बेकसूर (कहानी) : आशापूर्णा देवी

Bekasoor (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi

''पांचू.........अरे तूने बुलाया क्या?''

''पींचू...बुला रहे हो.........तुम?''

बलराम साहा ने पीछे मुड़कर देखा। वैसे कोई किसी को नहीं देख रहा। तो भी उसने साफ-साफ सुना, 'साहा बाबू! साहा बाबू!'

काफी देर हो गयी थी इसलिए बलराम, जो केड्स जूते का तसमा कसकर बाँधे तेजी से पाँव पटकता हुआ वहार निकल रहा था.........अचानक रुक गया। खागड़ा बाजार में उसकी बर्तन की दूकान है......तीन पीढ़ियों से काँसा-पीतल के इसी कारोबार में है। घर से करीब तीन किलोमीटर पर है। पैदल ही जाता-आता है बलराम। दूकान से आते समय अगर कभी आकाश में बादल-विजली हो और कोई टोक दे कि रिक्शा पर चले जाइए साहा बाबू......... काफी लम्बा रास्ता है...... तो बलराम बाबू बगल में दबायी छतरी को निकालकर सर पर डाल लेते और कहते, ''भैया, जब रिक्शा-विक्शा नहीं था तब भी हमारे पुरखों-अभिराम साहा और हरिराम साहा-को मकान से दूकान तक का लम्बा रास्ता पैदल ही आना-जाना पड़ता था। और अब तो यह रास्ता पक्का बन गया है......पहले तो कच्चा ही था।''

बलराम के तेजी-से पैदल चले जाने के बाद लोग यही कहा करते थे कि खामख्वाह अपना-सा मुँह रह गया। पता था......वह किसी की नहीं सुनने वाला। अपने बाप की तरह ही एक बगहा है।

हालाँकि स्टील के बर्तनों के बाजार में आ जाने से दूकानदारी पर थोड़ा असर पड़ा है लेकिन कारोबार का कोई नुकसान नहीं हुआ है। पुराने ढंग के लोग-बाग अब भी बड़ी तादाद में हैं। इसके अलावा इन दिनों एक और नये ढंग का फैशन चल पड़ा है। शहर के 'अप-टु-डेट' कहे जानेवाले घरों में कमरे सजाने के लिए कई तरह की गढ़न के पीतल और कींसे के बर्तन, गिलास, कटोरी, तश्तरी, प्यालियाँ, फूलदान यहाँ तक कि लोटे भी खरीदकर ले जाते हैं। इसके अलावा बाहर के देशों से आनेवाले सैलानी भी ऐसे बर्तनों की छटा दैखकर ठगे-से रह जाते हैं और 'गेसबाटि', कमलाकार, लहरिया तश्तरी, नक्काशीवाले गिलास और झबरे डिब्बे खरीदकर ले जाते हैं। ये सारे नाम एक जमाने से चले आते रहे हैं तरह-तरह के आकार और पहचान के मार्फत।
दूकान की गद्दी पर बैठते ही बलराम का तन-मन जुड़ा जाता है। उसे लगता है कि उसके बाप-दादा उसे असीस रहे हैं...उसे प्यार से सहला रहे हैं।

वैसे बलराम साहा स्ग्भाव से वड़ा झक्की है। किसी ने उसके मुँह से कभी कोई मीठी बात सुनी हो...ऐसा नहीं जान पड़ता। लेकिन आदमी वह बहुत साफ दिल का है-एकदम खाँटी। लेकिन लोग उसके पीठ-पीछे कहा करते हैं, ''स्साला झक्की बलराम।''

पीछे से किसी की पुकार सुनकर बलराम ने ऊँची आवाज में फिर पूछा, ''अरे पांचू है क्या? तुमने पुकारा तो नहीं?''

ऐसा कहने के बाद बलराम ने देखा कि तीन-चार गुण्डेनुमा छोकरे उसके घर की तरफ से ही चले आ रहे हैं...तेजी से।

इसका मतलब है वे सव घर पर गये थे और जब मुलाकात नहीं हुई तो यहाँ आये हैं और यही वजह है कि शोहदे इधर दौड़े आये हैं और बीच-बीच में पीछे आ रहे साथी को पुकार भी रहे हैं।

बलराम ने उन छोकरों को तिरछी नजर से देखा। उसे लगा...इन लोगों में सब अनजाने चेहरे हैं। इन लड़कों की मंशा क्या है? चन्दा वसूलना? बलराम को उन्होंने पैसे का पेड़ समझ रखा है? और अब कौन-से देवी-देवताओं की पूजा होने वाली है?

बलराम ने पलक झपकते यह सब सोच लिया। कदमों की चाल थोड़ी सुस्त जरूर हो गयी थी लेकिन पाँव रुके नहीं।

पंचांग में किसी पूजा का हवाला हो या न हो...किसी सार्वजनीन रक्षा-काली की पूजा का बहाना ही काफी है और हो गया धूम-धड़ाका।...और अगर ढाक-ढोल न पीटकर अगर कोई नाटक का, यात्रा का ही आयोजन कर लें तो कोई बुरी बात नहीं! इसी का लालच दिखाकर अगर फुलिया को बुलाने की कोशिश की जाए। बहुत दिन हो गये, बिटिया घर में आयी नहीं है। उसकी खप्पर-तलवारवाली सास जरूरत पड़ने पर बहू को बाप के घर तक नहीं भेजती है। क्यों भेज देगी भला? फिर तो खुद को ही घर के काम-काज में झोंकना होगा। और बेचारी फुलिया, बलराम के कलेजे का टुकड़ा...अपनी बेरहम सास के पल्ले में पड़कर कैसी सूख-टटा गयी है! शादी को पाँच-छह साल हो गये आज तक कोई बाल-बच्चा भी नहीं हुआ।
एक चिन्ता से दूसरी चिन्ता का सिरा फूट पड़ता है।

''साहा बाबू...सुनिए...रुकिए...,'' पीछे से वे लड़के पुकार रहे हैं।

लेकिन इसके साथ-साथ दुश्चिन्ताएँ भी हैं। जो चल रही हैं।

आखिरकार लड़कों ने बलराम को पकड़ ही लिया।

"आपसे एक जरूरी बात करनी है।" झबरे बालोंवाले एक लड़के ने थूक घोटते हुए कहा, "एक बहुत जरूरी बात।"

लेकिन बलराम ने उसे झिड़कते हुए कहा, "मेरे साथ भला तुम्हारी क्या बात है?...और वह भी जरूरी। सगुन बना के घर से निकला था और पीछे से हंगामा कर रहे हैं। चलो...फूटो यहीं से...भागो।...बाद को मिलना।"

तभी सारे छोकरे जैसे एक साथ चिल्ला उठे, "हमारी कोई बात नहीं है, बाबू साहब! आपकी बेटी जहाँ ब्याही है उस घर पर बड़ी भारी मुसीबत आयी है। और यही वजह है कि हम अपनी गाँठ ढीली कर आपको यह बताने आये हैं।"

अच्छी मुसीबत है!

बलराम तो अच्छी मुसीबत में फँसा। उसने सभी शोहदों को सिर से पाँव तक देखा और त्योरी सिकोड़कर पूछा, "तुम लोग कहीं से आ रहे हो?''

"जी, कृष्णनगर से।"

कृष्णनगर...यानी फुलिया की ससुराल से...।

बलराम का कलेजा किसी अनजाने डर से काँप उठा।...पता नहीं.. यह किस तरह की मुसीबत है। उसकी ससुराल का कोई आदमी इस बारे में कुछ बताने को नहीं आया। इन ढेर सारे लोण्डों को भेज दिया है...मेरे पास!

बलराम ने अपने को सँभालने की चेष्टा करते हुए पूछ लिया, "बात क्या है...? कहीं डाका तो नहीं पड़ा? सब-कुछ लूट-खसोटकर तो नहीं ले गये?"
"ऐसा हुआ होता तो फिर क्या बात थी? कुण्डु महाशय का सारा कुछ तो बैंक में पड़ा है या फिर कारोबार में। घर में भला क्या रखा होगा?"

"अरे भई...सारे मामले को इतना खाद-खोदकर मत बताओ, सीधे-सीधे यह तो बताओ कि क्या हुआ है। जल्दी से...फटाफट...अच्छा।"

झबरे बालोंवाला लड़का कुछ इस तरह तेजी से आगे बढ़ आया मानो वह टूट ही पड़ना चाहता हो। उसने पूछा, "कृष्णनगर में आपकी बेटी की ससुराल है न...?"

"कौन कह रहा है...नहीं है।"

"आनन्दमयी मोहल्ले के शशि कुण्डु की पतोहू थी न...वह...?"

बलराम की छाती धौंकनी की तरह चलने लगी...आखिर ये लड़के क्या बताना चाह रहे थे? क्या शशि कुण्डु मर-मरा गये? लेकिन किसी तरह अपने को सीधा रखते हुए उसने बताया, "हां...तो...!''

"जी, ऐसे ही...। दरअसल कल रात आपकी बेटी का कल हो गया...हम यही बताने आये थे।"

ऐसा कहते-कहते लड़के के चेहरे पर लड़ाई जीतकर आनेवाली फौजी की मुस्कान खेल गयी, 'लो अब समझो...हम स्साले...बदनसीब गाँठ की कौड़ी

लुटाकर...जैसे...भी हो...बिना टिकट के ही सही.. मरते-खपते तुम्हारी मुसीबत की दास्तान सुनाने आये और तुम हो कि लाट साहब बने.. नाक ऊँची किये हमें दुतकारते-फटकारते रहे...अभी फालतू बातें सुनने का वक्त नहीं है...हंगामा मत खडा करो।...अब तो कलेजा ठण्डा हुआ?'

वलराम के पाँव तले की जमीन खिसक गयी और उसकी आँखों के सामने यहीं से वहाँ तक धुएँ का काला-सा फैला था। बलराम मुँह फाड़े खड़ा था...यह क्या? उन लड़कों को देखकर अचानक फुलिया की चिन्ता किस बहाने मेरे मन में आ गयी थी...क्यों आयी थी? आखिर मैं क्यों अनमना-सा हो उठा था कि बहुत दिनों से बेटी को देखा नहीं है। तो क्या यह नामुमकिन-सी वात सच है?
दूसरे ही क्षण बलराम ने अपने मन को मजबूत किया...यह नामुमकिन है? पागलों की-सी बात है। ऐसा क्या हो जाएगा कि तुम्हारी बिटिया की हत्या हो जाए। आखिर कौन उसका कल करने आएगा...और क्यों? और शशि कुण्डु तो उसकी वेटी को सगुनिया मानकर उसे लक्ष्मी बहू कहता अघाता नहीं। बेटे की शादी के बाद से ही उसके कारोबार में खासा मुनाफा हुआ है। सास अगर अपनी पतोहू को बाप के घर नहीं आने देती तो इसमें उसका अपना ही स्वार्थ है...और क्या? बहू की हत्या से उसका कौन-सा भला हो जाएगा? और जहाँ तक जमाई बाबू का सवाल है, उसकी बात न की जाए तो वेहतर है। सुना है कि वह बाप के कारोबार से जी चुराता रहता है। बस मौज-मस्ती की महफिलों में खोया रहता है।...इस बेसिर-पैर की खबर और कुछ नहीं, किसी दुश्मन के खेमे की कुटिल चाल जान पड़ती है।

यह सम्भव है कि इस दुश्मनी खेमे में शशि कुण्डु भी शामिल हो। बलराम के जानते आदमी तो भला है। लेकिन ऐसे सज्जनों के भी दुश्मन हो सकते हैं। और ऐसे बुरे लोगों की कम-से-कम इस दुनिया में कोई कमी नहीं है। गुड़ और कपड़ा इन दोनों ही के कारोबार में कुण्डु महाशय ने खासी कमाई की है। दुश्मनों के तन-बदन में आग न लगे...यह कैसे सम्भव है?

लड़कों को हैरानी हुई।

भला कैसा है यह आदमी...?.. न तो बुक्का फाड़कर रोया...न छाती पीटकर चीखा...ऐसा भी नहीं जान पड़ता कि बहुत परेशान हुआ हो। कैसा है यह पत्थर-दिल इन्सान! लड़के एक-दूसरे का हैरानी से मुँह देख रहे थे।...हालाँकि इस खबर के साथ ऐसा जरूर लगा कि इसे बिजली का झटका लगा हो। बात क्या है...क्या वह इन लोगों की बात का विश्वास नहीं कर पा रहा है?

