भावी वसंत-विभ्राट् (नाटक) : हजारीप्रसाद द्विवेदी

Bhavi Vasant-Vibhrat (Hindi Play) : Hazari Prasad Dwivedi

भावी वसंत-विभ्राट् (स्त्री स्वप्न 2160 ई.) : परिचय

वसंत-विभ्राट् की कल्पना समय से कुछ पहले की गई है, पर अमूलक नहीं है। कथानक आज से दो सौ वर्ष बाद का है। परिस्थितियों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट ही समझ में आ जाएगा कि उन दिनों भारतवर्ष में कई स्वतंत्र शासन वाले प्रदेश हो जाएँगे। उस समय वर्तमान प्रदेशों की सीमा ज्यों की त्यों नहीं रहेगी। अनुमान है कि वर्तमान बनारस कमिश्नरी और बिहार के कुछ जिलों के संयोग से 'काशी' नामक एक स्वतंत्र प्रदेश होगा। इसकी राजधानी काशी होगी। साम्यवाद या इसी माप के अन्य वादों का बहुल प्रचार संसार की रोटी समस्या हल कर देगा। लोगों को इस समस्या से फुरसत मिलने पर अन्य उलझनों के सुलझाने का सामूहिक उद्योग करना होगा। उसी समय 'सेक्स' का विवाद उग्र रूप धारण करेगा। कल्पना की गई है कि बौद्धिक केंद्र होने के कारण काशी में यह बात अधिक उग्र रूप धारण करेगी। रोटी की समस्या हल हो गई, इसलिए पुरुष विद्रोही स्त्रियों को आधी काशी दे देंगे। काशी के उत्तरार्द्ध में स्त्रियों का राज्य होगा और दक्षिणार्द्ध में पुरुषों का । पुरुष-राज्य में स्त्रियाँ रहेंगी, पर स्त्री-राज्य में बिना आज्ञा के पुरुष नहीं जाने पाएँगे।

धार्मिक मतभेद उस समय तक उठ गया रहेगा। स्त्रियाँ पुष्प, लता आदि कोमलता-वाचक नामों को नापसंद करने लगेंगी। नाम इस तरह के रखे जाएँगे, जिनका धर्म से कोई संबंध नहीं होगा । पुरानी संस्कृति की गंध उनमें रहेगी, पर वे संस्कृत के नहीं होंगे। कोई-कोई परिवार प्राचीनता का प्रेमी तब भी रहेगा। इन परिवारों के नाम में प्राचीनता की गंध रहेगी।

विज्ञान तब तक न जाने कितना आगे बढ़ गया होगा। आज जिन्हें वर्षों में करते हैं, वे काम उस समय घंटों में होंगे। गर्भ निरोध का आंदोलन उस समय इतिहास की चीज हो जाएगी। सुप्रजनन के लिए अव्यर्थ और सुगमतर वैज्ञानिक उपायों का आविष्कार हो गया रहेगा। भाषा बहुत बदल जाएगी। लिंग-भेद, 'ने' का प्रयोग, वैभक्तिक विकार लोप हो जायेंगे। (यहाँ भाषा इसी युग की दी गयी है । क्लिष्टता लेखक का दोष है) हाँ, हिन्दी भाषा और साहित्य की चर्चा ख़ूब ज़ोरों पर होगी ।

इसी परिस्थिति को ध्यान में रख इस रूपक की रचना हुई है।

-लेखक ]

भावी वसंत-विभ्राट् : पहला दृश्य

[काशी का उत्तरार्द्ध । फाटक पर प्रहरी-वेश में एक वासन्ती वस्त्र पहने पुष्प-मालाओं से आच्छादित वेश । मुँह प्रसन्न, निर्भय, तबीयत मस्त ॥]

द्वा.पा. – निर्भय पुरुष, तेरा नाम ?

वसन्त – बसन्त, सुन्दरी !

द्वा.पा. – छिः ! क्या तू काशी में नया आ रहा है? तुझे क्या मालूम नहीं कि काशी के उत्तरार्द्ध में स्त्रियों का अधिकार है? और वाचाल पुरुष, तुझे मालूम होना चाहिए कि स्त्रियों को 'सुन्दरी' कहकर अपमानित करने वाले पुरुष इस राज्य में दण्ड के भागी होते हैं ।

वसन्त – अपमानित करना! भद्रे, मैं काशी में नया नहीं आया हूँ। साल में एक बार अवश्य आता हूँ और सच पूछो तो मैं स्त्रियों के इसी अपमान का सन्देशवाहक हूँ। मैं उनको याद दिलाता हूँ कि वे 'सुन्दरी' कहलाकर अपमानित होने के लिए ही इस धरा-धाम में अवतीर्ण हुई हैं। सुना सुन्दरी !

द्वा.पा. – ( क्षण-भर कुछ सोचकर ) पुरुष, तू उद्धत भी है। तुझे मैं गिरफ़्तार करूँगी ।

वसन्त – नहीं कर सकोगी। देखो, मैं चला। पर सच पूछो तो न मैं स्त्री हूँ, न पुरुष । मुझे न रोक सकने के कारण तुम्हें दुखी नहीं होना चाहिए। मेरे पीछे जो आदमी आ रहा है, वह मेरा मित्र है। रोक सको तो उसे रोकना। (मस्त चाल से भीतर घुस जाता है | )

द्वा.पा. – बुरा तो हुआ। मगर क्या हुआ ? जाने भी दो । मगर कर्तव्य ? (सोचकर) थाने में रिपोर्ट कर देनी चाहिए ।

[बिजली का स्विच दबाती है । वसन्त का एक बृहदाकार फोटो आ जाता है। दूसरा स्विच दबाती है, क्षण-भर रुकती है, फिर कुछ कहती है ।

चलो छुट्टी हुई। पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया ।

भावी वसंत-विभ्राट् : दूसरा दृश्य

[ स्थान – थाना पुलिस इंस्पेक्टर के वेश में एक स्त्री बैठी है । आकृति कुछ रुक्ष, अवस्था पचास से ऊपर, दृष्टि कर्कश ! बगल में कॉन्स्टेबिलों के रूप में कुछ जवान स्त्रियाँ खड़ी हैं । वसन्त बन्दी-वेश में ।]

पु. इं. – हमीदा ! तो द्वारपालिका ने क्या फ़ोन किया है?

हमीदा – यही, कि पुरुष उद्धत है । स्त्री-समाज को अपमानित करने के अभिप्राय से नगर में अनाधिकार प्रवेश कर रहा है।

पु. इं. – ( वसन्त से ) क्यों पुरुष ! बातें ठीक हैं?

वसन्त – बहुत कुछ!

पु. इं. – तू अपना अपराध स्वीकार करता है?

वसन्त – अपराध ? नहीं तो!

पु. इं. – तब तूने किसकी आज्ञा से इस स्त्री-शासन के भीतर घुसने का साहस किया है?

वसन्त – आज्ञा ? प्रौढ़ा होकर भी सरल हो भद्रे ! देखती नहीं कि तुम्हारे कॉन्स्टेबिलों ने मुझे निमन्त्रित किया है। इस राज्य की सभी किशोरियों और तरुणियों ने एक ही साथ निमन्त्रण दिया है। वह देखो, आम का पुलक-कण्टक शरीर; उधर देखो, मालती का व्रीड़ारक्त प्रतान; वह देखो, मधूक की प्रफुल्ल वेदना । छिः भद्रे ! इतने हृदयों का मैं अतिथि हूँ। तुमने मुझे निगडबद्ध किया है?

पु. इं. – (कॉन्स्टेबिलों की ओर ) क्यों हमीदा, तुम लोगों ने एक उद्धत पुरुष को आमन्त्रित किया है, जो गली-कूचे कहता फिरता है कि मैं स्त्रियों के अपमान का सन्देशवाहक हूँ? धिक्कार है! इस बाईसवीं शताब्दी में भी छलना! षड्यन्त्र !....

कॉन्स्टेबिल्स – (सभी एक स्वर से ) मिथ्या, झूठ, सरासर झूठ, हम लोगों ने पुरुषों के बहिष्कार का व्रत लिया है। मिथ्यावादी पुरुष ! तुझे प्रमाणित करना होगा ।

वसन्त – (हँसकर ) सुन्दरियो अगर तुमने मुझे निमन्त्रित किया तो क्या बुरा किया? मैं-मैं तो भई, न स्त्री हूँ न पुरुष । असल में भद्रे ! ( पुलिस इंस्पेक्टर की ओर मुँह फेरकर) ये बेचारियाँ जानती ही नहीं कि इन्होंने मुझे न्योता दिया है।

पु. इं. – (विकट हास्य करके) ह ह ह ह ... मान न मान मैं तेरा मेहमान!' पुरुषों में अभी चौबीसवीं शताब्दी तक बर्बरता रहेगी।

एक कॉन्स्टेबिल धीरे से दूसरे के कान में-अगर तब तक इनकी ज़ात बच गयी तब न!

पु. इं. – अच्छा, सोफा, ब्रूचा और चंगिया इसे कारागृह में ले जायें। (थोड़ा रुककर ) भला सुनो तो । इस पुरुष को साधारण कारागृह में न रखना । वहाँ हम कैदियों को मुक्त भाव से रखते हैं, पर इसमें तो बीसवीं शताब्दी की बू है। इसे बन्धनशाला में रखना होगा।

[ सोफा, चंगिया और ब्रूचा वसन्त को लेकर चलती हैं। शेष का प्रस्थान ।]

वसन्त – तो तुम लोग मुझे बाँधोगी, सुन्दरियो?

सोफा – बड़े धृष्ट हो पुरुष ! स्त्रियों का अपमान करना, देखते हैं, तुम्हारा स्वभाव हो गया है।

चंगिया – फल भोगना पड़ेगा, उद्दण्ड पुरुष !

ब्रूचा – आजीवन कारावास !

वसन्त – (मुस्कुराकर गाने लगता है ।)

आ... ओ
यौवन तुम खुलकर आओ।
ये भोली-भोली चितवन,
कुछ हाला है कुछ मधुकन,
अंग-अंग थिरकन मन फरकन;
तुम सफल इसे कर जाओ । यौवन तुम....

सोफा – क्या गाते हो पुरुष ?

वसन्त – नहीं समझोगी सुन्दरी ?

चंगिया और ब्रूचा – क्यों?

वसन्त – क्यों? इसलिए कि अभी कर्तव्य की दहकती आग पर जल रही हो। तुम्हें अपनी ओर देखने की फुरसत कहाँ ? भला यह चाँद-सा मुखड़ा, यह चम्पे-सा रंग, यह कोकिल-सी बोली । सब है, पर...सब-पर... पर तुम्हें तो कर्तव्य पर मरना है, मरो । सुन्दरता भी बड़ी बुरी जगह आ फँसी है । (गाने लगता है ।)

सौन्दर्य! तुम्हें क्या भय है,
यह सरल सुभग अल्हड़पन
कुछ विस्मृत विवश अचेतन
निखरा तन बिखरा-सा मन
तुम सफल इसे कर जाओ ।
यौवन तुम आ... ओ

सोफा – चुप चुप, सामने आर्य-महल्लिका का निवास-स्थान है।

वसन्त – ( फिर गाता है) यौवन तुम.....

भावी वसंत-विभ्राट् : तीसरा दृश्य

[ स्थान – मंत्रणागृह। आर्य महल्लिका के सामने दो भद्र महिलाएँ बैठी हैं। पहली (बाढ़वित्तिका ) हिंदी-साहित्य की कीर्ति प्राप्त अध्यापिका है और दूसरी (व्युद्गदा ) राजनीति तथा कानून की परामर्शदात्री ।]

आर्य महल्लिका – आश्चर्य है! एक उदंड पुरुष इस प्रकार स्त्री-शासन का अपमान करना चाहता है और सारी स्त्री जाति निस्सहाय-सी होकर बैठी है। मैं आप लोगों के आदर्शवाद से तंग आ गई हूँ। इससे तो बीसवीं शताब्दी के शासक अच्छे थे। फाँसी दे दी गई होती, मामला तय हो जाता।

बाढ़वित्तिका – आश्चर्य है !

आर्य महल्लिका – ( द्वारपाल को बुलाती है।) सञ्चोणी !

सञ्चोणी – भद्रे, (सामने आकर ) क्या आज्ञा है ?

आर्य महल्लिका – महामंत्रिणी को बुला ला ।

[ सञ्चोणी जाती है। एक मिनट पश्चात् लौट आती है । ]

सञ्चोणी – भद्रे, महामंत्रिणी जी के आने में तीन मिनट और देर होगी। वे केश-संस्कार कर रही हैं। ( जाती है)

आर्य महल्लिका – केश-संस्कार ! आश्चर्य है !

व्युद्गदा – आश्चर्य क्या है, भद्रे ?

आर्य महल्लिका – (व्युद्गदा की ओर देखकर) अच्छा, आपने भी तो आज कुछ नया रूप धारण किया है। फिर आश्चर्य काहे का? स्त्री-शासन के प्रारंभ-महोत्सव के दिन यह घोषणा आपने ही की थी, न कि शृंगार स्त्रियों की शारीरिक और मानसिक दासता का चिह्न है ?

[ महामंत्रिणी का प्रवेश। चेहरे पर लावण्य, केश संस्कृत, साड़ी सुरभित, हाथ में पुष्पों की माला ।]

आर्य महल्लिका – (महामंत्रिणी की ओर ) स्वागत है भद्रे ! आसन ग्रहण कीजिए । आज महामंत्रिणी के इस अभिनव वेश-विन्यास का कारण ?

महामंत्रिणी – भद्रे ! आश्चर्य है। आज सबेरे अपने मकान के बाहरी बरामदे में बैठकर 'स्त्री-सर्वस्व' पढ़ रही थी। मेरी दृष्टि पहले संपादकीय वक्तव्य पर ही जाती है। संपादिका ने अधिकारियों की खूब खबर ली थी-" स्त्री-शासन का आज दिवाला बोल गया है। आज एक उद्धत पुरुष गली-कूचे में स्त्री जाति का अपमान करता फिरता है और अधिकारी वर्ग कान में तेल डालकर सो रहा है। मैं पुलिस से पूछना चाहती थी कि माजरा क्या है कि देखकर आश्चर्य हुआ कि वही पुरुष, जिसका फोटो 'स्त्री-सर्वस्व' में निकला था, हमारे मकान के फूलों के गमलों को निर्भयतापूर्वक देख रहा है। बड़ी सावधानी से एक-एक पत्ते को स्पर्श करता, मुस्कराता और गुनगुनाता है। मेरी ओर उसका बिलकुल ध्यान नहीं था ।"

आर्य महल्लिका – अच्छा! तब तो वह बड़ा धृष्ट है।

बाढ़वित्तिका – बीसवीं शताब्दी के साहित्यिकों की कृतियों में कभी-कभी ऐसी घटना पढ़ने को मिल जाया करती है।

महामंत्रिणी – तो भद्रे, मैंने उसको डाँटकर कहा कि क्यों रे उद्दंड पुरुष, तू यहाँ क्या कर रहा है? उसने हँसकर जवाब दिया-'सुंदरी, ये फूल आज खिलेंगे, देखत नहीं, इनकी पुलक-वेदना ! मुग्धा हो सखी।' यह कहकर वह फिर अपने काम में लग गया।

आर्य महल्लिका – महामंत्रिणी का अपमान अक्षम्य है ! हाँ फिर ?

महामंत्रिणी – भद्रे ! तब तो मैं बड़े गुस्से में आई। जी में आया कि इक्कीसवीं शताब्दी की नीति से काम लूँ। बच्चा, चार हंटर में ही दुरुस्त हो जाएँगे। मगर कुछ सोचकर मैं खतरे का स्विच दबाने को उठी। उठ भी नहीं पाई थी कि वह मेरी ओर मुड़ा। बोला-'बड़ी निर्मम हो सरले! अपने ही ऊपर इतना अत्याचार! ये रेशम से केश हवा में बिखरने के लिए नहीं बने हैं। सौंदर्य का दुरुपयोग महामंत्रिणी भी नहीं कर सकतीं। आओ हम सँवार दें।' मैंने कहा – 'उद्धत पुरुष !' वह धीरे-धीरे हँसता हुआ मेरी ओर बढ़ा। बोला-'मैं स्त्री भी नहीं, पुरुष भी नहीं। छिः ! ऐसी दिए की बाती-सी देह और ऐसी उपेक्षा!' वह धीरे से पीछे आकर खड़ा हो गया और बड़े धीरे-धीरे अपनी उन कोमल उँगालियों से मेरे केश सहलाने लगा। मुझे जैसे नींद-सी आ गई। वह बोलता गया-'मुझसे यह सब नहीं देखा जाएगा। तुम मुझे पुरुष कहती हो, पुरुष मुझे स्त्री कहते हैं। पुरुष हमारा मित्र है। हमारे पीछे ही आएगा, उसी से झगड़ना । जरा आईने में तो देखो, तुम महामंत्रिणी हो कि सुंदरी ?"

आर्य महल्लिका – आश्चर्य है !

बाढ़वित्तिका – बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही अंग्रेजी के 'रोमांटिसिज्म' की एक धारा हिंदी साहित्य में आ मिली थी। कुछ कवियों ने इसी से प्रभावित होकर इस तरह की कहानियाँ लिखी थीं। आश्चर्य है !

महामंत्रिणी – वह हँसता हुआ निकल गया। मैं अनिच्छापूर्वक उठकर आईने के सामने खड़ी हो गई। भद्रे, जैसे मेरा नया जन्म हो गया हो। मुझे अनुभव हुआ कि मैं महामंत्रिणी नहीं, सुंदरी हूँ। पर जब चेत हुआ तो अपनी कमजोरी पर पछतावा हुआ । उसी समय मैंने परिचारिकाओं को आज्ञा दी कि वह पुरुष जहाँ हो, पकड़कर आर्य महल्लिका के सामने पेश किया जाए। मेरे ही ऊपर जब उसका ऐसा बुरा प्रभाव पड़ सकता है, तो औरों की क्या बात है ?

व्युद्गदा – ( आर्य महल्लिका से) भद्रे, दंड का बहिष्कार इक्कीसवीं शताब्दी की राजनीति से ही शुरू हो गया है। बाईसवीं शताब्दी उस नीति की परिणति का युग है। स्त्री-शासन की स्थापना उस आदर्श को कार्य रूप में परिणत कर दिखाने के लिए हुई है।

[ नेपथ्य में तुमुल ध्वनि। नागरिकों का एक दल गाता हुआ सड़क से निकल जाता है । ]

गाना

आsssओ ! तुम आओ चञ्चल आओ।
इस आम्र बकुल द्रुम मूले,
सौरभ सरसित सर कूले,
प्रतिपल परिमल बरसाओ। तुम...

यह फुल्ल कुसुम द्रुम लतिका,
उत्सुक प्रभविष्यत् पतिका,
छुम छनननननन आओ। तुम...

वह विकल सकल बन बीथी,
तुम बिन अब तक भूली थी,
रुनझुन रुनझुन झननाओ। तुम...

आर्य महल्लिका – ( क्षण-भर निःस्तब्ध रहकर ) अध्यापिका, क्या बात है ? गीत की भाषा तो बहुत ही पुरानी जान पड़ती है, यह किसका गीत है ?

बाढ़वित्तिका – भद्रे, यह एक आश्चर्य की बात है। इस गीत का रचयिता अपने युग में सदा उपेक्षित रहा। आज दो सौ वर्ष बाद उसके गीत की कद्र ये छोकरियाँ करने लगी हैं। पुरुष का रचित गीत और वह भी बीसवीं शताब्दी के पुरुष का ! छिः !

[ पाचिका का प्रवेश ]

पाचिका – समय हो गया है भद्रे !

आर्य महल्लिका – अच्छा, कल खुली अदालत में उस पुरुष पर मुकदमा चलाया जाए। इन लड़कियों को उस दुष्ट ने ही बरगलाया है। अच्छा तो आज...

बाढ़वित्तिका – अच्छा, नमस्कार। (उठती है ) व्युद्गदा-नमस्कार । ( उठती है)

भावी वसंत-विभ्राट् : चौथा दृश्य

[ स्थान : आर्य महल्लिका का घर। उनकी पुत्री 'जामा' पियानो पर एक गीत गा रही है।]

गीत

दिगंत की गोद में छिपी-सी
पिया की नैया दिखा रही है;
कभी मिलेगी या न मिलेगी,
ऐ मन खिलाड़ी किनारा कस ले।
भ्रमर से काले वे केश सुंदर
वे चंपई रङ्ग की गुराई;
कभी मिलेगी या न मिलेगी,
ऐ मन विलासी किनारा कस ले।
मधुर-मुधर स्मित सलोनी चितवन,
निराली चालें अनोखी बातें;
कभी मिलेंगी या न मिलेंगी,
ऐ स्वप्नदर्शी किनारा कस ले।
व' चुलबुले चाव की प्रतीक्षा,
व' चाह हिय की व' चोट दिल की;
कभी मिलेगी या न मिलेगी,
ऐ मुंतज़िर मन किनारा कस ले।

[ आर्य महल्लिका का प्रवेश ]

आर्य महल्लिका – (कुछ स्तब्ध-सी रहकर ) जामा, यह क्या कर रही है ?

जामा – तुम आ गईं मामा । ओह, सवेरे से मैं तुम्हें ही ढूँढ़ रही थी ।

आर्य महल्लिका – क्यों, बात क्या है ? आज तू कुछ अनमनी-सी दिखाई दे रही है। क्यों बोल (जामा के सिर पर धीरे-धीरे हाथ फेरती है।) आज यह नया गीत तुझे किसने सिखाया ?

जामा – वही तो कहना है, मामा। सुबह जब तुम मंत्रणा गृह चली गई, उसके कुछ ही देर बाद एक पुरुष इस बगीचे में आया । मेरी ओर तो उसने देखा भी नहीं। सीधे गमले के फूलों के पास गया। बड़े ही स्नेह से एक-एक फूल की ओर देख-देखकर मुसकराता जाता था। पुष्प भी उसे देखते ही खिल उठते थे। देखो तो मामा, आज फूल किस प्रकार प्रसन्न हैं, जैसे उनमें नई जान आ गई हो ।

आर्य महल्लिका – (फूलों की ओर देखकर) ऐं! यहाँ आने का भी उसने साहस किया – फिर ?

जामा – फिर तो मामा, वह धीरे-धीरे मेरे पास आ गया। उसका आना मुझे बड़ा ही अच्छा लगा। उसकी मस्तानी चाल, उसकी मादक मुसकान ! सभी गजब की थीं मामा, एकदम गजब की ! तुम इस तरह क्यों देख रही हो मामा! अगर तुम देखतीं !

आर्य महल्लिका – हाँ-हाँ, कहती चल ।

जामा – हाँ, तो वह आया और आकर मेरे सामने वाली उसी कुर्सी पर बैठ गया और हँसते-हँसते बोला—‘तुम्हारे घर सबसे अंत में आया हूँ, क्या इसीलिए तुम रूठी हो सखी!' उसकी बातें कितनी मीठी थीं। मैंने कहा-'रूठने क्यों लगी।' वह बोला-‘तुम जानतीं नहीं, मगर तुम रूठी जरूर हो। यही क्या बाल-तरुणी का वेश है ? तुम्हारे इन पकी मिर्च जैसे लाल-लाल होंठों पर यह उदासी क्यों है ? हँसो, खेलो, छिः ! यह कटोरे जैसी आँखें क्या पोथी पढ़ने के लिए ही बनी हैं ? इनसे मदिरा ढलने दो, अमृत बरसने दो।' यह कहकर वह उठा और मेरा वेश सँवारने लगा। उसके छूते ही मेरी धमनियों में एक विचित्र स्पंदन होने लगा। मैं... !

आर्य महल्लिका – तुझे क्या हो गया है जामा, सँभाल अपने को ।

जामा – पूरा सुन लो मामा ! उसी समय उसका एक मित्र आया। आह माँ, बलिहारी हूँ उस रूप की। मानो स्वयं सौंदर्य ही ने मानव मूर्ति धारण कर ली हो। बहुत मनोहर है माँ। हँसकर उसने कहा-(हाय उसकी हँसी में कितनी मदिरा थी) चारुलोचने! तुम्हारा प्रिय तुम्हारी प्रतीक्षा में है। और बस चला गया। परंतु बसंत बड़ी देर तक बैठा रहा। अभी तक एक गाना गाता रहा है। सुनोगी माँ ? सुनो न...

आर्य महल्लिका – रख रख अपना गाना । स्वच्छंद भाव से पुरुष लड़कियों को बहकाते फिरते हैं और राज्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहा है। बस, कल इन पुरुषों की एक ही सजा होगा-फाँसी। हो चुकी, आदर्श की रक्षा हो चुकी । आर्य महल्लिका के घर में भी औद्धत्य ! पुरुष-धृष्ट, कामुक, उच्छृंखल पुरुष !

जामा – नहीं माँ, क्षमा कर दो।

आर्य महल्लिका – क्षमा ? असंभव। (देखकर) हैं, तेरा हार क्या हुआ ?

जामा – उसी बसंत के साथी मदन को दे दिया था।

आर्य महल्लिका – (लात पटककर ) मदन को ? कौन होता है तेरा मदन ?

जामा – क्यों माँ, इतना क्या बिगड़ गया ? उसने लिया थोड़े; देखो न, वह जाते समय फेंक गया है। फिर भी मैं कैसे न देती माँ ?

आर्य महल्लिका – फेंक गया ! डबल अपमान! देखूँगी उस दुष्ट को!! ( जाती है)

जामा – कुछ समझ में नहीं आता, मामा इतनी बिगड़ती क्यों हैं ? पुरुष-राज्य में तो स्त्रियों की कमी नहीं है! फिर स्त्री-राज्य में एक पुरुष आ ही गया तो क्या बिगड़ गया ? बुरा क्या किया ? न देखती तो रहती कैसे? इतना सुंदर रूप ! उफ !

[ हवा से आँचल उड़ने लगता है। तन्मय भाव से गाने लगती है।]

गीत

तुम चंचल अंचल जाते कहाँ ?
मृदु-मंद हवा में लगे हिलने,
पिय की पगिया से चले मिलने ।
न उतावले हो मुँहज़ोर, सखा,
तुमने कब प्रीतम रूप लखा ?
फहराते कहाँ लहराते कहाँ,
तुम चंचल अंचल जाते कहाँ ?

मनभावन का पिक देता पता,
बता दे कोई वह क्या कहता ?
इस कूक में प्रीतम की समता,
है कुहू कुहू में कितनी ममता ?
इठलाते कहाँ, बल खाते कहाँ ?
तुम चञ्चल अञ्चल जाते कहाँ ?

द्रुम कुच की ये कुसुमावलियाँ,
हँसती-सी मञ्जुल ये कलियाँ,
तरु-मञ्जरियाँ, कल-काकलियाँ,
लख आयीं पिया पुलकावलियाँ,
झुक जाते कहाँ, रुक जाते कहाँ,
तुम चञ्चल अञ्चल जाते कहाँ ?

मृदु माधुरी की नव-वल्लरियाँ,
नव मल्लिका-कुंज की ये लरियाँ,
बन ज्योत्स्ना की मोहक झालरियाँ,
पिय की लख आयीं लहालरियाँ,
रसराते कहाँ, मदमाते कहाँ,
तुम चञ्चल अञ्चल जाते कहाँ ?

भावी वसंत-विभ्राट् : पाँचवाँ दृश्य

[काशी का दक्षिणार्द्ध । पुरुष मण्डल के मन्त्रि मण्डल का युवक सदस्य दर्भरूढ़ का उद्यान । दर्भरूढ़ चिन्तित और उद्विग्न भाव से टहलता है ।]

कल की ही तो बात है । जान पड़ता जैसे कितनी पुरानी घटना है। वियोग में घड़ियों का मान युगों के बराबर हो जाता है। कल बुरे मुहूर्त में नौ-विहार के लिए निकला । एक स्वप्न-सा देखा, समाप्त हो गया। वर्षों के संयम का बाँध घड़ी-भर में टूट गया। उसकी भी नाव ऐसी टकरायी कि क्या कहना ! संयोग ! नहीं तो कहाँ स्त्री-शासन की आर्य महल्लिका की कन्या-आजीवन जिसने पुरुषों से घृणा करना ही सीखा है और कहाँ पुरुष-शासन के मन्त्रिमण्डल का सदस्य-तनकर चलनेवाली स्त्रियों की हस्ती मिटा देना ही जिसके जीवन का व्रत है। संसार भी एक रहस्य ही है। अभी उस दिन लोगों के लिए रोटी का सवाल ही बड़ा टेढ़ा था। हज़ारों वर्षों की लगातार लड़ाई के बाद इस बाईसवीं शताब्दी में वह हल हुआ तो यह और भी जटिल विवाद 'सेक्स' का उठ खड़ा हुआ । समझ में नहीं आता, आखिर ये चाहती क्या हैं ? स्त्री-शासन ! हुँः ! आसमान का फूल ! भले तो पड़ी थी, घर-गिरस्थी लेकर। ( कुछ ठहरकर ) कुछ भी हो, मगर जामा तो स्त्री-शासन की मरुभूमि की सरस्वती है। उसका उद्धार करना होगा। मैं स्त्री-शासन में प्रवेश करूँगा। जामा ! तुम्हें पाने के लिए मैं अपने को विपत्ति में भी झोंक दूँगा ।

भावी वसंत-विभ्राट् : छठा दृश्य

[ उत्तरार्द्ध पंचगंगा घाट। महामंत्रिणी स्नान करके जाना चाहती है। इसी समय एक नौका घाट पर लगती है। दर्भरूढ़ उतरता है। इसे देखकर महामंत्रिणी फिर जाती है । ]

महामंत्रिणी – भद्र, स्त्री-शासन में प्रवेश के लिए आपके पास अधिकार-पत्र है ? आपकी सौम्य आकृति से जान पड़ता है कि आप कोई संभ्रांत पुरुष हैं ?

दर्भरूढ़ – महाभागे, मैं अपरिचित महिलाओं से बोलना अनुचित समझता हूँ, क्योंकि उनसे शालीनतापूर्वक बातें कीजिए तो वे अपना गुलाम समझने लगेंगी, अड़कर बातें कीजिए तो वे अपना अपमान समझेंगी। इसीलिए भद्रे, अपरिचित रमणियों से बातें करते समय, अगर आप मेरी बातों में रुक्षता पावें, तो क्षमा करें। आपका अनुमान ठीक है। मैं पुरुष-शासन के मंत्रिमंडल का सदस्य हूँ। महाभागा का शुभ परिचय ?

महामंत्रिणी – मैं स्त्री-शासन की महामंत्रिणी हूँ।

दर्भरूढ़ – महामंत्रिणी के प्रति मैं अपना आदर प्रकट करता हूँ। (सिर झुका देता है। )

महामंत्रिणी – ( प्रति नमस्कार के साथ) हाँ तो भद्र, आपका अधिकार-पत्र ?

दर्भरूढ़ – जहाँ तक मुझे स्मरण है, पिछले बँटवारे के अवसर पर एक दूसरे राज्य में प्रवेश के लिए अधिकार-पत्र की बाधा नहीं रखी गई थी। आपके स्त्री-शासन की प्रजा तो स्वच्छंद भाव से पुरुष-शासन में जाती है। पर....

महामंत्रिणी – एक दुर्घटना हो गई है भद्र! 'बसंत' और 'मदन' नाम के दो पुरुषों ने अनाधिकारी प्रवेश करके राज्य को इस सिरे से लेकर उस सिरे तक उत्कंपित कर दिया है। आज उन पर मुकदमा चलने वाला है। इसीलिए आपके पास एक अधिकार-पत्र होना चाहिए। (सोचकर ) मैं आपको निमंत्रित करूँगी। लाइए, निमंत्रण-पत्र लिख दूँ। (लिखकर देती है | )

दर्भरूढ़ – इस अकारण कृपा के लिए अनेक धन्यवाद ।

महामंत्रिणी – ( धीरे से) अकारण नहीं, सकारण (स्पष्ट) अच्छा, अब मैं अपने सम्मानित अतिथि के शुभागमन का कारण जान सकती हूँ?

दर्भरूढ़ – भद्रे, मैं इस शासन में चोरी-चोरी से नहीं आया हूँ। परंतु मेरे आगमन का कारण सुनकर आप प्रसन्न भी न होंगी। मैं स्त्री-शासन की आर्य महल्लिका की कन्या को अपनी जीवनसंगिनी बनाने का प्रयत्न करने आया हूँ।

महामंत्रिणी – (कुछ पीली पड़ जाती है) असंभव के लिए प्रत्यन करने चले हो भ्रद ! स्त्री-शासन में आपको और संगिनियाँ मिल सकती हैं, पर जामा ! असंभव, अच्छा आइए! (दोनों का प्रस्थान )

भावी वसंत-विभ्राट् : सातवाँ दृश्य

[ महामंत्रिणी का कक्ष महामंत्रिणी का उदास भाव से प्रवेश ]

महामंत्रिणी – (स्वतः ) क्या हो गया है ? नाड़ी के प्रत्येक स्पंदन में आज चंचलता का अनुभव हो, वही पुराने दिन याद आ रहे हैं। कौन-से ? इस पच्चीस वर्ष की जीवन-मरुस्थली में हरियाली तो एक दिन भी नहीं दिखाई पड़ी। पर याद कुछ जरूर आ रहा है। एक बार, मानो बहुत दिन बीत गए, सुप्त बसंत का जागरण होता `था, तभी से अब तक लगातार पुरुषों का विरोध करती आ रही हूँ-इस शरीर का रोआँ-रोआँ पुरुष जाति की घृणा से सींचा गया है। आज स्त्री-शासन के एकांत मंत्रित्व ने रक्त के किसी कण में भी पुरुषों के प्रति सहानुभूति नहीं बचने दी है, फिर भी दर्भरूढ़ में ऐसी क्या बात है कि उसको देखते ही हमारा संपूर्ण स्त्रीत्व उभर पड़ा है ? मैं केवल स्त्री हूँ । स्त्री-पुरुष की उपभोग्या स्त्री ? छि ! यह विचार कितने लज्जाकर हैं! पुरुष के हाथ में अबाध स्त्रीत्व का समर्पण! असंभव !! मगर और भी असंभव है स्वीकार । पुरुष को स्त्रीत्व का उपहार देने का निश्चय तो किया, पर उसके पहले ही पुरुष ने उसे अस्वीकार करने की घोषणा कर दी। सावधान, आहत स्त्रीत्व!

(गुनगुनाती है )

तुम गर्वित रमणी के मतवाले,
प्रेम छिपे ही रहना ।
माया की नदियाँ हैं, इसमें
मत बहना, चुप ही रहना ।
तब मस्तक ऊँचा रहे सदा,
सुंदर को देख न सकना ।
सौंदर्य-शिखा जलती रहती है,
उस पर आ मत झुकना ।
ऐ, गर्व-भरे अनराग,
आज है खूब सम्हलना तुमको,
ऐ मुक्त बंध क्रीड़ा,
अपने ही में बँधना है तुमको।
तुम अनियंत्रित हो हृदय,
आज अपने को चुप कर रखना,
इस गर्व-भित्ति के अंतराल-
से ही अपना धन लखना ।
अभिलषित एक पद ही आगे है,
हे मद-गर्वित ! सम्हलो।
आजीवन श्रृंखलहीन रहे!
क्षण-भर तो श्रृंखल सह लो !

[ जामा का प्रवेश ]

जामा – जीजी-जीजी ! यह क्या जीजी, तुम आज उदास क्यों ?

महामंत्रिणी – नहीं तो, उदास तो नहीं हूँ। मगर तेरी क्या सूरत हो गई है जामा !

जामा – जल रही हूँ जीजी, जल रही हूँ। मुझे बचाओ, मामा से मेरी रक्षा करो। फहराओ न जीजी, तुम अपने पुरुष-विद्रोह का झंडा। एक गरीब जामा के हाथ न लगाने के स्त्री-शासन का किला तो ढहा नहीं जाता।

महामंत्रिणी – आखिरी मामला क्या है? क्यों जली जा रही है ?

जामा – कल ही की तो बात है जीजी गंगा में नौका विहार के लिए निकली थी। एक दूसरी नाव भी उधर से आ रही थी। उस पाजी बसंत ने मुझे एक गाना सिखा दिया था। गाली चली जा रही थी। अपने तन-बदन की भी सुध नहीं थी। अचानक मेरी नाव उस नाव से टकरा रही थी। मैं जैसे सोते से जग पड़ी। वह तो कहो उस दूसरी नाव का आदमी बड़ा चतुर था। कब नाव टकराई, कब मेरा डाँड़ हाथ से गिरा, कब मेरी नाव तलमलायी, कब उसने सम्हाली, मुझे कुछ खबर ही नहीं। एकदम मारते-मारते ही सारी बातें हो गईं, जैसे बिजली कौंध गई हो। दूसरे ही क्षण में मैं उसकी नाव में थी। हाय! क्या बताऊँ जीजी, मैं मर सी गई ! उसने मेरा नाम पूछा। वह मुझसे कुछ और पूछना चाहता था, पर यह सुनकर कि मैं आर्य महल्लिका की कन्या हूँ, मुँह फेर लिया। मुझे पहली बार आर्य महल्लिका की कन्या होने का दुःख हुआ। घर आकर जो यह समाचार मामा से कहा तो वह जल-भुनकर खाक हो गईं। अच्छा जीजी, तुम तो स्त्री-शासन की महामंत्रिणी हो, बताओ तो भला इसमें क्या दोष हुआ ? मामा क्यों नाराज हैं? तभी से मैं जल रही हूँ। फिर से उसे देखती तो कह देती, मैं स्त्री-शासन से कुछ भी संबंध नहीं रखती।

महामंत्रिणी – ( स्वर कुछ धीमा करके) दोष कुछ नहीं है जामा । वह आदमी तुम पर 'मर' रहा है; जाओगी उसके साथ ?

जामा – वह मर क्यों रहा है, जीजी ? तुम उसे जानती हो ? वह मुझे कहाँ ले जाएगा? फिर मामा के साथ नहीं रहने देगा ? ना जीजी, मैं हमेशा के लिए तो नहीं जाऊँगी।

महामंत्रिणी – अभी तो तुम कह रही थीं कि मामा से बचाओ और अब ?

जामा – कैसे न कहूँ जीजी, मामा न जानें क्या चाहती हैं? पुरुषों का नाम मेरे मुँह से सुना नहीं कि आग-बबूला हुईं नहीं। पुरुषों ने क्या पाप किया है जीजी ? नहीं, मुझसे नहीं होगा। मैं आज घर से भाग आई हूँ। कुछ दिन तुम्हारे ही यहाँ रहूँगी।

महामंत्रिणी – रहना यहीं पर मैं आर्य महल्लिका को फोन किए देती हूँ। (स्विच दबाती है। कुछ कहती है ) ।

[ दासी का प्रवेश ]

दासी – भद्रे, दर्भरूढ़ आना चाहते हैं ।

महामंत्रिणी – आवें । कह दो।

[दर्भरूढ़ का प्रवेश ]

महामंत्रिणी – स्वागत है भद्र! आइए (जामा की ओर देखकर) यही आर्य महल्लिका की कन्या जामा है। कुछ दिन यहीं रहेगी।

दर्भरूढ़ – (जामा को देखकर कुछ ठिठककर) आप मुझे पहचानती हैं भद्रे ?

जामा – ( कुछ कर्तव्यमूढ़-सी होकर) आप... आपको....आप यहाँ कैसे ?

दर्भरूढ़ – मेरा यहाँ आना कुछ आश्चर्य-सा ज़रूर है। पर मेरे आने का कारण उतना आश्चर्यजनक नहीं है। मैं...

महामंत्रिणी – (कुछ बाधा-सी देती हुई) भद्रे, आज 'मदन' नाम उपद्रवी पकड़ा गया। बसंत का पता नहीं है। आप मुकदमे की कार्यवाही देखना शायद पसंद करेंगे ? वहीं जामा की माँ से भी मुलाकात होगी।

दर्भरूढ़ – मैं जरूर चलूँगा। जामा भी चलेंगी ?

महामंत्रिणी – नहीं ।

जामा – मैं, किंतु...

महामंत्रिणी – नहीं ।

भावी वसंत-विभ्राट् : आठवाँ दृश्य

[ स्थान – सामान्य उद्यान । सहकार पूजन। तीन लड़कियाँ गा रही हैं। हाथ में सहकार-मंजरी है । ]

गाना

सहकार मुकुल तुम फूलो ।
यौवन के रुचिर प्रतीक आज,
मानस झूले में झूलो ।
रस उमड़ घुमड़ के बरस रहा
तेरे सौरभ के संग में;
ऐ मूर्त पुलक-कंपन, अपने
कोमल अंग से अंग छू लो ।
नस-नस में उभर पड़ी मतवाली
विरह-बिथा ऐ प्यारे;
अपने अनुरागी हृदय बीच भर
यह अनुराग लहू लो ।
प्रियतम के निकट चले अर्पण,
करने अनुरागी मन को;
कुछ हृदय तरसते हैं पीछे,
इतनी बतियाँ मत भूलो।

[अक्षत, पुष्पक, चन्दन आदि चढ़ाती हैं ।]

पहली – चलो, आज का कार्य समाप्त हुआ ।

दूसरी – क्यों सहेली, कल की सभा में तू गयी थी ?

सहेली – क्यों न जाती ? कल जैसा उत्साह तो हमें स्त्री-शासन में दिखायी ही नहीं दिया। मदन के गिरफ्तार होने से शासन में एक तूफान सा आ गया है। कल की सभा अभूतपूर्व थी।

तीसरी – सभापति कौन थीं?

सहेली – वही मुञ्चर्जला देवी । गजब का इतिहास पढ़ा है भाई, गजब का ! कल तो उसने कमाल का व्याख्यान दिया। बीसवीं सदी से लेकर अब तक के लिखे गये इतिहास-ग्रन्थों के उद्धरण दे-देकर अपने तीन घण्टे के लम्बे व्याख्यान में उन्होंने बताया कि किस तरह पुरुषों ने स्त्रियों पर अधिकार जमाया, किस प्रकार फिर उन्होंने ही उन्हें स्वतन्त्रता दी और किस प्रकार संसार आज स्त्री-स्वातन्त्र्य के कारण काँप उठा है। उन्होंने कहा, स्त्री-स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं है। स्त्री शासन की विफलता की एक-एक पोल खोलकर श्रीमुञ्चर्जला देवी ने प्रमाणित किया । पुरुष बहिष्कार का आन्दोलन पागलपन है। आज स्त्री-शासन की सभी नागरिकाएँ प्रचण्ड जुलूस के साथ विचार-सभा में जायेंगी । वहाँ सहकार-दल की माँग मुञ्चर्जला देवी पेश करेंगी।

दूसरी – सहकार-दल क्या ?

सहेली – कल ही सहकार-दल का संगठन हुआ है। इसका उद्देश्य होगा पुरुषों के साथ ससम्मान सहयोग । साधन होगा स्त्री के शासन से असहयोग। इस दल के पताके पर सहकार-मंजरी की छाप होगी। अगर माँग अस्वीकृत हुई तो कल स्त्री-शासन में एक भी नागरिक नहीं रहेगा।

तीसरी – ऐसा ? तो चलो हम लोग भी चलें, जल्दी करो ।

[गाती-गाती चली जाती हैं ।]

आज कण्टकित पुलक वेदना से तरुवर मन में ।
उमड़ पड़ी है चञ्चलता पपुहुमी के कन-कन में,
फूट पड़ी है मिलन-विकलता तरु के तन-तन में ।
सिहर उठा है वनस्थली का अंचल मलयज से;
दछिन वायु है जगा रही पुलकावलि छन-छन में ।
चैत्र-चाँदनी छिटक विश्व में फैलाती मृदुला;
झर पड़ती है रस की रिमझिम बन के तृन-तृन में ।

भावी वसंत-विभ्राट् : नवाँ दृश्य

[ विचार-सभा, आर्य महल्लिका, महामंत्रिणी, बाढ़वित्तिका, व्युद्गदा यथास्थान बैठी हैं। दूर एक कुर्सी पर दर्भरूढ़ बैठा है। घंटा बजता है, तीन बालिकाएँ, जो कांस्टेबिल के वेश में हैं, बंदी मदन को लेकर प्रवेश करती हैं। नेपथ्य में 'सहकार-दल की जय' का तुमुल-नाद। फिर सन्नाटा।]

आर्य महल्लिका – अभियुक्त हाजिर है ?

एक कांस्टेबिल – यह है भद्रे !

आर्य महल्लिका – (मदन की ओर देखकर ) हूँ! आपका नाम ?

मदन – मदन महीप ।

आर्य महल्लिका – पिता का नाम है ?

मदन – मन ।

आर्य महल्लिका – पेशा ?

मदन – शिकार ।

आर्य महल्लिका – कैसा शिकार ?

मदन – स्त्रियों का ।

आर्य महल्लिका – इस शासन में प्रवेश करने का आपका उद्देश्य ?

मदन – शिकार।

आर्य महल्लिका – अब तक कुछ शिकार आपने किए हैं ?

मदन – सैकड़ों ।

आर्य महल्लिका – जैसे ?

मदन – जैसे पहिला शिकार मैंने स्त्री-शासन की आर्य महल्लिका की कन्या जामा का किया है। इसके बाद...

[ नेपथ्य में भीषण कोलाहल ]

आर्य महल्लिका – हाँ, इसके बाद ?

मदन – स्त्री-शासन की महामंत्रिणी का।

महामंत्रिणी – बंदी, जबान सँभालकर बोल ।

मदन – मैं बन्दी नहीं हूँ महाभागे, मैं शिकारी हूँ । बन्दिनी तो आप हैं ।

महामंत्रिणी – असह्य है भद्रे ! इस उद्धत को शीघ्र दण्ड दिया जाये। (नेपथ्य में भयानक कोलाहल )

मदन – भविष्य निर्णय करेगा, सुन्दरी, कि दण्ड कौन देगा-तुम या मैं ? दण्ड किसे मिलेगा-तुम्हें या मुझे ?

[आर्य महल्लिका निर्णय सुनाना चाहती है। हज़ारों स्त्रियाँ घुस आती हैं । भारी कोलाहल-"मदन को छोड़ दो", "हम विद्रोह करेंगी”, “सहकारी दल की जय" आदि आवाज़ें]

आर्य म. – आह ! क्या बात है ? ( उठकर) देवियो, आप लोग शान्त हो जायें । यह युग भद्रता का युग है । ('सुनो' 'सुनो' की आवाज़ ) स्त्री-शासन शान्ति की स्थापना के लिए हुआ है, अशान्ति के लिए नहीं । ( 'हम नहीं चाहतीं स्त्री-शासन' की आवाज़) आप स्त्री-शासन नहीं चाहतीं तो लीजिए, यह आर्य महल्लिका का सम्मान । मगर स्त्रियों की हँसी न कराइए।

मदन – (आर्य महल्लिका से) भद्रे, आप शान्त हों, भीड़ अभी शान्त हो जाती है । ( भीड़ की ओर मुँह करके) सुन्दरियो, शान्त भाव से अपना वक्तव्य सुनाइए । शालीनता सौन्दर्य की चिर-अनुचरी है। शुभे मुञ्चर्जले, आप ही इनका वक्तव्य सुनाइए ।

[भीड़ शान्त हो जाती है। मुञ्चर्जला सहकार पताका के साथ आगे आती है । ]

मुञ्चर्जला – हम स्त्री-शासन की नागरिकाओं के सबसे प्रभावशाली संगठन 'सहकार-दल' की ओर से संक्षेप में उसकी माँग पेश करती हैं-

पहली माँग यह है कि 'मदन' नामक निर्दोष और लोकप्रिय बन्दी को बिना शर्त शीघ्र ही छोड़ दिया जाये ।

दूसरी यह कि शीघ्र ही स्त्री-शासन की ओर से पुरुष-शासन के प्रमुख व्यक्तियों को बुलाकर एक सभा कराई जाये और उसमें सम्मानपूर्ण सहयोग की बातचीत की जाये ।

इस बात की पूर्ति के लिए सहकार-दल ने पुरुष-राज्य से आवश्यक बातचीत कर ली है। वायुमण्डल इसके अनुकूल है।

आर्य महल्लिका – ऐसा ही हो । पर मेरा आर्य महल्लिका के पद से त्याग-पत्र स्वीकार हो ।

सब एक स्वर से – स्वीकार है।

[आर्य महल्लिका वेश फेंककर चल देती है। महामन्त्रिणी और दर्भरूढ़ अनुसरण करते हैं ।]

भावी वसंत-विभ्राट् : दसवाँ दृश्य

[स्थान : आर्य महल्लिका के कक्ष का अग्रभाग । उत्तेजित दर्भरूढ़ तेज़ी से जा रहा है ।]

दर्भरूढ़ – दृप्त पौरुष, स्त्री-शासन का विभ्राट् तूने अपनी आँखों से देखा। मगर रस्सी जल जाती है और ऐंठन नहीं जाती। आर्य महल्लिका की आँखें अब भी पुरुषों पर अंगारे बरसाती हैं। क्या ही दर्प-भरा उत्तर है-"जामा पुरुषों की गुलामी के लिए पैदा नहीं हुई है। पुरुष शुरू से लेकर अंत तक स्वार्थी होते हैं। उद्धत पुरुष, फिर से यह प्रार्थना जबान पर न लाना।" जा रे दृप्त पुरुषत्व अब भी तुझे इस बात का गर्व है कि अबला को क्षमा कर देता है। नहीं तो यह बातें अक्षम्य थीं। धिक्कार है इस मर्दानगी को ! धिक्कार है उस पौरुष को, जो तरुणी के कटाक्ष-बाण से इतना कातर हो उढ़ता है कि यहाँ तक नौबत आ जाती है। स्त्री एक मोहक विषय है, तीव्र हलाहल है।

महामंत्रिणी – ( पीछे से) नहीं भद्र! अमृत भी है।

दर्भरूढ़ – कौन ? महामंत्रिणी ? महाभागे, मुझे क्षमा करें, आज मेरे दृप्त पुरुषत्व को बड़ी ठेस लगी है। 'उद्धत पुरुष फिर से यह प्रार्थना जबान पर न लाना।' गर्वित जठरे! देखते-देखते सारी शान धूल में मिल गई, पर ऐंठ वही है। प्रार्थना करने वाला पुरुष उद्धत है और अंगारे बरसाने वाली यह बुढ़िया सौम्य !

महामंत्रिणी – मेरे मान्य अतिथि के अपमान से मेरा हृदय चूर्ण-विचूर्ण हो गया है। सौम्य, तुम्हारे दृप्त पौरुष के चरणों में कोई उद्धत स्त्रीत्व सिसक रहा है। खबर है ?

दर्भरूढ़ – भद्रे ! (आश्चर्य से उसकी ओर देखता है)

महामंत्रिणी – आर्य ! (आँखें नीची, स्वर भारी )

[ दोनों नत मस्तक होकर धीरे-धीरे जाते हैं। ]

भावी वसंत-विभ्राट् : ग्यारहवाँ दृश्य

[ स्थान – महामंत्रिणी का कक्ष। महामंत्रिणी उद्विग्न की भाँति । ]

महामंत्रिणी – दर्भरूढ़ चला गया। आर्य महल्लिका भी न जाने कहाँ अंतर्ध्यान हो गईं। यह उनका पत्र है। जामा को मेरे हाथ सौंप गई हैं। हाय बुढ़िया, पागल हो गई थी। यौवन के सिंहद्वार पर ही जो लगा था उसका घाव, वह वृद्धावस्था तक भी न भर सका। तब से बुढ़िया के सामने एक ही प्रश्न था-पुरुष प्रतिहिंसा, पर जामा का अभी यौवन में पदार्पण है। दर्भरूढ़ ने दरवाजा खटखटाया है। जामा ने खोल दिया-विश्वास के साथ, आदर से हाय, जामा ! काश तू जान सकती कि तेरी जीजी का हृदय भी उसी व्यथा से व्यथित है। पर नहीं, यौवन का यह प्रथम चांचल्य जामा तक नहीं पहुँचा। अच्छा है।

[ मदन का प्रवेश ]

मदन – सुंदरी, दंड किसे मिलेगा ? तुम्हें या मुझे ?

महामंत्रिणी – मदन, जलाओ मत। अपमान मत करो। स्त्री-शासन की महामंत्रिणी होने का मुझ भ्रम था, तुमने उसे दूर कर दिया। मैंने आज त्यागपत्र दे दिया है। अब मैं दंड देने वाली नहीं, पाने वाली हूँ। क्या दंड देते हो ? बोलो !

मदन – सुंदरी, वह सभा हो गई। आज हजारों वर्षों के सतत् उद्योग के बाद मदन अपने प्रयत्न में सफल हुआ है। बुद्ध, ईसा, गाँधी, सबने एक स्वर से मेरे विरुद्ध प्रचार किया था। हमेशा हमारी जीत होती रही। पर आज मैंने संपूर्ण विजय पाई है। पुरुष और स्त्री-शासन को आज मैंने अपनी मध्यस्थता में एक कर दिया है। इस संबंध को दृढ़ करने के लिए तय हुआ है कि महामंत्रिणी दर्भरूढ़ और जामा के शुभ परिणय का पौरोहित्य करें, न कर सकोगी ?

महामंत्रिणी – बड़ा ही भयानक दंड है मदन ?

मदन – और सुनो, जामा से मैंने यह प्रस्ताव किया है। वह राजी है, बशर्ते कि तुम सदा दर्भरूढ़ और उसके साथ रहो।

महामंत्रिणी – यह तो जले पर नमक छिड़कना है मदन! ना, ना, यह मुझसे नहीं होगा। कुछ और दंड दो ।

मदन – यही करना होगा। देखो, वह कौन आ रहा है ? कवि है। हाय रे, सारा गुड़ गोबर कर देगा । उसकी बात न सुनना ।

[ कवि का प्रवेश ]

कवि – (गाता है)

हृदय रे, मत उनको तू छेड़ ।
कहीं प्रेम से प्रियतम मेरे सोये हैं मत छेड़। हृदय...
उनके सुख में ही तेरा सुख उनके ही संग चैन ।
हँसने दे उन्मुक्त हृदय से, तू भी हँस, मत छेड़। हृदय...
प्रेम मूल्य प्रेम-जगत् में ना सुख ना दुःख-शोक,
हँसकर हो बलिदान उन्हीं पर, किंतु न उनको छेड़। हृदय...

कवि – ( मदन की ओर देखकर हँसता है) क्यों भई मदन, तुम तो समझते होगे, मैदान मार लिया। मैं तुम्हारा मित्र हूँ, यार। महामंत्रिणी को दंड देने आए हो न ? ह ह ह ह ह-प्रेमी को दंड!

महामंत्रिणी – (उठकर ) स्वागत है भद्र !

कवि – पहले मदन से निबट लीजिए।

मदन – (फीका पड़ जाता है) मुझे और कुछ नहीं, सिर्फ यही जानना है कि महामंत्रिणी को मेरे प्रस्ताव स्वीकार हैं या नहीं ?

कवि – निश्चय ही होंगे। जिसकी कृपा से आज माधवी लता सहकार के आलिंगन-पाश में बँधी है, जिसके कटाक्षपात से आज नव-मल्लिका मधुप की पुष्प-सुरभित शाखा की अंकशायिनी हुई है; जिसके प्रताप से वनस्थली में पुलक स्पंदन, स्रोतस्विनी में तरंगकेलि, सरसी में सिहरन का प्रस्फोट हुआ है, उस सर्वजित मदन के प्रस्ताव इन्हें निश्चय ही स्वीकार होंगे। हैं न भद्रे ?

महामंत्रिणी – स्वीकार हैं।

मदन – अच्छा तो विदा सुंदरी !

कवि – विदा । (मदन जाता है)। विजय के मतवाले मदन, कवि ने तेरी कमजोरी की ओर प्रत्येक गुण में इशारा किया है। कुमारसंभव और शकुंतला के अक्षय गान से भी तुझे होश नहीं हुआ ? प्रेम के अक्षय प्रकाश के सम्मुख तू अपने प्रदीप की ज्योति टिमटिमाना चाहता है। भोले, आजीवन चूकता ही रहा, पर ऐंठ नहीं गई। ( गाने लगता है । )

मदन, तुम्हें होश आएगा कब ?
घमंड तुमको न पाएगा कब ?
कहो भला कालिदास कितने
रवीन्द्र या तुलसीदास कितने
सिखाएँगे प्रेम की महत्ता ।
मदन तुम्हें होश आएगा कब ?
भला उमाएँ शकुंतलाएँ
यशोधराएँ उतर-उतरकर
कहाँ तलक भर्त्सना करेंगी,
मदन, तुम्हें होश आएगा कब ?

कवि – महामंत्रिणी !

महा महल्लिका – आर्य!

कवि – मदन जिसे दंड कह गया है, कवि उसे वरदान कहता है।

महा महल्लिका – यह कैसे आर्य ?

कवि – मदन एक नशा है। प्रेम नशा नहीं है। प्रेम मनुष्य को प्रकृति में रहने देता है। मदन शराब है, प्रेम अमृत । मदन खुमारी है, प्रेम स्फूर्ति । मदन संसार से छिपता है, प्रेम संसार को छिपा लेता है। इससे बढ़कर आनंद-वरदान और क्या होगा देवि, कि दर्भरूढ़ और जामा तुम्हारे दोनों प्रेम-पात्र-तुम्हारी दोनों आँखों की पुतलियाँ-सदा तुम्हारे सामने रहेंगे ?

महा महल्लिका – आर्य, मैं भूली थी। अब समझ गई । मदन ने गर्वपूर्वक कहा— 'आज मैंने सबको जीता है।' मैं और भी अधिक गर्व से कहूँगी-'मैंने मदन को जीता है!' आशीर्वाद दो कवि, मैं अपने प्रेम में अक्षय सुहाग देख पाऊँ ।

कवि – निश्चय देखोगी देवि !

[दर्भरूढ़, जामा, व्युद्गदा, बाढ़वित्तिका और मुंचर्जला का प्रवेश ]

मंचर्जला – महामंत्रिणी को नमस्कार है !

सभी – ( एक स्वर में ) नमस्कार है!

मुंचर्जला – महामंत्रिणी, आपको यह कर्तव्य दिया गया है कि आप दर्भरूढ़ और जामा के शुभ परिणय का पौरोहित्य करें।

महामंत्रिणी – मैं संसार में अपने सबसे प्रिय पात्र दर्भरूढ़ और सबसे प्रिय पात्री जामा के शुभ-विवाह की घोषणा करती हूँ। वर-कन्या चिरायु हों !

सब – चिरायु हों !

कवि – ( गाता है)

ऐ मत्त मदन के अंतराल में छिपने वाले, जय हो !
ऐ जग को समता में रखने वाले मतवाले, जय हो !
उत्सृष्ट स्वयं हो किंतु सृष्टि के रचने वाले, जय हो !
ऐ स्वार्थसने, अतिशय उदारता रखने वाले, जय हो !
ऐ मनसिज अगम अगोचर,
हे मौजी अलबेले, जय हो !
उत्थान-पतन के विविध खेल,
तुमने हैं खेले, जय हो !
तुम अक्षय, अनमिल, विश्व व्याप्त,
हो किंतु अकेले, जय हो !
निरपेक्ष, निराकांक्षी मोहन के
अनुपम चेले, जय हो।

[ बसंत का हँसते हुए प्रवेश । कवि के साथ ही गाने लगता है । ]

चिर यौवन अनुचर सदा तुम्हारा,
हे चिर तापस, जय हो !
उत्फुल्ल-कुसुम-सुरभित वसंत के,
हे गुरु तापस, जय हो !
परिपूर्ण मनोभव के अनन्य
विजयी, सुर तापस, जय हो !
हे निराकांक्ष, निस्स्वार्थ प्रेम
पावन, वर तापस, जय हो!
सब परिताप जगत् के एक-
एक ही व्यथा तुम्हीं में लय हो!
हे शुभ, हे सुंदर, हे मंगल,
कल्याण-रूप हे! जय हो!

( पटाक्षेप )

[ चाँद-अप्रैल-1934 ई० के अंक में प्रकाशित ]

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