Bhoomika-Demokratia : Asghar Wajahat

भूमिका-डेमोक्रेसिया : असग़र वजाहत

मेरा पहला कहानी संग्रह ‘अंधेरे से’ 1976 में आपातकाल के दौरान पंकज बिष्ट के साथ छपा था। दरअसल योजना यह थी कि उस संग्रह में मंगलेश डबराल और मोहन थपलियाल की कहानियां भी होंगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। एक युवा मित्र और नए प्रकाशक से कह-सुन और दे-लेकर संग्रह छपवाया गया था। संग्रह की चर्चा हुई थी। यहां तक कि उस ज़माने में ‘दिनमान’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लेखक ने समीक्षा लिखी थी। राजेन्द्र यादव और अन्य वरिष्ठ लेखकों ने कहानियां पसन्द की थीं।

मेरी पहली कहानी ‘वह बिक गई’ 1964 के आसपास छपी थी। इस तरह कहानियां लिखना शुरु करने के लगभग बारह साल बाद संयुक्त संग्रह छपा था। इसके बाद ‘दिल्ली पहुंचना है’ पहला एकल संग्रह छपा था। फिर ‘स्विमिंग पुल’ नाम से एक संग्रह आया था। तीसरा संग्रह ‘सब कहां कुछ’ और उसके बाद ‘मैं हिन्दू हूं’ फिर केवल लघु कथाओं का संग्रह ‘मुश्किल काम’ प्रकाशित हुए। एक दो चयन छपे जिनको गिनती में शुमार करना बेकार है।

देखा जाए तो मैंने 40-45 साल की मुद्दत में ज़्यादा कहानियां नहीं लिखी हैं। एक तो यह भी रहा है कि मैंने जितनी कहानियां लिखीं और पत्रिकाओं में छपीं उन सबको संग्रहों में शामिल नहीं किया। लेकिन फिर भी मैंने ज्यादा कहानियां नहीं लिखीं कहानी लिखते हुए चिलचस्प अनुभव हुए और लगता है कई पड़ाव आए, कई रास्तों से गुज़रा और कई मंज़िलें छोड़ता रहा।

बहुत साल पहले भैरव प्रसाद गुप्त ने मुझसे कहा था कि मेरी कहानियों की सबसे बड़ी कमी यह है कि वे रोचक होती हैं। भैरव जी से बहस करने का मौका या समय नहीं था। लेकिन उनके ‘कमेंट’ के बाद भी मैं इस नतीजे पर नहीं पहुंचा कि कहानी को रोचक नहीं होना चाहिए। मेरे ख़याल से तो हर अभिव्यक्ति को रोचक होना चाहिए। रोचक से मेरा मतलब यह है कि रचना की पहली शर्त यही होना चाहिए कि पाठक उसे पढ़ें और यदि रचना रोचक नहीं है तो पाठक उसे कड़वी दवा समझकर तो स्वीकार नहीं करेगा। इसलिए आज भी मैं जब लिखता हूं तो पाठक के नजरिए से उस पर लगातार विचार करता हूं। मैं कोई उबाऊ कृति चाहे वह महान कृति क्यों न हो, नहीं पढ़ सकता तो दूसरा मेरी उबाऊ रचना क्यों पढ़ेगा लेकिन रचना का पूरा उद्देश्य केवल से रोचक बना देना ही नहीं होता। रचना कुछ मूल्यों, विचारों, प्रतिक्रियाओं, अस्वीकृतियों के बिना निरर्थक है। क्योंकि रचनाका पाठक के साथ जिस रोचक संवाद में लिप्त होता है यह सउद्देश्य है। अब यही विचारधारा और रचना के अंतःसंबंधों की बात सामने आती है।

उर्दू के प्रसिद्ध कवि और ज्ञानपीठ सम्मान से विभूषित शहरयार ने एक रेडियो इंटरव्यू में कहा था कि वे कार्ल मार्क्स और अल्लाह मियां पर एक साथ विश्वास करते हैं। मैं कम-से-कम ऐसा दावा नहीं कर सकता लेकन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि कार्ल मार्क्स पर उस तरह विश्वास नहीं करता जैसा प्रायः लोग अल्लाह मियां पर करते हैं। कार्ल मार्क्स से परिचय होने के पहले भी मैं यह बात मानता था कि अन्याय और शोषण नहीं होना चाहिए। समाज में इतनी अधिक विषमता नहीं होनी चाहिए। सबको आगे बढ़ने के समान अवसर मिलने चाहिए आदि-आदि। कार्ल मार्क्स ने ऐसा समान बनाने का रास्ता दिखाया और सामाकि प्रगति और परिवर्तन का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। मार्क्स जिस प्रकार का समान बनाना चाहते थे, वैसा मार्क्स के बहुत से पूर्ववर्ती भी चाहते थे। अंतर यह है कि पूर्ववर्ती लोगों के सामने रास्ता स्पष्ट नहीं था। और शायद आज भी रास्ता बहुत स्पष्ट नहीं है पर उद्देश्य पूरी स्पष्ट है। मेरे ख़याल से उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मैं लिखता रहा हूं। समाज को अधिक मानवीय समाज बनाना ही कलाओं का काम रहा है। मार्क्स से पहले भी यही था और मार्क्स के बाद भी यही रहा और रहेगा। इन उद्देश्यों को मार्क्सवादी लेखक भी पूरा करते हैं और वे भी करते हैं जो अपने को मार्क्सवादी नहीं कहते।

महान बांग्ला फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक 1974-75 के बीच अक्सर दिल्ली आते थे। वह अपनी मौलिक कला दृष्टि और अराजक जीवन शैली के कारण दिल्ली के हिंदी लेखकों और पत्रकरों में काफी लोकप्रिय थे। शरा के नशे में धुत्त रहनेवो घटक किसी सवाल का अगर सही जवाब दे देते थे तो यह पत्थर की लकीर हो जाता था। उस समय दनमान के फिल्म समीक्षक और लेखक स्वर्गीय नेत्रसिंह रावत ने एक शाम उनसे पूछा था कि ‘दादा रचना और विचारधारा का क्या संबंध होता है घटक ने गिलास में पड़ी दारू गटक ली थी और कहा था-‘वही संबंध होता है जो दाल से नमक का होता है।’ ददा तो यह मूल वाक्य बोलकर खामोश हो गए थे लेकिन इसकी वख्या करते चले जाएं तो रचना और विचारधारा का संबंध स्पष्ट होता चला जाएगा। दाल में नमक ज़्यादा है तो दाल खाई नहीं जाएगी। नमक बहुत कम है तब भी दाल नहीं खाई जा सकती। यही हाल रचना में विचारधारा का है। अनुपात केवल रचना और विचारधारा के संबंध का ही नहीं है बल्कि रचना, अच्छी रचना का रहस्य कई तरह के अनुपातों में छिपा होता है। जैसे दृश्यकला की श्रेष्ठता भी अनुपातों के आधार पर निर्धारित की जाती है। मैंने कहानियों की रचना करते समय यह ध्यान में रखा है, पर कहीं-कहीं मुझे लगा या बाद में यह लगा है कि अनुपात बिगड़ गए हैं। यहां वह बात रेखांकित कर दूं कि अनुपातों का बिगड़ना, नसे खिलवाड़ करना, उसे तोड़ना और जोड़ना-अनुपात का विस्तार और कला की सुंदरता में शुमार होता है।

