9855894411 बेले की कलियां (तेलुगु कहानी) : चागंटि सोमयाजुलु "चासो' 

बेले की कलियां (तेलुगु कहानी) : चागंटि सोमयाजुलु "चासो'

Bele Ki Kaliyan (Telugu Story) : Chaganti Somayajulu Chaso

शहर में फूलों का भाव अच्छा है। मकान के पिछवाड़े की जमीन बेकार पड़ी हुई है, अच्छी-खासी रकम कमा सकेंगे। फैसला किया कि बेले के पौधे लगवा लूं।

बेले के फूलों को उगाने और बेचने में थोड़ी-सी कमाई है। हां, जमाने को थोड़ा लूटना भी इसमें है। लेकिन मुझे यह लूट इंसाफ़ के काबिल लगी। अमीर लोग ही, यानी जनता को लूटकर अमीर बने लोग ही मारे फूल खरीदेंगे। सो मैं लुटेरों को बेले के फूलों से लूटूंगा।!

पिछवाड़े की जमीन को खोदने के लिए एक मजदूर की जरूरत पड़ी चौराहे पर गया। धंसे हुए पेटवाला एक बूढ़ा सामने आया। बाबूजी! कोई काम है?, उसने पूछा।

अरे तू कर नहीं सकता। मैंने कहा। दो-तीन हाथ के गहरे गड्‌ढे खन्ती से खोदने हैं। उन गड्‌ढों में मिट्‌टी और खाद भरनी है। फिर बेल के पौधे रोपने हैं।
क्या काम है बाबूजी? उसने पूछा।
खन्ती से खोदना है।
खोद लूंगा बाबूजी! उसने कहा। यह बूढ़े के बस का है? पूरा जवान 5 दिनों में वह काम कर पाएगा। यह बूढ़ा दस दिनों में भी नहीं कर पाएगा। इसे ले जाना बेकार है।
छोड़ो। मैंने कहा।

काम क्या है, दिखा दीजिएगा। कुछ काम अकेला कर लूंगा। जो आप उचित समझें। उसने कहा।
दिल न होते हुए भी उसकी गरीबी पर रहम आ गया। मना नहीं कर सका। ठीक है। मैंने कहा।
वह मेरे पीछे-पीछे चला आया। घर आकर काम देखा। बेचारे ने बहुत कम मजदूरी मांगी। ताकतवर के लिए पांच दिनों का काम है। उसने जो मजदूरी मांगी, उससे ज्यादा ही दी जा सकती है। लेकिन मैंने उसमें भी कमी कर दी।

मेहनत का काम है, देख लीजिए बाबूजी! उसने कहा। मैं मोल-तोल करने वाला नहीं हूं।
अच्छा बाबूजी, ठीक है। दोपहर को मुझे वह मांड पिला दीजिए जिसे आप फेंक देते हैं। वह गिड़गिड़ाया।

मेरी औरत समझ गई कि सस्ते में मजदूर मिल गया। सो बड़े लाड़ से कह उठी हां, हां, जरूर पिलाऊंगी। हर रोज घर में सेर-भर मांड गली की गंदी नाली में फेंका जाता है। बूढ़े को पिलाने पर कोई नुकसान नहीं। हम नागरिक पुष्टिकर मांड को नाली में फेंककर छूछे ही को अन्न समझते हैं। उसे ही खाते हैं। ग्यारह दिन हो गए, बूढ़ा काम पूरा नहीं कर सका। बेचारा बेजबान है। जैसे-जैसे मैंने बताया, वैसे-वैसे उसने गड्‌ढे खोदे। जो मजदूरी तय हुई मैंने उसे दे दी। दिल-ही-दिल में सोचा कि वह और मांगेगा। बड़बड़ाएगा। चिल्लाएगा। लेकिन उसने कुछ भी नहीं कहा। चुपचाप पैसे ले गया। दूसरे ही दिन यह कहते हुए आया कि बाबूजी, कोई काम नहीं दोगे।

पौधों में पानी देगा? मैंने पूछा।
हां, डालूंगा।
कुएं से पानी निकालना है। फिर ढोकर ले जाना है। पौधों को सींचना है।
कहो, महीने में क्या दूं?
जो आपकी मर्जी।
महीने में इतना ही दूंगा। मैंने रकम बताई।
अच्छा जी। कहने के बाद कुछ और कहना चाहा।
क्या बात है?

बात कुछ नहीं साहब! बस आपका फेंका हुआ... रुक-रुककर कहता गया। ‘मांड का पानी।’ बूढ़ा काम में लग गया। हम लोगों को मुफ्त में मिला बूढ़ा सीधा-सादा आदमी है। बेजबान है। जो भी काम बतलाया, उसे कर देता था। वह सुबह तड़के आता और शाम ढलने पर जाता। दिन-भर कुछ-न-कुछ काम करता ही रहता। दोपहर को मांड देते थे। मांड में बच्चों के जूठे चावल, बासी चटनी और घर के बर्तनों में छोड़ी हुई जूठी सब्जी दी जाती थी। महीने की पगार पाने के बाद वह दूसरे दिन सुबह आया तो उसका चेहरा खूब खिला हुआ था।

बाबूजी अब हमारे दिन गुजर जाएंगे। उसने कहा।
कुछ खास बात है क्या? मैंने पूछा।
कल जो तनख्वाह मिली उसे लेकर अपनी बिटिया के हाथ में दे दी। तब कहीं रात को हमारी बिटिया ने मुट्‌ठी-भर भात खिलाया था।
रोज नहीं खिलाती क्या?
नहीं बाबूजी! आपकी सौगन्ध। आपके घर के मांड और भार के अलावा पेट के लिए और कुछ नहीं था।
मेरा शरीर कांप गया।
जी!
बेटा कोई नहीं है?
बेटा था, भगवान ने उसे मुझसे छीन लिया। अब मैं अनाथ हो गया हूं। बहू ने अलग घर बसा लिया।
बेटी खाने के लिए नहीं देती क्या?

खाना नहीं देती। पैसा गुनाहों की गठरी है बाबूजी। मां और औलाद की ममता को तोड़ देता है। रात को बेटी के हाथ में पूरी तनख्वाह रख दी, तब उसने मुट्‌ठी-भर भात खिलाया। अब हमारे दिन गुजर जाएंगे। उसने कहा।

उस दिन से बूढ़ा हमारे घर का एक आदमी बन गया है। अब थोड़ा-सा भात भी खिलाकर उसकी खातिर करने लगे। बेले के पौधों में कलियां निकल आई। कलियां बेचकर आता। बेले के पौधों में बार कलियां लगीं। बगीचे से तीन सौ का मुनाफा हुआ। बू़ढ़े की मजदूरी को काटकर इस थोड़ी-सी जमीन से इतना ही फायदा हुआ। मैंने बहुत ही सस्ते भाव में कलियों को बिकवा दिया। मुट्‌ठी-भर बेले की कलियों को लोग दस पैसे के बजाय बीस पैसे में भी खरीद सकते थे। कम-से-कम पन्द्रह पैसे में बेचना ही चाहिए। जानकारी नहीं थी।

बगीचे से हुए लाभ से बहुत खुशी हुई। बेले की कलियों से जाने कितनी जवान औरतों ने अपने बालों को सजाया होगा। खुश हुई होगी। मैं बड़ा रंगीला हूं। औरतों की चोटियों में बेले की कलियों का खिलना मुझे पसंद है।

चौमासे में बूढ़ा काम पर नहीं आया। उसकी खबर बताने वाला कोई नहीं था। हमारे यहां इतने दिनों तक उसने काम किया, लेकिन हमने उसके घर का पता तक नहीं पूछा। बूढ़ा ‘बूढ़े’ पुकारने के सिवा हम लोगों ने उसका नाम तक नहीं पूछा। कितने अनोखे होते हैं हमारे रिश्ते-नाते। बहुत दिनों बाद बैंगन बेचने वाली ने पूछा ‘बाबूजी। आपके बगीचे के बेले के पौधे कैसे हैं।'

यह तुम कैसे जानती हो कि हमारे यहां बेले के पौधे हैं? मैंने सवाल किया।
आपके बगीचे में बूढ़ा काम करता था न?
बूढ़े को जानती हो?
उसका घर हमारे ही मुहल्ले में है।
बूढ़ा अच्छा है?
मर गया। क्या आपको नहीं मालूम?
मर गया?, कब?

"अरे बहुत दिन हो चुके। बीमार पड़ा था। बीमारी से उठने के बाद उसकी बेटी ने उसकी देखभाल अच्छी तरह नहीं की। डॉक्टर ने बताया कि उसे फल-दूध देने चाहिए। बेटी ने यह कहते हुए छोड़ दिया कि फल-दूध हम कहां से खिला सकते हैं? बूढ़ा मर गया। उसकी बेटी बेरहम है।' बैंगन वाली ने बताया। बेटी को कुछ कहना नहीं चाहिए। क्या मालूम उसके पास खुद खाने के लिए है या नहीं। बाप होने पर भी उसके पास हो, तब न खिला सकती? गरीबी बड़े-बड़ों की इंसानियत को खत्म कर देती है। बूढ़ों के लिए सरकार अगर पेंशन देती तो अच्छा होता। कम-से-कम जीवन-बीमा ही होता तो कितना अच्छा होता!

बूढ़े के बारे सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ कि मैंने भी उसके साथ अन्याय किया। बेले के पौधे रोपनेवाला वही था, देखभाल करनेवाला वही था और आखिर में बेचकर पैसा लाने वाला भी वही था। उसकी मेहनत का फल मैंने बड़े मजे से अपनी जेब में डाल लिया। वह पैसा सब क्या बूढ़े की कमाई नहीं थी? वह पैसा अगर बूढ़े का ही होता तो कितना अच्छा होता। सोचा कि लुटेरों को बेले के फूल बेचकर लूट रहा हूं। लेकिन बूढ़े को मैंने लूटा। महीने में चार सिक्के देकर, रोज मांड का पानी पिलाकर उसे विदा किया। बगीचे की जमीन मेरी है। मेहनत करनेवाले को उसका फल मिल नहीं पाया।

(अनुवाद : डॉ. सी तुलसी)