भरत मुनि (गुजराती कहानी) : रजनी कुमार पंड्या

Bharat Muni (Gujrati Story) : Rajnikumar Pandya

मोहनपुरा से गांव मे डाक्टर अर्थात् परमात्मा। भला डाक्टर के सामने कौन बोले? पर एक व्यक्ति बोला- कारण जिस रोगी को वह लेकर आया था, उस रोगी से किसी तरह का लगाव ही नहीं था, इससे यदि सामने बोलने से डाक्टर नाराज भी हो तो, इसको उससे क्या? ऐसा उसका विचार, सोच।

‘अरर’ डाक्टर ने रोगी को देखकर उस व्यक्ति, भागीरथ गिरी को इतना ही कहा था। ‘इतना अधिक डी हाईड्रेसन होने पर तू अब इस बच्ची को वहां लेकर आया है? कुछ जल्दी आता।’ इतना कहकर वे बच्ची की जांच पड़ताल करने लगे। रोगी कौन था? एक मात्र डेढ़ माह की बालिका। तोला तो मात्र ढ़ाई पौण्ड। हथेली में लेकर यदि मुट्ठी बंद करे तो हथेली में कोई मानव अंश हो ऐसा कहना संभव नहीं। भागीरथ गिरि ने तनिक व्यथित होकर कहा ‘कहा छोकरी ने तो मात्र दो ही दिनों में मेरी प्रतिष्ठा को धूल-घूसरित कर दी। यह किसी शैतान की औलाद है। मेरा तो खून ही पी गई। जल्दी मरती भी तो नहीं। दुर्भाग्यनी!’

यह सुन कर डा. त्रिवेदी चौके और ऊपर देखकर बोले ‘ऐसा मत बोलो! क्या व्यर्थ है?’ क्या वह आपकी नहीं है?’

‘भला मुझ बाबा के क्या कोई बच्चा होगा?’ भागीरथ गिरि के चेहरे पर उदासी छा गई। ‘यह तो उस सोम ने मुझे पालन पोषण को सौंपी है। उसके यहां इस छठी कलमुही ने जन्म लिया है। इस बार उसे पुत्र रत्न पैदा होने की आशा थी। पर आई यह अपशकुनी! ‘पर यह तेरे पास कैसे?’

‘सोमचंद भीरू है। इसे मारने का साहस नहीं जुटा सका। अन्यथा इस जीव का तो क्या? इसकी हड्डी, पसली तक का पता ही नहीं लगता! पर सोमचंद महा मूर्ख है, पागल है। इस छठी के प्रसूति के समय उसकी पली ही चल बसी। अब, बेटे के लिए ही पुनः शादी करने को लालायित है। वंश चलाने वाला तो होना ही चाहिए। अतः मुझे पांच सौ रुपया मासिक देने को कह कर, बालिका का पालन पोषण करने को मेरे पास छोड़ गया। मैंने मेरे यहां घर का करगे आने वाली बाई द्वारा बालिका को बड़ी करने की, पालन पोषण करने की आशा से हाँ भी भर ली। पर आज चार सप्ताह ही नहीं हुए कि इस खूनचूसू बालिका ने रौद्र रूप दिखाया। इसे उल्टी दस्त हो गए। अब, आपसे यदि संभव हो तो उपचार करे अन्यथा भाड़ में जाए।’

कर्म चंडालनी, कलमुंही, जंतु, बाली, खूनपीऊ, दुर्भाग्यनी... आदि मन ही मन अनेक गालियाँ याद की तो डाक्टर के मन में एक गहरी तरार पड़ गई। मात्र डेढ़ ही माह के अबोध जीव (प्राणी) को पाँच ही मिनट मे कई गालियाँ सुननी पड़ी थी। भाग्य की कैसी विडम्बना! पर नहीं, गालियाँ देने वाले ने गालियाँ। परन्तु उस पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वह या तो सतत हाथ पैर पीट उछल रही थी या उस पर भारी हाथ पड़ा रहता था। इंजेक्शन लगते ही शरीर को सिकोड़ लेती। कारण उसमे अभी प्राण थे और गाली बरसाने वाले इसके माता-पिता ने इसे अंदर नहीं रखा था। उसे तो अनगिनत जन्मों के बाद यह जन्म मिला था।

डाक्टर की आँखों में कुछ नमी देख कर बावा बोला ‘मुझे उलहाना देने की अपेक्षा यदि दवा ही आती है तो.......' तन्द्रा से जागते हुए डाक्टर ने आँखें उठा कर कहा ‘तो क्या?’

‘तो, इसे आप ही रख ले?’ बाबा बोला, मेरी रक्खे बला! वैसे, डाक्टर साहब बात कहना बड़ा आसान होता है पर काम करना बहुत मुश्किल होता है। आप का कोई

लड़का नहीं है इसलिए! वैसे भी बांझ प्रसव की पीड़ा को क्या समझे?

यह एक क्षण उत्तर देने का क्षण, बिजली सी गिरी थी। डाक्टर के अन्तस में एक प्रकाश हुआ और दूसरे ही क्षण गर्जना होने लगी और इसके साथ ही शब्द गूंजे ‘जा रख ली।’ उसके स्वर में कुछ गर्मी आ गई। अब तू जा आज से बाबा को सपने में भी ऐसी कल्पना नहीं थी। कुछ क्षण तो यह मानने में नहीं आए की तरह वह डॉक्टर को देखा ही रहा। पर डाक्टर ने बेबी को टेबुल से उठा कर गोद में ले लिया और फिर दृढ़ता से कहा, ‘यह आज से मेरी पुत्री है। तू, अब जा। यदि सोमचंद पूछेगा तो मैं उसे समझा दूंगा।’

बाबा तो पहले से ही भागने की जल्दी में था। अतः वह भला क्यों कर ठहरता। वह तुरंत सियार की तरह सीढ़िया उतर गया और जाते-जाते बालिका की ओर देखकर उसे ताना कसा ‘मेरा क्या? मेरी तो बला टली’ बाबा के जाने के बाद डाक्टर ‘बला’ की सेवा करने में तल्लीन हो गए अतः ये बाबा की बात तुरंत नहीं समझ सके। पर फिर सोचा। क्या यह व्यर्थ में गले पड़ी बला है? शादी हुए वर्षों हो गए। विवाह से पहले डाक्टर कट्टर गाँधीवादी थे। अतः शादी से पहले ही स्पष्ट कह दिया कि बच्चे के लिए कोई आग्रह नहीं होगा। मुझे आजीवन ब्रह्मचारी रहना है। माता-पिता की इच्छा की सन्तुष्टि के लिए ही विवाह कर रहा हूँ। अतः तुझे बाद में अन्याय नही लगे इसीलिए पहले ही स्पष्ट कह रहा हूँ। अतः यदि मेरी शर्त मान्य हो तो विवाह कर अन्यथा मेरा कोई दबाव नहीं है। ऐसी स्पष्ट बात सुनकर भी, यह संभव न होने पर भी नारी ने यह स्वीकार किया। संभवतः मन में होगा कि पुरुष है पतित होने मे क्या समय लगता है? तदुपरांत यह डाक्टर है अतः शरीर के हर धर्म के मर्मज्ञ है। तदुपरांत सब समझा दूंगी, पर यह मनसबूबा मन का मन मे रह गया। उसने जो सोचा वह कभी भी पूरा नहीं हुआ डाक्टर, इस तरह कभी नहीं ‘समझे’ पर पत्नी ‘समझ गई’ पत्नी को डाक्टर का रंग चढ़ा। घर बाल विहिन होने पर भी कभी अतिथि विहीन नही रहा। डॉक्टर की सेवा भावना, राजकीय प्रवृति और विस्तृत मित्र मंडली के कारण कभी घर में एकाकीपन, एकांत की अनुभूति नहीं हुई।

पर अब बात अलग ही थी। डाक्टर जब बच्ची को पत्नी के पास लेकर गए तो सोचा कि पत्नी मजाक उड़ायेगी। आप तो कहते रहे हैं कि आपको बालक नहीं चाहिए तो फिर... पर ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरित पत्नी की आंखों से अमृत बरसा। उसने बालिका को तुरंत अत्यन्त प्रसन्न होकर लिया और उसको चूमा और फिर उसको साफ सुथरा करके कहीं से मंगवाए पालने में सुला कर जब पहला झोटा दिया तो एकदम एक नए अवतार की अनुभूति हुई। हँसते हुए उसने डाक्टर की ओर देखा और सोचा कि वे भी मुस्करायेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। डाक्टर एकदम निर्लेप भाव से, तनिक भीनी नजर से, तदुपरान्त स्वस्थ दृष्टि से यह समग्र दृश्य देखते रहे और बोले पालने को ही लाया हूँ। पालन पोषण कर इसका कोई उपाय करूंगा। तदुपरांत ज्यादा मोहमाया मे नहीं करूंगा। आगन्तुक को विदा करते हुए कहा कि वह इसे अपनी बेटी मानेगा। वैसे मेरी कोई खास रुचि नहीं है। मात्र दया है...

कुछ दिन बीते। देखभाल, दवा, टॉनिक व खानपान से बालिका कुछ स्वस्थ हुई। लेने लायक, हाथ में लेने लायक, खिलाने लायक हुई, अतः डॉक्टर ने सोमचंद को कहलवाया कि उसकी बच्ची स्वस्थ है और वह यदि चाहे तो उसे ले जाए पर ऐसा करने से पहले उसने अपनी पत्नी से बात कर ली थी और उसने डाक्टर का सहमति भी दे दी थी, अतः जब सोमचंद आया तो डाक्टर ने उसका भावभीना स्वागत किया, पर पत्नी का चेहरा मलीन हो गया। उसने सोचा क्या इस तीन माह की बच्ची, जिसके लिए डाक्टर को ना कर दिया था, तदुपरांत भी उसके मन में पुत्री का भाव जागृत हुआ। उसे सोमचंद मात्र इसीलिए ले जायेगा कि बालिका उसका ही अंश है। पर सोमचंद ने ऐसा कुछ भी नहीं सोचा। उसने किसी निर्जीव पोटली सा बालिका को उठाया, पवर बहन के मन में मानो बरमा सा घूम गया ‘ओह भाई थोड़ा संभल कर और यह कहते-कहते आँखों से आँसू बहने लगे और पीछे मुड़ कर बोली, ‘जल्दी कर इसे यहां से ले जा भाग, पर सोमचंद जैसे ही सीढ़ियाँ उतरने लगा तो डाक्टर भी उसके पीछे पीछे आए और उसके कंधे पर हाथ रख कर बोले, ‘सुन, बहन ने भावावेश में आकर तुझे कुछ दिया है, पर बालिका के लिए जैसा तुझे उचित लगे वह कर। चाहे तो ले जा और चाहे तो छोड़ जा, पर यदि तू इसे ले जाता है तो तेरे लिए पाँच बेटियों पश्चात् छठी बेटी होगी परन्तु जन्मदाता ईश्वर के लिए यह अरबों-खरबों में है फिर भी उसने इसे जीवित रखा है। तू भी इसे जीवित रखना।

इतनी बात कहने पर भी सोमदत्त उसे लेकर चला गया। डाक्टर भी सोमदत्त उसे लेकर चला गया। डाक्टर लौट कर घर में घुसे तो देखा कि पत्नी झूले पर सिर लगा कर रो रही है। डाक्टर ने उसे धीरे से हाथ पकड़ कर खड़ा किया और झूला उठा कर दूसरे कमरे में रख दिया और फिर स्वस्थ होकर कुर्सी पर बैठे कि दरवाजे की घंटी बजी। उठकर दरवाजा खोला तो सामने सोमचंद। उसके हाथों में बच्ची थी। उसने कहा, ‘डाक्टर साहब! इसे आप ही संभाले। मैं ऊपर वाले के समान नहीं। मैं इसका लालन-पालन नहीं कर सकता। अभी विवाह करना है। पुत्र चाहिए पुत्र। वंश तो चले।

डाक्टर बालिका को हाथ में लेकर लौटे तो देखा कि पत्नी दूसरी कमरे में से अतीव प्रसन्नता से पुनः झुला लाकर अपना खोया झपट रही थी। डाक्टर को देखकर उसने उसकी ओर देखकर मांगने की मुद्रा में दोनों हाथ फैलाए मानो भीख मांगती हो डाक्टर ने निश्चल भाव से बालिका को पत्नी को सौंपते हुए कहा, देखना मोह माया मे मत पड़ना। भरत मुनि सा मत होना।

एक ही बार, मात्र एक ही बार डाक्टर च्युत हुए। हृदय के ऊपर का लौह कवच टूट गया। कब? बेटी, कब बड़ी होकर घुटनों के बल चलने की बजाय खड़ी होकर पांवों से चलने लगी। इस समय डाक्टर सुबह बैठै-बैठै अखबार पढ़ रहे थे। बालिका सबसे पहले मुस्कराती हुई डाक्टर के पास और उसके घुटनों पर कि बोले करने लगी। डाक्टर को भी न जाने क्या हुआ। यकायक पितृ भाव जाग्रत हुआ। सारी दुनिया की एक ओर फैंकने की तरह उन्होंने अखबार को एक और फैंक कर बालिका को गोद में उठा लिया और अतीव स्नेह से गाल चूम लिया। पर यह सब मात्र पल दो पल और फिर पुनः सचेत हो गए। मोह-माया में तो फंसा ही नहीं था। मन को सचते किया और बालिका को गोद में से उतार पुनः अखबार पढ़ने में व्यस्त हो गए और बालिका दरवाजे में खड़ी डाक्टर की पत्नी को देख डुगमुग कर ली उनकी ओर बढ़ गई।