हो सकता है।

बलराम ने उन सबको उड़ती नजर से देखा और कहा, ''तुम लोग तो कुण्डु महाशय के घर-परिवार के ही आदमी हो न?''

वे लोग उखड़े स्वर में बोले, ''हम उनकी जात-बिरादरी के नहीं हैं...एक ही मोहल्ले के रहनेवाले हैं। अपनी आँखों के सामने ही हमने उसका कल होते देखा था। हमें पता है, वह आपकी इकलौती बेटी थी...हमें ऐसा लगा कि आपकों यह खबर पहुँचा देनी चाहिए...इसीलिए...। अब आप पर है कि आप इस मानें या न मानें।''
अब की बलराम वहीं बैठ गया। एकदम बीच सड़क पर ही नहीं...पास ही एक मकान की ड्योढ़ी पर।...उसने उखड़े स्वर में पूछा, ''तुम लोगों ने अपनी आँखों से देखा था...? खून किसने किया था?''

''अब...आपको क्या बताएँ...आपके ही जमाई बाबू शरत ने।''

बलराम की आँखों के सामने अपने जमाई शरत की तसवीर उभर आयी। गोल गाल...भरा-पूरा चेहरा...गोपाल मार्का। घुँघराले बाल...उन्हें लच्छों की तरह माथे पर तह कर जमाये। गोरा शरीर...ताजा खोबे की तरह। विवाह के समय जिसने भी देखा था...उसकी आंखें जुड़ा गयी थीं। और...वही खीर-मलाई के पुतले जैसा लड़का...? असम्भव...।

बलराम ने अपने को सँभालने की कोशिश की। फिर कहा, ''तुम लोगों ने जब यह देखा कि पति अपनी पत्नी की हत्या कर रहा है तो तुम लोग यह तमाशा देखते रहे? कैसे मारा...भुजाली से या किसी छुरे-बुरे...?''

झबरीले वालोंवाले लड़के को छोड़कर बाकी सारे लड़के मुँह बिचकाये और चुप्पे-से खड़े थे गुस्से में भरे। उन्होंने सोचा था कि यह आदमी उन्हें बड़े प्यार और आदर से बिठाएगा...धन्यवाद देगा, फिर बड़ी उतावली के साथ एकदम से साथ चलने को तैयार हो जाएगा...लेकिन ऐसा कहीं हुआ? वह तो एक-एक बात कुरेद-कुरेदकर पूछ रहा है।

झबराले बालोंवाला ठण्डे मिजाज का लगा। उसने कहा, ''आप जिस तरह से बोलते चले जा रहे हैं, उससे तो हमीर लिए कुछ बताना या कहना ही मुश्किल है। लेकिन जबकि हम लोग इतनी परेशानी झेलते हुए कृष्णनगर से खागड़ा तक आये हैं...आपको सारी बात बताकर ही जाएँगे।...आपको पता हो या न हो लेकिन बात यह थी कि इस बीच शरत कण्ड की भींग-चरस पीने की आदत बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी। इसी लत के चलते वह आधी-आधी रात के बाद आने लगा था। और इसे लेकर बाप-बेटे में खूब कहा-सुनी हुआ करती।...खैर! गर्मी और उमस की वजह से लगभग सभी घरों में छत पर बिछौने डाले जाते हैं। हमारे घरों में भी ऐसा ही किया जाता है। हमारा घर कुण्डु के घर के बगल में ही है। गर्मी कम हो जाने के बाद जब सभी सो रहे थे...अचानक कुण्डु के घर की छत पर पागलों की-सी भयंकर चीख-पुकार शुरू हुई।
इसके बाद ही छत के किनारे चिनी दीवार के पास दो जनों के बीच आपा-धापी दीख पड़ा।...और तभी स्त्री के गले की एक चीख...'अरे मुझे मार डाला रे...' के साथ ही दोमंजिली छत के ऊपर से एक भारी-सी चीज नीचे गिरी...धम्म की आवाज के साथ ही शरत की माँ चिल्ला पड़ी...'अरे यह क्या...सर्वनाश हो गया रे'...और इसके साथ ही सब-कुछ एकबारगी थम गया। यह सारा मामला बस कुछ ही सेकेण्ड में खत्म हो गया...हम सब भी सवेरेवाली गाड़ी से आपको यह खबर देने के लिए निकल पड़े।...हमें पता है...वे लोग सारी बातें मूँद-तोप देंगे। कहेंगे...छत पर सो रही थी...नींद के नशे में उसने यह समझा होगा कि सीढ़ियों पर से उतरती आ रही है और टूटी मुँडेरवाली चारदीवारी के फाँक में उसका पाँव चला गया।...रात के आखिरी पहर में शशि कुण्डु की घरवाली यही सारी बातें वक रही थी और छाती पीट रही थी।

''अच्छा...तो अब हम सब चलते हैं। अभी साढ़े ग्यारह बजेवाली गाड़ी से ही हमें लौटना होगा।...हमने सोचा था कि अचानक उस बुरी खबर को सुनकर अगर जो आप कहीं अपनी सुध-बुध खो बैठे तो हम आपको साथ ही स्टेशन तक लिवा लाएँगे। लेकिन आप हैं कि हमारा विश्वास ही नहीं करना चाहते...खैर! चलो भई...इस कलियुग में किसी का भला नहीं करना चाहिए।''

वे लोग रवाना होने को हुए।

दो सेकेण्ड बाद ही इस गिरोह का नेता वापस लौटा और बोला, ''इसके बाद वाली गाड़ी साढ़े पाँच बजे है...पहुँचते-पहुँचते रात हो जाएगी। इसके बाद लाश सड़ने लगेगी...अगर आपको जाना हो तो...बताइए! साथ में हम लोग भी रहेंगे।''

इन लोगों का आग्रह देखकर बलराम साहा के मन में जो सन्देह पैदा हो गया था वह एक बार फिर पक्का हो गया।...इस दुनिया में तरह-तरह के लफंगे और उचक्के हैं। आये दिन ऐसी घटनाएँ सुनने में आती हैं कि किसी परिचित के बारे में कोई बुरी खबर देकर लोगों को साथ ले जाया जाता है और उन्हें तंग किया जाता है।...
अनजाने में ही बलराम का एक हाथ कमर की गाँठ पर चला गया।...आज ही दूकान पर कुछ व्यापारियों और महाजनों के आने की बात है। वे माल लेकर आएँगे। साथ में साढ़े चार हजार रुपये हैं इन छोकरों को इस बात की टेर तो नहीं लगी कहीं? बलराम यह समझ नहीं पा रहा है कि क्या करे? और इधर सीने में अजीब-सा तूफान मचल रहा था। उसे अपने चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा नजर आ रहा था और इसके ऊपर भी सन्देह का घना कोहरा।

''ठीक है...आप चल नहीं रहे...अच्छा!...''

