भूख (आर्मेनियाई कहानी) : देरेनिक दमिरचियन

Bhookh (Armenian Story in Hindi) : Derenik Demirchian

घर से चौराहा और चौराहे से घर । बस यही उसका इलाका था, जिसमें वह सुबह से शाम तक घूमता रहता था। पहले भी, जब वह बढ़ई का काम करता, कस्बे में कोई ऐसे खास स्थान न थे जहां वह जाता रहा हो। लेकिन शनिवार की संध्याओं को जब वह घर लोटता तो अपना रास्ता शराबघर की ओर मोड़ लेता । लेकिन अब चूंकि युद्ध और अकाल ने अन्य लोगों की तरह उसे भी तबाह कर दिया था, वह कहीं नहीं जाता था, अब चूंकि वह बूढ़ा और एकदम अशक्त हो चुका था, इसलिए कोई काम भी नहीं करता था। इस दुनिया में उसकी स्थिति वैसी ही थी, जैसे गांव के भूखे और तिरस्कृत कुत्ते की होती है, जो किसी को डराने या किसी अजनबी के होने की सूचना देने के लिए नहीं, बल्कि आदतन गला फाड़-फाड़ कर भौंकता रहता है ।

वह एक साधारण बढ़ई था, जिसे हाल ही में काम से मुक्त कर दिया गया था। उसके आखिरी मालिक ने उसकी बची-खुची शक्ति भी निचोड़ ली थी मोर उसे अब घर भेज दिया था, घर नहीं बल्कि यों कहिए कि उसे उसकी कब्र में ढकेल दिया था । चालीस साल तक काम करने के बाद भी उसके पास कुछ नहीं बचा था- -न तो शक्ति, न धन और न मित्र । ये सब ऐसे गायब हो गए थे जैसे प्रचंड गति से दौड़ने वाले घोड़े रथ को ही उड़ा कर ले जाएं। उसके पास अगर कुछ बचा था तो वह थी --अतर्पणीय भूख जो उसकी सबसे विश्वासपात्र बन कर उससे चिपटी हुई थी। यो समझिए कि उस भूतपूर्व कारीगर का पेट अभी भी उसके पीछे पड़ा हुआ था ।

सिर्फ खाना...........खाना...... और खाते ही रहना, बस यही एक धुन उस पर सवार रहती ।

सुबह से रात तक उसकी हर बात, हर काम और हर योजना का संबंध सिर्फ खाने से ही होता था। वह अपनी जगह से उठता, अलमारी के पास जाता, उसे खोलता और फिर लालच भरी निगाह से उसका कोना-कोना छान मारता । उसमें रखे बर्तनों के ढक्कन खोलकर देखता, नेपकिन की परतों को उलट कर देखता और यही सोचता कि शायद कहीं कुछ खाने की अच्छी चीज मिला जाय । कई बार ऐसा भी होता कि वह अलमारी खोलता और उसके सामने खड़ा हो कर देर तक अपने विचारों में खोया रहता । वह देर तक उन खाली प्लेटों को देखता रहता जिनमें खाने के लिए कुछ भी न होता था। फिर भी वह हर घंटे बाद इस क्रिया को दुहराता रहता ।

घर के किसी भी कोने में, कहीं भी अगर रोटी रखी हो तो उसे वह बढ़ई ढूंढकर खा जाता । उसकी पत्नी चीनी के तीन-चार क्यूब किसी कोने में चुपचाप छिपाकर रख जाती, फिर भी बढ़ई अपनी खोज में जुटा रहता कि शायद रोटी का एक टुकड़ा या उबले हुए मटर के कुछ दाने ही मिल जायं ।

लेकिन वहां कुछ भी न था । कोई अपनी जिन्दगी की कीमत देकर भी वहां कुछ नहीं पा सकता था । और जब उसे कुछ भी न मिलता तो उसकी भूख उत्तेजित हो उठती । वह भूख से पागल हो उठता । वह अंत में निराश हो कर जम्हाई लेता । उसका मुंह टेढ़ा हो जाता और एक ओर से लार बह निकलती । वह अपने होंठों को चाटने लगता और वापस आकर सोफे पर बैठ जाता । उसकी पीठ और सिर सामने की दीवार पर झुक जाते। वह सामने दीवार पर बने किसी निशान को अधखुली आंखों से देखता रहता और इस तरह कई घंटे बिता देता ।

