बेर वाली लड़की (कहानी) : बलराम अग्रवाल
Ber Wali Ladki (Hindi Story) : Balram Agarwal
ये वो दिन थे जब चींटियों के पंख निकलने शुरू होते हैं और वे फड़फड़ाना शुरू कर देती हैं।
स्कूल की कक्षाओं को धता बताकर वे मटरगस्ती करने को जिधर जाते थे; उधर, सड़क से कुछ हटकर, बेर का एक बाग था—यहाँ से वहाँ तक फैला हुआ लम्बा-चौड़ा। वे लोग चार तो आम तौर पर होते ही थे—ज्ञानू, अन्नू, महन्दर और अस्सुनी। साहस के हिसाब से तो उन में सबसे ज्यादा साहसी अस्सुनी था, दूसरे नम्बर पर अन्नू और महन्दर, और आखिरी नम्बर पर ज्ञानू। किसी-किसी दिन, जब अंग्रेजी, गणित या किसी अन्य विषय के टेस्ट वाला पीरियड होता तो अवधेश और दिनेश भी इनके साथ आ मिलते और वे पाँच या छह हो जाते। उस दिन चार ही थे।
वे जब भी उधर से गुजरते कभी अकेली उस को, कभी उसके बाप को तो कभी दोनों को बेर के एक खास पेड़ के नीचे बैठा देखते थे। छोटी-सी एक टोकरी उस पेड़ के नीचे रखी होती थी। वे देखते कि ज्यादातर तो वह अकेली ही बैठी या पेड़ के आसपास टहलती रहती। उसे कभी भी उन्होंने लेटते या सो जाते नहीं देखा। बाप पेड़ों से बेर उतारने के लिए या ‘गोफिया’ और ‘फटका’ फटकारकर पटाखा छोड़ने-जैसी तेज आवाज से तोतों-चिडि़यों आदि परिंदों को उड़ाने के लिए बाग के भीतर घूम रहा होता। दूर से देखने पर लड़की उनकी ही उम्र की यानी पन्द्रह-सोलह साल की लगती। वे उसे दूर से ही निहारते हुए नहर की ओर आगे बढ़ जाते थे। न कोई जुमला न ऐसी-वैसी हरकत।
“यार, हम जो रोज-रोज इधर से चुपचाप निकले चले जाते हैं, ये लड़की क्या सोचती होगी?” एक दिन ज्ञानू बोल उठा।
“सोचती होगी कि शरीफ बन्दे हैं, और क्या?” अन्नू ने कहा।
“यह भी तो सोच सकती है कि हम इसके डर की वजह से बाग की ओर नहीं आते!” ज्ञान ने पुनः कहा। उसकी आशंका वाला यह कथन बाकी तीनों ही दोस्तों को लड़की की चेतावनी-जैसा लगा। नहर की ओर बढ़ने के अभ्यस्त उनके कदम यह सुनते ही जहाँ के तहाँ रुक गए।
“तो फिर आज बेर ही देखते हैं, आओ?” उस अघोषित चेतावनी से उद्वेलित अस्सुनी ने लड़की पर निगाह जमाते हुए जैसे उन सब से नहीं, अपने-आप से कहा और बाग की ओर बढ़ लिया।
“अभी बेर कहाँ…!” महन्दर शरारती अन्दाज़ में बोला, “अभी तो निंबोलियाँ-सी होंगी।”
“दूर से बेर भी निंबोली-जैसा ही दिखता है बेटे,” अस्सुनी ने कहा, “अब तो पास से देखने पर ही फैसला होगा।”
“निंबोलियाँ? सवाल ही नहीं पैदा होता बेटा,” अस्सुनी के पीछे-पीछे चलते अन्नू ने महन्दर की बात को नजरअन्दाज करके दावा किया, “गेहूँ के दाने से बड़ा मामला नहीं है।”
“चलो यही शर्त लगी आज।” उनकी बात सुनकर अस्सुनी एकाएक रुककर पीछे घूमा और बोला, “जिसकी बात गलत निकली नहर तक वही सब के बस्तों को लादकर ले जाएगा।”
