बेटे की तनख्वाह (कश्मीरी कहानी) : बंसी निर्दोष
Bete Ki Tanakhvah (Kashmiri Story) : Bansi Nirdosh
संसारचंद की गुलामी का यह आखिरी दिन था। चालीस साल की गुलामी बिताने के बाद आज वह आजाद होने जा रहा था। भीतर से वह एकदम पोला हो चुका था। गूदा खत्म और बाकी रह गया था ऊपर का छिलका। बस, छिलके को वह और अधिक रौंदवाना नहीं चाहता था। बहुत दिनों से उसे उस दिन की प्रतीक्षा थी कि जब उसके लड़के कुंदनजी की नौकरी लग जाती और वह गुलामी के इस बंधन से मुक्त हो जाता। उसकी मुराद अब पूरी हो चुकी थी। बी.ए. कर लेने तथा पूरे तीन साल बेरोजगार रहने के बाद अब उसका लड़का कुंदनजी अकाउंटेंट जनरल के ऑफिस में क्लर्क हो गया था। संसारचंद की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसे लग रहा था, जैसे उसके बेटे को कोई बादशाही या कोई ऊँची पदवी प्राप्त हो गई हो। बेटे को जिस दिन नियुक्ति-पत्र मिला, संसारचंद ने उसी दिन अपराह्न अपने सेठ को एक महीने का नोटिस थमा दिया और कहा, “यह महीना पूरा हो जाने के बाद मैं नौकरी छोड़ना चाहता हूँ। खुदा साहब ने मेरी सुन ली, मेरे बेटे को नौकरी मिल गई। पूरे छह सौ रुपए मिलेंगे। छह सौ उसके और पेंशन के मेरे दो सौ। हम दो बूढ़ों और दो लड़कों के लिए काफी हैं।”
संसारचंद के घर में कुल चार सदस्य थे। वह खुद, पत्नी और दो लड़के। बड़ी लड़की का विवाह उसने सरकारी नौकरी से रिटायर होते ही छह वर्ष पहले कर दिया था। पिछले छह-सात सालों से वह हमारे साथ ही दुकान पर नौकरी कर रहा था। संसारचंद इसे नौकरी नहीं, गुलामी कहता था। इसलिए नहीं कि प्राइवेट नौकरी उसे पसंद न थी, बल्कि वह समूचे जीवन को इसी नजर से देखता था। वह अकसर कहा करता—‘मैं तो भई, पैदाइशी गुलाम हूँ। मेरी तो सारी जिंदगी गुलामी करते ही निकल गई। पहले सरकार की गुलामी करता रहा, अब सेठ की कर रहा हूँ।’ मगर अब उसे यकीन हो गया था कि उसकी गुलामी के दिन समाप्त हो चले हैं। उसके बेटे को नौकरी मिल गई है। अब उसे कोई चिंता नहीं है।
महीने का आज आखिरी दिन था। संसारचंद कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रहा था। उसका बेटा कुंदनजी आज अपनी पहली तनख्वाह घर लानेवाला था। पूरे छह सौ रुपए। यों संसारचंद को खुद पेंशन के अलावा दुकान से चार सौ रुपए मिलते थे और इस तरह कुल मिलाकर उसकी अपनी आमदनी छह सौ रुपए माहवार थी। मगर, बेटे के छह सौ रुपए उसे बहुत बड़ी रकम लग रही थी। संभवतः छह हजार और छह लाख के बराबर। मुझे लगता है कि चालीस साल पहले संसारचंद जब अपनी पहली तनख्वाह घर लाया होगा, तब उसे उतनी खुशी नहीं हुई होगी, जितनी आज कुंदनजी को अपनी तनख्वाह घर लाते देख हो रही थी। मेरा वेतन संसारचंद से ज्यादा न था, यही कोई चार सौ के लगभग, मगर मैं जैसे चाहता, वैसे अपनी इच्छानुसार खर्च करता। घर-गृहस्थी का खर्च मेरे पिताजी और मेरे बड़े भाई चलाते थे। ऊपर से मैं अभी तक अविवाहित ही था इसलिए घर की खास जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर न थी। मुझमें और संसारचंद में काफी अंतर था। उसने एक लड़की की शादी कर दी थी और अभावग्रस्त जीवन बिताने पर भी ठीकठाक दहेज दिया था व लड़के वालों की हर फरमाइश पूरी कर दी थी। लड़की के सुख के लिए थोड़ा-बहुत कर्ज भी लेना पड़ा था। यह बात अब सात साल पुरानी हो गई थी। इन सात सालों में उसने रिटायर होने के बाद एक दूसरे प्रकार की गुलामी स्वीकार की थी। घर चलाने के लिए, दो लड़कों को शिक्षा देने के लिए और आर्थिक दृष्टि से सुरक्षित अनुभव करने के लिए उसने न चाहते हुए भी सेठ की गुलामी स्वीकार कर ली थी। इधर अब दो लड़कों में से एक की बड़ी दौड़धूप के बाद, खूब गंडे-ताबीज कराने के बाद नौकरी लगी थी। पिछले सात सालों से संसारचंद इसी प्रतीक्षा में था और शायद सात हजार बार मुझसे बोला था—‘मजीद भाई! कुंदनजी के नौकरी पर लगते ही मैं इस गुलामी से आजाद हो जाऊँगा। बहुत कर ली चाकरी!’
इसमें कोई संदेह नहीं कि संसारचंद अपने काम में काफी होशियार था। हमारे सेठजी की आज तक किसी भी अकाउंट जाननेवाले कर्मचारी से नहीं बनी थी, मगर संसारचंद उनका विश्वास का आदमी बन गया था। उनके सभी व्यावसायिक राजों से वह वाकिफ हो चुका था। सेठजी जो भी करने को कहते, सच या झूठ, संसारचंद उसे आँखें मींचकर चुपचाप कर डालता। उसका मानना था—‘मैं तो आदेश का पालन करता हूँ, पाप-पुण्य का भागीदार तो सेठ खुद है। हम लोग तो भई चाकर हैं, गुलाम हैं। हमें तो पहले ही यह सजा मिल चुकी है। गुलामी और गरीबी दोनों सजाएँ ही तो हैं। सेल्स टैक्स व इनकम टैक्स वालों के सामने गिड़गिड़ाना व बेचारगी प्रकट करना, अपने लिए नहीं सेठ की सुख-सुविधा के लिए, यह अभिशाप नहीं, सजा नहीं तो और क्या है? इस सबकी एवज में सात तारीख को चार सौ रुपए मेहनताना लो, यह नैतिक और बौद्धिक दासता नहीं तो क्या है?’ महीने की सात तारीख को तनख्वाह के रुपए आँखों से लगाकर व उन्हें चूमकर संसारचंद अकसर दोहराता—‘मजीद भाई, खुदा से माँगना कि मेरे कुंदनजी की नौकरी जल्दी से लग जाए। तब मैं हाथ-पैर पसारकर खूब आराम करूँगा। रिटायर होने के बाद भी मैं बेफ्रिकी की नींद कभी नहीं सोया। पहले यह सोचा करता था कि दफ्तर पहुँचने में देर न हो जाए, अफसर नाराज न हो जाए। आज भी कभी-कभी नींद उचट जाती है, यह सोचते-सोचते कि दुकान खुल गई होगी, सेठ घर से चल पड़ा होगा।’
संसारचंद की इन तमाम चिंताओं का आज अंतिम दिन था। आज उसका बेटा अपना पहला वेतन घर लानेवाला था और इसी के साथ उस नोटिस का भी एक महीना होनेवाला था, जो संसारचंद ने सेठजी को नौकरी से मुक्ति पाने के लिए दिया था। मुझे यकीन था कि आज संसारचंद जिंदगी में पहली बार चैन की नींद सोएगा। अब वह किसी का चाकर नहीं, किसी का गुलाम नहीं। सरकारी नौकरी का मुझे खुद तो कोई अनुभव न था, मगर संसारचंद की इस बात से मैं सहमत था कि प्राइवेट कर्मचारियों के लिए सेठ की नौकरी गुलामी से भी बदतर होती है। समान अधिकारों की बात वहाँ कल्पना मात्र है। कर्मचारी इनसान नहीं, सेठ का खरीदा हुआ गुलाम है। उसकी सात पीढ़ियाँ उसकी गुलाम हैं—उसके मोहल्लेवाले उसके गुलाम हैं। उसे दिनभर जाने क्या-क्या सुनना पड़ता है—‘तू किस मोहल्ले का है बे? ग्राहक को पटाने का तुझे कोई शऊर भी नहीं है, क्यों बे? खाएगा मन भर, मगर काम नहीं करेगा रत्ती भर, कौन सी लद्धड़ बस्ती का है बे तू? तू तो किसी काम का नहीं है।’ आदि-आदि
वैसे तो हमारा सेठ उतना ढीठ नहीं था कि हर वक्त अपने मुलाजिमों को फटकारता रहता। उसने बहुत जगहें देखी थीं। दिल्ली, बंबई, कलकत्ता आदि वह महीने में दो-एक बार जाया ही करता था। यों तो वह खुले दिमाग का था, पर फिर भी अपनी दुकान के मुलाजिमों से घर के छोटे-मोटे दो-एक काम करवा ही लेता था—राशन मँगवाना या नल-बिजली का बिल जमा करवाना, गैस सिलेंडर लाना और ले जाना, बच्चों को स्कूल ले जाना और लाना। सेठ का घर का काम करते मुझे बड़ी ग्लानि होती थी। मृत्यु समान पीड़ा होती थी। मगर दूसरे मुलाजिम यह काम खुशी-खुशी कर लेते थे। खुद संसारचंद भी उनमें शामिल था। उसका कहना था कि सेठ की नौकरी करो और उसके घर के दो-एक काम न करो, यह कैसे हो सकता है? दुकान पर यदि काम नहीं है तो ठाले बैठे तनख्वाह नहीं देगा सेठ, कोई-न-कोई तो बेगार लेगा ही।
