भरतनाट्‌यम (कहानी) : शिवमूर्ति

Bharatanatyam (Hindi Story) : Shivmurti

''अभी भी तुझे भिनसार नहीं हुआ है क्या रे?'' बाप का क्रोध और घृणा से चिलचिलाता हुआ स्वर कानों में पड़ता है तो मैं झट से चादर फेंककर उठ बैठता हूँ। बस एक मिनट की देर हो गई। सोच ही रहा था कि अब उठूँ, अब उठूँ। पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ना था। डाँट खाने का यह मौका बचा लेता तो वे कोई और मौका ढूँढ़ निकालते, बल्कि डाँटने का एक चांस खो देने की चिढ़ उन्हें और भी आक्रामक बना जाती। जिसने गाली-फटकार सुनाने की कसम ही खा ली हो, उससे कब तक भागा जा सकता है? उन्हें तो मेरे उठने, बैठने, देखने, चलने, यहाँ तक कि आँखों की पलकें उठाने-गिराने के ढंग तक में खराबी नजर आने लगी है... ''साला, चलता कैसे है, शोहदों की तरह! चलता है तो चलता है, साथ में सारी देह क्यों ऐंठे डालता है, दरिद्रता के लच्छन हैं ये, घोर दरिद्रता के। माँगी भीख भी मिल जाए इस हरामखोर को तो इसकी पेशाब से मूँछ मुँड़ा दूँगा... और देखता कैसे है? शनिचरहा! इसकी पुतली पर शनीचर वास करता है। सोने पर नजर डालेगा तो मिट्‌टी कर देगा। ससुर, जम्हाई ही लेता रहेगा या चारपाई भी छोड़ेगा? देख लेना, यह चारपाई भी दो महीने से ज्यादा नहीं चलेगी।''

मैं झट चारपाई से नीचे उतरकर बिस्तर समेटता हूँ। चारपाई हटाने में जरा-सी देर होते ही वे चीखने लगेंगे, ''तोड़ डाल! धूप में न टूटे तो मिट्‌टी का तेल डालकर फूँक दे।'' अंदर दरवाजे में मेरी पत्नी जाँत चला रही है। शायद काफी देर से लगी है। तीन-चार किलो आटा मेड़री के गिर्द इकट्‌ठा हो गया है। चेहरे पर पसीने की धाराएँ बह रही हैं। ब्लाउज पसीने से तर है और आँचल नीचे सरक गया है। वह सिर उठाकर मुझे देखती है। स्वच्छ, चमकती हुई बड़ी-बड़ी आँखें। उसके स्वस्थ, सुडौल और युवा शरीर को देखकर मेरे मन में कुछ होने लगता है, पर मैं आगे बढ़ जाता हूँ। जब से जाड़ा कुछ कम हुआ, मैंने पत्नी के साथ सोना बंद कर दिया है। ओसारे में अकेले सोने लगा हूँ। जब से पत्नी को तीसरी लड़की पैदा हुई, बाप की बड़बड़ाहट ने लाज और मर्यादा की सारी सीमाएँ तोड़ दीं। एक घंटा दिन रहते ही चरखा शुरू कर देते हैं, ''साला, शाम होते ही मेहरारू की टाँगों में घुस जाता है। चार साल में तीन पिल्लियाँ निकाल दीं। खबरदार! अगर चौथी बार मूस भी पैदा हो गया तो बिना खेत-बारी में हिस्सा दिए अलग कर दूँगा।''

लगातार तीन-तीन बच्चियों को जन्म देने के बाद भी पत्नी की शारीरिक भूख भले ही कम न हुई हो, पर मेरी भूख जरूर कम हो गई है। अब तो हफ्ते-दस दिन में एकाध घंटे का मौका ही काफी है। फिर भी, जाड़े-भर बाप की गालियाँ और ताने सहते हुए मुझे घर में यानी पत्नी के साथ सोना पड़ा था, क्योंकि ओढ़ने की समस्या थी। दोनों बड़ी लड़कियाँ अपनी दादी के पास सोती थीं और हम दोनों के हिस्से में एक रजाई पड़ी थी, जिसमें इस साल एक तीसरा जीव भी हिस्सेदार बन गया था। यद्यपि पत्नी ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी कि बाप के तानों और गालियों की परवाह किए बगैर मैं उसके साथ ही रात में सोता रहूँ किंतु मेरी हया पूरी तरह मरी नहीं थी और जाड़ा कुछ कम होते ही मैंने एक सेकंड-हैंड कंबल खरीदकर ओसारे में सोना शुरू कर दिया था। सोचा था, इससे बाप की गालियाँ कम हो जाएँगी। जी हाँ! बाप ही कहना ठीक लगता है। लगता है 'बाप' नहीं, 'बाघ' कह रहा हूँ। दोनों ही के नाम पर मेरे आगे लाल-लाल आँखें कौंध जाती हैं। 'पिताजी' संबोधन उनके लिए ठीक नहीं बैठता। मेरे खयाल में 'पिताजी' बहुत ही पालतू, सीधा-सादा जीव होता होगा, जो प्राय: शहरों में पाया जाता होगा या फिर प्राइमरी अथवा मिडिल स्कूल का चोटी-धोतीधारी 'गुरुजी' होता होगा।

चारपाई रखकर बाहर आते हुए एक बार फिर पत्नी पर नजर डालता हूँ। उसकी आँखों की चमक सही नहीं जाती। महीनों हो गए हैं उससे सहवास को। उसके असाधारण स्वास्थ्य से अपनी तुलना करने पर हीन भावना उभरती है। सारी उमर किताबों में गुजार दी। थोड़ा भी ध्यान देता तो कम-से-कम देह-मुँह से तो देखने लायक रहता। बाहर मँड़हे में पिताजी बड़बड़ाए जा रहे थे। (चलिए, एकाध बार पिताजी भी कह लेता हूँ।) उनके बड़बड़ाने का तात्पर्य यह था कि बड़ा भाई एक घंटे रात रहते ही खेत में जा चुका है और यह साला डिप्टी कलक्टर की तरह दोपहर को चारपाई तोड़कर उठता है। बीच-बीच में वे माँ के साथ यौन संबंध स्थापित करने की धमकी भी देते जाते हैं। मैं उनकी बातों की परवाह किए बगैर शौच के लिए नहर की तरफ बढ़ जाता हूँ। दिल में कुछ हौल मारने लगता है। मैं लाख बेरोजगार होऊँ, लेकिन पिताजी की तरह बदनाम तो नहीं हूँ, मेरे चरित्र पर कोई उँगली तो नहीं उठा सकता। उनके हमजोली उनके बारे में बताते हैं। बहुत कुछ सुनने को मिलता है। चोरी-चकारी के मामले में ये बदनाम हुए थे। औरतों के पीछे हाथ-पैर ये तुड़वाए थे और आज बूढ़े होने पर मँड़हे में शंकर भगवान, हनुमानजी और काली माई के कैलेंडर टाँगकर, शंख-घंटा बटोरकर, कंठीमाला लटकाकर और चंदन-टीका लगाकर महंत बन गए हैं। मेरी नजर में तो जितनी कुमार्गी और ढोंगी पुरानी पीढ़ी रही है, उसकी चौथाई भी नई पीढ़ी नहीं है। फिर भी लोग नई पीढ़ी को मुफ्त में...

रास्ते में गड़ही के किनारे माँ गोबर पाथ रही है। एक नजर मेरी तरफ डालती है, निर्विकार, निर्लिप्त और फिर सिर नीचा करके हाथ चलाने लगती है। अरसा हो गया माँ से कोई बात किए हुए। जब से मैं सेक्रेटेरिएट की क्लर्की से निकाला गया, उसने बोलना ही बंद कर दिया है। मुझे बड़ी पीड़ा होती है। कभी-कभी तो रोना आ जाता है। अपनी सगी माँ सिर्फ इसलिए मौन साधकर बेटे को जला रही है, क्योंकि उसका बेटा, जिसे उसने पेट काटकर, एक-एक पैसा जोड़कर चौदह वर्ष तक पढ़ाया, बेकार बैठा हुआ है। आशा रही होगी कि उसका पैसा मय सूद के वापस आएगा, लेकिन मूल भी डूबता देखकर वह असहिष्णु और आक्रामक हो उठी है। इसकी अभिव्यकित वह मेरे प्रति मौन व उपेक्षा प्रदर्शित करके तथा मेरी पत्नी के प्रति उसके बाप और भाई से उसका यौन संबंध जोड़कर करती रहती है। उसका विश्वास है कि पहले मैं बड़ा ही लायक और भाग्यवान था, पर जब से मेरी कुलच्छनी पत्नी इस घर में बहू बनकर आई, इस घर में शनीचर की पैठारी हो गई। मैं माँ को बेहद प्यार करता हूँ। पिताजी के अत्याचार और तानाशाही तले वे तिल-तिल करके जली हैं। मेरे पास हजार रुपए होते तो मैं उनके पैरों पर रखकर आज ही मना लेता पर... मुझे देखकर वे अपना हाथ गोबर पर और जोर-जोर से पटकने लगती हैं। लगता है, यह हाथ गोबर पर नहीं, मेरे गालों पर पड़ रहा है - थप्प, थप्प! और मेरे चेहरे पर गोबर छोप उठा है।

