भूरे (कहानी) : ख़दीजा मस्तूर
Bhoore (Story in Hindi) : Khadija Mastoor
मोहम्मद भूरे वल्द मोहम्मद बूटे के दिमाग़ में कोई ख़लल पैदा होगया है, ये सबका मुत्तफ़िक़ा फ़ैसला था मगर मिस लाली ख़ाँ हाउस सर्जन का ख़्याल था कि इनके दिमाग़ में कोई ख़लल नहीं है क्योंकि वो बक़ायमी होश-ओ-हवास तमाम काम अंजाम देता है, अगर घंटे की आवाज़ से उसपर बेचैनी तारी हो जाती तो ये कोई जज़्बाती मामला है। मोहम्मद भूरे से इस मामले में तक़रीबन सभी ने पूछ गच्छ की मगर जवाब में उसने हमेशा दांत निकाल दिए और इस तरह हंसा जैसे सबको चिड़ा रहा हो, मिस लाली ख़ाँ ने इस मामले में भूरे से बड़ी राज़दारी के साथ मालूमात हासिल करनी चाहीं मगर वो उनकी हमदर्दी और ख़ुलूस को भी बड़े बे-ए’तनाई से टाल कर सिर्फ़ तन्हा रह गया, आख़िरकार मिस लाली ख़ाँ का भी ख़्याल बदल गया और उन्हें भी मानना पड़ा कि ये ख़लल है मगर महज़ लम्हाती, जो घंटे की आवाज़ से पैदा होता है, इसलिए भूरे बेज़ार सा इंसान है और उसे अपनी मुलाज़िमत पर मौजूद रहना चाहिए।
मोहम्मद भूरे अपनी मुलाज़िमत पर मौजूद रहा मगर ये किसी को न मालूम हो सका कि ये एक कहानी है जो भूरे किसी को नहीं बताना चाहता और वो इस कहानी के एक बड़े ही मसर्रत अंगेज़ अंजाम का मुंतज़िर है, ये कहानी इस तरह है कि, सीतापुर का मुहाजिर मोहम्मद भूरे इस ज़नाना अमराज़ के अस्पताल में आठ साल से काम कर रहा था, उसकी ड्यूटी अस्पताल के उस टेलीफ़ोन पर लगी हुई थी जो हाउस सर्जनों और ट्रेनिंग हासिल करने वाली लड़कियों के लिए वक़्फ़ था, दूसरा टेलीफ़ोन जो दूसरी तरफ़ था, मरीज़ों और उनके सरपरस्तों के लिए वक़्फ़ था, दुअन्नी डिब्बे में डालकर जिसका जी चाहे फ़ोन कर ले, उस दूसरी तरफ़ हर वक़्त हुल्लड़ सा मचा रहता, इसके बावजूद टेलीफ़ोन चपरासी प्राइवेट कमरों के मरीज़ों को पैग़ाम भी पहुँचा देता और मरीज़ ख़ुश होकर उसे इनाम भी दे दिया करते, इस तरह ख़ासी आमदनी हो जाती मगर भूरे उस आमदनी और उस टेलीफ़ोन दोनों से तौबा करता था, उसने कभी ये कोशिश नहीं कि उसकी ड्यूटी दूसरे टेलीफ़ोन पर तब्दील कर दी जाए।
वहाँ पर क़रीबी लेबर रूम से आती हुई चीख़ें साफ़ सुनाई देतीं, सब बदहवास से नज़र आते मगर यहाँ इस तरह बड़ी-बड़ी मेहराबों वाले बरामदे में हर तरफ़ सुकून तारी रहता, सामने वसीअ लॉन के दरख़्तों पर चिड़ियाँ चहका करतीं, गर्मियों में लू के गर्म झोंके भी बरामदे तक आते-आते ठंडे हो जाते, सर्दियों में चमकीली धूप घंटा दो घंटे बरामदे में लोटती रहती और बरसात में जब छम-छम बारिश होती तो कभी-कभी बौछार बरामदे की मेहराबों से दाख़िल हो कर भूरे के क़दमों को भिगो जाती, यहाँ के सन्नाटे के और भी बहुत फ़ायदे थे, यहाँ वो आज़ादी से जवान आयाओं और बूढ़ी आयाओं की लड़कियों से इश्क़ लड़ा लेता था, इतवार, इतवार फ़िल्मों के मेटिनी शो देखने की वजह से उसको इश्क़ करने के हज़ारों तरीक़े मालूम हो गए थे, तनख़्वाह का आधा हिस्सा तोहफ़ों में ख़र्च करने के बाद भी भूरे की ज़िंदगी बड़े मज़े से गुज़र रही थी, उसकी ज़िंदगी में सिर्फ़ इस चीज़ की कमी थी कि उसकी महबूबाएं फ़िल्मी हीरोइनों की तरह न तो उससे मोहब्बत करती थीं और न बावफ़ा थीं, वैम्पों की तरह बेवफ़ा और हरजाई थीं।
