैं बल्कि ताज्जुब नहीं कि दो दिन ही के भूखे हों। यहाँ जो कुछ खाने-पीने का सामान पड़ा हुआ था उसके देखने से मालूम हुआ कि आपने दिन को भी कुछ नहीं खाया था।
मजबूर होकर प्रभाकरसिंह ने भोजन करना आरम्भ किया और साथ-ही-साथ बातचीत भी करने लगे।
प्रभाकर : अच्छा तो मैं इन्दु को देखना चाहता हूँ।
कला : जी नहीं, अभी देखने का उद्योग न कीजिए। कल जैसा होगा देखा जायगा क्योंकि इस समय उसकी तबीयत खराब है, दुश्मनों के हाथ से चोट खा चुकी है, यद्यपि उसने बड़े साहस का काम किया और अपने तीरों से कई दुश्मनों को मार गिराया।
इस खबर ने भी प्रभाकरसिंह को तरद्दुद में डाल दिया। वे इन्दु को देखना चाहते थे और कला समझाती जाती थी कि अभी ऐसा करना अनुचित होगा और वैद्य की भी यही राय है।
बड़ी मुश्किल से कला ने प्रभाकरसिंह को भोजन कराया और कल पुनः मिलने का वादा करके वहां से चली गई, प्रभाकरसिंह को इस बात का पता न लगा कि वह किस राह से आई थी और किस राह से चली गई।
क्या हम कह सकते हैं कि प्रभाकरसिंह इन्दु की तरफ से बेफिक्र हो गए? नहीं कदापि नहीं! उन्हें कुछ ढाढ़स हो जाने पर भी कला की बातों पर पूरा विश्वास न हुआ। उनका दिल इस बात को कबूल नहीं करता था कि यदि कला और बिमला दूर से या किसी छिपे ढंग से इन्दु को दिखला देतीं तो कोई हर्ज होता, बात तो यह है कि कला तथा बिमला का इस तरह गुप्त रीति से आना-जाना और रास्ते का पता उन्हें न देना भी उन्हें बुरा मालूम होता था और उन लोगों पर विश्वास नहीं जमने देता था, हां, इस समय इतना जरूर हुआ कि उनकी विचार-प्रणाली का पक्ष कुछ बदल गया और वे पुरानी चिन्ता के साथ-ही-साथ किसी और चिन्ता में भी निमग्न होने लगे।
कई घंटे तक कुछ सोचने-विचारने के बाद वे उठ खड़े हुए और दालानों, कमरों तथा कोठरियों में घूमने-फिरने और टोह लगाने के साथ-ही-साथ दीवारों, आलों और आलमारियों पर भी निगाहें डालने लगे।
पिछली रात का समय, इनके सिवाय कोई दूसरा आदमी बँगले के अन्दर न होने के कारण सन्नाटा छाया हुआ था, मगर आज जहाँ तक देखने में आता था कमरों और कोठरियों में रोशनी जरूर हो रही थी।
कमरों और कोठरियों में छोटी-बड़ी आलमारियाँ देखने में आईं जिनमें से कई में तो ताला लगा हुआ था कई बिना ताले की थीं कई में किवाड़ के पल्ले भी न थे। इन्हीं कोठरियों में से एक कोठरी ऐसी भी थी जिसमें अंधकार था अर्थात् चिराग नहीं जलता था अतएव प्रभाकरसिंह ने चाहा कि इस कोठरी को भी अच्छी तरह देख लें, उसके पास वाली कोठरी में एक फर्शी शमादान जल रहा था जिसे उन्होंने उठा लिया मगर जब उस कोठरी के दरवाजे के पास पहुँचे तो अन्दर से कुछ खटके की आवाज आई।
वे ठमक गये और उस तरफ ध्यान देकर सुनने लगे। आगमी के पैरों की चाप-सी मालूम हुई जिससे गुमान हुआ कि कोई आदमी इसके अंदर जरूर है, मगर फिर कुछ मालूम न हुआ और प्रभाकरसिंह शमादान लिए हुए उस कोठरी के अन्दर चले गए और कोठरियों की तरह यह भी साफ और सुथरी थी तथा जमीन पर एक मामूली फर्श बिछा हुआ था।
हाँ छोटी-छोटी आलमारियाँ इसमें बहुत ज्यादे थीं जिनमें से एक खुली हुई थी और उसका ताला ताली समेत उसकी कुण्डी के साथ अड़ा हुआ था। वह सिर्फ एक ही ताली न थी बल्कि तालियों का एक गुच्छा ही था।
ये शमादान लिए हुए उस आलमारी के पास चले गये और उसका पल्ला अच्छी तरह खोल दिया। उसमें तीन दर बने हुए थे जिनमें से एक में हाथ की लिखी हुई कई किताबें थीं, दूसरे में कागज-पत्र के छोटे-बड़े कई मुट्ठे थे, और तीसरे में लोहे की कई बड़ी-बड़ी तालियाँ थीं और सब के साथ एक-एक पुर्जा बंधा हुआ था। उन्होंने एक ताली उठाई और उसके साथ का पुर्जा खोल कर पढ़ा और फिर ज्यों-का-त्यों उसी तरह रख देने के बाद क्रमशः सभी तालियों के साथ वाले पुर्जे पढ़ डाले और अन्त में एक ताली पुर्जे सहित उठाकर अपनी जेब में रख ली।
तालियों की जाँच करने के बाद उन कागज के मुट्ठों पर हाथ डाला और घंटे-भर तक अच्छी तरह देखने – जाँचने के बाद उनमें से भी तीन मुट्ठे लेकर अपने पास रख लिए और फिर किताब की जाँच शुरू की। इसमें उनका समय बहुत ज्यादे लगा मगर इनमें से कोई किताब उन्होंने ली नहीं।
उस अलमारी की तरफ से निश्चिन्त होने के बाद फिर उन्होंने किसी और आलमारी को जाँचने या खोलने का इरादा नहीं किया। वे वहाँ से लौटे और शमादान जहाँ से उठाया था वहाँ रख कर अपने उसी कमरे में चले आये जहाँ आराम कर चुके थे। वहाँ भी वे ज्यादे देर तक नहीं ठहरे सिर्फ अपने कपड़ों और हर्बों की दुरुस्ती करके बंगले के बाहर निकले। आसमान की तरफ देखा तो मालूम हुआ कि रात बहुत कम बाकी है और आसमान पर पूरब तरफ सफेदी फैलना ही चाहती है।
‘‘कुछ देर तक और ठहर जाना मुनासिब है,’’ यह सोचकर वे इधर-उधर घूमने और टहलने लगे। जब रोशनी अच्छी तरह फैल चुकी तब दक्खिन और पश्चिम कोण की तरफ रवाना हुए, जब मैदान खतम कर चुके और पहाड़ी के नीचे पहुँचे तो उन्हें एक हल्की-सी पगडण्डी दिखाई पड़ी जो कि बहुत ध्यान देने से पगडण्डी मालूम होती थी, हाँ, इतना कह सकते हैं कि उस राह से पहाड़ों के ऊपर कुछ दूर तक चढ़ने में सुभीता हो सकता था।
अस्तु प्रभाकरसिंह पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। लगभग पचास कदम चढ़ जाने के बाद उन्हें एक छोटी-सी गुफ़ा दिखाई दी जिसके अन्दर वे बेधड़क चले गए और फिर कई दिनों तक वहाँ से लौट कर बाहर न आए।
पहिला भाग : आठवाँ बयान
आज प्रभाकरसिंह उस छोटी-सी गुफा से बाहर आए हैं और साधारण रीति पर प्रसन्न मालूम होते हैं। हम यह नहीं कह सकते कि वे इतने दिनों तक निराहार या भूखे रह गए होंगे क्योंकि उनके चेहरे से किसी तरह की कमजोरी नहीं मालूम होती। जिस समय वे गुफा के बाहर निकले सूर्य भगवान उदय हो चुके थे। उन्होंने बँगले के अन्दर जाना कदाचित उचित न जाना या इसकी कोई आवश्यकता न समझी हो अस्तु वे उस सुन्दर घाटी में प्रसन्नता के साथ चारों तरफ टहलने लगे। नहीं-नहीं, हम यह भी नहीं कह सकते कि वे वास्तव में प्रसन्न थे क्योंकि बीच-बीच में उनके चेहरे पर गहरी उदासी छा जाती थी और वे एक लम्बी साँस लेकर रह जाते थे।
सम्भव है कि यह उदासी इन्दुमति की जुदाई से सम्बन्ध रखती हो और वह प्रसन्नता किसी ऐसे लाभ के कारण हो जिसे उन्होंने उस गुफा के अन्दर पाया हो। तो क्या उन्हें उस गुफा के अन्दर कोई चीज मिली थी या उस गुफा की राह से वे इस घाटी के बाहर हो गए थे अथवा उन्हें किसी तिलिस्म का दरवाजा मिल गया जिसमें उन्होंने कई दिन बिता दिए? जो हो, बात कोई अनूठी जरूर है और घटना कुछ आश्चर्यजनक अवश्य है।
बहुत देर तक इधर-उधर घूमने के बाद वे एक पत्थर की सुन्दर चट्टान पर बैठ गए और साथ ही किसी गम्भीर चिन्ता में निमग्न हो गए इसी समय इन्हें इन्दुमति ने पहाड़ी के ऊपर से देखा था मगर इस बात की प्रभाकरसिंह को कुछ खबर न थी। बहुत देर तक चट्टान पर बैठे कुछ सोचने-विचारने के बाद उन्होंने सर उठाया और इस नीयत से बँगले की तरफ देखा कि चलें उसके अन्दर चल कर किसी और विषय की टोह लगावें।
परन्तु उसी समय बँगले के अन्दर से आती हुई तीन औरतों पर उनकी निगाह पड़ी जिनमें से एक इन्दुमति, दूसरी बिमला और तीसरी कला थी।
इन्दुमति को देखते ही वे प्रसन्न होकर उठ खड़े हुए, उधर इन्दुमति भी इन्हंन देखते ही दीवानी-सी हो कर दौड़ी और प्रभाकरसिंह के पैरों पर गिर पड़ी।
प्रभा० : (इन्दु को उठा कर) अहा इन्दे! इस समय तुझे देख मैं कितना प्रसन्न हुआ यह कहने के लिए मेरे पास केवल एक ही जुबान है अस्तु मैं कुछ कह नहीं सकता।
इन्दु० : नाथ, मुझे आपने धोखे में डाला! (मुस्कराती हुई) मुझे तो इस बात का गुमान भी न था कि आप मेरे साथ चलते हुए रास्ते में किसी चुलबुली औरत को देख कर अपने आपे से बाहर हो जायेंगे और मेरा साथ छोड़ कर उसके साथ दौड़ पड़ेंगे! क्या इस विपत्ति के समय में मुझे अपने साथ लाकर ऐसा ही बर्ताव करना आपको उचित था? क्या आप की उन प्रतिभाओं का यही नमूना था!
प्रभा० : (हँसते हुए) वाह, तुम अपनी बहिन को और अपने ही मुँह से चुलबुली बनाओ! क्या मैं किसी चुड़ैल के पीछे दौड़ा था? तुम्हारी बहिन इस बिमला ही ने तो मुझे रोका और कहा कि जरूरी बात कहनी है। मैंने समझा कि यह अपनी हैं जरूर कुछ भलाई की बातें कहेंगी, अस्तु इनके फेर में पड़ गया और तुम्हें खो बैठा। तुम्हारे साथ गुलाबसिंह मौजूद ही थे और इधर बिमला से मैं कुछ सुनना चाहता था।
ऐसी अवस्था में यह कब आशा हो सकती थी कि साधारण मामले पर इतना पहाड़ टूट पड़ेगा! सच तो यह है कि तुम्हारी बहिन ने मुझे धोखा दिया जिसका मुझे बहुत रंज है और उसके लिए इनसे बहुत बुरा बदला लेता मगर आज इन्होंने तुमसे मुझे मिला दिया इसीलिए मैं इनका कसूर माफ करता हूँ मगर इस बात की शिकायत जरूर करूंगा कि मुझे यहाँ फँसा इन्होंने भूखों मार डाला, खाने तक को न पूछा, आओ-आओ बैठ जाओ, सब कोई बैठ कर बातें करें।
बिमला : वाह! बहुत अच्छी कही, आपने तो मानो अनशन व्रत ग्रहण किया था! साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि किसी की फिक्र और तरद्दुद के कारण खाना-पीना कुछ अच्छा ही नहीं लगता था।
कला : (मुस्कराती हुई) रात-रात भर जाग के कोने-कोने की तलाशी लिया करते थे कि शायद कहीं छेद-सुराख और आले-आलमारी में से इन्दुमति निकल आवे।
प्रभा० : (चौंक कर, कला से) सो क्या?
