Bhoomika-Mushkil Kaam : Asghar Wajahat
भूमिका-मुश्किल काम : असग़र वजाहत
पूरे माहौल में बड़ी दहशत थी। लगता था, टिक-टिक करता वक्त किसी भयानक आवाज के साथ फट पड़ेगा। कॉफी हाउस में बेपनाह शोर था। बाल-बच्चों वाले जल्दी उठ रहे थे। कल क्या होगा, किसी को मालूम नही था। यह 26 जून, सन 1975 की एक शाम थी।
अगले दिन के अखबार बड़े-बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की खबरों से भरे हुए थे। जो अंडरग्राउंड हो गए थे, उनकी तलाश जारी थी। जो मुखालफत कर रहे थे, उनका पकड़ा जाना और जेल में ठूंस दिया जाना तय था। आतंक का खुला तांडव था। सब मजबूर थे। धीरे-धीरे अखबारों के वे एडीटर पकड़े जाने लगे जो सरकार की बात नहीं मान रहे थे। अखबारों और पत्रिकाओं में काले पन्ने छपने लगे। सेंसर लोगों की आकांक्षाओं पर कैंची चला रहा था। लिखने का काम खतरनाक से खतरनाक होता जा रहा था। आबादियां उजाड़ी जा रही थीं। नसबंदी के लिए घेरे डाले जा रहे थे। दिल में ऐसी दहशत थी कि कलम उठाते हुए दिल डरता था।
ऐसा नहीं था कि इमरजेंसी लगने से पहले हिंदी के लेखक बड़ा क्रांतिकारी लिख रहे थे। यह भी नहीं था कि कहानी, उपन्यास या कविता लिखने से सत्ता की चूलें हिली थीं, लेकिन फिर भी पाबंदी लगा दी गई थी। दो-तीन महीने तक तो यह समझ में न आया कि क्या करें कॉफी हाउस में जासूसों ने अड्डा जमा लिया था और गर्मागर्म राजनीतिक बहस करने वाले औपचारिक किस्म की घरेलू बातें या फुसफुसाकर एकाध राजनीतिक खबरों के एक्सचेंज तक सीमित हो गए थे।
हिंदी कहानी में यह वह दौर था जब साठोत्तरी कहानी अपने चमत्कार दिखाकर पूरी तरह लुप्त हो गई थी। नक्सलवादी आंदोलन लेखकों और बुद्धिजीवियों को आकर्षित कर चुका था। प्रगतिशील लेखकर अपनी भाषा खो चुका था, लेकिन साहित्य में प्रगतिशील जनवादी उभार अपनी नई उठान पर थे। कहानी में संघर्ष, सामाजिक विषमता, मध्यम वर्ग के प्रति अनास्था स्थापित हो चुकी थी। कह सकते हैं कि वर्गीय चेतना कहानी में एक नए अंदाज में दाखिल हो चुकी थी और यह जनवादी कहानी का शैशवकाल कहा जा सकता है।
ऐसी सोच-समझ रखने वालों के लिए इमरजेंसी काल में यह संभव नहीं थी कि स्त्री-पुरुष संबंधों की शाकाहारी कहानियां लिखने लगें या सौदर्यशास्त्र में डुबकी लगा जाएं। अब मुसीबत यह थी कि इमरजेंसी के हालात पर कहानी लिखने का मतलब जेल जाने जैसा था। और जाहिर है जेल जाने से डर लगता था।
सी.पी.आई. इमरजेंसी का समर्थन कर रही थी। उन दिनों जामिया नगर ओखला में जहां मैं रहता था, वहां बुद्धिजीवियों का एक ऐसा छोटा-सा ग्रूप था, जो सी.पी.आई. के सदस्य या समर्थक थे। सी.पी.आई के एक समर्थक मेरे पास अकसर आते और इमरजेंसी के बारे में मेरे विचार जानने तथा समर्थन में किसी पर्चे पर दस्तखत कराने के चक्कर में रहते थे। उन्हें मालूम था, मैं सी.पी.एम के नजदीक हूं और इमरजेंसी का विरोधी हूं। कुछ समझ में न आता था कि सी.पी.आइ. के समर्थक मित्र से कैसे निपटा जाए। इन्हीं हालात में मैंने पहली बार लघुकथाएं लिखीं। ‘कुत्ते’, ‘शेर’, और ‘डंडा’ कहानियां तैयार हो गईं। सी.पी.आई. के मित्र को ये कहानियां सुना दीं। इससे फायदा यह हुआ कि उनका मेरे घर आना बंद हो गया।
पूरी ‘रामकथा’ बयान करने का मकसद यह बताना है कि जब सीधी बात कहने का अवसर नहीं होता तो कविता के उपादान कहानी को एक नए धरातल तक ले जाते हैं। अभिव्यक्ति सशक्त होती है और लेखक बड़ी हद तक ‘सुरक्षित’ रहता है। मेरा लघुकथा लिखने का यह पहला दौर था। इस दौर की लघुकथाओं में कुछ प्रतीकात्मक लघुकथाएं हैं। कुछ बहुत हद तक पंचतंत्र की कहानियों की शैली में लिखी गई है।
इमरजेंसी आई और चली गई, लेकिन लघुकथाओं के प्रति आकर्षक कम नहीं हुआ। यह सोचा कि किसी और शैली में लघुकथाएं लिखी जाएं। उर्दू में नसरी नज्म (गद्य काव्य) की एक अच्छी शैली है। ‘कवि’ सीरीज की कहानियां उस शैली में लिखीं। यह कविता और कहानी के बीच की शैली लोगों को पसंद आई, लेकिन मैंने इसे आगे नहीं बढ़ाया। नए-नए रास्ते बनाने का जो मजा है, वह बने-बनाए रास्ते पर चलने में नहीं आता।
हमारे साहित्य में आधुनिक कहानी का जो ढाचा है, वह पश्चिम से लिया गया है। कथानक, पात्र, परिवेश, द्वंद्व, उद्देश्य, चरम उत्कर्ष का एक संतुलित संयोजन कहानी में आवश्यक माना जाता है। प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानियों को छोड़कर बाकी लगभग सभी कहानियां इसी ढ़ाचे के अंतर्गत लिखी गई हैं, लेकिन इसके साथ-साथ माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ भारतीय शैली की कहानी है। यह पंचतंत्र, जातक कथाओं, नीति कथाओं तथा मौखिक परंपरा से अधिक निकट है।
कहानी के यूरोपीय ढांचे को तोड़ने की एक कोशिश इस तरह भी की जा सकती थी कि कहानी को मौखिक परंपरा से जोड़ा जाए। इस तरह ‘बंदर’, ‘वीरता’ जैसी कहानियां लिखने का प्रयास किया। यह लघुकथा का तीसरा अंदाज था। इस तरह की लघुकथाएं मैंने 1980-86 के दौरान लिखी थीं।
इसके बाद मेरे लघु कहानी-लेखन में एक नया मोड़ आता है। बहुत रोचक बात है, लेकिन पता नहीं तारों को कैसे मिलाया जाए। मैंने पहली कहानी ‘वह बिक गई’ 1965 के आसपास लिखी थी। यह पूरी कहानी संवादों में थी। इसके बाद 1989-90 के आसपास संवादों में लघुकथाएं लिखने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप ‘हरिराम और गुरुदेव’ सीरीज की कहानियां हैं। इन कहानियों का अनुवाद अंग्रजी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में हुआ और लोगों ने इन्हें पसंद किया। संवाद में लघुकथा का सिलसिला चलता रहा। 1992 में मैं पांच साल के लिए बुदापैश्त चला गया। हंगेरियन साहित्य और समाज से परिचय हुआ, जिसका असर मेरी लघुकथाओं पर पड़ा। हमारे देश में तो इमरजेंसी आई थी और जल्दी ही चली गई थी, लेकिन हंगेरी में इमरजेंसी काल बहुत लंबा और दर्दनाक था। उन हालात में हंगेरियन लेखकों ने नए-नए तरीके अपनाए थे। अपने समय और समाज को सामने लाने के लिए जिन शैलियों और भाषाओं का सहारा लिया था, वे बहुत रोचक हैं। विशेष रूप से हंगेरियन लेखक इश्तवान आरकेन्य की रचनाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मैंने उन्हें ‘ग्रात्सकी’ शैली का लेखक माना है। उन्होंने कहीं लिखा है कि वे संसार को कैसे देखते हैं। वे कहते हैं, ‘अपने पैर फैला लीजिए। सिर को नीचे झुकाइए और दोनों पैरों के बीच से दुनिया को देखिए। यही मेरा तरीका है।’
इश्तवान आरकेन्य की कुछ कहानियों का अनुवाद मैंने डॉ. मारिया नैज्यैशी के साथ मिलकर किया था। बाद में कुछ का अनुवाद डॉ. मारी कोबाच के साथ भी किया था। अब तो हिन्दी में आरकेन्य की कहानियों का एक संग्रह ‘वित्तमंत्री का नाश्ता’ भी प्रकाशित हो चुका है।
टी.पी. देव की कहानियां मैंने बुदापैश्त में ही लिखी थीं। इसके साथ ‘विकसित देश की पहचान’ और श्री त्रि...’सीरीज की कहानियां भी वहीं लिखी थीं।
दरअसल समस्या यह है कि आज हमारे चारों तरफ जो हो रहा है वह बड़ा अविश्वसनीय-सा लगता है। कभी-कभी यह ख्याल आता है कि यह सब गलत है। इतना भयंकर, इतना क्रूर, इतना निर्मम, इतना लालची, और स्वार्थी, मर्यादा और संस्कारहीन, पशु से भी गिरा हुआ आदमी कैसे हो सकता है पर फिर यह भी ध्यान आता है कि जो कुछ हो रहा है वह सच्चाई है। हम पतनशीलता के ऐसे दौर में आ गए हैं, जिसकी कल्पना करना भी कठिन है। हम इतने हिंसक हो गए हैं, इतने क्रोधी, इतने लालची हो गए हैं कि हमारे लिए बड़े से बड़ा अपराध या हत्या कर देना कोई बड़ी बात नहीं, बल्कि मजाक है। लोगों की जिंदगी इतने सस्ती तो शायद कभी न रही होगी या कभी सोचा न गया होगा कि ऐसा हो सकता है। इस स्थिति में शब्द कहां तक साथ देंगे अभिधा से तो काम चल ही नहीं सकता है। सब शब्द बौने हो गए हैं और छोटे पड़ गए हैं।
छद्म, तमाशा और छलावा हमेशा चुनौती रहे हैं, लेकिन हमारे समाज का छद्म बेमिसाल है। जो आदमी जो कह रहा है, उसका वह अर्थ ही नहीं है, जो निकल रहा है। बल्कि जो नहीं निकल रहा है, वही अर्थ है। मेरे ख्याल से भारत में सार्वजनिक स्तर पर जितना झूठ बोला जाता है, उतना शायद ही किसी देश में बोला जाता हो। देश-प्रेम की जितनी बातें भारत में जितने बड़े स्तर पर और जितने प्रभावशाली लोगों द्वारा की जाती हैं, उन्हें सुनकर लगता है, अगर यह सच होता तो भारत देश स्वर्ग बन चुका होता। धर्म का यहां जो रूप है वह अमानवीय पाखंड है। खरबों रुपये के मालिक कम से कम आधा दर्जन भगवान हमारे देश में मौजूद हैं, लेकिन देश और आम आदमी की क्या हालत है मतलब, क्या भगवानों ने भी अपनी कुछ शक्तियां कम कर दी हैं।
एक तरफ करोड़पति की संख्या बढ़ रही है, दूसरी ओर जितनी भयावह गरीबी यहां है, उतनी कम ही देशों में है। यह विरोधाभास सहज समझ में नहीं आता। हमारा लोकतंत्र भी तो एक जादुई मरीचिका है। है भी, नहीं भी है, पर फिर भी है, वह वास्तव में नहीं है। तो क्या कल्पना में है कल्पना में है तो दिखाई क्यों पड़ता है दिखाई पड़ने से यह सिद्ध थोड़ी होता है कि है। तो क्या ऐसा लोकतंत्र है, जो दिखाई देते ही गायब हो जाता है। हमारा सुप्रीम कोर्ट कहता है, इस देश को भवनान भी नहीं बचा सकते। हमारा नेता कहता है, दिल्ली को पेरिस बना दिया जाएगा। क्या दोनों में साम्य है या पेरिस और नरक के एक ही अर्थ हैं पर ऐसा कैसे हो सकता है इतने जटिल यथार्थ को देखने के लिए आरकेन्य का तरीका अपनाना पड़ेगा। जब शब्द कम पड़ने लगते हैं तो शब्दों को मारना पड़ता है ताकि नए शब्द जन्म ले सकें। शब्दों को मारने से एक उलझाव पैदा होता है, पर शायद वही सुलझाव है। यह उलझाव-रूपी सुलझाव और बढ़ जाता है, जब शब्दों के साथ विश्वास, आस्था, दर्शन और परिभाषाएं भी बदल जाती हैं।
मैं दूसरों की बात नहीं कहता, मुझे यह जरूर लगता है कि मैं अपने समय और समाज को उसकी पूरी जटिलता के साथ नहीं समझ पाता। जितना समझ पाता हूं उतना ही और उलझता जाता हूं। और जो दिखाई देता है, उसके लिए शब्द नहीं मिलते। उदाहरण के लिए हिंसा और विशेष रूप से सांप्रदायिक हिंसा का जो रूप हमारे यहां आजकल देखा जाता है उसका चित्रण कैसे किया जा सकता है मंटी ने धर्माधता और सांप्रदायिकता में आदमी को जानवर बनते देखा था। आज यह प्रक्रिया उतनी सीधी नहीं रही और दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि धीरे-धीरे पिछले पचास-साठ साल में इतना भयावह बदलाव हुआ है कि लोगों की संवेदना कुंठित हो गई है।
आप लिखते हैं, उससे असर होगा, प्रभाव पड़ेगा। पर उस समाज में जहां रोज लोग जला दिए जाते हैं, सैकड़ों बेसहारा गरीब रोज सड़कों पर मर जाते हैं, चंद रुपयों के लिए हत्याएं होती हैं, इंसान की जिन्दगी की कोई कीमत नहीं बची है, उस समाज में लोग कितने संवेदनाशील हो सकते हैं ये तो रोज की बात है। रोते-रोते आंखों के आंसू तक सूख जाते हैं और हम लेखक, कलाकार आंखें नम करने की कोशिश करते हैं।
ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में लड़कियों को लड़कियां ही लिखा जा सकता है। शाह आलम कैंप में रुहें ही आ सकती है। मृतक ही वार्तालाप कर सकते हैं।
यही कुछ शब्द हैं, जो इन कहानियों से पहले कहना चाहता था।