भविष्यवाणी (कहानी) : गोपाल भाँड़

Bhavishyavani (Bangla Story in Hindi) : Gopal Bhand

गोपाल भाँड़ बचपन से ही प्रखर बुद्धि का था। साहस और पराक्रम की उसमें कमी नहीं थी। दीन-दुखियों को देखकर द्रवित हो जाना और उसकी सहायता के लिए तत्पर हो जाना उसका स्वभाव था।

एक बार गोपाल को उसकी माँ मेला घुमाने के लिए ले गई। गोपाल गाँव से पहली बार बाहर निकला था। उसे अनेक ऐसी चीजें देखने को मिलीं जिन्हें उसने पहले कभी देखा नहीं था। उसने पहली बार शहर की चैड़ी सड़कें देखीं। कई सड़कें ऐसी थीं जिन पर ईंट और पत्थर के चौकोर टुकड़े बिछाए गए थे। धूप में ये सड़कें तप सी जातीं।

गोपाल भाँड़ और उसकी माँ नंगे पाँव थे। ऐसे भी उस जमाने में जूते जमींदार-साहूकार, राजा-महाराजा आदि ही पहनते थे। गोपाल का मन चिकनी सड़क पर सरपट भागने को हो रहा था मगर धूप के कारण तपती सड़क पर पाँव रखने पर उसके तलवे जलते से महसूस होते।

गोपाल की बेचैनी और उसकी हसरत दोनों को उसकी माँ समझ रही थी। अपना आँचल गोपाल के सिर पर रखते हुए उसने बहुत प्यार से उससे कहा-‘‘बेटा! सड़क के दोनों किनारों को देखो। कितने अच्छे सायेदार पेड़ लगे हैं! ये पेड़ इसलिए ही लगाए गए हैं कि इस सड़क से गुजरनेवाले पैदल यात्रियों को इन पेड़ों की छाया मिल सके। तुम सड़क के बीच में चल रहे हो जिसके कारण तुम्हारे पैर में जलन हो रही है। किनारे-किनारे चलो जहाँ कच्ची मिट्टीवाली राह है। यह कच्ची मिट्टीवाली राह ही पैदल चलनेवालों के लिए है।’’

”नहीं माँ! मैं थोड़ी देर इस सड़क पर और चलूँगा।“ गोपाल बाल सुलभ जिद में मचलकर बोला।

असल में पहली बार गाँव से बाहर आने के कारण वह एक अजीब से उमंग का अनुभव कर रहा था। थोड़ी ही देर के बाद उसे पीछे से ‘हटो-हटो’ की आवाज सुनाई दी। उसकी माँ ने उसका हाथ पकड़कर झटके से उसे पक्की सड़क से कच्ची सड़क पर खींच लिया।

गोपाल ने आश्चर्य से पक्की सड़क की ओर देखा जिस पर अभी चार कहार एक खुली पालकी में एक मोटे से आदमी को बैठाए तेज कदमों से, लगभग दौड़ते हुए, चले जा रहे थे। चारों हाँफ रहे थे और पसीने से तरबतर हो रहे थे। उन्हें देखकर गोपाल ने आश्चर्य से अपनी माँ से पूछा-”यह क्या है माँ?’’

माँ ने उसे बताया-‘‘गोपाल, यह पालकी है। पालकी में कोई पैसेवाला आदमी ही बैठता है, जैसे-जमींदार, साहूकार आदि।’’

‘‘छीः, कितने गन्दे होते हैं ये जमींदार-साहूकार! आदमी की सवारी करते हैं और कहते हैं कि पालकी पर सवार हैं!’’ गोपाल ने तपाक से कहा।

उसकी माँ अपने बेटे की बात सुनकर दंग रह गई और इधर-उधर देखने लगी कि कहीं किसी ने उसकी बातें सुन तो न लीं?

‘‘चुप रह गोपाल! ऐसे नहीं बोलते। जो लोग पालकी उठाए हुए हैं, वे मुफ्त में थोड़े ही न पालकी उठाकर दौड़ रहे हैं? इन्हें इस काम के लिए मेहनताना भी तो मिलेगा, यही इनकी आजीविका का साधन है। यही इनका काम है।’’ माँ ने गोपाल को समझाया।

मगर गोपाल को माँ की बात से कोई सन्तुष्टि नहीं हुई। उसने फिर कहा-‘‘लेकिन माँ, ये कुछ और भी तो कर सकते थे...यदि आदमी को जानवर की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति न होती।’’

‘‘चुप रह!“ माँ ने गोपाल को झिड़क दिया। ‘‘डेढ़ बित्ता का है। अभी से इतनी बड़ी-बड़ी बातें करता है!’’