बिमला : बस इतना ही तो! खैर इन बातों को जाने दीजिए यह बताइए आप मुझसे सन्तुष्ट हुए कि नहीं? अथवा आपको इस बात का निश्चय हुआ या नहीं कि हम लोगों ने जो कुछ किया वह नेकनीयती के साथ था?
प्रभा० : चाहे यह बात ठीक हो, चाहे तुम हर तरह से निर्दोष हो, चाहे तुम दोनों बहिनों पर किसी तरह के ऐब का धब्बा लगाना कठिन अथवा असम्भव ही क्यों न हो, परन्तु इतना तो मैं जरूर कहूँगा कि तुम्हारी कार्रवाई बदनीयती के साथ नहीं तो बेवकूफी के साथ जरूर हुई।
सम्भव था कि जिस दुश्मन पर फतह पा के तुम इन्दुमति को छुड़ा लाईं वह और जबर्दस्त होता या तुम पर फतह पा जाता तो फिर इन्दुमति पर कैसी मुसीबत गुजरती! मेरी समझ में नहीं आता कि इस अनुचित और टेढ़ी बात से तुम्हें या हमें क्या फायदा पहुँचा, हाँ, इन्दुमति जख्मी हुई यह मुनाफा जरूर हुआ। जिस तरह तुमने मुझे बहकाया था उस तरह वहाँ यही समझा दिया होता कि इन्दुमति को साथ लेकर वहाँ से हट जाना मुनासिब है, तो....
बिमला : (बात काट कर) नहीं-नहीं, यदि मैं ऐसा करती तो आप मुझ पर कदापि विश्वास न करते और भूतनाथ तथा गुलाबसिंह का साथ न छोड़ते, साथ ही इसके यह भी असम्भव था कि वहाँ पर मैं सविस्तार अपना हाल कह कर आपको समझाती, भूतनाथ के ऐबों को दिखाती अथवा अचित-अनुचित बहस करती, बल्कि....
इन्दु० : (बात काट कर, प्रभाकरसिंह से) खैर इन सब बातों से क्या फायदा, जो कुछ हुआ सो हुआ अब आगे के लिए सोचना चाहिए कि हम लोगों का कर्त्तव्य क्या है और क्या करना उचित होगा।
मैं इतना जरूर कहूंगी कि हमारी ये दोनों जमाने के हाथों से सताई हुई बहिनें इस योग्य नहीं हैं कि इन पर बदनीयती का धब्बा लगाया जाय हाँ यदि कुछ भूल समझी जाय तो वह बड़े-बड़े बुद्धिमान लोगों से भी हो जाया करती है। साथ ही इसके यह भी मानना पड़ेगा कि ग्रहदशा के फेर में पड़े हुए कई आदमी एक साथ मिल कर मुसीबत के दिन काटना चाहें तो सहज में काट सकते हैं बनिस्बत इसके कि वे सब अलग-अलग होकर कोई कार्यवाई करें, आप यह सुन ही चुके हैं कि ये दोनों (कला और बिमला किस तरह जमाने अथवा भूतनाथ के हाथों से सताई जा चुकी हैं अस्तु हम लोगों का एक साथ रहना लाभदायक होगा।
प्रभाकर : (इन्दु से) तुम्हारा कहना कुछ-कुछ जरूर ठीक है, मैं इस बात को पसन्द करता हूँ कि तुम यहाँ रहो जब तक कि मैं अपने दुश्मनों पर फतह पाकर स्वतन्त्र और निश्चिन्त न हो जाऊँ, मुझे इस बात की जरूर खुशी है कि तुम्हारे लिए एक अच्छा ठिकाना निकल आया है। मगर मैं हाथ-पैर तुड़ाकर नहीं रह सकता।
इन्दु० : मगर आपको इन दोनों की मदद जरूर करनी चाहिए।
प्रभा० : इसके लिए मैं दिलोजान से तैयार हूँ, मगर मैं भूतनाथ के साथ दुश्मनी न करूंगा जब तक कि अच्छी तरह जाँच न लूँ और अपने दोस्त गुलाबसिंह से राय न मिला लूँ।
बिमला : (कुछ घबराहट के साथ) तो क्या आप हम लोगों के बारे में गुलाबसिंह से कुछ जिक्र करेंगे?
प्रभा० : बेशक!
बिमला : तब तो आप चौपट ही करेंगे क्योंकि गुलाबसिंह भूतनाथ का दोस्त है और उससे हमारा हाल जरूर कह देगा। ऐसी अवस्था में मेरे मनसूबों पर बिलकुल ही पाला पड़ जाएगा बल्कि ताज्जुब नहीं कि सहज ही मैं इस दुनिया से...(लम्बी साँस लेकर) ओफ!
यदि मैं आपसे भलाई की आशा न करूँ तो दुनिया में किससे कर सकती हूँ? वह कौन-सा दरख्त है जिसके साये तले मैं बैठ सकती हूँ और वह कौन-सा मकान है जिसमें स्वतन्त्र रूप से रह कर जिन्दगी बिता सकती हूँ?
एक इन्द्रदेव जिन्होंने अपना हाथ मेरे सिर पर रक्खा है, और दूसरे आप जिनसे मैं भलाई की उम्मीद कर सकती हूँ। यदि आप ही मेरी प्रतिज्ञा भंग करने का कारण हो जाएंगे तो हमारी रक्षा करने वाला और हमारे सतीत्व को बचाने वाला, हमारे धर्म का प्रतिपालन करने वाला और कुम्हलाई हुई शुभ मनोरथलता में जीवन संचार करने वाला और कौन होगा?
मैं कसम खाकर कह सकती हूँ कि भूतनाथ कदापि आपके साथ भलाई न करेगा चाहे गुलाबसिंह आपका दिली दोस्त हो और चाहे भूतनाथ गुलाबसिंह को इष्टदेव के तुल्य मानता हो, साथ ही इसके मैं डंके की चोट पर कह सकती हूँ कि यदि आप मुझे धर्म-पथ से विचलित हुई पावें, यदि आपको मेरे निर्मल आँचल में किसी तरह का धब्बा दिखाई दे, और यदि जाँच करने पर मैं झूठी साबित होऊँ तो आपको अख्तियार है और होगा कि मेरे साथ ऐसा बुरा सलूक करें जो किसी अनपढ़, उजड्ड और अधर्मी दुश्मन के किए भी न हो सके, बेशक आप मुझे...
इतना कहते-कहते बिमला का गला भर आया और उसकी आँखों से आंसू की धारा बह चली।
प्रभा० : (बात काट कर दिलासे के ढंग से) बस-बस बिमला बस, मुझे विश्वास हो गया कि तू सच्ची है और दिल का गुबार निकालने के लिए तेरी प्रतिज्ञा सराहने के योग्य है। मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि तेरे भेदों को तुझसे ज्यादा छिपाऊँगा और तेरी इच्छा के विरुद्ध कभी किसी पर प्रकट न करूँगा चाहे वह मेरा कैसा ही प्यारा क्यों न हो, साथ ही इसके मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तू मुझसे स्वप्न में भी बुराई की आशा न रखियो। मगर हाँ, मैं भूतनाथ की जाँच जरूर करूँगा कि वह कितने पानी में है।
बिमला : (खुशी से प्रभाकरसिंह को प्रणाम करके) बस मैं इतना ही सुनना चाहती थी, आपकी इतनी प्रतिज्ञा मेरे लिए बहुत है। आप शौक से भूतनाथ की बल्कि साथ ही इसके मेरी भी जाँच कीजिए मैं इसके लिए कदापि न रोकूँगी, मगर मैं खुद जानती हूँ कि भूतनाथ परले सिरे का बेईमान, दगाबाज और खुदगर्ज ऐयार है और ऐयारी के नाम पर धब्बा लगाने वाला है। मैं आपको एक चीज दूँगी जो समय पड़ने पर आपको बचावेगी, वह चीज मुझे इन्द्रदेव ने दी है और वह आप ऐसे बहादुर के पास रहने योग्य है। यदि आपकी इच्छा के विरुद्ध न हो तो मैं इन्द्रदेव से भी आपकी मुलाकात कराऊँगी।
प्रभाकर : मैं बड़ी खुशी से इन्द्रदेव से मिलने के लिए तैयार हूँ, उनसे मिलकर मुझे कितनी खुशी होगी मैं बयान नहीं कर सकता। वे निःसन्देह महात्मा हैं और मुझे उनसे मिलने की सख्त जरूरत है! मैं यह भी जानता हूँ कि वह मुझ पर कृपादृष्टि रखते हैं और ऐसे समय में मेरी भी पूरी सहायता कर सकते हैं।
बिमला : निःसन्देह ऐसा ही है। आप इस घाटी में तीन दिन के लिए मेरी मेहमानी कबूल करें इन तीन दिनों में कई अद्भुत चीजें आपको दिखाऊँगी और इन्द्रदेवजी से भी मुलाकात कराऊँगी क्योंकि कल वे यहाँ जरूर आवेंगे।
कला : (मुस्कराती हुई दिल्लगी के साथ) मगर ऐसा न कीजिएगा कि उस रात की तरह ये तीन दिन भी आप इस स्थान की तलाशी में ही बिता दें और हर रोज सुबह को एक नई घाटी से बाहर निकला करें।
प्रभा० : मैं पहिले ही आवाज देने पर समझ गया था कि तुमने उस रात की कार्रवाई देख ली है, इसे दोहराने की जरूरत न थी! अगर खुशी से तुम अपना घर न दिखाओगी तो मैं बेशक इसी तरह जबर्दस्ती देखने का उद्योग करूँगा।
कला : जबर्दस्ती से कि चोरी से!
इतना कह कर कला खिलखिला कर हँस पड़ी और तब कुछ देर तक इन सभों में इधर-उधर की बातें होती रहीं, इसके बाद धूप ज्यादा निकल आने के कारण सब कोई उठ कर बँगले के अन्दर चले गये और वहाँ भी कई घंटे तक हँसी-दिल्लगी तथा ताने और उलाहने की बातें होती रहीं।
इस बीच इन्दु ने अपनी दर्दनाक कहानी कह सुनाई और प्रभाकरसिंह ने भी अपनी बेबसी में जो कुछ देखा-सुना था इससे बयान किया।
दो पहर से ज्यादे दिन चढ़ चुका था जब बिमला सभों को लिए हुए अपने महल में आई, इतनी देर तक खुशी में किसी को भी नहाने-धोने अथवा खाने की सुध न रही।
पहिला भाग : नौवाँ बयान
तीन दिन नहीं बल्कि पाँच दिन तक मेहमानी का आनन्द लूट कर आज प्रभाकरसिंह उस अद्भुत खोह के बाहर निकले हैं। इन पाँच दिनों के अन्दर उन्होंने क्या-क्या देखा-सुना, किस-किस स्थान की सैर की, किस-किस से मिले-जुले, सो हम यहाँ पर कुछ भी नहीं कहेंगे सिवाय इसके कि वे इन्दुमति को बिमला और कला के पास छोड़ गए हैं और इस काम से बहुत प्रसन्न भी हैं। साथ ही इसके यह भी कह देना उचित जान पड़ता है कि अब उनके विचारों में बहुत परिवर्तन हो गया है।
दिन पहर भर से कुछ कम बाकी है। प्रभाकरसिंह सिर झुकाये कुछ सोचते हुए पहाड़ के किनारे भूतनाथ की घाटी की तरफ धीरे-धीरे चले जा रहे हैं, वे जानते हैं कि भूतनाथ की घाटी का दरवाजा अब दूर नहीं है तथा उन्हें यह भी गुमान है कि भूतनाथ या गुलाबसिंह ताज्जुब नहीं कि बाहर ही मिल जायें। इसलिए वे धीरे-धीरे कदम उठाते हैं, इधर-उधर चौकन्ने होकर देखते हैं और कभी-कभी पत्थर की किसी सुन्दर चट्टान पर बैठ जाते हैं।
प्रभाकरसिंह का सोचना बहुत ठीक निकला। वे एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर कुछ सोच रहे थे कि भूतनाथ ने उन्हें देख लिया और तेजी से लपक कर इनके पास आया, मगर इन्हें सुस्त और उदास देख कर उसे ताज्जुब और दुख हुआ क्योंकि जिस तपाक के साथ वह प्रभाकरसिंह से मिलना चाहता था उस तपाक के साथ प्रभाकरसिंह उससे नहीं मिले, न तो उसका इस्तकबाल किया और न उसे आवभगत के साथ लिया। हाँ, इतना जरूर किया कि भूतनाथ को देख उठ खड़े हुए और एक लम्बी साँस लेकर बोले, ‘‘बस भूतनाथ!
