Bhoomika-Kahani Ki Dopahar : Asghar Wajahat
भूमिका-कहानी की दोपहर : असग़र वजाहत
कहानी लिखने की शुरूआत एक तरह से अजीब हालत में हुई थी। सन् 1964-65 के दिन थे और अपने अतिरिक्त आत्मविश्वास या मूर्खता के कारण मैं ऐसी स्थिति में पहुंच गया था जहां से लगता था सभी रास्ते बंद हैं और मैं एक ऐसा आदमी (उस समय युवक) हूं जो किसी काम का नहीं है। अब याद तो नहीं पड़ता लेकिन शायद कहानी लिखने और छप जाने के बाद ही यह एहसास हुआ था कि अपनी बात कह पाना कहीं न कहीं मन को शांति देता है, सहारा देता है, आत्मविश्वास और खुशी देता है। मेरी पहली कहानी का नाम था ‘वह बिक गयी’। यह किसी सच्ची घटना को केंद्र में रखकर लिखी गयी थी। और दूसरी या अगली कहानी लिखने का ख़याल आते ही सबसे बड़ी दिक़्क़त यह आती थी कि कहानी किस शब्द से शुरू हो सबसे पहले कौन-सा शब्द आये लाखों, करोड़ों शब्दों में कौन-सा शब्द कहानी का पहला शब्द हो सकता है इस तरह लंबे समय तक पहले शब्द की समस्या में फंसा रहा और परेशान होता रहा।
लेकिन फिर भी सन् 1964-65 से जो कहानी लेखन शुरू हुआ था वह मज़ेदार दुलकी चाल से चलता रहा और अगला पड़ाव आया जब मेरी पहली कहानी सन् 1965 में ‘धर्मयुग’ में छपी। थोड़ी भावुक क़िस्म की कहानी थी जो संबंधों के विस्तार पर आधारित थी। दूसरी कहानी जो धर्मवीर भारती (संपादक धर्मयुग) को भेजी तो वह उन्हें पसंद नहीं आयी हालांकि मेरे ख़याल से पहली से अच्छी थी, पर धर्मवीर भारती को दूसरी कहानी में वह ‘सुगंध’ नहीं मिली जो पहली में थी। मैंने भी तय कर लिया कि किसी की ‘सुगंध’ के लिए तो न लिखूंगा। पहले मुझे सुगंध मिलनी चाहिए उसके बाद किसी और को मिले तो मिले, न मिले तो न मिले।
यह साठोत्तरी का दौर था और निर्मल वर्मा ‘नयी कहानी’ का बाड़ा तोड़कर एकदम ऊपर आ चुके थे। साठोत्तरी में सेक्स संबंधी विकृतियों की ऐसी भरमार थी जो उकता देती थी। निर्मल वर्मा अच्छे लगते थे उसी तरह जैसे साहिर लुधियानवी लगा करते थे। नयी कहानी की दूसी धारा की बात होती थी और उनमें अमरकांत, शेखर जोशी, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ पक्की जगह बना चुके थे।
सन् 1971 के आसपास दिल्ली आया और ‘केक’ कहानी लिखी जो उस समय कुछ चर्चित हुई पर मैंने वह लीक नहीं पकड़ी और इधर-उधर भटकता रहा। यह भटकन हमेशा ही मेरे साथ लगी रही। यहां तक कि आपातकाल में यह भटकन काम आयी और मौखिक परंपरा की कहानियों ने एक रास्ता दिखाया। फिर पंद्रह-बीस साल के बाद ‘संवादों’ ने अपना रंग दिखाया और लघुकथाएं लिखीं। पर लगता रहा कि लघुकथाओं के संदर्भ में अधिक गंभीर होने की आवश्यकता है।
आगे पता नहीं कैसी कहानियां लिखूंगा... फिलहाल तो इन कहानियों को ही देखिए...