गोपाल रुआँसा होकर चुप हो गया। मगर उसके भावुक मन में चार आदमियों के कन्धे पर सवार मोटे इनसान की छवि बार-बार कौंध रही थी- ‘कैसी विडम्बना है? आदमी ही आदमी की सवारी कर रहा है! आदमी के आगे आदमी ही विवश है...उफ! ऐसा क्यों है? माँ से पूछूँ तो वह डाँटेंगी...’ बहुत देर तक गोपाल इसी उधेड़-बुन में लगा रहा और माँ के साथ चुपचाप चलता रहा। उसके दिमाग में बातें आ-जा रही थीं-‘अरे, वह मोटा-जो पालकी में बैठा था-खुद चार के बराबर रहा होगा...उसे ढोनेवाले मजदूर तो बेचारे दुबले-पतले थे। पसीने से नहाए हाँफते-काँपते बढ़े जा रहे थे। उनकी यह हालत क्या उस मोटे को दिखाई नहीं दे रही थी?’

गोपाल के बाल-मन में इस तरह के भाव आ-जा रहे थे। माँ के साथ चलता गोपाल देर तक इसी बिन्दु पर सोचता रहा और स्वगत ढंग से, खुद को समझाया कि ‘जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तब ऐसी दुनिया बनाऊँगा जिसमें आदमी की सवारी आदमी नहीं करेगा!’ यह विचार आते ही गोपाल आश्वस्त-सा हो गया और फिर शहर के मंजर में उसका मन रमने लगा।

शहर करीब आने पर इस पक्की सड़क से इक्का-दुक्का घुड़सवार भी गुजरते दिखे। उन्हें देखकर गोपाल को बहुत आनन्द आता और मन-ही-मन सोचता कि वह जब बड़ा हो जाएगा तो वह भी घोड़े पर बैठेगा। लाल नहीं, सफेद घोड़े पर। सफेद घोड़ा कितना अच्छा लगता है! एक बार रामदीन की बहन की शादी में गाँव में भी तो आया था सफेद घोड़ा!...नहीं, घोड़ा नहीं, सफेद घोड़ी, जिस पर दूल्हा सवार था।

अचानक गोपाल ने माँ से पूछा-‘‘माँ, मेले में घोड़ा भी होगा न?“

”हाँ बेटा...घोड़ा भी होगा और हाथी भी, गाय और बैल भी। कबूतर, तोता, मैना भी।’’ उसकी माँ ने उसे लाड़ में डूबी आवाज में कहा।

दरअसल गोपाल को झिड़कने के बाद से वह भी अफसोस कर रही थी कि बेकार डाँट दिया बच्चे को, ठीक ही तो कह रहा था! मगर न डाँटती तो ऐसी बात करने की उसे आदत पड़ जाती। जमाना खराब है। कहीं किसी बड़े आदमी के कान में उसकी बातें पड़ जाएँ तो...राम न करे कि कभी ऐसा हो। ये बड़े लोग होते बड़े अजीब हैं। चिकनी-चुपड़ी बतियाएँगे मगर इनकी भृकुटि तनते देर नहीं लगती। जब तक बेगार करते रहो तब तक मेहरबान दिखेंगे, काम निकल जाए तब फिर तू कौन और मैं कौन? पहचानने तक से कर देते हैं इनकार। बड़े तोताचश्म होते हैं ये बड़े लोग-चाहे जमींदार हों, चाहे साहूकार! देर तक यही सब सोचती चलती रही थी गोपाल की माँ। जब गोपाल ने उससे सवाल किया तो उसकी तन्द्रा टूटी।

शाम होने के पहले ही दोनों माँ-बेटे मेला-स्थल तक पहुँच गए। गोपाल की माँ ने एक छायादार वृक्ष के नीचे चादर बिछा ली और गोपाल से कहा- ‘‘आ बेटा, थोड़ा सुस्ता ले। फिर चलेंगे मेला देखने।’’

गोपाल चादर पर बैठ गया। उसने माँ को देखा, वह थकी सी लग रही थी। उसने माँ से कहा-”माँ, तू जरा पैर फैला ले। मैं दाब देता हूँ। तुम्हारा पैर थक गया होगा। बाप रे! हम लोग सुबह से पैदल चल रहे हैं न?’’

गोपाल की माँ को अपने बेटे पर बहुत प्यार आया और उसने गोपाल को अपनी गोद में समेट लिया। गोपाल थका हुआ था। माँ की गोद में आने और सहलाए जाने से उसे नींद आने लगी और वह माँ की गोद में ही सो गया।

गोपाल की माँ भी थकान मिटाने के लिए बेटे को गोद में चिपकाए वहीं लेट गई। थोड़ी ही देर में उसे भी नींद आ गई।

एक अजीब से शोर के कारण उन दोनों की नींद खुल गई। शोर का कारण समझने के लिए गोपाल की माँ ने सड़क के दोनों ओर देखा। मेला जाने की राह में उसे एक हाथी जाता हुआ दिखा। हाथी पर एक मोटा आदमी बैठा हुआ था। हाथी के पीछे ग्रामीण बच्चों की भीड़ तालियाँ बजाते हुए चल रही थी। जब कभी भी हाथी अपने सूँड़ हिलाता या सूँड़ से कोई हरकत करता तो बच्चे शोर मचाने लगते...बच्चों के मुँह से हर्षातिरेक में निकलनेवाली आवाजों से पैदा हुए शोर के कारण ही उनकी नींद खुली थी।

गोपाल ने भी हाथी की ओर देखा मगर उनींदा होने के कारण उसमें उसने कोई रुचि नहीं ली। अपनी माँ की गोद में सिर रखकर फिर लेट गया।

गोपाल की माँ उसके सिर पर हाथ फेर रही थी। थोड़ी देर के बाद उसने बहुत प्यार से गोपाल से पूछा-‘‘बेटा, रोटी खाएगा? एक रोटी खा ले! भूख लगी होगी तुझे।...भूख लगी है न?’’

‘‘हाँ, माँ!’’ गोपाल ने कहा।

गोपाल की माँ ने झोले से एक मसालेदार रोटी निकालकर गोपाल के हाथों में थमा दी और एक रोटी लेकर खुद भी खाने लगी।

रोटी खा चुकने के बाद गोपाल ने कहा-”माँ...पानी!“

गोपाल की माँ ने कहा-”चल बेटा, अब रास्ते में कहीं पानी मिल जाएगा। इतना बड़ा मेला है तो वहाँ प्याऊ तो होगा ही। रास्ते में न मिला तो मेले में मिल ही जाएगा।“

मेला का नाम सुनते ही गोपाल में फिर बाल सुलभ उत्सुकता पैदा हो गई। वह प्यास भूल गया और माँ के साथ मेले की ओर बढ़ने लगा।

मेला पहुँचकर उसकी माँ ने गोपाल को झूले पर बैठा दिया और देर तक उसने झूले का मजा लिया। फिर वे दोनों मेले में आए पशुओं को देखने गए। मेले में गोपाल ने पहली बार ऊँट देखा। माँ ने उसे बताया कि ऊँट को रेगिस्तान का जहाज कहते हैं। दरअसल रेगिस्तान बहुत विस्तृत बलुआ मैदान होता है। दूर तक बालू ही बालू। जिधर नजर दौड़ाओ उधर बालू! इस मैदान में अन्य जानवरों का चलना मुश्किल होता है मगर ऊँट की पतली और लम्बी टाँगें इस रेगिस्तान में आराम से चलती हैं। दूसरी विशेषता ऊँट की यह भी होती है कि वह कई-कई दिनों तक बिना पानी के रह सकता है क्योंकि ऊँट के पेट में एक थैली होती है जिसमें ऊँट अपनी जरूरत के लिए पानी सुरक्षित रख लेता है।

पानी का नाम सुनते ही गोपाल को अपनी प्यास याद आ गई और वह पानी पीने के लिए मचल उठा।

उसकी माँ ने पता किया। संयोगवश पशु मेले में ही प्याऊ की व्यवस्था थी। वह उसे लेकर प्याऊ पर गई। खुद भी पानी पीया और गोपाल को भी पानी पिलाया।

पानी पी लेने के बाद गोपाल में ताजगी आ गई और वह प्रसन्नचित्त होकर मेले का आनन्द उठाने लगा।

एक स्थान पर उसने देखा, थोड़ी भीड़-सी लगी है। उसने अपनी माँ से उस ओर चलने को कहा। भीड़ के निकट पहुँचने पर उसने देखा, एक मोटा आदमी एक हाथी पर सवार है और वह हाथी लकड़ी के भारी टुकड़ों को सूँड़ से उठाकर एक स्थान विशेष तक पहुँचा रहा है। भीड़ के लोग हाथी के काम को विस्मय के भाव से देख रहे थे। तभी किसी ने कहा-‘‘जरा मोटे को तो देखो...’’

अभी वह कुछ आगे बोलता कि बगल में खड़े गोपाल ने तंज किया- ‘‘ऊपरवाले मोटे को या नीचेवाले मोटे को?’’

भीड़ ने बच्चे के मुँह से निकली यह बात सुनी तो सबके सब हँस पड़े। लेकिन गोपाल की माँ की भृकुटियाँ तन गईं। आवेश में उसका हाथ उठा और गोपाल के गाल पर ‘चट’ से एक तमाचा पड़ गया होता मगर एक व्यक्ति ने गोपाल की माँ का हाथ पकड़ लिया। ”नहीं बहन, नहीं! इस मासूम को मत मारो। तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे इस बच्चे में ईश्वर ने कैसी ऊर्जा भर दी है। मैं ज्योतिष शास्त्र का जानकार हूँ। तुम्हें बताता हूँ। याद रखना, यह बच्चा राजा से भी समानता का व्यवहार करेगा। न किसी को बड़ा मानेगा, न छोटा। इसकी बुद्धिमत्ता की सभी सराहना करेंगे। शत्रु को भी मित्र बनाने की कला में यह माहिर होगा। कटु सत्य बोलकर भी यह किसी को अप्रसन्न और खिन्न नहीं होने देगा। ऐसे लोग सदियों में पैदा होते हैं और सदियों-सहस्रब्दियों तक याद किए जाते हैं।“

गोपाल की माँ का क्रोध एकबारगी शान्त हो गया। उसने गोपाल को प्यार से चिपका लिया।

मेले का भरपूर आनन्द उठाने के बाद वे दोनों अपने घर की ओर चल पड़े।

  • मुख्य पृष्ठ : गोपाल भाँड़ की कहानियाँ हिंदी में
  • मुख्य पृष्ठ : बांग्ला कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां