बारह घंटे (कहानी) : ख़्वाजा अहमद अब्बास

Barah Ghante (Hindi Story) : Khwaja Ahmad Abbas

दिसंबर का महीना!

स्टेशन मास्टर का घंटा... पौने आठ बजा रहा था। गाड़ी के आने में अब भी पंद्रह मिनट बाक़ी हैं। बीना ने सोचा और प्लेटफार्म के चक्कर लगाने लगी। छोटा सा स्टेशन। न किताबों और अख़बारों की दुकान। न कोई होटल। चाय की एक प्याली भी मिलनी मुम्किन नहीं। बस दो कमरों की छोटी सी इ’मारत। एक कमरे में स्टेशन मास्टर का दफ़्तर। दूसरे में टिकट घर। टिकट घर पर भीड़ तो नहीं थी। दो किसान गाढ़े की चादरों में लिपटे, कानों को रात की ठंडी हवा से बचाने के लिए ढाटा बाँधे बरामदे में सिकुड़े बैठे थे। दूर सिग्नल की लाल रौशनी अँधेरे में चमक रही थी।

बीना साड़ी पर एक स्वेटर पहने हुए थी। उस पर एक ऊनी चादर। मगर इस वक़्त उसको सर्दी नहीं लग रही थी। जब से वो इन्क़िलाबी पार्टी में शामिल हुई थी, ये पहला मौक़ा’ था कि एक अहम काम उसके सपुर्द किया गया था। इसी ख़याल से उसके दिल की धड़कन तेज़ थी और बा-वजूद बर्फ़ीली हवा के उसके गाल तमतमा रहे थे। क्या वो ये काम ब-ख़ूबी अंजाम दे सकेगी? कोई गड़बड़ तो न करेगी? घबरा तो न जाएगी? नहीं हरगिज़ नहीं।

उसने सोच समझ कर इन्क़िलाबी पार्टी में शिरकत की थी। वो इन्क़िलाब के लिए बड़े से बड़ा काम करने को तैयार थी। उसे अपनी जान की भी पर्वा नहीं थी और ये बिल्कुल मा’मूली काम था। लीडर ने जो हिदायात दी थीं, वो अब तक बीना के कानों में गूँज रही थीं।

“देखो हमारा पुराना साथी विजय सिंह सोलह बरस की जेल काट कर आ रहा है। मगर हमें मा’लूम हुआ है कि शहर पहुँचते ही उसको फिर गिरफ़्तार कर लिया जाएगा। क्योंकि पुलिस डरती है कि उसकी वापसी से इन्क़िलाबी पार्टी का असर और ज़ियादा बढ़ जाएगा। इसलिए तुम उसे राम नगर के स्टेशन ही पर उतार लेना। रात-भर वो तुम्हारे मकान पर ठहरेगा और सुब्ह को वो शहर आकर अपने आपको पुलिस के सामने गिरफ़्तारी के लिए पेश कर सकता है। मगर हम चाहते हैं कि दुबारा जेल जाने से पहले वो कम-अज़-कम बारह घंटे तो आज़ाद रहे। ये ख़त तुम उसे दे देना और इसका जवाब जो वो लिखे, पार्टी के दफ़्तर में पहुँचा देना।”

“रात-भर वो तुम्हारे मकान पर ठैरेगा।”

मगर बीना का मकान तो दो छोटे-छोटे कमरों से ज़ियादा न था। साठ रुपये माहवार पाने वाली स्कूल की उस्तानी इससे बड़े मकान का ख़र्च कैसे बर्दाश्त कर सकती थी। फिर वो रहती भी थी अकेली। न कोई रिश्तेदार न नौकर। अपना खाना भी ख़ुद ही पकाती थी। इन हालात में एक ग़ैर-मर्द का अकेले मकान में उसके साथ रात गुज़ारना... बीना की परवरिश एक मज़हबी रिवाज-परस्त घराने में हुई थी। अगरचे कॉलेज की ता’लीम और इन्क़िलाबी ख़यालात ने उसका दिमाग़ काफ़ी हद तक आज़ाद कर दिया था। फिर भी उसके दिल की निचली तह में समाज का ख़ौफ़ समाया हुआ था।

लोग क्या कहेंगे? और साथ ही एक नौजवान मर्द की क़ुर्बत की ना-क़ाबिल-ए-बयान कशिश। जिंसी तजरबे की दबी हुई ख़्वाहिश। ख़्वाहिश भी और ख़ौफ़ भी। वो जवान थी मगर मर्द की आग़ोश-ए-मुहब्बत से ना-आश्ना। वो किताबी इ’ल्म की मदद से जिंसियात पर उसूली बहस कर सकती थी मगर उसके अ’मली पहलुओं से बिल्कुल ना-वाक़िफ़ थी। हाँ क़ुदरत ने ख़ुद उसके बदन में एक अ’जीब सी गुदगुदी, एक अ’जीब सी चुभन, एक मीठा-मीठा दर्द पैदा कर दिया था। वो जानती थी कि इसकी एक ही दवा है मगर शादी से पहले इस दवा की ख़ुराक पीना, ये भी तो इतना आसान न था।

दूर अँधेरे में सिग्नल की लाल रौशनी सब्ज़ रौशनी में तब्दील हो गई। प्लेटफार्म के सामने की रेल की पटरियाँ अपनी झनझनाहट से आने वाली ट्रेन की ख़बर देने लगीं। बीना की तवज्जोह जिंसी मसाइल से हट कर विजय सिंह की तरफ़ मबज़ूल हो गई जो अभी चंद मिनट में राम नगर पहुँचने वाला था। जो रात-भर... बारह घंटे... के लिए उसका मेहमान था। विजय सिंह। इन्क़िलाबी पार्टी में इस नाम की धूम थी। उसके इन्क़िलाबी कारनामों को आज तक याद किया जाता था। आज वो सोलह बरस की क़ैद काट कर वापिस आ रहा है। कल शायद फिर किसी काल कोठरी में बंद कर दिया जाएगा। यही उसकी ज़िंदगी थी। वो अपने उसूलों पर जान की बाज़ी लगा चुका था। वो न क़ैद-ख़ाने से डरता था न फांसी के तख़्ते से। बीना ने पार्टी के दफ़्तर में लगी हुई विजय सिंह की तस्वीर देखी थी...।

शानदार वजीह जवान, चौड़ा-चकला सीना, ऊँची पेशानी, चमकदार काली आँखें जो तस्वीर के पर्दे में से भी दिलों को बर्मा देती थीं। ख़ूबसूरत आँखें, ख़ौफ़नाक आँखें। उनकी गहराई में जुनून था मगर उनकी सत्ह पर बच्चों की सी सादगी खेल रही थी... ना-मुम्किन था कि कोई उन आँखों को देखे और उनका शिकार न हो जाए। बीना ने उन आँखों से इन्क़िलाब का सबक़ सीखा था। अपने उसूलों के लिए मर मिटने की तमन्ना और आज़ादी की ख़ातिर अपना सब कुछ क़ुर्बान करने की हसरत। सब कुछ जान... माल... इ’ज़्ज़त। हाँ इ’ज़्ज़त भी। जब कभी उसका क़दम इन्क़िलाब की दुश्वार-गुज़ार राहों पर डगमगाता, बीना उन आँखों की तरफ़ देखती और एक लम्हे में उसका दिल एक ना-मा’लूम ताक़त से भर जाता और फिर उसमें हर मुश्किल, हर मुसीबत का सामना करने की हिम्मत पैदा हो जाती।

मगर ये आँखें एक इन्क़िलाबी ही की नहीं, एक मर्द की आँखें भी थीं... उनमें एक हैवानी कशिश भी थी, एक जुनून-अंगेज़ शरारा, ममनूअ’ लज़्ज़तों का एक इशारा। उस दिल-फ़रेब दुनिया की एक झलक, जिसका दरवाज़ा समाज ने बीना जैसी ग़ैर-शादीशुदा लड़कियों के लिए बंद कर रखा था। मगर ये दरवाज़ा तोड़ा भी जा सकता है। बीना अपनी पार्टी ही में कई ऐसी लड़कियों को जानती थी जिन्होंने इस ख़याली दरवाज़े को तोड़ कर आज़ाद जिंसी तअ’ल्लुक़ात की सर-ज़मीन में क़दम रखा था। क्या आज की रात वो भी विजय सिंह की मदद से... वो इस ख़याल ही से शर्मा गई। ऐसी बातें सोचनी भी नहीं चाहिएँ, मगर क्यों नहीं। विजय सिंह ख़ूबसूरत है, जवान है, तंदुरुस्त है, और उसकी आँखों में दिल-फ़रेब मसर्रतों का पैग़ाम है।

ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुँच गई। बीना के ख़यालात का तार टूट गया और वो विजय सिंह की तलाश में एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ने लगी। कहीं उसका पता न मिला। किसी दर्जे में भी पार्टी के दफ़्तर वाली तस्वीर से मिलता-जुलता मुसाफ़िर न था। ट्रेन से उतरा तो बस एक मजहूल शख़्स, बुड्ढा फ़क़ीर। दोनों किसान बरामदे से उठकर एक थर्ड क्लास के भरे डिब्बे में घुस गए। इंजन ने सीटी दी और ट्रेन चल दी। तो क्या विजय सिंह इस गाड़ी से नहीं आया? क्या उसको पहले ही गिरफ़्तार कर लिया गया? मगर वो बुड्ढा क्यों प्लेटफार्म की लालटैन के नीचे बीना को घूर-घूर कर देख रहा था।

“क्या आप मस बीना हैं?”, फ़क़ीर की आवाज़ में नफ़ासत थी।

और जब बीना ने “हाँ” कहा तो उसकी निगाह बुड्ढे की आँखों पर पड़ी... आँखें जो एक झाड़-झंकाड़ दाढ़ी में से इस तरह चमक रही थीं जैसे घने जंगल में किसी ख़ूबसूरत मकान की दो खिड़कियाँ जगमगा रही हों।

“आप... ही... कामरेड विजय सिंह हैं?”

“हाँ मुझे पार्टी सैक्रेटरी का तार पिछले स्टेशन ही पर मिल गया था कि मुझे इस स्टेशन पर उतरना है और ये कि तुम मुझे लेने आओगी।”

“चलिए।”

बीना विजय सिंह को अपने घर ले आई। खाना तैयार कर के गई थी। वो एक थाली में परोस कर उसके सामने रख दिया। बग़ैर एक लफ़्ज़ कहे उसने खाना शुरू’ कर दिया। ये भी नहीं पूछा, “तुम नहीं खाओगी?”

बीना पास कुर्सी पर बैठ गई। विजय सिंह इन्हिमाक से खाने में मसरूफ़ था। ऐसा मा’लूम होता था कि उसे कितने ही दिन के फ़ाक़े के बा’द खाना मिला है। बीना की आँखों में आँसू आ गए। ये सोच कर कि सोलह बरस तक धूल मिली रोटी और तेल में पकी हुई दाल खाने के बा’द उसको आज इंसानों की ख़ुराक नसीब हुई थी।

वो विजय सिंह को ग़ौर से देख रही थी। क्या ये वही चौड़े-चकले सीने, ऊँची पेशानी, चिकने बालों वाला विजय सिंह है, जिसकी तस्वीर पार्टी के दफ़्तर की दीवार पर टँगी थी? नहीं ये वो नहीं हो सकता। इसका सर गंजा है और उस पर मुद्दतों तक न नहाने की वज्ह से फुंसियों और मैल के खड़ंड जमे हुए हैं। इसकी दाढ़ी... आधी काली आधी सफ़ेद... ख़ौफ़नाक तरीक़े से उगी है। होंटों के ऊपर और नीचे के बाल शायद दाल के धब्बे लगते-लगते ज़र्द हो गए हैं। दाँत कुछ ग़ायब हैं और कुछ ज़र्दी माइल। नाख़ुन बढ़े हुए और मैल से भरे हुए। बा-वजूद शदीद एहसास-ए-हम-दर्दी के बीना ये सोच कर काँप उठी कि ट्रेन आने से चंद सैकंड पहले ही वो इसी शख़्स के साथ जिंसी ज़िंदगी की पहली मंज़िल तय करने का इरादा कर रही थी।

विजय सिंह ने खाना ख़त्म कर लिया तो बीना ने कहा, “अब आप नहा कर कपड़े बदल लीजिए। पार्टी वालों ने आपके लिए ये कपड़े भेजे हैं। मैं ग़ुस्ल-ख़ाने में गर्म पानी रख देती हूँ।”

ये सुनकर विजय सिंह ने अपने फटे पुराने कपड़ों पर नज़र डाली, जैसे उसको दफ़अ’तन अपनी ग़लाज़त का एहसास हुआ हो। बग़ैर एक लफ़्ज़ बोले वो ग़ुस्ल-ख़ाने में चला गया। सोलह बरस का तवील अ’र्सा उसने अकेले काल-कोठरी में गुज़ारा था। इसीलिए उसको इंसान से बातचीत करने की ‍आ’दत ही न रही थी और बीना जैसी नौजवान लड़की की मौजूदगी में तो ऐसा चुप हो गया था जैसे गूँगा है।

