बंदी : जगदीशचंद्र माथुर
Bandi : Jagdish Chandra Mathur
पात्र
रायसाहब: हाई कोर्ट के जज
हेमलता: रायसाहब की लड़की
आया:
चेतू [चेतराम]: गाँव का मजदूर
वीरेन: प्रगतिशील विचार-धारा का एक [ग्रेजुएट] युवक
बालेश्वर: गाँव के अर्धशिक्षक नवयुवक
करमचन्द: गाँव के अर्धशिक्षक नवयुवक
लोचन: गाँव का एक साहसी युवक, वीरेन का सहपाठी
प्रथम दृश्य
[उत्तर भारत के एक गाँव में एक बड़े घराने के बँगले का बगीचा। पृष्ठभूमि में मकान की झलक। मकान में जाने के लिए बायीं तरफ से रास्ता है और बाहर जाने के लिए दाहिनी तरफ। समय चैत्र पूनो की संध्या। चाँदनी का साम्राज्य गोधूलि वेला में ही फैल रहा है। राय तारानाथ हेमलता के साथ एक स्थान की ओर संकेत करते हुए आते हैं।]
रायसाहब: और यही वह स्थान है जहाँ तुम्हारी माँ पूजा के बाद तुलसी जी को पानी चढ़ाने आती और मैं...
हेमलता: आप तो नास्तिक रहे होंगे, पापा?
रायसाहब: तुम्हारी माँ को चिढ़ाने के लिए। लेकिन उसकी श्रद्धा अडिग थी। और तभी मैं बगीचे के किसी कोने में... शायद वही तो... वह देखती हो न पत्थर?
हेमलता: याद है।
रायसाहब: क्या याद है?
हेमलता: कि उस पत्थर पर बैठकर आप मुझे सितारों की कथा सुनाया करते थे। [रुक कर मानो कुछ याद आयी हो] पापा, कलकत्ते में सितारों भरा आसमान मानो मेरे मन के कोने में दुबका पड़ा रहता था, लेकिन यहाँ [स्निग्ध स्वर] गाँव आते ऐसे ही खिला पड़ता है, जैसे आज इस चैत्र पूनो की चाँदनी।
रायसाहब: आसमान भी खिला पड़ता है और तुम्हारा मन भी, बेटी। [हँसता है। कुछ रुक कर] बजा क्या है? [आहिस्ता से] गाड़ी का तो वक्त हो गया होगा?
हेमलता: आप भी पापा। [रूठ कर] समझते हैं कि मुझे यूँ तो चाँदनी भाती ही नहीं, सिर्फ...
रायसाहब: [बात पूरी करते हुए] वीरेन की इन्तजारी की घड़ी में ही खिली पड़ती है। [हँसते हैं।] बुराई क्या है? वीरेन भला लड़का है, इसलिए तो यहाँ आने का न्योता दिया है उसे। देखूँ गाँव की आभा उसके मन चढ़ती है या नहीं?
हेमलता: जैसे जन्म से ही शहर की धूल फाँकी हो।
रायसाहब: वही समझो। कहता था न कि बचपन में पिता के मरने पर बरेली चला गया और उसके बाद लखनऊ और तब कलकत्ता...
हेमलता: मुझे भी तो आप बचपन में ही कलकत्ते ले गये और अब लाए हैं गाँव पहली बार...
रायसाहब: मैं तुम्हें लाया हूँ बेटी या तुम मुझे?
हेमलता: पापा, आते ही मैं तो यहाँ की हो गयी। न जाने कितने युगों का नाता जुड़ गया। [उल्लासपूर्ण स्वर] यह हमारा घर, पुरानी कोठी, जिसकी दीवार में पड़ी दरारें मुस्कान भरे मुखड़े की सिलवटें हैं। ये दूर-दूर तक फैले हुए खेत, जिन पर दबे पाँव दौड़ते-दौड़ते हवा उन पर निछावर हो जाती है और यह चाँदनी जो जितनी हँसती है उतना ही छिपाती भी है। [तन्मय] कलकत्ते में चैत्र की चाँदनी और ईद के चाँद में कोई अन्तर नहीं होता। लेकिन यहाँ, झोपडि़यों पर बाँस के झुरमुटों में, खेत-खलिहान पर, बे-हिसाब, बे-जुबान, बे-झिझक चाँदनी की दौलत बिखरी पड़ रही है। ओह, पापा!
[अपरिमित सुखानुभूति का मौन]
आया: [नेपथ्य में] हेम बीबी, चाय तैयार है।
रायसाहब: चाय! इतनी देर में?
हेमलता: आया की जि़द! कहती है सर्दी हो चली है, थोड़ी चाय पी लो।
[मकान की ओर रुख करके] यहीं ले आओ आया, बगीचे में। और दो मूढ़े भी।
रायसाहब: [स्मृति के सागर में उतराते हैं] सोचता हूँ कि अगर तुम्हारी माँ तुम्हारी तरह बोल या लिख पाती तो वह भी कवि या तुम्हारी तरह आर्टिस्ट होती।
हेमलता: अगर माँ बोल पाती तो आपको कलकत्ते न जाने देती!
रायसाहब: रोका था। दो-चार आँसू भी गिराये थे। लेकिन क्या तुम सच मान सकती हो हेम, कि मैं न जाता? कैसे न जाता? सारे कैरियर का सवाल था। यह जमींदारी उन दिनों भरी-पुरी थी, लेकिन आखिर को ले न डूबती मुझे अपने साथ!
हेमलता: काश, इस गाँव में ही हाई कोर्ट होता। यहीं आप वकालत करते और यहीं जज हो जाते।
रायसाहब: वाह बेटी! तब तो यहीं वह बड़ा अस्पताल भी होता जहाँ तुम्हारी माँ की लम्बी बीमारी का इलाज हुआ था और यहीं वह कालेज और हाई स्कूल होते, जहाँ तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा हुई और यहीं वे थियेटर-सिनेमा... [आया का प्रवेश। हाथ में ट्रे। अपनी धुन में बात करती है]
आया: यही तो मैं कहती थी सरकार! इस देहात में कैसे हेम बिटिया की तबियत लगेगी। सनीमा नहीं, थेटर नहीं, क्लब नहीं। [पीछे की तरफ देखकर पुकारती हुई] अरे ओ चेतुआ, किधर ले गया मेज?... देहात का आदमी, समझ भी तो मोटी है! [चेतुआ एक हाथ में छोटी-सी टेबल और एक में मूढ़ा लिए हुए आता है।] उधर रख... हाँ बस [मेज पर चाय की ट्रे रख देती है। चाय बनाती हुई] आपके लिए भी बनाऊँ सरकार?
रायसाहब: [कुछ अनिश्चित-से मूढ़े पर बैठते हुए] मे...रे...लिए...
आया: [चेतुआ को खड़ा देखकर] अरे खड़ा क्यों है? दूसरा मूढ़ा तो उठा ला दौड़कर।
चेतराम: [जाते हुए] अभी लाया जी!
आया: [प्याला देती हुई] लो बीबी जी, गर्म कपड़ा नहीं पहना तो गर्म चाय तो लो।
हेमलता: तुम तो आया समझती हो कि जैसे हम बरफ की चोटी पर बैठे हैं!
आया: [दूसरा प्याला बनाते हुए] नहीं हेम बीबी, देहात की हवा शहरवालों के लिए चंडी होती है चंडी!
हेमलता: तुम भी तो देहात ही की हो आया।
आया: अब तीन चौथाई जिन्दगानी तो गुजर गयी आप लोगों के संग [चाय का प्याला राय साहब की ओर बढ़ाते हुए] लीजिए सरकार! [राय साहब को देख, कुछ चौंक कर] अरे!
रायसाहब: [प्याला लेते हुए] क्यों क्या हुआ?
आया: आप भी सरकार गजब करते हैं। यहाँ खुले में आप यों ही बैठे हैं।
[घर की तरफ तेजी से बढ़ती है]
हेमलता: किधर चली, आया?
आया: [जल्दी से] ड्रेसिंग गाउन लेने।... साहब का बेरा कलकत्ते से आता तो ऐसी गफलत नहीं होती।
[चली जाती है]
रायसाहब: हा हा हा [ठहाका मारते हैं] गुड ओल्ड आया! [चाय पीते हुए] समझती है कि सारी दुनिया नादान बच्चों का झुंड है और अकेली वह माँ है।
हेमलता: क्या सच उसे देहात नहीं सुहाता, पापा? मैं नहीं मान सकती। मगर... [चेतू मूढ़ा ले आया है।] यहीं रख दो मूढ़ा मेज के पास।
रायसाहब: मुझे ये पुराने मूढ़े पसन्द हैं। कमर बिलकुल ठीक एंगिल में बैठती है। [चेतू को रोककर] ए, क्या नाम है तुम्हारा?
चेतराम: जी, चेतराम।
रायसाहब: कहार हो?
चेतराम: मुसहर हूँ, सरकार।
रायसाहब: मुसहरों की तो एक बस्ती थी करीब ही कहीं, गन्दी-सड़ी। बाप का नाम?
चेतराम: कमतूराम! - अ ब गन्दगी नहीं सरकार!
रायसाहब: अरे, तू कमतू का लड़का है?
हेमलता: क्यों नहीं है अब गन्दी बस्ती?
[आया का प्रवेश]
आया: लीजिए सरकार ड्रेसिंग गाउन, जब बैठना ही है यहाँ खुले में तो... अरे तू यहीं खड़ा है चेतू?
रायसाहब: [ड्रेसिंग गाउन पहनते हुए] आया, यह तो उसी कमतू का लड़का है जो 15 बरस पहले यहाँ...
आया: हाँ, सरकार मैंने तो उसे ही बुलाया था, मगर उसने लड़के को भेज दिया। खैर, जाने-पहचाने का लड़़का है। चोरी-ओरी करेगा तो पकड़ना मुश्किल नहीं।
हेमलता: तुम तो, आया...।
आया: अरे हाँ बीबी जी, अब ये देहाती सीधे-सादे नहीं रहे। हमारे-तुम्हारे कान काटते हैं। चेतू चाय की ट्रे लेकर जल्दी आना। पलंग-वलंग ठीक करने हैं [चलते-चलते] देखूँ बावर्ची ने खाना भी तैयार किया कि नहीं।
रायसाहब: डीयर ओल्ड आया।
[आया जाती है। रायसाहब चाय की चुस्की लेते हैं।]
हेमलता: चेतराम!
चेतराम: जी बीबी जी।
हेमलता: मुसहर बस्ती में अब गन्दगी नहीं! क्यों?
चेतराम: बस्ती ही बह गयी सरकार!
रायसाहब: बह गयी?
चेतराम: पिछले साल बहुत जोर की बाढ़ आयी। हमारी तो बस्ती ही खत्म हो गयी। चालीस घर थे। मेरे दादा के पास धनहर खेत था आठ कट्ठा। जैसे-तैसे महाजन से छुड़ाया। वह भी बालू में पड़ गया। और कान्हू काका की चार बकरी थी। सब पानी...
रायसाहब: सरकारी मदद मिली?
चेतराम: बातचीत तो चल रही है... पर अब तो हम लोग पहाड़ी की तलहटी में चले गये हैं। नयी टोली बस रही है।
रायसाहब: ओ हो, बड़े जोम हैं। लेकिन वहाँ तो ऊसर जमीन है। खेती की गुंजायश कहाँ?
चेतराम: मुश्किल तो हुई सरकार। पर बारी-बारी से दस-दस जन मिल कर तैयार करते हैं। एक बाँध बन जाए तो बेड़ा पार है सरकार।
रायसाहब: हिम्मत तो बहुत की तुम लोगों ने!
हेमलता: लेकिन है मुसीबत ही। रोज का खाना-पीना कैसे चलता होगा इन लोगों का?
रायसाहब: यही, नौकरी-मजूरी। जब मिल जाय।
चेतराम: वह तो हई सरकार! पर अब तो बाँस का काम करने लगे हैं। हाट-बाजार में बिक जाता है। इनसे भी बढ़िया मूढ़े बनाने लगे हैं।
रायसाहब: अच्छा? लाना भई हमारे लिए भी एक सेट।
चेतराम: जरूर सरकार! दादा तो इसी में लगे रहते हैं रात-दिन। मैंने भी टोकरी बनाना सीख लिया है, रंग-बिरंगी। लोचन भैया को बहुत पसन्द है। कहते हैं सहर में तो बहुत बिकेंगी...
हेमलता: तो तुम्हारे भाई भी हैं?
चेतराम: [हँसता है] न बीबी जी! लोचना भैया? लोचन भैया तो... सबके भैया हैं! कहते हैं...
रायसाहब: जगत भैया!
आया: [नेपथ्य में] चेतू, ओ चेतू!
चेतराम: चाय ले जाऊँ, सरकार?
रायसाहब: हाँ, और तो नहीं लोगी हेम?
हेमलता: ऊँ...हाँ...हँ...नहीं। ले जाओ!
[चेतू ले जाता है। रायसाहब ड्रेसिंग गाउन की जेब में हाथ डालकर घूमने लगते हैं।]
रायसाहब: तो यह है इन लोगों की जिन्दगी। गरीब भी और गन्दे भी। उन दिनों तो उस टोली में बिना नाक बंद किये जाना हो ही नहीं सकता था। बाप इसका मेहनती था। असल में काम करने में पक्के हैं ये लोग, लेकिन हैं जाहिल!
हेमलता: पापा, आपको याद है हमारे आर्ट मास्टर ने वह तस्वीर बनायी थी 'किसान की साँझ' - कंधे पर हल, आगे थैला, थका-माँदा किसान, साँझ की चित्ताकर्षक रंगीनी में भी निर्लिप्त...
रायसाहब: पाँच सौ रुपये दाम रखा था न उन्होंने उसका?
हेमलता: पापा, आपने गौर किया इस चेतराम की शक्ल उससे मिलती है... मास्टर साहब कहते थे देहाती जिन्दगी और दृश्यों में अनगिनती मास्टर-पीसेज के बीज बिखरे पड़े हैं। एक-एक चेहरे में सदियों का अवसाद है। एक-एक झाँकी में युगों की गहराई। अमृता शेरगिल...
रायसाहब: अमृता शेरगिल... भई, उसकी तसवीरों पर तो मातम-सा छाया रहता है।
हेमलता: वह तो अपना-अपना एटीट्यूड है। अपनी भंगिमा! लेकिन पापा, यह तो मानिएगा कि शेरगिल के रंगों में भारत के गाँव की मिट्टी झलक रही है। पापा, मुझे लगता है जैसे मेरी कूची, मेरे ब्रश को यहाँ आकर नयी दृष्टि मिली हो। कितने चित्र मैं यहाँ खींच सकती हूँ? पकते हुए गेहूँ के खेत में चकित-सी किसान बाला। रंग-बिरंगी बाँस की टोकरियाँ बनाता हुआ इसी चेतराम का बाप! सबेरे की किरन में घुली-घुली-सी गाय को दुहता हुआ ग्वाला...
रायसाहब: और यह चाँदनी! [हँसता है] मगर हेम, वह चित्र भी तैयार हुआ या नहीं?
हेमलता: कौन-सा?
रायसाहब: अरे वही... खास चित्र!
हेमलता: पापा आप तो [शर्मीली-सी] लेकिन बीरेन ने पन्द्रह मिनट भी तो लगातार सिटिंग नहीं दी। इधर से उधर फुदकते फिरते थे।
रायसाहब: इस वक्त भी जान पड़ता है कहीं फुदक ही रहे हैं, हजरत।...
हेमलता: आपने भी फिजूल भेजा ताँगा। जिसके पैर में ही सनीचर हो...
[बीरेन पीछे से हठात् निकलता है।]
बीरेन: सनीचर नहीं आज तो शुक्र है। कहीं इसी वजह से तुम ताँगा भेजना नहीं भूल गयीं?
हेमलता: बीरेन!
रायसाहब: बीरेन? अरे! क्या तुम्हें ताँगा नहीं मिला स्टेशन पर?...
बीरेन: नमस्ते पापा जी। जी, मुझे ताँगा नहीं मिला, शायद...
रायसाहब: अजब अहमक है यह साईस। रास्ता तो एक ही है।
बीरेन: लेकिन कोई बात नहीं। मेरा भी एक काम बन गया।
रायसाहब: सामान कहाँ है?
हेमलता: चेतू! [पुकारते हुए] आया, चेतू को भेजना! सामान...
बीरेन: सामान तो चौधरी जंगबहादुर की देख-रेख में स्टेशन ही छोड़ आया हूँ।
रायसाहब: यानी मिल गये तुम्हें भी चौधरी जंगबहादुर।
हेमलता: वही न पापा, जो हर गाड़ी पर किसी न किसी आने वाले को लेने के लिए जाते हैं?
बीरेन: या किसी न किसी जाने वाले को पहुँचाने। मगर यह भी निराला शौक है कि बिला नागा हर गाड़ी पर स्टेशन जा पहुँचना।
रायसाहब: दो ही तो गाड़ी आती है इस छोटे स्टेशन पर, लेकिन चौधरी की वजह से उस सूने स्टेशन पर रौनक हो जाती है।
बीरेन: जी हाँ, जब तक उनसे मुलाकात नहीं हुई तब तक तो मुझे भी लगा कि पैसिफि़क सागर के टापू पर बहक गया हूँ।
हेमलता: यहाँ चौरंगी की चहल-पहल की उम्मीद करना तो बेकार था बीरेन!
बीरेन: [ठहाका] याद है न बेकन की वह उक्ति, 'भीड़ के बीच में भी चेहरे गूँगी तसवीरें जान पड़ते हैं और बातचीत घंटियाँ, अगर कोई जाना-पहचाना न हो।' लेकिन तुमने यह कैसे समझ लिया कि मुझे वीराना पसन्द नहीं।... मैं तो चौधरी साहब से भी पल्ला छुड़ा कर भागा।
रायसाहब: तो शायद उन्होंने तुम्हें समूची दास्तान सुनानी शुरू कर दी होगी।
बीरेन: जी हाँ, यह बताया कि वे साल भर में एक बार, सिर्फ एक बार, कलकत्ते की रेस में बाजी लगाने जाते हैं। यह भी बताया कि गवर्नर साहब के जिस डिनर में उन्हें बुलाया गया था, उसका निमंत्रण पत्र अब भी उनके पास है और यह कि इस गाँव में अब तक जितनी बार कलक्टर आए हैं उनके दिन और तारीखें उन्हें पूरी तरह याद हैं।
हेमलता: गजब है!
रायसाहब: हाँ भाई, चौधरी की याददाश्त लाज़वाब है।
बीरेन: याददाश्त की दुनिया में ही रहते जान पड़ते हैं! इसलिए जब उन्होंने स्टेशन पर सामान की देखभाल का जिम्मा लिया तो मैंने भी छुटकारे की साँस ली और रास्ता छोड़कर खेतों की राह बस्ती की ओर चल दिया।
[आया का प्रवेश]
आया: बीरेन बाबू, पहले गर्म चाय पीजिएगा या फिर खाने का ही इंतजाम...
बीरेन: ओ, हलो आया कैसी हो?
आया: मैं तो मजे ही में हूँ। लेकिन आपके आने से हमारी हेम बीबी के लिए चहल-पहल हो गयी वरना...
हेमलता: वरना क्या? मुझे तो कलकत्ते की चहल-पहल से यहाँ का सूना संगीत ही भाता है।
रायसाहब: आया, हेम की उलटबाँसियाँ तुम न समझोगी।
बीरेन: लेकिन, आया, अब मैं इस जंगल में मंगल करने वाला हूँ।
आया: भगवान वह दिन भी जल्दी दिखावें। मैं तो हेम बिटिया...
हेमलता: चुप भी रहो, आया!
रायसाहब: [ठहाका] हा, हा, हा।
बीरेन: मैं दूसरी बात कह रहा था। मेरा मतलब है इस गाँव की काया-पलट करना। यह गाँव मेरा इंतजार कर रहा है, जैसे... जैसे...
हेमलता: जैसे वीणा के तार उस्ताद की उँगलियों का [किंचित हास] खूब!
रायसाहब: [हँसते हुए] हा, हा, हा! बीरेन, है न मेरी बिटिया लाजवाब?
बीरेन: लेकिन वीणा के सुर में वह मस्ती कहाँ जो एक नयी दुनिया के निर्माण में है?
हेमलता: [व्यंग्य] कोलम्बस!
रायसाहब: नयी दुनिया का निर्माण। यह तो दिलचस्प बात जान पड़ती है बीरेन! सुनें तो...
बीरेन: जिस रास्ते से... शार्टकट से... में आया हूँ, उससे लगी हुई जो जमीन है, थोड़ी ऊँची और समतल, उसे देख कर मेरी तबीयत फड़क गयी और मैंने तय कर लिया कि...
आया: बीरेन बाबू!
बीरेन: [अपनी बात जारी रखते हुए] कि बिलकुल आइडियल रहेगी वह जगह! बिलकुल मानो उसी के लिए तैयार खड़ी हो...
रायसाहब: किसके लिए?
आया: सरकार, बीरेन बाबू की बातें तो सावन की झरी हैं, पर मुझे तो बहुतेरा काम पड़ा है।
हेमलता: [चंचल] इन्हें खाना मत देना आया!
बीरेन: [उसी धुन में] मैं कहता हूँ पापाजी उससे बेहतर जगह...
रायसाहब: ना, भई, बीरेन! पहले आया का हुक्म मान लो। हेम, कमरा इन्हें दिखा दो। गर्म पानी का इन्तजाम तो होगा ही। जब तैयार हो जाएँ और खाना भी, तो आया, मुझे खबर दे देना।
आया: लेकिन इस मौसम में बाहर रहिएगा देर तक तो...
रायसाहब: बस अभी आया। चौधरी साहब इस बीच में आयें तो दो बात उनसे भी कर लूँगा।
बीरेन: [जाते-जाते] लेकिन, पापाजी, आप गौर करे देखिए, ग्रामोद्धार-समिति के लिए पहाड़ की तलहटी वाली जमीन से मौजूँ और कोई जगह हो ही नहीं सकती। मैंने उन लोगों से...
[जाता है]
रायसाहब: ग्रामोद्धार-समिति! ख्याल तो अच्छा है। एक जमाने में मैंने भी... [सामने देखकर] कौन? चेतू। अरे तू यहाँ कैसे खड़ा है?
चेतू: सरकार...
[रुक जाता है।]
रायसाहब: क्या गर्म पानी तैयार नहीं?
चेतू: कर आया सरकार! कमरा भी साफ है।
रायसाहब: ठीक।
चेतू: सरकार!
[झिझक कर रुक जाता है।]
रायसाहब: क्या बात है चेतू?
चेतू: सरकार वह तलहटी वाली जमीन!
रायसाहब: कौन जमीन?
चेतू: जी नये साहब जिसे लेने की सोच रहे हैं।
रायसाहब: अरे बीरेन! अच्छा वह जमीन, जहाँ वह ग्रामोद्धार-समिति बैठायेंगे।
चेतू: लेकिन सरकार, उस पर तो हम लोग अपना नया बसेरा कर रहे हैं। आठ-दस बाँस की कोठियाँ-झुरमुट-लग जाएँ तो बेड़ा पार हो जाय।
रायसाहब: अरे तुम मुसहरों का क्या? जहाँ बैठ जाओगे, बसेरा हो जाएगा, लेकिन गाँव में जो उद्धार के लिए काम होगा... [घोड़े की टापों और ताँगे की आवाज] यह क्या? ताँगा आ गया क्या? देख भई, बीरेन बाबू का सामान उतार ला। [चेतू बाहर जाता है। ताँगा रुकने की आवाज] चौधरी साहब हैं क्या?
बालेश्वर: [बाहर ही से बोलता हुआ आता है।] जी, चौधरी साहब ने ही मुझे भेजा है सामान के साथ। मेरा नाम बालेश्वर है, बी.पी. सिन्हा। और ये हैं करमचन्द बरैठा। [करमचन्द नमस्ते करता है।] बच्चू बाबू के चचेरे भाई हैं। मैं चौधरी साहब का भतीजा हूँ।
रायसाहब: कहाँ रह गये चौधरी साहब?
बालेश्वर: जी ताँगे में आने की वजह से उनके घूमने का कोटा पूरा नहीं हुआ तो फिर से घूमने गये हैं।
रायसाहब: [हँसते हुए] खूब!
करमचन्द: हम लोगों ने सोचा कि आपका सामान भी पहुँचा दें और आपके दर्शन भी हो जायें।
बालेश्वर: बात यह है कि देहात में कोई 'लाइफ' नहीं।
करमचन्द: जब से शहर से लौटे हैं, जान पड़ता है कि बंदी बन गये हैं। 'ट्रांस्पोर्टेशन आफ लाइफ!'
रायसाहब: क्या करते थे शहर में?
बालेश्वर: करमचन्द तो इंटरमीडिएट तक पढ़ कर लौट आये और मैं...
करमचन्द: बात यह है कि इम्तहान के परचे ही बेढंगे बनाये थे किसी ने।
बालेश्वर: मैं तो बी.ए. कर रहा था और एक दफ्तर में किरानी की नौकरी के लिए भी दरख्वास्त दे दी थी, मगर सिफारिश की कमी की वजह से...
रायसाहब: किरानी? तुम्हारे यहाँ तो कई बीघे खेती होती है।
बालेश्वर: पढ़ाई-लिखाई के बाद भी खेती! पढ़े फारसी बेचे तेल।
करमचन्द: और फिर शहर की लाइफ की बात ही और है। खाने के लिए होटल, सैर के लिए मोटर, तमाशे के लिए सिनेमा।
रायसाहब: रहते कहाँ थे?
बालेश्वर: शहर में रहने का क्या? चार अंगुल का कोना भी काफी है।
करमचन्द: शहर की सड़कें यहाँ के बैठकखाने से कम नहीं। वह चहल-पहल वह रंगीनियाँ!
रायसाहब: भई, यह तो तुम लोग गलत कहते हो। मैंने अपने बचपन और जवानी के अनेक सुहाने बरस यहाँ गुजारे हैं।
बालेश्वर: तब बात और रही होगी, जज साहब!
करमचन्द: और फिर छोटी उम्र में शहर की मनमोहक जिन्दगी से गाँव का मिलान करने का मौका कहाँ मिलता होगा।
रायसाहब: मनमोहन... खैर। आजकल क्या शगल रहता है?
करमचन्द: गले पड़ी ढोलकी बजावे सिद्ध! सोचा कुछ पढ़े-लिखे, जानकार लोगों का क्लब ही बना लें।
बालेश्वर: वह भी तो नहीं करने देते लोग।
रायसाहब: कौन लोग?
करमचन्द: इस गाँव की पालिटिक्स आपको नहीं मालूम?
रायसाहब: यहाँ भी पालिटिक्स है?
बालेश्वर: जबरदस्त! बात यह है कि मैं और करमचन्द तो ढंग से क्लब चलाना चाहते हैं। प्रेजीडेंट, दो वाइस-प्रेजीडेंट, एक सेक्रेटरी, दो ज्वायंट-सेक्रेटरी, पाँच कमेटी मेंबर।
करमचन्द: जी हाँ, यह देखिए! [एक कागज निकाल कर रायसाहब को दिखाता है] इस तरह लेटर-पेपर छपवाने का इरादा है। ऊपर क्लब का नाम रहेगा और... यहाँ हाशिए में सब पदाधिकारियों के नाम और...
बालेश्वर: लेकिन ठाकुरों की बस्ती में दो आदमी हैं, धरम सिंह और किशनकुमार सिंह। कहते हैं, दोनों वाइस-प्रेजीडेंट उन्हीं के रहें और कमेटी में भी तीन आदमी। मैंने कहा कि एक ज्वायंट-सेक्रेटरी ले लो और दो कमेटी के मेम्बर।
रायसाहब: वे भी तो पढ़े-लिखे होंगे।
करमचन्द: जी हाँ, कालेज तक।
रायसाहब: तब?
करमचन्द: अपने को लाट साहब समझते हैं। कहते हैं, क्लब होगा तो उन्हीं के मोहल्ले में।
बालेश्वर: भला आप ही सोचिए, हम लोगों के रहते हुए ठाकुरों की बस्ती में क्लब कैसे खुल सकता है?
करमचन्द: आप ही इंसाफ कीजिए, जज साहब!
रायसाहब: भाई, इसके लिए तुम बीरेन से बात करो। यह लो बीरेन आ गये।
बीरेन: [हेम के साथ आते हुए] पापा जी, ग्रामोद्धार-समिति वाली वह बात मैंने पूरी नहीं की।
रायसाहब: बीरेन, वह बात तुम इन लोगों को समझाओ। यह हैं बालेश्वर ऊर्फ बी.पी. सिन्हा और ये हैं करमचन्द बरैठा। गाँव के पढ़े-लिखे नौजवान! क्लब खेलना चाहते हैं। मैं तो चलता हूँ, देरी हो रही है। हेम बेटी, बीरेन को देर मत करने देना।
[चले जाते हैं।]
बीरेन: अच्छा तो गाँव में क्लब स्थापित करना चाहते हैं आप?
बालेश्वर: जी हाँ, यह देखिए यह है हम लोगों का लेटर-पेपर और नियमावली का मसौदा। बात यह है कि...
बीरेन: आइए मेरे कमरे में चलिए, वहाँ इत्मीनान से बातें होंगी। इधर से चलिए। मैं अभी आया।
[बालेश्वर और करमचन्द जाते हैं]
हेमलता: मैं यहीं हूँ। जल्दी करना नहीं तो जानते हो, आया वह खबर लेगी कि...
बीरेन: तुम भी चलो न! क्या उम्दा मेरी योजना है। सुन कर फड़क जाओगी।
हेमलता: कमरे में चलूँ? उँह... देखते हो यह चाँदनी [बाहर दूर से सम्मिलित स्वर में गाने की आवाज] और सुनते हो यह स्वर, मानो चाँदनी बोलती हो!
बीरेन: [जाते-जाते शरारत भरे स्वर में] मैं तो देखता हूँ बस किसी का चाँद-सा मुखड़ा और सुनता हूँ तो अपने दिल की धड़कन [हाथ हिलाते हुए] टा...टा!
हेमलता: [मीठी मुस्कान] झूठे।
[सम्मिलित संगीत-स्वर निकट आ रहा है, स्त्री-पुरुष दोनों का स्वर]
चननिया छटकी मो का करो राम।
गंगा मोर मइया जमुना मोर बहिनी
चाँद सूरज दूनो भइया
मो का करो राम। चननिया छटकी...
सोसु मोर रानी, ससुर मोर राजा
देवरा हवें सहजादा मो का करो काम
चननिया छटकी मो का करो राम!
[गाने के बीच में चेतू का जल्दी से आना और बाहर की तरफ चलना]
हेमलता: कौन चेतू? कहाँ जा रहे हो?
चेतू: ही...वह...वह... गाना।
हेमलता: बड़ा सुन्दर है।
चेतू: मेरी ही बस्ती की टोली है। हर पूनो की रात को गाँव के डगरे-डगरे घूमती है।
हेमलता: इधर ही आ रही है।
चेतू: सामने वाले डगरे में। वह देखिए। और देखिए उसमें वह लोचन भैया भी हैं।...
हेमलता: कहाँ?
चेतू: वह मिर्जई पहने। मैं चलता हूँ बीबी जी। वे लोग मुझे बुला रहे हैं...
[जाता है। गाने का स्वर निकट आकर दूर जाता है]
'मो का करो राम... मो का करो राम।'
हेमलता: [अब स्वर मंद हो जाता गया है।] 'चननिया छटकी मो का करो राम।' ओह, कैसी मनोहर पीर है यह!
आया: हेम बीबी, हेम बीबी। इस ठंड में कब तक बाहर रहोगी?
हेमलता: [उच्च स्वर में] अभी आयी आया! [फिर मंद स्वर में] चाँदनी और मैं! मैं और बीरेन! लेकिन यह गाना और वह... वह... लोचन!
[विचार-मग्न अवस्था में प्रस्थान]
दूसरा दृश्य
[स्थान वही। पन्द्रह रोज बाद। समय सबेरे। बाहर से रायसाहब और एक व्यक्ति की बातचीत का अस्पष्ट स्वर और फिर थोड़ी देर में ठहाका मार-मार कर हँसते हुए रायसाहब का प्रवेश]
रायसाहब: हा, हा, हा! वाह भाई वाह! सुना बेटी हेम! हेम!
हेमलता: [नेपथ्य में] आयी पापा!
रायसाहब: हा, हा, हा!
[हेम का प्रवेश, हाथ में एक बड़ा-सा चित्र और ब्रश]
हेमलता: क्या बात हुई, पापा?
रायसाहब: हेम, हमारे चौधरी साहब भी लाजवाब हैं! अभी तो मुझे फाटक पर छोड़ कर गये हैं। सबेरे की चहलकदमी में इनका साथ न हो तो मैं तो इस देहात में गूँगा भी हो जाऊँ और बहरा भी।
हेमलता: आप तो आज उनके घर तक जाने वाले थे।
रायसाहब: गया तो था, यही सोच कर कि थोड़ी देर के लिए उनकी बैठक में भी चलूँ, लेकिन बाहर से ही बोले, 'वहीं ठहरिए!'
हेमलता: अरे!
रायसाहब: कहने लगे, 'पहले में ऊपर पहुँच जाऊँ, तब आप कार्ड भेजिएगा और तब बैठक में जाना मुनासिब होगा! कायदा जो है।'
हेमलता: [हँसती है] ऐसी भी क्या अंग्रेजियत?
रायसाहब: और भी तो सुनो। घर में उनका जो प्राइवेट कमरा है, उसमें बाहर एक घंटी लगी है। जिसे भी अन्दर जाना हो, घंटी बजानी होती है। बिना घंटी बजाए अगर कोई अन्दर आ गया तो चौधरी साहब उससे बात नहीं करते, चाहे उनकी बीबी हो।
हेमलता: मालूम होता है मनुस्मृति की तरह एटीकेट संहिता चौधरी साहब छोड़ कर जाएँगे।
रायसाहब: लेकिन आदमी दिल का साफ और बिलकुल खरा है, हीरे की मानिन्द! दूसरे के एक पैसे पर हाथ नहीं लगाता।
हेमलता: तभी शायद बीरेन ने उन्हें ग्रामोद्धार-समिति का आडीटर बनाया है।
रायसाहब: बीरेन से कह देना कि चौधरी साहब हिसाब में बहुत कड़े हैं। कह रहे थे कि चूँकि इस संस्था में उनका भतीजा बालेश्वर शामिल है, इसलिए इसकी तो एक-एक पाई पर निगाह रखेंगे।
हेमलता: बालेश्वर मुझे पसन्द नहीं। झगड़ालू आदमी है।
रायसाहब: झगड़ा तो गाँव की नस-नस में बसा है।
हेमलता: पहले भी ऐसा था पापा?
रायसाहब: था, लेकिन ऐसी हठ-धर्मी नहीं थी। मैं यह नहीं कहता कि पहले, शेर-बकरी एक घाट पानी पीते थे, लेकिन... लेकिन...पहले, पढ़े-लिखे नौजवान गाँव में कम थे और...
हेमलता: पढे-लिखे नहीं, अधकचरे। टैगोर ने लिखा है न 'हाफ बेक्ड कल्चर'। लेकिन पापा, क्या सब बीरेन का तूफानी जोश और उसकी पैनी सूझ गाँव में काया-पलट कर देगी?
रायसाहब: तुम क्या समझती हो?
हेमलता: कह रहे थे न बीरेन उस रोज कि गाँव में क्रान्ति के लिए एक नये दृष्टिकोण की जरूरत है एक नये मानसिक धरातल की...
रायसाहब: बीरेन बोलता खूब है! उसी का जादू है।
हेमलता: सैकड़ों की जनता झूम जाती है।
रायसाहब: उस दूसरी पार्टी का क्या हुआ। ग्राम-सुधार-समिति में शामिल हुई या नहीं?
हेमलता: अभी तो नहीं। कल रात बहुत-सा वाद-विवाद चलता रहा। बीरेन देर से लौटे थे। पता नहीं क्या हुआ?
रायसाहब: लेकिन आज तो नींव पड़ेगी समिति की!
हेमलता: हाँ, आप नहीं जाइएगा उत्सव में पापा?
रायसाहब: न बेटी, मैंने तो बीरेन से पहले ही कह दिया था कि मैं नहीं जा सकूँगा। मुझे...
[एक हाथ में कागज लिये, दूसरे से कुरते के बटन लगाते हुए बीरेन का प्रवेश।]
बीरेन: लेकिन पापा जी, चौधरी साहब तो आ रहे हैं।
रायसाहब: उन्हें ठीक स्थान पर बैठाना, नियम के साथ।
बीरेन: [हँसते हुए] उनकी पूरी देख-भाल होगी। पापा जी, अगर आप वहाँ पहुँच नहीं रहे हैं तो यह तो देखिए मेरे भाषण का ड्राफ्ट।
रायसाहब: [उसके हाथ से कागज लेते हुए] तुम तो बिना तैयारी के ही बोलते हो।
[कागज पढ़ने लगते हैं]
बीरेन: जी हाँ, लेकिन आज तो ग्राम-सुधार-समिति की समूची योजना को गाँव के सामने रखना है... पढ़िए न!
रायसाहब: [पढ़ते हुए] बड़ी जोरदार स्कीम है!
बीरेन: जी, आगे और देखिए [हेम से] और हेम, समिति के भवन में जो चित्र टँगेंगे तुमने पूरे कर लिये?
हेमलता: एक तो तैयार ही-सा है।
[चित्र की ओर संकेत करती है]
बीरेन: यह?... बड़े चटकीले रंग हैं, बड़ा मनोहर नाच का दृश्य है... खूब! लेकिन... ये... इन कोने के अँधरे में ये कौन लोग हैं?...
हेमलता: तुम क्या समझते हो?
बीरेन: [रुक कर सोचता-सा] जैसे निर्वासित भटके हुए प्राणी!
रायसाहब: [पढ़ते-पढ़ते] बीरेन, तुम्हारी ग्राम-सुधार-समिति में दिमागी कसरत तो बहुत है... पुस्तकालय, भाषण, अध्ययन मंडल...
बीरेन: [चित्र को अलग रखता हुआ] वही तो पापा जी! ग्राम-जागृति के मानी क्या हैं? अपनी जरूरतों और समस्याओं पर विचार करने की क्षमता! देहात की मूक-व्यथा को वाणी की आवश्यकता है। माँग है, चुने हुए ऐसे नौजवानों की जो धरती की घुटनों को गगन के गर्जन का रूप दे सकें, जो रूढ़ियों के खिलाफ आवाज उठा सकें, जो आर्थिक प्रश्नों से माथापच्ची कर सकें। मैं समिति के पुस्तकालय में मार्क्स, लेनिन से लेकर स्पेंग्लर, रसेल इत्यादि सभी ग्रन्थों का अध्ययन कराऊँगा। एक नयी रोशनी, एक नया मानसिक मन्थन... इंटलैक्चुअल फरमेंट...
रायसाहब: ठीक बीरेन ठीक! बातें तो बहुत होंगी, लेकिन भई, देहात को गरीबी और गन्दगी को देख कर तो मन उचाट होता है।
बीरेन: [जोश के साथ] यह आपने ठीक सवाल उठाया। गरीबी और गन्दगी! पापा जी, इस गरीबी और गन्दगी को देख कर मेरा मन क्रोधाग्नि से जल जाता है। वे बे-घरबार के बूढ़े-बच्चे, वह भूखे भिखमंगों की टोली, वे चीथड़ों में सिकुड़ी औरतें... इन सबके ध्यान मात्र से दया का सागर उमड़ उठता है। लेकिन दया के सागर में क्रोध के तूफान की जरूरत है पापाजी! तूफान, जो न थमना जाने न चुप रहना। और इस तूफान को कायम रखने के लिए चाहिए कुछ ऐसी हस्तियाँ, जो उस क्रोध और दया के काबू में न आ कर भी उसी के राग छेड़ सकें, वकील की तरह पूरे जोश के साथ जिरह कर सकें, लेकिन मुवक्किल से अलग भी रह सकें।
हेमलता: सरोवर में कमल, लेकिन जल से अछूता।
बीरेन: हाँ, उसी की जरूरत है। जो लोग इस गरीबी और गन्दगी की दलदल से दूर रह कर उसमें फँसी दुनिया के बेबस अरमानों को समाज के सामने मुस्तैदी के साथ चुनौती का रूप दें सकें। [रुक कर भाषण के स्तर से उतरता हुआ] लेकिन मुझे तो चलना है पापाजी! पहले से जाकर समिति के कुछ उलझनें सुलझानी हैं, जिससे उत्सव के वक्त फसाद न हो।... तुम तो थोड़ी देर में आओगी हेम? तब तक इस चित्र को ठीक-ठाक कर लो। अच्छा तो मैं चला।
[चला जाता है। कुछ देर चुप्पी रहती है।]
रायसाहब: यही तो जादू है बीरेन का।
हेमलता: जादू वह जो सिर पर चढ़ कर बोले।
रायसाहब: कभी-कभी मुझे तो देहात में उलझन-सी लगती है। बरसों बाद आया हूँ...जैसे चश्मा शहर ही छोड़ आया हूँ... और बीरेन हैं कि आते ही गाँव को अपना लिया।
हेमलता: मालूम नहीं पापाजी, उन्होंने गाँव को अपना लिया... या...
[चेतू का प्रवेश]
चेतू: सरकार का नाश्ता तैयार है।
रायसाहब: [आते हुए] अच्छा चेतू! आता हूँ। [चलते-चलते चित्र पर निगाह जाती है।] हेम! यह तसवीर अच्छी बनी है।
हेमलता: थोड़ा टच करना बाकी है।
रायसाहब: नाचने वालों की टोली में बड़ी लाइफ है। रंग की भी, गति की भी! लेकिन... कोने में यह लोग कैसे खड़े हैं?
हेमलता: आप क्या समझते हैं?
रायसाहब: [सोचते-से सप्रयास] जैसे... जैसे सूखे और सूने दरख्त जिन्हें धरती से खुराक ही नहीं मिलती।
हेमलता: पापा, आप भी तो कवि हैं।
रायसाहब: [हँसते हैं] तुम्हारा बाप भी जो हूँ।... अच्छा मैं तो चला।
[चले जाते हैं]
हेमलता: [विचार-मग्न] सूखे और सूने दरख्त!... या निर्वासित और भटके प्राणी!...नहीं...नहीं कुछ और, [चेतू से] चेतू, जरा लाना वह स्टूल, यहीं बैठ कर जरा इसे ठीक करूँ।
चेतू: [स्टूल रखता हुआ] यह लीजिए। रंग भी यहीं रख दूँ?
हेमलता: लाओ, मुझे दो। अब तो तुम्हें मेरी तसवीर खींचने की झक की आदत हो गयी है।
[रंग तैयार करने लगती है]
चेतू: जी, बीबी जी।
हेमलता: देखो, थोड़ी देर में यह तसवीर लेकर तुम्हें मेरे साथ चलना है।
चेतू: कहाँ?
हेमलता: बीरेन बाबू की समिति का जलसा कहाँ हो रहा है, वहीं पहाड़ी की तलहटी पर।
चेतू: [झिझकता हुआ] बीबी जी, वहाँ मैं नहीं जाऊँगा।
हेमलता: क्यों?
चेतू: बीबी जी, वहाँ हम गरीब मुसहर अपना बसेरा करने वाले थे। हम बाँस की पौध लगा रहे थे। मेहनत करके टोकरी बनाते, घर तैयार करते। बाँध होता तो खेत भी...
हेमलता: [चित्र बनाते-बनाते] लेकिन ग्रामोद्धार-समिति से भी तो आखिर तुम लोगों की तकलीफें दूर होंगी।
चेतू: पता नहीं बीबी जी। समिति में बहुत देर तक बहसें तो होती हैं। पर...
हेमलता: और फिर बीरेन बाबू के दिल में तुम लोगों के लिए कितना ख्याल है, कितनी दया है।
चेतू: [किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत हो] हमें दया नहीं चाहिए।
हेमलता: [चौंक कर उसकी ओर मुड़ती है] दया नहीं चाहिए? चेतू! यह तुमसे किसने कहा?
चेतू: [कुछ सकपका कर] बीबी जी, लोचन भैया कहते हैं कि...
[सड़क पर से सम्मिलित स्वर में नारों की आवाज]
ग्रामोद्धार-समिति जिन्दाबाद!
बी.पी. सिन्हा जिन्दाबाद!
गद्दारों का नाश हो!
ग्रामोद्धार-समिति जिन्दाबाद!
[आवाज दूर हो जाती है]
हेमलता: चेतू यह सब क्या है?
[खड़ी होकर देखने लगती है।]
चेतू: उत्सव में ही जा रहे हैं। बालेश्वर बाबू की पार्टी के लोग हैं। करमचन्द बाबू इनसे अलग हो गये हैं और ठाकुर पार्टी के लोगों में जा मिले हैं।
हेमलता: कल रात झगड़ा तय नहीं हुआ?
चेतू: पता नहीं... यह देखिए दूसरी पार्टी के लोग भी जा रहे हैं। कहीं झगड़ा न हो जाय।
[सड़क पर से दूसरे दल के नारों का शोर सुनाई देता है।]
करमचन्द की जय हो!
करमचन्द की जय हो!
ग्रामोद्धार-समिति हमारी है!
ग्राम-जागृति जि़न्दाबाद!
स्वार्थी सिन्हा मुर्दाबाद!
[आवाज दूर हो जाती है]
हेमलता: [चिन्तित स्वर में] चेतू, ये लोग तो लाठी लिये हुए हैं।
चेतू: जी हाँ, पहली पार्टी भी लैस थी।
[नेपथ्य में पुकारते हुए आया का प्रवेश]
आया: चेतू, ओ चेतुआ! देख तो यह क्या फसाद है?
चेतू: बालेश्वर बाबू और करमचन्द की पार्टियाँ हैं। दोनों बीरेन बाबू के उत्सव में गयी हैं।
हेमलता: लाठी-डंडा लिये हुए, आया!
आया: और तू यहीं खड़ा है चेतुआ। अरे जल्दी जा दौड़ कर चौकीदार से कह कि थाने में खबर कर दे। क्या मालूम क्या झगड़ा हो जाय। जल्दी जा। लाठी चल गयी तो बीरेन बाबू घिर जायेंगे। ... जल्दी दौड़ जा!
[चेतू तेजी से जाता है]
हेमलता: मैं भी जाऊँगी, आया। बीरेन अकेले है।
आया: न बीबी जी, तुम्हें न जाने दूँगी। [जाते हुए चेतू को पुकारते हुए] चेतू, लौटते वक्त जलसे में झाँकता आइयो [हेम से] हेम बीबी, कहाँ की इल्लत मो मोल ले ली बीरेन बाबू ने!
हेमलता: उनकी बात तो सब लोग सुनेंगे।
आया: बीबी जी, तुमने अभी तक नहीं समझा गाँव-गँवई के मामलों को। यहाँ भले मानसों का बस नहीं है। अपना तो वही कलकत्ता अच्छा था।
हेमलता: [झिड़कते स्वर में] आया, तुम तो बस...
आया: मैं ठीक कह रही हूँ बीबी जी। अभी तुम लोगों को पन्द्रह दिन हुए हैं यहाँ आये। देख लो, बड़े सरकार की तबीयत ऊबी-सी रहती है। चौधरी न हों तो एक दिन काटना मुश्किल हो जाय। और तुम हो...
हेमलता: मुझे तो अच्छा लगता है। कई स्केच बना चुकी हूँ।
आया: अरे, तसवीरें तो तुम कलकत्ते में भी बना लोगी। अनगिनती और इनसे अच्छी।
हेमलता: तुम तो, आया, उलटी बातें करती हो। आखिर हम लोग गाँव की ही औलाद हैं। यह धरती हमारी माँ है। अब हम लोग फिर यहाँ आकर रहना चाहते हैं। इसकी गोदी में आना चाहते हैं।
आया: अब बीबी जी इतनी हुसियार तो मैं हूँ नहीं जो तुम्हें समझा सकूँ। पर इतना कहे देती हूँ कि उखाड़े हुए पौधे की जड़ में हवा लग जाए तो फिर दुबारा जमीन में गाड़ना बेकार है। उसके फूल तो बँगले के गुलदस्तों की ही शोभा बढ़ाएँगे।
हेमलता: [अचंभित आया को देखती रह जाती है] आया तुम्हारी बात... तुम्हारी बात... खौफनाक है!
[नेपथ्य से आवाजें - 'इधर...इधर... ले आओ, सम्हल कर... चेतू तुम हाथ पकड़ लो...इधर...इधर']
आया: हैं! यह कौन आ रहा है? [बाहर की ओर देखते हुए] अरे, यह तो बीरेन बाबू को पकड़े दो आदमी चले आ रहे हैं। घायल, हो गये क्या? बाप रे!...
[दौड़कर बाहर की तरफ जाती है।]
हेमलता: [घबरा कर] बीरेन, बीरेन! बँगले की तरफ पुकारते हुए... पापा जी, पापा जी इधर आइए!
रायसाहब: [नेपथ्य में] क्या हुआ?
हेमलता: बीरेन घायल हो गये। ओह!...
[बेहोश बीरेन को लाठियों के स्ट्रेचर पर सम्हाले हुए, चेतू और एक व्यक्ति, जिसकी अपनी बाँह पर घाव है, प्रवेश करते हैं। वह इस परिस्थिति में भी स्थिरचित्त जान पड़ता है। उसकी वेशभूषा चेतू की-सी है।]
आया: [घबड़ाई हुई] चेतू, ये तो बेहोश हैं। हाय... राम!
[स्ट्रेचर जमीन पर रख दी जाती है]
व्यक्ति: घबड़ाइए नहीं।
हेमलता: [स्ट्रेचर के पास घुटने टेकती हुई] बीरेन! बीरेन!
[रायसाहब घबड़ाए हुए प्रवेश करते हैं]
रायसाहब: क्या हुआ? यह तो बेहोश है।... चेतू, क्या हुआ?
चेतू: सरकार, दोनों पार्टी के लठैत भिड़ गये। बीच में आ गये बीरेन बाबू। वह तो लोचन भैया ने जान पर खेल कर बचा लिया, वरना...
व्यक्ति: इन्हें फौरन मकान के अन्दर पहुँचाइए। पट्टी-वट्टी है घर में?
हेमलता: बीरेन! बीरेन!
रायसाहब: आया, जल्दी अन्दर ले चलो।... चेतू सम्हल कर लिटाना। हेम, मेरी ऊपर वाली अलमारी में लोशन है, जल्दी...जल्दी... [बीरेन को पकड़ कर आया, चेतू और हेम जाते हैं] और यह लोचन कौन है?
व्यक्ति: मेरा ही नाम लोचन है।
रायसाहब: तुमने बड़ी बहादुरी का काम किया। यह लो दस रुपये और जरा दौड़ जाओ, थाने के पास ही डाक्टर रहते हैं।
लोचन: आप रुपये रखें। मैं डाक्टर के पास पहले ही खबर भेज आया हूँ। आते ही होंगे।
रायसाहब: [कुछ हतप्रभ] तुम...तुम इसी गाँव के हो?
लोचन: हूँ भी और नहीं भी।.. .आप बीरेन बाबू को देखें।
रायसाहब: [संकुचित होकर] हाँ...आँ...हाँ...
[जाते हैं। लोचन कमर में बँधे कपड़े को फाड़ कर, अपनी बायीं भुजा में बहते हुए घाव पर पट्टी बाँधता है, तसवीर को सीधा उठा कर रखता और गौर से देखता है। इतने में तेजी से हेमलता का प्रवेश]
हेमलता: तुम्हारा ही नाम लोचन है?
लोचन: जी!
हेमलता: तुम्हीं ने बीरेन की जान बचायी है। [प्रसन्न स्वर में] वे होश में आ गये हैं। हम लोग बड़े अहसानमन्द हैं।
लोचन: [स्पष्ट स्वर में] जान मैंने नहीं बचायी।
हेमलता: तुम्हारी बाँह पर भी तो चोट है।
लोचन: जान उन गरीब मुसहरों ने बचायी है जिनसे जमीन छीन कर बीरेन बाबू ग्रामोद्धार-समिति का भवन बनवा रहे हैं। जब समिति के क्रान्तिकारी नौजवान आपस में लाठी चला रहे थे, तब यही गरीब बीरेन बाबू को बचाने के लिए मेरे साथ बढ़े। [व्यंग्यपूर्ण मुस्कान] क्रान्ति का दीपक बच गया!
हेमलता: [हिचकिचाती हुई] तुम... आप पढ़े-लिखे हैं?
लोचन: पढ़ा-लिखा? [वही मुस्कान] हाँ भी और नहीं भी।... अच्छा चलता हूँ।... हाँ, यह तसवीर आपने बनायी है?
हेमलता: कोई त्रुटि है क्या?
लोचन: नहीं! आपने हमारे नाच की गति को रेखाओं और रंगों में खूब बाँधा है। और...
हेमलता: और?
लोचन: कोने में खड़े छाया में लपटे ये व्यक्ति...
हेमलता: कैसे हैं?
लोचन: [बिना झिझक के] जैसे अपनी ही जंजीरों से बँधे बन्दी!
हेमलता: बन्दी! क्यों?
लोचन: [वही मुस्कान] यह फिर बताऊँगा। [चलते हुए] अच्छा नमस्ते!
[लोचन चला जाता है। हेमलता अचरज में खड़ी रह जाती है। फिर चित्र उठा कर घर की तरफ जाती है]
हेमलता: [जाते-जाते मंद स्वर में] बन्दी! अपनी ही जंजीरों में बँधे बन्दी...
[पर्दा गिरता है।]
तीसरा दृश्य
[वही स्थान। एक हफ्ते बाद। समय सन्ध्या। नौकर लोग मकान से बगीचे में होकर बाहर की ओर सामान लाते नजर पड़ते हैं। कभी-कभी आया की दबंग आवाज सुन पड़ती है, कभी चेतू की, कभी और लोगों की]
'वह बिस्तरा दो आदमी पकड़ो!'
'सम्हाल कर भई।'
'बक्से में चीनी के बर्तन हैं।'
'जल्दी...जल्दी।'
'यह टोकरी दूसरे हाथ में पकड़ो!'
[घर की तरफ से आया का व्यस्त मुद्रा में जल्दी-जल्दी आना। बाहर से चेतू आता है।]
आया: सब सामान लद गया चेतू?
चेतू: हाँ आया! बस, बड़े सरकार का अटेची रहा है। उनके आने पर बन्द होगा।
आया: कहाँ गये सरकार?
चेतू: चौधरी जी के यहाँ बिदा लेने। सुना है चौधरी के बचने की उम्मीद नहीं।
आया: जिस गाँव में भतीजा अपने चचा पर वार कर बैठे वहाँ ठहरना धरम नहीं।
चेतू: अभी जमानत नहीं मिली बालेश्वर बाबू को।
आया: अब हमें क्या मतलब? हम तो कलकत्ता पहुँच कर शान्ति की साँस लेंगे।
चेतू: शान्ति!
आया: तू तो बुद्धू है, चेतू। चल कलकत्ते। मौज उड़ाएगा। देखेगा बहार और बजाएगा चैन की बंसी।
चेतू: गाँव छोड़ कर? नौकरी ही करनी है तो अपनी धरती पर करूँगा।
आया: अरे, शहर में नौकरी भी न करेगा तो भी रिक्शा चला कर डेढ़ दो सौ महीना कमा लेगा।
चेतू: डेढ़-दो सौ?
आया: हाँ, और रोज शाम को सनीमा। होटल में चाय। चकचकाती सड़कें, जगमगाते महल। ठाठ से रहेगा।
चेतू: [विरक्त मुद्रा] खाना किराये का, रहना किराये का और बोलो किराये की।
आया: जैसी तेरी मर्जी! भुगत यहीं देहात के संकट।
चेतू: लोचन भैया तो कहत...
आया: [झिड़कती हुई] चल, चल, लोचन भैया के बाबा। अन्दर जाकर देख, बीरेन बाबू तैयार हों तो सहारा देकर लिवा ला। हेम बीबी तो तैयार हैं?
चेतू: अच्छा।
[अन्दर जाता है।]
आया: [जाते-जाते] देखूँ गाड़ी पर सामान ठीक-ठाक लदा है या नहीं।
ये देहाती नौकर...
[बाहर जाती है। थोड़ी देर में रायसाहब और लोचन बातें करते हुए बाहर से प्रवेश]
रायसाहब: भई लोचन, मुझसे यहाँ नहीं रहा जाएगा। अच्छा हुआ जाते वक्त तुम आ गये। बीरेन ने तुम्हें देखा नहीं। चलते वक्त उस दिन के एहसान के लिए...
लोचन: मैंने सोचा था कि आप लोग रुक जाएँगे।
रायसाहब: रुकना? आया तो इसी विचार से था कि कलकत्ते के बाद देहात में ही दिन काटूँगा। लेकिन एक महीने में देख लिया कि हम तो इस दुनिया से निवार्सित हो चले। बरसों पहले की दुनिया उजड़ गयी और मैं जिस समाज में बसने आया था, वह ख्वाब हो चला! चौधरी भी शायद उसी ख्वाब के भटके हुए टुकड़े थे। अभी उन्हें देख कर आ रहा हूँ। उम्मीद नहीं बचने की। उस दिन के झगड़े में बालेश्वर ने उन पर लाठी से वार नहीं किया, दिल को भी चकनाचूर कर दिया।
लोचन: बालेश्वर ही गाँव की नयी पीढ़ी नहीं है।
रायसाहब: [निराश स्वर] मैं नहीं जानता कि कौन नयी पीढ़ी है। बस, इतना देखता हूँ कि रैयत के सुख-दुख में हाथ बटाने वाला जमींदार, पुरखों के तजुर्बे के रक्षक बुजुर्ग, बेफिक्री की हँसी और बड़ों की इज्जत में पले हुए नौजवान... जब ये सब ही नहीं रहे तो गाँव में ठहर कर मैं क्या करूँ! शहर...
लोचन: शहर आपको खींच रहा है रायसाहब!
रायसाहब: [लाचारी का स्वर] तुम शायद ठीक कहते हो। शहर मुझे खींच रहा है।
लोचन: और आप बेबस खिंचे जा रहे हैं।
रायसाहब: [पीड़ित मुद्रा] बेबस...बेबस...ऐसा न कहो लोचन, ऐसा न कहो!... हम जा रहे हैं क्योंकि... क्योंकि...
[चेतू का सहारा लिये बीरेन का प्रवेश, साथ में हेम भी है।]
बीरेन: पापा जी, अब आप ही की देरी है।
रायसाहब: [मानो मुक्ति मिली हो] कौन? बीरेन, हेम! तैयार हो गये तुम लोग? तो मैं भी अपना अटैची ले आता हूँ। चेतू, मेरे साथ तो चल!
[घर की तरफ प्रस्थान। साथ में चेतू]
लोचन: [हेमलता से] नमस्ते!
हेमलता: कौन?...अच्छा आप? बीरेन, यहीं है लोचन जिन्होंने उस रोज तुम्हें बचाया था।
बीरेन: अच्छा! उस दिन तो तुम्हें देखा नहीं था, लेकिन फिर भी [गौर से देखते हुआ] तुम पहचाने-से लगते हो।
लोचन: [मुस्कराते हुए] कोशिश कीजिए। शायद पहचान लें।
बीरेन: [सोचता हुए] तुम...वह...वह...नहीं नहीं। वह तो ऊँची जात का ऊँचे कुल का आदमी था।
हेमलता: कौन?
बीरेन: मेरा कालेज का साथी एल.एस. परमार।
लोचन: [मुस्कराहट] एल.एस.परमार।... लोचन सिंह परमार।
बीरेन: [चौंक कर] ऐं! परमार...परमार! !
लोचन: [अविचलित स्वर में] हाँ, मैं परमार ही हूँ, बीरेन!
हेमलता: [विस्मित] बीरेन, यह तुम्हारे कॉलेज के साथी हैं?
बीरेन: [लोचन का हाथ पकड़ कर] यकीन नहीं होता परमार, कि तुम्हीं हो इस देहाती वेश में, मुसहरों के बीच। काँलेज छोड़ कर तो तुम ऐसे गायब हुए थे कि...
लोचन: [किंचित हँसी] एक दिन मैंने तुम लोगों को छोड़ा था और आज [रुक कर] आज, तुम जा रहे हो।
बीरेन: परमार, मैं जा रहा हूँ चूँकि मैं अपने आदर्श को खंडित होते नहीं देख सकता।
लोचन: आदर्श? कौन-सा आदर्श है जिसे गाँव खंडित कर देगा?
बीरेन: क्रान्ति का आदर्श, परमार! मैं भूल गया था कि देहात की मध्ययुगीन ऊसर भूमि अभी क्रान्ति के लिए तैयार नहीं है। उसके लिए जरूरत है शहर और कारखानों की सजग और चेतनाशील भूमि की।...
लोचन: [तीव्र दृष्टि] बीरेन, तुम भाग रहे हो।
बीरेन: मैं लाठियों की मार से नहीं डरता, लोचन!
लोचन: तुम भाग रहे हो लाठियों के डर से नहीं, बल्कि उन गुटबन्दियों, अंधविश्वास और झगड़े-फसाद की दल-दल के डर से, जिसे तुम एक छलाँग में पार कर जाना चाहते थे। [गम्भीर चुनौती-पूर्ण स्वर में] तुम पीठ दिखा रहे हो, बीरेन!
बीरेन: [हठात् विचलित] पीठ दिखा रहा हूँ... नहीं... नहीं... यह गलत है।... हम जा रहे...हैं, क्योंकि... क्योंकि...
[आया का तेजी से प्रवेश]
आया: हेम बीबी! बीरेन बाबू! अरे आप लोगों को चलना नहीं है क्या? सारा सामान रवाना भी हो गया। कहीं गाड़ी छूट गयी तो... कहाँ हैं बड़े सरकार? आप लोग भी गजब करते हैं...
[रायसाहब का प्रवेश, साथ में चेतू अटेची लिए हुए]
रायसाहब: यह आ गया मैं। चलो भाई, आया। बीरेन, तुम चेतू का सहारा लेकर आगे बढ़ो, पहले तुम्हें बैठना है।
बीरेन: मैं चलता हूँ, परमार। फिर कभी...
लोचन: फिर कभी [किंचित हँसी] फिर कभी!...
[आया अटेची लेती है, चेतू का सहारा लिये हुए बीरेन बाहर जाता है। पीछे-पीछे आया।]
रायसाहब: अच्छा भाई लोचन, हम भी चलते हैं... मुमकिन है तुम्हारा कहना सही हो!
लोचन: काश, मैं आपको रोक पाता!...
रायसाहब: हेम, तुम्हारी तसवीर उधर कोने में रखी रह गयी।
हेमलता: अभी लायी पापा, आप चलिए।
रायसाहब: अच्छा!
[चलते हैं]
लोचन: आप भी जा रही हैं हेमलता जी!
हेमलता: मजबूर हूँ।
लोचन: मैं जानता हूँ। बीरेन का मोह।...
हेमलता: मैं बीरेन को यहाँ रख सकती थी लेकिन...
लोचन: लेकिन!
हेमलता: [सत्य की खोज से अभिभूत वाणी] लेकिन एक बात है जिसे न पापा समझते हैं न बीरेन। पर मैं कुछ-कुछ समझ रही हूँ। पापा गाँव को लौटे प्रतिष्ठा और अवकाश से सराबोर होने, बीरेन ने देहात को क्रान्ति की योजना का टीला बनाना चाहा और मैं... मैं... गाँव की मोहक झाँकी में कल्पना का महल बनाने को ललक पड़ी।
लोचन: महल मिटने को बनते हैं, हेम जी!
हेमलता: यह मैं जानती हूँ, लेकिन हम तीनों यह न समझ सके कि हमारी जड़ें कट चुकी हैं, हम गाँव के लिए बिराने हो चुके हैं।... [आविष्ट स्वर] क्या आप इस दुविधा, इस उलझन, इस पीड़ा के शिकार नहीं हुए हैं? एक तरफ गाँव और दूसरी तरफ नागरिक शिक्षा-दीक्षा और सभ्यता की मजबूत जकड़! उफ, कैसी भयानक है यह खाई जिसने हमारे तन, हमारे मन, हमारे व्यक्तित्व को दो टूक कर दिया है? बताइए कैसे यह दुविधा मिट सकती है? कैसे हम धरती की गंध, धरती के स्पर्श को पा सकते हैं? बताइए... बताइए!
आया: [नेपथ्य में] हेम बीबी, हेम बीबी! जल्दी आओ देरी हो रही है।
लोचन: आपके प्रश्न का उत्तर मेरे पास है, लेकिन आप तो जा रही हैं।
हेमलता: जाना ही है। आप मेरे लिए पहेली ही बने रहेंगे।... वह तसबीर आपके लिए छोड़े जा रही हूँ। नमस्ते।
[जाती है]
लोचन: [कुछ देर बाद आप-ही-आप धीरे-धीरे] पहेली... [तसवीर उठाता है।] और ये बन्दी! [तसवीर की ओर एकटक देखता है] मैं जानता हूँ... [गहरी साँस]... मैं जानता हूँ कि कौन-सी जंजीरें हैं तो इन्हें बन्द किये हैं। [नेपथ्य में ताँगे के चलने की आवाज] जा रहे हैं वे लोग! और मैं बता भी न पाया!... कैसे बताऊँ?...कैसे बताऊँ कि यह कुदाली और ये मेहनत-कश हाथ, यही वे तिलिस्म है जिससे मैं धरती को भेद पाता हूँ। ये मेरी आजाद दुनिया के सन्देश-वाहक हैं, यही वह वाणी है जो मुझे गरीबी के लोक में अपनापन देती है...[रुक कर] तुम लोग जा रहे हो। बच कर भाग रहे हो...लेकिन मैं?... क्या मैं अकेला हूँ?... [विश्वासपूर्ण स्वर] अकेला ही सही, लेकिन बंदी तो नहीं। [इस बीच में चेतू आकर खड़ा-खड़ा लोचन की स्वगत-वार्ता को सुनने लगता है।]
चेतू: लोचन-भैया!
लोचन: कौन?
चेतू: लोचन भैया, आप तो अपने आप ही बातें करते हैं।
लोचन: चेतराम!... मैं भूल गया था।
चेतू: क्या भूल गये थे भैया?
लोचन: कि मैं अकेला नहीं हूँ।
चेतू: अकेले?
लोचन: हाँ, और यह भी भूल गया था कि हमारी दुनिया में बेकार बातें करने का समय नहीं है।
चेतू: काम तो बहुत है ही भैया। अब वह जमीन वापस मिली है तो...
लोचन: चलो, चेतराम तलहटी वाली जमीन पर खुदाई शुरू करें, आज ही।
चेतू: जी, बाँस के झुरमुट भी तो लगाएँगे।
लोचन: हाँ, और बाँध भी बाँधेंगे।
चेतू: अगली बरखा तक खेत तैयार करेंगे।
लोचन: [उल्लासपूर्ण वाणी] चलो हम रोज साँझ को अपने पसीने के दर्पण में कभी न मिटने वाली झाँकी देखेंगे। चलो चेतराम!
[कंधे पर कुदाली और बगल में चेतराम को लेकर प्रस्थान करता है। नेपथ्य में वाद्य-संगीत जो ओजस्विनी लय में परिवर्तित हो जाता है।]