भीड़ (उर्दू कहानी हिंदी में) : रामलाल
Bheed (Urdu Story in Hindi) : Ram Lal
लाखों आदमियों से भरा एक जंगल। उन लोगों में साझी बात एक ही है - अजनबियत। बसों, ट्रामों, लोकल ट्रेनों और फ़ुटपाथों पर थोड़ी देर का साथ और बेशुमार धक्के। बड़े शहरों की अब यही नियति है।
इसी भीड़ में एक दिन आतम कस्सी को देख लेता है। दोनों एक ही दिशा में हावड़ा ब्रिज पर जा रहे थे। शाम हो रही थी। आगे-पीछे चलने वाले और भी लाखों लोग थे दोनों तरफ़ फ़ुटपाथों पर। बीच सड़क पर मोटरें, ट्रामें और बसें।
आतम पहले उसे उसकी पीठ से पहचानता है - एक तन्दुरुस्त जवान, पीठ और गरदन के पीछे ढेर सारे ख़ूबसूरत बाल। उसे यक़ीन है, वह कस्सी ही है।
"कस्सी..." कस्सी भी अपना नाम सुनकर हैरान रह गयी है। फिर यह आवाज़ जानी-पहचानी-सी, लेकिन सालों के बाद अचानक सुनायी पड़ी है। दोनों की आँखों में अजीब-सी प्रसन्नता और गर्व का-सा भाव चमक उठता है।
"अरे, आतम तुम... तुम भी यहाँ रहते हो?"
"हाँ, मैं तो पाँच साल से यहाँ हूँ, लेकिन क्या तुम भी अभी तक...?"
"क्यों? मैं और कहाँ जाती? यह कैसे सोचा!"
आतम चुप, गहरी-गहरी आँखों से उसका चेहरा ताकता रह गया। इसके बालों में सिन्दूर नहीं है, होंठों पर लिपिस्टिक भी नहीं, फिर भी इसके होंठ कितने लाल हैं। कस्सी अपने सवाल का ख़ुद ही जवाब देने लगी -
"मैं तो कहीं और गयी ही नहीं। यही पैदा हुई, यहीं बड़ी हुई, यहीं एजुकेशन पायी और यहीं सर्विस भी कर रही हूँ।"
"कौन-से ऑफ़िस में?"
उसी वक़्त एक व्यक्ति पीछे की भीड़ से आकर उन दोनों के बीच से यह कहता हुआ निकल गया -
"अम्माँ के जीते दाऊ भाई..."
कस्सी अब उसके साथ सटकर चलने लगती है।
"मैं कद्दरपुर डाक्स पर स्टेनो हूँ, पोर्ट ट्रस्ट के एक सेक्शन में। और तुम?" पीछे से उमड़ती हुई भीड़ ने उन्हें थोड़ी देर के लिए अलग-अलग कर दिया। कोशिश करके वे फिर साथ-साथ चलने लगे।
"मैं स्टॉक एक्सचेंज की मेन बिल्डिंग में शिफ़्ट मैकेनिक हूँ। याद है जब तुम हमारे यहाँ आयी थीं, मैं तब आई.टी.आई. में ट्रेनिंग कर रहा था।"
"हाँ, ख़ूब याद है आतम, वहाँ मेरे और तुम्हारे पिता के दरम्यान जायदाद का झगड़ा हो गया था। पर ज़रा धीरे-धीरे चलो, मैं पीछे रह जाती हूँ।"
"अच्छा हाँ, कस्सी, मुझे वह बात याद तो है। वही तो कारण था कि हम फिर मिल नहीं पाये। लेकिन उन्होंने ज़रा-सी बात के लिए इतना बड़ा झगड़ा कर लिया?"
"आतम, इस भीड़ में तुम्हारे साथ बात करना मुश्किल हुआ जा रहा है, मेरा हाथ पकड़ लो। तुमने अभी क्या कहा?"