नहर में ही स्नान करके मैं वापस आता हूँ। तब तक पिताजी पूजा पर बैठ चुके हैं। पाँच मिनट के हनुमानचालीसा और दो-चार इधर-उधर के दोहे-सोरठों के सहारे वे पता नहीं कैसे दो घंटे काट देते हैं? मैं तार पर अपना गीला जाँघिया डालने लगता हूँ, तभी मेरी बड़ी लड़की आकर बताती है, ''रोटी बन गई है।'' मैं अंदर जाने लगता हूँ तो पिताजी टोकते हैं, ''दूध बच्चों के काम भर का ही होता है। जीभ को कंटरोल में रखने की आदत डालो।'' जब से भैंस बियाई है, शायद ही कभी मैंने अपने मुँह से दूध माँगा हो और बिना माँगे कौन कहे, माँगने पर भी उसके मिलने के कोई लच्छन नहीं हैं। एक बार खाना खाते समय पत्नी ने जाने कैसे एक गिलास दूध लाकर बगल में रख दिया था। मुझे पता नहीं था कि इसे वह भाभी और माँ की चोरी से दे रही है, लेकिन आखिरकार भाभी ने उसे देख ही लिया था। इसकी सूचना उन्होंने तुरंत माँ को दी थी। माँ ने आकर गिलास तो नहीं छीना, लेकिन झुककर, ऐन अच्छी तरह गिलास में झाँककर उन्होंने तसल्ली कर ली थी कि भाभी का अभियोग राई-रत्ती सच था। मुझे इतना मलाल हुआ कि दिल में आया, दूध का गिलास उठाकर आँगन में फेंक दूँ। निश्चय ही यह माँ और भाभी के मुँह पर तमाचा मारने जैसी बात होती, पर मैं भी क्या कम घटिया हूँ! पावभर दूध का लालच कर गया था। और उसके बाद पत्नी को हफ्तों नहीं, महीनों भाभी और माँ के ताने सुनने पड़े थे - 'साँड़ बनाना चाहती है भतार को। तीन-तीन बेटियाँ बियाने के बाद भी गर्मी कम नहीं हुई है, पलटन तैयार करने की कसम खाकर आई है मायके से। इस हरजाई की कोख में लड़का फल सकता है भला!''... पर मेरी पत्नी अब भी कभी-कभी मौका पाकर, सबके लेट जाने के बाद रात में गरम दूध का गिलास मुझे दे जाती है। इसमें सहज स्नेह कम और एक निहित स्वार्थ अधिक होता है। विचित्र स्वार्थ!

सबको पता है कि भैंस दोनों जून में मिलाकर पाँच सेर दूध देती है, जिसमें से एक तोला भी बेचा नहीं जाता। बेचने की जरूरत भी नहीं है। खेती में कम-से-कम इतना तो पैदा हो ही जाता है कि पूरे परिवार के खाने-पीने के लिए पर्याप्त हो सके। बच्चों की जरूरत का हवाला देना भी बेमानी है, क्योंकि इस घर में सिर्फ भाभीजी के दोनों लड़कों को ही यह छूट है कि वे जब जितना चाहें दूध पी सकते हैं। मेरी बच्चियों को खाना खाते समय जो मिल गया, सो मिल गया।

कपड़े-लत्ते देने के मामले में भी यही पक्षपात होता है... और बच्चों में भी कोई अवचेतन शक्ति अवश्य निहित होती है, जिससे वे बिना बताए आसपास के वातावरण की अनुकूलता-प्रतिकूलता का अनुमान लगा लेते हैं। मैंने कई बार देखा है, जब अमर और विनोद आँगन में दूध पी रहे होते हैं, मेरी बच्चियाँ भाभीजी के गिर्द खड़ी होकर चुपचाप हसरत-भरी नजरों से खाली होते गिलासों को टुकुर-टुकुर ताकती रहती हैं, पर कभी भूलकर भी हठ नहीं करतीं कि वे भी अमर और विनोद की तरह दूध पीएँगी। उनमें इतनी दीनता कहाँ से आ गई? उनमें बाल-सुलभ जिद क्यों नहीं है? जन्म लेते ही इतनी प्रौढ़ता कैसे आ गई? ज्यादा दिनों की बात नहीं हुई, मैं ताखे पर कोई किताब ढूँढ़ रहा था, अमर और विनोद दूध पीने के बाद जूठा गिलास आँगन में रखकर बाहर निकल गए थे, तभी मेरी ढाई साल की मँझली लड़की डरी-डरी-सी चौकन्नी नजरों से आसपास देखती हुई आँगन में आई और एक गिलास उठाकर मुँह से लगा लिया, पर गिलास में सिर्फ फेन शेष था, जिसे उसने उँगली से चाटना शुरू कर दिया। उसके चेहरे पर गहराया हुआ आत्मतोष उभर रहा था, तभी बाहर से हरहराती हुई भाभी आँगन में आईं। गुस्से से पैर पटकती हुई बाहर जाकर दोनों लड़कों को पीटने लगीं, ''हरामजादो! पीना नहीं होता तो पूरा गिलास क्यों भरा लेते हो? कंजड़ियों को पिलाने के लिए?''

रसोई में जाकर पीढ़े पर बैठ जाता हूँ। भाभी मुझे देखते ही किसी काल्पनिक व्यक्ति या परिस्थिति के विरुद्ध भुनभुनाने लगती हैं। सिंकी हुई रोटी को कठौते में इतनी जोर से पटकती हैं, जैसे कठौता कठौता न हो, सात दुश्मनों का सिर हो। मैं जानता हूँ, भाभी की कल्पना का यह सिर मेरे अलावा किसी और का नहीं हो सकता। उनके चेहरे पर गुस्सा है। भाभी के चुचके चेहरे पर गुस्सा आता है तो उनकी कुरूपता और भी बढ़ जाती है। बचपन में डाइन या चुड़ैल की जो कल्पना करता था, भाभी उसी का साक्षात प्रतिरूप नजर आती हैं। शायद यह गुस्सा खाना बनाते-बनाते तंग आ जाने के कारण है। कोई और कार्य होता तो अब तक यह कभी का मेरी पत्नी के जिम्मे पड़ चुका होता। लेकिन भंडार का मामला। इसकी चाभी सौंपने का मतलब है, पूरी गृहस्थी का चार्ज सौंप देना, जो संभव नहीं है। भाभी एक थाली में कुछ रोटियाँ और शाम का बना साग रखकर मेरे आगे सरका देती हैं। ठंडे साग को गरम कर दिया होता तो एकाध रोटी और खाई जा सकती थी।

बगल की कोठरी में पत्नी बड़ी लड़की को डाँट रही है। मैंने कभी इन लड़कियों पर अपना प्यार प्रकट नहीं किया। सच तो यह है कि चौबीस साल की उम्र में तीन बच्चों का बाप हो गया हूँ, यह सोचकर ही रोना आता है। दिल में आता है, मँड़हे में पूजा कर रहे बाप का शंख-घड़ियाल उठाकर गड़ही में फेंक दूँ। आखिर क्या अधिकार था उन्हें पाँच साल की उम्र में मेरी शादी करने का? कभी-कभार पत्नी के सामने अपनी नसबंदी कराने का प्रस्ताव रखता हूँ तो वह इतनी गमगीन हो जाती है, जैसे मैं उसका गला काटने का प्रस्ताव रख रहा होऊँ। मेरी कमर के गिर्द लिपटी उसकी बाँहें सुन्न पड़ जाती हैं। उसकी नजर में बैल बधिया करना और आदमी की नसबंदी करना एक ही बात है।

उसे कितनी बार समझा चुका हूँ कि दोनों में बहुत फर्क है। नसबंदी के बाद भी सब कुछ पहले जैसा ही होगा, सिर्फ बच्चे नहीं होंगे। वह आश्वस्त नहीं होती और पलटकर दूसरा तर्क करती है, ''कोई लड़का तो होना चहिए, बेटियों से क्या होगा?'' यह तर्क मुझे भी वजनदार लगता है, लेकिन लड़का आएगा कब? वह कहती है, ''क्या पता इस बार...'' क्या घर, बाहर, हर जगह मैं फालतू माना जाने लगा हूँ। मेरी बेटियाँ मुझे ''बाबू' (पिताजी) कहकर नहीं बुलातीं। बड़े भाई साहब को वे 'बाबू' कहती हैं, क्योंकि बाजार से कोई चीज लाने पर वे घर के सभी बच्चों में उसे बराबर-बराबर बाँट देते हैं। इस उदारता के लिए उन्हें भाभी जी का प्रबल बिरोध सहना पड़ता है, पर उन्हें कोई कुछ कहे, परवाह नहीं। सबेरे खेतों में जाते हैं तो एक घंटा रात बीते ही वापस आते हैं। दोपहरी खेत में गड़े माचे पर ही काट देते हैं। कभी किसी फसल की रखवाली का समय हुआ तो दो-चार रातें भी माचे पर ही कट जाती हैं। हद दर्जे के शांत और मितभाषी। कभी किसी बात पर मेरी उनसे तकरार हुई हो, याद नहीँ पड़ता। मैं घर से पूरी तरह विरक्त नहीं हो गया हूँ, इसके पीछे उनकी भलमनसाहत का बहुत बड़ा हाथ है। इतने लंबे-चौड़े डील-डौल वाले भाई साहब की यह परमहंसी मुद्रा आश्चर्य में डाल देती है।

मैं आँगन में बैठकर हाथ-मुँह धोने लगता हूँ। तभी रुक-रुककर रोती हुई बड़ी बेटी, पत्नी के हाथ का भरपूर झापड़ खाकर चिल्लाते हुए एक हाथ में तख्ती-बस्ता और दूसरे हाथ में मिट्‌टी की दवात पकड़े बाहर की ओर भागती है। मैं बिना उसका कोई नोटिस लिए मुँह पोंछता हुआ पत्नी की कोठरी में घुस जाता हूँ। शायद मैं एकांत चाहता भी था। पत्नी अपना बक्सा खोलकर उसके सामने बैठी है। कुछ निकाल अथवा रख रही है। मुझे देखकर खड़ी हो जाती है। मौन, बड़ी-बड़ी आँखों से ताकने लगती है। जितनी उसकी जबान चुप है, आँखें उतनी ही मुखर। कुछ गुस्सा या खीज है, फिर भी कितनी स्निग्ध, कितनी आकर्षक! दिल में प्यार उमड़ पड़ता है। आगे बढ़कर बाहुपाश में घेर लेता हूँ। वह पिघल जाती है। सिर मेरी छाती से टिका देती है। नतसिर। उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछता हूँ, ''शहर जा रहा हूँ, कुछ मँगाना है?''

''बेटी के लिए किताब लेते आइएगा।''

''और! अपने लिए कुछ?''

''मेरे लिए क्या!'' वह अलग हो जाती है।

मैं पिताजी के पीछे-पीछे मँड़हे में घुसते हुए कहता हूँ, ''लाइए!'' पिताजी मुड़कर मेरी तरफ भरपूर नजरों से घूरते हैं। फिर टेंट से रुपए की थैली निकालने लगते हैं। उनकी नजर सामने कुएँ पर लगी है, जहाँ माँ पानी भर रही है। पिताजी नोट गिनते हैं - पूरे एक हजार। जब माँ बाल्टी लेकर कुएँ से चल पड़ती है तो नोटों को मेरे हाथ में रखते हैं और हाथ जोड़कर कहते हैं, ''इसके बाद भी अगर मेरा पिंड छोड़ दोगे तो समझूँगा, तुमने गयाजी में मेरा जीते-जी पिंडदान कर दिया।'' मैं बिना कुछ बोले रुपए लेकर चल पड़ता हूँ। पीछे से पिताजी हिदायत देते हैं, ''वाजिब जगह पर खर्च करने से चूकना नहीं। दलाल को हर तरह से खुश कर लेना।''

रास्ते में माँ मिलती है, भरी हुई बाल्टी लेकर, माथे पर ताजा सिंदूर लगाए हुए। मुझे टोकती है, ''जा रहे हो?'' इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि माँ मेरे प्रति सहज हो गई है। यह टोकना, माथे में सिंदूर लगाकर रास्ते में पानी से भरी बाल्टी लेकर मिलना, सब पिताजी द्वारा जुटाए गए सगुन हैं, मेरी यात्रा सफल बनाने के लिए। पिताजी ने इसी तरह मेरी जाने कितनी यात्राएँ सफल बनाने के लिए सगुन का इंतजाम किया है, लेकिन...

खेतों को पार करके सड़क पर आ जाता हूँ और टैक्सी या बस की राह देखते हुए बस-अड्डे की तरफ बढ़ता हूँ। आज मैं अपने नाम से सस्ते गल्ले की दुकान का लाइसेंस लेने शहर जा रहा हूँ। सारा काम हो चुका है, सिर्फ अफसर के दस्तखत होने बाकी हैं, लेकिन इसी जरा-से काम के लिए बीस-इक्कीस दिन से दौड़-दौड़कर शहर जाना पड़ रहा है। अब जाकर समझ में आया है कि मैं अपनी ही गलती से परेशान हो रहा हूँ, दलाल ने मुझ पर तरस खाकर समझाया था, ''मुफ्त में दस्तखत नहीं होते, मिस्टर! माना कि तुम अनइम्प्लायड ग्रेजुएट हो। तुम्हें प्रेफरेंस मिलना चाहिए, लेकिन इसी लाइसेंस के लिए समुझ बनिया डेढ़ हजार देने को तैयार है। साहब निरबंसिया तो हैं नहीं। अभी दो बहनों की शादी करनी है... बुरा न मानना। नाम तुम्हारा जरूर ज्ञान है, लेकिन अकल-ज्ञान का सारा रास्ता तुमने बंद कर रखा है।''

ठीक कहा था दलाल ने। मेरे ज्ञान के रास्ते सचमुच बंद हैं। वह आठ सौ पर उतर आया था, लेकिन मुझे वे भी अधिक लगे थे। आज मिलने का वादा करके लौट आया था। पिताजी को बताया तो लगे गालियाँ देने, ''तुम्हें कभी अकल आ ही नहीं सकती ससुर के नाती। इस तरह के बिचकई सबको नसीब होते हैं? गदहे को भी चौदह साल पढ़ाया जाता तो आदमी बन जाता, लेकिन तू...''

मुझे अपनी गलती समझ में आ गई है। आज गलती नहीं करूँगा। बस या टैक्सी मिलने की उम्मीद न देखकर मैं इक्का पकड़ता हूँ। धूप खुलकर निकल आई है। रबी की फसल कट गई है और सड़क के दोनों तरफ वीरान खेत फैले हैं। गेहूँ की पीली खूँटियों-से पीले, महत्वाकांक्षाहीन! मेरे मन की तरह रीते और उदास!

''गुरुजी, नमस्कार!'' हाथ प्रत्युत्तर में जुड़ गए हैं, जी जुड़ा गया है। लड़कों का साइकिल पर शहर से लौटता हुआ झुंड! पहचान लेता हूँ। अपने पढ़ाए हुए लड़कों को कौन नहीं पहचानेगा! तीन-चार साल पहले जो चेहरे यतीमी लगते थे, शहर की हवा लगते ही चिकना गए हैं। जाते-जाते एक लड़का चिल्लाकर सूचित करता है, ''पंडितजी सस्पेंड हैं, गुरुजी!'' पंडितजी यानी प्रिंसिपल साहब। सस्पेंड! जरूर कोई रुपए-पैसे का मामला होगा। पूरे विद्यालय को पता था कि मेरी प्रिंसिपल साहब से नहीं पटती। लड़के ने यह सूचना निश्चय ही मुझे खुशखबरी के तौर पर दी है।

मेरा मन अतीत में लौट जाना चाहता है। ग्रेजुएट होने के बाद साल-भर भटकने पर भी मैं कहीं खप न सका तो घर वालों का धीरज छूटने लगा था। पिताजी आए दिन समझाते (गालियाँ देना तब शुरू नहीं किया था) कि इस तरह बेकार घूमना बेइज्जती की बात है... और जब मेरे प्रयासों से निराश हो गए तो स्वयं 'स्थानीय प्राइवेट हाई स्कूल' के मैनेजर-अध्यक्ष आदि के पीछे-पीछे घूमने लगे। आखिरकार मैं गणित अध्यापक हो गया। दस्तखत करने वाली तनख्वाह डेढ़ सौ और मिलने वाली पचहत्तर रुपए। 'मिलने वाली' से पाँच रुपए प्रतिमाह अनिवार्य रूप से बिल्डिंग फंड में कट जाते थे।

पिताजी को बहुत खुशी हुई थी। रिश्तेदारों तथा पड़ोसियों को महीनों घेर-घेरकर बताते रहे थे कि ''देर से ही सही, लड़के को उसकी पढ़ाई-लिखाई के लिहाज से अच्छी जगह मिल गई। तनख्वाह घट ही सही, लेकिन आगे बढ़ने का 'चानस' है। बी.एड. कर ले तो प्रिंसिपल तक हो सकता है।'' तनख्वाह मिलती कितनी है, इसे वे बड़ी सफाई से गोल कर जाते थे। कोई बहुत कुरेदता तो तनिक अप्रकृतस्थ होकर कहते, ''दाल रोटी भर को मिल ही जाता है। और क्या रुपया गाड़कर रखना है? असल चीज है विद्यादान।''

पर यह विद्यादान मैं अधिक दिनों तक नहीं कर सका। डेढ़ सौ पर दस्तखत करके सत्तर रुपए लेना अंदरूनी मामला था। इंटरवल में मैनेजर और अध्यक्ष के बेटे-बेटियों को निःशुल्क ट्‌यूशन पढ़ाना तथा आठ पीरियड में से एक का भी 'वैकेंट' न रहना भी बहुत बुरा नहीं लगता था पर कुछ ऐसी स्थितियाँ भी आती थीं, जिन्हें झेल पाना असह्य हो उठता था। मैनेजर या अध्यक्ष के घर कोई उत्सव होता तो स्कूल के अध्यापकों को वहाँ व्यवस्था सँभालने के लिए पहुँचना होता था। वहाँ आए आगंतुकों में से कोई यह जानना पसंद नहीं करता था कि आप एक हाई स्कूल के तथाकथित सम्मानित गुरुजन हैं। वैसे हर अध्यापक अपनी तरफ से यह प्रयास करता था कि उसकी स्थिति वहाँ काम कर रहे मजदूरों-कहारों से एक डिग्री ऊपर, उन पर निगरानी कर रहे सुपरवाइजरों जैसी मानी जाए, पर इस प्रयास में वे प्राय: असफल रहते थे। ऐसे मौकों पर विद्यालय के बच्चे भी दर्शक अथवा आमंत्रित के रूप में उपस्थित रहते थे। वे प्रत्येक क्रिया-कलाप और संवाद गौर से देखते-सुनते तथा अपने भाग्यविधाताओं के भाग्य के पेंदे तक पहुँच जाते थे। छठी-सातवीं कक्षा के बच्चे भी अच्छी तरह समझने लगे कि हम सब किराए के टट्‌टू हैं। उसमें भी कोढ़ में खाज हो गई थी, स्कूल के मास्टरों की पार्टीबंदी। सवर्ण और निचली जातियों के आधार पर दो गुट बन गए थे। निम्नवर्ग वाले अपने-आपको 'दलित पैंथर्स' के ग्रुप का मनाते थे और चूँकि 'दलित' शब्द से उन्हें एलर्जी थी तथा 'दलित' जितना दलित मानने में थोड़ा अपमान-सा भी लगता था, इसलिए 'दलित' की बजाय 'एंग्री' शब्द का इस्तेमाल करते थे। टीचर्स रूम की बहसों में खुलकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछाला जाता। हरिजन मास्टर साहब तर्क करने में अद्वितीय थे। जाने कहाँ से सामग्री इकट्‌ठी कर और लियोनार्ड बूली, मैक्समूलर, गिल्गमेश, ओल्ड टेस्टामंट, हिब्रू, ऊर, मीडियन, जरथुष्ट्र आदि शब्दों का भयंकर प्रयोग करके अंत में यह सिद्ध कर देते थे कि मूल ब्राह्मण जाति तो कब की विलुप्त हो चुकी है। भारत के मौजूदा ब्राह्मण तो सिकंदर के साथ यूनान से आए भिश्तियों की औलाद हैं।

इसके प्रत्युत्तर में मिश्रा जी मूँछों में मंद-मंद मुस्कराते हुए तर्क देते कि कायदे से तो हरिजन मास्टर साहब 'दलित पैंथर्स' के सदस्य ही नहीं हो सकते। क्योंकि यद्यपि उस समय तक उनका (मिश्रा जी का) जन्म नहीं हो सका था पर परवर्ती सूचनाओं से यह सिद्ध होता है कि हरिजन मास्टर साहब का जन्म उनके पिता की मृत्यु के पूरे एक साल-भर बाद हुआ था। तुलसीदास आदि के जन्म का हवाला देने के बावजूद हरिजन मास्टर साहब की यह बात मानने के लिए कोई तैयार नहीं होता था कि पैदा होने में वे थोड़ा लेट हो गए थे। मिश्रा जी के इस तर्क का उनके पास कोई जवाब नहीं बन पाता था कि जो आदमी स्कूल में छह घंटे नहीं टिक पाता, वह वहाँ बारह महीने कैसे टिका रह गया? इम्पासिबल।

फिर तो महाभारत ही शुरू हो जाता।

और तब अपने ऑफिस से निकलते प्रिंसिपल साहब! उनका ऑफिस कहीं दूर नहीं था। रेवेन्यू रेकार्ड में बीस फुट लंबा दालाननुमा जो कमरा पंचायत-घर के रूप में दर्ज था, उसी के चौदह फुट के हिस्से को टीचर्स रूम और पाँच फुट के हिस्से को प्रिंसिपल ऑफिस बना दिया गया था। बीच में एक फुट मोटी और साढ़े तीन फुट ऊँची कच्ची ईंटों की दीवार। बीच के दरवाजे में कोई पर्दा या किवाड़ नहीं था। सिर्फ मानसिक अलगाव किया गया था। और एक तरफ की हर गतिविधि का अवलोकन दूसरी तरफ खड़े होकर ही नहीं, लेटे-लेटे भी सुविधापूर्वक किया जा सकता था। प्रिंसिपल ऑफिस में या तो एक चारपाई पड़ सकती थी या एक कुर्सी-मेज। प्रिंसिपल साहब ने चारपाई को वरीयता दी थी।

प्रिंसिपल साहब इसलिए नहीं निकलते थे कि दोनों गुटों में सुलह करा दें। उन्हें तो मजबूरन निकलना पड़ता था, क्योंकि शोर के कारण उनका पोस्ते के छिलके का नशा फिसलने लगता था। उनकी दशा 'चकित चकत्ता चौंकि-चौंकि उठै बार-बार' वाली हो जाती थी। कुछ देर तक वे प्रिंसिपल ऑफिस और टीचर्स रूम के संधि-द्वार पर खड़े रहते। एक-एक चेहरे को बारी-बारी से घूरते। फिर खँखारकर थूकते। तब तक लोग बनावटी लिहाज से शांत होने लगते। वे वापस जाकर फिर औंधे मुँह चारपाई पर गिर पड़ते। हरिजन मास्टर साहब बताते थे कि जब प्रिंसिपल साहब इस औंधी मुद्रा में पड़े होते हैं तो उनके मुँह से प्रति घंटे सौ से दो सौ ग्राम तक राल निकलकर तकिये में जज्ब होती रहती है। यही कारण है कि गर्मी में तकिया तर रहता है, और ठंडक पहुँचाता है।

उस समय तक 'सिद्धांत' शब्द से मेरा मोह टूटा नहीं था। अन्य मास्टर लोग भी अपने आपको कम सिद्धांतवादी नहीं मानते थे। अंतर यह था कि जहाँ और लोग सिद्धांत को 'शोकेस' में रखते थे, मैं कभी-कभी उसका 'रफ यूज' करने लगता था। जिस घटना के कारण मुझे विद्यालय छोड़ना पड़ा, उस समय भी यही हुआ था। घटना सत्रावसान के दिन की है। विद्यालय में छठे, सातवें और नौवें दर्जे का रिजल्ट सुनाया जा चुका था। कुछ स्पेशल केस से संबंधित लड़के, जिनमें कुछ दो-चार नंबरों से फेल हो रहे थे और कुछ, जो निर्धारित गुरु-दक्षिणा की रकम अभी तक नहीं दे सके थे, रोक लिए गए थे। प्रिंसिपल साहब देर तक उन्हें उनके सीरियस केस के बारे में और गुरु-दक्षिणा की महिमा के बारे में समझाते रहे थे कि वे नहीं चाहते कि उनके हाथों किसी का भविष्य अंधकारमय हो जाए। उनके तो जीवन का मंत्र ही है - तमसो मा ज्योतिर्गमय, लेकिन छात्रों को भी गुरु का ध्यान रखना होगा। वे कोई उँगली-अँगूठा तो माँग नहीं रहे हैं...

सारी गुरु दक्षिणा वसूलते और हिसाब-किताब करते शाम के चार बज गए। कुल सात सौ बयालीस रुपए चढ़े थे, जैसा कि प्रिंसिपल साहब ने घोषित किया, किंतु 'एंग्री पैंथर्स' के सदस्यों ने आरोप लगाया कि घोषित राशि मूल राशि से काफी कम है, किंतु गुरु-दक्षिणा के लिए वहाँ कोई कमेटी गठित नहीं थी, इसलिए काफी बकझक के बाद घोषित राशि ही मूल राशि मान ली गई। तब प्रिंसिपल साहब ने घोषणा की कि इसमें से बयालीस रुपए वे संयुक्त हिंदू परिवार की प्राचीन परंपरा के अनुसार ज्येष्ठांश के रूप में अपने पास रख लेते हैं। शेष सात सौ रुपए बाँटने के लिए उन्होंने मुझे आमंत्रित किया। मैंने दोपहर में एक लड़के को कहते सुन लिया था, ''साले, इसी 'पास कराई' वाले रुपए से एकाध कुर्ता-पैजामा बनवा लेंगे। फिर उसी को साल भर रेतेंगे।'' मेरा मुँह कड़वा हो चुका था। अत: मैंने घोषणा कर दी, ''चूँकि अधिकांश रुपया जबरदस्ती वसूला गया है और इसमें से तिरस्कार और अपमान की बू आ रही है, इसलिए यह रुपया मैं छुऊँगा भी नहीं, हिस्सा लेना तो दूर रहा।''

मेरी घोषणा से प्रिंसिपल साहब की मुद्रा परमहंसी हो गई। उन्होंने कोई दुख नहीं प्रकट किया। खुशी हुई होगी तो उसे भी दबा गए। धीर भाव से नोटों को नाक तक ले जाकर सूँघा, आश्वस्त हुए कि कोई बू नहीं आ रही है और घोषणा की कि ऐसी स्थिति में त्यागी गई इस समस्त राशि पर श्रेष्ठ ब्राह्मण का हक होता है। अत: उनके हिस्से का रुपया मैं लेता हूँ।

इस घोषणा से शेष ब्राह्मण, एंग्री पैंथर्स और अन्य सवर्ण सभी भड़क उठे। आरोप-प्रत्यारोप के मध्य चाक-डस्टर फेंके जाने लगे। जो दो-चार लड़के अभी तक विद्यालय में रुके हुए थे, वे खिड़की के रास्ते कंकर-पत्थर सप्लाई करके गुरुजनों की मदद करने लगे। कुहराम मच गया।

दूसरे दिन प्रचार हो गया कि गुरु दक्षिणा का रुपया हड़पने का प्रयास करने के फलस्वरूप अध्यापकों ने मेरी जमकर पिटाई की है और लोगों ने अध्यापकों को आचार-संहिता बताना शुरू कर दिया।

जून में जब मैनेजमेंट की मीटिंग में मुझसे इस संबंध में स्पष्टीकरण माँगा गया तो मैंने उत्तर में इस्तीफा भेज दिया।

पिताजी को मेरे इस्तीफे का पता चला तो लगे गालियाँ देने, ''साला, लाट साहब बनना चाहता है। दाने-दाने को न तरस गया तो कहना!'' गालियों के प्रति मैं बचपन से ही उदासीन था। गाली से ज्यादा तरजीह पीटे जाने को देता रहा हूँ, जिसकी संभावना अब नहीं के बराबर थी।

शहर पहुँचकर इक्का रुकता है तो मेरी तंद्रा टूटती है। मैं उतरकर सप्लाई ऑफिस पहुँचता हूँ। दलाल गोपीचंद प्रांगण में ही मिल जाता है। मेरी नमस्ते का बड़ी उदासीनता से जवाब देता है, लेकिन जब कोने में ले जाकर मैं उसे आठ सौ रुपए देता हूँ तो उसकी उदासीनता गायब हो जाती है। वह हरकत में आ जाता है। मुझे ले जाकर जबरदस्ती चाय पिलाता है और फिर बाहर प्रतीक्षा करने को कहकर दफ्तर के अंदर चला जाता है। मैं एक खाली बेंच पर पसर जाता हूँ। आँखों में पुराने दृश्य घूमने लगते हैं।

मास्टरी छोड़ने के बाद घर में मेरी रही-सही साख भी समाप्त हो गई थी। हर सदस्य मुझसे पहले से अधिक दूर हो गया। पिताजी ने साबुन, तेल, स्याही और कागज तक का पैसा देना बंद कर दिया। मुझे अपने कपड़े साबुन की बजाय रेह से धोने पड़ते। दर्जा आठ तक तो मैं वैसे ही रेह से कपड़े धोता रहा था, लेकिन ग्रेजुएट हो जाने के बाद भी आठ आने का साबुन न खरीद पाने की मजबूरी मुझे कभी-कभी अंदर से तोड़ने लगती। कमीज मेरे पास, जब से मैंने कमीज पहनना सीखा, तब से हमेशा एक ही रही है। पहले तो कभी-कभी ऐसा भी होता था कि पुरानी कमीज के पूरी तरह फट जाने और नई कमीज के सिलकर तैयार होने के बीच तीन-चार दिन का अंतर पड़ जाता था। ये तीन-चार दिन बिना कमीज के ही निकल जाते थे। बनियान को हमेशा कमीज के बराबर का दर्जा मिलता आया था और एक ही साथ कमीज और बनियान दोनों पहनकर फाड़ने की मूर्खता हमारे यहाँ आज भी कोई नहीं करता। हाँ, डिग्री कालेज में नाम लिखाने तक हवाई चप्पल पहनने की आदत पड़ गई थी। इन दिनों जबकि पुरानी चप्पल के टूटे पट्‌टे बार-बार सिलवाते-सिलवाते सड़ गए थे और जेब में एक भी पैसा नहीं था। नंगे पैर पोस्ट-ऑफिस अथवा बाजार जाने में कुछ झेंप लगने लगी थी। यद्यपि इस झेंप के लिए कभी-कभी मैं स्वयं को कोसता भी था। मुझे कभी-कभी लगता कि ये सारे अभाव मुझे जबरदस्ती महानता की तरफ ढकेलकर ले जा रहे हैं। मैं महान लोगों की जीवनी पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते हिसाब लगाता कि इनमें से कितने लोग मेरी तरह गाँव में पैदा हुए थे और कितनों का बचपन अभाव में बीता था तो यह संख्या काफी अधिक होती। तब मेरा हृदय नई आशा और विश्वास से भर जाता। ऐसे समय जबकि मैं मानसिक रूप से व्यग्र रहता, पत्नी से सहवास को भी व्याकुल रहता। पत्नी मेरी मुफलिसी से पूरी-पूरी असंतुष्ट थी, फिर भी बिना किसी खास एतराज के खुद को मेरे लिए प्रस्तुत करती रहती थी, लेकिन जब-जब मेरी नजर उसके फटे और मैले-कुचैले कपड़ो पर पड़ती, मैं अपराध-बोध से गड़ जाता। उसे चुपचाप भाभीजी के ताने सुनते देखता तो लगता, पूरे घर को अभी, इसी वक्त आग लगा दूँ। माँ का रुख उस समय तक इतना आक्रामक नहीं हुआ था, न उसके प्रति, न मेरे प्रति, लेकिन धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता की अनिवार्यता मेरी समझ में आने लगी थी।

इसी बीच इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अध्ययनरत मेरा एक दोस्त एक दिन 'क्लर्क्स ग्रेड परीक्षा' का आवेदन-पत्र लेकर आया। वह ओवरएज हो चुका था। मुझसे कहा कि भरना चाहूँ तो भर दूँ, फीस वह दे देगा। मैंने फार्म भर दिया। बाद में कई जगह और कई माध्यमों से पूछताछ करने पर यू.पी.एस.सी. तथा प्रांतीय लोक सेवा आयोग के कार्यों और उद्देश्यों के संबंध में जानकारी प्राप्त हुई। यह मेरी ही नहीं, मेरी तरह उन हजारों-हजार ग्रामीण स्नातकों की नियति है, जो बिना शहर का मुँह देखे, जंगल या गाँव के बाजार में स्थित डिग्री कालेजों में डिग्री प्राप्त करते हैं। आगे की कड़ी के रूप में वे केवल बी.एड., एल.टी. या एल-एल.बी. का नाम ही जान पाते हैं। शिक्षा और रोजगार के बीच की कड़ी यू.पी.एस.सी. के बारे में जानकारी देने वाला वहाँ कोई नहीं है।

मैंने परीक्षा दी और चुन लिया गया। सालों बाद ज्वाइनिंग लेटर मिला तो लगा, राजगद्दी का परवाना आया है। सोचा था, किसी को भी नहीं बताऊँगा। बहुत तंग किया है घर वालों ने। चुपचाप बिना बताए इनकी दुनिया से दूर चला जाऊँगा, लेकिन जब से पोस्टमैन रजिस्ट्री दे गया, पिताजी ने पूछते-पूछते कान बहरे कर दिए, ''ससुरा बताता भी नहीं कि कैसा कागज-पत्तर है? कुछ बोले भी कि कहाँ से आया है, क्या लिखा है?''

मैंने बताया तो उनका मुँह खुशी से खुला-का-खुला रह गया। पान की पीक दाढ़ी तक बह निकली। संक्षेप में उन्होंने उस नौकरी में मिलने वाली तनख्वाह, काम के प्रकार (अर्थात कलम पकड़नी पड़ेगी या कुदाल) तथा ऊपरी आमदनी के बारे में पूछा ओर सिर पर पगड़ी लपेटकर गाँव वालों को खबर देने निकल गए। मैं पलक झपकते सबका दुलारा हो गया। होनहार हो गया। माँ ने अपने हाथ से परोसकर खाना खिलाया। भाभी ने खाने के साथ दूध का गिलास देकर और पत्नी ने रात में सारे शरीर की मालिश करके और बीसों उँगलियाँ चटकाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। उस रात उसने मेरी कमर को इतने जोर से अपनी भुजाओं में कसकर दबाया था कि याद करने पर आज भी दर्द होने लगता है। बड़े भैया ने यद्यपि अपनी खुशी का कोई स्थूल प्रमाण नहीं दिया, लेकिन उस रात माचे से उनके गाने की आवाज बहुत देर तक आती रही थी।

पिताजी को कोई न मिलता तो अपने आप ही बड़बड़ाते, ''बचपन से ही इसके राजयोग थे। अयोध्याजी के पंडा महाराज ने हाथ देखते ही कहा था, लड़का ओहदेदार होगा। स्कूल का मुँह नहीं देखा था, तभी पूरा 'हनुमानचालीसा' जबानी याद कर लिया था... छटाँक-छटाँक देशी घी दाल में डालकर पिलाया है जी। गाँव में और किसी लड़के को सरकार ने रजिस्ट्री भेजकर बुलाया कभी! राजकाज चलाना सबके वश की बात नहीं होती।''

जाते समय पिताजी ने महीने-भर के खर्च के लिए चार सौ रुपए दिए थे। दो सूती कमीजें और पैंट सिला दिया था। माँ ने अचार, सत्तू, देशी घी, चबेना, गुड़, आलू-प्याज आदि बाँध दिया था। बड़े भैया वह सारा गट्‌ठर ढोकर बस-अड्डे तक लाए थे। बड़े खुश थे, पर पैर नहीं छूने दिया। सिर्फ इतना कहा था, ''चिट्‌ठी जल्दी देना।'' और मैं बड़े हौसले से केंद्रीय सचिवालय की नौकरी के लिए दिल्ली चल पड़ा था।

सचिवालय की दुनिया में आने के बाद मैंने पहली बार महसूस किया कि गाँव को मैं कितना प्यार करता हूँ। गाँव मेरे रोम-रोम में बस गया है, यह गाँव छोड़ने के बाद जाना। मुझे दफ्तर में भी गाँव के ताल, भीटें, बाग, ऊसर-बंजर, ढकुलाही, बँसवारी और रुसहनी की याद सताती, जैसे जंगली तोता पिंजडे़ में बंद हो गया हो। मैं अपने गाँव के एक ग्वाले के साथ उसके मालिक के तबेले में रहता था। शाम को वह दूध देने निकल जाता तो मैं कभी-कभी रोने लगता।

जैसे-जैसे मैं अपने शहरी सहयोगियों से घुसला-मिलता गया, मुझे उनसे विरक्ति होती गई। सचिवालय मुझे ऐसा चिड़ियाघर नजर आता, जहाँ एक ही किस्म की चिड़ियाँ कैद की गई हों, जिन्हें चेहरे से पहचानना संभव न हो। मैं इन लोगों को चेहरे से नहीं, बल्कि इनके कपड़ों से पहचानता था। लोग गाँव के लोगों को कूपमंडूक कहते हैं, पर मुझे तो अपने दफ्तर में भी कम कूपमंडूक नजर नहीं आए। दिल्ली में रहते हुए भी उनमें से अधिकांश ने कभी कुतुब मीनार, राजघाट या शांतिवन नहीं देखा था। सबकी दुनिया नितांत सीमित थी, दफ्तर और परिवार, बीच में कुछ नहीं। कोई गाजियाबाद से भागता आता तो कोई शाहदरा और सोनीपत से। महीने के मध्य से ही उधार माँगने का क्रम शुरू हो जाता। बहुतों को तो यह भी नहीं पता था कि चने का पेड़ बड़ा होता है या अरहर का।

अनुशासन और व्यवस्था के नाम पर सब अपने बॉस के हाथ की कठपुतली बने रहते थे। जिसको वह अपने केबिन में बुलवाता, उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती। अंदर घुसने से पहले अंदर के वातावरण की गंध पाने के लिए चपरासी को बीड़ी आफर करने लगता। बॉस का बात-व्यवहार का तरीका था भी बहुत भयावह। यहाँ बॉस की गुडबुक में होना इस बात पर निर्भर नहीं था कि आप कितने हार्ड-वर्कर हैं बल्कि इस बात पर कि आप कितनी चापलूसी कर लेते हैं, उससे कितना ज्यादा डरते और कितनी कम बातें करते हैं। उसके जायज-नजायज गुस्से को कितनी सहजता से 'सुखे-दुःखे समे कृत्या' के भाव से सिर झुकाकर स्वीकार करते हैं।

शुरू-शुरू में तो मुझे यह चाटुकारिता और अकारण भय-प्रदर्शन निहायत नागवार लगा, किंतु धीरे-धीरे समझौतावादी होने की कोशिश करने लगा। झूठ-मूठ भय-प्रदर्शन तो कोई मेरा गला काटने पर उतारू हो, तब भी नहीं कर सकता। हाँ, एक-दो बार छोटी-मोटी भेंट लेकर बॉस के बँगले पर जरूर गया। मुझे उम्मीद थी कि अपने अंत:करण की आवाज के विरुद्ध की जाने वाली इस नीचता से मेरे मन में जो मलाल आया है, उसे बॉस अपनी स्वागत मुसकान से दूर कर देगा। संबंध नार्मल हो जाएँगे, लेकिन बॉस तो मेरी उपस्थिति में भी मेरी बजाय अपने कुत्ते से बात करने में रुचि लेता था। मुझसे कभी बोलता भी तो यही कि अभी तुम्हारा काम संतोषजनक नहीं है। मत भूलो कि तुम प्रोबेशन पर हो और तुम्हारी नौकरी मेरे रिमार्क पर निर्भर है। मुझे लगता कि यह तो साफ-साफ धमकी दे रहा है, अकारण। कुत्ते की तरह पूँछ हिलाने पर उतारू भी हुआ तो उसका यह नतीजा। मन खट्‌टा हो गया। बॉस के बँगले पर जाना ही बंद कर दिया। वह इंतजार करता रहा कि मेरा रवैया सुधरेगा, लेकिन कुत्ते की पूँछ भी कभी सीधी हुई है! एक दिन किसी मामूली भूल पर उसने मुझे अपने केबिन में बुलाकर जोर से डाँट दिया। मैंने चुप रहने का निश्चय किया था, लेकिन बॉस ने इसे मेरी कायरता समझा और कुछ ऐसा भाव प्रदर्शित करने लगा कि अगर मैं केबिन से निकलकर तुरंत ही भाग नहीं गया तो वह जूते उतारकर मुझे पीटना शुरू कर देगा। मैं इस हद तक सह सकने के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर सका, इसलिए जब गुस्से में जूते पटकता हुआ वह मेरे मुँह के पास अपना मुँह लाकर चिल्लाया, 'गेट आ-उ-ट...' तो मेरे अंदर सोया गँवार भड़क उठा। मैंने उसकी तोता-टाइप नाक पर कसकर एक घूँसा जमाया... भच्च! तल-तल करके उसके नाक-मुँह से खून बहने लगा। वह चिल्लाया। लोग इकट्‌ठा हो गए... और एक लंबी पूछताछ और स्पष्टीकरणों की औपचारिकता के बाद मुझे एक महीने का अग्रिम वेतन देकर नौकरी से निकाल दिया गया।

घर वाले मेरे आकस्मिक आगमन पर किंचित चकित हुए और फिर स्वागत में जुट गए। माँ ने शिकायत की कि दुबला हो गया हूँ। भाभी ने खीर खिलाई। बड़ी बेटी ने सौ तक गिनती सुनाई। गाँव में घूमने निकला तो गाँव की औरतें किंचित संभ्रम, किंचित कुतूहल और किंचित आदर का पुट देकर कानाफूसी करने लगीं, ''दिल्ली में नौकरी पाई है गौरमिंट के दफ्तर में।'' रात में पत्नी ने नौ बजते-बजते ही काम समाप्त करके कोठरी में सेज सजा दी और दिलोजान से समर्पित हुई। चरम बिंदु पर पहुँचते-पहुँचते उसने किंचित लाज और मान-भरे स्वर में कहा, ''इस बार मुझे भी ले चलिए अपने साथ। कब तक यहाँ सड़ूँगी। आज तक मैंने कभी शहर नहीं देखा है।'' मैं रस-भंग नहीं करना चाहता था। चुंबनों की बौछार से उसका मुँह बंद कर दिया।

हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि पिताजी को सारी बातें बताऊँ। लेकिन पिताजी की नजरें तो गीध से भी तेज हैं। दूसरे दिन से ही पूछने लगे, ''कितने दिन की छुट्टी लेकर आए हो?'' तीसरे दिन मैंने शाम को खेतों में भाई साहब को डरते-डरते सारी बात बता दी। उनके चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं आया। उन्होंने कहा, ''मैं चना उखाड़कर लाता हूँ, तुम माचे से माचिस लाओ तो होरहा भूना जाए।''

चौथे दिन ही घर, पड़ोस और फिर पूरे गाँव की नजरों में नालायक हो गया। औरतें परस्पर बातें करने लगीं, ''गौरमिंट ने निकाल बाहर किया। कहा, चसमा-ठोंका लगाने वाला लड़का नहीं चाहिए। क्या पता, कब पूरा आन्हर हो जाए।'' पिताजी ने बिना एक दिन की भी मोहलत दिए गालियाँ देना शुरू कर दिया, ''मेहरा, साला! आवारा, लोफर! जोरू के बगैर नहीं रह सकता था तो मैंने कौन उसे गिरवी रख लिया था। ले जाता साथ में बनरी नचाने के लिए उसे भी।'' और अंत में, गाली देते हुए भविष्यवाणी की थी, ''साले तराई में गुह गोड़ोगे और चमाइन फाँसोगे। आखिर हो तो मेरे ही बेटे।'' सच, यह जानकर कि उन्हीं का बेटा हूँ, बड़ी राहत मिली थी। स्कूल की मास्टरी छोड़ी थी तो इन्होंने घोषणा कर दी थी कि मैं इनका बेटा हो ही नहीं सकता, क्योंकि इनका बेटा इतना बुद्धू नहीं हो सकता। आज की घोषणा से सारा मलाल मिट गया। वैसे असली बाप का या हरामी का बेटा होने की बात मेरी नजर में कोई खास अहमियत नहीं रखती। दुनिया में आना ही था। इनकी कोशिश से आते या किसी और की!

पिताजी हमेशा दो मुँहे साँप रहे हैं। उनका एक मुँह खुलता, जब आस-पास कोई पराया नहीं होता। उस मुँह से वे लगातार मेरी बुराई करते। दूसरा मुँह खुलता, जब पास में कोई परिचित या रिश्तेदार बैठा होता। यह मुँह मेरी बुराइयों को इतनी खूबी से अच्छाइयों में परिवर्तित कर देता कि सुनकर खुद मुझे आश्चर्य होता, ''मैं तो भई बस, एक बात जानता हूँ। जान जाए तो जाए, शान न जाने पाए। मेरे बेटे ने वही प्रत्यक्ष करके दिखा दिया। क्या नाम... वह इसका साहब ससुर। जाति का बनिया था। उसकी डाँट-डपट तो मेरा बेटा सहने से रहा। दे दिया कसकर एक लात पेट में। फच्च-से मुँह से खून फेंक दिया। तीन दिन तक अस्पताल में होश ही नहीं आ रहा था। यह इस्तीफा देने लगा तो उस साहब के ऊपर वाले साहब ने कहा, 'तुम रहो ज्ञान, मैं इस साहब को ही निकाल बाहर करता हूँ' लेकिन मेरे बेटे ने भी चालीस सेर का जवाब दिया, 'इसको निकालोगे तो इसके बच्चे भूखों मर जाएँगे साहब! मेरा क्या, गाँव में मूँछ ऐंठकर खेती करूँगा और भाले में तेल लगाकर घूमूँगा।' फिर विषय की गंभीरता को थोड़ा हल्का करने के लिए पश्चात्ताप-भरे स्वर में कहते, ''ससुरा, शहर में जाकर मूँछें साफ कर आया, यही बेजा किया। शहर में रहकर तो आदमी सचमुच हिजड़ा बन जाता है। अच्छा ही हुआ...'' लेकिन उस बाहरी आदमी के हटते ही वह मुँह बंद हो जाता और अकेला होते ही वे फिर गालियाँ देना शुरू कर देते।

आज सोचता हूँ तो पश्चात्ताप होता है अपनी करनी पर, लेकिन गुस्सा आता है उन शिक्षाशास्त्रियों पर, जो आज भी स्कूलों-कालेजों में महाराणा प्रताप, शिवाजी, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और नेताजी को पढ़ाते हैं, बच्चे के कच्चे मन पर राणा और आजाद की नुकीली मूँछें और गज-भर की छाती, भगतसिंह का टोप और नेताजी की सैनिक छवि इतनी गहराई तक घुस जाती है कि प्रौढ़ होने पर आज के गर्हित यथार्थ जीवन के साथ स्वयं को समायोजित करने के दौरान उसे भीषण मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ता है। कभी-कभी तो इसी कशमकश में वह मेरी तरह टूट जाता है। माना कि समाज को बदलना कठिन है, पर टेक्स्ट बुक्स को बदलना तो मुश्किल नहीं! क्यों नहीं आज के बच्चों को ब्रूटस, कार्नेलिया, जयचंद, विभीषण, आंभि आदि सामंतयुगीन चारणों तथा अन्य विश्वासघातियों, अवसरवादियों और चाटुकारों के चरित्र पढ़ाए जाते, जो उनके यथार्थ जीवन की समस्याओं को हल करने में सहायक हो सकें? यथार्थ को बदलना कठिन है, लेकिन आदर्श बदलने में क्या लगता है!

दिल्ली में काटे गए चंद महीनों तथा घर में मिलने वाले तिरस्कार ने पैसे के प्रति मेरा दृष्टिकोण बदल दिया। मैंने निश्चय किया कि मुझे पैसा कमाना है। कई योजनाएँ तथा फ्राड दिमाग में आते रहे, जाते रहे। संयोग से इसी बीच गाँव के पुराने सस्ते गल्ले के लाइसेंसी का लाइसेंस रद्द हुआ तो पिताजी ने मुझसे भी अप्लाई करवा दिया।

लगा कि कोई जोर-जोर से झिंझोड़ रहा है। आँख खुली तो सामने गोपीचंद खड़ा था। लाइसेन्स का पेपर देते हुए बोला, ''नए हो, इसलिए साफ-साफ बता रहा हूँ। अकेले चीनी के ब्लैक में ही हर महीने तीन हजार की बचत है। मौके पर 'नामा' ही काम आता है। किसी दिन साहब से जाकर 'परसनली' मिल लो। सारी बात साफ-साफ रहे तो ठीक रहता है। अपने इलाके के दरोगा, बी.डी.ओ. तथा और भी जो दो-चार मुँहलगे कुत्ते हों, उन्हें दो-चार किलो देकर पटाए रहो, बस! सीधी-सी बात है, जिसके काटने का डर हो, उसका मुँह बंद कर दो। साला काटेगा किधर से? ...साल-भर में बिल्डिंग खड़ी हो जाएगी।''

वह उठता है तो मैं भी उठकर बाहर की तरफ चल पड़ता हूँ। बहुत ठोकर खाने के बाद आज किनारा मिला है। आदर्शवाद के चलते अब तक जीवन के हर क्षेत्र में 'मिसफिट' होता रहा हूँ। अब जाकर अक्ल आई है रास्ते पर। मैं पैर की ठोकर मारकर सारे आदर्शवाद को चूर-चूर कर देना चाहता हूँ... बिल्डिंग! साल-भर में! मुझे अभी से अपने कच्चे मकान की जगह तिमंजिली बिल्डिंग नजर आने लगी है - पीली-पीली! बालकनी में शायद मेरी पत्नी खड़ी है...

पत्नी की याद आते ही उसकी बड़ी-बड़ी आँखें याद आती हैं। सुबह चलते समय पूछा था, ''क्या-क्या मँगाना है शहर से अपने लिए?'' तो बोली थी, ''मेरे लिए क्या?'' आजकल वह ऐसे ही बोलती है। एक समय वह भी था, जब नई-नई ब्याह कर आई थी तो रात में बड़ी महत्वपूर्ण जगह से मेरा हाथ हटाते हुए शिकायत करती थी, ''प्यार इतना जताते हो, लेकिन एक चोली (ब्रेजियर) तक लाकर नहीं दे सकते।'' पर मैं भी ऐसा बेहया था कि सालों तक फरमाइश सुनने के बाद भी उसे एक चोली लाकर नहीं दे सका। उसे फुसलाने के लिए तर्क करता कि चोली की जरूरत उन्हें होती है जिनकी छातियाँ लत्ता होकर लटकने लगती हैं। तुम्हें उसकी क्या जरूरत है? मेरी प्रशंसा गलत नहीं है। तीन-तीन बच्चे होने के बावजूद आज भी उसके स्तन तनिक भी श्रीहीन अथवा नतमुख नहीं हुए हैं। कभी-कभी तो उसके और अपने स्वास्थ्य की तुलना से मुझे खुद शर्म-सी आने लगती है। वह तो इस अंतर को अब जरूरत से ज्यादा महत्व देने लगी है। उसके अनुसार तीनों की तीनों लड़कियाँ होने का एकमात्र जिम्मेदार मेरा उससे उन्नीस स्वास्थ्य है। इस मामले में उसका गणित एकदम सीधा है। उसके अनुसार यदि पति तगड़ा है तो लड़का होगा, पत्नी तगड़ी है तो लड़की। इसे वह भाई साहब का उदाहरण देकर बखूबी सिद्ध कर देती है। मुझे चोरी से दूध पिलाने का उद्देश्य भी यही है कि अधिक स्वस्थ होकर मैं उसे एक बेटा दे सकूँ। मैं उसे एक्स और वाई क्रोमोसोम्स तथा एक्स क्रोमोसोम के तेईसवें जोड़े के बारे में बताना चाहता हूँ तो वह समझती है कि मैं बेवकूफ बना रहा हूँ। बेटा पैदा करके घर भर की नजरों में चढ़ जाने की उसकी कामना इतनी तीव्र है, इसका पता मुझे कभी न लगता, अगर उस दिन...

उस दिन माँ और पिताजी गंगास्नान के लिए गए हुए थे। भाभी एक हफ्ते पहले भाई साहब से लड़कर मायके चली गई थीं। मैं इसी लाइसेंस के चक्कर में शहर जाने निकला तो दस बजने वाले थे। उस समय भाई साहब मँड़हे में बैठे खाँची बुन रहे थे। दो घंटे तक अड्डे पर सवारी का इंतजार करने के बाद दिल में पता नहीं क्या आया कि मैं वापस लौट पड़ा। दरअसल आज घर सूना पाकर मैं उन्मुक्त होकर पत्नी को पा लेना चाहता था। महीनों बाहर सोने के कारण शरीर सुस्त और भारी हो रहा था। उम्मीद थी कि अब तक भाई साहब खा-पीकर खेत पर चले गए होंगे। सूना आँगन होगा, बंद किवाड़। इतना निरापद एकांत कभी-कभी ही मिलता है। जाते समय मैंने पत्नी की आँखों में एक खास चमक देखी थी, जैसे शिकार पर नजर जमाए बिल्ली की आँखों में उतर आती है, नीली-नीली! सज-सँवर भी रही थी सवेरे से ही। शायद चार-छह दिन पहले ही ऋतुमती हुई थी। मैं बेताब होने लगा।

मँड़हे में खाँची अधूरी पड़ी थी। भाई साहब नहीं थे, आश्वस्त हुआ। एडवेंचर का आनंद लेते हुए आहिस्ते-आहिस्ते आँगन में जाकर पत्नी की कोठरी के बंद किवाड़ों के आगे खड़ा हो गया और सोचने लगा कि किस तरह उसे चौंकाऊँ, तभी किवाड़ खुले और भाई साहब पसीना पोंछते हुए बाहर निकले। मुझे सामने पाकर हतप्रभ हुए और आँख चुराकर बगल से बाहर निकल गए। कोठरी के अंदर से बाहर आते हुए मेरी पत्नी की नजर मुझ पर पड़ी तो वह पथरा गई। मैंने स्पष्ट देखा, उसके गालों पर और अधरों के नीचे दाँत काटने के निशान थे। कपड़े अस्त-व्यस्त थे। साँस तेज थी। देखते-देखते मुझे उसकी आँखों का पानी बदलता नजर आया। अब वह मुझे घूर रही थी। मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे क्या करना चाहिए। मैं बाहर निकल गया और रात देर तक परती खेतों में टहलता रहा। कई दिनों बाद पत्नी ने स्वीकार किया, ''उनकी कोई गलती नहीं है। मैं ही उनका हाथ पकड़कर मँड़हे से लिवा लाई थी, बेटा पाने के लिए।''