उसे मालूम था कि वो और बहुत सों से भी तोहफ़े वसूल कर लेती हैं, वो अपनी महबूबाओं को जी जान से बदमाश समझता था, इसीलिए उसने अब तक शादी न की थी और न उसे शादी की ज़रूरत महसूस हुई थी, मुहाजिर बनने के बाद शादी का तसव्वुर उसके ज़ेहन में धुंदला कर रह गया था, कहते हैं कि जब बंदर बारिश में भीगता है तो उसे घर बनाने का ख़्याल आता है मगर भूरे इंसान था और बारिश से सर बचा सकता था, इसलिए उसे घर बनाने की क्यों फ़िक्र होती, वैसे भूरे को शादी से नफ़रत भी न थी अलबत्ता शादी करने के लिए जिस क़िस्म की पाक दामन और मोहब्बत करने वाली बीबी की ज़रूरत होती है वो उसे अब तक नज़र न आई थी, इसलिए वो ज़िंदगी से ख़ुश और मुत्मइन था, मक़दूर भर ऐश कर रहा था, मुलाज़िमत में भी कोई तकलीफ़ न थी, सारा दिन मैली पुरानी आराम कुर्सी पर पड़ा फ़ोन रिसीव करता या फिर गाया करता।
जब वो सीतापुर में था तो रातों को अपनी टोली के साथ थाल बजा कर बारह मासे गाया करता था, उसके साथी उसकी सपाट आवाज़ की तारीफ़ करते थे, ये वही तारीफ़ थी जिसने आज तक उसका पीछा न छोड़ा था, नए फ़िल्मी गानों से उसे बड़ी नफ़रत थी, वजह ये थी कि बड़ी कोशिश के बावजूद उन टेढ-मेढ़े फ़िल्मी गानों की नक़ल न उतार सका था, उन धुनों की नक़ल करते हुए उसकी आवाज़ जवाब दे जाती, इसलिए उसे अपने वही पुराने गाने जी जान से प्यारे थे, सीतापुर छोड़े दस साल हो गए थे, मगर वो उन गीतों का एक-आध बोल ही भूल सका था।
लाहौर में भूरे बिल्कुल अकेला था, माँ-बाप सीतापुर ही में मर चुके थे और ख़ाला जिसने उसे पाला था, सीतापुर ही में रह गई थी, ख़ाला ने उसके सिर्फ़ एक ख़त का जवाब दिया था, उसके बाद भूरे ने कई ख़त लिखे मगर कोई जवाब न आया तो उसने समझ लिया कि बेचारी बूढ़ी मर खप गई होगी, दुख पालो तो जवान हो हो कर सताते हैं मगर पैदा होते ही गला घोंट दो तो फ़ुर्सत मिल जाती है, भूरे भी कुछ उसी तबियत का आदमी था लेकिन जबसे उसको ये मोहब्बत का रोग लगा तो दुनिया ही बदल गई, आयाएं और उस काली कलूटी नर्स की लौंडिया उसके सामने मटक-मटक कर थक गईं, पर भूरे ने उनको कोई तोहफ़ा न दिया, ऐसा जी उचाट हुआ कि फिर तफ़रीहन भी उनपर मोहब्बत की नज़र न डाली, रात उसके क्वार्टर में आने का मुज़्दा सुना कर ललचातीं तो वो जैसे बहरा बन जाता, इस तरह चार पैसों के लिए आख़िर कौन पीछे फिरता रहता, वो सब भी उसे पागल समझ कर छोड़ गईं।
पहली बार जब उसने जहूरन को बेदर्दी से धुत्कारा था तो बज़ाहिर उसे महसूस न हुआ था मगर जब वो थके-थके क़दम डालती उसकी नज़रों से ओझल हो गई तो ज़रा ही देर बाद भूरे को ऐसा लगा कि एक फाँस है जो दिल के पास खटक रही है। भूरे ने जी बहलाने के लिए अलापना शुरू किया।
न तुमसे दिल को लगाते न ग़ैर कहलाते
गुलों में बैठे गुलज़ार की हवा खाते
हूँ..., हूँ..., हूँ..., हूँ...,
अरे हाँ मुफ़्त हुए बदनाम सँवरिया तेरे लिए,
फिर वो लम्बी साँस लेकर मैली पुरानी आराम की कुर्सी पर फैल कर बैठ गया, आज जने सारी फ़ोन करने वालियाँ कहाँ मार गईं, उसने अपनी सेकंड हैंड घड़ी की तरफ़ देखा, दस बज गए, अभी तो क्लासें भी न ख़त्म हुई होंगी..., तुमको तो मिस्टर भूरे यूँही जल्दी मची रहती है, अभी वक़्त ही क्या है, वो पाजियों की तरह मुस्कुराया, नीची कुर्सी पर बैठकर ऊँचे पर हाथ मारना भूरे के बस में न था मगर नज़रों पर कौन ऊँच-नीच की छाप लगा सकता है, फ़ोन करने वालियों को देख कर दिल ही दिल में मज़े लूट लिया करता। फ़ोन करने वाले बहुत से चेहरे उसके सामने नाच गए, उसने मसर्रत से आँखें बंद करके कुर्सी पर लेटने के अंदाज़ से पाँव फैला दिए मगर लम्हे बाद फिर वही उकताहट और अफ़सुर्दगी इसके दिल में घमसान का रन डालने लगीं, आज तो किसी ख़्याल से भी उसे पहली जैसी ख़ुशी न मिल रही थी, वो फिर गाने लगा।
हवाएं कूचे से हर तरह की तिरे आईं
सज़ाएं दिल के लगाने की सैकड़ों पाईं
हाँ-हाँ..., हूँ-हूँ...
मुफ़्त हुए बदनाम सँवरिया तेरे लिए
तीसरा मिसरा बीते हुए बरसों ने ज़ेहन से निकाल फेंका था।
चली गई तो क्या हो गया? ऐसी-ऐसी बहुत फिरती हैं, मिस्टर भूरे तुमको क्या कमी है? मायूसी के दिन में उसने मसर्रत का झंडा लहराना चाहा और फिर इधर-उधर देखने लगा, इस साइड पर साली कैसी ख़ामोशी रहती है, आज भूरे को ये जगह बुरी मालूम होने लगी, उसने सोचा कि वो उधर होता, उस तरफ़ के टेलीफ़ोन पर उसकी ड्यूटी होती तो कितना अच्छा होता, हर वक़्त आने-जाने वालों का शोर, औरतों के चीख़ने चिल्लाने की आवाज़ें, साले सारे बुरे ख़्याल-वयाल भाग खड़े होते हैं, दिमाग़ में तो भुस भर जाता है, इंसान की ज़ात से नफ़रत हो जाती है और ये औरत ज़ात कैसी ढ़ीट होती है, बच्चा जनते हुए कितना शोर मचाती है, चीख़-चीख़ कर कान खा लेती है जन्म-जन्म के लिए बच्चा पैदा करने से तौबा करती है और फिर साल के अंदर पेट फुलाए इसी अस्पताल में आती नज़र पड़ती है, कैसा अजीब सा लगता है।
और फिर जाने कहाँ से एक ख़्याल भूरे के दिमाग़ में आ घुसा, जो मैंने जहूरन से शादी करली होती तो एक वो भी यहाँ आती, मैं सारी रात लेबर रूम के दरवाज़े पर खड़ा उसकी चीख़ें सुनता रहता, जने सुनता कि भाग खड़ा होता, चीख़ों से तो दिल दुखता है, भूरे ने लम्बी ठंडी साँस भरी, जने कहाँ चली गई हो, उस औरत ज़ात का दिल तो देखो, इतनी बड़ी दुनिया बना दी और उसकी कोई इज़्ज़त नहीं, कैसा धुतकार दिया तुमने भूरे। ज़ोर से घंटा बजने की आवाज़ आई, वो समझ गया कि कोई और मरीज़ा आगई है, परली तरफ़ के गेट का चौकीदार सामने के लॉन से होता हुआ उसकी तरफ़ आ रहा था, भूरे उचक कर खड़ा हो गया,कित्थे से आ रहे हो बादशाहो! उसने हँस कर हाथ बढ़ा दिया, उसने वक़्त के लिए पंजाबी के थोड़े से लफ़्ज़ सीख लिए थे जो वो अपनी ज़बान के साथ मिला कर इस्तेमाल कर लिया करता, आओ दो सोंटे हो जाएं, सिगरेट के। भूरे ने जेब से बगुला सिगरेट की डिबिया निकाल कर उसकी तरफ़ बढ़ा दी।
यार तेरे तो मज़े हैं, ठाठ से बैठा रहता है, चौकीदार ने सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए कहा, मेरे फाटक से अभी एक औरत की लाश गई है, बस जी ख़राब हो गया, उधर वो गई इधर दूसरी आगई बच्चा जनने।
हाँ! भूरे ने बुझी सी आवाज़ में कहा, उसे एक दम ख़्याल आया कि जब वो पैदा हुआ था तो उसकी माँ भी मर गई थी, ये बात उसकी ख़ाला ने उसे बताई थी।
यार औरत ज़ात कैसी जियालु होती है? भूरे ने लम्बी ठंडी साँस भरी, लोग तो यूँही भी उस औरत ज़ात के पेट में बच्चा डाल देते हैं, कितना दुख झेलती है ये औरत। भूरे का जी भर रहा था, उसे फिर जहूरन याद आ रही थी।
जियालु, ओए रहने दे, ये औरत ज़ात बच्चा न पैदा करे तो जानो उसपर सारी दुनिया का दुख फुट पड़ता है, अपनी ख़ुशी से करती है, फिर इतनी गंदी होती है ये औरत ज़ात। चौकीदार ने नफ़रत से शाने सिकोड़े और जाने के लिए उठ खड़ा हुआ, फिर सरगोशी के अंदाज़ से बोला, बियर की पूरी बोतल ले आया हूँ, दिल करे तो रात मेरे क्वार्टर में आजा, तुझे भी चाँद-सितारे दिखा दूँ।
भूरे सिर्फ़ हंस कर रह गया, उस वक़्त उसे चौकीदार की कोई बात अच्छी न लगी थी, उस वक़्त तो उसे अपनी माँ याद आ रही थी, भला माँ किस तरह गंदी हो सकती है और फिर ये पीने पिलाने की बात, उसने एक दिन पी तो थी मगर ज़रा सी पी कर घूम गया था, उसी वक़्त मिस ज़ैदी आगई थीं, वो कुर्सी से भी न खड़ा हुआ और बैठा गाता रहा था,कैसे तेरा अंदाज़ हो सीधा तो कर लो तीर को। मिस ज़ैदी ने उसे बड़े ज़ोर से डाँटा था,तुमको क्या हो गया है, तुम्हारी रिपोर्ट होगी।
दारू पिलाय दी अपने यार ने, माफी देव मिस साहब। नशे की हालत में वो उर्दू अंग्रेज़ी और पंजाबी के सारे अल्फ़ाज़ भूल गया था और सिर्फ़ अपनी मादरी ज़बान याद रह गई थी, मिस ज़ैदी को एक दम हँसी आगई थी तो वो गिड़गिड़ा कर रोने लगा था।
आइन्दा ऐसी हरकत न करना, तुम तो बहुत अच्छे हो भूरे। मिस ज़ैदी फ़ोन करके चली गईं तो भूरे इस फ़िक्र में दम बख़ुद पड़ा रहा था कि कहीं उसकी शिकायत न हो जाए मगर मिस ज़ैदी ने शिकायत करने के बजाय ख़ूब क़हक़हे लगाए थे और सबको बताया कि भूरे पी कर उनके तीर सीधे करा रहा था। इधर-उधर की बातों को याद करते भूरे ने थककर सामने देखना शुरू कर दिया, ऊपर की सीढ़ियों पर खट-खट हो रही थी, वो सँभल गया, इस आवाज़ से वो समझ जाता कि कोई फ़ोन करने आ रहा है, बरामदे के ऊपर वाली मंज़िल पर बहुत से कमरे थे, जहाँ तालिब-इल्म और हाउस सर्जन लड़कियाँ रहती थीं, वो इन सबके नाम और हिस्ट्रियाँ तक जानता था, कौन किसे फ़ोन करता है, कौन किसका दोस्त है, कौन मोहब्बत में कामयाब हो गया है और कौन नाकाम, रात किसने आँसू बहाए थे, किसकी आँखें सूजी हुई थीं, कौन सुकून से सोया था, किसका मिलने वाला आया था, कौन सी फ़िल्म देखी थी, शादी का कब इरादा है।
मिस लाली ख़ाँ मुस्कुराती हुई फ़ोन के पास आईं तो भूरे खड़ा हो गया, हलो, नासिर बोल रहे हो, हूँ-हूँ, नहीं भई, हाय में मर गई तुम कैसी बातें करते हो, अच्छा कल ज़रूर आना, ख़ुदा हाफ़िज़। मिस लाली ख़ाँ का चेहरा सुर्ख़ हो रहा था और आँखें आपही आप मुंदी जा रही थीं। मिस लाली ख़ाँ के जाने के बाद भूरे ने फिर आँखें बंद कर लीं, सब यही करते हैं, सब एक जैसे होते हैं भूरे, ज़हुरिया कब आएगी? वो आए तो वो उसे सीने से लगा लेगा..., अरे! वो अपने इस ख़्याल पर चौंक पड़ा, भला उसे ये ख़्याल आया ही क्यों, वो तो ख़्वाह-मख़्वाह उसे याद कर रहा है। रखी आया की लड़की बड़े ठस्से से उसकी तरफ़ आ रही थी, भूरे ने शौक़ से उसकी तरफ़ देखा, वो लजाती हुई उसके पास खड़ी हो गई, भूरे ने इधर-उधर देख कर उसकी कमर में हाथ डाल दिया।
अभी बाज़ार नहीं गए, लाओगे मेरा कपड़ा? वो इतरा रही थी। भूरे ने उसके भरे-भरे जिस्म पर कई चुटकियाँ ले लीं, ला दूंगा डियर। बरामदे के परली तरफ़ कोई आ रहा था, लड़की जैसे बड़ी मसरूफ़ियत के साथ जल्दी से आगे बढ़ गई और भूरे को महसूस हुआ कि उसकी तबियत ज़रा खुल गई है। सुकून की एक साँस लेकर वो कुर्सी पर फैल कर लेट गया, दोपहर हो चुकी थी, उसने सोचा कि कल आया की लौंडिया को कुछ न कुछ ज़रूर ला देगा, उसे अपनी उँगलियों में चंकों की लज़्ज़त महसूस हो रही थी। एक बार फिर घंटे की तेज़ आवाज़ गूँजी तो इतनी मुश्किल से पैदा की हुई लज़्ज़त एक दम रफ़ू-चक्कर हो गई, उसका जी दुख गया, उसी तरह तो ज़हुरिया भी आती होगी, अकेली पड़ी रहती होगी और कोई दूर-दूर पूछने वाला न होता होगा। उसकी नज़र बरामदे के उस सुतून की तरफ़ उठ गई जो उसके टेली फ़ोन से थोड़ी दूर था। उसे ऐसा महसूस हुआ कि उस वक़्त भी जहूरन वहाँ लेटी है...
वो बरसात की एक दोपहर थी, उस दिन हवा बंद थी और मारे उमस के जी घुटा जा रहा था, भूरे अपनी कुर्सी पर बेज़ार पड़ा ऊँघ रहा था, उस वक़्त उसे महसूस हुआ कि कोई दबे क़दमों उसके पास से गुज़र गया है, उसने आँख खोल दी, चौड़ी-चौड़ी नीली धारी की क़मीस और मर्दाना सा पाजामा पहने जर्नल वार्ड की कोई मरीज़ा सुतून के पास दरी का टुकड़ा बिछा रही थी, वो तो समझा था कि कोई उसकी अपनी होगी और ज़रा वक़्त मज़े से गुज़र जाएगा, उसने बड़ी बे-ए‘तिनाई से मुँह फेर कर दुबारा आँखें बंद कर लीं, कभी-कभी ऐसा होता कि जर्नल वार्ड की ज़च्चाएं गर्मी से घबरा कर उधर आ जातीं, खुली फ़िज़ा और सन्नाटे में ज़रा देर ग़फ़लत की नींद सो कर चली जातीं।
