भाव-विभोर (कोंकणी कहानी) : ओलीव्हीन गोमिश

Bhaav-Vibhor (Konkani Story in Hindi) : Olivinho Gomes

शोभा नजरों से बहुत दूर थी, फिर भी मेरे दिल के गर्भागार में उसने अपनी दृढ़ जगह बनाई थी। उसके सिवा मैंने और किसी को मेरे करीब आने नहीं दिया। बहुत बार मन को लुभानेवाले क्षण मेरे जीवन में आ चुके थे, लेकिन अंदरूनी शक्ति ने उन्हें टालने के लिए मेरी बहुत सहायता की। इतने सालों से मन की अँधेरी गुफा में तेल के समान जलती मधुर स्मृति से मेरी उदासी में मुझे थोड़ा-सा प्रकाश नजर आ रहा था।

गोवा वापसी के बारे में अंतिम चिट्ठी मैंने उसे लिख डाली। उस चिट्ठी को लिखे बीस दिन हुए होंगे और पुर्तगाल से 'लुरियो' जहाज से मुझे निकले अब पंद्रह दिन तो बीते होंगे। इस चिट्ठी का जवाब नहीं मिला। क्यों? मैं इन्हीं विचारों में चक्कर खा रहा था।

लोरेंस मार्किश से आई.बी.आई. की 'कंपाला' 26 मई की सुबह मुरगाँव के बंदरगाह में प्रवेश कर रही थी। इतने लंबे अंतराल के बाद मैं गोवा का परिवर्तित रूप निहार रहा था। उस इंद्रनील आसमान का सुंदर दृश्य तथा हरी-भरी वसुधा को देखकर मुझे मात्र प्रसन्नता ही नहीं हुई, बल्कि स्वर्ग- लोक का सादृश्य आभास हुआ।

लेकिन इस सुंदरता को भुला देनेवाली, दिल में हलचल पैदा करनेवाली एक स्मृति मेरे मन में पूर्ण रूप से फैलने का प्रयास कर रही थी। आखिर उसी की जीत हुई। शोभा की ही स्मृति और किसकी हो सकती थी ? मेरे माता-पिता तो नहीं थे। गोवा आने का प्रमुख कारण था, शोभा । नहीं तो मैं पुर्तगाल में ही रहनेवाला था । सुंदर और अच्छे हुनर की लड़कियों से मेरी पहचान हो गई थी और वे मुझ पर फ़िदा भी थीं। लेकिन मैंने किसी की ओर कोई झुकाव नहीं दरशाया। फिर भी कभी-कभी इस प्रकार का माहौल उपस्थित हो जाता था। आज से पंद्रह साल पहले मैं गोवा छोड़कर गया था। इतने साल इंतजार कर, आखिर ऊबकर उसने शादी तो नहीं की? पिछले दो साल से उसकी चिट्ठी नहीं आई थी। किसलिए? क्या यही कारण तो नहीं है ? मैं दुविधाग्रस्त हो गया, लेकिन "नहीं। यह सच नहीं हो सकता। मैंने स्वयं को समझाया। जहाज बंदरगाह के नजदीक आ गया और मैंने बंदरगाह पर खड़े-खड़े ही इर्द-गिर्द नजर घुमाई ।

आह, वहाँ मेरी शोभा थी। हाँ वही थी। नजर गड़ाकर बंदरगाह से मेरी राह देख रही थी। शोभा ! हम दोनों की नजरें मिल जाने के पश्चात् न जाने किस अनजान भावना से दिल भर आया। उसकी आँखों में चमक थी। उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। पहले तो उसे जरूर देखा था, लेकिन आज वह और सुंदर लग रही थी। सच कहा जाए तो दिखने में वह इतनी खूबसूरत थी नहीं, जितना उसका मधुर और प्रिय स्वभाव उसकी सुंदरता में वृद्धि कर रहा था। यह स्वभाव ही असली सुंदरता है, जिसकी जितनी स्तुति की जाए, उतनी कम है। और मैं उसकी इसी अंदरूनी सुंदरता को देख रहा था, जो उसके मुखमंडल पर बिखर गई थी ।

प्रेमवश उत्कंठा से मैंने उसे बाँहों में भर लिया। सालों से अत्यंत नियंत्रित रखे हुए मन की उत्कंठा अब पूरी हो रही थी। उसके आलिंगन में अवरुद्ध प्यार का बहाव जैसे उमड़ पड़ा।

मैं प्रसन्नता को महसूस कर रहा था कि शोभा ने मेरा इंतजार किया, लेकिन फिर भी मुझे उसके साथ मन हलका करना था। उसकी बाँहों से अलग होकर मैंने पूछा।

"शोभा, यह क्या, तुमने शादी नहीं की ?"

"हाय ! " शोभा ने दीर्घ निश्वास छोड़ा। “एदवार्द, क्या कहा तुमने, क्या कहा ? तेरे सिवा किसी और से मैं शादी कर सकती थी ? कभी नहीं। मैंने हरदम तुम्हारी राह देखी । आशा की किरण नहीं थी, फिर भी किसी पर मन नहीं आ रहा था । और आएगा भी कैसे ? वह तो किसी एक पर ही आ सकता है। मेरा दिल तो तुम्हारे पास था।"

"तुम सच कह रही हो?" मैंने आश्चर्य से और दूसरी ओर आनंदित होकर पूछा, “मेरा दिल नहीं मानता है। तुम एक जवान लड़की हो। मुझ जैसे कैदी की खातिर, जिसे देश निष्कासन की सजा हो चुकी हो और वह भी इतने सालों के लिए, खुद मुझे जल्दी रिहाई मिलने की आशा नहीं थी।" शोभा की आँखों से आँसू टपक रहे थे। उसने मेरी ओर प्यार भरी नजरों से देखा और कुछ कहने का प्रयत्न किया।

" शादी करने के लिए मेरे भाइयों ने मुझ पर बहुत दबाव डाला। अच्छे घराने से रिश्ते आए । लेकिन मैं इनकार करती रही। तब जाकर उन्हें संदेह हुआ कि मैं तुम्हें चाहती हूँगी।"

"और फिर क्या किया उन्होंने ?" मैंने धैर्य से, लेकिन कुछ हिचकिचाकर पूछा ।

शोभा ने कहा, "वे कहते, 'एदवार्द को लगे आग! क्या वह स्वतंत्रता संग्राम में कूदकर हमारे घर को भी आग लगाने आया था ? और तुम भी उसके साथ नाच रंग खेलना चाहती हो तो सुन, अब वह नहीं आनेवाला । वह वहीं रुक गया है।' वे मेरा उपहास करते थे। क्या वही सबसे अच्छा है ?"

"अब यह सबकुछ भूल जाओ, " मैंने कहा।

"चलो, अब हम घर चलेंगे।"

"अब मेरा कोई घर नहीं है, " शोभा ने निराश होकर कहा । यह कहते वक्त उसकी चाहत भरी आँखों से आँसू भर आए । “मेरे भाइयों ने शादी की और मैं उस घर से, उस खिंचाखिंच से छुटकारा पाने के लिए मौसी के घर में रहती हूँ।"

"जैसा भी हो चलो, हम चलते हैं। मेरे घर चलते हैं। यह सब भूल जाओ।" मैंने उसे समझाया।

गरम पसीना आ रहा था। मुझे मिलने के लिए कोई नहीं आया था सिवाय शोभा के। जो मशहूर हो चुके थे, उनके लिए स्वागत, भाषण, सभा; लेकिन औरों के लिए कुछ नहीं । उनके त्याग को भूल गए थे। इस देश में मुझे किसी ने याद नहीं रखा था ।

इन उलटे-सीधे विचारों को मन से निकालकर मैंने पिछली मधुर स्मृतियों को याद करने का प्रयास किया। वे दिन भी क्या दिन थे ? मैं जवान था। इश्कोल नोर्माला का कोर्स करके मैं प्रोफेसर बनकर माशेल में पढ़ा रहा था । मेरी उम्र होगी कोई बाईस - तेईस साल मैं किराए के कमरे में रहता था। वहाँ एक दिन कुएँ पर पानी भरनेवाली शोभा को मैंने देखा । मेरे कलेजे में तूफान मच गया। उसकी नशीली आँखों में मेरा मन सराबोर हो चुका था। उसके गठीले शरीर पर मेरी नजर टिकी हुई थी। उस दिन से रास्ते में आते-जाते मेरी उससे भेंट हो जाती और हम दोनों लज्जा का अनुभव करते थे। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन व्यवहार से बहुत समझदार लगती थी।

कुछ दिन बीतने के बाद मेरी और उसकी दोस्ती और घनिष्ठ हो गई। मेरा ध्यान सिर्फ उसपर केंद्रित हो चुका था। दिन-रात मैं शोभा की मूर्ति पूजा करने में मग्न था और शोभा का भी वही हाल था। जहाँ मैं ठहरा था, वहाँ वह पानी भरने के लिए आती, खाना पहुँचाती । सिर्फ मेरे लिए वह स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर लाती।

स्कूल की जब छुट्टी रहती थी, तब मैं काणकोण में मेरे अपने घर हो आता था। फिर भी घर में मेरा मन नहीं लगता था । सप्ताह में एक बार तो शोभा से मिले।

इसलिए मैं माशेल में जाया करता था। उस वक्त शोभा के उतावले स्वागत के बारे में क्या कहूँ? इस प्रकार हमारे वे दिन मधुर प्रतीत हो रहे थे । मैं तो स्वर्ग का आनंद ले रहा था।

लेकिन एक दिन जैसे चाबुक की फटकार से मैं आनंदवन से जाग उठा। मुझे कल्पना नहीं थी कि मेरी जन्मभूमि परकीय सत्ता के अधीन है। डॉ. राममनोहर लोहिया 18 जून, 1946 को गोवा में आकर स्वतंत्रता संग्राम की ज्योति प्रज्वलित कर गए। उस ज्योति प्रकाश ने मुझमें देशभक्ति को जगाया। मुझमें नई शक्ति का ऊर्जायन हुआ। जिंदगी की ओर देखने के लिए मुझे नई दृष्टि प्राप्त हुई थी।

यह खबर मैंने अपनी परमप्रिय शोभा को बताई। शोभा बहुत मायूस हो गई। परिणाम के बारे में उसे पता था। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना, अर्थात् पुर्तगाली सत्ता से द्रोह करना। उसकी सजा भी बड़ी कठोर हो सकती थी। उस वक्त उसने मुझसे कहा था, " एदवार्द, इस तूफान में मुझे अकेली को छोड़कर तुम जाना चाहते हो? मेरे बारे में कुछ सोचा नहीं ? "

उसका व्याकुल चेहरा देखकर मैं और धैर्य नहीं बाँध सका था। शोभा के भविष्य के बारे में मुझे परेशानी हो रही थी। मैंने उसे बाँहों में लिया और सांत्वना देने का प्रयत्न किया।

यह सब याद करते-करते, हम कुट्ठाळ फेरीबोट पर पहुँचे। जुवारी की लहरें खलबली मचा रही थीं। यातायात चल रहा था । फेरीबोट में लोगों की भीड़ थी। मेरी ओर देखकर और मेरा चिंताग्रस्त चेहरा भांपकर शोभा मुझसे प्रश्न कर रही थी, लेकिन इन विचारों में मैं इतना डूब चुका था कि उसे प्रत्युत्तर करते वक्त मैं भ्रमित हो रहा था। शोभा ने मुझे सतर्क करते हुए कहा, "क्या सोच रहे हो ? तेरी चिंताओं की मैं भागीदारी नहीं कर सकती, मैंने तेरे सुख-दुःख में साझेदारी करने का प्रयत्न किया और उसमें मैं कुछ हद तक सफल रही, ऐसा मैं समझती हूँ।" यह सुनकर मेरे कलेजे को ठंडक मिली। यह थी मेरी शोभा, और मैं उसी से छिपाकर उन बीती घटनाओं का हिसाब कर रहा था। मैंने उसे विश्वास दिलाया और उसके साथ स्मृति पत्रों को टटोलने लगा।

इस प्याररूपी सागर में हमारी नौका जब छोड़ी थी, तब तूफान मच गया था। जिसने मुझे शोभा से अलग किया था। भारतीय झंडा लहराकर पुर्तगाल के विरोध में कार्य किया, ऐसा आरोप लगाकर मुझे एक रात पुलिस ने नींद से जगाकर हिरासत में लिया था। चमड़ी निकलने तक मुझे पीटा था। कुछ समय के लिए मुझे वापस घर भेजा गया। अब शोभा से मेरी फिर भेंट हो रही थी, लेकिन खुफिया पुलिस की नजर हर पल मुझ पर रहा करती थी।

कुछ अरसे के बाद मुझे फिर से गिरफ्तार किया गया। ज्यादा समय के लिए मेरा कार्य फिरंगी अधिकारी वर्ग सहन नहीं कर पाया। मुझे कैदी बनाया और पुर्तगाल की पेनिश जेल में भेजने का आदेश निकाला गया। तब शोभा की परवाह किए बिना मैंने प्यार-मोह को भूलकर उस कटु विषरूपी कुएँ में छलाँग लगाई। राष्ट्रभक्ति से भेंट हुई थी। प्यार इसके आगे कुछ नहीं था । शोभा के साथ मैंने अन्याय किया, लेकिन मेरे लिए और कोई पर्याय नहीं था ।

मुझे पेनिश भेजा गया, तब शोभा मुझे नियमित रूप से चिट्ठी लिखती थी। उसके चेतना भरे शब्द प्यार के अमर काव्य का सृजन करते और मेरी निराश आत्मा नवजीवन प्राप्त कर लेती। वहाँ मुझे बहुत तकलीफ सहनी पड़ी, पंद्रह साल जेलखाने में।

उधर उस वक्त उतना कोहराम नहीं मचा हुआ था, जितना कि भारत में । कहीं बाहर भीतर घूम सकते थे। एक पुर्तगाली साथी के साथ घूमकर नृत्य में निपुण हो चुका था। मेरे ऊपर उनको गुस्सा द्वेष वगैरह नहीं था। अलग नजरिए से देखा जाए तो वे लोग अत्यंत अनुशासन प्रिय तथा दयालु थे। मात्र भारत में विलीन होने की चाह के पीछे हमारी क्या भूमिका है, यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था । हमारी भलाई के लिए गोवा का अलग होना जरूरी हैं, ऐसा उनका मानना था। मेरा मत उनके विचारों से मेल नहीं खा रहा था ।

शोभा अपनी प्यार भरी चिट्टियों से मुझे सूचना दे रही थी। मेरे रिहा होने की कोई आशा नहीं थी। तब मैंने उसे खत लिखकर कहीं और शादी करने के लिए अपनी ओर से मुक्त किया, क्योंकि उसपर शादी करने के लिए बहुत दबाव आ रहे थे, लेकिन शोभा अपना निर्णय लेकर अडिग बैठी थी कि मेरे साथ ही शादी करेगी। उस शादी की खातिर गड्ढे में गिरने की तैयारी उसने दरशाई थी। तब इस लड़की का इतना बड़ा निर्धार देखकर मैं दंग रह गया। चहुँओर कितनी हलचल मची होगी और इसका यह त्याग और पूछा जाए तो एकदम सच ।

मैंने जेल से रिहा होने की खबर देते हुए उसे चिट्ठी लिखी और तब उस वक्त उसकी संतोष दरशाती हुई एक चिट्ठी मुझे मिली, लेकिन जाने से पहले दो महीना पूर्व उसकी कुछ खबर नहीं मिली और मैं हैरान हो गया। मेरे माता-पिता के गुजर जाने की खबर उसी ने मुझे पहले दी थी। वह कभी-कभी उनकी पूछताछ किया करती थी, लेकिन चंद दुश्मनों के कारण अब के वह चिट्ठी नहीं लिख रही थी जिन्होंने मेरे बारे में अविश्वास का विषरूपी संदेह उसके मन में पैदा किया कि मैं एक फिरंगी स्त्री के साथ घूमता हूँ। और भी झूठी खबरें उस तक पहुँचाई थीं। यहाँ तक कि अब गोवा वापस आते वक्त उस फिरंगी स्त्री को लेकर मैं लौट रहा हूँ।

अब शोभा के संदेह सब गायब हो चुके थे। हम फिर से मिल गए थे। इतने सालों के बाद माशेल में जाने के बदले मैंने काणकोण की तरफ जाने के लिए टैक्सीवाले को आदेश दिया। हम हमारे घर जा रहे थे। आनेवाली जिंदगी हमारे सम्मुख थी। हमारा भविष्य हमारे हाथ में था और जैसा हम चाहते थे, वैसा उसे हम बना सकते थे।

और मेरी शोभा ! जैसे पंछी अपना साथी ढूँढ़ने के बाद नीड़ के निर्माण की तैयारी करता है, उसी तरह शोभा भी कल्पना में तैयारी कर रही थी। मेरी बाँहों में सिसकियाँ भर रही थी। मिलन की प्यास सँजोकर रखे हुए शोभा ने मुझे जकड़ लिया और इतने सालों तक रोके हुए आँसुओं को मुक्त बहने दिया।

(अनुवाद : रूपा च्यारी)

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