उसे जम्हाई आती है, ऊंघने लगता है... किंतु इस अर्द्ध-निद्रित अवस्था में उसके सामने अनेक काल्पनिक दृश्य उभरने लगते हैं। वह अपनी उस खीझ भरी मनः स्थिति में मुर्गे की टांगें, बादाम और मसाले मिला कर भूनी गयी मछली, अचार लगी सेंडविच और भेड़ के मांस से बनी चीजों को देखता । यों समझिए कि उस समय उसके सामने दावत की बेशुमार चीजें होती, कई किस्म के 'सूप' होते और सारा वातावरण बढ़िया खुशबुओं से भर जाता । तभी पतली सफेद रोटी में लिपटा हुआ भुने गोश्त का टुकड़ा, उसके होंठों तक पहुंच जाता है और नमकीन गोश्त के शोरबे में भीगी हुई रोटियां उसकी जीभ और तालू के बीच घुटने लगती ।

अचानक उसकी लार बहकर गले में अटक जाती है और वह खाँसता हुआ जाग उठता है । वह जागते ही भूखे भेड़िये जैसी आंखों से चारों तरफ देखने लगता है । किन्तु भयानक और निष्ठुर वास्तविकता उसे निराश बना देती है ।

वह भूख और क्रोध से पागल हो उठता है । अपनी जगह से उछल पड़ता है । पहले घबराया हुआ लड़खड़ाने लगता है, पैर अस्थिर हो जाते हैं, किन्तु फिर वह दीवार का सहारा लेकर, धीरे-धीरे बालकनी तक चला जाता है ।

उसकी किसी भी हरकत को देखकर उसकी पत्नी को कोई आश्चर्य नहीं होता था। वह कभी उछलता, कभी बाहर चला जाता और चाहे जब लौट आता । उसकी पत्नी को, उसकी किसी भी क्रिया में कोई नयापन नजर नहीं आता था । बढ़ई का जीवन जैसे रुक गया था। उसकी सारी हरकतें, शब्द और क्रियाएं पूर्व निश्चित होतीं और विधिवत् ढंग से बार-बार दुहराई जातीं, जैसे हजारों साल पुरानी परम्पराओं का नियम होता है। किंतु यह सब कुछ बेहद बाने वाला होता बिल्कुल शरदकालीन वर्षा की तरह ।

इस भूखे राक्षस को अपनी पत्नी का ध्यान आकर्षित करने के लिए क्या करना चाहिए? यह शायद उसके भाग्य में पहले से ही निश्चित था । वह बिल्कुल वैसी ही हरकतें करता रहेगा । वह बाहर छज्जे पर जाता, वहां एक कोने में धूप में सूखने के लिए फैले हुए आलू को एक-एक कर उठाता, उन्हें काँपते हाथों से देखता, फिर जीभ से चखकर वापस रख देता । इसके बाद वह अपनी छड़ी उठा कर सीढ़ियों से नीचे उतरता और बाहर सड़क पर चला जाता। लेकिन वह जाएगा कहाँ ? यह भी जैसे पूर्वनिर्धारित था यानी उसी चौराहे तक ।

वहां वह इधर-उधर घूमता, शहर की पटरियों पर लगी दुकानों पर खरबूजे, तरबूज और ककड़ियों को उठाकर देखता और रख देता। फिर डेरी की दुकान पर जाता । इस तरह सभी चीजों के भाव-ताव करता हुआ वह आगे बढ़ जाता । कसाई की दुकान पर वह काफी देर तक खड़ा रहता । वहां लटके हुए गोश्त के टुकड़ों को हसरत भरी निगाह से देखता रहता। हर किस्म के गोश्त को जी भर कर देखने के बाद वह दुकान के अन्दर जाता और नरम चर्बी वाले मांस के टुकड़ों को उठाकर देखता परखता । फिर उसे वहीं छोड़ कर घर की ओर लौट पड़ता । उस चौराहे के छोर पर पहुंच कर वह किसी ऊंची पट्टी पर - बैठ जाता और अपनी छड़ी पर बाहों को टिका कर, उस चौराहे तथा वहां स्थित खाद्य पदार्थों की सभी दुकानों को ध्यान से देखता रहता ।