इस तरह के छिटपुट यौन संबंधों को मैं गंभीरता से नहीं लेता। इसे मेरा दमित पुंसत्व कहिए या लिबरल आउटलुक। मैं पाप-पुण्य, जायज-नाजायज, पवित्र-अपवित्र और सतीत्व-असतीत्व के मानदंडों से भी सहमत नहीं हूँ। माँगकर रोटी खा ली या कामतुष्टि पा ली, एक ही बात है। प्राचीन काल की नियोग प्रथा को मैं आज के युग में भी उतना ही उपयोगी मानता हूँ। मैं भयभीत हुआ था तो सिर्फ इस बात से कि इन दिनों मैं जिस हताशा और निपट एकाकीपन की अँधेरी गुफा में फँसा हूँ, वहाँ पत्नी ही एकमात्र ऐसा आलंब है, जिसके आँचल में मुँह छिपा लेने पर घड़ी-दो घड़ी सुकून मिल जाता है। यह आलंब भी छूट गया तो झेल नहीं पाऊँगा। पैर उखड़ जाएँगे और मैं डूब जाऊँगा।

दो सौ रुपए जेब में हैं। मैं बाजार से पत्नी के लिए दो ब्रेजियर, नायलान के दो ब्लाउज, पाउडर और क्रीम की डिबिया,. रिबन, साबुन, लिपस्टिक, नेलपालिश, हेयर आयल और एक साड़ी खरीदता हूँ। बेटी की 'प्रवेशिका' और 'पहाड़ा' लेता हूँ। एक डिब्बे में मिठाई बँधवाता हूँ और इक्का पकड़कर वापस लौट पड़ता हूँ। सारे रास्ते निश्चय करता आता हूँ कि आदर्शवाद का मैल अपने मन से रगड़-रगड़कर छुड़ा दूँगा। हर महीने तीन-चौथाई चीनी ब्लैक करूँगा और पत्नी को गहनों तथा कपड़ों से लाद दूँगा। कदर पाने के लिए कदर करनी होगी। आज तक उसने शहर नहीं देखा, सनीमा नहीं देखा, रेलगाड़ी पर नहीं चढ़ी, उसका पायल टूटा पड़ा है, फोंकी की कील नहीं है, सब कुछ बनवाऊँगा, सब कुछ पहनाऊँगा। सब कुछ दिखाऊँगा।

अड्डे पर इक्के से उतरकर आगे बढ़ता हूँ। तभी कोई नाम लेकर पुकारता है। गाँव के टीड़ी सिंह हैं। मैं राम-राम करता हूँ। वे लाइसेंस के बारे में पूछते हैं। मैं बताता हूँ, ''मिल गया।'' वे मेरे गले से लग जाते हैं, ''बस, आज तो बिना पिए छोड़ नहीं सकता। ऐसा मौका फिर कब मिलेगा?'' वे मुझे जबर्दस्ती 'देशी' के ठेके के अंदर खींच ले जाते हैं। मैंने आज तक कभी शराब नहीं पी, पर आज दिल कह रहा है - देख भी लूँ, कैसी लगती है? पहला घूँट अंदर जाता है तो मुँह कड़वा हो जाता है, कै हो जाएगी, पर नहीं, कै नहीं होने दूँगा। आज इसकी तासीर देखूँगा।

थोड़ी ही देर में मुझे उसका असर स्पष्ट होने लगता है। मैं ठेकेदार से एक पौवा और लेकर पैंट की जेब में डाल लेता हूँ - आज रात पत्नी को भी पिलाऊँगा, अपने हाथ से। टीड़ी सिंह दुकान में अंदर ही बेंच पर पसर गए हैं। मैं घर की तरफ चल पड़ता हूँ।

मँड़हे में जलती हुई लालटेन दूर से ही दिखाई देती है। पिताजी संध्या कर रहे होंगे। पिताजी की याद आते ही गुस्सा आने लगता है। मैं यहाँ से चिल्लाकर बता देना चाहता हूँ कि आज से मेरी चारपाई पत्नी की कोठरी में बिछेगी। उसे अपने हाथों दुल्हन की तरह सजाऊँगा और कल शहर ले जाकर एक ग्रुप फोटो खिंचवाऊँगा। चार-पाच साल से साथ है, लेकिन अभी तक उसकी एक फोटो तक मेरे पास नहीं है।

ऐं, मेरे घर के सामने इतनी भीड़ क्यों है? कौन हैं ये लोग? कुएँ के गौंखे में जल रही ढिबरी की रोशनी से दीवार पर उनकी लहीम-सहीम परछाइयाँ रेंग रही हैं। नजदीक पहुँचने पर खुसर-पुसर की आवाज सुनाई पड़ती है। मैं आतंकित होता हूँ। तभी कोई औरत आगे आकर बताती है, ''तेरी मेहरारू तो भाग गई कलकत्ता, खलील दर्जी के साथ।''

ऐं! सरूर गायब। पूर्ण चैतन्य। आखों में खलील का छोटी-छोटी दाढ़ी वाला बलिष्ठ चेहरा और पत्नी का सबेरे खुला हुआ बक्सा घूम जाता है। अभी तक कभी ध्यान ही नहीं गया। खलील का आवागमन इधर काफी बढ़ गया था। पहले ब्लाउज-फ्राक की नाप लेने कभी-कभी आता था, पर इधर तो पिताजी को गाँजा पिलाने के बहाने लगभग रोज ही आगे लगा था। आज पता चला कि उसका असली मकसद क्या था।

मुझे देखकर लोग अतिरिक्त रूप से उत्साहित हो गए हैं। वे इस उम्मीद में हैं कि अब मैं कुछ बोलूँगा, कुछ करूँगा। उन्हें कुछ अप्रत्याशित देखने और सुनने को मिलेगा। मुझे चुप देखकर उन लोगों का धीरज जवाब देता जा रहा है।

मैं मँड़हे में घुसता हूँ। पिताजी रौद्र रूप में बैठे हैं। मैं बताता हूँ, ''लाइसेंस मिल गया।'' लेकिन वे कुछ सुनने के लिए नहीं, कुछ कहने के लिए बेताब हो रहे हैं।'' दाँत पीसते हुए कहते हैं, ''क्यों रे कुत्ते! नाक कटवा ली न!''

'अब कुछ होगा' की संभावना से लोग मँड़हे को घेर लेते हैं, ''नाक है आपके?'' मैं पिताजी की आँखों में आँखें डालकर निर्भय और शांत प्रश्न करता हूँ।

''नाक नहीं है रे मेरे! मेरे नाक नहीं है!'' वे चौंचियाते हुए लपककर मेरे मुँह पर झापड़ मारते हैं। देर से ही सही, लेकिन कुछ शुरू तो हुआ, लोगों को तसल्ली होती है।

''पता नहीं, मेरे तो नहीं है।''

''हिजड़े, जनखे! बूत नहीं था तो मुझसे कहा होता। मुझे भी नामर्द समझ लिया था क्या?''

पहली बार पिताजी के आगे चीखता हूँ, ''मैंने आपको मना किया था क्या?'' वे बुझ जाते हैं पस्त! शांत!

मैं बाहर निकलकर खेत में गड़े माचे की तरफ बढ़ने लगता हूँ। भाई साहब लोगों से अपने-अपने घर जाने का अनुरोध कर रहे हैं। लोग खिसक रहे हैं, निराश मन! क्या कुछ देखने की उम्मीद लेकर आए थे, लेकिन... मैं माचे पर लेट जाता हूँ... चली गई, चलो, जहाँ भी रहे, सुखी रहे... लेकिन भागना ही था तो एक दिन पहले भाग जाती। मैं टूटने से बच जाता... घूस देने से... पथभ्रष्ट होने से... पता मालूम होता तो ये ब्रेजियर,. ब्लाउज वगैरह पार्सल कर देता... लिखता कि बेटा होने पर खबर करे। मैं खिलौने लेकर आऊँगा।

हवा कुछ ठंडी और तेज है। नींद नहीं आ रही है। दूर कहीं सियार रो रहे हैं... खेत से पके हुए खरबूजों की गंध आ रही है। कई दिनों से सोच रहा था। आज फुरसत मिली है। भरपेट खरबूजे खाऊँगा।

मैं माचे से उतरकर खरबूजे के खेत की तरफ चल पड़ता हूँ... ऐं! पैर लड़खड़ा क्यों रहे हैं?... शरीर इतना हल्का-हल्का-सा क्यों लग रहा है? विचार अस्त-व्यस्त क्यों हैं?... आदमी में पागलपन की शुरुआत कैसे होती होगी?... मेरे कपड़े क्या हुए?... मैं नंगा कैसे हो गया?

मैं खेत के बीचो-बीच खड़ा हूँ। कुछ गाने का दिल कर रहा है... इस भरी दुनिया में कोई भी... बेटियाँ तीन हैं, बेटे का सहारा न हुआ...

न...न...न...! सिर्फ गाने से काम नहीं चलने का। और मैं खरबूजे के खेत में भरतनाट्यम शुरू कर देता हूँ।

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