बादलों के हल्के-हल्के टुकड़े आसमान पर इस तरह फैले हुए थे जैसे राह में धूल उड़ रही हो, सामने लॉन में बढ़ी हुई घास पर एक हुदहुद जाने क्या चुग रहा था और बड़ी ऊँचाई पर कोई चील पर फैलाए उड़ी जा रही थी, इस वक़्त भूरे ने उकता कर आँख खोल दी, सारी क़मीस पसीने से तर हो रही थी और वो औरत भी अब उठकर बरामदे के सुतून से सर टेके बैठी जाने क्या देख रही थी, बादलों के दो चार छोटे-छोटे सियाह टुकड़े कहीं दूर से सफ़र करते हुए सामने आगए थे औरत हौले-हौले गाने लगी... अंबवा तले डोला रख दे मुसाफ़िर आई सावन की बहार रे... भूरे ने चौंक कर उधर देखा उसे ऐसा महसूस हुआ कि वो औरत उसे सुनाने के लिए गा रही है..., अपने महल में गुड़ियाँ खेलत थी, सय्याँ ने भेजे कहार रे।
औरत की आवाज़ ज़रा सी ऊँची हो गई मगर उसका सर उसी तरह बरामदे के सुतून से टिका हुआ था, वैसे तो भूरे को अस्पताल में आकर बच्चे पैदा करने वाली औरतों से ज़रा दिलचस्पी न थी मगर आज जाने क्यों उस औरत का वजूद उसके लिए कशिश का बाइस हो रहा था, उसने सोचा कि औरत होगी मज़ेदार, कुर्सी से उचक-उचक कर देखने के बावजूद उसे उसका चेहरा नज़र न पड़ा, सुतून उसके चेहरे की आड़ कर रहा था। भूरे शरारत से खंकारा, उस वक़्त वो भूल गया था कि इस हरकत पर उसकी शिकायत भी हो सकती है, उसे यक़ीन था कि औरत सिर्फ़ उसे सुनाने के लिए गा रही है, आख़िर और भी तो औरतें थीं, खाँसती कराहती आतीं और लेटते ही आँखें बंद कर लेतीं, गाने कोई न बैठता। खंकारने की आवाज़ पर औरत यूँ चुप हो गई जैसे सचमुच डोले में सवार हो कर सैयाँ के घर चली गई हो, चंद मिनट तक वो यूँ ही सर टेके ख़ामोश बैठी रही, फिर दरी का टुकड़ा समेट कर खड़ी हो गई।
जब वो आहिस्ता-आहिस्ता चलती हुई भूरे के पास से गुज़रने लगी तो उसने बड़ी नफ़रत से भूरे की तरफ़ देखा और फिर खड़ी की खड़ी रह गई, अरे तू सीतापुर का भूरे नाहीं है?
और तू जहूरन है?
दोनों की नज़रों में इज़्तिराब था औरत ने शर्मा कर दुपट्टा माथे तक खींच लिया और नज़रें झुका लीं, भूरे कुर्सी से उछला और फिर बैठ गया, कलेजे पर चोट सी लगी। वक़्त ने पलट कर देखा, भूरे की ख़ाला ने जहूरन की पैदाइश पर ठीकरे में पैसा डाल कर दिया था, इस तरह जहूरन सारी बिरादरी की नज़रों में भूरे की हो गई थी और जब जहूरन बारह साल की हुई थी तो भूरे को देख-देखकर शर्माने लगी थी, वो अपनी भीगती हुई मस्सों पर हाथ फेर कर सख़्त अहमक़ों की तरह हँसता था, फिर जब जहूरन चौदह पन्द्रह बरस की हो गई थी तो अपने साथ खेलने वाली लड़कियों से पैग़ाम भिजवाती थी कि जहूरन तेरा इंतज़ार कर रही है, डोला लेकर कब आएगा, भूरे मेहनत मज़दूरी करके कौड़ी-कौड़ी बचा रहा था कि घर आबाद कर ले। ख़ाला के लिए ख़िदमत करने को कोई आ जाए और फिर ये कि जहूरन उसे अच्छी भी लगने लगी थी।
उसी ज़माने में मुल्क आज़ाद हो गया, भूरे लाखों कमाने के लिए लाहौर आ गया और कई साल धक्के खाने के बाद अस्पताल में नौकर हो गया, लाहौर की रंगीन ज़िंदगी और तन्हा शख़्स, जहूरन तो ख़्वाब की तरह याद रह गई थी और सीतापुर..., भला क्या रखा था सीतापुर में। सारा दिन सड़कों पर धूल उड़ा करती, राहगीर दरख़्तों तले गठरियाँ, सिरहाने रख कर सोते रहते और दरख़्तों पर बैठे हुए बंदर इस ताक में दीदे घुमाते रहते कि क्या उचक ले जाएं, बाबू लोगों के थोड़े से बँगले, पुरानी वज़ा’ के दो-चार मंदिर, लड़कियों का एक कालेज जहाँ रात गए तक कीर्तन की आवाज़ आती रहती, भला कौन याद रखता है उस सीतापुर को?
मगर अब जबकि जहूरन उसके सामने खड़ी थी तो उसके दिल पर चोट सी लगी, जहूरन किसी दूसरे की हो गई, वो जिसे भूरे की ख़ाला ने एक आना ठीकरे में डाल कर भूरे के लिए ख़रीद लिया था और अब उसके एक आने के बदले में उससे वफ़ादारी न पाकर दुख से तिलमिला उठा था, इस अस्पताल में आने के भला क्या मतलब हैं, यही ना कि बच्चा पैदा करना होता है, या फिर किसी ज़नाने मर्ज़ का इलाज।
कैसे आने हुआ अस्पताल में? भूरे ने तस्दीक़ चाही। मगर जहूरन कुछ न बोली, सर झुकाए साकित खड़ी रही, फिर नज़रें उठाकर और भूरे को बड़ी दुखी-दुखी नज़रों से देख कर लॉन की तरफ़ देखने लगी जहाँ एक प्यासी टिटरी शोर मचाती उड़ी जा रही थी।
मेंह बरसेगा टीड़ी चहक रही है। जहूरन ने धीरे से कहा।
हूँ! भूरे को अपने दुख में अचानक कमी का एहसास होने लगा, क्या कहती थी ख़ाला, टके की हँडिया गई, कुत्ते की ज़ात पहचानी।
चाचा चाची कहाँ हैं? भूरे ने दुनिया की बातें करना शुरू कर दीं मगर जहूरन की मैली पीली आँखों में एक दम आँसू आगए, वो भूरे के क़दमों के पास पक्के फ़र्श पर फसकड़ा मार कर बैठ गई, ऐसी थकी और निढ़ाल नज़र आ रही थी जैसे कोसों दूर से चल कर आ रही हो, भूकी प्यासी, पैरों में छाले..., अम्माँ आते ही हैज़े में मर गई, दो साल हुए कि बाबू भी ट्रक तले आकर अल्लाह को प्यारा होगया, इस दूसरे बड़े अस्पताल में तीन दिन पड़ा रहा था, उसने दुपट्टे के पल्लू से आँसू ख़ुश्क कर लिए। भूरे ने नज़रें झुका लीं, जहूरन को इस हाल में देखकर उसे भी अफ़सोस हो रहा था, उसने कुछ कहना चाहा मगर कह न सका। सदियाँ गुज़र गईं मगर इन दाइमी जुदाइयों के दुखों को हल्का करने के लिए आज तक कोई लफ़्ज़ ईजाद न हो सका।
ज़ीनों पर लोहे की हील खट-खट कर रही थी, भूरे सँभल कर कुर्सी पर बैठ गया। मिस रज़िया फ़ोन करने आ रही थीं, वो कुर्सी से खड़ा हो गया, जहूरन सर झुकाए उसी तरह बैठी रही।
कौन है यह? मिस रज़िया ने रिसीवर उठाते हुए पूछा।
अपने सीतापुर की है मिस साहब। भूरे ने कहा, जहूरन ने नज़रें झुका लीं, ये सहर की जिंदगी कुछ नहीं होती, अपने सीतापुर में सारे लोग जानते थे कि जहूरन भूरे की क्या लगती है, जहूरन ने ठंडी साँस भरी। मिस रज़िया फ़ोन करके चली गईं तो भूरे फिर बैठ गया, उसने जहूरन की तरफ़ देखा जो बड़ी मासूमियत से चेहरा उठाए जाने किस तरह उसे देख रही थी, फिर वो धीरे-धीरे कहने लगी,जबसे खाला के पास तीसरा खत आया था बस उसी रोज से मैं बाबू से कहने लगी थी कि तू भी लाहौर चल, तेरे बना सीतापुर जंगल लगता था, तू बहुत याद आता था, अम्माँ ने सादी के जो कपड़े बनवाए थे वो अब तक कलेजे से लगा कर रख छोड़े हैं, कभी तन को नहीं लगाए, बाबू ने तुझे इस लाहौर में सब जगह तलाश किया पर तू न मिला, बड़े सहरों में कितना आदमी बसता है पर अम्माँ को अल्लाह जन्नत दे, कहा करती थी कि जी से ढ़ूंढ़ो तो खुदा भी मिल जाता है, सच कहती थी अम्माँ। वो मुस्कुराने लगी।
छोड़ो इन बातों को अब, पराई होकर ऐसी बातें क्यों करती है? भूरे झल्ला उठा, ये औरत ज़ात भी बड़ी चित्रबाज़ होती है, अब नख़रे कर रही है।
ये तू कह रहा है? जहूरन ने जाने कैसी सरशारी से आँखें बंद कर लीं, मैं तो जी जान से तेरी हूँ भूरे। वो सारी जान से काँपने लगी, पहले बीमार चेहरे पर हल्की सी सुर्ख़ी रेंग गई और भूरे ने अपने सीतापुर में देखा कि एक चंपई रंग की लड़की सुर्ख़ ओढ़नी ओढ़े किवाड़ों की ओट से उसको ताक रही है, उसका जी चाहा कि वो उसे खींच कर अपने सीने से लगा ले। उसने पूरी आँखें खोल कर जहूरन को देखा, ये जी जान को लेकर क्या करना है, अब ऐसी बातें याद करने से क्या फ़ायदा होगा...
तुम अस्पताल क्यों आई हो? उसने फिर अचानक सवाल किया। जहूरन ने आँखें खोल दीं और इधर-उधर देखने लगी,देख अब तो बादल घिर कर आगए हैं।
असली बात क्यों छुपाती है, कह दे ना कि जब मैं नहीं मिला तो तेरे बाप ने दूसरे के हाथ पकड़ा दिया, एक्ट्रसों वाले नख़रे न मार अब। उसे ग़ुस्सा आ गया था।
वाह रे... उसने गुरूर से सर ऊँचा कर लिया,जहूरन ऐसी नहीं कि एक के बाद दूसरा कसम कर ले, मेरी शादी तो तेरे साथ हो चुकी थी, तेरी खातिर अपना देस छोड़ा, माँ-बाप छूटे, माँ यहाँ न आती तो हैजा क्यों होता, बाबू सड़क तले क्यों आता... वो रो पड़ी।
ये सब तो जबरदस्ती है, बाबू के बाद कौन देता रोटी, कोठियों में काम करके पेट भरती थी, पर भूरे ये सहरी बाबू बड़े ख़राब होते हैं, हर साल इस अस्पताल में आकर कच्चे बच्चे जनती हूँ, मर-मर कर जीती हूँ, बाबू साहब अपने किसी बेरे खानसाम ने को मेरा सोहर लिखा जाते हैं, इस बारी वो खानसामाँ कहता था कि जहूरन ऐसे कब तक चलेगा मेरे साथ दो बोल पढ़ा ले, तुझे लेकर दूर भाग जाऊँगा, पर मैं ऐसा कर सकती थी...? वो सिसकियाँ भरने लगी और फिर डूबती हुई आवाज़ में बोलने लगी,अब तू मिल गया है भूरे, अब मैं कहीं न जाऊँगी, देख बरतन मांझ-मांझ कर हाथ घिस गए। उसने बेबसी से दोनों हाथ फैला दिए, उसकी हथेलियों में मशक़्क़त के घट्टे पड़े हुए थे, उसने अपना सर घुटने पर टेक लिया और घुटी-घुटी सिसकियाँ भरने लगी।
भूरे चुपचाप बैठा उसे रोते देखता रहा, जैसे वो कोई राह चलता अजनबी था, सारी लगावट और हसद रफ़ू चक्कर हो चुका था, वो सोच रहा था कि इस जहूरन से अब उसका क्या वास्ता हो सकता है, यहाँ तो जाने कितनी उसके पीछे फिरती हैं, उसकी कौन सी ख़्वाहिश है जो पूरी नहीं हो जाती, उसने तो ये कभी सोचा न था कि कोई ऐसी वैसी औरत उसकी बीवी बन जाए मगर अब ये जहूरन जाने कितने हरामी बच्चे जन कर उसे बीती बातें याद दिलाने आई है। रोते-रोते जहूरन ने ख़ुद ही चुप हो कर आँसू पोंछ लिये, शायद वो इंतज़ार कर रही होगी कि अब भूरे उसे चुप कराएगा, अब अपने रेशमी रूमाल से आँसू पोंछेगा, अब उसे तसल्ली देगा। आँसू पोंछ कर वो उसे टुकुर-टुकुर देख रही थी और भूरे उससे नज़रें बचा रहा था, भला जहूरन भूरे की बीवी बन सकती है! भूरे जिसकी इस बरामदे और टेलीफ़ोन पर हुक्मुरानी है, ज़रा कभी जहूरन देखती तो, वो किस शान से रिसीवर उठा कर हलो कहता है और कितनी लड़कियाँ उसके पीछे फिरती हैं।
तो फिर तो उसी ख़ानसामाँ से शादी कर ले जहूरन। भूरे ने बड़ी हमदर्दी से मशवरा दिया,मैंने तुझसे शादी की तो लोग क्या कहेंगे। वो इधर-उधर देखने लगा।
अरे ये तू कह रहा है? उसने फटी-फटी आँखों से भूरे को देखा और फिर खड़ी हो गई।
जा रे मेरा नाम जहूरन है। मेरी सादी जो होनी थी सो हो गई, मैं तेरी जैसे नहीं हूँ, बादा ले-ले जो दूसरी सादी करूँ... उसने बड़े ग़ुरूर से सर झटका,जहूरन जिंदगी भर तेरे नाम पर बैठी रहेगी और दूसरों के बच्चे इसी अस्पताल में आकर पैदा करेगी, ये सब किसमत के खेल हैं रे।
वो एक बार फिर तड़प कर रोई मगर जल्दी से आँसू पोंछ कर सीधी खड़ी हो गई, उसका कमज़ोर जिस्म काँप रहा था..., अम्माँ को अल्लाह जन्नत नसीब करे, वो कहती थी जहूरन ढूंढे तो खुदा मिल जाता है, जाने लोग ऐसी कहावतें क्यों बनाते हैं, उसने मायूसी से सर झुका दिया, एक लम्हे तक यूँही खड़ी रही, फिर उसने भूरे को ऐसी नज़रों से देखा कि उसे अपना कलेजा हिलता हुआ महसूस होने लगा, मगर जब वो कुछ कहना चाहता था तो जहूरन बड़ी तेज़ी से अपने झाँकड़ जैसे जिस्म को लहराती बरामदे के उस सिरे पर जा चुकी थी। भूरे देर तक बरामदे के उस मोड़ को देखता रहा जहाँ जहूरन खोगई थी, टेलीफ़ोन की घंटी बजी तो जैसे चौंक पड़ा।
मिस ज़ैदी आज छुट्टी पर हैं, जी कहीं गई हैं, यहाँ नहीं हैं। भूरे ने पहली बार अपनी ड्यूटी से बेईमानी की। फिर वो जहूरन को ठुकराने वाला पहला दिन यूँही उचाट-उचाट सा गुज़र गया। वो लाख गाता रहा।
न तुमसे दिल को लगाते, न ग़ैर कहलाते
गुलों में बैठते, गुलज़ार की हवा खाते
फिर भी उसका दिल बुझा-बुझा रहा, शाम ड्यूटी ख़त्म होने के बाद वो जैसे ख़ुद बख़ुद खींचता हुआ जर्नल वार्ड की तरफ़ चला गया, आया ने उसे बताया कि इस नाम की औरत तो घंटा पहले छुट्टी लेकर चली गई। चली गई तो क्या हो गया? वो भला उसे पूछने आया ही क्यों था? भूरे ने अपने आपसे पूछा और फिर वापस होते हुए उसने लहक कर गाना चाहे मगर गा न सका, उसपर एक दम मायूसी का दौरा सा पड़ने लगा, इधर-उधर फिरने के बजाय अपनी कोठरी में जाकर बेसुद्ध सा पड़ रहा। जब अंधेरा पड़ने लगा तो सीतापुर की जहूरन सुर्ख़ ओढ़नी ओढ़ कर कोठरी के अधखुले दरवाज़ों से ताँक-झाँक करने लगी, भूरे बिलबिला कर उठा और ज़ंजीर चढ़ा कर अपने हिसाब एक बार फिर जहूरन को धुतकार दिया।
बाहर बड़े ज़ोर से बारिश हो रही थी, कोई हौले-हौले दरवाज़ा खटखटा रहा था, भूरे को ये भी वहम लगा, उसने अपने आपको दो चार मोटी-मोटी गालियाँ दीं और करवट लेकर मुँह छुपा लिया, वो ये तो भूल ही गया था कि कई दिन पहले उसने जमादारनी की सबसे छोटी बेटी को अपनी कोठरी में आने की दावत दी थी और अब वो बाहर खड़ी अपने इकलौते बोसीदा जोड़े को निचोड़-निचोड़ कर बेताबी से दरवाज़े पीट रही थी, ज़ालिम बारिश का एक-एक क़तरा रूपये की तरह खनक कर उसे चिड़ा रहा था। भीगते-भीगते थक कर जब सातवीं बेटी वापस लौट रही थी तो मारे दुख के रो-रो कर भूरे को कोस रही थी..., मर जाए लाश उठे, एक रुपया देने का वादा करके मुकर गया।
और फिर यूँ हुआ कि पहले दिन और पहली रात वाली कैफ़ियत भूरे के दिल-ओ-दिमाग़ पर नक़्श होती चली गई, उसने जहूरन को झुँझला-झुँझला कर लाखों बार धुत्कारा, जमादारनी की सातवीं बेटी को एक के बदले में तीन रूपये दे डाले, काली कलूटी नर्स की लौंडिया को जम्पर का एक कपड़ा भी ला दिया, फ़ुर्सत के वक़्त ख़ूब लहक-लहक कर अपने महबूब गाने भी गाता रहा मगर कहते हैं कि पत्थर का लिखा हुआ नहीं मिटता, जहूरन की मोहब्बत पत्थर की तहरीर बन गई..., भूरे मैं तेरी हूँ, बादा ले-ले जो दूसरी सादी करूँ, तेरे नाम पर बैठी रहूँगी और दूसरों के बच्चे उसी अस्पताल में आकर पैदा करती रहूँगी।
फिर..., बरसात बीत गई, सर्दियाँ आकर गुज़र गईं, बहार मुँह मोड़ गई और जब गर्मियाँ आ गईं तो भूरे ने उँगलियों पर पूरे महीने गिने। उस दिन जब गेट के चौकीदार ने किसी हामिला औरत की आमद पर घंटा बजाया तो भूरे बेताबी से उठ खड़ा हुआ, बरामदे के क़रीबी मोड़ को काट कर वो उधर पहुँच गया जहाँ आयाएं पहियों वाले स्ट्रेचर को घसीटती हुई लातीं और मरीज़ा को उसपर डाल कर ले जातीं। दिन में कई बार घंटा बजता, जाने कौन-कौन आता मगर जहूरन न आई, भूरे ने सोचा, ऐसे कामों में देर सवेर तो हो ही जाती है, वापस आकर वो बड़ी उमंग से गाता। बिछड़े हुए मिलेंगे फिर ख़ालिक़ ने गर मिला दिया।
मई-जून की गर्मियाँ गुज़र गईं मगर भूरे के इंतज़ार में कोई फ़र्क़ न आया, मिस लाली ख़ाँ अपने आशिक़ वफ़ाई करके, किसी दूसरी से शादी रचा कर अस्पताल छोड़ गई थीं, मिस ज़ैदी को दूसरे अस्पताल में ज़्यादा बेहतर जगह मिल गई थी, बहुत सी पुरानी लड़कियाँ चली गईं, बहुत सी नई आ गईं। जनरल वार्ड की भँगन की सबसे छोटी सातवीं बेटी जाने किसके साथ भाग गई थी मगर भूरे को इन बातों से कोई मतलब न था, उसने जाने कितनी बहुत सी चीज़ें जहूरन के लिए कोठरी में जमा कर रखी थीं जिनमें एक सुर्ख़ जोड़ा भी था।
आज बादल छा रहे थे, प्यासी टिटरी चीख़ती हुई उड़ी जा रही थी, जहूरन दरी का टुकड़ा उठाए भूरे के सामने से गुज़र कर सुतून के पास जा रही थी, भूरे ने आँखें मलीं..., कब आएगी ज़हुरिया? कब आएगी..., उसने एक बार फिर उँगलियों पर दिन गिने, पूरे बारह महीने हो रहे थे। भला भूरे को कैसे मालूम होता कि एक महीने पहले सुर्ख़ खद्दर की चादर से मुँह छुपाए जो औरत ताँगे पर आई थी और जिसे आयाओं ने बड़ी मुश्किल से लादकर स्ट्रेचर पर डाला था, वो जहूरन थी, जिसने अपना नाम तमीज़न लिखाया था और जो ख़ून की इंतिहाई कमी की वजह से मर गई थी और साहब का नामज़द शौहर जहूरन की लाश को तालिब-ए-इल्म लड़कियों के लिए छोड़ कर चला गया था।
पूरे बारह महीने, भूरे ने सोचा कि अब वो ज़रूर आती होगी..., आज नहीं तो कल आ जाएगी, उसने बड़े सुकून से पाँव फैला दिए और लहक कर गाने लगा... बिछड़े हुए मिलेंगे फिर ख़ालिक़ ने गर मिला दिया।