सोमचंद एक बार डाक्टर के घर आया और डाक्टर सा. की पत्नी के चरणों में एक बहुमूल्य साड़ी रखकर कहा आप मेरी बहन है। मेरी बेटी का लालन-पालन कर रही है, अतः यह भाई की ओर से तुच्छ भेंट है।....

यह सुनकर बहन का चेहरा तमतमा गया, ‘किसने कहा कि बच्ची तेरी है? और कौन कहता है कि मैं बच्ची का पालन-पोषण कर रही हूँ? तुम इस प्रकार कह कर मेरे दिल में क्यों छुरी के घाव कर रहे हो? खबरदार, अब इस घर पर कभी भी पांव मत रखना। मैं, यह नहीं चाहती कि तेरी छाया इस पर पड़े। कान खोल कर सुन ले, मैं तेरी कोई बहन, वहन नहीं हूँ।

सोमचंद मुँह लटकाए वहाँ से चला गया और उस घर से फिर कभी पाँव नहीं रखा। परन्तु गाँव वाले और सम्बन्धी जब कभी वहाँ आते और बालिका को खेलती देखकर कहते, यह तो उस सोमचंद की बेटी है न! बड़ा ही पुण्य का काम कर रही है।’

यह सुनकर डाक्टर की पत्नी का मुंह लाल सुर्ख हो जाता। उसकी आंखों में बच्चों का लालन-पालन करने वाली बिल्ली की आंखों से लाली आ जाती थी। एक बार उन्होंने कहा था ‘आप अपने बालक का लालन-पालन करते हैं यह कोई पुण्य का काम है? क्या, इसे दया, धर्म मानते हो? यदि हाँ तो कृपा करके मेरे घर पुनः पांव मत रखना।

ऐसे समय में डाक्टर साहब अपने सगे सम्बन्धियों को कहते ‘भरत मुनि को कोई नहीं कहता है कि उनके गले में हिरण का बच्चा है।’

बेबी का नाम परम्परागत नामो यथा कालमुखी, छपनमुखी, बला से विशेष नामों से हट रखा पुनीता। पुनीता जब नौ साल की हुई तो उसे पालक व पालिता का अर्थ क्या है समझ में आया और इस समय उसे थोड़ा झटका लगा। पर बाद में वह तुरन्त समझ गई। स्कूल में मात्र देखने कोई कहता तेरा रंग सांवला है जबकि तेरी मम्मी तो गौरी है। मैं अपने पापा पर गई हूँ। कहते हुए वह डाक्टर की ओर संकेत करती। वैसे डाक्टर भी श्याम वर्ण के नहीं थे पर श्रोताओं को ऐसा ही लगता था कि वे श्यामवर्ण के हैं। डाक्टर की बड़ी बहन का इस बालिका पर बड़ा स्नेह था। वे बारम्बर कहती थी। ‘देख भाई, इसका चेहरा, मोहरा, रूप रंग एक दम तुझ सा ही है। नहीं।’

डाक्टर उत्तर देते- ‘हाँ, बहन, एकदम मुझ सा ही।’

अभी-अभी डाक्टर ऐसा कह कर मानो माया से बचते रहना ही भूल गए।

मात्र जन्म दाता ऐसा पिला गांव में ही है। पर पुनीता को उसके प्रति कोई आकर्षण, खिंचाव नहीं। उसे वह याद तक भी नहीं करती है। अब पुनीता विवाह योग्य होकर कॉलेज में पढ़ रही है। उसका कार्य व्यवहार श्रेष्ठ है। वह डाक्टर बनना चाहती है।

आजीवन ब्रह्मचारी बाप ने अपनी पत्नी को पुत्री के लिए कहा ‘मैं इसे जब तक यह पढ़ना चाहेगी, पढ़ाऊंगा, पर इसके लिए सुयोग्य वर आप ही देखती रहना।’

‘ठीक है, मैं भरत मुनि।’ पत्नी ने मुस्करा कर उत्तर दिया। ?

(रूपांतरकार : सुशीला जोशी)

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