वह सोचता . इस दुनिया में चीजों की कमी नहीं है, हर चीज प्रचुर मात्रा में है, लेकिन दुख तो यही है कि सभी कुछ बहुत महंगा है । इस असीम भंडार में से उसके लिए एक छोटा-सा कतरा भी नहीं है चाहे अनाज हो या मीठे अंगूर हों, मीठे खरबूजे हों या बढ़िया पनीर । लगता है यह दुनिया एक सपना है, एक भयानक, दुखदायी और निष्ठुर सपना । तभी तो इतनी तेज भूख मिटाने के लिए इतनी प्रचुर मात्रा में वस्तुएं होते हुए भी अप्राप्य हैं ।

आखिर इस समस्या का अंत कहां होगा ? क्या इस बढ़ई की लालसा एक बार भी पूरी हो सकेगी या वह पदा असंतुष्ट ही रहेगा ? उस बढ़ई का जीवन भी क्या है ? वह इस दुनिया में जिन्दा रहकर भी मृत था, क्योंकि मृत व्यक्ति खाता-पीता नहीं । लेकिन वह जिन्दा था और अपनी आंखों से सब कुछ देख रहा था । उसने अभी कुछ देर पहले ही तरबूजों के ठंडे छिलकों को सहलाया था, भेड़ के चर्बीदार नरम गोश्त को छुआ था, इसीलिए वह अभी जिन्दा है, मृत नहीं है। तब उसके लिए दुनिया का अर्थ क्या है ? क्या वह सचमुच बिना कुछ खाये ही मर जायगा ।

वह बेहद कटु, क्रोधी और विद्रोही हो गया था। वह उठकर घर की ओर चल देता और अपने आप से बातें करता हुआ घर लौट आता ।

वह जैसे ही अपने घर के बाड़े में घुसता, उसकी पत्नी उसकी बड़बड़ाहट सुनती, लेकिन उसकी ओर मुड़कर भी न देखती। ऐसी पागलपन की स्थिति में वह सीढ़ियों पर छड़ी ठोंकता हुआ हजारों बार घर के अन्दर आया है। उसकी पत्नी ने यह सब कुछ देखते-देखते जैसे उम्र बिता दी है। उसने देखा है बढ़ई की धुंध और ठहरी हुई आंखें, टकटकी लगाकर देखने वाली अशुभ आंखें - हां, आंखें जो देख कर भी नहीं देख सकती थीं। और यह सही भी था। वह बढ़ई किसी भी व्यक्ति या वस्तु को नहीं देख सकता था। उसे तो केवल एक ही चीज़ दिखाई देती थी - भोजन |

बढ़ई आकर अपनी जगह पर बैठ जाता । अपने चारों और देखता । घर में कहीं कुछ नयापन न था । उसे लगता जैसे दुनिया ठहर गई है, उसके पहिए थम गए हैं ।

दरवाजे पर बैठी उसकी पत्नी मोज़े बुन रही है। बढ़ई उससे कुछ बात करना चाहता है, कुछ कहना चाहता है जिससे उसके दिल का बोझ हल्का हो सके । वह कहता है - "मैं अभी चौराहे तक गया था। वहां बहुत अच्छे टमाटर बिक रहे थे। मैंने सोचा कुछ खरीद लूं, हम उन्हें सिरके के साथ खाएंगे । लेकिन जाने भी दो । बहुत महंगे थे । और फिर हमारे पास पैसा भी तो नहीं है ।"

वह उदास और निराश हो जाता है। मुंह में आया थूक निगल लेता है । उस समय उसकी स्थिति वैसी थी जैसे वह रेगिस्तान में भटका हुआ कोई यात्री हो, जो चलता जाता है-- चलता जाता है, लेकिन दूर-दूर तक उसे कोई बस्ती नहीं दिखाई देती । उसका 'आज' भी वैसा ही है जैसा 'कल' था ।

कमरे में शांति है । उसकी पत्नी कुछ भी नहीं बोलती । और वह बोले भी क्या उसकी भी अपनी परेशानियां हैं। घर में वह अकेली कमाने वाली थी । घरों में काम करती, सिलाई करती और कपड़े धोती- इस तरह बड़ी मुश्किल से वह कुछ रूबल कमा पाती । इस तरह जो कुछ वह कमाती वह सब रोटियों पर खर्च हो जाता और अधिकांश रोटियां उसके पति के मटके जैसे पेट में समा जातीं । वह गरीब औरत बहुत मेहनत से काम करती थी और दो पौंड रोटियों के लिए पर्याप्त पैसे ले आती थी। वह सोचती थी कि इतना ही काफी है, इसलिए वह अपने पति से बातें करने की जरूरत नहीं समझती थी।