तुमसे मुलाकात हो गई अब केवल गुलाबसिंह से मिलने की अभिलाषा है! इसके बाद फिर कोई भी मुझे प्रभाकरसिंह की सूरत में नहीं देख सकेगा!’’
भूत० : (आश्चर्य से) क्यों-क्यों, सो क्यों?
प्रभा० : तुम जानते हो कि इस दुनिया में मेरा कोई भी नहीं है, एक इन्दुमति थी सो वह भी ऐसे ठिकाने पहुँच गई, जहाँ कोई भी जाकर उससे मिल भी नहीं सकता।
भूत० : नहीं–नहीं प्रभाकरसिंह, ये शब्द बहादुरों के मुँह से निकलने योग्य नहीं हैं! क्या इन्दुमति का कुछ हाल आपको मालूम हुआ?
प्रभा० : कुछ क्या बल्कि बहुत।
भूत० : किस रीति से?
प्रभा० : आश्चर्यजनक रीति से।
भूत० : किसकी जुबानी?
प्रभा० : एक निर्जीव मूरत की जुबानी।
भूत० : बस इस पहेली से तो काम नहीं चलता, खुलासा कहिए नहीं तो...
प्रभा० : अच्छा बैठो और सुनो।
दोनों बैठ गए और तब भूतनाथ ने प्रभाकर से पूछा—
भूत० : अच्छा अब कहिये कि क्या हुआ और किसकी जुबानी आपको इन्दुमति का हाल मालूम हुआ?
प्रभा० : मैं कह चुका हूँ कि एक निर्जीव मूरत की जुबानी मुझे बहुत कुछ हाल मालूम हुआ जिसे सुनकर तुम ताज्जुब करोगे। सुनो और आश्चर्य करो कि तुम्हारे पड़ोस में कैसा एक विचित्र स्थान है! (रुक कर) नहीं नहीं, यह मेरी भूल है कि मैं ऐसा कहता हूँ, निःसन्देह उस विचित्र स्थान का हाल सबसे ज्यादा तुम्हीं को मालूम होगा, मैं तो नया मुसाफिर हूँ।
भूत० : आखिर किस स्थान के विषय में आप कह रहे हैं? कुछ समझाइए भी तो।
प्रभा० :(हाथ का इशारा करके) बस इसी तरफ थोड़ी दूर पर एक शिवालय है जिसके अन्दर शिवजी की नहीं बल्कि किसी तपस्वी ऋषि की मूर्ति है जो कि पूरे आदमी के कद की...
भूत० : हाँ-हाँ, ठीक है इस तरफ के जंगली लोग उसे अगस्त मुनि की मूर्ति कहते हैं, खूब लम्बी-लम्बी जटा है और मूर्ति के आगे एक छोटा-सा कुण्ड है जिसमें हरदम जल भरा रहता है, न मालूम वह जल कहाँ से आता है कि चाहे जितना भी खर्च करो कम होता ही नहीं, वह स्थान ‘अगस्ताश्रम’ के नाम से पुकारा जाता है।
प्रभा० : बस-बस, वही स्थान है।
भूत० : फिर, उससे क्या मतलब?
प्रभा० : उसी मूर्ति की जुबानी मुझे कई बातें मालूम हुईं हैं, तुम्हें तो मालूम ही होगा कि उसमें बात करने की शक्ति है।
भूत० : (दिल्लगी के तौर पर हँस कर) बहुत खासे! यह आपसे किसने कह दिया कि भूतनाथ ऐसा पागल हो गया है कि जो कुछ उसे कहोगे वह विश्वास कर लेगा!
प्रभा० : तो क्या मैं गप्प उड़ा रहा हूँ?
भूत० : अगर गप्प नहीं तो दिल्लगी ही सही!
प्रभा० : कदापि नहीं, मुझे आश्चर्य होता है कि तुम यहाँ के रहने वाले होकर उस मूर्ति का हाल कुछ नहीं जानते और यदि मैं कुछ कहता भी हूँ तो दिल्लगी उड़ाते हो! अस्तु जाने दो मैं इस विषय में कुछ भी नहीं कहूँगा हाँ, तुम चाहोगे तो साबित कर दूँगा कि वह मूर्ति बोलती है और त्रिकालदर्शी है! अच्छा जाओ गुलाबसिंह को जल्द भेजो कि मैं उससे मिल कर बिदा होऊँ।
भूत० : तो आप मेरे स्थान पर ही क्यों नहीं चलते? उस जगह आपको बहुत आराम मिलेगा, गुलाबसिंह से मुलाकात भी होगी और साथ ही इसके मेरा भ्रम भी दूर हो जायेगा।
प्रभा० : नहीं, अब मैं वहाँ न जाऊँगा, मैं उसी शिवालय में चल कर बैठता हूँ तुम गुलाबसिंह को उसी जगह भेज दो मैं मिल लूँगा, बस अब इस विषय में जिद न करो।
भूत० : प्रभाकरसिंहजी, मैं खूब जानता हूँ कि आप क्षत्रिय हैं और सच्चे बहादुर हैं, आपकी वीरता मौरूसी है, खानदानी है, निःसन्देह आपके बड़े लोग जैसे वीर पुरुष होते आए हैं वैसे ही आप भी हैं, मगर आश्चर्य है कि आप मुझे कुछ ऐयारी ढंग की बातें करके धोखे में डालना चाहते हैं...अच्छा-अच्छा, मेरी बातों से यदि आपकी भृकुटि चढ़ती है तो जाने दीजिए, मैं कुछ न कहूँगा, जाता हूं और गुलाबसिंह को बुलाए लाता हूँ।
इतना कह कर भूतनाथ ने जफील बजाई जिसकी आवाज सुनकर उसके तीन शागिर्द बात-की-बात में में वहाँ आ पहुँचे। भूतनाथ उन्हें इशारे में कुछ समझा कर विदा हुआ और अपनी घाटी की तरफ चला गया। प्रभाकरसिंह को मालूम हो गया कि भूतनाथ इन तीनों ऐयारों को मेरी निगरानी के लिए छोड़ गया है।
कुछ सोच-विचार कर प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए और धीरे-धीरे ईशानकोण की तरफ जाने लगे। एक घड़ी बराबर चले जाने के बाद वह उस शिवालय के पास पहुँचे जिसका जिक्र अभी थोड़ी देर हुई भूतनाथ से कर चुके थे और जिसका नाम भूतनाथ ने अगस्त मुनि का आश्रम बतलाया था।
यह स्थान बहुत ही सुन्दर और सुहावना था और पहाड़ की तराई में कुछ ऊँचे की तरफ बढ़ कर बना हुआ था, इस जगह दूर-दूर तक बेल के पेड़ बहुतायत के साथ लगे हुए थे और बेलपत्र की छाया से यह जगह बहुत ठण्डी जान पड़ती थी। मन्दिर यद्यपि बहुत बड़ा न था मगर एक खूबसूरत छोटी-सी चारदीवारी से घिरा हुआ था। आगे की तरफ एक मामूली सभामण्डप और बीच में मूर्ति के आगे एक छोटा-सा कुण्ड बना हुआ था जिसमें पानी हरदम भरा रहता था।
वह कुण्ड यद्यपि बहुत छोटा अर्थात् डेढ़ हाथ चौड़ा तथा लम्बा और उसी अन्दाज का गहरा था मगर उसके साफ और निर्मल जल से सैकड़ों आदमियों का काम चल सकता था। किसी पहाड़ी सोते का मुँह उसके अन्दर जरूर था जिसमें से जल बराबर आता और बह कर ऊपर की तरफ निकलता जाता था, इस कुण्ड के विषय में लोग तरह-तरह की गप्पें उड़ाया करते थे, जिसके लिखने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं।
प्रभाकरसिंह आकर इस मन्दिर के सभामण्डप में बैठ गए और भूतनाथ तथा गुलाबसिंह का इन्तजार करने लगे। उन्होंने देखा कि भूतनाथ के शागिर्द ऐयारों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा है बल्कि इधर-उधर चलते-फिरते दिखाई दे रहे हैं।
संध्या हुआ ही चाहती थी जब गुलाबसिंह को लिए भूतनाथ वहाँ आ पहुँचा जहाँ प्रभाकरसिंह बैठे उन दोनों का इन्तजार कर रहे थे। प्रभाकरसिंह को देख कर गुलाबसिंह ने प्रसन्नता प्रकट की और दो-चार मामूली बातचीत के बाद कहा—
‘‘भूतनाथ की जुबानी आपका हाल सुन कर मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। आपने भूतनाथ को यह समझाने की कोशिश की थी कि यह अगस्त मुनि की मूर्ति बोलती है और इसकी जुबानी आपको इन्दुमति का बहुत कुछ हाल मालूम हुआ है।’’
प्रभा० : निःसन्देह! मेरा कहना केवल आश्चर्य बढ़ाने के लिए नहीं है बल्कि इस विषय पर विश्वास दिलाने के लिए है, अब तुम आ ही गए हो तो अपने कानों से सुन लेना की मूर्ति क्या कहती है। मुझे यह बात अकस्मात मालूम हुई, मैं जानता था कि इस मूर्ति में ऐसे गुण भरे हुए हैं, मगर अफसोस इस बात का है कि यह मूर्ति रोज नहीं बोलती और न हर वक्त किसी के सवाल का जवाब देती है।
इसके बोलने का खास-खास दिन मुकर्रर है जिसका ठीक हाल मुझे मालूम नहीं है मगर इतने मैं जान गया हूँ कि बातचीत करते समय यह मूर्ति अन्त में खुद बता देती है कि अब आगे के दिन और किस समय बोलेगी। इसकी जुबानी सुन कर मैं कहता हूँ कि आज ग्यारह घड़ी रात जाने के बाद यह मूर्ति पुनः बोलेगी और इसके बाद पुनः रविवार के दिन बातचीत करेगी। आह, ईश्वर की लीला का किसी को भी अन्त नहीं मिलता! मेरी अक्ल हैरान है और कुछ भी समझ में नहीं आता कि क्या मामला है?
गुलाब० : निःसन्देह यह आश्चर्य की बात है! खैर अब जो कुछ होगा हम लोग देख ही सुन लेंगे परन्तु यह तो बताइये कि आप इस मूर्ति की जुबानी क्या-क्या सुन चुके हैं?
प्रभा० : सो मैं अभी कुछ नहीं कहूँगा, थोड़ी ही देर की तो बात है सब्र करो, समय आना ही चाहता है, जो कुछ पूछना हो खुद इस मूर्ति से पूछ लेना। तब तक मैं जरूरी कामों से निपट कर सन्ध्योपासन में लगता हूँ, अगर उचित समझिये तो आप लोग भी निपट लीजिए।
भूत० : मैं आपके लिए खाने-पीने की सामग्री लेता आया हूँ।
पहिला भाग : दसवाँ बयान
रात लगभग ग्यारह घड़ी के जा चुकी है। भूतनाथ, गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह उत्कंठा के साथ उस (अगस्तमुनि की) मूर्ति की तरफ देख रहे हैं। एक आले पर मोमबत्ती जल रही है जिसकी रोशनी में उस मन्दिर के अन्दर की सभी चीजें दिखाई दे रही हैं। भूतनाथ और गुलाबसिंह का कलेजा उछल रहा है कि देखें अब यह मूर्ति क्या बोलती है।
यकायक कुछ गाने की आवाज आई, ऐसा मालूम हुआ मानो मूर्ति गा रही है, सब कोई बड़े गौर से सुनने लगे :—
।। बिरहा ।।
सबहिं दिन नाहिं बराबर जात।
कबहूँ कला बला पुनि कबहूँ कबहूँ करि पछितात
कबहूँ राजा रंक पुनि कबहूँ ससि उड्गन दिखलात...
पै करनी अपनी सब चाखै, फल बोये को खात।
अनरथ करम छिपै नहिं कबहूँ, अन्त सबै खुल जात...
सबहि दिन नाहिं बराबर जात।
इसके बाद मूर्ति इस तरह बोलने लगी :
‘‘आहा! आज मैं अपने सामने किस-किस को बैठा देख रहा हूँ? महात्मा प्रभाकरसिंह! धर्मात्मा गुलाबसिंह! मैं अभी धर्मात्मा कैसे कहूँ. क्या सम्भव है कि भविष्य में भी यह धर्मात्मा बना रहेगा?
‘‘खैर जो कुछ होगा देखा जायेगा. हाँ, यह तीसरा आदमी मेरे सामने कौन था! वही गदाधरसिंह जिसने एकदम से अपनी काया पलट कर दी और एक सुन्दर नाम को छोड़ के भूतनाथ नाम से प्रसिद्ध होना पसन्द किया! आह, दुनिया में किसी पर विश्वास और भरोसा न करना चाहिए और न किसी की मित्रता पर किसी को घमण्ड करना चाहिए. क्या दयाराम को स्पप्न में भी इस बात का गुमान रहा होगा कि मैं अपने दोस्त गदाधरसिंह के हाथ मारा जाऊँगा, दोस्त ही नहीं बल्कि गुलाम और ऐयार गदाधरसिंह!!’’
मूर्ति की यह बात सुनकर भूतनाथ का कलेजा दहल उठा और गुलाबसिंह तथा प्रभाकरसिंह आश्चर्य के साथ भूतनाथ का मुँह देखने लगे. मूर्ति ने फिर इस तरह कहना शुरू किया :—
‘‘अफसोस! अपनी चूक का प्रायश्चित करना उचित था न कि ढंग बदल कर पुनः पाप में लिप्त होना. भूतनाथ, क्या तुम समझते हो कि इस दुष्कर्म का अच्छा फल पाओगे? क्या तुम समझते हो कि गुप्त रह कर पृथ्वी का आनन्द लूटोगे? क्या तुम समझते हो कि बेईमान दारोगा से मिल कर स्वर्ग की सम्पत्ति लूटोगे और मायारानी की बदौलत कोई अनमोल पदार्थ पा जाओगे? नहीं-नहीं, कदापि नहीं!
गदाधरसिंह, तुम्हारी किस्मत में दुःख भोगना बदा है अस्तु भोगो, जो जी में आवे करो मगर ऐ गुलाबसिंह, तुम इस दुष्ट का साथ क्यों दिया चाहते हो जो बिना कमन्द लगाए आसमान पर चढ़ जाने का हौसला करता है, खुद गिरेगा और तुम्हें भी गिरावेगा, और ऐ प्रभाकरसिंह, तुम अब अपनी आँखों के आँसू पोंछ डालो, इन्दुमति को बिलकुल भूल जाओ, अपने कातर हृदय को ढाढ़स देकर वीरता का स्मरण करो, दुनिया में कुछ नाम पैदा करो.
यदि तुम धर्म-पथ पर दृढ़ता के साथ चलोगे तो मैं बराबर तुम्हारी सहायता करता रहूंगा। मैं तुम्हें सलाह देता हूँ कि तुम अवश्य उस पथ का अवलम्बन करो जो मैं तुमसे उस दिन कह चुका हूँ, खबरदार, अपने भेद का मालिक आप बने रहो और किसी दूसरे को उसमें हिस्सेदार मत बनाओ। क्या तुम्हें मुझसे और कुछ पूछना है?’’
इतना कहकर मूर्ति चुप हो गई और प्रभाकरसिंह ने उससे सवाल किया :
प्रभा० : मुझे यह पूछना है कि मैं किसी को अपना साथी बनाऊँ या न बनाऊँ?
मूर्ति : बनाओ और अवश्य बनाओ। पहिली बरसात के दिन एक आदमी से तुम्हारी मुलाकात होगी, उसे तुम अपना साथी बनाओगे तो शुभ होगा, अच्छा और कुछ पूछोगे?’’
भूत० : अब मैं कुछ पूछूँगा।
मूर्ति : पूछो क्या पूछते हो?
भूत० : पहिले यह बताओ कि अब आप किस दिन और किस समय बोलेंगे?
मूर्ति : यदि तुम्हारी नीयत खराब न हुई और तुमने कोई उत्पात न मचाया तो इसी अमावस वाले दिन सोलह घड़ी रात बीत जाने के बाद हम पुनः बोलेंगे।
गुलाब० : हमें भी कुछ पूछना है।
तुम्हारी बातों का जवाब आज नहीं मिल सकता, हाँ यदि तुम चाहो तो आज के अठारहवें दिन इसी समय यहाँ आ सकते हो परन्तु अकेले।
गुलाब० : अच्छा तो अब यह बताइये कि हम भूतनाथ के मेहमान बने रहे या...
मूर्ति : नहीं, अगर अपनी भलाई चाहते हो तो दो पहर के अन्दर भूतनाथ का साथ छोड़ दो और प्रभाकरसिंह की आज्ञानुसार काम करो, बस अब कुछ मत पूछो।
इसके बाद मूर्ति ने बोलना बन्द कर दिया। भूतनाथ, गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह ने कई तरह के सवाल किए मगर मूर्ति ने कुछ जवाब न दिया अस्तु तीनों आदमी मन्दिर के बाहर निकले और सभा-मंडप में बैठ कर यों बातचीत करने लगे :—
गुलाब० : क्यों भूतनाथ, यह तो हमें एक नई बात मालूम हुई, मैं स्वप्न में भी नहीं जान सकता था कि दयारामजी को तुमने मारा होगा! अफसोस!!
भूत० : गुलाबसिंह, आश्चर्य की बात है कि तुम इतने बड़े होशियार होकर इस पत्थर की मूर्ति की बातों में फंस गए और जो कुछ उसने कहा उसे सच समझने लगे। इतना भी नहीं विचारा कि यह असम्भव बात वास्तव में क्या है?
निःसन्देह यह धोखे की टट्टी है और इसमें कोई अनूठा रहस्य है बल्कि यों कहना चाहिए कि यह कोई तिलिस्म है और इसका परिचालक (इस समय जो भी हो) जरूर हमारा दुश्मन है।
गुलाब० : नहीं-नहीं भूतनाथ, अब तुम हमें धोखे में डालने की कोशिश मत करो और न अब हम लोग तुम्हारी बातों पर विश्वास ही कर सकते हैं। ऐसी आश्चर्यमय और अनूठी घटना का प्रभाव जैसा हम लोगों के ऊपर पड़ा उसे हमींलोग जान सकते हैं।
भूत० : खैर, तुम जानो, जो जी में आये करो और जहाँ चाहो चले जाओ, मैं तुम्हें अपने पास रहने के लिए जोर नहीं देता, मगर तुम दोस्त हो अस्तु निश्चिन्त रहो, मैं तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूँगा।
इसके बाद इन तीनों में किसी तरह की बातचीत न हुई, गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह पूरब की तरफ रवाना हुए और भूतनाथ ने पश्चिम की तरफ का रास्ता लिया।
पहिला भाग : ग्यारहवाँ बयान
ऊपर लिखी वारदात के तीसरे दिन उसी अगस्ताश्रम के पास आधी रात के समय हम एक आदमी को टहलते हुए देखते हैं, हम नहीं कह सकते कि यह कौन तथा किस रंग-ढंग का आदमी है, हाँ, इसके कद की ऊँचाई से साफ मालूम होता है कि यह औरत नहीं है बल्कि मर्द है मगर यह नहीं मालूम पड़ता कि अपनी पोशाक के अन्दर यह किस ठाठ से है अर्थात् यह आदमी जिसने स्याह लबादे से अपने को अच्छी तरह छिपा रखा है सिपाहियों और बहादुरों की तरह के हर्बे-हथियारों से सजा हुआ है या चोरों की तरह सन्धियों और हत्थियों वगैरह से जो हो, हमें इसके ब्योरे से इस समय कोई मतलब नहीं, हमें सिर्फ इतना कहना है कि यह यद्यपि टहल कर अपना समय बिता रहा है मगर इसमें कोई शक नहीं कि अपने को हर तरह से छिपाये रखने की भी कोशिश कर रहा है।
दिन का मुकाबला करने वाली चाँदनी यद्यपि अच्छी तरह छिटकी हुई है मगर उस अन्धकार को दूर करने की शक्ति उसमें नहीं जो इस समय पेड़ों के झुरमुट के अन्दर पैदा हो रहा है और जिससे उस टहलने वाले व्यक्ति को अच्छी सहयता मिल रही है। अगस्ताश्रम की तरफ घड़ी-घड़ी अटक कर देखने और आहट लेने से यह भी मालूम होता है कि वह किसी आने वाले की राह देख रहा है।
इसे टहलते हुए घंटा भर से ज्यादे हो गया और तब इसने दो आदमियों को आते और अगस्ताश्रम की तरफ जाते देखा ये दोनों कद के छोटे तथा ढाल-तलवार तथा तीर-कमान से सुसज्जित थे मगर इनकी पोशाक के बारे में हम इस समय किसी तरह की निन्दा या प्रशंसा नहीं कर सकते।
मालूम होता है कि वह टहलने वाला स्याहपोश इन्हीं दोनों आदमियों का इन्तजार कर रहा था क्योंकि जैसे ही वे दोनों अगस्ताश्रम की चारदीवारी के अन्दर घुसे वैसे ही इसने उनका पीछा किया।
उनके कुछ ही देर बाद यह स्याहपोश भी चारदीवारी के अन्दर जा पहुँचा मगर वहाँ उन दोनों पर निगाह न पड़ी। पहिले इसने मन्दिर के चारों तरफ की परिक्रमा की और उन दोनों को ढूँढ़ा, और जब पता न लगा तब मन्दिर के अन्दर पैर रखा मगर वहाँ भी कोई न था।
हम पहिले कह आए हैं कि यह मन्दिर बहुत छोटा और साधारण था अतएव इसके अन्दर किसी को खोजने में विलम्ब करना बेशक पागलपन समझा जा सकता है मगर उस स्याहपोश ने इसका कुछ भी विचार न किया और खूब अच्छी तरह खोज डाला यहाँ तक कि उस छोटे-से कुंड में भी तलवार डाल कर जाँच लिया जिसमें हरदम पानी भरा रहता था।
उस स्याहपोश को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह आश्चर्य के साथ सोचने लगा—‘‘वे दोनों आदमी कहाँ गायब हो गए! इस छोटे-से मन्दिर में किसी तरह छिप नहीं सकते, इसके अतिरिक्त वहां विशेष अंधकार भी नहीं है क्योंकि सभामण्डप में चन्द्रमा की चाँदनी जो आड़ी होकर पहुँच रही है उसकी चमक से मंदिर के अंदर का अंधकार भी इस योग्य नहीं रह गया है कि अपनी स्याह चादर के अन्दर भी किसी को छिपा सके, अस्तु यही कहना पड़ता है कि यहाँ की जमीन उन दोनों को खा गई। जो हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह मन्दिर मेरे दुश्मन का मुँह है, खैर कोई चिन्ता नहीं, अब मैं बाहर चलता हूँ क्योंकि गरमी से जी व्याकुल हो रहा है तिस पर इस भारी पोशाक ने और भी तंग कर रखा है,’’
इस तरह की बातें सोचता और कुछ बुदबुदाता हुआ वह आदमी मन्दिर के बाहर निकला और फिर उसी जगह पेड़ों की झुरमुट और आड़ में जा पहुँचा जहाँ हम इसे पहले टहलते हुए देख चुके हैं। इस समय यहाँ एक आदमी और खड़ा है जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी और जिसे देखते ही उस स्याहपोश ने पूछा, ‘‘केम?’’ इसके जवाब में उसने कहा, ‘‘चहा।’’
जवाब सुनते ही स्याहपोश ने अपने ऊपर से स्याह लबादा उतार कर उसके हवाले किया और कहा, ‘‘अब मैं इसे नहीं ओढ़ सकता क्योंकि इससे गरमी में तकलीफ होने के सिवाय अब इसकी जरूरत भी न रही, मैं भूतनाथ की सूरत में अच्छा हूँ मुझे कोई पहिचानने वाला नहीं केवल गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह के खयाल से ओढ़ लिया था सो उनके मिलने की अब कोई उम्मीद नहीं रही!’’
दूसरे नकाबपोश ने वह लबादा ले लिया और जवाब में कहा, ‘‘मेरे लिए अब क्या आज्ञा होती है?’’
पाठक अब समझ गए होंगे कि यह स्याहपोश वास्तव में भूतनाथ है अस्तु उसने अपने साथी नकाबपोश से कहा, ‘‘तुम्हारी यहाँ कोई जरूरत नहीं रही, तुम जाओ जो कुछ पहिले हुक्म दे चुका हूँ उसी के अनुसार काम करो, मैं अब यहाँ से जल्दी नहीं टल सकता क्योंकि इस मन्दिर ने मुझे अपने जाल में फँसा लिया है।
नकाबपोश चला गया और भूतनाथ फिर उसी अँधकार में टहलने लगा। कुछ देर बाद उस मन्दिर के अन्दर से दो आदमी बाहर निकले और दक्खिन की तरफ चल पड़े। हम नहीं कह सकते कि ये वे ही थे जो पहिले मन्दिर में जाकर गायब हो गए थे अथवा कोई दूसरे।
भूतनाथ ने उन दोनों का पीछा किया मगर बड़ी कठिनता से अपने को छिपाता और उन्हें देखता हुआ जाने लगा क्योंकि चाँदनी उसके काम में बाधा डाल रही थी। लगभग आधा कोस जाने के बाद वे दोनों एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ की जमीन पत्थर के बड़े-बड़े ढोकों से कुछ भयानक-सी हो रही थी और उसी जगह खोह का एक मुहाना भी था जिसे भूतनाथ ने सहज ही में समझ लिया और यह इरादा कर लिया कि इन दोनों को यहाँ पर खोह के अन्दर घुसने के पहिले ही रोक लेना चाहिए, ताज्जुब नहीं कि खोह के अन्दर जाने पर ये फिर मेरे हाथ न लगें।
वे दोनों आदमी खोह के मुहाने पर पहुँच कर रुके और आपस में कुछ बातें करने लगे। उसी समय भूतनाथ उनके पास जाकर खड़ा हो गया और यह देखकर कि उसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई है बोला, ‘‘तुम दोनों कौन हो?’’
एक : तुम्हें इससे मतलब?
भूत० : मतलब यही है कि यह स्थान हमारी हुकूमत के अन्दर है और हम जानना चाहते हैं कि तुम दोनों कौन हो और तुम्हारे उस अगस्ताश्रम के मन्दिर आने-जाने का कारण क्या है?
एक : न तो इस सरजमीन के तुम मालिक ही हो और न ही तुम्हें कुछ पूछने का कोई अधिकार ही है। जिस तरह एक बेईमान और नमकहराम ऐयार बेईज्जती के साथ अपनी जिन्दगी बिता सकता है उसी तरह तुम भी अपनी जिन्दगी के दिन बिताने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते, हम बखूबी जानते हैं कि तुम्हारा नाम गदाधरसिंह है और अब अपनी असलियत को छिपाते हुए तुम भूतनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ चाहते हो!
भूत० : (गुस्से से पेच खाकर) मालूम होता है कि तुम दोनों की शामत आई है जिससे मेरी बातों का साफ-साफ जवाब न देकर जली-कटी बातें करते और मुझे गदाधरसिंह के नाम से सम्बोधन करते हो। मैं नहीं जानता कि गदाधरसिंह किस चिड़िया का नाम है पर सम्भव है कि यह कोई भेद की बात हो, इसलिए मैं गदाधरसिंह के बारे में कुछ नहीं पूछता और एक दफे तुम्हारी ढिठाई को माफ करके फिर कहता हूँ कि तुम दोनों आदमी अपना परिचय दो नहीं तो....
एक : नहीं तो क्या? तुम हमारा कर ही क्या सकते हो? पहिले तुम अपनी जान बचाने का बन्दोबस्त तो कर लो। हम लोग तुम्हारी झूठी बातों से धोखा नहीं खा सकते, बस चले जाओ और अपना काम करो, हम लोगों का पीछा करके तुम अच्छा नतीजा नहीं निकाल सकते।
भूतनाथ खिलखिला कर हँस पड़ा और उसने फिर पूछा।
भूत० : मैं समझता हूँ कि तुम दोनों मर्द नहीं बल्कि औरत हो। खैर इससे भी कोई मतलब नहीं, मैं वह आदमी नहीं हूँ जो किसी तरह का मुलाहिजा कर जाऊँ, इस तलवार को देख लो और जल्द बताओ कि तुम कौन हो!
इतना कहकर भूतनाथ ने म्यान से तलवार निकाल ली मगर उन दोनों का दिल फिर भी न हिला और एक ने पुनः कड़क कर भूतनाथ से कहा—‘‘चल दूर हो मेरे सामने से तेरी निर्लज्ज तलवार से हम डर नहीं सकते! समझ ले कि तू इस ढिठाई की सजा पावेगा और पछतावेगा।’’
इसके जवाब में भूतनाथ ने हाथ बढ़ाकर एक की कलाई पकड़ ली, मगर साथ ही इसके दूसरे नकाबपोश ने भूतनाथ पर छुरी का वार किया जिसके लिए शायद वह पहिले ही से तैयार था। वह छुरी यद्यपि बहुत बड़ी न थी मगर भूतनाथ उसकी चोट खाकर सम्हल न सका। छुरी भूतनाथ के चार अंगुल धंस गयी और साथ ही भूतनाथ यह कहता हुआ जमीन पर गिर पड़ा—‘‘ओफ, यह जहरीली छुरी...!’’
पहिला भाग : बारहवाँ बयान
दिन पहर-भर से ज्यादा चढ़ चुका था जब भूतनाथ की बेहोशी दूर हुई और वह चैतन्य होकर ताज्जुब के साथ चारों तरफ निगाहें दौड़ाने लगा। उसने अपने को एक ऐसे कैदखाने में पाया जिसमें से उसकी हिम्मत और जवाँमर्दी उसे बाहर नहीं कर सकती थी।
यद्यपि यह कैदखाना बहुत छोटा और अंधकार से खाली था मगर तीन तरफ से उसकी दीवारें बहुत मजबूत और संगीन थीं तथा चौथी तरफ लोहे का मतबूत जंगला लगा हुआ था जिसमें आने के लिए छोटा दरवाजा भी था जो इस समय बहुत बड़े ताले से बन्द था, इस कैदखाने के अन्दर बैठा-बैठा भूतनाथ अपने सामने के दृश्य बहुत अच्छी तरह से देख सकता था।
थोड़ी देर इधर-उधर निगाह दौड़ाने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और जंगले के पास आकर बड़े गौर से देखने लगा। उसके सामने वही सुन्दर जमीन और खुसनुमा घाटी थी जिसका हाल हम ऊपर बयान कर चुके हैं, जो कला और बिमला के कब्जे में है, अथवा जहाँ की सैर अभी-अभी प्रभाकरसिंह कर आए हैं। बीच वाले सुन्दर कमरे को भूतनाथ बड़े गौर के साथ देख रहा था क्योंकि वह कैदखाना जिसमें भूतनाथ कैद था पहाड़ की उँचाई पर बना हुआ था जहाँ से इस घाटी का हर एक हिस्सा साफ-साफ दिखाई दे रहा था। उसकी चालाक चंचल निगाहें इस बात की जांच कर रही थीं कि वह किस जगह पर कैद है और उसको कैद करने वाला कौन है।
इस घाटी में न कभी वह आया था न इसे कभी देखा था और न इसका हाल ही कुछ जानता था, अतएव उसे किसी तरह का गुमान भी न हुआ कि यह उसके पड़ोस की घाटी है अथवा उसके पास ही में उसका निजी मकान है जहाँ वह रहता है।
थोड़ी देर तक बड़ी गौर से इधर-उधर देखने के बाद भूतनाथ हताश होकर बैठ गया और तरह-तरह की बातें सोचने लगा। उसे इस बात का बहुत ही दुःख हुआ कि उसके हरबे छीन लिए गए थे और उसकी ऐयारी का बटुआ भी उसके पास न था मगर उसके जख्म में कोई तकलीफ न थी जिसकी बदौलत वह बेहोश होकर कैदखाने की हवा खा रहा था।
दोपहर की टनटनाती धूप भूतनाथ की आँखों के सामने चमक रही थी। भूख तो कोई बात नहीं मगर प्यास के मारे उसका गला चटका जाता था। वह सोच रहा था कि उसे दाना-पानी देने के लिए भी कोई आवेगा या वह भूखा ही पिंजरे में बन्द रहेगा क्योंकि अभी तक किसी आदमी की सूरत उसे दिखाई न पड़ी थी।
थोड़ी देर और बीत जाने के बाद एक औरत वहाँ आई जिसके पास भूतनाथ के लिए खाने-पीने का सामान था। उसने वह सामान बड़ी होशियारी से जंगले के अन्दर एक रास्ते से जो इसी काम के वास्ते बना हुआ था रख दिया और कहा, ‘‘लो गदाधरसिंह, तुम्हारे लिए खाने-पीने का सामान आ गया है। इसे खाओ और मौत का इन्तजार करो।’’
भूत० : (पानी का लोटा उठाकर) हाँ, ठीक है, बस मेरे लिए यही काफी है, मैं सिर्फ पानी ही पीकर मौत का इन्तजार करुँगा क्योंकि जब तक मैं जंगल-मैदान और स्नान इत्यादि कर्म न कर लूँ भोजन नहीं कर सकता।
औरत : खैर तुम्हारी खुशी, मेरा जो काम था उसे मैं पूरा कर चुकी। मगर मैं अपनी तरफ से यह पूछती हूँ कि तुम कै दिन तक इस तरह से गुजारा कर सकोगे? (कुछ सोचकर) नहीं, मेरा यह सवाल करना ही वृथा है क्योंकि मैं खूब जानती हूँ कि दो-तीन दिन के अन्दर ही तुम्हारा फैसला हो जायगा और तुम इस दुनिया से उठा दिए जाओगे।
भूत० : अगर ऐसा ही है तो यह दो-तीन दिन का विलम्ब भी क्यों?
औरत : इसलिए कि तुम्हारी मौत का ढंग निश्चय कर लिया जाय।
भूत० : ढंग कैसा मैं नहीं समझा!
औरत : मतलब यह है कि तुम एकदम से नहीं मार डाले जाओगे बल्कि तरह-तरह की तकलीफ देकर तुम्हारी जान ली जायेगी, अस्तु यह निश्चय किया जा रहा है कि किस तरह की तकलीफ तुम्हारे लिए उचित है?
भूत० : ये बातें कौन तजबीज कर रहा है?
औरत : हमारे मालिक लोग।
भूत० : मालूम होता है कि तुम्हारे मालिक लोग मर्द नहीं है हीजड़े हैं या औरत। ऐसे विचार मर्दों के नहीं होते!
औरत : बेशक ऐसा ही है, हमारे मालिक औरत हैं।
भूत० : (आश्चर्य से) औरत हैं!!
औरत : हाँ औरत।
भूत० : मगर मैंने किसी औरत के साथ कभी दुश्मनी नहीं की बल्कि कोई मर्द भी ऐसा न मिलेगा जो मुझे अपना दुश्मन बतावे और कहे कि गदाधरसिंह ने मुझे बर्बाद कर दिया।
औरत : जो हो, इस विषय में मैं नहीं कह सकती, आखिर कोई बात होगी ही तो!!
भूत० : क्या तुम बता सकती हो कि तुम्हारी मालकिन का नाम क्या है अथवा वह कौन है? तुम यकीन रखो कि इसके बदले में तुम्हें इतनी दौलत दूँगा कि कभी तुमने आँखों से न देखी होगी।
औरत : मैं ऐसा नहीं कर सकती कि तुम्हें इस कैद से छुड़ा दूँ और तब तुम मुझे बेअन्दाज दौलत देकर मालामाल कर दो, इसके अतिरिक्त इस कैदखाने की ताली खुद मालकिन के कब्जे में है।
भूत० : नहीं नहीं, मैं यह नहीं कहता तुम मुझे इस कैदखाने से बाहर कर दो।
औरत : अगर ऐसा नहीं है तो तुम मुझे किस काम के लिए और कहाँ से दौलत दे सकते हो!
भूत० : मेरे मकान में जो कुछ दौलत है उसका कोई ठिकाना ही नहीं, मगर मेरे पास भी हरदम बटुए में दो-चार लाख रुपये की जमा मौजूद रहती है। तुम कह सकती हो कि इस समय तो तुम्हारे पास तुम्हारा बटुआ भी नहीं है....
औरत : हाँ-हाँ, मैं यही कहने वाली थी, बल्कि यह भी समझ रखना चाहिए कि इस समय वह बटुआ जिसके कब्जे में होगा उसने वह रकम भी जरूर निकाल ली होगी।
भूत० : (बनावटी हँसी के साथ) नहीं नहीं, इसका तो तुम गुमान भी न करो कि वह रकम निकाली गई होगी, क्योंकि उसमें कोई जवाहिरात की डिबिया नहीं है या कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई देखते ही दौलत समझ ले, बल्कि उस बटुए में कोई ऐसी चीज है जिसे मेरे सिवाय कोई बता नहीं सकता कि यह दौलत है और जो किसी अनजान की निगाह में बिलकुल रद्दी चीज है, बल्कि यों समझो कि जहाँ वह दौलत रखी हुई है वहाँ की ताली उस बटुए में है जिसकी कलई मेरे सिवाय कोई खोल नहीं सकता और न मेरे बताए बिना कोई पा सकता है।
वह दौलत जो लगभग चार-पाँच लाख रुपये की होगी मैं सिर्फ इतने ही काम के बदले में दे देना चाहता हूँ कि मेरा बटुआ मुझे ला दिया जाय और बता दिया जाय यह स्थान किसका है और मैं किसका कैदी हूँ। मैं समझता हूँ कि मैं जरूर मार ही डाला जाऊँगा, अस्तु ऐसी अवस्था में अगर वह दौलत किसी नेक, रहमदिल और गरीब के काम आ जाय तो इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती है।
अहा, दुनिया में रुपया भी अजीब चीज है! इसकी आँच को सह जाना हँसी-खेल नहीं है, इसे देखकर जिसके मुँह में पानी न भर आवे समझ लो कि वह पूरा महात्मा है, पूरा तपस्वी है और सचमुच का देवता है। इस कम्बख्त की बदौलत बड़े-बड़े घर सत्यानाश हो जाते हैं, भाई-भाई में बिगाड़ हो जाता है, दोस्तों की दोस्ती में बट्टा लग जाता है, जोरू और खसम का रिश्ता कच्चे धागे से भी ज्यादे कमजोर होकर टूट जाता है, और ईमानदारी की साफ और सफेद चादर में ऐसा धब्बा लग जाता है जो किसी तरह छुड़ाए नहीं छूटता।
इसे देखकर जो धोखे में न पड़ा, इसे देखकर जिसका ईमान न टला, और इसे जिसने हाथ-पैर का मैल समझा, बेशक कहना पड़ेगा कि उस पर ईश्वर की कृपा है और वही मुक्ति का वास्तविक पात्र है.
इसकी आँच के सामने एक लौंडी का दिल भला कब तक कड़ा रह सकता था?
यद्यपि उस औरत ने अपने चेहरे के उतार-चढ़ाव को बहुत सम्हाला फिर भी भूतनाथ जान ही गया कि यह लालच के फन्दे में फँस गई.
भूत० : सच तो यों है कि उस दौलत को मैं बहुत ही सस्ते दाम में बल्कि मुफ्त मोल बेच रहा हूँ, अब भी अगर तुम न खरीदो तो मैं जोर देकर कहूँगा कि तुमसे बढ़कर बदनसीब इस दुनिया में दूसरा कोई नहीं है. क्या वह दौलत कम है? क्या उसे पाकर फिर भी किसी को नौकरी की जरूरत रह सकती है? क्या उसकी बदौलत सुख का सामान इकट्ठा होने में किसी तरह की त्रुटि हो सकती है? बिलकुल नहीं फिर सोच-विचार करना क्यों और विलम्ब कैसा? केवल हमारी ऐयारी का बटुआ ला देना और बता देना कि मैं किसका कैदी हूँ और इस स्थान का मालिक कौन है. सिर्फ इतने के बदले में अभी-अभी यह रकम तुम्हें मिल सकती है सो भी ऐसी कि उसे कोई छीन भी न सकेगा.
औरत : तुम यकीन करो कि मैं एक अमीर की लौंडी हूँ, और मेरी मालकिन बेअन्दाज दौलत लुटाने वाली हैं, और उसकी बदौलत मुझे किसी की परवाह नहीं है.
भूत० : (बात काट कर) मगर लौंडीपन का तौक गले में जरूर पड़ा हुआ है. स्वतन्त्र नहीं, लापरवाह और बेफिक्र नहीं.
औरत : हाँ, यह सच है मगर उनकी नौकरी मुझे गढ़ाती नहीं और वे मुझसे बहिनापे का-सा बर्वताब करती है, मगर फिर भी तुम खुशी से दोगे तो मैं उस दौलत को जरूर लूँगी लेकिन सिर्फ ऐसी अवस्था में जब कि मुझ पर नमकहरामी का धब्बा न लग सके.
ग्रंथकर्ता : सत्यवचन! नमकहराम!! भला ऐसी भी कोई बात है!!
भूत० : नहीं नहीं, तुम पर नमकहरामी का धब्बा नहीं लग सकेगा और तुम्हारी मालकिन का भी कुछ नुकसान नहीं होगा क्योंकि मैं इस कैदखाने से छूटकर भाग नहीं जाना चाहता, केवल इतना ही जानना चाहता हूँ कि मैं किसकी कैद में हूँ और अपना बटुआ केवल इतने ही के लिए माँगता हूँ कि उस खजाने की ताली निकालकर तुम्हें दे दूँ और तुम्हें बता दूँ कि वह खजाना कहाँ है।
औरत : अच्छा पहिले मैं बटुआ लाकर तुम्हें दे दूँ तब पीछे बता दूँगी कि तुम किसके कैदी हो, सब्र करो और दिन बीत जाने दो, देखो वह दूसरी लौंडी आती है, अब मैं बिदा होती हूँ।
इतना कहकर वह लौंडी भूतनाथ के दिल में खुशी और उम्मीद का पौधा जमाकर चली गई।
भूतनाथ बड़ा ही कट्टर और दुःख-सुख बर्दाश्त करने वाला ऐयार था। कठिन से कठिन समय आ पड़ने पर भी उसकी हिम्मत टूटती न थी और वह अपनी कार्रवाई से बाज नहीं आता था।
खाने-पीने का सामान जो कुछ उसके सामने आ गया था उसमें से पानी के सिवाय बाकी सब कुछ ज्यों-का-त्यों पड़ा रह गया।
भूतनाथ को सिर्फ इस बात का इन्तजार था कि दिन बीते, अंधेरा हो और वह लौंडी आवे। इस बीच में बारी-बारी से आठ-दस लौंडियाँ उसके पास आईं; उन्होंने तरह-तरह की बातें कीं और खाने के लिए समझाया बल्कि यहाँ तक कहा कि तुम्हारे मैदान जाने और नहाने का भी सामान किया जा सकता है मगर भूतनाथ ने कुछ भी न माना बल्कि उनकी बातों का जवाब तक न दिया और वे सब निराश होकर लौटती गईं।
दिन बीत गया, संध्या हुई और अंधकार ने अपना दखल जमाना शुरू किया। दो घंटे रात जाते-जाते तक निशादेवी का शून्यमय राज्य हो गया। उस कैदखाने के पास जिसमें भूतनाथ बन्द था पेड़ों की बहुतायत होने के कारण इतना अंधकार था कि किसी का आना-जाना दूर से मालूम नहीं हो सकता था।
भूतनाथ जंगले का सीखचा पकड़े हुए खड़ा कुछ सोच रहा था कि वही लौंडी जिसके ऊपर भूतनाथ का मोहिनी मंत्र चल चुका था और जो लालच के सुनहरे जाल में फँस चुकी थी हाथ में भूतनाथ का ऐयारी का बटुआ लिए आ पहुँची और जंगले के सुराख १ से हाथ बढ़ाकर धीरे से बोली, ‘‘लो गदाधरसिंह, यह तुम्हारा बटुआ हाजिर है। इसके लिए मुझे बहुत तकलीफें उठानी पड़ीं।’’ (१. जिसे खोल कर खाने-पीने की चीजें अन्दर रखी जाती थीं।)
भूत० : बेशक, हमारा और तुम्हारा दोनों का काम चल गया। (संभलकर, क्योंकि उसके मुँह से हमारा नाम निकल गया यह शब्द भी खुशी के मारे निकल आये थे जो कि वह निकालना नहीं चाहता था) मेरा काम तो सिर्फ इतना ही कि मुझे अपने कैद करने वालों का पता लग जाएगा मगर तुम अब हर तरफ से प्रसन्न और स्वतन्त्र हो जाओगी।
इतना कहकर भूतनाथ ने बटुआ उसके हाथ से ले लिया और कहा, ‘‘क्या इसमें मेरा सामान ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है?’’
लौंडी : बेशक।
भूत० : तब मैं रोशनी करके देखूँ और वह ताली निकालूँ?
लौंडी : नहीं नहीं, रोशनी करने का मौका नहीं है, जो कुछ तुम्हें करना है अंधेरे ही में करो और जो कुछ निकालना है उसे टटोलकर निकालो, मैं तुम्हें फिर भी विश्वास दिलाती हूँ कि तुम्हारी सब चीजें इसमें ज्यों-की-त्यों रक्खी हैं।
भूत० : खैर कोई चिन्ता नहीं, मैं सब काम अँधेरे ही में कर सकूँगा, अगर मेरी चीजें ज्यों-की-त्यों रक्खी हैं और इझर-उधर नहीं की गईं तो मुझे रोशनी की कोई भी जरूरत नहीं है। अच्छा अब वह असल काम हो जाना चाहिए अर्थात् मुझे मालूम हो जाना चाहिए कि मैं किसका कैदी हूँ।
लौंडी : हाँ मैं बताती हूँ (कुछ सोचकर) मगर मैं फिर सोचती हूँ कि यह काम मेरे लिए बिलकुल अनुचित होगा, मालिक का नाम तुम्हें बता देना। निःसन्देह मालिक के साथ दुश्मनी करना है।
भूत० : यह सोचना तुम्हारी बुद्धिमानी नहीं है बल्कि बेवकूफी है, हाँ यदि मैं स्वतंत्र होता और मैदान में तुमसे मुलाकात हुई होती तो तुम्हारा यह सोचना कुछ उचित भी हो सकता था। तुम देख रही हो कि मैं किस अवस्था में हूँ और मेरी तकदीर में क्या लिखा हुआ है। फिर मैं इस समय कर ही क्या सकता हूँ, सोचो तो....