नहा कर विजय सिंह ने साफ़ कपड़े पहने और अँगीठी पर हाथ तापने लगा जो बीना ने सर्दी के ख़याल से जला कर रखी थी। लाल-लाल कोयलों की रौशनी में उसकी आँखों में बीना को हल्की सी मसर्रत की झलक दिखाई दी, जैसे अंगारों पर से राख झटक दी गई है। उसने बीना से क़ैंची माँग कर अपने नाख़ून काटे और पार्टी सैक्रेटरी का ख़त पढ़ने बैठ गया। बीना को मा’लूम था कि इस ख़त में पिछले सोलह साल के सियासी वाक़िआ’त पर तब्सिरा है। इन्क़िलाबी पार्टी की कार्रवाई रिपोर्ट है। जूँ-जूँ विजय सिंह उसको पढ़ता था, उसकी आँखों में वही पुरानी इन्क़िलाबी चमक वापिस आती जा रही थी। ग़ुस्सा। अफ़सोस। ख़ुशी। सब जज़्बात उसकी आँखों में यके-बा’द-दीगरे नज़र आ रहे थे। रिपोर्ट पढ़ते ही वो फिर इन्क़िलाबी लीडर था। दुबारा गिरफ़्तार होने से पहले उसको अपनी पार्टी को हिदायात देनी थीं। उसने बीना से काग़ज़ और क़लम माँगा और ख़त का जवाब लिखने बैठ गया मगर उसका हाथ काँप रहा था। चक्की चलाते-चलाते क़लम पकड़ने की ‍आ’दत ही न रही थी।

ख़त ख़त्म कर के उसने बीना को दिया कि अगले दिन हिफ़ाज़त से सैक्रेटरी तक पहुँचा दे। बीना ने घड़ी देखी। अभी सिर्फ़ सवा नौ बजे थे।

ख़ामोशी तोड़ने के लिए उसने कहा, “अभी आप सोना चाहते हैं या... या कुछ देर और बैठना है।”

विजय सिंह का जवाब सुनकर वो दंग रह गई, “मैं सिनेमा देखना चाहता हूँ। बोलता सिनेमा...” दफ़अ’तन बीना के दिमाग़ में सोलह बरस क़ैद के हौल-नाक नताइज की एक झलक बिजली की तरह कौंद गई। सोलह बरस 27 से 43 तक। या’नी विजय सिंह ने कोई टॉकी ही नहीं देखा था। न उसने सहगल की आवाज़ सुनी थी न रमोला का हुस्न देखा। न काननबाला के रसीले गाने और न चंद्रमोहन का कमाल-ए-अदाकारी। वो तो बोलती हुई तस्वीरों के जादू से इतना ना-वाक़िफ़ था जैसे अफ़्रीक़ा के तारीक-तरीन जंगलों में रहने वाला।

सोलह बरस वो ज़िंदगी के दिलचस्प और ख़ुशगवार पहलुओं से महरूम रहा था। सिनेमा और थेटर। गाना और नाच। बच्चों की आवाज़। ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब का रंगीन मंज़र। चाँद और सितारे। बरसात की रिमझिम और गीली मिट्टी की ख़ुश्बू। दरख़्तों की छाँव। फूलों की बहार। माँ की ममता। औलाद की उमंग। औ’रत का प्यार। कुछ भी नहीं। बस एक गंदी अँधेरी कोठरी। जेल के अफ़सरों और वार्डरों की करख़्त आवाज़ें, आदी मुजरिमों, डाकुओं, और ख़ूनियों का साथ। ज़िंदगी के समंदर में मौत का ये जज़ीरा, इंसानियत की हुदूद से बाहर, दुनिया के बीच में, मगर दुनिया से बहुत दूर, और यहाँ विजय सिंह ने सोलह बरस या’नी एक सौ बानवे महीने तक़रीबन छः हज़ार मुसीबत भरे दिन और छः हज़ार काली रातें और इसके बा’द सिर्फ़ बारह घंटे ज़िंदगी के। बारह घंटे रौशनी, रंग और ख़ुश्बू के। इसके बा’द फिर जेल-ख़ाने के मुहीब काले दरवाज़े बंद हो जाएँगे।

मैं सिनेमा देखना चाहता हूँ। बोलता सिनेमा। बचपन की सादगी के साथ विजय सिंह ने कहा था। हर इंसान की फ़ितरत में बचपन होता है। और इन्क़िलाबी भी तो आख़िर इंसान है। फिर क्या तअ’ज्जुब है कि आज की रात इसके दिल में सिनेमा देखने की ये शदीद आरज़ू पैदा हो गई। क्या मा’लूम है अब जो वो जेल जाए तो फिर कभी ज़िंदा न निकले। शायद सिनेमा देखने की हसरत दिल ही दिल में रह जाए।

राम नगर में एक ही मा’मूली सिनेमा था। जहाँ कई साल के पुराने हिन्दुस्तानी फ़िल्म दिखाए जाते थे। बीना तो वहाँ एक दफ़्अ’ भी न गई थी मगर विजय सिंह को ले गई। तमाशा शुरू’ होने ही वाला था जब वो टिकट लेकर दाख़िल हुए। रौशनियाँ गुल हो गईं और रुपहली पर्दे पर तस्वीरों ने हरकत शुरू’ कर दी। फ़िल्म था, “तूफ़ान मेल।”

पुराना ज़टील फ़िल्म मगर विजय सिंह के लिए तो मोजिज़े से कम न था। तस्वीरों को चलते फिरते तो उसने ज़रूर क़ैद होने से पहले देखा था मगर गाते बोलते देखकर वो बिल्कुल दंग रह गया। चार्ली और ग़ौरी के भोंडे मज़ाक़ पर वो बच्चों की तरह हँसने लगा। खिलखिला कर तालियाँ बजा कर। दूसरे तमाशाई मुड़-मुड़ कर देखने लगे। बीना को पहले तो ज़रा कोफ़्त हुई मगर फ़ौरन ही उसको ये ख़याल आया कि शायद सोलह बरस में पहली बार विजय सिंह हँस रहा है और ये ख़याल आते ही उसको “तूफ़ान मेल” फ़िल्म भी अच्छा लगने लगा।

माधुरी और बलीमोरिया पर्दे पर मुहब्बत का रंगीन खेल खेल रहे थे। बे-बाक। बे-पर्वा। हैवानी मुहब्बत। वो मुहब्बत नहीं जो शब-ए-फ़िराक़ के आँसुओं में ज़ाहिर होती है... बल्कि वो मुहब्बत जो क़हक़हों और मा’नी-ख़ेज़ निगाहों में झलकती है। माधुरी एक चुस्त, बदन से चिपके हुए लिबास में मुजस्सम आरज़ू बनी हुई थी। शहवानियत का एक शरारा जिसकी क़ुर्बत हर एक को झुलस देने को काफ़ी थी। उफ़ रे उसकी शरारत-आमेज़, शहवत-ख़ेज़ बातें, कटीली नज़र। वो उसका सीने के उभार पर हाथ रखकर एक अ’जीब अंदाज़ से कहना, “हाय। यहाँ।”

विजय सिंह बड़े इन्हिमाक से फ़िल्म देख रहा था मगर उसका हाथ... क्या ये भूल से बीना के हाथ पर रखा गया था। चक्की पीसते-पीसते हाथ सख़्त हो गया मगर फिर भी उसमें एक क़िस्म की नर्मी थी। किसी ज़माने में ये हाथ नाज़ुक और हस्सास रहा होगा। उँगलियाँ अब भी लंबी और नाज़ुक थीं। विजय सिंह तमाशा देख रहा था और उसका हाथ बीना के हाथ पर रखा था। वो बीना के हाथ को दबाने की कोशिश नहीं कर रहा था, “शायद ग़लती ही से ये हाथ मेरे हाथ पर रखा गया हो।”

बीना ने सोचा और नर्मी से अपना हाथ खींच लिया।

हाल में अँधेरा था मगर फिर भी बीना को ऐसा महसूस हुआ जैसे विजय सिंह को उसका हाथ हटा लेना बुरा मा’लूम हुआ है। इसके बा’द फ़िल्म में उसकी दिलचस्पी और इन्हिमाक भी ख़त्म हो गया। थोड़ी देर में उसने कहा, “चलो घर चलें। बस देख लिया फ़िल्म।”

और जब वो बाहर सड़क की रौशनी में आए तो विजय सिंह एक रूठे हुए बच्चे की तरह ज़मीन पर नज़रें जमाए चल रहा था।

घर पहुँच कर बीना ने अपने पलंग पर विजय सिंह के लिए बिस्तर दुरुस्त कर दिया और उससे कहा कि आराम से सो जाए क्योंकि सुब्ह ही उसको शहर जाना था। इसके बा’द उसने दूसरे कमरे में फ़र्श पर दरी बिछा कर अपने सोने का इंतिज़ाम किया। एक गिलास में पानी भर कर विजय सिंह के सिरहाने रख दिया और पूछा, “और कुछ चाहिए?”

विजय सिंह ने नफ़ी में सर हिला दिया मगर बीना ने बिजली की रौशनी में देखा कि उसकी आँखें उसके चेहरे पर गड़ी हुई हैं और उन आँखों की गहराई में वही जुनून, उनकी सत्ह पर वही बच्चों की सी सादगी और साथ ही वो हैवानी कशिश भी है जो पार्टी के दफ़्तर वाली तस्वीर में थी। बीना के देखते ही देखते ये आँखें धुँदला गईं और उनमें आग के बजाए धुआँ सा, तहक्कुम की बजाए इल्तिजा सी झलकने लगी। बीना ने जल्दी से रौशनी बंद की और अपने कमरे में चली आई।

मगर दोनों कमरों के दरमियान जो दरवाज़ा था, उसकी चटख़नी उसकी तरफ़ लगती थी जिधर विजय सिंह का पलंग था। बीना ने किवाड़ भेड़ते हुए आवाज़ दी, “मेहरबानी करके चटख़नी लगा लीजिएगा।”

ये कह कर वो अपने बिस्तर पर लेट गई और इंतिज़ार करती रही कि चटख़नी बंद करने की आवाज़ आए। एक मिनट गुज़रा। दो मिनट... पाँच मिनट। दस मिनट और बीना को ऐसा महसूस हुआ कि जब तक चटख़नी बंद न होगी, उसे नींद न आएगी, मगर चटख़नी बंद न हुई।

बीना ने सोचा, “क्या विजय सिंह सो गया है?”

मगर दूसरे कमरे से पलंग पर करवटें बदलने की आवाज़ आई। थोड़ी ही देर के बा’द ऐसा महसूस हुआ जैसे वो उठ बैठा हो। फिर कमरे में चलने की आवाज़... वो सोया न था। टहल रहा था।

बीना को विजय सिंह की बेचैनी की वज्ह मा’लूम थी, इसलिए कि वो ख़ुद उस बेचैनी की वज्ह थी। सोलह बरस की तन्हाई और बे-लुत्फ़ ज़िंदगी के बा’द “तूफ़ान मेल” की बे-बाक मुहब्बत के सबक़ देखकर उसके सोए हुए जज़्बात जाग उठे थे और अपनी तसल्ली चाहते थे। कल सुब्ह वो फिर जेल चला जाएगा। यही चंद घंटे बाक़ी थे। बीना ने अब तक अपने आपको जिंसी लज़्ज़तों से महरूम रखा था। क्या इसीलिए कि एक करीह-उल-मंज़र लंबी दाढ़ी वाले, गंदे और बीमार बुड्ढे की हवस की आग बुझाए? उसने हमेशा एक ख़ूबसूरत तंदुरुस्त नौजवान के ख़्वाब देखे थे।

नौजवान जो उससे मुहब्बत करता हो। उसके साथ अपना तमाम जीवन बिताने को तैयार हो। कहाँ उसके सपनों का वो कड़ियल जवान और कहाँ ये मुरझाया हुआ बूढ्ढा! नहीं हरगिज़ नहीं। वो हरगिज़ ऐसा नहीं कर सकती।

मगर बीना के हस्सास मगर हम-दर्द दिमाग़ ने इसी सूरत-ए-हाल को दूसरी पोज़ीशन में यूँ पेश किया। बेशक विजय सिंह क़ब्ल-अज़-वक़्त बुड्ढा हो चुका है। उसके चेहरे पर ख़ौफ़नाक दाढ़ी है। उसकी पेशानी पर झुर्रियाँ पड़ी हैं। उसके सर पर फुंसियाँ निकली हैं। उसके मुँह से ज़र्द और गंदे दाँत झाँक रहे हैं। मगर क्यों? बीना सोच। सोलह बरस हुए। यही विजय सिंह एक ख़ूबसूरत कड़ियल जवान था। तूने उसकी तस्वीर देखी है। क्या तूने उस तस्वीर की तरफ़ तमन्ना भरी नज़रों से नहीं देखा? आज उसी विजय सिंह की ये हालत क्यों है? क्यों? सोलह बरस में पच्चीस बरस का नौजवान इतना बुड्ढा तो नहीं हो सकता।

विजय सिंह क्यों अपनी जवानी, अपना हुस्न, अपनी तंदुरुस्ती खो बैठा? इन्क़िलाब के लिए। बीना इन्क़िलाब के लिए। उसी इन्क़िलाब के लिए जिसकी ख़ातिर तू जान देने को तैयार है मगर तू तो बातें ही बनाती है। उसने तो कर दिखाया। अपनी जवानी, अपनी तंदुरुस्ती, अपने दोस्त और अ’ज़ीज़... अपने रूमान भरे ख़्वाब। सब कुछ इन्क़िलाब के लिए क़ुर्बान कर दिए। सोलह बरस जेल में काटे, काल कोठरी में रहा। कोड़ों की मार खाई। वार्डरों की ठोकरें खाईं। गालियाँ सुनीं। किसलिए...? इन्क़िलाब के लिए और तू। तेरा दिल इतना छोटा है कि आज तू उस विजय सिंह की दाढ़ी, उसकी झुर्रियों और उसकी फुंसियों को नफ़रत की नज़र से देखती है। ला’नत है। ला’नत है तुझ पर!

दूसरे कमरे में विजय सिंह अब भी टहल रहा था। क़दम चलते-चलते दरवाज़े के क़रीब आए और रुक गए। बीना का दिल भी हरकत करते-करते रुक गया... न चटख़नी बंद करने की आवाज़ आई, न दरवाज़ा खुला। चंद सैकंड के बा’द क़दम वापिस चले गए। बीना का दिल फिर हरकत करने लगा।

“नहीं वो अपनी तरफ़ से पहल नहीं करेगा। वो हस्सास है। उसको अपनी बदसूरती का इ’ल्म है। वो तुझे छेड़ने की हिम्मत न करेगा, अगर तू उस कमरे में नहीं जाएगी तो वो रात-भर टहल कर गुज़ार देगा और सुब्ह को एक लफ़्ज़ कहे बग़ैर फिर जेल चला जाएगा। जिसने सोलह बरस यूँ गुज़ार दिए वो तो बाक़ी ज़िंदगी भी गुज़ार सकता है। मगर तूने उसको मायूस लौट जाने दिया तो अपने आपको तो कभी मुआ’फ़ न कर सकेगी। उसकी हसरत और आरज़ू भरी निगाहें हमेशा तेरा पीछा करती रहेंगी।”

विजय सिंह के क़दम चलते चलते रुक गए। पलंग पर बैठने की आवाज़ आई। फिर लेटने की।

“शायद सो जाए।”

बीना ने अपने आपको समझाने की कोशिश की। मगर फ़ौरन ही करवटें बदलने की आवाज़ आई। और ये क्या-क्या! बीना के कान धोका दे रहे थे या वाक़ई’ विजय सिंह रो रहा था? बीना घबरा कर उठ बैठी। विजय सिंह रो रहा था। विजय सिंह जिसके मुतअ’ल्लिक़ मशहूर है कि जब उसे कोड़े मारे गए तो वो हँसता रहा था। विजय सिंह जो फांसी का हुक्म पा कर भी मुस्कुराया था। वही विजय सिंह जिसने पचास दिन भूक हड़ताल की थी। जो न क़ैद से डरता था न मार से। जो मौत से घबराता था न काले-पानी की सज़ा से। वही विजय सिंह आज रो रहा है। बच्चों की तरह सिसकियाँ लेकर।

विजय सिंह की आँखें बीना के शहवानी जज़्बात को बेदार न कर सकी थीं। उसने बीना के हाथ को छुवा था मगर ये पैग़ाम बेकार साबित हुआ था। लेकिन उसको रोता देखकर बीना की ममता जाग उठी। बच्चों की हर ज़िद पूरी करनी चाहिए और हिन्दोस्तान का सबसे बड़ा इन्क़िलाबी, निडर विजय सिंह भी इस मुआ’मले में बच्चा ही तो था। बा-वजूद अपनी दाढ़ी, अपनी फुंसियों और मैले-मैले ज़र्द दाँतों के

बीना के दिल की तह में से रिवाजी अख़्लाक़ियात ने सर उठाया और उसको समझाने की कोशिश की, “इ’स्मत औ’रत का बेहतरीन ज़ेवर है। क्या तू इसको यूँ लुटा देगी?”

और जब यूँ भी न मानी तो उसको डराने की कोशिश की, “वो बीमार है। उसके फुंसियाँ निकली हुई हैं। तुझे कोई बीमारी लग जाएगी।”

मगर बीना उस वक़्त उन ख़ौफ़नाक सोलह बरस का ख़याल कर रही थी जो विजय सिंह ने क़ैद में गुज़ारे थे। वो तवील अ’र्सा जिसमें वो ज़िंदगी की हर दिलचस्प और ख़ुशगवार रंगीनी से महरूम रहा था। सिनेमा और रिमझिम और गीली मिट्टी की ख़ुश्बू। दरख़्तों की छाँव। फूलों की बहार। माँ की ममता। औलाद की उमंग। औ’रत का प्यार और कल फिर वो उसी दोज़ख़ में झोंक दिया जाएगा। और ये ज़िंदगी के बारह घंटे यूँही गुज़र जाएँगे। विजय सिंह अपनी प्यास को साथ लिए वापिस चला जाएगा। वो जिसने अपनी जान, क़ौम की आज़ादी और इन्क़िलाब के लिए क़ुर्बान कर दी थी। उसके वास्ते एक औ’रत चंद घंटे के लिए अपना जिस्म भी देने को तैयार न होगी। औ’रत। नर्मी। प्यार। दिल के क़रीब एक और धड़कन। सोलह बरस तक वो उनसे महरूम रहा। इस वक़्त उसको अगर ये नसीब न हुआ तो शायद मरते दम तक नसीब न हो।

नहीं वो ऐसा न होने देगी। उसने अपनी जान इन्क़िलाब के लिए वक़्फ़ कर दी थी। अपनी जान और अपना जिस्म। अपनी इ’स्मत भी। विजय सिंह की क़ुर्बानियों के सामने उसके हक़ीर जिस्म की क्या औक़ात थी। इससे बेहतर जिस्म बाज़ार में पाँच-पाँच रुपये में फ़रोख़्त होते हैं। नहीं। वो अपनी मुहब्बत से, अपने बदन की गर्मी से विजय सिंह को आराम पहुँचाएगी। चंद घंटे में सोलह बरस की महरूमियों का इज़ाला करने की कोशिश करेगी। उसके बदन में विजय सिंह को चंद लम्हे के लिए ही सही, फूलों की बहार, बच्चों की आवाज़, माँ की ममता, मौसीक़ी की झंकार, ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब की रंगीनी, बरसात की रिमझिम सब कुछ मिल जाएगा।

और आइंदा ज़माने में जब वो जेल की सख़्तियों से तंग आकर दुनिया और ज़िंदगी की तरफ़ से मायूस होने लगेगा तो उसे इन चंद घंटों की याद आएगी। एक लड़की की याद। एक नौजवान जिस्म की याद। और वो मुस्कुरा देगा। मायूसी के बादल छट जाएँगे।

वो ज़िंदगी से मुँह मोड़ते मोड़ते रुक जाएगा। वो अपने जिस्म और दिमाग़ और दिल को ज़िंदा रखेगा। हिन्दोस्तान की ख़ातिर। इन्क़िलाब की ख़ातिर और फिर जब मुल़्क आज़ाद हो जाएगा तो विजय मायूस और शिकस्ता ख़ातिर नहीं बल्कि मुस्कुराता हुआ क़ैद-ख़ाने से निकलेगा। ताकि फिर अपनी क़ौम और अपने मुल्क की ख़िदमत कर सके। लाखों उसकी कहानी सुनेंगे और उसकी क़ुर्बानी और ईसार से उनके सर बुलंद हो जाएँगे और दिल फ़ख़्र से भर जाएँगे। उस वक़्त शायद विजय सिंह बीना का नाम भी भूल जाएगा। इन्क़िलाबी हुकूमत को चलाने के काम में उसको एक गुमनाम लड़की को याद करने की कब फ़ुर्सत होगी। मगर उस वक़्त बीना को वो एहसास-ए-फ़त्ह नसीब होगा जो एक आर्टिस्ट को अपना शाहकार देखकर नसीब होता है।

बीना उठी, दरवाज़ा खोला और दूसरे कमरे में चली गई।

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