कुछ देर बाद आखिर उस दिन का वह पवित्र और सुखद क्षण आता है जब उसकी पत्नी रोटियां लेने जाती है । उस समय, जब उसकी पत्नी नीचे के होटल में चाय या सब्जी लेने के लिए चली जाती है, वह बढ़ई भूखे भेड़िये की तरह उठता और जहां रोटियां रखी होतीं वहां झपट कर पहुंच जाता है । वह रोटियों को दबोच लेता है । फिर अपने गंदे हाथों से उन्हें तोड़ मरोड़ डालता है और तब उसके लिए अपने को और अधिक रोक पाना मुश्किल हो जाता है । वह उन्हें अपने मुंह में ठूंसने लगता है । वह उनका स्वाद भी नहीं जानता, बस उन्हें निगलता जाता है, भले ही वे गले में क्यों न फंस जाएं ।

थोड़ी देर में उसकी पत्नी आती है । वह यह सब कुछ देख कर भी चुप रहती है । वह अपने को एक हिंसक पशु को पालने वाला मानती और तब एक हिंसक पशु द्वारा यह सब किया जाना स्वाभाविक ही था। कभी-कभी वह अपने आपसे शिकायत करती, कभी इसकी बातों की उपेक्षा कर देती और कभी उसे फटकारती भी । लेकिन ज्यादातर वह अपने दुर्भाग्य को कोसती हुई चप ही रहती ।

उनका भोजन बेहद उदास वातावरण में किंतु जल्दी ही समाप्त हो जाता । बड़ी मुश्किल से रोटियां निगलने के बाद, भयभीत बढ़ई कुछ बातें करने लगता- 'पिछले साल इन दिनों हमारे पास एक बोरा प्याज थी ।' या 'तुमने शाम के लिए कुछ सब्जी रख दी है क्या ? '

"वह थी ही कितनी जो मैं शाम के लिए भी रख देती।' झुंझलाकर उसकी पत्नी कहती है और जूठी प्लेटें हटाने लगती है ।

और अगले दिन फिर, नियमानुसार ठीक इसी दृश्य की पुनरावृत्ति होती ।

शीत ऋतु आती है । इस मौसम की अपनी ज़रूरतें होती हैं, अपनी आशाएं भी होती हैं । वह बढ़ई अपने छज्जे पर मुंडेर के सहारे ठुड्डी चिपकाए हुए बैठा है । वह सामने वाले मकान के आंगन का दृश्य देख रहा है। पड़ोस के दुकानदार ने एक गाड़ी भर लकड़ी खरीदी थी । वह अपनी निगरानी में उन्हें गाड़ी से उतरवा रहा था । सुर्ख गालों वाला एक आदमी बड़ी मेहनत से आरी चला रहा था और अजीब सा सूं-सां का शोर कर रहा था। बैलों का एक जोड़ा भी वहां था - एक बैल खड़ा था और दूसरा जमीन पर बैठा था। दोनों बैल धीरे-धीरे घास खा रहे थे। पूरी सड़क पर लकड़ी और घास की एक अजीब सी मिली-जुली महक फैली हुई थी ।

दिन का उजाला फैला हुआ था। धूप का रंग लाल आमलेट जैसा था । वह बढ़ई यह सब देख रहा था और अपनी भूख से दुखी था । उसने अपने उन सुखद दिनों को याद किया जब वह भी सर्दी के लिए लकड़ियां इकट्ठी करके रख लेता था । उसने अपना बचपन भी याद किया जो अत्यंत मधुर था, किन्तु जिसका कोई अर्थ न था । हाथों से आरी चलाने वाला आदमी पसीने से भीग रहा था। उसने करीब एक घंटे तक आरी चलाने के बाद काम बंद कर दिया। उसने एक थैले से गांव में बनी लाल रोटी निकाली और उसे अपने दुबले-पतले तोड़ने लगा । उसके एक-एक टुकड़े को उसने धीरे-धीरे अपने मुंह में डाला और जल्दी-जल्दी चबा डाला | वह बढ़ई उसे देखता रहा और उसके साथ स्वयं भी रोटी खाने की कल्पना का आनंद लेता रहा। इसके बाद निराश होकर उसने उस बैल की और देखा जो घास खाकर जुगाली कर रहा था ।

बढ़ई के विचार दिन पर दिन सिर्फ खाने-पीने के दृश्यों तक ही सीमित होते जा रहे थे। उसकी कल्पना में सारा संसार सिर्फ खाने पीने वाला ही दिखाई देता । हर आवाज, हरेक हरकत और हरेक वस्तु उसे खाने-पीने से संबंधित ही दिखती । बढ़ई की आंखें नीचे सड़क पर लेटे हुए बैल पर टिकी हुई थीं। जिसकी मोटी रान की मांसपेशियां उभरी हुई थीं। कुछ ही क्षणों में बढ़ई अपनी कल्पना में खो गया । उसने हिरन के पुट्ठे का मांस काट कर पकाया और बर्तनों में परोस कर खाने बैठ गया । इस तरह वह अपनी कल्पना में उस गोश्त को न जाने कितनी देर तक खाता रहा । उसका मुंह थूक और भाग से भर गया था। वह डरावना दिख रहा था । उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। उस समय वह बिल्कुल किसी हिंसक पशु सा लग रहा था --- सिर्फ भूख से जलता हुआ एक भूखा पेट, और कुछ नहीं ।

वहां वह उस समय तक वैसे ही बैठा रहा जब तक गाड़ी से सारी कड़ियां नहीं उतर गई और उन्हें काटकर अन्दर नहीं रखा गया । गाड़ी खाली होकर चली गयी ओर उसके पीछे-पीछे गया आरी चलाने वाला व्यक्ति । हवा में ठिठुरन थी । बढ़ई को हल्की ठंड महसूस होने लगी थी। उसने कमरे में जाकर अपना पुराना बड़ा कोट पहन लिया ।

कुछ दिनों बाद वह गम्भीर रूप से बीमार पड़ गया। उसकी पत्नी तो इस बात के लिए पहले से ही आशंकित थी । उसने इस स्थिति के लिए अपने को तैयार कर लिया और अपने अंतिम दायित्व पूरे करने में जुट गयी । बढ़ई ने थोड़ा-सा 'सूप' कुछ इस तरह मांगा जैसे कोई जीवन दान के लिए याचना कर रहा हो । लेकिन इस कीमती भोजन से उसे संतुष्ट करने का कोई उपाय न था । उसके इस आग्रह के उत्तर में उसकी पत्नी ने प्यास बुझाने के लिए एक गिलास ठंडा पानी दे दिया जिसमें पांच सूखी किशमिश पड़ी हुई थीं। लेकिन बीमार बढ़ई 'सूप' पीने की जिद करने लगा। पूरी सुबह वह सूप की बात दुहराता रहा और सारे दिन उसकी निरर्थक प्रतीक्षा करता रहा।

भोजन के समय उसके सामने भूरी रोटी का एक टुकड़ा रख दिया गया । उसने उसे खाना चाहा पर निगल न सका । शाम को पड़ोस की एक महिला ने देखा कि बढ़ई की पत्नी काफी परेशान है । वह उसके पास आयी और तब सारी बात मालूम हुई । उसे दया आ गई। उसने तुरन्त अपने बेटे को दही लाने के लिए भेजा। लेकिन दही नहीं मिला, इसलिए 'सूप' बनाने का कार्यक्रम अगली सुबह तक के लिये स्थगित हो गया ।

लेकिन रात में बढ़ई की हालत बिगड़ गयी। तेज बुखार में वह बड़बड़ाने लगा। यह पहला अवसर था जबकि उसने बड़बड़ाहट में भोजन के बारे में कुछ नहीं कहा। उस तेज़ बुखार में उसने अपनी पत्नी से उन स्थानों के बारे में पूछा जहां लावारिसों को ले जाते हैं । लेकिन उसकी पत्नी कुछ भी न समझ सकी और उसने कोई उत्तर न दिया। बीमार बढ़ई ने आँखें खोलों और अपनी पत्नी की ओर देखकर बोला- 'तब तुम खाओगी क्या ?' पत्नी ने सोचा शायद वह अब सूप की प्रतीक्षा कर रहा है। वह अभी आ जायेगा । थोड़ा इन्तजार करो ।' पत्नी ने उत्तर दिया ।

'मेरे मरने के बाद तुम क्या करोगी, क्या खाओगी ?' बढ़ई ने अपनी मृत्यु की ओर संकेत करके पूछा ।

'भगवान जाने ! मैं क्या बताऊं ?' दुखी आवाज़ में पत्नी बुदबुदाई |

उसी समय पड़ोस की वह महिला एक प्लेट में सूप लेकर आ गयी । उसने प्लेट को टेबिल पर रख दिया और बीमार बढ़ई को देखने लगी ।

'ये तुम्हारे लिए सूप लायी है । तुम उसे पिओगे ?' पत्नी ने बढ़ई से पूछा ।

'ये तुम्हारे लिए अच्छा रहेगा ।' पड़ोसिन ने कहा ।

'अच्छा ?' बीमार बढ़ई ने बुखार से जलती अपनी आंखें खोलकर पूछा ।

सूप की प्लेट नजदीक लायी गयी और एक चम्मच में सूप भरकर उसके होंठों से छुआया गया। बीमार बढ़ई ने तत्काल समझ लिया कि उसे कुछ खिलाया जा रहा है। उसने होठों पर जीभ तो फिरा ली, किन्तु उसने कुछ भी खाया नहीं, क्योंकि अब उसकी भूख सदा के लिए खत्म हो चुकी थी ।

बढ़ई के जीवन में यह पहला अवसर था । जब उसे भूख नहीं लगी थी । उसकी दुनिया बदल चुकी थी। भूख जो कभी उसके शरीर का आनन्द थी, उसे वह बढ़ई अब खो चुका था वही भूख अब सजा में बदल चुकी थी ।. उसने कुछ भी नहीं खाया । बस दुखी मन से एक बार अपनी पत्नी और उस पड़ोसन की ओर देखा ।

'कोई बात नहीं। इसे तुम बाद में ले लेना ।' पड़ोसन ने उसे सूप के प्रति आश्वस्त करते हुए कहा और वह प्लेट बढ़ई की पत्नी को थमा दी 1

बढ़ई की पत्नी का मन दुख से भरा हुआ था । उसने पहले सूप की प्लेट को देखा, फिर मृत्यु के निकट पहुंच रहे बीमार बढ़ई को देखा। फिर वह चुपचाप प्लेट रखने के लिए अलमारी के पास गयी ।

जब उसने अलमारी खोली तो उसका दिल दर्द से कराह उठा। वह अलमारी अनेक बार खोली और बंद की गयी है, उसमें अनेक बढ़िया चीजें रखी गयी हैं, तमाम दोस्तों को बढ़िया से बढ़िया भोजन सामग्री उस अलमारी से निकालकर खिलाने के अवसर आ चुके हैं। और अनेक बार बढ़ई ने भी उस अलमारी को खोला और बंद किया है जो कभी उनके जीवन के सुखी दिनों का प्रतीक थी ।

अभी वह अलमारी में प्लेट रख भी न पायी थी कि पड़ोसन महिला उसके पास आकर फुसफुसायी और उसे इशारे से बुलाने लगी ।

बीमार बढ़ई की अन्तिम सांसें चल रही थीं उसने इशारा किया वह कुछ कहना चाहता था । उसके गले से कुछ अस्पष्ट सी आवाज निकली, जैसे वह कह रहा हो -'अगर इसी तरह मुझे मरना है, तो मैं मरने के लिए तैयार हूं।'

और फिर वह तुरंत ही शांत होकर मृत्यु की गोद में सो गया ।

कमरे में एकदम सन्नाटा छा गया था ।

अब क्या ? क्या सब कुछ इतना ही था ?

उसकी पत्नी ने कुछ क्षणों तक प्रतीक्षा की, शायद उसके पति के शरीर में कोई हरकत हो । लेकिन फिर कुछ न हुआ। उसने देखा कि एक ओर भूखे बढ़ई की स्थिर आंखें खुली हुई हैं, और दूसरी ओर वह अलमारी भी खुली हुई है जो स्थिर थी। वह अलमारी उसी सूनेपन से देख रही थी, जिस तरह वह बढ़ई देखा करता था ।

(अनुवाद : विभा देवसरे)

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