लौंडी : हाँ, एक तौर पर तुम्हारा कहना भी ठीक है, अच्छा मैं बताए देती हूँ कि तुम्हारा दुश्मन कौन है और तुम्हें किसने कैद किया।
भूत० : बस मैं इतना ही सुनना चाहता हूँ।
लौंडी : तुम्हें उसी ने कैद किया है जिसके पति को तुमने बेईमानी और नमक-हरामी करके बड़ी निर्दयता के साथ बेकसूर मारा है। दयाराम को मार कर तुम इस दुनिया में सुखी नहीं हो सके और न भविष्य में तुम्हारे सुखी होने की आशा है।
भूत० : (चौंक कर ताज्जुब के साथ) हैं, क्या दयाराम की दोनों स्त्रियाँ जीती हैं? और उनको इस बात का विश्वास है कि दयाराम को मैंने ही मार डाला है।
भूत० : मगर यह बात सच नहीं है, अपने प्यारे मित्र दयाराम को मैंने नहीं मारा बल्कि किसी दूसरे ने ही मारा है।
लौंडी : खैर इन बातों से तो मुझे कोई सम्बन्ध नहीं, मैं तो लौंडी ठहरी, जो कुछ सुनती हूँ वही जानती हूँ!!
भूत०: अच्छा-अच्छा, मुझे इन बातों से कुछ फायदा भी नहीं है, बस विश्वास इसी बात का हो जाना चाहिए कि तुम सच कहती हो और वास्तव में दयाराम की दोनों स्त्रियाँ जीती हैं, मुझे खूब याद है कि उनके मर जाने की खबर बड़ी सचाई के साथ उड़ी थी और उनके क्रियाकर्म में बहुत ज्यादा रुपया खर्च किया गया था जिसे मैं निजी तौर पर बहुत अच्छी तरह जानता हूँ, इस बारे में तुम मुझे क्योंकर धोखा दे सकती हो!!
लौंडी : तुम जो चाहो समझो और कहो, मैं तुमसे बहस करने के लिए नहीं आई हूँ और न इन रहस्यों को जानती हूँ, बात जो सच है वही कह दी है।
भूत० : मगर मुझे विश्वास नहीं आता।
लौंडी : विश्वास नहीं आता तो जाने दो।
भूत० :ऐसी अवस्था में मैं इनाम भी नहीं दे सकता।
लौंडी : मुझे इसकी परवाह नहीं है।
भूत० : अच्छा तो जाओ अपना काम देखो।
लौडी : बटुआ मुझे वापस कर दो जहाँ से मैं लाई वहाँ रख आऊँ और बदनामी से बचूँ।
भूतनाथ उस लौडी से बातें करता ही जाता था और अपने बटुए में से जिसे लौंडी ने ला कर दिया था अंधेरे में टटोल-टटोल कर कुछ निकालता भी जाता था जिसकी खबर लौंडी को कुछ भी न थी और न अंधकार के कारण वह कुछ देख ही सकती थी, अस्तु लौंडी की बात का भूतनाथ ने पुनः यों उत्तर दिया।
भूत० : बदनामी से तो तुम किसी तरह बच नहीं सकती हो, अगर मैं यह बटुआ तुम्हें वापस न दूँ तो तुम क्या करोगी?
लौंडीः मैं खूब चिल्लाऊँगी कि किसी लौंडी ने यह बटुआ लाकर भूतनाथ को दे दिया है।
भूत० : लेकिन लोगों के इकट्ठा हो जाने पर मैं यह कह दूँगा कि इसी लौंडी ने ला दिया है।
लौंडी : मगर इस बात का किसी को विश्वास नहीं होगा।
भूत० : (हँसकर) मालूम होता है कि तुम विश्वास पात्र समझी जाती हो। खैर तुम नहीं तो कोई दूसरी साथिन पकड़ी जाएगी।
लौंडी : जो होगा देखा जाएगा।
भूत० : मगर नहीं, मैं ऐसा बेईमान नहीं हूँ, लो यह बटुआ देता हूँ, जहाँ से लाई हो रख आओ। क्या कहूँ, मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास ही नहीं होता नहीं तो मैं वह खजाना जरूर तुम्हें दे देता।
इतना कहकर भूतनाथ ने वह बटुआ लौंडी की तरफ बढ़ाया। उसने जिस तरह दिया था उसी तरह ले लिया और यह कहती हुई वहाँ से चली गई, ‘‘बुरे लोगों से बातचीत करना भी बुरा ही है, इस काम के लिए मुझे जिन्दगी-भर पछताना पड़ेगा।’’
जब लौंडी कुछ दूर चली गई तो भूतनाथ ने धीरे-से यह जवाब दिया जिसे वह खुद ही सुन सकता था—‘‘तुम्हारे लिए चाहे जो हो मगर मेरा काम निकल ही गया। अब मैं इस पेंचीले मामले की गुत्थी अच्छी तरह सुलझा लूँगा।’’
भूतनाथ ने बात करते-करते उस बटुए में से जो कई चीजें निकाल लीं थीं उनमें कुछ शीशियाँ भी थीं जिनमें किसी तरह का अर्क था। एक शीशी का अर्क किसी ढंग से भूतनाथ ने कैदखाने के कई सीखचों की जड़ में लगाया और उससे कुछ देर बाद दूसरी शीशी का अर्क भी उसी जगह पर लगाया जिससे उतनी जगह का लोहा गल कर मोमबत्ती की तरह हो गया और भूतनाथ ने बड़ी आसानी से हटा कर अपने निकलने लायक रास्ता बना लिया। बात की बात में भूतनाथ कैदखाने के बाहर हो गया और मैदान की हवा खाने लगा।
भूतनाथ कैदखाने के बाहर हो गया सही मगर उसके लिए इस घाटी से बाहर हो जाना बड़ा ही कठिन था, एक तो अँधेरी रात दूसरे पहाड़ की ढालवीं और अनगढ़ ढोकों वाली पथरीली जमीन, तिस पर पगडंडी और रास्ते का कुछ पता नहीं। मगर खैर जो होगा देखा जायगा, भूतनाथ को इन बातों की कुछ भी परवाह न थी।
अब हम थोड़ा-सा हाल उस लौंडी का बयान करेंगे जो भूतनाथ के हाथ से बटुआ लेकर चली गई थी।
उसे अपने किये पर बड़ा ही पछतावा था। उसे इस बात का बड़ा ही दुःख था कि उसने भूतनाथ से अपने मालिकों का नाम बता दिया जो अपने को बहुत ही छिपा कर इस घाटी में रहती थीं। अब वह इस बात को बखूबी समझने लगी कि अगर भूतनाथ किसी तरह छूट कर निकल गया तो मेरे इस कर्म का बहुत ही बुरा नतीजा निकलेगा और भेद खुल जाने के कारण मेरे मालिकों को सख्त तकलीफ उठानी पड़ेगी।
वह यही सोचती जा रही थी कि मैंने बहुत बुरा किया जो लालच में पड़ कर अपने बेकसूर मालिकों के साथ ऐसी बेईमानी का बर्ताव किया! अब क्या किया जाय और मैं इस पाप का क्या प्रायश्चित करूँ?
साथ ही इसके उसने यह भी सोचा कि भूतनाथ का यह बटुआ कुछ हल्का मालूम पड़ता है। इसमें अब वह वजन नहीं है जो पहिले था जब मैं लाई थी। मालूम होता है, भूतनाथ ने अंधेरे में टटोलकर अपने मतलब की चीज निकाल ली। अपने हाथ की रखी हुई चीज निकालने के लिए बुद्धिमान आदमी को रोशनी की जरूरत नहीं पड़ती। भूतनाथ ने बड़ी चालाकी की, अपना काम कर लिया और मुझे बेवकूफ बना कर विदा किया! मैं ही ऐसी कम्बख्त थी जो उसके फन्दे में आ गई, अब मुझे जरूर अपने इस पाप का प्रायश्चित करना पड़ेगा!!
इसी तरह की बातें सोचती वह लौंडी वहाँ से चली गई।
पहिला भाग : तेरहवाँ बयान
रात आधी से ज्यादे बीत जाने पर भी कला, बिमला और इन्दुमति की आँखों में नींद नहीं है। न मालूम किस गम्भीर विषय पर यो तीनों विचार कर रही हैं! सम्भव है कि भूतनाथ के विषय ही में कुछ विचार कर रही हों, अस्तु जो कुछ हो इनकी बातचीत सुनने से मालूम होता हो जायगा।
इन्दु० :(बिमला की तरफ देख कर) बहिन, जब इस बात का निश्चय हो गया कि तुम्हारे पति को गदाधरसिंह (भूतनाथ) ने मार डाला है तब उसके लिए बहुत बड़े जाल फैलाने और सोच-विचार करने की जरूरत ही क्या है? जब वह कम्बख्त तुम्हारे कब्जे में आ गया है तो उसे सहज में ही मार कर बखेड़ा तै करो!
बिमला : (ऊँची साँस लेकर) हाय बहिन, तुम क्या कहती हो? इस कमीने को यों ही सहज में मार डालने से क्या मेरे दिल की आग बुझ जाएगी?
क्या कहा जायेगा कि मैंने इसे मार कर अपना बदला ले लिया? किसी को मार डालना और बात है और बदला लेना और बात है। इसने मेरे दिल को जो सदमा पहुँचाया है उससे सौ गुना ज्यादे दुःख इसे हो तब मैं समझूँ कि मैंने कुछ बदला लिया।
इन्दु० : बहिन, तुम खुद कह चुकी हो कि यह बहुत ही बुरी बला है अस्तु यदि वह तुम्हारे कब्जे से निकल गया या तुम्हारे असल भेद की खबर हो गई तो बहुत बुरा हो जायगा।
बिमला : बल्कि अनर्थ हो जाएगा। तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, मगर उसे हमारा भेद कुछ भी मालूम नहीं हो सकता और न यहाँ से निकल कर भाग ही जा सकता है।
इन्दु० : ईश्वर करे ऐसा ही हो मगर...
कला: कल इन्द्रदेवजी आयेंगे, उनसे राय करके कोई-न-कोई कार्यवाई बहुत जल्दी हो जायगी।
बिमला : मैं सोच रही हूँ कि तब तक उसकी (पड़ोस वाली) घाटी पर कब्जा कर लिया जाय, उसका सदर दरवाजा जिधर से वे लोग आते-जाते हैं बन्द कर दिया जाय, उसके आदमी सब मार डाले जायें और उसका माल-असबाब सब लूट लिया जाय और इन बातों की खबर भूतनाथ को भी दे दी जाय।
इन्दु० : बहुत अच्छी बात है।
बिमला : और इतना काम मैं सहज में ही कर सकूँगी।
इन्दु० : सो कैसे?
बिमला : तुम देखती रहो, सब काम तुम्हारे सामने ही तो होगा।
कला : हाँ, कल ही इस काम को करके छुट्टी पा लेनी चाहिए जिससे इन्द्रदेव जी आयें तो उनके दिल में भी ढ़ाढस पहुँचे।
बिमला : कल नहीं आज बल्कि इसी समय उस घाटी का रास्ता बन्द कर दिया जाय जिसमें लोग भाग कर बाहर न चले जायें।
इन्दु० : ऐसा हो जाय तो बहुत अच्छी बात है, मगर दूसरे के घर में तुम इस तरह की कार्रवाई...