वे जाड़े के दिन थे। ठंडे जमे हुए से। मौसम भारी-भारी और आकाश लटकता हुआ सा। बर्फ और पानी से सड़कें लबालब। बिना लोगों के बाजार खाली जेबों की तरह। न कोई नई सूरत दिखाई दे और न आदमी और आदमी में कोई खास फर्क ही नजर आता। कनटोप लगाए, पट्टू के कोट पहने और ऊपर से ओवरकोट चढ़ाए सारे चेहरे व सारी सूरतें थकी-थकी व घिसी-घिसी सी लगतीं, बिल्कुल संसारचंद की तरह। मगर आज यह बात नहीं थी। पिछले एक महीने से संसारचंद के चेहरे पर कुछ रौनक सी आ गई थी, क्योंकि यही एक महीना हुआ था कुंदनजी को नौकरी पर लगे हुए। कुंदनजी की नौकरी के आईने में संसारचंद ने अपने सुखी-सुदृढ़ बुढ़ापे के जाने कितने मीठे-सच्चे ख्वाब देखे थे। उसके ये ख्वाब आज पूरे होनेवाले थे। दुकान में आज उसका यह आखिरी दिन था। मेरा मन भारी हो चला था। इधर, पिछले कुछेक वर्षों से मेरा संसारचंद के साथ एक अजीब तरह का रिश्ता व लगाव पैदा हो गया था। मगर साथ ही मैं खुश भी था। सोचा कि चलो अच्छा ही हुआ, आजाद हो गया इस गुलामी से। कहाँ तक घसीटता इस बूढ़ी काया को? चालीस वर्षों से खट रहा है। अब इसे आराम की जरूरत है। बेटा आराम न देगा तो कौन देगा? सभी मुलाजिमों से मिल-मिलाने के बाद संसारचंद ने विदा ली और कुछ जल्दी ही घर चला गया।
‘संसारचंदजी, कभी बीच-बीच में दर्शन देते रहिएगा’, कहता हुआ मैं सड़क तक उनके साथ हो लिया। जिंदगी का क्या भरोसा! जाने फिर कब मिलना हो? मैं उस रात देर तक इस बात पर सोचता रहा।
अगले ही दिन संसारचंद दुकान में पुनः उपस्थित हो गया। उसे देख हम सबको हैरानी हुई। वह सेठ से बोला, ‘जनाब! मैं अपना नोटिस वापस लेना चाहता हूँ।’
सारे कर्मचारी प्रसन्न हो गए। सेठ ज्यादा ही। मगर मैं नहीं। संसारचंद को अलग ले जाकर मैंने पूछा, ‘क्यों संसारचंदजी? आप तो बेफिक्री की नींद सोनेवाले थे, चालीस साल की थकान उतारनी थी, इस गुलामी से आजाद होना था! कुंदनजी को तनख्वाह नहीं मिली क्या?’
‘हाँ जी, मिली।’ उसके गले से बड़ी मुश्किल से आवाज निकली।
‘तो फिर?’
‘भई, तनख्वाह उसे मिली थी। मगर सारा-का-सारा घर लाने से पहले ही खर्च कर डाला। अपने लिए सूट-बूट और दूसरा सामान ले आया। ठीक ही कह रहा था वह। अपने स्वार्थ के कारण मैं असलियत समझ नहीं पा रहा था।’
‘क्या कहा उसने?’ मैंने बेताबी से पूछा।
कहने लगा, ‘मेरे भी कई तरह के खर्चे हैं। मुझे भी दुनियादारी निभानी है। जैसे आज तक घर चल रहा था, वैसे अब क्यों नहीं चल सकता?’
संसारचन्द की यह बातें सुनकर मैं उससे नजरें मिला न सका । ग्लानि की बदमज़गी मेरे अंग-अंग में फैल गई । मुझसे कुछ भी कहते न बना । आज महीने की पहली तारीख थी। सात तारीख को मुझे जैसे ही तनख्वाह मिली, मैंने सारे रुपये अपने बाप के सामने रख दिए। अब्बू को विश्वास ही नहीं हुआ। उन्हें दौरा-सा पड़ा मेरी तनख्वाह देखकर !
(अनुवाद : डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)