कहानी लिखने के दौरान पहला मोड़ उस मय आया थ जब मेरी कहानी 1968 में ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारती ने छापी थी। ढलती उम्र में एक बूढ़े दंपती के रिश्तों की कहानी को धर्मवीर भारती ने पसंद किया था और मुझसे दूसरी कहानी देने के लिए कहा था। मैंने दूसरी कहानी भेजी थी जो मेरे ख़याल से पहली कहानी से अच्छी थी लेकिन भारती जी ने संक्षिप्त पर कलात्मक-सा पत्र लिखकर कहानी वापस कर दी थी। उन्होंने लिखा था, दूसरी कहानी में पहली कहानी जैसी ‘सुगंध’ और ‘संबंधों’ का ताना-बाना नहीं बन पाया है। भारती जी की बात मैं समझ गया था। वे बिल्कुल ठीक थे। लेकिन सवाल यह था`कि मैं भारती जी के अनुासार कहानियां लिखूं या अपनी मर्जी से दूसरा मौका आया था जब मैंने 1971-72 के आसपास ‘केक’ कहानी लिखी थी। यह कहानी काफ़ी पसंद की र्ग थी और मेरे लिए यह सरल था कि उसी ‘लाइन’ और ‘लेंथ’ की कुछ कहानियां लिखकर वाह-वाही बटोरता। ‘लाइन’ और ‘लेंथ’ क्रिकेट की शब्दावली हैं जो बॉलिंग के संबंध में प्रयोग की जाती है। मैं कभी-कभी क्रिकेट या खेलों की पारिभाषिक शब्दावली से साहित्य को समझने की कोशिश करता हूं मेरे ख़याल से यह दिलचस्प और सटीक तरीक़ा है। कभ-कभी लगता है खिलाड़ी और रचनाकार में बड़ी समता होती है। खिलाड़ी और लेखक, दोनों अपने क्षेत्रों में ‘अद्भुत’ की तलाश करते हैं। कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता। लेकिन बहुत कुछ प़र्क भी है। फास्ट बॉलर जीवन भर या जब तक खेलता है, फास्ट बॉलर बना रहता है और अपनी शैली को विस्तार देता रहता है। रचनाकार के लिए शैली बनाना और छोड़ना या विस्तार देना और नई शैली तक आना चुनौतीपूर्ण होता है। मैंने कभी यह कोशिश नहीं की है कि एक तरह के किस्से को सौ तरह से सुनाता रहूं। मेरे ख़याल से एक शैली की चपेट में आ जाना रचनाकार की मौत होती है। यह बात साहित्य पर ही नहीं अन्य कलाओं पर भी लागू होती है।

इमर्जेंसी के दौरान प्रतीकात्मक लघुकथाएं लिखीं जो उस समय के दमघोंटू माहौल में पसंद की गईं। लेकिन उस शैली को मैंने अपनी ‘छाप’ नहीं बनाया। लघुकथाओं में भी कई तरह की शैलियों में कोशिश करता रहा। आधुनिक प्रयोगधर्मी, अमूर्तन, प्रतीक-प्रधान कई तरह की लघु कहानियां लिखीं। अमूर्तन ने बड़ा सहारा दिया क्योंकि उसके माध्यम से यथार्थ के जितने स्तर बनते हैं वह अन्यथा मुश्किल है। ‘शाहआलम कैंप की रूहें’, ‘लकड़ियां’, ‘आत्मघाती कहानियां’, ‘टी.पी. देव की कहानियां’ आदि देखी जा सकती हैं। जो इस संग्रह में नहीं हैं।

जीवन इतना नंगा हो गया है कि अब लेखक उसकी पर्तें क्या उखाड़ेगा रोज़ अख़ाबार में जो छपता है वह पूरे समाज को नंगा करने के लिए काफ़ी है। पाठक के अंदर अब उस तरह से किसी भाव का संचार नहीं हो सकता जैसे पहले हुआ करता था अब अगर आज आप ‘पूस की रात’ की संवेदना जैसी संवेदना की कहानी लिखेंगे तो लोग कहेंगे कि यह तो रोज़ देखते हैं। हम इसके आदी हो गए हैं। अब पाठक को क्या है ो हल्का-सा आंदोलित कर सकता हैं। मानवीय संबंधों में जितनी गिरावट आई है, मनुष्य का जीवन जितना मूल्यहीन हुआ है, सत्ता जैसा नंगा निर्मम नाच दिखा रही है, मूल्यहीनता की जो स्थिति है, स्वार्थ साधने की जो पराकाष्ठा है, हिंसा और अपराध का जो बोलबाला है, सत्ता और धन के लिए कुछ भी कर देने की होड़, असहिष्णुता और दूसरे को अपमानित करने का भावजो आज हमारे समाज में है, वह पहले नहीं था। आज हम अजीब मोड़ पर खड़े हैं। रचनाकार के लिए यह चुनौतियों से भरा समय है। और इन हालात में लगता है क्या लिखा जाए।