बिमला : (मुस्करा कर) नहीं बहिन, तुम व्यर्थ सोच रही हो। बात यह है कि जिस तरह यह स्थान और घाटी जिसमें हम लोग रहती हैं इन्द्रदेवजी के अधिकार में है, उसी तरह वह घाटी भी जिसमें भूतनाथ रहता है इस घाटी का एक हिस्सा होने के कारण इन्द्रदेवजी के अधिकार में है। यह दोनों घाटी एक ही हैं, या यों कहो कि एक ही मकान का यह जनाना हिस्सा और वह मर्दाना हिस्सा है और इसलिए इन दोनों जगहों का पूरा-पूरा भेद इन्द्रदेवजी को मालूम है और उन्होंने जो कुछ भी मुझे बताया है मैं जानती हूँ।
इस बात की खबर भूतनाथ को कुछ भी नहीं है। यह घाटी जिसमें मैं रहती हूँ हमेशा बन्द रहती थी मगर उस घाटी का दरवाजा बराबर न जाने क्यों खुला ही रहता था, शायद इसका सबब यह हो कि उस घाटी में कोई जोखिम की चीज नहीं है और न कोई अच्छी इमारत ही है, अस्तु भूतनाथ यह भी नहीं जानता कि उस घाटी का दरवाजा कहाँ है तथा क्योंकर खुलता और बन्द होता है या इस स्थान का कोई मालिक भी है या नहीं। भूतनाथ को घूमते-फिरते इत्तिफाक से या और किसी वजह से यह घाटी मिल गई और उसने उसे अपना घर बना लिया और यह खबर इन्द्रदेवजी को और मुझको मालूम हुई तब उन्होंने मेरी इच्छानुसार यह स्थान मुझे देकर यहाँ के बहुत से भेद बता दिए। बस अब मैं समझती हूँ कि तुम्हें मेरी बातों का तत्व मालूम हो गया होगा।
इन्दु० : हाँ अब मैं समझ गई, ऐसी अवस्था में तुम जो चाहो सो कर सकती हो।
बिमला : अच्छा तो मैं जाती हूँ और जो कुछ सोचा है उस काम को ठीक करती हूँ।
इतना कह कर बिमला उठ खडी हुई और इन्दुमति तथा कला को उसी जगह बैठे रहने की ताकीद कर घर के बाहर निकलने लगी, मगर इन्दु ने साथ जाने के लिए जिद्द की और बहुत कुछ समझाने पर भी न मानी, लाचार बिमला इन्दु को साथ ले गई और कला को उसी जगह छोड़ गई।
भूतनाथ का साथ छोड़कर प्रभाकरसिंह के इस घाटी में आने का हाल हमारे पाठक भूले न होंगे, उन्हें याद होगा कि भूतनाथ की घाटी के अन्दर जाने वाली सुरंग के बीच में एक चौमुहानी थी जहाँ पर प्रभाकरसिंह ने भूतनाथ और इन्दुमति का साथ छोड़ा था और कला तथा बिमला के साथ दूसरी राह पर चल पड़े थे, आज इन्दुमति को साथ लिए बिमला पुनः उसी जगह जाती है।
उस सुरंग के अन्दर वाली चौमुहानी से एक रास्ता तो भूतनाथ की घाटी के लिए था, दूसरा रास्ता सुरंग के बाहर निकल जाने के लिए था, और तीसरा तथा चौथा रास्ता (या सुरंग) कला और बिमला के घाटी में आने के लिये था, एक रास्ता तो ठीक उस घाटी में जाता था जिधर से प्रभाकरसिंह आए थे और दूसरा रास्ता बिमला के महल में जाता था।
बिमला के घर आने वाले दोनों रास्ते एक रंग-ढंग के बने हुए थे और इनके अन्दर के तिलिस्मी दरवाजे थे एक ही तरह के तथा गिनती में एक बराबर थे, अस्तु एक सुरंग का हाल पढ़ कर पाठक समझ जायेंगे कि दूसरी तरफ वाली सुरंग की अवस्था भी वैसी ही है और जो बिमला के घर को जाती है।
उस सुरंग की चौमुहानी पर पहुँच कर जब बिमला की घाटी से आने वाली सुरंग की तरफ बढ़िये तो कई कदम जाने के बाद एक (कम ऊँची) दहलीज मिलेगी जिसके अन्दर पैर रख कर ज्यों-ज्यों आगे बढ़िये त्यों-त्यों वह दहलीज ऊँची होती जायगी, यहाँ तक कि बीस-पचीस कदम आगे जाते-आते वह दहलीज ऊँची होकर सुरंग की छत के साथ मिल जायगी और फिर पीछे को लौटने के लिए रास्ता न रहेगा, उसके पास ही दाहिनी तरफ दीवार के अन्दर एक पेंच है जिसे कायदे के साथ घुमाने पर वह दरवाजा खुल सकता है।
अगर वह पेंच न घुमाया जाय और दहलीज के अन्दर कोई न हो, और जाने वाला आगे निकल गया हो, तो खुद-बखुद भी वह रास्ता बारह घण्टे के बाद खुल जायगा और वह दहलीज धीर-धीरे नीची होकर करीब-करीब जमीन के बराबर अर्थात् ज्यों-की-त्यों हो जायगी।
रास्ता कैसा पेचीदा और तंग है इसका हाल हम चौथे बयान में लिख आए हैं पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। लगभग तीन सौ कदम जाने के बाद एक और बन्द दरवाजा मिलेगा जो किसी पेंच के सहारे पर खुलता और बन्द होता है। पेंच घुमा कर खोल देने पर भी उसके दोनों पल्ले अलग नहीं होते, भिड़के रहते हैं। हाथ का धक्का दीजिये तो खुल जायेंगे और कुछ देर बाद आप से आप बन्द भी हो जायेंगे मगर पुनः दूसरी बार केवल धक्का देने से वह दरवाजा न खुलेगा असल पेंच दरवाजा खोलने और बन्द करने के लिए बने हुए थे और इसका हाल भूतनाथ को कुछ भी मालूम न था।
इसके अतिरिक्त उस सुरंग का सदर दरवाजा भी (जिसके अन्दर घुसने के बाद चौमुहानी मिलती थी) बन्द हो सकता था और यह बात बिमला के अधीन थी। केवल इतना ही नहीं, उस चौमुहानी से भूतनाथ की घाटी की तरफ जाने वाली सुरंग में भी एक दरवाजा (इन दोनों सुरंगों की तरफ) था और उसका हाल भी यद्यपि भूतनाथ को तो मालूम न था मगर बिमला उसे भी बन्द कर सकती थी।
इन्दु को साथ लिए हुए बिमला उसी सुरंग में घुसी और उस सुरंग के भेद इन्दु को समझाती तथा दरवाजा खोलती और बन्द करती हुई उस चौमुहानी पर पहुँची जिसका हाल ऊपर कई दफे लिखा जा चुका है और जहाँ प्रभाकरसिंह ने इन्दु का साथ छोड़ा था। वहाँ पहुँच कर कुछ देर के लिए बिमला अटकी और आहट लेने लगी कि भूतनाथ की घाटी में आने वाला कोई आदमी तो इस समय इस सुरंग में मौजूद नहीं है। जब सन्नाटा मालूम हुआ और किसी आदमी के वहाँ होने का गुमान न रहा तब वह भूतनाथ वाली घाटी की तरफ जो रास्ता गया था उस सुरंग में घुसी और दस-बारह कदम जाने के बाद दीवार के अन्दर बने हुए किसी कल-पुरजे को घुमा कर उस सुरंग का रास्ता उसने बन्द कर दिया। लोहे का एक मोटा तख्ता दीवार के अन्दर से निकला और रास्ता बन्द करता हुआ दूसरी दीवार के अन्दर घुस कर अटक गया।
इसके बाद बिमला सुरंग के सदर दरवाजे पर दरवाजे बन्द करने के लिए पहुँची ही थी कि सुरंग के अन्दर घूमते हुए भूतनाथ के शागिर्द भोलासिंह पर निगाह पड़ी और उसने भी इन दोनों औरतों को देख लिया। वह इन्दु को अच्छी तरह से देख चुका था।
अस्तु निगाह पड़ते ही पहिचान गया और आश्चर्य के साथ देखता हुआ बोला—‘‘आह, मेरी रानी तुम यहाँ कहाँ? तुम्हारे लिए तो हमारे गुरुजी बहुत परेशान हैं!!
इस जगह बखूबी उजाला था इसलिए इन्दु ने भोलासिंह को और भोलासिंह ने इन्दु को बखूबी पहिचान लिया। इन्दु पर क्या-क्या मुसीबतें गुजरीं और प्रभाकरसिंह कहाँ गए इन बातों की खबर भोलासिंह को कुछ भी न थी, इसलिए वह इस समय इन्दु को देख कर खुश हुआ और ताज्जुब करने लगा। इन्दु ने धीरे से बिमला को समझाया कि यह भूतनाथ का शागिर्द है।
इन्दु उसे पहिचानती थी सही मगर नाम कदाचित् नहीं जानती थी। वह उसकी बात का जवाब दिया ही चाहती थी कि बिमला ने उंगली दबाकर उसे चुप रहने का इशारा किया और कुछ आगे बढ़ कर कहा, ‘‘तुम्हारे गुरुजी ने इन्हें मौत के पंजे से छुड़ाया और इनकी बदौलत उसी आफत से मेरी भी जान बची है!’’
भोला० : गुरुजी कहाँ हैं?
बिमला : हमारे साथ आओ और उनसे मुलाकात करके सुनो कि उन्होंने इस बीच में कैसे-कैसे अनूठे काम किए हैं।
भोला० : चलो-चलो, मैं बहुत जल्द उनसे मिलना चाहता हूँ।
बिमला ने इन्दु को अपने आगे किया और भोलासिंह को पीछे आने का इशारा कर अपनी घाटी की तरफ रवाना हुई।
बिमला इस सुरंग का सदर दरवाजा बन्द न कर सकी, खैर इसकी उसे ज्यादे परवाह भी न थी। चौमुहानी से जो भूतनाथ की घाटी की तरफ रास्ता बन गया था उसी को बन्द कर उसने सन्तोष लाभ कर लिया।
बिमला के पीछे-पीछे चल कर भोलासिंह उस चौमुहाने तक पहुँचा मगर जब बिमला अपनी घाटी की तरफ अर्थात् सामने वाली सुरंग में रवाना हुई तब भोला सिंह रुका और बोला, ‘‘इस तरफ तो हमारे गुरुजी कभी जाते न थे और उन्होंने दूसरों को भी इधर जाने को मना कर दिया था। आज वे इधर कैसे गए!’’
बिमला : हाँ, पहिले उनका शायद यही खयाल था मगर आज तो इसी मकान में बैठे हुए हैं।
भोला० : क्या इसके अन्दर कोई मकान है?
बिमला : हाँ, बहुत ही सुन्दर मकान है।
भोला० : कितनी दूरी पर?
बिमला : बहुत थोड़ी दूरी पर, तुम आओ तो सही।
‘‘ये दोनों औरतें बेचारी भला मेरे साथ क्या दगा करेंगी!’’ यह सोच कर भोलासिंह आगे बढ़ा और इनके साथ सुरंग के अन्दर घुस गया।
जो हाल प्रभाकरसिंह का इस सुरंग में हुआ था वही हाल इस समय भोलासिंह का हुआ अर्थात् पीछे की तरफ लौटने का रास्ता बन्द हो गया और बिमला तथा इन्दु के आगे बढ़ जाने तथा चुप हो जाने के कारण वह जोर-जोर से पुकारने और टटोल-टटोल कर आगे की तरफ बढ़ने लगा।
प्रभाकरसिंह को इसके आगे का दरवाजा खुला हुआ मिला था मगर भोलासिंह को आगे का दरवाजा खुला हुआ न मिला। उसे दोनों दरवाजों के अन्दर बन्द करके बिमला और इन्दु अपने डेरे की तरफ निकल गईं।
।। पहिला भाग समाप्त ।।