बेआसरा (कहानी) : आशापूर्णा देवी

Beasra (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi

उँगलियों में घूम रही जप-माला को एक तरफ फेंककर अन्नपूर्णा मौसी चटख गये रंग वाले टिन के बक्से को सहेजने बैठ गयी। वह चुप्पी साधे अपना कोई काम करने वाली नहीं। उनकी जुबान भी साथ-साथ कैंची की तरह चलती रहती है...पूरे दम-खम से।

वह अब इस घर में एक पल के लिए नहीं रहेगी। और इस घर की चौखट लाँघने के पहले एक चुल्लू पानी तक मुँह में नहीं डालेगी। अपने इस पुराने संकल्प को जोर-जोर से दोहराते हुए मौसी ने बक्से के अन्दर महीनों से आँखें मूंद लेने वाली नामावली और मटका चादर निकाल लिया। इसके बाद पुरानी भारी साड़ी और कम्बल को बड़ी बेरहमी से झटके के साथ बाहर निकाला और फिर उन्हें तहाने लगी।

“बहुत हुआ...बाप रे बाप...अब और नहीं...बहन की बेटी के घर आकर बड़ा सुख पाया रे... । मरते दम तक याद रहेगा।...जब तक मौत गले पर सवार न हो...कोई अपनी सौतेली माँ की बेटी या उसके भतार के घर अपनी जान देने नहीं जाती। मुझे पागल कुत्ते ने काटा था जो मैं यहाँ आयी थी...ठीक ही हुआ...अच्छी सजा मिली। अब मेरी जान छोड़ो बाबा...यहाँ से निकल पाऊँ तो जान बचे..."
उसकी बातों का यह नमूना भर था।

कई रूपों में और कई रंगों में अन्ना मौसी अपने स्वर और तेवर को बदल-बदलकर बकती-झकती रही। उसकी बातों को सुनकर यह सहज ही समझा जा सकता था कि इस घर के लोगों ने अपने मतलब के लिए मौसी को छेक रखा है। इसीलिए मौसी आज यहाँ से जाने को उतावली हो उठी हैं। और आज के दिन तो ऐसी एक दुर्घटना हो गयी है कि उसके लिए एक पल को यहाँ ठहर पाना मुश्किल है !

लेकिन इस घटना के ठीक दो दिन बाद ही जो स्थिति आने वाली होगी-उसे देखकर यही जान पड़ेगा कि मामला कुछ और ही रहा होगा।

इस चटखे हुए रंग वाले टिन के बक्से में रखी चीजों को सहेजना मौसी की दिनचर्या का एक अभिन्न और अपरिहार्य अंग है। लेकिन उसने अब भी अपने दिमाग को पूरी तरह खराब होने नहीं दिया है और तभी तो वह बहन-बेटी के घर-संसार को उजड़ता हुआ देखकर आनन-फानन जाना नहीं चाहती ! अब क्या करे बेचारी ? अपमान का चूंट पीकर रह जाना पड़ता है उसे और इसी घर का दाना-पानी प्वीकार करना होता है उसे...और झक मारकर...मन मसोसकर उस दिन रह जाना भी पड़ता है ।

लेकिन उसके भतीजे की पुत्रवधू रमोला क्या सचमुच में कोई ऐसी-वैसी औरत है जो मौसी को बराबर तंग करती रहती है। और तभी उसके लिए घर में टिकना मुश्किल हो जाता है। नहीं, ऐसा नहीं है। पढ़ी-लिखी औरत है। नौकर-चाकर से भी कभी 'तू-तड़ाक' कर बातें नहीं करती। अपनी मौसिया सास को उसने कभी भी, बुरा-भला कहा हो-ऐसा नहीं जान पड़ता। कोई है जो यह साबित कर सके ?

नहीं, कैसे नहीं भला ! और यही सब तो झेला नहीं जा सकता। जो कहना है मुँह पर कह दो। एकदम साफ-साफ। जो सहज है, स्वाभाविक है और समझ में आ जाए-ऐसी बात। इससे कुछ तो पल्ले पड़ता है। और बात का जवाब भी दिया जा सकता है। और बातों को बतंगड़ बनाने वाली इस सीधी-सादी दीख पड़ने वाली लड़ाई में और कोई जीते या न जीते...अन्ना मौसी की जीत सोलह आने तय है।
लेकिन यह क्या ?

दूसरे को मुँहतोड़ जवाब देने के बदले रमोला के चेहरे पर हर घड़ी एक बेजुबान-सी कड़वाहट और तिक्तता क्यों तैरती रहती है ? यह उसका बड़ा निष्ठुर खेल है। उसके चेहरे पर तिरने वाली एक-एक भाव-रेखा जैसी बड़ी ग्रूझल और विरक्ति भरी अवमानना से प्रश्न किया करती, “कौन है तू...? यहाँ क्यूं है भला तू ! सारी जिन्दगी यहीं टिके रहने की आस लगाये बैठी है ?"

अन्ना मौसी भले ही अनपढ़ हो लेकिन वह इस भाषा को पढ़ सकती है। पर वह यह नहीं जानती कि इस भाषा में छुपे सवालों का जवाब वह कैसे दे ? इन दबे-छिपे हमलों के सामने अपनी हार स्वीकार करने के सिवा उसके पास और कोई चारा नहीं है।
तभी तो इतनी जलन है उसके सीने में।

और यही वजह है कि जाने-अनजाने या किसी नौकर-नौकरानी या घर के नन्हे-मुन्नों से हो गयी किसी चूक या गलती के बहाने उसे यह तूफान खड़ा करना पड़ता है। इस जंग लगे पुराने बक्से के सिवा अन्ना मौसी के पास और भला है भी क्या ? किसी मुठभेड़ के आधुनिक हथियार से वह अपने को कैसे लैस कर सकती है ? और आज जब अचानक एक नटखट बच्चे का पाँव उसके ऊपर पड़ गया तो वह अपने को बड़ा आहत महसूस कर रही है और घण्टे भर से चीख-चिल्ला रही है।

“अरे मेरे गले में फन्दा डाल दे रे।...अरे बहन-बेटी दामाद के घर पर पड़ी-पड़ी मैं मलाई और रबड़ी उड़ा रही हूँ रे...। लेकिन अब और नहीं बाबा...। इन नौकर-चाकरों की लात मैं खा नहीं पाऊँगी रे...। अरे विभूति कहाँ चला गया रे ? अभी तुरत जाकर मेरे किष्टो को तार दे दो-वह मुझे लिवा ले जाएगा। वह बेकार हो...कँगला हो, मेरी कोख का जाया तो है...उसका दाना-पानी हराम का तो नहीं है। इस मलाई-रबड़ी से मुझ अभागन का क्या काम । मैं बेटे के घर में खुद्दी उबालकर खा गूंगी। तू जा और जल्दी से तार भेज दे रे, विभूति...।"

विभूति कमरे के अन्दर चुप बैठा किसी मुवक्किल की फाइलें उलट रहा था। उसे देखकर यह नहीं जान पड़ा कि बात उसके कान में पड़ी भी है। लेकिन रमोला के कान में कोई पिघला हुआ सीसा नहीं डाला कि वह यह सुनकर भी सह ले।

वह तमतमाती हुई कमरे में दाखिल हुई और फट पड़ी, “आखिर ऐसा कब तक चलता रहेगा ?"
विभूति जैसे असहाय-सा जान पड़ा। उसने बड़ी बेबसी से कहा, “तो फिर किया ही क्या जा सकता है ?"
“नहीं, कुछ नहीं किया जा सकता। है न ! बस चुपचाप बैठे-बैठे इस गाली-गलौज को सहन करते रहो। क्या बात है ?"
विभूति ने उत्तर में जो कुछ कहा, वह टालने वाला ही था, “ऐसा करो कि उसके साथ थोड़ा निबाह कर ही चलो। ऐसा करने पर..."

“निबाह कर...? ओ...फिर तो बादल और मिण्टू को लेकर मुझे इस घर-संसार से विदा होना पड़ेगा। इसके सिवा उससे निबाह कर पाने का और कोई चारा नहीं। लेकिन इतना तो मुँह से फूटो कि में किस खुशी में हमेशा इतनी अशान्ति झेलती विभूति ने झुंझलाकर कहा, "जरा धीरे बोलो। अच्छा, यह तो बताओ कि क्या किया जा सकता है? किसी का स्वभाव तो नहीं बदला जा सकता। अब बीच में समझाने-बुझाने की कोशिश तो करता हूँ।"

“हाँ, काम तो तुम हमेशा समझदारी का ही करते हो...ठीक है...तो फिर यह नौटंकी चलती रहे। वे जी भरकर हमें कोसती रहें...जो चाहें बकती-झकती रहें, दिन में पाँच बार तुम्हारे घर से चले जाने का ढोंग रचती रहें और तुम उनकी 'तुम्हीं हो माता-पिता...' कहकर आरती उतारते रहो।"

विभूति ने आहत हँसी के साथ पूछा, “तो फिर क्या करूँ ? मैं यह तो नहीं कह सकता कि 'ठीक है चली जा।' और तुम तो अच्छी तरह जानती हो रमोला, कि हम लोगों के सिवा उसका कोई दूसरा ठौर-ठिकाना भी तो नहीं।"

रमोला ने खीज-भरे स्वर में कहा, “जानती कैसे नहीं भला ! खूब अच्छी तरह जानती हूँ। तभी तो इतने दिनों से सब कुछ चुपचाप सहन करती जा रही हूँ। लेकिन जिसे इस बात का होश रहना चाहिए था उसे यह सब बताये बिना एक नकली दुनिया रचकर और कितने दिनों तक यह सब चलता रहेगा ? आखिर कब तक ? मैं यह समझ नहीं पाती कि एक गलत बात का ढोल कब तक पीटा जा सकता है। हर किसी को अपनी हालत और हैसियत के बारे में पूरी तरह चाक-चौकस रहना चाहिए। किसी पराये का आसरा मिले, इस बात की झूठी कल्पना से और झूठ के सहारे बार-बार और इतनी बुरी तरह किसी सच को कोसा नहीं जा सकता। यह तो अजीब बात है। जो लड़का छह महीने पहले मर गया और भूत हो गया-उसका इतना रोब ?"
“ओ हो...रमोला...तुम क्या कोई बात आहिस्ता से नहीं बोल सकती !"

“आहिस्ता से...भला क्यों बोलूँ ? मैं कोई गूंगी तो नहीं।" रमोला कहती गयी, "मैं तुम लोगों की तरह फालतू के सेण्टिमेण्ट में पड़ी रहना नहीं चाहती, और मरने की खबर सुनकर किसी का हार्ट फेल होते हुए भी मैंने नहीं देखा। हो सकता है, तुम्हारी इस प्राण-प्यारी मौसी का हो जाए। लेकिन याद रखना...मैं बताये देती हूँ, मैं ज्यादा दिनों तक इस लुका-छिपी वाला खेल नहीं खेल पाऊँगी।"

"तुम यह सब उसके मुँह पर कह सकोगी?" ।
रमोला ने उखड़े स्वर में कहा, "इसमें कह सकने और न कह सकने की क्या बात है ? इस बात को हमेशा के लिए थोड़े न छुपाया जा सकता है ?"
"जितने दिन तक सम्भव हो। और फिर इसमें हमारा नुकसान ही क्या है, रमोला ?"

“बात नफा-नुकसान की नहीं है। लेकिन झूठ आखिरकार झूठ ही है। अगर उसके हक में कोई बात नहीं जाती तो नहीं जाती। और ऐसा न होता तो फिर 'दुःसंवाद या बुरी खबर' जैसी कोई बात ही नहीं होती। दो दिन रोएगी-चिल्लाएगी... हाथ-पाँव पटकेगी...और क्या ? इसके बाद सब ठीक हो जाएगा। यह तो समझ जाएगी कि मैं आखिर किस जमीन पर खड़ी हूँ।...तुम्हारा यह फालतू का सेण्टिमेण्ट... एकदम बेमानी है।"

यह कहकर रमोला पाँव पटकती हुई कमरे से बाहर निकल गयी। और इधर विभूति खुले दरवाजे की तरफ फटी आँखों से देखता रहा। उसके मन में रमोला की बातें घुमड़ती रही थीं। सचमुच...उसकी ही बातें।....

__रमोला पढ़ी-लिखी है। अपनी साफ-सुथरी और खरी जुबान में चाहे जो भी कहे, जैसे भी घुमा-फिराकर कहे...विभूति के लिए उसकी बातों का मतलब एकदम साफ है। ठेठ बोली में जिसे कह सकते हैं कि वह बड़बोली मौसिया सास को एकदम ढेर कर देना चाहती है।...चारों खाने चित...

और वह आखिर ऐसा क्यों न चाहे ? जो उसके अधीन है-उसका ऐसा रोब-दाब वह कैसे सहन कर सकती है भला ? और जबकि उसके सारे अहंकार को मटियामेट करने का अचूक मन्त्र उसकी मुट्ठी में बन्द है।

विभूति की यही तो एक कमजोरी है। एक तरह की अस्वाभाविक भावुकता। और क्या ? उसने पिछले छह महीनों से किष्टो के मरने की खबर को अपने सीने में छुपा रखा है। इस बारे में अन्ना मौसी को कुछ कह पाने का साहस नहीं जुटा पाता। उसके दिन में दस-दस बार यह चिरौरी करने पर भी महीं...कि किष्टो को तार भेज दो।

हालाँकि इस बात को दोहराना गलत ही होगा कि किष्टो नामक सपूत पर अन्ना मौसी को बड़ा भरोसा था। वह तो थोड़े दिनों के लिए अपनी सेहत सुधारने के लिए बहन-बेटी के घर चली आयी थी।

अपने होनहार बेटे के लिए दो जून अन्न पाने की तनिक भी उम्मीद नहीं थी अन्ना मौसी को। दरअसल उसके बेटे का ठौर-ठिकाना गाँव के बाहर एक पिछड़ी बस्ती में ही था। जब कभी उसे रुपये-पैसे की जरूरत पड़ती, वह घर आ धमकता और माँ से अनाप-शनाप बक-झक करता रहता और अगर उसे पैसे न मिले तो वह वर्तन-भाँड़े लेकर गायब हो जाता और फिर कुछ दिनों तक पता नहीं कहाँ पड़ा रहता !...अपने बेटे से पूरी तरह निराश हो जाने के बाद ही मौसी ने अपनी मडैया पर साँकल चढ़ा ताला लगा दिया और अब यहाँ जमाई के घर डेरा डाले बैठी थी। बेटी-जमाई द्वारा भेजे गये माहवारीखर्चे पर ही जब सारा कुछ निर्भर था तो उनके पास जाकर रहना ही कहीं ज्यादा अच्छा था।

कुछ साल वहाँ बिताने के बाद अन्ना मौसी की खूबियों की बदौलत बेटी भगवान को प्यारी हो गयी। यह बताने की जरूरत नहीं कि उसके गुजर जाने के बाद उस घर में टिके रहना मुश्किल ही था। अपनी पत्नी के नाते बड़बोली सास को झेलना जहाँ तक सम्भव था वहाँ तक जमाई बाबू ने झेला ही था। पत्नी के मर जाने पर इसकी कोई जरूरत नहीं रह गयी थी। इसलिए एक दिन जमाई के घर में झाड़ मारकर, जंग खाये टिन का बक्सा उठाये अन्ना मौसी चली आयी अपनी बहन के जमाई विभूति के घर। इस बात को आज साल भर तो हो ही गया होगा।

उस समय रमोला की बात तो जाने भी दें-विभूति ने अन्ना मौसी के आगमन को बड़े उत्साह से लिया था-ऐसी बात न थी। थोड़े दिनों की बात है, यही समझकर चुप ही रहा। लेकिन अन्ना मौसी यहाँ से जल्दी ही टलने वाली है, ऐसा कोई संकेत उसे नहीं दीख पड़ा। उसने यहाँ कदम रखते ही इस 'नवाबी ठाठ-बाट' वाली गृहस्थी का सिरा थाम लेना चाहा। पत्नी, बेटे और दुनिया भर के नौकर-चाकर सभी बेचारे विभूति का बेड़ा गर्क करने पर तुले हैं-इसे उसकी आँखों ने दो ही दिनों में ताड़ लिया। और जैसा कि कहा भी गया है, 'माँ-मौसी एक जान'-उसी नाते क्या अन्ना मौसी मझधार में डूब रहे इन बच्चों को बचाने की कोशिश नहीं करेगी।

-“लो...इस छोटी-मोटी गृहस्थी में पचास ठो नौकर-चाकर भला काहे के लिए ? इनको देखकर तो मेरे तन-मन में आग लग जाती है।"
-"तीस रुपये महीने पर एक बाभन रसोइया ? आखिर काहे के लिए। घर की बहू दो मुट्ठी चावल नहीं सिझा सकती ?...चौबीस घण्टे सूई-पोकर लिये बैठी न जाने क्या निहाल करती रहती है ?"
-“और बाल-बच्चों को इस तरह का नवाबी खाना खिलाने की क्या जरूरत है भला ? दूध, मलाई, माखन, मिसरी के बिना कलेवा गले से नीचे नहीं उतरता ? दो-दो ठो पराठे सेंक दो और अचार डालकर सामने रखो...इतना भी नहीं होता ?"
-"विभूति जैसा मौगड़ा आदमी ही यह सब सहन कर सकता है। अरे कोई दूसरा बच्चा होता न...तो जूते मार-मारकर सारा जहर उतार देता।"

अन्ना मौसी जब पहले-पहल यहाँ आयी थी तभी उनके मुँह से जो उद्गार फूटे थे-ये उनके कुछ नमूने भर हैं। लेकिन रमोला ने अपनी चुप्पी, जलती हुई निगाह और बिना किसी प्रतिक्रिया के सारी चोट को सह पाने की तैयारी के साथ उस दौर को झेला था। इसमें उसे कोई ज्यादा वक्त नहीं लगा। इसके बाद आया छोटे-छोटे अधिकार और अभियान का जमाना। इस दौर में अन्ना मौसी ने बड़े ताम-झाम के साथ यह ऐलान किया कि आखिर वह इस घर-संसार में कौन होती हैं-वह नौकर-चाकर की लम्बी कतार में तो शामिल नहीं हैं। क्या जरूरत है उन्हें इस बारे में बार-बार कहने की?

रमोला की सर्द खामोशी और उदासीनता से मान और अभिमान का वह दौर भी खत्म हुआ। अब ऐसा होने लगा कि सारे लौंडे-लपाड़े, नौकर-नौकरानी जान-बूझकर मौसी को अपमानित करने पर तुले हैं। और लाख चाहने पर भी उसका रमोला के साथ सीधे झगड़ा करना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। और इस अपमान से आहत अन्ना मौसी इसीलिए रह-रहकर किष्टो को तार देने पर जोर देती रहती है। और ये लोग उसके बार-बार कहे जाने पर भी उसके जाने का कोई इन्तजाम नहीं कर रहे, इस बात को उसने पूरे मोहल्ले भर में प्रचारित कर रखा है।

इन सारी बातों के बीच जो जरूरी खबर है वह यह है कि कुछ महीने पहले अन्ना मौसी के गाँव से मुकुन्द नाम का एक छोकरा-किष्टो के उसी ताड़ी वाले अड्डे का मारा-आया था।...आया और घर के बाहर बैठा रहा। बाद में विभूति से मिलकर गया था। वैसे घण्टे भर से ज्यादा नहीं रुका।

पता नहीं उस लड़के के आने के बाद विभूति के मन में ऐसी कौन-सी करुणा का संचार हुआ कि उसने इस बात को अन्ना मौसी से छुपाये रखा और आज तक उसे प्रकट नहीं कर सका। बात न तो अन्ना मौसी की धृष्टता की थी और न रमोला के उत्पीड़न की। विभूति यही सोचता रहा कि अन्ना मौसी की बकझक में छिपी पीड़ा की जो ग्रन्थि है उस ओर से रमोला ने अपनी आँखें क्यों मूंद रखी हैं ? अगर वह उस पर तरस नहीं खा सकती तो कम-से-कम उसे अपमानित तो न करे। आखिर रमोला में ऐसी उदारता क्यों नहीं है ? अगर किष्टो की मौत की खबर उसे न भी हो तो बहन-जमाई के घर में दो मुट्ठी भात पाने का जो लालच है उससे भी वंचित होकर वह आखिर जाएगी कहाँ ? अपने उसी गाँव में...जहाँ उपवास रखने के सिवा और कोई चारा नहीं। क्या रमोला इस छोटी-सी बात को समझ नहीं पाती ? ये औरतें एक असहाय वृद्धा को भला किस तरह अपमानित कर सकती हैं ? जो आश्रित है उसी से कुढ़ती-चिढ़ती हैं।

लेकिन रमोला पर ही दोष मढ़ने से क्या होगा ? वे जो किसी के भरोसे रहते हैं उन्हें भी तो दैन्य भाव से अधीनता स्वीकार करनी चाहिए। यह तो होता नहीं, उल्टे वह विभूति के पास दौड़ी आएगी और रो-रोकर बोलेगी, “अरे बेटा, और कितने दिनों तक तेरी गृहस्थी में झाड़ और लात खाकर गुजारा करूँगी। तू ही कोई रास्ता निकाल, बेटा!"

अन्ना मौसी के अचानक टपक पड़ने और उसकी दुहाई सुनते हुए विभूति ने हैरानी से चारों ओर देखा। आस-पास ही कहीं रमोला तो नहीं ? यह जिस तरह घबरा उठी है, उससे बड़ा डर लगता है। वैसे अन्ना मौसी का जैसा रवैया है, रमोला ठीक ही डरी हुई है। आँखों से भले ही दीख न पड़े, कानों को इस बारे में सारी खबर है। यह तो विभूति का आग्रह ही था, जिसकी रक्षा करने के लिए ही अन्ना मौसी ने अपने घर जाना मुल्तवी कर दिया और इस बात को अगर रमोला ही नहीं जान पायी तो फिर इसका क्या फायदा ?

अब चाहे जो भी हो, ओट में रहना ही सुविधाजनक है...जानकर विभूति ने बड़े सहज भाव से कहा, "अच्छा...अच्छा, सब हो जाएगा। इतनी जल्दी भी क्या है ? आखिर किसने क्या कह दिया ? मैं उसे अभी बुलाकर डपट देता हूँ...ये छोकरे सभी बड़े पाजी हो गये हैं।"
अन्ना मौसी की आँखें अब तक छलछला उठीं। वह बोली, “किसी का कोई दोष नहीं है बेटा...मैं ही सारी आफत की जड़ हूँ। इस पापन को आखिर कब तक पोसते रहोगे, बेटा ! इस आफत-बलाय को धक्के देकर निकलवाने के लिए कुछ तो करो।"
“अच्छी मुसीबत है...!" विभूति ने पूछा, “तुम क्या अभी इसी घड़ी निकल जाओगी? अगले महीने बादला का उपनयन संस्कार होना है। तुम्हारे न रहने पर यह सब कैसे होगा भला ?"

"मैं भला किस गिनती में हूँ बेटा कि मेरे न होने से सारा काम रुक जाएगा।...तू भी क्या कह रहा है ?" कहती हुई मौसी ने चैन की एक साँस ली और फिर उठ खड़ी हुई। इसके बाद गर्दन ऊँची कर बोली, “मैं भी यही चाह रही थी कि बच्चे के गले में मोटी जनेऊ पहनाकर ही जाऊँगी। अब तुम्हारी बात पर रुकना ही पड़ेगा। बहूरानी ठहरी पढ़ी-लिखी...उसको इन सारी रीत-नीत वाली बातों से क्या लेना-देना ? लेकिन याद रहे इसके बाद एक दिन के लिए भी नहीं रुकूँगी। पहले ही बोल बता दिया...हाँ..."
और इस बात को कोई नहीं जानता कि विभूति की आँखें क्यों छलछला उठी हैं।

च्च...। बस थोड़े-से ही सन्तुष्ट हो जाती है बेचारी...इन लोगों के लिए थोड़ा-सा सम्मान इतना अधिक मूल्यवान हो उठता है ? और इस सम्मान के लिए अगर थोड़ा-सा दिखावा भी करना पड़े तो इसमें क्या आता-जाता है? आखिर छोटी-मोटी सहानुभूति दिखाने में भी आदमी इतनी कंजूसी क्यों करता है भला ? उसने मौसी से भरे गले से कहा, "अच्छा, तब की तब देखी जाएगी। अभी के लिए तो निश्चिन्त हुआ बाबा। उस जेल में रहना कोई बच्चों का खेल है। अब तम लोगों ने जितना कुछ जान रखा है...ठीक वैसा होता नहीं है...अच्छा, आज तुम्हारी निरामिष रसोई में क्या कुछ बनेगा, बताओ तो ? बहुत दिनों से बड़ी खाने को नहीं मिली और केले के मोचे की सब्जी...वह सब क्यों नहीं ?"

अन्ना मौसी ने पोपली हँसी हँसते हुए कहा, “लो, सुनो इस पगले की बात ! केले के मोचे की सब्जी क्या मुंह से निकली बात की तरह बन जाती है ? उसे रात में ही काट-कूटकर पानी में भिगोना नहीं पड़ता ? अब आज तो बन नहीं पाएगी। और...कल है मंगलवार...इस दिन मोचा नहीं खाते। अब तो परसों ही बनेगी।"

विभूति ने निराश होकर कहा, "हाय रे मेरा नसीब ! अब परसों किसने देखा है ?"
"माँ षष्ठी...तेरी सहाय हों... । तू भी...जो मुँह में अल्ल-बल्ल आता है...बक देता है..." ऐसा कहते और असीसते हुए अन्ना मौसी बड़े प्रसन्न मन से निरामिष रसोईघर की ओर बढ़ गयी...चूल्हा सुलगाने के लिए।
लेकिन वह पास ही, दालान में जल रहे चूल्हे से भी कहीं अधिक दाह लिये और भीतर से भरी बैठी रमोला की ओर तीखी नजरों से तकना नहीं भूली।
आये दिन इस तरह की घटनाएँ घटती ही रहती थीं।

रमोला आखिर इस मौसिया सास को किस तरह सबक सिखाए ! जब उसका पति ही इस मामले में उस पर पाबन्दियाँ लगाने को उतारू है और मजे की बात यह है कि वह मन-ही-मन अपने पति से डरती भी है। अपनी जुबान से वह भले ही चाहे जो कह ले उसके मन में डर तो बैठा ही रहता है।
लेकिन जैसा कि कहा भी गया है, चोर के सौ दिन तो साधु का एक दिन। पता नहीं, रमोला के लिए कभी वह दिन आएगा भी या नहीं !

तभी अपने एक मुवक्किल के काम से विभूति को तीन दिनों के लिए आसनसोल जाना पड़ा। अन्ना मौसी के बारे में उसकी चिन्ता ने उसे परेशान न किया हो, ऐसी बात नहीं। लेकिन इस बारे में साफतौर पर अपनी पत्नी को यह कह सके कि मेरे न रहने पर मौसी के साथ कोई बुरा सलूक न करना, बताना भूल गया।

चार दिनों के बाद जब वह लौटा तो अपनी दूसरी व्यस्तताओं के चलते मौसी की खोज-खबर लेने की फुरसत नहीं मिली। उसे जब इस बात का खयाल आया तो उसने हँसी-हँसी में कहा, “अरे भाई, बात क्या है ? मिण्टू और अन्ना मौसी की आवाज सुनाई नहीं पड़ रही। लगता है घर को लखवा मार गया है।"

मिण्टू ने डरकर अपना चेहरा एक बार ऊपर उठाया और फिर नीचे झुका लिया। ग्यारह-बारह साल की बड़ी ही होशियार लड़की...दुनियादारी की बहुत-सी बातों को समझने वाली।...उसने एक बार अपनी माँ की ओर देखा और फिर अपनी आँखें नीचे कर लीं।
"बात क्या है ? माँ-बेटी एक-दूसरे का मुँह क्यों ताक रही हैं?"
विभूति की झुंझलाहट छिप न सकी। और बाप की इस परेशानी के डर से नहीं, बल्कि बाप के प्यार के भरोसे ही मिण्ट्र ने जल्दी से बात उगल दी. “अन्ना दादी किष्टो चाचा की मौत की खबर सुनने के बाद...दो दिनों से गुम-सुम बैठी हैं। अपने कमरे में। चोर की तरह।"
विभूति लगभग एक मिनट तक घरवाली की ओर चुपचाप देखता रहा। उसके होठों पर फिर एक कुटिल मुस्कान खिंच गयी। उसने पूछा, “इतना अच्छा मौका तुम भला छोड़ भी कैसी सकती थी...है न ?" ।

रमोला ने तिरस्कार का उत्तर तो पहले से ही तैयार कर रखा था लेकिन वह इस व्यंग्य के लिए तैयार न थी। वह एक बार तो सकते में आ गयी लेकिन दूसरी बार जैसे सुलग उठी। विषबुझे स्वर में बोली, “ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है। अचानक उस खबर के बारे में जानकर वह कोई पागल नहीं हो गयी। यह ठीक है कि वह दो दिन से चुप्पी साधे बैठी है लेकिन अपनी बेहयाई छिपाने के लिए। और मौत की यह खबर उसके लिए कोई नयी बात नहीं थी, उसने ठीक मौके पर ही सब कुछ सुन लिया था। लेकिन तुम्हारी इन जैसी मौसियों और बुआओं के श्रीचरणों में कोटि-कोटि बार नमस्कार करने को जी चाहता है। अपने इकलौते और जवान बेटे की मौत की खबर तक को एक सिरे से हजम कर जाने वाली और पिछले छह महीनों से उसी बेटे का नाम ले-लेकर जो औरत नौटंकी कर सकती है उसे और कहीं नहीं-तुम्हारे ही घर में देखा है मैने।"

विभूति को ये सारी बातें बड़ी अजीब-सी जान पड़ीं। लेकिन रमोला के कुटिल और विद्रूप तेवर को देखकर उसे दूसरा कोई सवाल करने की इच्छा नहीं हुई...लेकिन उस चेहरे को तकते रहने पर उसके मन में अचानक बात जरूर काँध गयी-ऐसे चेहरे और तेवर वाली औरत के साथ वह पिछले उन्नीस वर्षों से घर-संसार चलाता आ रहा है ! बड़ी हैरानी की बात है ! सचमुच !

लेकिन थोड़ी देर पहले सुनी कहानी भी कम आश्चर्य में डालने वाली नहीं है। और इस रहस्य का पर्दा अन्ना मौसी के सिवा कौन उठा सकता है भला !

...पहले तो वह कमरे में नजर ही नहीं आयी।...फिर बाद में वह उसी जंग खाये और उधड़े रंग वाले बक्से के पीछे दीख पड़ी। जहाँ तक सम्भव हो...अपने आपको सबकी निगाह से बचाती हुई।...चोर की तरह। विभूति को देखते ही उसने अपने आपको और भी सिकोड़ लिया।
विभूति उसी बक्से पर ही बैठ गया। उसने बिना भूमिका के कहा, "अपने घर जाओगी, मौसी ?"

"घर?"...अचानक मौसी को जैसे तिनके का सहारा मिला। उसने बडी बेचैनी से चिरौरी-भरे स्वर में कहा, "हाँ बाबा...वहीं जाऊँगी। दो दिनों से सोचती रही रे...पर कछ तय नहीं कर पायी। वही कर...जैसे भी हो...मझे मेरे घर भिजवाने का कोई इन्तजाम कर दे।...वहाँ जाकर किष्टो के नाम गला फाड़-फाड़कर थोड़ा रो तो लूँ।...में महापापिनी हूँ रे...बेटे की मौत का दुख हजम करके...पिछले छह महीनों से हँड़िया भर-भर भात भकोस रही हूँ रे...और यह सब देखकर ऊपर बैठा किष्टो कैसे खिल-खिलाकर हँस रहा होगा। अपनी टूटी मडैया में छाती कूट-कूटकर मैं उस पाप का प्रायश्चित्त करूँगी रे...।"
विभूति ने आस-पास देखते हुए कहा, "लेकिन क्या तुम्हें इस बारे में पता था, मौसी?"

अन्ना मौसी एकदम बिखर गयी...इस सवाल पर। उसने अपने टूटे स्वर में धीरे-धीरे कहना शुरू किया, “हाँ बेटा, पता कैसे नहीं था ! माँ की आत्मा क्या ऐसी खबरों से अनजान रहती है ? मन ही सब बता देता है। मुकुन्द उस दिन तुमसे मिलने आया था और तुमसे मिलकर बाहर-ही-बाहर चला गया-तभी मुझे इस बात का अन्देसा हो गया था रे ! तभी मैं समझ गयी थी कि वह कौन-सी खबर लेकर आया है। में जान-बूझकर ही मुँह बन्द किये रही। किसी से कुछ पूछने का साहस नहीं जुटा पायी रे..."

विभूति के होठों से अनजाने में शायद फूट पड़ा, “भला क्यों ?"
"क्यों...." अन्ना मौसी ने अपना मुँह ऊपर उठाया और बोली, “तू पूछ रहा, मैंने ऐसा क्यों किया ? में यह सोच रही थी कि शराबी, कवाबी हो या जुआरी...आखिर है तो कोख का जाया। उसका आसरा ऐसा था जिस पर अपना जोर था रे। अब जब कि वह नाम-धाम सब मिट-मिटा गया, अब मुझे तीनों लोकों में भी कहाँ ठौर मिलने वाला है कि मैं अपना मुँह छिपा सकूँ। बेसहारा और बेआसरा होकर किसी पराये घर में पड़े रहना तो डूब मरने वाली बात है।...तू गुस्सा मत होना बेटा...बात यह है कि बहूरानी बड़ी निर्दय है...और बड़ा गुमान भी है उसे अपने पर...वह आदमी को आदमी नहीं समझती। उसकी छाँव में अपने को बहुत छोटा बनाकर ही रहना पड़ता है।...और में इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थी कि मैं उसके पास पूरी तरह से बेसहारा होकर पड़ी रहूँ।...और इसीलिए माँ होकर भी...मैं पिछले छह महीनों से बेटे की मौत का दुख कलेजे में दबाये..."

और आज छह महीने बाद अन्ना मौसी का पुत्र-शोक उसकी आँखों से बह निकला।

यह भी सम्भव है कि बेटे की मौत के चलते ही ये आँस न बह रहे हों...बल्कि इसलिए कि इतने दिनों बाद वह सचमुच बेआसरा हो गयी है और इसे सहन नहीं कर पा रही है। घासफूस और तिनके बटोरकर उसने जो घोंसला बनाया था और जिस झूठी दीवार के सहारे वह इतने दिनों तक टिकी बैठी थी-रमोला की एक ही फुफकार से वह रहा-सहा आसरा भी घूल में मिल गया।

और अब किसके बूते अन्ना मौसी वहाँ टिकी रहेगी।

(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)

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