भाषा-योजना की समस्या (निबंध) : हजारीप्रसाद द्विवेदी

Bhasha-Yojana Ki Samasya (Hindi Nibandh) : Hazari Prasad Dwivedi

भाषा योजना कि समस्या पर विवेचना करना बड़ा कठिन कार्य है। अपने देश में ऐसा लग रहा है कि जनतन्त्र धीरे-धीरे बदल रहा है। इस जनतन्त्र का क्या रूप होगा ? यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। इसकी अनेक समस्याएँ हैं। मुख्य बात यह है कि साधारण जनता का जो शासन है, चाहे वह शासन कैसा भी हो—यही जनतन्त्र है। वह कोई स्थिर वस्तु नहीं है— जैसा कि अभी तक हमने एक संविधान बनाया है, जिसमें अनेक संशोधन किये और होते रहते हैं। लगता है कि यह प्रक्रिया कुछ दिन और 'चलेगी। मगर जनतन्त्र का सीधा अर्थ है— साधारण जनता का शासन, साधारण जनता का राज्य । साधारण जनता की वह बोली जिसमें साधारण जनता बातचीत करती है, बोलती है, कहती है, सुनती है, विचारती है।

लेकिन जैसे-जैसे हम कार्यक्षेत्र में बढ़ते हैं वैसे-वैसे इस व्याख्या की कठिनाइयाँ भी मालूम होने लगती हैं। हमारे देश में शब्द निर्माण-प्रक्रिया काफी समय से चल रही है। अँग्रेजी राज्य में, जब कि जनतन्त्र नहीं था, उस समय भी हमारे देश के जागरूक लोगों, कुछ ईसाई मिशनरियों, कुछ साहित्यिक-सभाओं— जैसे नागरी प्रचारिणी सभा ने तथा अन्य प्रदेशों की साहित्यिक सभाओं ने शब्दों का निर्माण प्रारम्भ किया। अब पूरी तरह विपरीत स्थिति है। हमारा देश बहुत दिनों तक परतन्त्र रहा है और इसके भीतर जो नयी शासन प्रणालियाँ, नये-नये ढंग की जो चीजें हम देखते हैं, उन्हें हमने अंग्रेजी के सम्पर्क से सीखा है और स्वभावतः जब कि हमारी भाषाएँ एक बिन्दु पर आकर खड़ी हो गयीं, उस समय विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने बड़ी उन्नति की। फिर एकाएक हम जब स्वतन्त्र हुए तो मालूम हुआ कि हम बहुत पिछड़ गये हैं। हमारी भाषाएँ असमर्थ हैं, पंगु हैं; लिखने योग्य नहीं हैं। वे अँग्रेजी के समकक्ष काम नहीं कर सकतीं। यहाँ तक कि शासनतन्त्र, कानून और बड़ी-बड़ी अदालतों की भाषा अभी भी अँग्रेजी बनी हुई है। उसका कारण है कि लोगों को विश्वास ही नहीं होता कि फैसला कहीं देशी भाषा में भी हो सकता है। हालाँकि हजारों वर्षों तक इस देश में देशी भाषा में भी फैसला हुआ है। लेकिन हम इस जनसम्पर्क में बड़ी 'नॉर्मल' अवस्था में आ गये हैं, क्योंकि अंग्रेजी का ही 'एब्नार्मल' प्रयोग होता है। इस स्थिति में जैसा कि साधारण देशों का विकास होता है, जिसमें उनकी संस्कृतियाँ, उनकी सभ्यता, भाषागत स्थितियाँ, विचार-विमर्श करते समय प्रयोग में आती हैं, वैसा विकास हमारा नहीं हुआ है। काश, हमारी भाषाओं का विकास मूल में रहा होता तो आज की स्थिति न आयी होती।

अभी तक हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों हम विश्वविद्यालय की शिक्षा का माध्यम हिन्दी नहीं अपना सके, जबकि हम जानते हैं कि किसी जमाने में जो आफत थी वह शासन में ऊपर से आती थी । वायसराय, गवर्नर जनरल, मन्त्री आदि से धीरे-धीरे उतरते-उतरते ‘सर्कुलेशन' पटवारी तक पहुँचता था और शासन-तन्त्र चलता था। फिर एकाएक रूप बाद में उलट गया। नीचे से जो शक्ति आती है और नीचे से जनता जिनको निर्वाचित करती है, वे ही ऊपर की ओर जाते हैं। लेकिन हम भी इसको ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहे हैं और हम यह समझते हैं कि कोई गवर्नर या कोई मन्त्री, जो बड़ा हो, जैसा कहेगा वैसा करना पड़ेगा। लेकिन वास्तव में अवस्था उलट गयी है अब कोई भी मन्त्री हो या प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्री हो, चाहे कोई देश का शासन करने वाला हो, मिलिट्री का अध्यक्ष हो या उसका सेक्रेटरी — यह जनता की मतगणना द्वारा हो । शक्ति नीचे से उठकर ऊपर की ओर जा रही है। ऊपर से चुननेवाली पद्धति अब समाप्त हो गयी है। इस चीज को ठीक से न समझने के कारण हम भी गलती करते हैं, जनता भी गलती करती है और जो जनता के नेता हैं, वे भी गलती करते हैं। वे समझते हैं कि एक बार जो नेता हो गया, वह हमेशा के लिए नेता हो गया। यह बड़ी भूल है। जो शक्ति में रहता है उसकी नीतियाँ कभी निष्फल भी हो सकती हैं। वह सोचता कुछ है, हो कुछ जाता है। क्योंकि इस समय जनतन्त्र का मतलब यह होता है कि कैसी शक्ति ऊपर जाएगी।

हम जो अभी तक इस भूलभुलैया में पड़े हैं कि हमारे देश की भाषा इस योग्य है। ही नहीं कि हम उसमें ऊँची-से ऊँची शिक्षा दे सकें। हमारा यह भ्रम शीघ्र ही भंग होगा। साधारण जनता जिस समय उग्र रूप में प्रकट होगी, उस समय हम उसका निवारण नहीं कर सकेंगे। आज ही, हमें सावधान होकर इसके लिए अपने को और अपनी शक्ति को लगाकर इस योग्य करना है कि हमारे उसके बीच बहुत अधिक व्यवधान न हो और जो हुआ है वह भी उलट जाए।

इस दिशा में अभी तक जो प्रयत्न हुआ है वह अँग्रेजी शब्दों के प्रयोग का है। यद्यपि वह अस्वाभाविक है, परन्तु हमारे देश की जो परिस्थिति रही है उसमें बिल्कुल स्वाभाविक है, क्योंकि वह इतिहास की देन है। इतिहास ने हमको डेढ़-दो सौ वर्षों तक एक ऐसी जाति के अधीन रखा जिसकी शिक्षा, विज्ञान और औद्योगिकी में अनेक दृष्टि से काफी बुद्धि का योग था। उसके सम्पर्क में आने से हमारे देश में नयी नयी चेतनाएँ और प्रेरणाएँ आयीं। हम लोगों के उन दिनों के जो साहित्यिक नेता, इस स्वतन्त्रता से 1. पहले के भी साहित्यिक नेता, या वे लोग जो भाषा को बनाना और उसे शक्ति देना चाहते हैं, उन्होंने सोचा कि हम अंग्रेजी शब्दों से शब्द बनाएँ। यह प्रक्रिया आज तक चल रही है। होता यह है कि जीवन में जो प्रक्रिया होती है, वह नहीं अपनायी जाती अपितु ऊपर से शब्दों को चुनकर हम देखते और समझते हैं कि इससे हमारा अनुवाद का काम ठीक हो गया है। मगर मुझे यह लगता है कि यह पद्धति बहुत कारगर नहीं है। अभी और शब्दों की जरूरत है। जो शब्द हमने सीख लिये हैं उनमें से बहुत शब्द तो मैं अपने घर में प्रयोग करता हूँ, करते सुनता हूँ। जन्म से बोलता आ रहा हूँ और उन्हें पढ़ता आ रहा हूँ। लेकिन मेरी समझ में अब भी कुछ शब्द नहीं आते। जो नये-नये शब्द चल रहे हैं, उनका अभ्यास नहीं है। 'अभियन्ता' शब्द को ले लीजिए। एक बार जब मैं 'लैग्वेज कमीशन' का मेम्बर था, मेरे एक मित्र ने मुझे एक पैम्फ्लेट दिया जिसमें अँग्रेजी में इंजीनियरिंग आदि के कुछ नियम बताये गये थे। मेरी तो एक भी समझ में नहीं आया। न उसका नियम समझ आया और न उपनियम समझ में आया। न विषय समझ में आया । यद्यपि मैं सोचता रहा कि आखिर क्या चीज है ? उन्होंने कहा कि यह भाषा तो ठीक लग रही है। आखिर आप कहना क्या चाहते हैं ? मैंने कहा कि आप भाषा को 'इंकरेज' तो नहीं कर रहे हैं ? तो उन्होंने कहा कि हम 'इंकरेज' तो नहीं रहे हैं। किन्तु वह तो सरकारी प्रकाशन था इसलिए हम कुछ नहीं कह सकते। लेकिन हमने यह शब्द पढ़ा- 'अधिशासी अभियन्ता'। उस समय मेरी समझ में नहीं आया। मैंने कहा कि यह तो बाद में फैसला होगा—पहले यह बताओ कि यह अधिशासी अभियन्ता होता क्या है ? तो उन्होंने कहा – 'एक्जीक्यूटिव इंजीनियर' । तब हमारी समझ में आया कि यह 'अधिशासी अभियन्ता' शब्द 'एक्जीक्यूटिव इंजीनियर' से बना है। संयोग से उसी दिन अधिशासी अभियन्ता, मध्यप्रदेश का एक पत्र मिला कि वे भाषा आयोग को किसी समारोह में बुलाना चाहते हैं। अब उनकी समझ में न आया कि कौन बुला रहा है ? तो उन्होंने मुझसे पूछा— द्विवेदी ! तुम्हें मालूम है, यह कौन होता है ? मैंने कहा—यह 'एक्जीक्यूटिव इंजीनियर' होता है। उन्होंने कहा कि आज तक क्यों नहीं बताया ? यह तो बहुत प्रचलित शब्द है। मैंने कहा कि आज ही सुबह सीखा है, जो काम आ गया। लेकिन आजकल यह शब्द बहुत प्रचलित हो गया है। पहले जब मैं लखनऊ जाता तो सचिवालय कहता, जिसे कोई नहीं समझता था। रिक्शेवाला भी उसे नहीं समझता था। कुछ दिनों से सचिवालय शब्द इतना प्रचलित हो गया है कि हर कोई समझने लगा ।

अँग्रेजी के ऐसे शब्द बहुत प्रचलित शब्द हैं जिनको ले लेने में मैं कोई आपत्ति नहीं समझता । यहाँ तक कि काशी विश्वविद्यालय के अपने अध्यापकों से मैं कहता था कि शब्द यदि चलता नहीं है तो अँग्रेजी का शब्द लो और क्रिया हिन्दी की रखो। भाषा तो क्रिया, सर्वनाम और विभक्ति से ही पहचानी जाती है। हेडमास्टर साहब ने स्कूल में स्पीच दी। उसमें एक शब्द भी हिन्दी का नहीं आया, लेकिन भाषा हिन्दी है। इस हिन्दी में सर्वनाम नहीं बदलता, क्रियाएँ नहीं बदलतीं। यहाँ तक कि विभक्तियाँ भी नहीं बदलतीं।

भाषा में शब्दों की रचना हमारी आवश्यकता के लिए हुई है। लेकिन अगर यह विश्वास करें कि इन शब्दों की रचना द्वारा साहित्य का निर्माण होगा तो यह बड़ा भ्रम होगा। हमने देखा है कि अच्छे-अच्छे विद्वान् जो हिन्दी में अनुवाद करते हैं, कभी-कभी ऐसे शब्द उठाकर रख देते हैं जिन्हें पढ़कर समझ में नहीं आता कि कौन-सी भाषा है। भाषा की अपनी प्रकृति होती है। हर क्षेत्र में कुछ रचनात्मक प्रतिभाएँ होती हैं जो भाषा को मिलती हैं। वो लोग अपने काम से भाषा की प्रकृति के अनुकूल जो शब्द बनाते हैं, वे गूढ़ शब्द ज्यादा चलने लायक होते हैं। वे गले के नीचे उतरते हैं। उसमें भी बहुत से ऐसे शब्द बना दिये हैं जो कभी चलनेवाले नहीं होते। विश्वम्भर शब्द 'होल्डाल' के लिए बनाया गया है। होल्डाल माने विश्वम्भर। यह शब्द चलन के बाहर है। विश्वम्भर शब्द गूढ़ है, विशेष अर्थ में प्रचलित है। इसीलिए होल्डाल के लिए अनूदित कर 'विश्वम्भर' शब्द बना देने से यह शब्द नहीं चलेगा। भाषा की प्रकृति को जाननेवाला रचनात्मक प्रतिभासम्पन्न कभी इसे लिखेगा ही नहीं। ऐसे बहुत-से शब्द बनाये हैं— जैसे 'कण्ट्रोल' के लिए वशीकरण । वशीकरण निश्चित शब्द है। उसका निश्चित अर्थ है और साधारण जनता भी जानती है कि वशीकरण 'कण्ट्रोल' नहीं है।

भाषा केवल बाह्य अभिव्यक्ति है। आप देखें कि वाक्य कितनी गहराई में है। उससे भाषा को रूप ग्रहण करना चाहिए। केवल कह देने मात्र से, सोचा और कह दिया तो यह बहुत निचले स्तर की भाषा होगी। तुलसीदासजी बोलते हैं तो भाषा उनकी नाभि से निकलती है, न कि मुँह से, जहाँ से कि विस्फोट होती है। वह भाषा अपने-आप रूप ग्रहण करती है। यदि तुम इतनी गहराई में नहीं हो तो तुम्हारी भाषा कमजोर हो जाएगी ।

विद्यानिवासजी मिश्र ठीक कहते हैं कि हम अपनी भाषा को अनुवाद की भाषा नहीं बना सकते। इसका कारण यह है कि हमको हमारी भाषा में अनुवाद का मुहावरा प्राप्त नहीं है। अनुवाद एक कला है। अनुवाद ऐसा होना चाहिए कि पढ़नेवाले को लगे कि हम हिन्दी पढ़ रहे हैं न कि बार-बार यह पूछना पड़े कि अँग्रेजी में यह रहा होगा कि उसका यह अनुवाद किया गया। मुझे बहुत-सी पुस्तकों में भाषा के गूढ़ में जाना पड़ता है। मुझे सोचना पड़ता है कि अमुक शब्द के लिए कौन-सा अँग्रेजी शब्द रहा होगा।

अँग्रेजी भाषा का 'सिण्टेक्स' हिन्दी भाषा के सिण्टेक्स से भिन्न है। अनुवाद का मुहावरा भी विशेष प्रकार की कला है जो गहन अभ्यास से प्राप्त होती है। अन्यथा भाषा कई बार ऐसी हो जाती है जैसे अँग्रेजी का अनुवाद किया गया हो। उससे अँग्रेजी की गन्ध अन्त तक नहीं छूटती। जब लोग बांग्ला से अनुवाद करते हैं तब लगता है वह बांग्ला का छोंक है या बांग्ला की बू है। बहुत बार जो लोग एक शब्द सहन नहीं कर पाते तो उसका कारण उसमें भाषा के बाहरी रूप का होना है।

मैं निराशावादी नहीं हूँ। मुझे विश्वास है कि अच्छे-अच्छे अनुवादक निकलेंगे, अनुवाद के बिना काम कहीं नहीं चल सकता। आप खाली प्रतिज्ञा करके बैठ जाएँ कि अनुवाद नहीं करेंगे तो काम नहीं चलेगा। अनुवाद की जरूरत होगी, हिन्दी किसी समय में विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी तब तो आपको ऐसे अनुवादकों की जरूरत होगी जो हिन्दी की स्पीच को तुरन्त संसार की प्रमुख भाषाओं में अनुवाद करके दे दें। विश्व की प्रमुख भाषाओं को आजकल इस ढंग से विश्लेषित कर रखा गया है कि वे जानते हैं कि यह शब्द कहाँ से शुरू हुआ और उसमें कौन-सा भाव है। क्रिया पहले आएगी या बाद में आएगी, उसके भीतर जो क्लॉज है वह आगे लिया जाएगा या पीछे लिया जाएगा। भाषा की प्रकृति का अध्ययन वे बहुत अच्छी तरह करते हैं। आजकल 'सेमेण्टिक्स' उसका एक अंग बन गया है। उसको बहुत अच्छी तरह से अध्ययन करके उसका बड़ी आसानी से अविलम्ब और अविकल रूप से अनेक भाषाओं में अनुवाद कर सकते हैं पर केवल अनुवाद के चक्कर में पड़ने के कारण शायद हमारी भाषा खड़ी ही नहीं हो पाएगी। इसीलिए कई बार इतनी निराशा हुई कि मुझे अब अनुवाद अच्छा नहीं लगता । हम विद्वानों से कहते हैं कि यह ग्रन्थ अनुवाद करने योग्य है। आप इसको सामने रख लीजिए। इसमें जो कहा है उसे अपने देश की परिस्थिति और अपने विद्यार्थियों एवं उनकी समस्याओं को दृष्टि में रखकर उनको समझाने की दृष्टि से अब अपनी भाषा में कहिए। हमने देखा कि ऐसा प्रयत्न अधिक अच्छा रहता है, क्योंकि वह अँग्रेजी भाषा से बँधा हुआ नहीं होता। ज्यों ही अनुवादक को यह बोध होता है कि वह अँग्रेजी से अनुवाद कर रहा है तो वह कामा, फुलस्टाप और सेमीकोलन का भी अनुवाद करना चाहता है। यह उसकी ईमानदारी अवश्य है। लेकिन अगर ऐसी ईमानदारी हमारे गले पड़ी, जो हमारी समझ में भी न आये तब वह बोझ बन जाती है।

भाषा को हमें स्वतन्त्र, स्वाधीन चिन्तन की भाषा बनाने की आवश्यकता है। दूसरी भाषाओं की जो अच्छी-अच्छी चीजें लिख ली गयी हैं और जो अच्छे ज्ञान की वस्तुएँ उपलब्ध हैं, जब तक उनका अध्ययन नहीं करते तब तक उनका विस्तार नहीं होगा । चित्र के विस्तार हुए बिना जो लिखेंगे, वह मुर्दा चीज होगी। लेकिन इन दोनों ही अवस्थाओं में से हमें मध्यम भाग लेना है। हमें इसका अध्ययन भी करना है। महान् ग्रन्थों को समझना है, हमारी भाषाओं के विचारकों के भावों और अनुभूतियों को आत्मसात् करना है और फिर अपने ढंग से अपनी भाषा को रूप देना है, यही हमारी प्रमुख आवश्यकता है।

यह कठिनाई केवल साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की परिभाषा के लिए नहीं है, हमारी इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी- जैसे विषयों के लिए भी है। साथ ही यह ध्यान रखना है कि इनमें अनपढ़ लोग भी काम करते हैं। उनके लिए आपको वैसी ही भाषा गढ़नी होगी।

साथ ही यह मानकर चलना होगा कि हर अनुशासन में एक ही तरह की भाषा नहीं चलती । न्यायशास्त्र की जो भाषा होगी, वही गद्य-काव्य की भाषा होगी, यह अनिवार्य नहीं है। दोनों अलग-अलग अनुशासन हैं, उनकी भाषा में कुछ अन्तर अवश्य होगा । साधारण मजदूर भी शब्द बनाते हैं। यदि उनका अध्ययन करें तो आप देखेंगे कि कई बार वह हम लोगों से अधिक अच्छी तरह बना लेते हैं। परन्तु वे हमसे जुड़े हुए नहीं हैं। क्योंकि हम अँग्रेजी की समृद्धि से अभिभूत हैं। बाबू श्यामसुन्दरदास कमेटी से सम्बन्धित एक प्रसंग है। इसमें पदार्थ विज्ञान तथा केमिस्ट्री के शब्दों को हिन्दी में अनूदित करने के लिए विज्ञानवेत्ताओं में बहस चल रही थी कि 'पॉजेटिव करेण्ट' और 'निगेटिव करेण्ट' के लिए क्या शब्द बनाये जाएँ। किसी ने धनात्मक, ऋणात्मक नाम सुझाये तो किसी ने सकारात्मक और नकारात्मक आदि। उसी समय उनमें से कोई एक विद्वान्, शायद रामचन्द्र शुक्ल, के मन में आया कि मिस्त्रियों से पूछें कि क्या चीज है। पॉजेटिव करेण्ट, निगेटिव करेण्ट किसे कहते हैं ? तो उन्होंने बताया कि यह ठण्डी बिजली है, यह गरम बिजली निगेटिव को ठण्डी बताया और पॉजेटिव को गरम बताया। इस प्रकार सामान्य जन न जाने कब से अपना काम चला रहे हैं, लेकिन हम देखते हैं कि अब भी धनात्मक ऋणात्मक शब्द चलते हैं। देखना चाहिए कि सामान्य जीवन में उनका चलन है या नहीं। यह आवश्यक नहीं कि हम उन्हें वैसे ही स्वीकार कर लें।

केवल कार्यालयों के लिए ही नहीं, वैज्ञानिक विषयों के लिए भी बड़े-बड़े क्लॉज के अनुवाद करने की जरूरत है। इस तरह बहुत सी समस्याएँ हैं। जैसे-जैसे हम व्यावहारिक क्षेत्र में आते जाते हैं वैसे-वैसे हमको दिखाई देता है। भाषा ठीक हो और विद्यार्थी की समझ में आवे, अन्यथा अल्पशिक्षितों के लिए टेक्निकल शब्द और कठिनाई पैदा करेंगे।

अतः ऐसा साहित्य लिखना होगा जिसमें कि सहज भाषा में ऊँचा विज्ञान और ऊँची से ऊँची टेक्नोलॉजी को समझाया जा सके। उसमें अधिक परिश्रम की आवश्यकता है। जो पाठ्य-पुस्तकें विद्यार्थी की समझ में नहीं आती उन्हें पढ़कर वह सिर धुनकर रह जाता है। भाषा में शब्द पर शब्द बैठाने से भाषा नहीं बनती। उसमें अपना 'फ्लो' होता है। अपनी कुछ जान होती है। उसकी प्राणधारा होती है, उस पर किसी प्रकार का आप दबाव डालेंगे तो भाषा कराह उठेगी। उसको ऐसे खिलवाड़ नहीं बनाया जा सकता । उसकी प्रकृति देखकर उसके साथ व्यवहार करना पड़ता है। उसकी प्राण-शक्ति है। उसको देखते हुए उसमें ऐसे रूपों को बनाना होगा जो ज्यादा से ज्यादा लोगों की समझ में आ सकें। ज्यादा प्रवाहशील हों। शब्द बहुत-से हों लेकिन प्रवाह न हो, ऐसी भाषा बनाना असंगत है। भाषा की अपनी जीवन्तता है, प्रवाह है, उसको हमें रखना होगा, तभी भाषा सही रूप में बनेगी। अच्छे विचारक, विज्ञानवेत्ता और जो ज्ञान के विविध क्षेत्रों में काम करते हैं, वे उन शब्दों पर स्वायत्त करके अपने आप में उसी प्रकार पचाकर भाषा दें जिस प्रकार गाय दूध देती है। वह यह नहीं करती कि जो घास खाये, उसको उगल पहले दे । वह खाद्य वस्तु को पचाती है, बाद में उसको मीठा बनाकर दूध के रूप में देती है। वही जीवन्त वस्तु होती है, और ग्राह्य वस्तु होती है। सबका पालन-पोषण करने योग्य वस्तु होती है । भाषा में इसी बात का ध्यान रखना होगा, लेकिन जब तक यह न हो, तब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रह सकते। हमें प्रयत्न करते रहना होगा। बहुत से शब्द हमें फिर से बनाने पड़ेंगे। जब तक वे व्यवहार में नहीं आते, तब तक हम नहीं कह सकेंगे कि वे चलने योग्य हैं या नहीं। केवल शब्द बना देने से ही काम नहीं चलेगा। उनकी सार्थकता प्रयोग में है। हमने नयी पुस्तक छापी है। आप पढ़ाएँगे ही नहीं तो समझ में कैसे आएगा। पढ़ाइए, तभी हमारी समझ में आएगा। अन्यथा आप शिकायत करेंगे। बहुत-से लोग तो बिना पढ़े और पढ़ाये ही शिकायत करते हैं तो मैं इस वृत्ति को रोकने के पक्ष में हूँ। आप पढ़ाइए, उसमें जो कठिनाइयाँ आपको मालूम पड़ें, आप हमें बताइए । हम सर्वज्ञ तो नहीं हैं, प्रायः हम यह मानकर चलते हैं कि इसे प्रतिभाशाली लोगों ने लिखा है, अतः ठीक होगी। अँग्रेजों ने ही नहीं अनेक जातियों ने अपने सहस्रों शब्द गढ़े हैं। उन्हें कोर्टों तथा विश्वविद्यालयों में रगड़ा है। एक-एक शब्द को घिसा है। वर्षों बहस हुई तब जाकर उन शब्दों ने एक शक्ति अर्जित की और एक निश्चित अर्थ देने की क्षमता प्राप्त की। हिन्दी में ऐसे ही कार्य की अपेक्षा है।

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