उनके बीच ‘बस्ते लादकर ले जाने’ वाली शर्त अक्सर लगाई जाती थी। इस शर्त के दो फायदे थे। पहला यह कि हर शख्स सोच-समझकर कुछ बोलता था। दूसरा यह कि इसे लगाने में पैसे खर्च नहीं होते थे। यों भी, खिलाने-पिलाने जैसी शर्त लगाने के लिए उनमें से किसी के पास पैसे होते ही कहाँ थे! यह शर्त ज्यादातर अस्सुनी की तरफ से फरमान की तरह सुनाई जाती थी। जो भी हारता, उसे बाकी सबके बस्ते लादकर गंतव्य तक पहुँचना होता। यह नियम औरों की तरह अस्सुनी पर भी बराबर लागू होता था। कई बार उसे भी उन सब के बस्ते लादकर चलना पड़ता था। जहाँ तक ‘बस्ते’ की बात है, वह आजकल-जैसा कीमती और कई जेबों वाला फैंसी बैग न होकर लम्बी-लम्बी दो तनियों वाला मोटे कपड़े का एक लम्बोतरा थैला होता था। ज्यादातर परिवारों में वह बहु-उद्देश्यीय यानी मल्टीपरपज़ होता था। स्कूल जाने के लिए उसमें किताबें रख दो तो वह ‘बस्ता’ बन जाता था और बाजार से सब्जी वगैरा लाने के लिए किताबें उलटकर खाली कर दो तो ‘झोला’ रह जाता था।
तो परस्पर हार-जीत की शर्त का फरमान सिरों पर लादकर वे चार अन्वेषी उस लड़की की ओर बढ़ गए जिसे उससे पहले उन्होंने सिर्फ दूर से ही देखा था। उसका बाप अन्य दिनों की तरह ही घने बेरों से लदे पेड़ों के बीच कहीं खोया हुआ था। उसके द्वारा ‘गोफिया’ और ‘फटका’ से निकाली जा रही पटाखे-जैसी आवाजों से डरकर उड़ते परिंदों की फड़फड़ाहटें बीच-बीच में सुनाई दे जाती थीं। उन्हें उड़ाने के लिए चीखना-चिल्लाना बागबान कम ही करते थे। कब तक करें आखिर? गला हाड़-मांस का ही तो है, दो-चार चीखों में बरबाद हो जाता था।
उन्हें अपनी ओर आता देखकर लड़की निरपेक्ष भाव से ज्यों की त्यों बैठी रही। उसके चेहरे पर न उत्सुकता दिखाई दी और न डर।
“ढीली-ढाली कमीज पहन रखी है इसने तो!” कुछ नजदीक पहुँचे तो ज्ञानू बुदबुदाया।
“तो?” अन्नू ने पूछा।
“तो...पता कैसे चलेगा?” ज्ञानू बोला।
“अन्तर्दृष्टि से।” अस्सुनी ने कहा और डाँटते हुए बोला, “अब चुप कर।”
पेड़ के नीचे पहुँचकर अस्सुनी लड़की के सामने उकड़ू-सा बैठ गया, बाकी सब खड़े रहे। बैठ जाने के बाद, कुछ देर वह चुप रहा; बाकी सब भी। कोई कुछ नहीं बोला तो लड़की भी चुप बैठी रही। इतना जरूर किया कि उसने अपनी कमीज के ऊपरी बटन को भी लगा लिया। कुछ देर बाद, अस्सुनी ने ही बातचीत की शुरुआत की, “यह पूरा का पूरा बाग बेरों का ही है?”
“हाँ।” उसने कहा।
“पू...ऽ...रा?”
“हाँ।”
“तुम्हारा ही है?”
“हाँ।”
“तुम्हारा अपना?”
“हाँ, दादालाई है।” उसने अकड़कर कहा।
“या बटाई पर लिया हुआ है?”
“बटाई पर क्यों?” उसके इस सवाल पर उसने तनिक तीखेपन से पूछा।
“अच्छा, एक बात बता।” बात बदलकर अस्सुनी बोला।
“क्या?”
“आम-अमरूद-बेल-कटहल... मेरा मतलब है कि बेर के अलावा और कौन-कौन से फल हैं इस बाग में?”
“सिर्फ बेर हैं, और कोई नहीं।” लड़की ने जवाब दिया।
“अच्छा, बेरों के सारे फूल निंबोलियों-जैसे बन गए क्या?” इस बार महन्दर ने पूछा।
“या फिर, गेहूँ के दाने जितने ही हुए हैं अभी?” उसके पीछे खड़े अन्नू ने खीसें निपोरीं। उन दोनों को अपना-अपना दावा सही सिद्ध करने की उतावली थी।
“कुछ पता भी है कि बेर का फूल किस महीने तक गेहूँ के दाने जितना बनता है, किस महीने में निंबोली जितना हो जाता है और किस महीने में फूलकर पूरा फल बन जाता है?” लड़की बेर की पैदाइश और बढ़ोत्तरी के बारे में उन दोनों की अनभिज्ञता से तुनककर तुरस अंदाज़ में बोली, “अब तो खूब फूले हुए बेर हैं। एक भी छोटा नहीं रहा।”
“ए...क भी?” अन्नू ने आँखें फैलाकर पूछा लेकिन उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ा।
“जी हाँ, एक भी। मनों बेर उतरते हैं रोजाना।”
“मनों!!!”