और इसके साथ ही लड़के बढ़ने लगे।

वे थोड़ा-सा आगे बढ़े ही थे कि बलराम ने हाथ उठाकर पुकारा, ''अरे बच्चो...सुनो। थोड़ा-सा तो रुको...सुनो।''

झबरीले बालों वाला पास आ गया।

बलराम उसके हाथ को अपने हाथों से थामकर रोने लगा। फिर सुबकते हुए कहा, ''धरम के नाम पर दुहाई है...सच-सच बताना....क्या मेरी बेटी सचमुच मारी गयी है?''

''झूठ कहने पर हमें क्या मिलेगा?''

''तो फिर चलो, तुम सबके साथ ही चलता हूँ। बिटिया को आखिरी बार देख तो लूँ...।'' कहते-कहते बलराम एक बार फिर रुका। उसने कुछ सोचकर आगे कहा, ''अगर तुम लोगों में कोई एक आदमी मेरे घर जाकर मेरे जाने के बारे में बता आए तो बड़ा अच्छा हो। घर में मेरी माँ और विधवा बहन है। मेरे घर वापस न लौटने पर वे दोनों मारे चिन्ता के दम तोड़ देंगी।....उनसे कहना है कि मैं किसी जरूरी काम से रानाघाट जा रहा हूँ...वापस न लौटूँ तो चिन्ता न करें।''
एक लड़का तेजी से आगे बढ़ गया।

बलराम ने तीन रिक्शों को स्टेशन जाने के लिए ठीक किया।....नहीं....अपने साथ किसी को बिठाने की जरूरत नहीं।....अगर टेंट के साथ छेड़खानी करे।

उफ....अच्छी मुसीबत है...।

हे भगवान! आगे की तरफ बढ़ गये रिक्शों पर सवार ये छोकरे अगर जो कहीं झूठे और उचक्के हों। मुमकिन है ये सब शशि कुण्डु के घर के लड़के हैं।....कहने को तो कह रहे हैं कि पास वाले घर में ही रहते हैं लेकिन पुकार तो रहे हैं शशि कुण्डु...शरत कुण्डु...। एक टोले-मोहल्ले में ऐसा भी कहीं होता है? लोग एक-दूसरे को आदर और प्यार से बुलाते हैं। बहुत लाग-लपेट न भी हो लेकिन भैया....चाचा....ताऊ कहकर तो बुलाते ही हैं।

...न्न...ये सब स्साले मतलबी हैं।

भगवान करे ऐसे ही हों।

लेकिन बलराम साहा को ठग नहीं पाएँगे।....यह ठीक है कि मारे घबराहट के इन सबके साथ जाना पड़ रहा है लेकिन ये उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाएँगे। बिटिया रानी के लिए जी पहले से ही बेचैन हो उठा था इसलिए इनके साथ निकल पड़ा। हे माता आनन्दमयी....माँ काली! वहाँ पहुँचकर मैं अपनी बिटिया फुलिया को राजी-खुशी देख पाऊँ। वापसी के समय तुम्हारे थान पर छेने वाला सन्देश1 चढ़ाता आऊँगा। बलराम ने अपनी टेंट को अपनी उँगलियों से टोह लिया और मन को मजबूत कर तनकर बैठ गया।
------------------
1. बंगाल की प्रसिद्ध मिठाई-जो दूध से बनती है।
सामने चल रहे दो रिक्शों पर चार छोकरे ठीक-ठाक ही जा रहे थे। कोई गलत मकसद होता तो वे किसी तरह की चाल-बाजी करने से बाज आते भला? इस बीच वापस आकर कोई हंगामा खड़ा नहीं करते? कहीं....स्टेशन पहुँचकर मेरे सीने में कटार तो नहीं भोंक को और रुपये लेकर चम्पत हो जाएँगे...?....या फिर रेलगाड़ी पर सवार होकर...इसी भरी टुपहरिया में ही सरेआम हजारों लोगों के सामने...।

कृष्णनगर पहुँचकर.... ऐसा नहीं है कि बलराम साहा को ये गायब या अगवा कर सकें। कुष्णनगर तो वह बचपन से ही आते-जाते रहे हैं। और इधर पिछले कुछ वर्षों में बिटिया की शादी के समय सै ही इतनी बार आना-जाना हुआ है कि जिसकी गिनती नहीं है। मिठाई की हांडा, आम की टोकरी, और दादी के हाथों तैयार अचार-अमोट, बड़ी-पापड़ी तो आते ही रहे हैं। यहाँ उसके न जाने कितने लोग परिचित हैं।

तो फिर?

ये लोग किसी साहस के बूते पर मुझे कोई चश्का देकर कहीं दबोच पाएँगे? लगातार एक-टूसरे को काटनेवाली चिन्ता के साथ बलराम साहा उतगे बढ़ता गया। उसका इरादा एक बार मजबूत होता तो टूसरे ही क्षण ढह जाता।

बाजार में अकसर मिल जाने वाले शशांक की बात उसे याद आ गयी।

''दिनोंदिन यह क्या होता जा रहा है बलराम दा....आँय। अखबार खोला नहीं कि किसी की बीवी के कल का समाचार....शहरों में....कस्बों में...बड़े-बड़े घरों में....ऊँचे घरानों में। और ऐसे हादसे बढ़ते-बढ़ते ही चले जा रहे हैं। बीबी को जान से मार डालना ही आजकल का लेटेस्ट फैशन हो गया है जैसे....आँय। है कि नहीं?'' उस दिन शशांक की बात पर उसने बहुत ध्यान नहीं दिया था। लेकिन आज वह याद आ रही है।