ऐसे हालात में लेखकों ने अपने लिए अलग-अलग रास्ते निकालने की कोशिश की है। कुछ लेखकों ने अपनी विद्वता, जानकारी और प्रतिभा से पाठकों को आतंकित करने का रास्ता निकाल लिया है। उनको पढ़ते हुए पाठक भाषा शैली के चमत्कार, विद्वता के बोझ, जानकारियों की रेल-पेल से प्रभावित हो जाता है और चना को श्रेष्ठ मान लेता है। यहां रचनाकार और पाठक के बीच बराबर का रिश्ता नहीं बनता। कुछ अन्य लेखकों ने योरोप और अमेरिका के प्रभावित करनेवाले साहित्यिक आंदोलनों जैसे उत्तर आधुनिकता, जादुई यथार्थवाद, स्ट्रक्चरिज़म आदि-आदि के माध्यम से रचना की और कहा कि देखो यह नया है। पाठका को और ख़ासतौर पर सुधी पाठक को लगा कि हमारा लेखक विद्वान है और बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है। ज़रूर इसने जो लिखा होगा, वह बहुत महत्वपूर्ण होगा। यह हमारी कमी है कि हम उसे पसंद नहीं कर पा रहे हैं।

एक और रास्ता तलाश किया गया जो विमर्श का रास्ता कहा जाता है। इसके अंतर्गत सबसे पहले स्त्री विमर्श, उसके बाद दति विमर्श, फिर आदिवासी विमर्श तथा अल्पसंख्यक विमर्श को रेखांकित किया जा सकता है। ये साहित्यिक विमर्श राजनीतिक स्तर पर उपेक्षित जातियों, समूहों तथा समुदायों के स्थापित होने के विमर्श हैं। राजनीति में जिनको-जिनको स्वर मिलता गया उन्होंने साहित्य में अपने विमर्श खड़े करने शुरू कर दिए। मैं इन विमर्शों का विरोधी नहीं हूं बल्कि उनका स्वागत करता हूं। समस्या यह हो गई है कि इन विमर्शों के अंतर्गत लिखे गए साहित्यि का मूल्यांकर करने के लिए नए सौंदर्यशास्त्र की मांग की जा रही है। नए पैमाने उपलब्ध नहीं हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चूंकि यह रचना स्त्री विमर्श या दलित विमर्श या अल्पसंख्यक विमर्श पर केंद्रित है इसलिए यह अच्छी रचना है। मतलब रचना के मूल्यांकन का आधार और कुछ नहीं केवल विमर्श बन जाते हैं।

पता नहीं नया सौंदर्यशात्र कब बनेगा लेकिन ऐसे फोन ज़रूर आते हैं जो पूछते हैं, आप किस विमर्श के लेखक हैं मैं कहता हूं सभी विमश्र मेरे लेखन में हैं तो फोन करनेवाला हंसता है और फोन का देता है। मतलब विमर्श नहीं तो लेखक भी नहीं।

पत्रिकाएं विमर्श के आधार पर निकल रही हैं। अगर आप किसी विमर्श में नहीं हैं तो आपको कोई पत्रिका घास नहीं डालेगी। इस पर क़यामत यह है कि पत्रिकाओं के संपादकों ने विमर्श का स्वरूप तय कर दिया है। मतलब यह कि आप स्त्री विमर्श के लेखक हैं तो सेक्स, नग्नता, विद्रूपता कितनी होनी चाहिए यह तय है। अगर नहीं होगी तो कहानी नहीं छपेगी। पता नहीं कितने नए लेखकों को यह रवैया भ्रमित कर रहा और साहित्य का कितना नुकसान कर रहा है।

मेरे लिए कहानी लिखना लगातार कठिन होता जा रहा है। आज, आसपास बिखरे जीवन पर कुछ लिखता हूं तो लगता है अख़बारी लेखन हो रहा है। दूसरी तरफ उस जीवन को मैं विशुद्ध कहानी भी नहीं बनाना चाहता। इस तरह अख़बारी लेखन और कहानी के बीच का लेखन मेरे लिए चुनौती है। यह हो नहीं सकता कि मैं इर्द-गिर्द से आंखें बंद करके शिल्प और पांडित्य के चमत्कार से पाठकों को आतंकित करता रहूं कि मेरे विचार से आज उस तरह का लेखन अपराध ही माना जाएगा।

अख़बारी लेखन और कहानी लेखन के अंतर्द्वन्द्व ने मेरी कहानियों पर प्रभाव डाला है। पहला प्रभाव यह पड़ा है कि मेरी कहानियों से केंद्रीय पात्र ग़ायब हो गए हैं। अब समय मेरी कहानियों का प्रमुख पात्र है। इस कारण कहानियों में व्यंग्य चाहे जितना बड़ा हो मानवीय संवेदना बड़ी हद तक व्यक्ति नहीं समूह केंद्रित होती चली गई है जिसकी प्रस्तुति अमूर्तन के माध्यम से ही हो पाती है।

जब मैंने कहानियां लिखना शुरु किया था तो अन्य विदेशी कहानीकारों के अलावा हिन्दी के दो कहानीकार निर्मल वर्मा और फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ आकर्षित करते थे। आज स्थिति यह है कि निर्मल वर्मा उतना आकर्षित नहीं करते पर रेणु आज भी उतने ही महत्तवपूर्ण बने हैं। दरअसल निर्मल वर्मा चिन्तक हो गए थे। मेरे ख़याल से यह कहानीकार का त्रासद अन्त होता है जब वह चिन्तक बन जाता है। निर्मल वर्मा जैसा सक्षम और प्रतिभाशाली कहानीकार इसका शिकार हो गया था। कहने का यह मतलब नहीं कि रचनाकार को विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए या अपने परिवेश को समझने के लिए ज्ञान के अन्य स्रोतों के पास नहीं जाना चाहिए। लेखक या रचनाकार के ज्ञान संवर्धन का उद्देश्य रचना को सम्पन्न करना होता है न कि वह चिन्तक बन जाना।

एक दौर मैं मैंने जो कहानियां लिखी हैं या अब भी मैं जैसी कहानियां लिखता हूं उसके बारे में कुछ कहानी समीक्षकों का कहना है कि वे ‘कामिकल ट्रेजडी’ की कहानियां हैं। हास्य और व्यंग्य, इस तरह कहानी को आगे बढ़ाते हैं कि वह त्रासदी बनकर विषय और पात्र को नए आयाम और अर्थ देते हैं। इतना तो मैं कह सकता हूं कि व्यंग्य, हास्य, नाटकीयता आदि के माध्यम से अपने समय और समाज को समझने का काम मुझे अच्छा लगता है। कहा जाता है कि आज के भारतीय समाज में यदि आपकी कुछ सहायता कर सकता है तो वह हास्य और व्यंग्य ही कर सकता है। हास्य, व्यंग्य और नाटकीयता प्रायः पाठक को आकर्षित करते हैं और रचना को लोकप्रिय बनाते हैं। दूसरी तरफ़ ख़तरा यह बना रहता है कि रचना शायद हास्य व्यंग्य तक की सीमित होकर न रह जाए। मतलब पूरे प्रयोजन का उद्देश्य सीमित न हो जाए।

प्रचलित और योरोप या विदेशों से आयात किए गए साहित्यिक आन्दोलनों आदि ने मुझे कभी किसी तरह प्रभावित नहीं किया कि अन्धानुकरण करने लगूं। जैसे एक ज़माने में ‘मैज़िकल रियलिज़्म’ यानी जादुई यथार्थवाद का शोर था और हिन्दी का हर दूसरा लेखक जादुई यथार्थवाद का शोर था और हिन्दी का हर दूसरा लेखक जादुई हो गया था। उत्तर आधुनिकता और दूसरे साहित्यिक सामाजिक आन्दोलन जो कहीं ओर किसी और देश के इतिहास और समाज में महत्तवपूर्ण हो सकते हैं, वे हमारे यहां भी होंगे, यह मानना ज़्यादती होगी। दरअसल हम पश्चिम से आक्रान्त हैं। अंग्रेज़ी राज और उसके सांस्कृतिक साम्राज्य का दबदबा आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाया हुआ है। हमें अपने देश का जादू, जादू नहीं लगता केवल लातीनी अमेरिका का जादू ही जादू लगता है।

मैं कहानी का आलोचक नहीं हूं और न होना चाहता हूं। अपनी कहानी के बारे में, साहित्य के समन्ध में कुछ सवाल मन में उठते रहते हैं। सोचा कि उन्हें मिल-बांटकर समझा-परखा जाए तो अच्छा हो।