“और नहीं तो क्या।” वह अकड़ के साथ बोली।
“अच्छा, तेरे पास जो वह टोकरी रखी है, उसमें क्या है?” यह सवाल ज्ञानू ने किया।
“बेर हैं।”
“दिखा जरा।”
लड़की ने टोकरी के ऊपर ढक रखे दुपट्टे-जैसे कपड़े को एक ओर हटा दिया। हरे-पीले रंग के चमकीले बेर उनकी आँखों को चैंधियाने लगे। फिर भी, ज्ञानू ने पूछा, “ताजे हैं या…?”
“बासे क्यों होंगे?” उसके सवाल पर वह कुछ तुनककर बोली।
“इसके पूछने का मतलब है कि तोतों-कौओं के कुतरे, जमीन से बीने हुए भी तो होते हैं न?” बात को सँभालने की गरज से अस्सुनी ने बीच में कहा।
“पेड़ से उतारे हुए भी हैं।” वह धीरे से बोली।
“तू चढ़ जाती है पेड़ पर?” अस्सुनी ने पूछा।
“हाँ।”
“चढ़ के दिखा एक बार।”
उसके चेलैंज को सुनकर लड़की को एक पल ताव-सा आया। खड़ी होने को वह थोड़ी हिली भी; लेकिन अपने घाघरे को टाँगों के बीच सँभालती-सी जहाँ की तहाँ बैठी रह गई। फिर आँखें तरेरकर बोली, “मैं सब समझ रही हूँ तुम्हारी बात।”
“क्या?” अन्नू ने पूछा।
“इधर मैं पेड़ पर चढ़ूँगी, उधर तुम चारों टोकरी से बेर उठाकर भाग जाओगे।”
घाघरा सँभालने की उसकी मुद्रा से वे जान गये थे कि यह वो बात नहीं थी जिसे वह ‘सब समझना’ कह रही थी।
“असली डर नहीं बता रही!” उसकी बात सुनते ही अन्नू पास खड़े महन्दर के कान में फुसफुसाया। बहुत धीमा कहने की वजह से पूरा वाक्य लड़की की समझ में नहीं आया, लेकिन ‘डर’ शब्द उसने सुन लिया। बोली, “डरती मैं किसी से नहीं हूँ।”
“ठीक कहती है।” नीचे बैठा अस्सुनी उसकी प्रशंसा करता बोला, “डरपोक होती तो इतने बड़े बाग की रखवाली अकेले कैसे करती दिनभर?” फिर कुछ रुककर उसने पूछा, “टोकरी में दोनों तरह के बेर हैं?”
“दोनों तरह के मतलब?”
“कुतरे और बिना कुतरे।”
“हाँ।”
“सब के सब बेचने वाले हैं या...?”
“बेचने वाले ही हैं।” वह बोली, “सारे के सारे फलों को घर में खाने के लिए थोड़े ही लगाया है इत्ता बड़ा बाग?”
“सो तो है।“ खड़े हुए अन्नू ने सहमति जताई, फिर पूछा, “तू खुद ही दे देती है या बापू से पूछकर देती है?”
“बालक आते रहते हैं आसपास के...” लड़की ने बड़प्पन जताते हुए कहा, “सब को मैं ही देती हूँ रोज।”
“तब ठीक है, ” यह सुनते ही नीचे बैठे अस्सुनी ने पाँच पैसे का एक सिक्का अपने निकर की जेब से निकाला और उसे दिखाता हुआ बोला, “पंजी में कित्ते बेर देगी।”
अस्सुनी का यह सवाल सुनते ही उसके पीछे खड़े बाकी तीनों के मुँह से दबी-दबी-सी खी-खी निकल पड़ी। खी-खी सुनते ही लड़की के कान बिलाव के कानों-से चौकन्ने हो उठे। आँखें खतरा भाँपने की मुद्रा में फैल गईं। पास रखी मजबूत साँटी पर उसने अपनी पकड़ बना ली और जोर से चीखी, “चाचा...ऽ...! ये लौंडे मुझसे बत्तमीजी कर रए हैं...।”
उसकी यह चीख उसके ‘चाचा’ तक पहुँची या नहीं पहुँची, नहीं मालूम। बहरहाल, उन चारों को वह रावण से बचने हेतु मदद के लिए पुकारती ‘सीता’ की चिंघाड़-जैसी लगी। भले ही, शरारती वे पूरे रहे हों, लेकिन रावण नहीं थे। उस दिन से पहले तक ‘लड़की’ उनकी सिर्फ आपसी बातचीत का हिस्सा होती थी, सक्रिय साधना की पात्र नहीं। अपने अध्यापकों और माता-पिता समेत खुद से बड़ों को गच्चा देने में वे रावण से दो कदम आगे भले सही, हिम्मत और ताकत के बलात् प्रदर्शन में उसके बाल बराबर भी नहीं थे। सबसे बड़ा डर तो उन्हें स्कूल छोड़कर यहाँ-वहाँ आवारागर्दी करने की अपनी पोल खुल जाने का रहता था। इसलिए, ‘चाचा’ के लिए लड़की की पुकार को सुनते ही वे भाग खड़े हुए। उन्हें लगा कि पुकार सुनते ही ‘चाचा’ उन्हें आ दबोचेगा और घसीट-घसीटकर ऐसे मारना-पीटना शुरू कर देगा जैसे अंगद और हनुमान आदि वानरों ने किष्किन्धा के बाग में घुसकर सुग्रीव के मामा को मारा-पीटा था। ‘चाचा’ ने उसकी पुकार को सुना या नहीं सुना, पुकार सुनकर वह आया या नहीं आया—यह सब जानने-देखने के लिए रुकने की न उनमें हिम्मत थी और न उनके पास इतना समय था।
इस दुर्घटना के बाद अलबत्ता एक खेल जरूर शुरू हो गया। वो यह कि सड़क पर उस बाग के सामने से निकलते हुए वे जेब से कोई भी सिक्का निकालकर दूर से ही उसे दिखाते हुए अपनी जगह पर उछलने लगते। वह उन्हें उछलता देखती और अपनी जगह पर खड़ी होकर जोर से पुकारती—“चाचा...ऽ...! वो फिर आ गये...ऽ...।” और यह सुनते ही वे नहर की ओर दौड़ लगा देते। यही खेल वे नहर से वापिस होते समय भी खेलते। कुछ दिन बाद तो उन्होंने जेब से सिक्का भी निकालना बन्द कर दिया। खाली चुटकी को हवा में उठाकर वे पंजों पर कूदते और उनका मकसद हल हो जाता। गरज यह कि उनकी वह मुद्रा उस लड़की की ‘चिढ़’ ही बन गई।
उसी साल मार्च के आखिरी या अप्रैल के शुरुआती हफ्ते की बात है। महाशिवरात्रि का पर्व था। बहुत-से लोग इस पर्व पर स्नान के लिए गंगा जाते हैं। उस इलाके से गंग नहर गुजरती थी, सो गरीब और आसपास के लोग उसे ही गंगा मानकर पूजते थे। दरअसल, सभी प्रमुख पर्वों पर वहाँ बहुत बड़ा मेला लगता था। इतना बड़ा कि प्रशासन को खासी मशक्कत करनी पड़ती थी उसे अनुशासित रखने के लिए। अस्सुनी के अम्मा-पिताजी हर पर्व पर गंग नहर जाते थे स्नान के लिए। उस बार किसी काम के सिलसिले में पिताजी बाहर गए हुए थे, सो अम्मा अस्सुनी को साथ ले गयीं। नहर पर एक अलग घाट ‘जनाना घाट’ के नाम से था। रोजमर्रा में तो आसपास के चरवाहे अपनी भैंसों को उस घाट के रास्ते पानी में उतारकर पुल के नीचे वाली छाया में आराम फरमाते थे। भैंसें न होतीं तो वह सुनसान-सा ही पड़ा रहता था। लेकिन मेले के समय में उस ओर न तो मर्दों को जाने की इजाजत होती थी और न दस-बारह साल से बड़ी उम्र के लड़कों को। पिताजी साथ होते तो वे सब उसी घाट पर जाकर नहाते जिस पर औरत-मर्द सब नहाते थे। अकेली अम्मा के साथ था, इसलिए अस्सुनी को ‘जनाना घाट’ पर जाने दिया गया। एक पंडाइन के पास जाकर उन्होंने कपड़ों वाला थैला रखा और उससे बोलीं, “छोरे को यहाँ बैठाए जा रही हूँ पंडिताइन। नहाकर अभी आई।” फिर अस्सुनी से बोलीं, “यहाँ से जाना मत कहीं भी। दादी जी के पास बैठे रहना और झोले का ध्यान रखना।”
“झोलाए याँ छोड़कै तुम याऊए नहला लाऔ। चिन्ता-फिकर मत करौ।” पंडाइन ने अम्मा से कहा। अम्मा ने उसकी बात मान ली। फटाफट अस्सुनी के कपड़े उतारकर उन्होंने झोले के ऊपर फेंके और घसीटता हुआ-सा लेजाकर घाट की सीढ़ियाँ उतर गईं। बाँह को मजबूती से पकड़कर उन्होंने बड़ी सावधानी से आठ-दस डुबकियाँ उसे नहर के पानी में लगवाईं। बाहर निकालकर अच्छी तरह से देह को रगड़ा और पुनः डुबकियाँ लगवा दीं। फिर बोलीं, “जा, कपड़े पहनकर दादी के पास बैठ, मैं नहाकर आती हूँ।”
उन्हें नहीं मालूम था कि अपने जिस लाड़ले को उन्होंने इतना डर-डरकर नहर के पानी में उतारा था, स्कूल छोड़कर उसमें डुबकियाँ लगाने वह रोज यहाँ आता है। सीढ़ियाँ चढ़कर वह पंडाइन की ओर चला ही था कि सामने से वही, बेर वाली लड़की, आती दिखाई दे गई। वह सकपका गया। लड़की ने भी उसे देख लिया। वह जहाँ की तहाँ रुक गई और आगे-पीछे किसी को तलाशने के लिए तेजी से अपनी गरदन घुमाने लगी। हालाँकि कच्छा पहन रखा था, फिर भी, अपनी नंगी देह को उसकी निगाहों से बचाने की कोशिश करता अस्सुनी दुबकता-सा पंडाइन के थले की ओर बढ़ा। यह भी अपनी अम्मा के साथ ही आई है शायद और उसे खोजने में लगी है—उसने सोचा। इतने में लड़की ने जोर की आवाज लगाई, “अम्मा...ऽ...!”
यह पुकार लगाकर उसने तलवार के एक ही वार से अस्सुनी के दो टुकड़े कर डाले हों जैसे। उसका ऊपरी हिस्सा अलग चलने लगा और निचला अलग। जरूर यह मुझे पिटवाने के लिए ही अपनी अम्मा को पुकार रही है—ऊपरी हिस्से ने सोचा—इसके ‘चाचा’ से तो जान छूटी रही, ‘अम्मा’ से कैसे छूटेगी? इस द्वंद्व में निचला हिस्सा जिस तेजी से पंडाइन के पास पहुँचा उसे ताज्जुब हो आया। कपड़े पहनकर जैसे ही सीधा खड़ा हुआ, उसने देखा कि वह उसके निकट आ डटी है। धमकाती-सी बोली, “जनाने घाट पर तेरे जितने बड़े लड़कों का आना मना है, मालूम है ना?”
वह कुछ न बोल सका, लेकिन पंडाइन ने उसकी ओर से जवाब देते हुए कहा, “कोई बात नाय बिट्टी, जे अपनी महतारी के संग आयौ है।”
“महतारी के संग!” तेज आवाज में बोलकर अस्सुनी की ओर देखते हुए उसने धमकी भरे अंदाज़ में धीरे से कहा, “फिर तो आज उन्हीं को बताती हूँ तेरी कारस्तानियाँ।”
यह सुनते ही अस्सुनी की पूरी देह थर्रा उठी। घिघियाकर बोला, “मैंने थोड़े ही कभी तुझसे कुछ कहा...वो तो दूसरे लड़कों ने...।”
“सिक्का तो तूने ही निकाला था न जेब से!” वह बोली।
“हाँ...लेकिन...”
“मेरी तो समझ में तुम लोगों के खिखियाने पर ही आईं शुरू से आखिर तक की सारी बदमाशियाँ!” उसने स्पष्ट किया।
“हाँ...लेकिन...”
“हाँ...लेकिन क्या?” डपटती हुई ही वह बोली, “...अब भी दिखाता है न सिक्का!!...”
“वह तो हम झूठ-मूठ ही नाटक करते हैं। सिक्का थोड़े ही होता है हाथों में।” वह सफाई देता-सा बोला। तभी उसने देखा कि अम्मा नहर के पानी से निकलकर घाट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी है। नहीं, अम्मा नहीं, आदमखोर मगरमच्छ उसकी ओर बढ़ रहा है जो इस लड़की की बातें सुनते ही कच्चा चबा जाएगा उसे। दायें हाथ की हथेली के पिछवाड़े से एकाएक ही उसने माथे पर छलक आए पसीने को पोंछा।
“और वो... ‘कित्ते बेर’ वाली बात?”
“गलती हो गई।” मगरमच्छ के डर से काँपता हुआ-सा वह बोला।
“माँ कसम?”’
“माँ कसम।” उसने अपना टेंटुआ पकड़कर कहा।
उसकी इस घिघियाहट पर लड़की लगभग खिलखिलाकर हँस पड़ी। बहुत जोर से नहीं, लेकिन बहुत मन से। उस खिलखिलाहट का साथ आसपास के पेड़ों पर बैठी कई कोयलों ने एक-साथ कुहुककर दिया। मोतियों से बनी उसकी दन्तावलि आँखों के जरिए अस्सुनी के हृदय में उतर गई। मन पहले-जैसा निडर बन गया। उसने देखा कि अम्मा हाँलाकि घाट की सारी सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आ चुकी थी लेकिन अपनी किसी जानकार से बातों में मशगूल हो गयी थी। अम्मा उसे फिर से अम्मा नजर आने लगी। इधर लड़की का हँस पड़ना, उधर अम्मा का पुन: अम्मा में तब्दील होकर बातों में व्यस्त हो जाना—उस समय दोनों ही उसे संजीवनी-जैसे प्राणदायक लगे। थोड़ी देर पहले तलवार से कटे ऊपर-नीचे के दोनों हिस्से पूरी तरह रफू होकर पहले-जैसे बेजोड़ हो गए।
“थोड़ी देर के लिए उधर वाले आम के पेड़ के पास आएगा तो नहीं करूँगी अम्मा से तेरी शिकायत।” तभी लड़की की आवाज उसके कानों में पड़ी।
अम्मा अपनी जानकार से बातें खत्म करके इस ओर बढ़ चली थीं। अस्सुनी का दिल जोरों से धकधकाने लगा। अम्मा को अम्मा बनाए रखने के लिए जरूरी था कि लड़की को वहाँ से दफा कर दिया जाए। उसके पास ‘हाँ’ कहने के अलावा दूसरा चारा न था।
“आऊँगा, तू अब जा!” शब्दों से उसे लगभग धकियाता-सा वह बोला।
“नहीं आया तो देख लेना!” धमकी देती हुई वह चली गई।
अम्मा ने आकर अपने कपड़े पहने। पंडाइन के पास बैठकर अपने और अस्सुनी के बाल सँवारे। माथे पर चन्दन का टीका लगाया-लगवाया। तैयार हो चुकने के बाद वह अम्मा से बोला, “मैं पेशाब हो आऊँ?”
“हो आ।” अम्मा ने कहा, “यहीं बैठी हूँ, जल्दी आना।”
उनकी अनुमति मिलते ही वह यह जा, वह जा। चिह्नित पेड़ की ओर सीधा जाने की बजाय वह उल्टी दिशा में गया ताकि अम्मा की नजर उधर ही लगी रहे, आम के पेड़ की ओर न जाए।
लड़की उसके इन्तज़ार में वहाँ पहले से खड़ी थी।
“एक बात बताऊँ?” उसके पहुँचते ही बिना किसी भूमिका के वह संकोच और उतावलेपन के मिलेजुले अन्दाज़ में बोली, “मेरा निकाह तय हो गया है। अगले साल जो बेर की फसल आएगी, मैं यहाँ नहीं रहूँगी, ससुराल चली जाऊँगी।” यह कहते हुए उसके गाल लाल हो आए थे। वाणी में ऐसी तरलता आ गयी थी कि अस्सुनी का दिल बैठ-सा गया। उसे पहली बार महसूस हुआ कि लड़की से उसका रिश्ता सिर्फ शरारत करने तक सीमित नहीं रहा था। लेकिन ‘निकाह’ शब्द ने उसको थोड़ा असमंजस में डाल दिया।
“तू मुसलमान है?” वह पूछ बैठा।
“हाँ।” वह बोली, “तो?”
“नहीं, ” वह थोड़ा हकबकाकर कह बैठा, “आज शिवरात्रि का नहान है न, इसलिए…”
“हुआ करे।” लड़की बोली, “हमारे लिए तो यह सब दिन सब के लिए एक-सी बहने वाली नहर है, बस।”
उसके इस तर्क पर दो पल चुप रहकर अस्सुनी ने पूछा, “निकाह की बात तू मुझे क्यों बता रही है?”
“खुशी की बात नहीं है?” लड़की ने तल्ख अन्दाज़ में पूछा; फिर बोली, “मेरा बहुत मन करता था स्कूल जाने को; लेकिन चाचा ने जाने नहीं दिया। किसी ने उन्हें और अम्मी को समझा दिया कि नए तरीके की तालीम लड़कियों के लिए हराम है और स्कूलों में माहौल खराब है।” यों कहकर वह एक पल चुप रही; फिर बोली, “इसलिए बचपन से ही खेती-बागबानी और चूल्हे-चौके में लगी हूँ। आसपास मेरी उमर का कोई और नहीं है जिससे बतियाऊँ? तुम लोगों ने जो उस दिन मजाक किया था न, मुझे पहली बार पता चला कि स्कूल जाने से बात को कहने का ऐसा ढंग भी पैदा होता है। बहुत गुदगुदी महसूस होती है उसे याद कर-कर के...अल्ला करे ‘वो’ भी तुम लोगों जैसे मजाकिया ही हों!!!”
“गुदगुदी होती है तो ‘चाचा’ को क्यों पुकारा था इत्ती जोर से?” अस्सुनी ने शिकायती अंदाज में पूछा, “और अब भी पुकारती है हर बार!”
“दिखावे के लिए।” वह बोली, “चाचा सुनते थोड़े ही हैं, बहरे हैं।...और गूँगे भी।”
“और अंधे…” अस्सुनी के मुँह से निकला।
“चुप!” लड़की ने लगभग डाँटते हुए कहा, “वो गूँगे-बहरे सही, अंधे थोड़े ही हैं।”
“तू हर बात पर चिल्लाती क्यों है इतना?”
उसकी इस बात को लड़की ने जैसे सुना ही न हो। इसकी बजाय वह इससे पहले वाले उसके सवाल का जवाब देते हुए बोली, “तुम लोगों की बदमाशियों का चुपचाप मज़ा लेते कोई-और भी तो देख रहा हो सकता है, इसलिए पुकारती हूँ...दिखावे के लिए।”
“ऐसी बात है तो अभी, कुछ देर पहले अपनी ‘अम्मा’ को क्यों पुकारा था मुझे देखते ही?”
“डर गया था?” लड़की ने पूछा।
“और नहीं तो क्या।”
यह सुन, अपनी शरारत की सफलता पर मुस्कराकर वह झूमती-सी बोली, “ऐसे ही।”
“ऐसे ही क्यों?”
“बाग में जा रही हूँ कहकर अकेली आई हूँ नहाने।” उसने कहा, “मेले में सब तरह के लोग होते हैं। कोई यह न समझे कि अकेली हूँ; इसीलिए खोजने का नाटक करते हुए थोड़ी-थोड़ी देर बाद ‘अम्मा’ की पुकार लगा देती हूँ।…तू न दिखता तब भी लगाती।”
यह सुन अस्सुनी उसके चेहरे को देखता रह गया। बोला कुछ नहीं।
“बेर की सारी फसल उतर चुकी है, लेकिन किसी-किसी पेड़ पर कुछ अभी भी बचे हैं।” कुछ देर की चुप्पी के बाद लड़की ने अपने दोनों हाथों की अगुँलियों को परस्पर उमेठते हुए बोलना शुरू किया, “चाचा ने बाग में आना छोड़ दिया है अब। एकाध चक्कर मैं ही लगा जाती हूँ कभी-कभार।”
“तो?”
“तुम लोग आकर जित्ते चाहो, उत्ते बेर खा सकते हो।”
“सच्ची?”
“पर, एक शर्त है।”
“क्या?”
“मेरे कान के पास धीरे-से वह बात फुसफुसा दे एक बार।”
“कौन-सी बात?”
“वही, ‘पंजी में कित्ते बेर...’ वाली।” वह इठलाती कली-सी बोली।
सुनते ही सन्न रह गया अस्सुनी। ‘यकीन नहीं होता’ कहती नजरों से उसने एक बार फिर लड़की के चेहरे को देखा।
“अब, मिल ही गया है तो कह रही हूँ...” अविश्वास जताती उसकी नजरों से आहत लड़की उलाहना देती-सी बोली, “सोचकर थोड़े ही आई थी यहाँ कि तू मिल जाएगा और मैं...”
और तभी, आम के पेड़ों पर उछलते-कूदते बन्दरों के दो दलों में लड़ाई छिड़ गई। पचासों बन्दर अपने-अपने ग्रुप लीडर के समर्थन में कुछ पेड़ों पर और कुछ उनकी डालियों से नीचे कूद-कूदकर जमीन पर आ भिड़े। उनकी खों-खों-कीं-कीं-चीं-चीं की चीखें सुन आसपास के लोगों में तो भगदड़-ही मच गई। उसी बीच, अस्सुनी के समूचे बदन में एक ज्वार-सा उछाल मार उठा। लड़की के सिर को अपनी बायीं हथेली का सहारा देकर उसने उसके दायें कान की निचली लौ पर अपने होंठ पहुँचा दिए; लेकिन कुछ कह पाता उससे पहले ही होठों की छुअन से हकबकाई लड़की उसे पीछे को धकेलकर बल खाती-सी दौड़ती चली गई। अचानक धकेले जाने से गिर पड़ा अस्सुनी बन्दरों की खों-खों-कीं-कीं-चीं-चीं और लोगों की भगदड़ के बीच जान ही नहीं पाया कि वह किधर चली गई!!! नहर की ओर, अपने गाँव की ओर या फिर… बाग की ओर।
आम के पेड़ के पास बुलाने, उसके मुसलमान होने और बाद वाली सारी बातों को बचाकर नहर वाले मेले में लड़की से मिलने की घटना का जिक्र अगले दिन अस्सुनी ने दोस्तों से कर दिया। उसकी बताई सारी कहानी को सुनकर अन्नू बोला, “बेटे, मुफ्त में बेर खिलाने के बहाने चाचा से पिटवाने का प्लान है, पक्का!”
“हाँ...वह बहरा-गूँगा हो न हो, ” ज्ञानू बोला, “हमें लंगड़ा-लूला जरूर बना देगा।”
“ठीक बोलता है।” उसकी बात का समर्थन करता महन्दर बोला, “पहले ही दिन इतना कूट डालेगा कि बेर का नाम सुनते ही हवा खारिज होने की बीमारी लग जाएगी जिन्दगीभर के लिए।”
अस्सुनी चुप रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि किन हालात ने ‘चाचा’ जैसे मेहनतकश इंसान को गूँगा-बहरा बनकर खेतों और बागों में चहचहाते आजाद परिंदों के पीछे भागते रहने को विवश कर रखा है? किस जालिम ने उस मेहनतकश के दिमाग में लड़कियों की तालीम के खिलाफ जहर बो रखा है? कौन है जो ‘माहौल’ को ‘खराब’ बताकर इन्हें आगे बढ़ने से रोक रहा है? बहरहाल, सब के बीच तय यह हुआ कि बाकी के इस पूरे सीज़न उन में से कोई भी बाग की ओर नहीं जाएगा। वे नहीं गये। अगली कक्षा में पहुँच जाने के बाद भी, स्कूल छोड़कर बाग की ओर जाना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा। बदनामी के डर ने घूमने-फिरने की दिशा ही बदल डाली। अलबत्ता, बेर और बे-बेर दोनों ही मौसम में दोस्तों से बच-बचाकर अस्सुनी उस ओर कई बार गया। बे-मौसम बेर का एक ही पत्रहीन पेड़ बेइंतहा काला और बदसूरत होता है। और बाग? वह तो भुतहा ही नजर आने लगता है! बावजूद इसके, कई बार वह भीतर तक घूमकर आया। वह चाहता था कि लड़की से एक मुलाकात एक बार फिर हो और इस बार सिर्फ वही बोले, लड़की नहीं। वह चाहता था कि गुदगुदी पैदा करने वाली बातों से अलग एक, सिर्फ एक मौका सारी की सारी भेड़िया चालों को लड़की के सामने खोलने का उसे जरुर मिले। इस सब के लिए इधर-उधर मालूम करके चोरी-छिपे एक बार वह उसके गाँव तक भी गया; लेकिन लड़की उसे नहीं दिखाई दी। ससुराल की देहरी में दफन की जा चुकी थी शायद। बेरों के मौसम में हरा-भरा होने के बावजूद बाग उसे पत्रहीन-सा बदसूरत ही लगता रहा। एक गूँगे-बहरे बागबां के द्वारा ‘गोफिया’ और ‘फटका’ से निकाली जाती पटाखे-जैसी आवाजें उसके कानों में पड़तीं और ‘कसक’ बनकर परिंदों की बदहवास फड़फड़ाहटों में शामिल हो वायुमंडल में विलीन हो जातीं।