ये छोकरे....स्साले....टिकट कटाकर ट्रेन में कभी नहीं बैठते लेकिन जब बलराम ने पाँच टिकट कटाने को रुपये बढ़ा दिये तो कोई चारा न था और न ही रुपये गायब करने की नौबत आयी।
ट्रेन के प्लेटफार्म पर रुकते ही बलराम हैरान रह गया। कैसे आश्चर्य की बात है! जहाँ जो कुछ था....जैसा था....वैसा ही है। आम दिनों जैसा। यहाँ तक कि पान की दुकान में ध्यानस्थ महादेव वाले कटे-फटे कैलेण्डर के सामने गेंदे के फूलों की जो सूखी माला वह देख गया था वह अब भी वैसी ही झूल रही है। सौदा-सुलफ करनेवाले लोग उसी जानी-पहचानी शैली में आ-जा रहे हैं। ऐसा लगता है वह अभी-अभी यह सब देख गया है।

आँखों के सामने ही साइकिल-रिक्शा का पड़ाव देखा जा सकता है। किसी-किसी साइकिल-रिक्शा की घण्टी के सिर पर नाईलोन वाले झालरनुमा नीले फूल उड़ रहे हैं। सब कुछ वैसा ही है....हू-ब-हू...जरा भी इधर-उधर नहीं। और ये कँगले दलिद्दर स्साले...यही कहते हैं कि सारी दुनिया...धरती-आसमान-चाँद-सितारे सब बदल गये हैं। जमाना बदल गया है।

ये सब स्साले...शैतान की आँत हैं।

इन सबकी पूरी तरह अनदेखी करते हुए बलराम तेजी से रिक्शा-पड़ाव की तरफ बढ़ आया। वह एक रिक्शा पर बैठ गया और बोला, ''आनन्दमयी मोहल्ला चलो।''

''अरे, आप उधर कहीं चल दिये, साहा बाबू?'' वह अभागा झबरे बाल वाला जैसे उसके पीछे-पीछे ही चल रहा था।

''अब क्या बात है?'' बलराम ने तमककर पूछा।

''मैं यह कह रहा था...पहले उधर जाना ठीक नहीं होता। अगर आप जल्दी निकल चलें तो कचहरी अभी खुली मिलेगी। पहले उनके खिलाफ मामला ठोक देते और उसके बाद...''

यह सुनकर झक्की बलराम कुछ ऐसा तिनक गया कि लगा वह इस छोकरे पर टूट पड़ेगा। उसने कहा, ''लगता है...मैं तो एक नासमझ के पल्ले में पड़ गया। अरे भाई...तुम लोग आखिर चाहते क्या हो? 'कौआ तेरा कान ले जा रहा है...' यह सुनकर मैं कान पर हाथ न रखकर कौए के पीछे दौड़ने लगूँगा। अब जाओ भी...तुम लोगों के मेरे पीछे पड़े रहने की ऐसी कोई जरूरत नहीं।''
रिक्शे पर सीधे तनकर बैठ गये और बोले, ''अरे चलो भैया, आनन्दमयी मोहल्ला है।"

रिक्शा थोड़ी दूर आगे बढ़ाने के बाद रिक्शावाले ने पूछा, ''आनन्दमयी मोहल्ला...? वहाँ किसके यहाँ जाय रहे हैं, बाबू?''

बलराम का मिजाज अब भी उखड़ा हुआ था। उसने उसी कड़वाहट से कहा, ''बस रिक्शा चलाते जाओ। मैं बता दूँगा कि किसके मकान पर जाना है?''

''बात यह नहीं है,'' उस आदमी ने पैडल चलाते हुए ही कहा, ''कल रात उस मोहल्ले के किसी घर में एक हादसा हो गया है। तभी तो हम पूछ रहे थे।''

बौखलाये बलराम का कलेजा अन्दर तक बर्फ जैसा सफेद हो गया। उसकी आवाज बैठ गयी। फिर भी उसने बड़ी मुश्किल से पूछा, ''आखिर क्या बात हो गयी, भाई?"

रिक्शावाले ने उसी जोश मैं कहा, ''कुछ लोग बताय रहै हैं, पाँव फिसल गया होगा और लोग बोल रहे हैं कि कतल का मामला है।...हम तो बाबू यही समझते हैं कि खून-युन ही किया गया होगा।...घर की वह...पतोहू को मार डालना तो आजकल कोड नयी बात नहीं रही...रोज का रिवाज हौ गया है।''

ऐसा जान पड़ा कि बहुत दूर से और बहुत आहिस्ता से यह सवाल पूछा गया,

''किसके घर की बात है?"

''अरे वही शशि कुण्डु के घर की बात है बाबू....गुड़ का कारबार करता रहा है। वैसे आनन्दमयी मोहल्ले में कपड़े की भी एक दूकान है। बात क्या है, बाबू...? आपकी कौनो जान-पहचान तो नहीं रही?''

बलराम एक तरह से ढेर हो चुका था। अचानक उसने अपने को सँभाला और जोर से फट पड़ा, "हां......परिचित है......एकदम अपने घर का आदमी है। रिक्शा और तेजी से चलाओ। आज मैं सबका खेल तमाम करके ही दम लूँगा।"
शशि कुण्डु के मकान के सामने अब भी दो-चार लोग इकट्ठा थे। थोड़ी देर पहले ही पुलिस आयी थी और लाश ले गयी थी। उसने बाप-बेटे....शशि और शरत......दोनों को हिरासत में ले लिया था।

आसपास खड़े लोग इस दर्दनाक घटना को लेकर तरह-तरह के दोष मढ़ रहे थे। कुछ लोगों को इन सारी बातों में बड़ा रस मिल रहा था और ऐसे लोगों की तादाद कहीं ज्यादा थी।

''अरे इस शशि कुण्डु की अकड़ बहुत बढ़ गयी थी। सारी दुनिया उसके लिए छोटी हो गयी थी।......और उसका अभागा बेटा तो जैसे पागल ही हो गया है। जब देखो तब नशे में चूर रहता है। उस दिन बागानपाड़ा में....नशे की झोंक में कैसी-कैसी बदतमीजियाँ कर गया।....अब उसका बाप चाहे जितना झूठ गढ़े....किस्से गढ़े और मामले को सजाए......यह मामला दबेगा नहीं। अब तो बाप-बेटा दोनों ही जेल की चक्की पीसेंगे।"

''क्या कहते हो....हां! जरा इसकी अकड़ तो कम हो।''

''अरे....कुण्डु के घर के सामने रिक्शा पर से कौन उतरा?''

"शरत का ससुर ही तो जान पड़ता है। है न?''

''उसे कैसे खबर मिल गयी?"

''क्यों......इस मोहल्ले में उसके कुछ कम दुश्मन है?''

रिक्शावाले को भाड़ा चुकाने के बाद जब बलराम इधर-उधर देखने लगा तो लोग छितरा गये। कोई जरूरत नहीं है बाबा......। अगर जो उनसे पूछ बैठे, कि आप लोग तो गवाह हैं न...? माफ करना....! यह तो सभी चाहते हैं कि हत्यारे को सजा मिले लेकिन कचहरी मैं गवाही देने को कोई राजी नहीं।
घर के सामने सन्नाटा-सा छाया था।

दरवाजा अन्दर से बन्द। बलराम ने उसी जोम में दरवाजा ठेला और इसी के साथ जैसे सारा घर झनझना उठा।

''कौन है?'' भीतर से एक बीमार-सी आवाज सुन पड़ी। यह सवाल किसी स्त्री का था, जो न केवल कमजोर था बल्कि सहमा हुआ भी था।

''दरवाजा तो खोलिए...। मैं हूँ बलराम साहा...खागडा का...?''

दरवाजा धीरे-से खुल गया।

घर की पुरानी नौकरानी...कनाई की माँ एक किनारे हट गयी थी।...कनाई की माँ, जो बलराम को घ आता देख दरवाजा खेलने के साथ ही कभी खिलखिला उठती थी और मारे खुशी के चखिकर कहती थी, ''अरी आ भाभी, देखो तो सही, कौन आया है? बावा...हँऽ...समधी बाबू! लगता है, इससे बड़ी हाँडी आपके खागड़ा बाजार में नहीं थी शायद? विटिया रानी छेने की मिठाई कितना पसन्द करती हैँ...यह तो आपको पता है ही...ही...ही...।''

आज वह खिलखिलाहट गायब थी। वह एक चोरनी की तरह दीवार से सटकर खड़ी थी।

वह आदमी जो रिक्शा के ऊपर ही एक तरह से ढेर हो गया था...यहाँ शेर की तरह गरज रहा था। उसके हाथ में कोई हथियार तो नहीं था लेकिन स्थायी बन्दोबस्त के तौर पर छतरी तो थी ही। बलराम उसे ही ऊपर उठाये सदर दालान में दाखिल हो गया और ऊँची आवाज में चीखता रहा...''कहां है वे? कहां है? बाहर निकल हरामजादे.. कमीने...निकल बाहर। आ मैं तेरा खून पीकर फाँसी के फन्दे पर झूल जाऊँ!...बाहर तो निकल...शैतान...सुअर की औलाद...शराबी...हरामखोर कहीं के!''

घर के अन्दर एक-एक कमरे के सामने बलराम पाँव पटक-पटककर चीखता रहा।
कनाई की माँ ने सहमी हुई आवाज में कहा, ''बाप और बेटा दौनों को ही थानेदार पकड़कर ले गये हैं। लाश भी उठवाकर लै गये हैं और उनको भी...।''

''थाने ले गये हैं? अरे...फिर तौ मेरी गिरफ्त से निकल गये स्साले? उस हरामजादे को अपने हाथों मारने का सुख भी नहीं मिला।...ठीक है...अगर मैंने खूनी को फाँसी के तख्ते पर नहीं लटकवाया तो...! क्या? क्या घर की मालकिन को भी थाना पकड़कर लै गये?...''

''नहीं। 'औरतों को तो नहीं पकड़ा। बस पूछताछ भर करते रहे और चले गये।"

बलराम ने ऊँचे स्वर में कहा, ''पुलिस ने छोड़ दिया तो क्या...बलराम साहा कभी नहीं छोड़ेगा। जाओ...बुलाओ अपनी मालकिन को। बलराम साहा ने ठान लिया है कि वह उसे भी जेल में सड़ाकर दम लेगा। यह उसका दो-टूक फैसला है। अरे...साइस है तो बाहर निकलकर आँख मिलाए। यह पता तो चले कि पराये घर की बेटी के साथ...उफ।''

बलराम की चीख-पुकार और फटकार पर शशि कुण्डु के परिवार के लोग कमरे

से बाहर निकल आये। घरवाली भी...। वह एक मटमैली-सी लाल डोरिया किनारे की साड़ी पहने हुई थी। कलाई पर शाँखा चूड़ी, लोहे की रूलि1 और बाला। चेहरा आँचल से ढका था। कमरे से बाहर निकलकर वह जैसे बलराम के पाँव के पास ही औंधी पड़ गयी। रुँधे स्वर से सुबकते हुए उसने कहा, ''नहीं...ऐसा कोई साहस नहीं है, समधी साहब! आपको मुँह दिखाने का साहस नहीं। आप लोगों ने तो अपने घर की नीलमणि हम लोगों को सौंप दी थी...लेकिन हम उसे सहेज नहीं पाये, समधी बाबू! मेरी कोख ही के जाए...जी का जंजाल....अभागे बन्दर ने सोने-जैसी लक्ष्मी बहू को एकदम खत्म ही कर दिया।''
कनाई की माँ जैसे असन्तोष में फटकर बोल उठी, ''मालकिन...यह उल्टी-सीधी बात कहाँ से कर रही हो तुम! भाभी ऊपर अकेली सोयी थी....नींद में ही उठ पड़ी और वह समझ नहीं पायी कि पाँव कहीं पड़ रहे हैं। सीढ़ी का दरवाजा है...यह समझकर टूटे मुँडेरे के सुराख में पाँव डाल दिया और नीचे गिर पड़ी। बस...इतनी-सी तो बात है।''

''चुप कर...। इस सिखाई-पढ़ाई गयी बात को अपने पास ही रख!'' कुण्डु की घरवाली ने रोते-रोते ही उसे बुरी तरह झिड़क दिया। ''तू क्या समझती है समधी साहब इतने बेवकूफ आदमी हैं? उन्हें जो कहा जाएगा...वे वही समझ लेंगे? समधी साहब अपनी बुद्धि के बल पर बड़े-बड़े वकीलों और बैरिस्टरों के कान काटते हैं।...क्या वह इतना भी नहीं समझेंगे कि सच क्या है और झूठ क्या? अब तो इनके ही हाथ में हमारे जीवन-मरण की डोर है...।''

''हुँ....''