"मैंने यह कहा कस्सी जी, कि झगड़ा बहुत ज़रूरी था। वे लोग तो एक-दूसरे से ऐसे रूठे कि फिर मिल न पाये। जब मेरे पिताजी का स्वर्गवास हुआ, तब तुम्हारे पिता जी ने ख़ुद आना तो दूर रहा हमें एक ख़त भी न लिखा।"
"हाँ आतम, मेरे पिता जी ने यह ठीक नहीं किया। मुझे ख़ुद इसका बहुत दुख है। लेकिन तुम जानते हो कि मैं तब कितनी छोटी थी।"
"नहीं कस्सी, मुझे शिकायत नहीं है। मैं तो तुम्हारे पिता जी की..."
"..."
"...आतम, देखो पीछे से कितना तेज़ रेला आ गया, शोर भी बढ़ गया है। मैं सुन नहीं पायी, पता नहीं तुमने क्या कहा।"
"कस्सी, हम अब स्टेशन के क़रीब पहुँच गये हैं। कहीं बैठकर चाय पियेंगे और इत्मीनान से बातें करेंगे।"
"मैं भी यही चाह रही थी।"
आतम ने कस्सी का हाथ मज़बूती से पकड़ लिया और भीड़ को चीरकर उसे बाहर ले आया। वह दोनों हाथ पीछे उठाकर अपना जूड़ा ठीक करने लगी, तो आतम उसे बड़ी गहरी नज़रों से देखने लगा। कस्सी अब कितनी बड़ी हो गयी है, पूरी औरत लगती है, बाप रे बाप। कस्सी भी उसे अपनी तरफ़ इस तरह देखता हुआ पाकर लजा गयी। उसका चेहरा लाल हो गया। कुछ देर दोनों में से कोई न बोल सका। वह चुपचाप ख़ाली जगह की तलाश में घूमते रहे। पहले वेजीटेरियन रेस्त्रां में गये, फिर नॉन वेजीटेरियन में। हर जगह भीड़ थी। बाहर कॉफ़ी के स्टालों में भी वही हाल था।
लोग जल्दी-जल्दी कॉफ़ी के घूँट निगलते हैं, जल्दी-जल्दी बातें करते हैं, पालिटिक्स, घरेलू समस्याएँ, ऑफ़िस और बिजनेस के मामलात -
"ऐ बार बांग्लाय-लेफ़्टिस्ट सरकार निश्ची आसबे।"
"यार, मेरी पत्नी बड़ी बीमार है।"
तभी उन्हें अचानक सामने से लोकल आती दिखायी दे जाती है और वे प्याले और पैसे रखकर भाग खड़े होते हैं।
आतम और कस्सी को एक ट्रेन के आखि़र में लगी डाइनिंग कार दिख जाती है। गाड़ी छूटने में अभी देर थी। दोनों अन्दर जा बैठे। आमने-सामने बैठकर दोनों ने पहली बार एक-दूसरे को ध्यान से देखा। बैरा चाय रख गया तो कस्सी ने पूछा -
"आतम तुम उस वक़्त क्या कह रहे थे?"
"कब?" वह जैसे किसी स्वप्न से चौंक उठा।
"जब तुम मेरा हाथ पकड़कर मुझे भीड़ से बाहर ले आये थे?"
"याद नहीं पड़ता अब? हटाओ, होगी कोई बात। अच्छा यह बताओ, अब तुम्हारे साथ कौन-कौन हैं, चाचा जी और चाची जी के अलावा?"
"और तो कोई नहीं है। दोनों बड़े भाइयों के ब्याह हो चुके हैं, एक बम्बई में है, दूसरा मद्रास में। श्यामा दीदी कभी-कभी ससुराल से आ जाती है। महीना-पन्द्रह दिन रहकर फिर चली जाती है।"
"और तुम, तुम नहीं गयी ससुराल अभी तक..?"
आतम ने महसूस किया, जैसे उसने एक मुश्किल सवाल पूछ लिया है। यह सवाल शायद अनुत्तरित ही रह जाये। लेकिन कस्सी मुस्कुरा दी और फिर चहकते हुए बोली -
"ससुराल जाना क्या ज़रूरी होता है, हर लड़की के लिए?"