बलराम ने खोये-खोये ढंग से कहा, ''बात और घात में आप भी कुछ कम नहीं हैं, समधन जी!....और अब काहे की समधन-वमधन? भाड़ में गये सब सम्बोधन। कुण्डु की घरवाली...बस इतना ही काफी है। और आप इस बात को समझ रखिए....मैं उस हरामजादे...सूअर को खतम किये बिना छोडूँगा नहीं।...मेरी प्यारी अनाथ बिटिया को...जिसकी माँ उसे बचपन में छोड़ गयी...मेरे कलेजे के टुकड़े को...'' बलराम साहा का गला बैठ गया था लेकिन उसने ऊँची आवाज में कहा, ''और उस लतखोर की यह मजाल। उसे क्या मेरा डर नहीं? उसकी खाल में भूसा भरे बगैर मैं नहीं मानूँगा...।''
1. विवाह के समय स्त्री की बायीं कलाई पर लोहे की पतली-सी चूड़ी जिसके सिरे मिले नहीं होते।
कुण्डु की घरवाली का आँचल चेहरे से खिसका। उसका सुबकता हुआ स्वर अचानक फूट पड़ा। बिलखती हुई बोली, ''मुझे पता है, भाई साहब! इस पाप के युग में उसे सजा नहीं मिली। उसका बाप तो तभी उसकी गर्दन पकड़कर थाना ले जा रहा था। वह कह रहा था-तू तो ठहरा कुलनाशी। तूने मेरे घर की लक्ष्मी...शुभ लाभ वाली लक्ष्मी और दुर्गा जैसी सुन्दरी बहूरानी का खून कर दिया। चल...मैं तुझे फाँसी पर लटकाने का सारा इन्तजाम करता हूँ।...वह तो सिर्फ मेरा चेहरा देखकर थम गये। आप भी एक बार हो आइए, भैया...। चार-चार बेटियों के बाद यह जनमजला पैदा हुआ। उसे किसी तरह बचा लीजिए। आपके ही हाथों मेरा जीवन-मरण है।''

''आप आखिर कहना क्या चाहती हैं...'' बलराम साहा ने गरजते हुए कहा, ''भला मेरी ठकुरसुहाती किसलिए...। बलराम साहा कोर्ट में जाकर झूठी गवाही दे देगा...इसलिए?''

कुण्डु की घरवाली के चेहरे से आँचल हट गया था...रोते-रोते उसकी दोनों आखें लाल करमचे की तरह सुर्ख हो गयी थीं, जिन्हें उठाकर उसने कहा, ''इसमें झूठ जैसी कोई बात ही नहीं है, भैया! आप यही कहिएगा कि मुझे इस बात का यकीन नहीं होता कि शरत ऐसा काम भी कर सकता है।''

''जरूर...जरूर कहेगा...बलराम साहा...ऐसा ही कहेगा।...मेरी जीती-जागती बिटिया को...'' कहते-कहते थम गया वह।

कुण्डु की घरवाली एक बार फिर दुहाई देने लगी, ''क्या मैं वह सब नहीं समझती हूँ समधी साहब...!''

''खबरदार...जो समधी साहब और भैया साहब कहा मुझे...।''

कुण्डु की घरवाली ने सहमते हुए कहा, ''क्या उसके लिए मेरा कलेजा नहीं कचोटता है। मेरी देवी-सी पतोहू...घर की लक्ष्मी। लेकिन उस मुँहझौंसे बन्दर ने जान-बूझकर तो ऐसा कुछ नहीं किया भैया...उसने जो कुछ किया...नशे के झोंक में किया। लोग कहते हैं न...मद करे बद...शराब करे खराब....। ऐसे ही यार-दोस्तों के कुसंग में पड़कर मेरा बेटा इन्सान से हैवान बन गया...हाय राम...!''
''रुकिए, अरे रुकिए...भी'' बलराम ने खीज-भरे स्वर में कहा, ''अपने कुलांगार बेटे की वकालत करने की बहुत जरूरत नहीं। आग में हाथ डालेगा तो जलेगा नहीं? आग को अच्छे या बुरे से कुछ लेना-देना नहीं। समझीं आप! खून की सजा है फाँसी...मेरा दो-टूक जवाब है...फैसला है...इसे अपनी गाँठ में बाँध लीजिए...श्रीमती जी। कल घर जाते ही केस ठोंक दूँगा और मरते दम तक लड़ता जाऊँगा।''

श्रीमती कुण्डु ही नहीं...कनाई की माँ भी यह सुनकर सकते में आ गयीं। यह तो ठीक है कि इस आदमी की बाचतीत का ढंग शुरू से ही बड़ा ही उखड़ा-उखड़ा है

लेकिन यह अपनी ही बात पर टिका हुआ है...जौ भर टस-से-मस नहीं....हो रहा, ''वाह, खूब कह रही हैं आप भी, समधन जी...! अब आप ही मुझे जबरदस्ती खाने को कहें...सारा-का-सारा भोजन और माल-पकवान लाकर पटक दें...लेकिन पेट तो मेरा है न....है कि नहीं....। और खाइए....और खाइए...कहते हुए अगर आपने समधी जी का पेट ही फाडु डाला तो मेरा कहना है, कुण्डु की धरम पत्नी जी...कि इस पेट को सिलने की जिम्मेदारी किस पर है...? वह भी इसी बदनसीब बलराम पर?''

इस आदमी की बोली में अजीब-सी कड़वाहट घुली है। और उसमें कोई तालमेल भी नहीं है। इस पर उसने 'कुण्डु की धरमपत्नी' जिस विरु ढंग से कहा है-लगता है किसी ने कनपटी पर तमाचा जड़ दिया है।

लेकिन स्त्रियाँ सारा अपमान पी जाती हैं। उसने भी अपने दोनों हाथों को जोड़कर सिर पर रखा और चिरौरी के स्वर में कहा, ''अच्छा भैया, अगर मेरे बेटे को फाँसी हो गयी तो क्या आपकी बेटी वापस मिल जाएगी? आप माँ की ममता की हाहाकार की बात सोचकर...''