आतम कुशाग्र बुद्धि नहीं था, लेकिन भावुक अवश्य था। वह कुछ भी न कह सका और कस्सी उसकी भीतरी कशमकश भाँपकर बहुत ख़ुश हुई। बोली, "अच्छा यह बताओ, चाची कैसी हैं।"
"वैसी ही हैं, लेकिन उसकी नज़र बहुत कमज़ोर हो गयी है। कई ऐनकें बदलवानी पड़ीं। और तुम्हारी माता जी? उनकी तो मैं शक्ल ही भूल चुका हूँ। शायद अपने बचपन में ही उनकी गोद में खेला था।"
कस्सी हँस पड़ी, "बचपन का ज़माना भी कितना सुहावना होता है। पाँच साल पहले हम मिले थे। वह भी हमारे बचपन ही का ज़माना था। तुम आई.टी.आई. में थे। मैं दसवीं का इम्तहान देने वाली थी। मुझे याद है, एक रोज़ मुझे साइकिल पर बिठाकर शान्ति निकेतन ले गये थे।"
"हाँ, और तुमने कहा था - इसी यूनिवर्सिटी से डिग्री लेने आऊँगी।"
"नहीं आ सकी। पिताजी का हाथ तंग हो गया था। दो भाइयों की एजुकेशन और श्यामा दीदी की शादी के लिए उन्हें जायदाद का बँटवारा करना पड़ा था और हमारा हिस्सा बेचकर ही सब काम हो पाया।"
"अच्छा कस्सी, मुझे यह बात मालूम नहीं थीं, मुझे अफ़सोस है, असली बात जाने बिना ही मैं तुम्हारे पिता जी के बारे में इतना कह गया।"
"कब कहा तुमने? मैंने तो नहीं सुना।"
"तुम इतने अच्छे स्वभाव की हो, मेरी किसी बात का बुरा ही नहीं मानती।"
"अच्छा, भली कही। ज़रा-सी देर में तुम्हें मेरे सुभाव का भी अन्दाज़ा हो गया। पर मैं अपने घर में बड़ी लड़ाका समझी जाती हूँ।" वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।
सहसा गाड़ी चल दी। दोनों दरवाज़े की तरफ़ लपके, लेकिन उनके लिए उतरना असम्भव हो गया। कस्सी ने घबराकर पूछा -
"अब यह गाड़ी कहाँ रुकेगी बाबा।"
एक बैरे ने बताया, "एक घण्टा बाटे, ऐ बार खड़गपुर..."
आतम ने कस्सी को धीरज बँधाने के लिए बैरे की बात आगे सुनी ही नहीं।
वह बोला, "मैं तुम्हारे साथ हूँ न। खड़गपुर पहुँचकर वापसी के लिए हमें फ़ौरन कोई ट्रेन मिल जायेगी। क्या तुम इससे पहले कभी देर से घर नहीं गयीं?"
कस्सी ने बताया, "ज़्यादा से ज़्यादा आठ साढ़े आठ तक ज़रूर चली आती हूँ। वह भी जब कोई लोकल लेट हो जाती है, वरना सात तक तो मैं ज़रूर पहुँच जाती हूँ।"
"ठीक है, आज मैं तुम्हारे साथ ही घर चलूँगा। सब एक्सप्लेन कर दूँगा। इस शहर में तो ये सब रोज़ ही होता है। चिन्ता छोड़ो। एक-एक चाय और पी जाये और कुछ खाया भी जाये न, भूख लग रही है। क्या खाओगी?"
"जो तुम खाओगे।"
"वाह, यह क्या बात हुई। फिर तो मैं भी वही खाऊँगा जो तुम खाओगी।"
"अरे बाबा, तब तो मुश्किल होगी। अच्छा मैं मटन चॉप का आर्डर दे रही हूँ। चलेगा?" कस्सी फिर पहले-जैसी हो गयी।
"तुम बचपन में बहुत ज़िद्दी हुआ करते थे आतम, अब भी वही हाल है।"
"नहीं, मैंने ज़िन्दगी के बारे में बहुत सोच लिया है, उसके साथ कहीं समझौता भी किया है। परन्तु सिर्फ़ वहाँ, जहाँ मेरे सिद्धान्त क़ुर्बान नहीं होते।"
"तुम ड्रामों-वामों में भी इण्ट्रेस्ट लिया करते थे?"
"हमारा अब भी एक ड्रामेटिक क्लब है। अभी पिछली ही मंथ हमने एक स्टेज प्ले किया था, ‘थका हुआ ख़ुदा’।"
"ओ माँ, बहुत इण्ट्रेस्टिंग टाइटिल है यह तो।"
"और तुम्हारे ख़ास सब्जेक्ट्स तो हिस्ट्री और सोश्योलॉजी थे न?"
"वहाँ से यहाँ तक आते-आते कई और सब्जेक्ट्स भी लिये हैं - संगीत, सितार और अब दो सौ मिनट की रफ़्तार से सर्विस।" दोनों हँस पड़े।
उसी वक़्त गाड़ी खड़गपुर के यार्ड में दाखि़ल हो गयी। आतम को अचानक याद आया, उन्होंने टिकट भी नहीं ख़रीदी है।
कस्सी को बताया तो वह डर ही गयी। बोली, "ऐ बाबा, बहुत फ़ाइन देना पड़ेगा। मेरे पास तो कुल मिलाकर पन्द्रह-बीस ही रुपये होंगे।"
यह कहकर उसने अपना हैण्ड बैग मेज़ पर उलट दिया। आतम ने भी अपनी जेब से रुपये-पैसे उनमें मिला दिये और कहा -
"यहाँ का बिल और रेल का भाड़ा तो अदा हो जायेगा, लेकिन वापसी के लिए यक़ीनन कुछ न बचेगा।"
"तब हम वापस कैसे होंगे?"
आतम उसके चेहरे पर चिन्ता का रंग देखकर मुस्कुरा उठा। बोला, "यहाँ मेरी बड़ी बहन रहती है, वहीं चलते हैं। खाना भी खायेंगे और रुपए भी ले आयेंगे।"
"ना बाबा, मैं नहीं जाऊँगी तुम्हारी बहन के सामने, जाने क्या सोच बैठे?"
"तब तुम बाहर रुक जाना। मैं कोई बहाना बनाकर रुपए ले आऊँगा।"
"ठीक है।" दोनों एक-दूसरे की शरारत में बच्चों की सी मासूमियत से साथ दे रहे थे, आनन्द में डूबे हुए।
गाड़ी से उतरकर दोनों ने रेल का किराया अदा किया। कस्सी टैक्सी में बैठी रही। आतम चन्द ही मिनट में मुस्कुराता हुआ वापस आ गया। उसके पास दस-दस के पाँच नोट थे।
कस्सी ने ख़ुश होकर उसका हाथ दबा दिया। बातें करते और हँसते हुए वे वापस स्टेशन आ गये। ज़िन्दगी में कभी-कभी अचानक इस तरह ख़ुश हो उठने का अवसर हाथ लगता है, रास्ते में पड़ी हुई दौलत के समान। लेकिन उन्हें वापस ले जाने वाली गाड़ी तीन घण्टे लेट थी। यह सुनकर कस्सी के तो होश ही उड़ गये। आतम ने उसके लिए जो खाना मँगवा लिया था, उसे छूने के लिए भी वह तैयार न हो सकी। आतम उसकी आँखों में आँसू देखकर चुप-सा हो गया। गाड़ी आयी, तब भी वे उसी तरह ख़ामोश थे। यह गाड़ी सुबह पाँच से पहले कलकत्ता न पहुँच सकती थी। आतम ने दुख और पछतावे भरे लहज़े में कहा -
"मुझसे बड़ी भूल हुई है, कस्सी, मेरी ही वजह से तुम यहाँ तक चली आयीं। लेकिन जो कुछ हुआ, बस होता ही चला गया, एक ऐडवेंचर की तरह।"
कस्सी अपने घुटनों पर सिर रखे-रखे ही सिसकते हुए बोली, "मैं तुम्हें दोष नहीं देती आतम, मैं तो ख़ुद भी तुमसे मिलकर सबकुछ भूल गयी। इतना ही याद रह गया कि हमारा भी कोई बचपन था, जो बेहद सुहावना था। उसी को याद करते-करते फिर से बच्चे बन गये। लेकिन मैं घर जाकर कैसे उन्हें विश्वास दिला पाऊँगी कि हम रात-भर कलकत्ता और खड़गपुर के बीच क्यों भटकते रहे? मैंने तो तुमसे झूठ बोला था कि घर पर मेरी राह देखने वाले मेरे माता-पिता हैं। वे तो कभी के परलोक सिधार गये। वहाँ तो मेरा पति है, जो रात-भर जागता रहेगा।"
यह सुनकर आतम सन्नाटे में आ गया। कुछ देर तक इसी सन्नाटे में बैठा रहा
- एकदम ख़ामोश। फिर वह अपने घुटनों में सिर झुकाकर बोला -
"कुछ झूठ मैं भी बोल गया हूँ तुमसे, ग़लत कहा मैंने कि मेरी माँ ज़िन्दा है। वहाँ तो मेरी बीवी और मेरा छोटा-सा बच्चा है। मैं भी अब यह सोच-सोचकर परेशान हो रहा हूँ, वह सो नहीं पा रही होगी। ज़रा-सा खटका होने पर भी चौंककर सिर उठा लेती होगी। पर क्या हम कोई बहाना नहीं बना सकते हैं? कह सकते हैं, वापसी पर ट्रैफ़िक जाम हो गया। ये सब तो होता है न यहाँ?"
"लेकिन मेरे घर और दफ़्तर के बीच आज तो कुछ भी नहीं हुआ, अख़बारों में आज किसी हंगामे का समाचार नहीं होगा।"
"अख़बार वाले सारी ख़बरें छापते ही कब हैं कस्सी। रोज़-रोज़ के हंगामों के वे ऐसे आदी हो गये हैं कि सब बातों का ज़िक्र करना वे ज़रूरी नहीं समझते।"
इसके बाद देर तक दोनों ख़ामोश रहे। सुबह होने में ज़्यादा देर नहीं थी, पौ फट रही थी। दोनों के चेहरे मुरझा चुके थे। कपड़े धूल-गर्द से पटे पड़े थे। आतम आँखें बन्दकर लेता तो उसे अपने अन्दर भी एक शोर-सा सुनायी देता। बसों और ट्रामों का जैसे उसके अन्दर भी एक शहर आबाद हो, बहुत बड़ा शहर।
अचानक गाड़ी एक जगह रुक गयी। आगे बहुत से लोग खड़े थे। नारे लगा रहे थे।
"चोलबे है न, चोलबे है ना।"
आतम उतरकर नीचे गया। लोगों से गाड़ी रोकने का सबब पूछा। इनकी कोई लोकल अचानक लेट हो गयी थी, इस पर वे अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। आतम जल्दी-जल्दी कस्सी के पास लौट आया। उसे भी उतारकर भीड़ के पास ले गया। बोला, "ये सब वही हैं, जिनके साथ हम रोज़ धक्के खाते हैं। कल इनसे दूर होकर अपनी कहने-सुनने के लिए हम कितना बेचैन थे, पर अब इनमें शामिल होकर ही हमारी मुक्ति हो पायेगी। हम दो-तीन दिन भी घर नहीं पहुँचेंगे, तो हमें कोई कुछ न कहेगा। शायद पुलिस भी आने वाली है।"
आतम के चेहरे पर सहज मुस्कान देखकर कस्सी के चेहरे का तनाव भी दूर हो गया। वह जल्दी से भीड़ में शामिल हो गयी। साड़ी का पल्लू उसने कमर के चारों तरफ़ कस लिया और दोनों हाथों में पत्थर भी उठा लिये।