बलराम तेजी से पाँव पटकता वहीं टहलने लगा था। इस बात को सुनकर वह वहीं थम गया और जैसे अपने शिकार पर टूट पड़ा, ''अच्छा तो...यह सब सोच-समझकर ही बलराम साहा अदालत में अपना हलफिया बयान देगा...है न...! अरे मैं पूछता हूँ कि उसके कलेजे की जलती आग को किसने देखा है?''
कुण्डु की घरवाली एकदम से बुझ ही गयी। सिर पर का आँचल खींचते हुए उसने बड़े ही ठण्डे ढंग से कहा, ''मैं समझ गयी, आप अपने मन की ही करेंगे। मैं तो यही सोच रही थी कि अब कोई चारा तो है नहीं...वह लौटकर तो आएगी नहीं। ठीक है....जो उचित जान पड़े वही करेंगे।...मैं कह रही थी धूप-बतास में चलकर आये हैं, एक डाब1 काटकर दूँ...आप पीएँगे न....।''

बलराम साहा की उछल-कूद और बकझक थोड़ी कम होने को आयी थी। लेकिन इस बात से एक बार फिर भभक उठी। तमककर बोला, ''क्या कहा...? आप डाब काट रही हैं? बलराम साहा इस ड्योढ़ी पर बैठकर पानी पीएगा?....अरे बलराम तो डाब उसी दिन पीएगा जिस दिन हत्यारे को फाँसी पर लटकाएगा।''

यह कहकर उसने दरवाजे का हुडका खोला और दनदनाता हुआ बाहर निकल गया।

लेकिन यह समझ में नहीं आया कि बलराम रिक्शा पर बैठकर स्टेशन की तरफ क्यों रवाना हो गया? क्या वह लाशघर नहीं जाएगा...एक बार और आखिरी बार अपनी बेटी फुलिया को देखने के लिए।
1. कच्चा नारियल।
नहीं...क्षत-विक्षत फुलिया को नहीं देखना चाहता बलराम। उसके मन में जो फूलकुमारी खिली रही है...वही जिन्दा रहे।...इतना ही काफी है।

इसके बाद तमाम अखबारों में 'फुलेश्वरी कुण्डु हत्या-काण्ड' के समाचार छपते रहे। कुण्डु बाप और बेटा हिरासत में सड़ते रहे, उनकी जमानत हो न पायी। यह भी पता चला कि मोहल्ले के कई लोग चश्मदीद गवाह की हैसियत से अपनी गवाही देने को तैयार हैं।

इस मामले में सबसे आगे है वही झबरे बाल वाला युवक और उसका वही गिरोह।...ये सब शशि कुण्डु के नाते-रिश्तेदार ही थे, उसकी बुआ के घर में पले-बढ़े। शशि कुण्डु उन्हें 'कुसंगी' कहकर बुलाता। उनकी आँखों में सुलगती जहरीली आग देखकर और गाहे-ब-गाहे उसके घर में धमकते हुए 'भाभी जी...भाभी जी...' कहकर ताक-झाँक किया करते तो वह उन्हें झिड़क दिया करता...। कहने का मतलब है कि उन्हें कोई शह नहीं देता था।

दूसरी ओर, शरत की चाल-ढाल के चलते विरोधियों की संख्या ही कहीं अधिक थी। लेकिन फुलेश्वरी का मामला कोई ज्यादा दिनों तक नहीं चला। और खुद मुजरिम फाँसी पर लटकने के बदले छाती ठोंकता हुआ साफ बच गया।

इस मामले को रफा-दफा करने में खुद बलराम साहा की गवाही ने बड़ी जबरदस्त भूमिका निबाही। हालाँकि यह मामला उसी ने दायर किया था।

लेकिन....

अदालत में अपनी गवाही देते हुए उसने ऊँची आवाज में कहा, ''अब मैं क्या कहूँ हुजूर...। मेरी बिटिया-बचपन में ही माँ जिसे अनाथ छोड़ गयी-की मौत की खबर सुनकर मेरे तो होश ही उड़ गये। और भला किसे होश रह सकता है? धर्मावतार...आपके यहाँ ऐसा कुछ होता तो आप होशो-हवास में रहते?...क्या गुस्से में भरकर केस नहीं ठोंक देते?''
भरी अदालत में अजीब तरह का सन्नाटा छा गया और गहमागहमी लेकिन बलराम अपनी रूखी आवाज में रुक-रुककर कहता चला गया। ''अब मुझे उसकी बचपन की बीमारी की याद आ गयी है। मैं धर्म और विवेक की दुहाई देता हुआ उस बीमारी के बारे में बता रहा हूँ...। और अदालत को खामखाह परेशान करने के लिए जो भी सजा दी जा सकती है...मैं उसके लिए तैयार हूँ।...बलराम साहा इसे सिर-माथे लेगा।

''लेकिन यह बीमारी क्या थी भला? जिसे फुलेश्वरी कुण्डु बचपन से ही भुगत रही थी। यह कोई दूसरी चीज नहीं, नींद में चलने की बीमारी थी।...बचपन से ही रात-बिरात उठकर फुलिया कितनी ही बार दरो-दीवार से टकरा-टकराकर अपना कपाल फोड़ चुकी है। सामने दीवार खड़ी है...यह समझकर कई-कई बार उड़के हुए दरवाजे के पल्ले से टकराकर चोट खाती रही है। ऐसा भी हुआ है कि उसे घर में बिछी चारपाई...बिछावन, आलना और दरवाजे का बहुत खयाल नहीं रहता था और रोशनी जलाते समय वह ठोकरें खाती रहती थी।.. यही सब कुछ।...

''उसकी इस बीमारी को लेकर लोग उसकी हँसी उड़ाया करते थे। किसको क्या पता था कि हँसी-मजाक वाली बात ही फुलेश्वरी के लिए जानलेवा बीमारी साबित होगी।''

ऐसी गवाही की सच्चाई जानने के लिए 'धर्मावतार' जज साहब क्या कुछ करते यह बात दीगर है लेकिन सन्देह करने का कोई सवाल ही नहीं था क्योंकि गवाह कोई और नहीं, फुलेश्वरी कुण्डु का बाप ही था।

यही वजह थी कि शशि कुण्डु का बेटा शरत कुण्डु बेकसूर साबित हुआ और छाती ठोंकता हुआ अदालत से बाहर निकला। इसमें हैरानी की कोई बात न थी।


(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)

  • मुख्य पृष्ठ : आशापूर्णा देवी की कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • बंगाली/बांग्ला कहानियां और लोक कथाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां