Bandhul Mall (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

बन्धुल मल्ल (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

9. बन्धुल मल्ल
काल : ४६० ई०पू०

1.

वसन्त का यौवन था। वृक्षों के पत्ते झड़कर नये हो गये थे। शाल अपने श्वेत पुष्पों से वन को सुगन्धित कर रहा था। अभी सूर्य की किरणों के प्रखर होने में देर थी। गहन शालवन में सूखे पत्तों पर मानवों के चलने की पद-ध्वनि आ रही थी। एक बड़े वल्मीक (दीमक के टीले) के पास खड़े हुए दो तरुण-तरुणी उसे निहार रहे थे। तरुणी के अरुण गौर मुख पर दीर्घ कुंचित नील केश बेपरवाही के साथ बिखर कर उसके सौंदर्य की वृद्धि कर रहे थे। तरुण ने अपनी सबल भुजा को तरुणी के कन्धे पर रख कर कहा-

"मल्लिका ! इस वल्मीक को देखने में इतनी तन्मय क्यों है ?"

"देख, यह दो पोरिसाका है।"

"हाँ, साधारण वल्मीकों से बड़ा है, किन्तु इससे भी बड़े वल्मीक होते हैं। तुझे ख्याल आता होगा, क्या सचमुच वर्षा बरसने पर इससे आग और धुआँ निकलता ?"

"नहीं वह शायद झूठी दन्तकथा है; किन्तु यह चींटी जैसे छोटे-छोटे और उससे कहीं कोमल रक्तमुख श्वेत कीट जैसे इतने बड़े वल्मीक को बना लेते हैं !"

"मनुष्य के बनाये महलों को यदि उसके शरीर से नापा जाय तो वह इसी तरह कई गुना बड़े मालूम होंगे। यह एक दीमक का काम नहीं है, शत-सहस्र दीमकों ने मिलकर इसे बनाया है। मानव भी इसी तरह मिलकर अपने काम को करता है।"

"इसलिए मैं भी उत्सुकतापूर्वक इसे देख रही थी, इनमें आपस में कितना मेल है। यह अति क्षुद्र प्राणी समझे जाते हैं, और शत- सहस्र मिलकर एक साथ रह, इतने बड़े-बड़े प्रासादों को बनाते हैं। मुझे दुःख है, हमारे मल्ल इन दीमकों से कुछ शिक्षा नहीं लेते।"

"मानव भी मेल से रहने में किसी से कम नहीं है, बल्कि मानव, जो आज श्रेष्ठ प्राणी बना है, वह मेल ही के कारण। तभी वह इतने बड़े-बड़े नगरों, निगमों (कस्बों), गाँवों को बसाने में सफल हुआ है, तभी उसके जलपोत अपार सागर को पार कर द्वीप-द्वीपान्तरों की निधियों को जमा करते हैं, तभी उसके सामने हाथी, गैंडे, सिंह नतशिर होते हैं।"

“किन्तु उसकी ईर्ष्या ! यदि यह ईर्ष्या न होती, तो कितना अच्छा होता !"

"मुझे मल्लों की ईर्ष्या को ख्याल आता है !"

"हाँ, क्यों वह तुझसे ईर्ष्या करते हैं। मैंने तुझे कभी किसी की निन्दा-अपकार करते नहीं देखा-सुना, बल्कि तेरे मधुर व्यवहार से दास कर्मकर तक कितने प्रसन्न हैं, यह सभी जानते हैं। तो भी कितने ही सम्भ्रान्त मल्ल तुझसे इतनी डाह रखते हैं !"

"क्योंकि वह मुझे सर्वप्रिय होते देखते हैं, और गण (प्रजातन्त्र) में सर्वप्रिय से डाह करने वाले अधिक पाये जाते हैं, सर्वप्रियता ही से तो यहाँ पुरुष गण-प्रमुख होता है।"

"किन्तु उन्हें तेरे गुणों को देखकर प्रसन्न होना चाहिए था। मल्लों में किसी को तक्षशिला में इतना सम्मान मिला हो, आज तक नहीं सुना गया। क्या उन्हें मालूम नहीं कि आज भी राजा प्रसेनजित् कोसल के लेख (पत्र) पर लेख तुझे बुलाने के लिए आ रहे हैं।"

"हम तक्षशिला में दस साल तक एक साथ पढ़ते रहे। उसे मेरे गुण ज्ञात हैं।"

"कुसीनारा के मल्लों को वह अज्ञात हैं, यह मैं नहीं मानती। महालिच्छवि जब यहाँ आकर तेरे पास ठहरा हुआ था, उस वक्त उसके मुँह से तेरे गुणों का बखान बहुत से कुसीनारा वालों ने सुना था।"

“किन्तु मल्लिका ! मेरे साथ ईर्ष्या करने वाले मेरे गुणों को जानकर ही वैसा करते हैं। गुणों और सर्वप्रिय होना गणों में ईर्ष्या का भारी कारण है। मुझे अपने लिए ख्याल नहीं है, मुझे अफसोस इसी बात का है कि मैंने मल्लों की सेवा के लिए तक्षशिला में उतने श्रम से शस्त्र-विद्या सीखी। आज वैशाली के लिच्छवियों को कोसल और मगध अपने बराबर मानते हैं, किन्तु कोसलराज को अपने ऊपर मानती है। मैंने सोचा था, हम पावा, अनूपिया, कुसीनारा आदि सभी नौ मल्ल गणों को स्नेह-बन्धन में बाँधकर लिच्छवियों की भाँति अपना नौ मल्लों का एक सम्मिलित सुदृढ़ गढ़ बनायेंगे। नौ मल्लों के मिल जाने पर प्रसेनजित् हमारी तरफ आँख भी नहीं उठा सकता। बस यही एकमात्र अफसोस है।"

बन्धुल के गौर मुख की कान्ति को फीकी पड़ी देख मल्लिका को अफसोस होने लगा, और उसने ध्यान को दूसरी ओर खींचते हुए कहा-

"तेरे साथी शिकार के लिए तैयार खड़े होंगे ! और मैं भी चलना चाहती हूँ, घोड़े पर या पैदल ?"

"गवय (घोड़रोज, नीलगाय) का शिकार घोड़े की पीठ से नहीं होता, मल्लिका ! और क्या इस घुट्टी तक लटकते अन्तरवासक (लंगी) इस तीन हाथ तक लहराते उत्तरासंग (चादर) और इन अस्त-व्यस्त केशों को काली नागिनों की भाँति हवा में उड़ाते शिकार करने चलना है ?"

"ये तुझे बुरे लगते हैं ?”

"बुरे !” मल्लिका के लाल ओठों को चूमकर, "मल्लिका नाम से भी जिसका सम्बन्ध हो, वह मुझे बुरा नहीं लग सकता। किन्तु शिकार में जाने पर जंगल की झाड़ियों में दौड़ना पड़ता है।"

"इन्हें तो मैं तेरे सामने समेटे लेती हूँ।” कह मल्लिका ने अन्तरवासक को कसकर बाँध लिया, केशों को सँभालकर सिर के ऊपर जूड़ा करके कहा-“मेरे उत्तरासंग (ओढ़नी) की पगड़ी बाँध दे, बन्धुल !"

पगड़ी बाँध, बन्धुल कंचुकी के भीतर से उठे क्षुद्र-विल्व-स्पर्धी स्तनों का अर्धालिंगन करते हुए बोला-"और ये तेरे स्तन ?"

"स्तन सभी मल्ल-कुमारियों के होते हैं।"

"किन्तु, यह कितने सुन्दर हैं ?

"तो क्या कोई इन्हें छीन ले जायेगा ?"

"तरुणों की नजर लग जायेगी।"

"वह जानते हैं, यह बन्धुल के हैं।"

"नहीं, तुझे उज्र न हो तो मल्लिका ! भीतर से मैं इन्हें अपने अंगोछे से बाँध दूँ ।"

"कपड़ों के बाहर के दर्शन से तुझे तृप्ति नहीं हो रही है ?" मल्लिका ने मुस्करा कर बन्धुल के मुँह को चूमते हुए कहा।

बन्धुल ने कंचुकी को हटा शुभ्र स्फटिक-शिला सदृश वक्ष पर आसीन उन आरक्त गोल स्तनों को अंगोछे से बाँध दिया। मल्लिका ने फिर कंचुकी को पहनकर कहा-

"अब तो तेरा खतरा जाता रहा बन्धुल !"

"बन्धुल को अपनी चीज के लिए खतरा नहीं है प्रिये ! अब दौड़ने में यह ज्यादा हिलेंगे भी नहीं ।"

सभी तरुण मल्लमल्लियाँ शिकारी वेश में तैयार इस जोड़े की प्रतीक्षा कर रहे थे, और इनके आते ही धनुष, खड्ग और भाले को सँभाल चल पड़े। गवयों के मध्याह्न विश्राम का स्थान किसी को मालूम था। उसी के पथ-प्रदर्शन के अनुसार लोग चले। बड़े वृक्षों की अल्प-तृण छाया के नीचे गवयों का एक यूथ बैठा जुगाली कर रहा था, यूथपति एक नील गवय, खड़ा कानों को आगे-पीछे तानते चौकी दे रहा था। मल्ल दो भागों में बँट गये। एक भाग तो अस्त्र-शस्त्र सँभाल एक ओर वृक्षों की आड़ लेकर बैठ गया। दूसरा भाग पीछे से घेरने के लिए दो टुकड़ियों में बँटकर चला। हवा उधर से आ रही थी, जिधर वह दोनों टुकड़ियाँ मिलने जा रही थीं। नील गवय अब भी अपनी हरिन जैसी छोटी दुम को हिला रहा था । दोनों टुकड़ियों के मिलने से पहले ही बाकी गवय भी खड़े हो नथुनों को फुलाते, कानों को आगे टेढ़ा करते उसी एक दिशा की ओर अस्थिर शरीर से देखने लगे। क्षण भर के भीतर ही जान पड़ा, उन्हें खतरा मालूम हो गया, और नील गवय के पीछे वह हवा बहने की दिशा की ओर दौड़ पड़े। अभी उन्होंने खतरे को आँखों से देखा न था, इसलिए बीच-बीच में खड़े हो पीछे की ओर देखते थे। छिपे हुए शिकारियों के पास आकर एक बार फिर वह मुड़कर देखने लगे। इसी वक्त कई धनुषों के ज्या की टंकार हुई । नील गवय के कलेजे को ताककर बन्धुल ने अपना निशाना लगाया। उसी को मल्लिका और दूसरे कितनों ने भी लक्ष्य बनाया, किन्तु यदि बन्धुल का तीर चूक गया होता, तो वह हाथ न आता, यह निश्चित था। नील गवय उसी जगह गिर गया। यूथ के दूसरे पशु तितर-बितर हो भाग निकले। बन्धुल ने पहुँच कर देखा, गवय दम तोड़ रहा है। दो गवयों के खून की बूंदों का अनुसरण करते हुए शिकारियों ने एक कोस पर जो एक को धरती पर गिरा पाया। इस सफलता के साथ आज के वनभोज में बहुत आनन्द रहा ।

कुछ लोग लकड़ियों की बड़ी निर्धूम आग तैयार करने लगे। मल्लों ने पतीले तैयार किये। कुछ पुरुषों ने गवय के चमड़े को उतार मॉस-खंडों को काटना शुरू किया। सबसे पहले आग में भुनी कलेजी तथा सुरा-चषक लोगों के सामने आये। माँस-खंड काटने में बन्धुल के दोनों हाथ लगे हुए थे, इसलिए मल्लिका ने अपने हाथ से मुँह में भुना टुकड़ा और सुरा-चषक दिया।

माँस पककर तैयार नहीं हो पाया था, जबकि संध्या हो गई। लकड़ी के दहकते अग्नि-स्कन्धों की लाल रोशनी काफी थी, उसी में मल्लों का गान-नृत्य शुरू हुआ । मल्लिका-कुसीनारा की सुन्दरतम तरुणी-ने शिकारी वेश में अपने नृत्य-कौशल को दिखलाने में कमाल किया। बन्धुल के साथी इस अखिल जम्बूदीप के मूल्य के नारी-रत्न का अधिकारी होने लिए, उसके भाग्य की सराहना कर रहे थे।

2.

कुसीनारा के संस्थागार (प्रजातन्त्र-भवन) में आज बड़ी भीड़ थी। गण-संस्था (पार्लामेंट) के सारे सदस्य शाला के भीतर बैठे हुए थे। कितने ही दर्शक और दर्शिकाएँ शाला के बाहर मैदान में खड़े थे। शाला के एक सिरे पर विशेष स्थान पर गणपति बैठे थे। उन्होंने सदस्यों की ओर गौर से देख, खड़े होकर कहा-

"भन्ते (पूज्य) गण ! सुनै, आज जिस काम के लिए हमारा यह सन्निपात (बैठक) हुआ है, उसे गण को बतलाता हूँ। आयुष्मान् बन्धुल तक्षशिला से युद्ध-शिक्षा प्राप्त कर मल्लों के गौरव को बढ़ाते हुए लौटा है। उसके शस्त्र-नैपुण्य को कुसीनारा से बाहर के लोग भी जानते हैं। उसे यहाँ आये चार साल हो गये। मैंने गण के छोटे-मोटे कामों को अपनी सम्मति से उसे दिया, और हर काम को उसने बहुत तत्परता और सफलता के साथ पूरा किया। अब गण को उसे एक स्थायी पद-उपसेनापति का पद देना है, यह ज्ञप्ति (प्रस्ताव-सूचना) है।”

"भन्ते गण ! सुनै । गण आयुष्मान् बन्धुल को उपसेनापति का पद दे रहा है, जिस आयुष्मान् को यह स्वीकार हो, वह चुप रहे, जिसे स्वीकार न हो, वह बोले ।”

"दूसरी बार भी, भन्ते गण ! सुनै। गण आयुष्मान् बंधुल को उपसेनापति का पद दे रहा है। जिस आयुष्मान् को यह स्वीकार हो, वह चुप रहे, जिसे स्वीकार न हो, वह बोले ।"

"तीसरी बार भी, भन्ते गण । सुनै। गण अन्युष्मान् बन्धुल को उपसेनापति का पद दे रहा है। जिस आयुष्मान् को यह स्वीकार हो, वह चुप रहे, जिसे स्वीकार न हो, वह बोले ।”

इसी वक्त एक सदस्य-रोज मल्ल-उत्तरासंग (चादर) को हटा दाहिना कन्धा नंगा रख कान्हासोती कर खड़ा हो गया। गणपति ने कहा-

"आयुष्मान् कुछ बोलना चाहता है, अच्छा बोल ।"

रोज मल्ल ने कहा-"भन्तेगण ! सुनै । मैं (आयुष्मान्) बन्धुल की योग्यता के बारे में सन्देह नहीं रखता। मैं उसके उपसेनापति बनाये जाने का खास करके विरोध करना चाहता हूँ। हमारे गण का नियम रहा है कि किसी को उच्च पद देते वक्त उसकी परीक्षा ली जाती रही है। मैं समझता हूँ, आयुष्मान् बन्धुल पर भी वह नियम लागू होना चाहिए ।"

रोज-मल्ल के बैठ जाने पर दो-तीन दूसरे सदस्यों ने भी यही बात कही। कुछ सदस्यों ने परीक्षा की आवश्यकता नहीं है, इस बात पर जोर दिया। अन्त में गणपति ने कहा-

"भन्ते गण ! सुनै । गण का आयुष्मान् बन्धुल के उपसेनापति बनाये जाने में थोड़ा-सा मतभेद है, इसलिए छन्द (वोट) लेने की जरूरत है। शलाका-ग्रहापक (शलाका बाँटने वाले) छन्द शलाकाओं (वोट की काष्ठमय तीलियों) को लेकर आपके पास जा रहे हैं। उनके एक हाथ की तीलियाँ लाल शलाकाएँ हैं, दूसरी में काली। लाल शलाका ‘हाँ’ के लिए है, काली 'नहीं' के लिए। जो आयुष्मान् रोज के मत के साथ हों, मूल ज्ञप्ति (प्रस्ताव) को स्वीकार नहीं करते, वह काली शलाका लें, जो मूल ज्ञप्ति को स्वीकार करते हैं। वह लाल को।"

शलाका-ग्रहापक छन्द शलाकाओं को ले-लेकर एक-एक सदस्य के पास गये। सबने अपनी इच्छानुसार एक-एक शलाका ली। लौट आने पर गणपति ने बाकी बची शलाकाओं को गिना। लाल शलाकाएँ ज्यादा थीं, काली कम; जिसका अर्थ हुआ काली शलाकाओं को लोगों ने ज्यादा लिया।

गणपति ने घोषित किया-

"भन्ते गण ! सुनै। काली छन्द-शलाकाएँ ज्यादा उठाई गई, इसलिए मैं धारण करता हूँ कि गण आयुष्मान् रोज मल्ल से सहमत हैं। अब गण निश्चय करें, कि आयुष्मान् बन्धुल से किस तरह की परीक्षा ली जाये।"

कितने ही समय के वाद-विवाद तथा छन्द-शलाको उठवाने के बाद निश्चित हुआ कि बन्धुल मल्ल लकड़ी के सात बँटों को एक साँस में तलवार से काट डाले। इसके लिए सातवाँ दिन निश्चित कर सभा उठ गई।

सातवें दिन कुसीनारा के मैदान में स्त्री-पुरुषों की भारी भीड़ जमा हुई । मल्लिका भी वहाँ मौजूद थी। जरा-जरा दूर पर कठोर काष्ठ के सात खूँटे गड़े हुए थे। गणपति के आज्ञा देने पर बन्धुल ने तलवार सँभाली। सारी जनमंडली साँस रोककर देखने लगी। बन्धुल मल्ल की दृढ़ भुजाओं में उसे लम्बे सीधे खड्ग को देखकर लोग बन्धुल की सफलता के लिए निश्चित थे। बन्धुल की बिजली-सी चमकती तलवार को लोगों ने उठते-गिरते देखा-पहला बँटा कटा, दूसरा, तीसरा, छठे के कटते वक्त बन्धुल के कानों में झन्न की आवाज आई, उसके ललाट पर बल आ गया, और उत्साह ठंडा हो गया । बन्धुल की तलवार सातवें बँटे के अन्तिम छोर पर पहुँचने से जरा पहले रुक गई। बन्धुल जल्दी से एक बार सभी बँटों के सिर को देख गया। उसका शरीर काँप रहा था, मुँह गुस्से में लाल था, किन्तु वह बिल्कुल चुप रहा।

गणपति ने घोषित किया कि सातवें बँटे का सिरा अलग नहीं हो पाया। लोगों की सहानुभूति बन्धुले मल्ल की ओर थी। घर आ मल्लिका ने बन्धुल के लाल और गम्भीर चेहरे को देखकर अपनी उदासी को भूल उसे सान्त्वना देना चाहा। बन्धुल ने कहा-

"मल्लिका! मेरे साथ भारी धोखा किया गया। मुझे इसकी आशा न थी।”

"क्या हुआ प्रिय !"

“एक-एक बँटे में लोहे की कीलें गाड़ी हुई थीं। पाँचवें बँटे तक मुझे कुछ पता न था, छठवें के काटने पर मुझे झन्न-सी आवाज सुनाई दी। मैं धोखा समझ गया। यदि इस आवाज को न सुना होता, तो सातवें बँटे को भी साफ काट जाता, किन्तु फिर मेरा मन क्षुब्ध हो गया।"

"ऐसा धोखा ? यह तो उनकी भारी नीचता है, जिसने ऐसा किया।”

“किसने किया, इसे हम नहीं जान सकते, रोज पर मुझे बिल्कुल गुस्सा नहीं है। आखिर वह उचित कह रहा था और सम्मति से गण के बहुसंख्यक सदस्य सहमत थे। किन्तु, मुझे क्षोभ और गुस्सा इस पर है कि कुसीनारा में मुझसे स्नेह रखने वालों का इतना अभाव है ?"

"तो बन्धुल मल्ल कुसीनारा से नाराज हो रहा है ?

"कुसीनारा मेरी माँ है; जिसने पाल-पोसकर मुझे बड़ा किया, किन्तु अब मैं कुसीनारा में नहीं रहूँगा।”

"कुसीनारा को छोड़ जाना चाहता है?"

"क्योंकि कुसीनारा को बन्धुल मल्ल की जरूरत नहीं है।"

"तो कहाँ चलेगा ?"

"मल्लिका, तू मेरा साथ देगी !”–विकसित बदन हो बन्धुल ने कहा।

"छाया की भाँति मेरे बन्धुल !”-मल्लिका ने बन्धुल की लाल आँखों को चूम लिया और तुरन्त उसकी रुक्षता जाती रही।

"मल्लिका ! अपने हाथों को दे। फिर मल्लिका के हाथों को अपने हाथों में लेकर बन्धुल ने कहा-"यह तेरे हाथ मेरे लिए शक्ति के स्रोत हैं, इन्हें पाकर बन्धुल कहीं भी निर्भय विचर सकता है !"

"तो प्रिय ! कहाँ चलने को तय कर रहा है और कब ?"

"बिना जरा भी देर किये, क्योकि ख़ुटों की कीलों का पता गणपति को लगने ही वाला है। उसके बाद वह फिर से परीक्षा-दिन निश्चित करेंगे, हम लोगों को आग्रह से पहले चल देना चाहिए।"

"अन्याय का परिमार्जन क्यों नहीं होने देता ?"

"कुसीनारा ने मेरे बारे में अपनी सम्मति दे दी है, मल्लिके ! मेरा यहाँ काम नहीं है, कम-से-कम इस वक्त । कुसीनारा को जब बन्धुल की जरूरत होगी, उस वक्त वह यहाँ आ मौजूद होगा।"

उसी रात को ले चलने लायक चीजों को ले मल्लिका और वन्धुल ने कुसीनारा को छोड़ दिया, और दूसरे दिन अचिरवती (राप्ती के तट पर) अवस्थित ब्राह्मणों के ग्राम मल्लग्राम (मलाँव, गोरखपुर) में पहुँच गये। मल्लों के जनपद में मल्लग्राम के सांकृत्य अपनी युद्ध-वीरता के लिए ख्याति रखते थे। वहाँ बन्धुल के मित्र भी थे, किन्तु बन्धुल मित्रों की मुलाकात के लिए नहीं गया था—वह गया था वहाँ से नाव द्वारा श्रावस्ती (सहेट-महेट) जाने के लिए। मल्लग्राम में श्रेष्ठी सुदत्त के आदमी रहते थे, और उनके द्वारा नावों को पाना आसान था। सांकृत्य ब्राह्मणों ने अपने कुलाचार के अनुसार अपने द्वार पर एक मोटा सुअर को बच्चा काटा और अपने हाथ से पकाकर बन्धुल मल्ल तथा मल्लिका को उसी सूकर मार्दव से सन्तृप्त किया।

3.

श्रावस्ती राजधानी में कोसल राज प्रसेनजित् ने अपने सहपाठी मित्र बन्धुल मल्ल का बड़े जोरों से स्वागत किया। तक्षशिला में ही प्रसेनजित् ने इच्छा प्रकट की थी कि मेरे राजा होने पर तुझे मेरा सेनापति बनना होगा। राजा हो जाने पर भी कई बार वह इसके बारे में लिख चुका था, किन्तु कोसल-काशी जैसे अपने समय के सबसे समृद्ध और विशाल राज्य का सेनापति होने की जगह, बन्धुल अपनी कुसीनारा के एक मामूली गण का उपसेनापति रहना ज्यादा पसन्द करता था। किन्तु अब कुसीनारा ने उसे ठुकरा दिया था, इसलिए प्रसेनजित् के प्रस्ताव करने पर उसने शर्त रखी-

"मैं स्वीकार करूंगा, मित्र ! तेरी बात को, किन्तु, उसके साथ कुछ शर्त है।”

"खुशी से कह, मित्र बन्धुल !"

"मैं मल्ल-पुत्र हूँ।"

"हाँ, मैं जानता हूँ और मल्लों के विरुद्ध जाने की मैं तुझे कभी आज्ञा नहीं दूँगा।”

"बस इतना ही।"

"मित्र ! मल्लों के साथ जो सम्बन्ध हमारा है, बस मैं उतना ही कायम रखना चाहता हूँ। तू जानता है कि मुझे राज्य-विस्तार की इच्छा नहीं है। यदि किसी कारण से मुझे मल्लों का विरोध करना पड़ा, तो मुझे स्वतन्त्रता होगी चाहे जो पक्ष लें। और कुछ मैं अपने प्रिय मित्र के लिए कर सकता हूँ ?"

"नहीं, महाराज ! बस इतना ही।"

4.

बन्धुल मल्ल कोसल-सेनापति था। प्रसेनजित् जैसे नरम, उत्साहहीन राजा के लिए एक ऐसे योग्य सेनापति की बड़ी जरूरत थी। वस्तुतः यदि उसे बन्धुल मल्ल न मिला होता, तो शायद मगधों और वत्सों ने उसके राज्य के कितने ही भाग दाब लिये होते। श्रावस्ती पहुँचने के कुछ समय बाद मल्लिका को गर्भ-लक्षण दिखलाई देने लगा। बन्धुल मल्ल ने एक दिन पूछा-

"प्रिये ! किसी चीज का दोहद हो तो कहना।"

"हाँ, दोहद है प्रियतम ! किन्तु बड़ा दुष्कर ।”

"बन्धुल मल्ल के लिए दुष्कर नहीं हो सकता, मल्लिके ! बोल क्या दोहद है ?"

"अभिषेक-पुष्करिणी में नहाना।”

"मल्लों की ?"

"नहीं, वैशाली में लिच्छवियों की ।"

"तूने ठीक कहा, मल्लिके ! तेरा दोहद दुष्कर है। किन्तु बन्धुल मल्ल उसे पूरा करेगा। कल सवेरे तैयार हो जा, रथ पर हम दोनों चलेंगे।"

दूसरे दिन पाथेय ले अपने खड्ग, धनुष आदि के साथ दोनों रथ पर सवार हुए।

दूर की मंजिल को अनेक सप्ताह में पार कर एक दिन बन्धुल का रथ वैशाली में इसी द्वार से प्रविष्ट हुआ, जिस पर उसका सहपाठी—कुछ लिच्छवियों की ईर्ष्या से अन्धा हुआ-महालि अध्यक्ष था। एक बार बन्धुल की इच्छा हुई महालि से मिल लेने की, किन्तु दोहद की पूर्ति में विघ्न देख उसने अपने इरादे को छोड़ दिया।

अभिषेक-पुष्करिणी के घाटों पर पहरा था। वहाँ जीवन में सिर्फ एक बार किसी लिच्छवि-पुत्र को नहाने (अभिषेक पाने) का सौभाग्य होता था, जबकि वह लिच्छवि गण के 999 सदस्यों के किसी रिक्त स्थान पर चुना जाता । रक्षी पुरुषों ने बाधा डाली, तो बन्धुल ने कोड़े से मारकर उन्हें भगा दिया, और मल्लिका को स्नान करा रथ पर चढ़ तुरन्त वैशाली से निकल पड़ा। रक्षी पुरुषों से खबर पा पाँच सौ लिच्छवि रथी बन्धुल के पीछे दौड़े।

महालि ने सुना तो उसने मना किया, किन्तु गर्वीले लिच्छवि कहाँ मानने वाले थे। दूर से रथों के चक्करों की आवाज सुन पीछे देख मल्लिका ने कहा-

“प्रिय ! बहुत से रथ आ रहे हैं।"

"तो प्रिये ! जिस वक्त सारे रथ एक रेखा में हों, उस वक्त कहना।"

मल्लिका ने वैसे समय सूचित किया। पुराने ऐतिहासिकों का कहना है कि बन्धुल ने खींचकर एक तीर मारा, और वह पाँच सौ लिच्छवियों के कमरबन्द के भीतर से होता निकल गया। लिच्छवियों ने नजदीक पहुँच कर लड़ने के लिए ललकारा। बन्धुल ने सहज भाव से कहा-

"मैं तुम्हारे जैसे भरों से नहीं लड़ता।"

“देख भी तो हम कैसे मरे हैं।"

"मैं दूसरा बाण खर्च नहीं करता। घर लौट जाओ, प्रियों-बन्धुओं से पहले भेंट कर लेना, फिर कमरबन्द को खोलना"-कह बन्धुल ने मल्लिका के हाथ से रास ले ली और रथ को तेजी से हाँककर आँख से ओझल हो गया।

कमरबन्द खोलने पर सचमुच ही पाँचों सौ लिच्छवि मरे पाये गये।

5.

श्रावस्ती (आजकल को उजाड़ सहेट-महेट) उस वक्त जम्बूद्वीप का सबसे बड़ा नगर था। प्रसेनजित् के राज्य में श्रावस्ती के अतिरिक्त साकेत (अयोध्या) और वाराणसी (बनारस) दो और महानगर थे। श्रावस्ती के सुदत्त (अनाथपिंडक) और मृगार, साकेत के अर्जुन जैसे कितने ही करोड़-पति सेठ काशी-कोसल के सम्मिलित राज्य में बसते थे, जिनके सार्थ (कारवाँ) जम्बूद्वीप ही में नहीं, बल्कि ताम्रलिप्त से होकर पूर्व-समुद्र (बंगाल की खाड़ी) और भरुकच्छ (भड़ौंच) तथा सुप्पारक (सोपारा) से होकर पश्चिम समुद्र (अरब सागर) द्वारा दूर-दूर के द्वीपों तक जाते थे। ब्राह्मण- सोभन्तो (महाशालों) तथा क्षत्रिय-सामन्तों के बराबर तो उनका स्थान नहीं था, तो भी यह लोग समाज में बहुत ऊँचा स्थान रखते थे, और धन में तो उनके सामने सामन्त तुच्छ थे। सुदत्त ने जेत राजकुमार के उद्यान जेतवन की कार्षापणों (सिक्कों) को बिछाकर खरीदा, और गौतम बुद्ध के लिए वहाँ जेतवन-विहार बनवाया था। मृगार के लड़के पुण्ड्रवर्धन के ब्याह में राजा प्रसेनजित् स्वयं सदल-बल साकेत गया था, और कन्या-पिता अर्जुन श्रेष्ठी का मेहमान रहा। अर्जुन की पुत्री तथा मृगार की पुत्रवधू विशाखा ने अपने हार के दाम से हजार कोठरियों का एक सात तल्ला विशाल विहार (मठ) बनवाया, जिसका नाम पूर्वाराम मृगार माता प्रसाद पड़ा। देश-देशान्तर का धन इन श्रेष्ठिओं के पास दुहकर चला आता था, फिर उनकी अपार सम्पत्ति के बारे में क्या कहना है ?

जैवाल, उद्दालक, याज्ञवल्क्य ने यज्ञवाद को गौण-द्वितीय-स्थान देते हुए वास्तविक निस्तार के लिए ब्रह्मवाद की दृढ़ नौका का निर्माण किया। जनक जैसे राजाओं ने बड़े-बड़े पुरस्कार रख ब्रह्म-सम्बन्धी शास्त्रार्थ की परिषदें बुलानी शुरू की; जिनसे वेद से बाहर भी कल्पना करने का रास्ता खुला। अब यह वह समय था, जब कि देशों में स्वतन्त्र चिन्तन की एक बाढ़-सी आ गई थी, और विचारक (तीर्थंकर) अपने-अपने विचारों को लोगों के सामने साधारण सभाओं में रखते थे-कहीं उसका रूप साधारण उपदेश अपवाद, सूक्य के रूप में होता था, कहीं कोई वाद के आह्वान (चैलेंज) को घोषणा के तौर पर जम्बू (जामुन) की शाखा गाड़ते धूमता फिरता। प्रवाहण ने छप्पन पीढ़ियों को भटकाने के लिए ब्रह्म-साक्षात्कार के बहुत उपाय बतलाते थे, जिनमें प्रव्रज्या (संन्यास), ध्यान, तप आदि शामिल थे। अब उपनिषद् की शिक्षा से बाहर वाले आचार्य भी अपने स्वतंत्र विचारों के साथ प्रव्रज्या और ब्रह्मचर्य पर जोर देते थे।

अजित केस कम्बल बिल्कुल जड़वादी था, सिवाय भौतिक पदार्थों के वह किसी आत्मा, ईश्वर-भक्ति, नित्य तत्त्व या स्वर्ग- नर्क पुनर्जन्म को नहीं मानता था, तो भी वह स्वयं गृह-त्यागी ब्रह्मचारी था। जिन सामन्तों का उस वक्त शासन था, उनकी सहानुभूति का पात्र बनने ही नहीं, बल्कि उनके कोप से बचने के लिए भी यह जरूरी था, कि अपने जड़वाद को धर्म का रूप दिया जाए। लौहित्य ब्राह्मण-सामन्त तथा पायासी जैसे राजन्य-सामन्त जड़वादी थे, और अपने विचारों के लिए लोगों में इतने प्रसिद्ध थे, कि जड़वाद को छोड़ने में भी वह लोक-लज्जा समझते थे, तो भी इसका जड़वाद समाज के लिए खतरनाक नहीं था।

जड़वाद का प्रचार देखा जाता था, लेकिन ब्राह्मण-क्षत्रिय सामन्तों तथा धन कुबेर व्यापारियों की सबसे अधिक आस्था गौतम बुद्ध के अनात्मवाद की ओर था-कोसल में विशेषकर । इसमें एक कारण यह भी था, कि गौतम स्वयं कोसल के अन्तर्गत शाक्यगण के निवासी थे। गौतम जड़वादियों की भाँति कहते थे-आत्मा, ईश्वर आदि कोई नित्यवस्तु विश्व में नहीं है, सभी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं और शीघ्र ही विलीन हो जाती हैं। संसार वस्तुओं का समूह नहीं, बल्कि घटनाओं का प्रवाह है। समझदार आदमियों के लिए यह विचार ही युक्तिसंगत, हृदयंगम जान पड़ते थे। किन्तु, ऐसे अनित्यवाद से लोक-मर्यादा, गरीब-अमीर, दास-स्वामी के भेद को ठोकर लग सकती थी, इसीलिए तो अजित का जड़वाद सामन्त और व्यापारी वर्ग में सर्वप्रिय नहीं हो सका। गौतमबुद्ध ने अपने अनात्मवाद-जड़वाद-में कुछ और बातों को मिलाकर उसी कड़वाहट को दूर किया था। उनका कहना था-किसी नित्य आत्मा के न होने पर भी चेतना-प्रवाह स्वर्ग या नर्क आदि लोगों के भीतर एक शरीर से दूसरे शरीर-एक शरीर-प्रवाह से दूसरे शरीर प्रवाह में बदलता रहता है। इस विचार में प्रवाहण राजा के आविष्कृत हथियार-पुर्नजन्म की पूरी गुंजाइश हो जाती थी। यदि गौतम कोरे जड़वाद का प्रचार करते, तो निश्चय ही श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी, राजगृह, भद्रिका के श्रेष्ठिराज ने अपनी थैलियाँ खोलते और न ब्राह्मण-क्षत्रिय-सामन्त तथा राज उनके चरणों में सिर नवाने के लिए होड़ लगाते ।

श्रावस्ती के ऊँचे वर्ग की स्त्रियों की गौतम बुद्ध के मत में बड़ी आस्था थी। प्रसेनजित् की पटरानी मल्लिका देवी बुद्ध धर्म में बहुत अनुरक्त थी, उसके नगर के सेठ की पुत्रवधू तथा उसकी सखी विशाखा ने अपने श्रद्धा के रूप में पूर्वाराम-जैसा एक महाविहार ही बनाकर बुद्ध को दान दे दिया था। बन्धुल मल्ल सेनापति की पत्नी मल्लिका,मल्लिका पटरानी की बड़ी प्रिय सखी थी, उसी से प्रेरित हो वह भी बुद्ध के उपदेशों में जाने लगी, तथा कुछ समय बाद बुद्धोपासिका हो के रही।

मल्लिका का घर अब बहुत समृद्ध था। कोशल जैसे महान् राज्य के सेनापति का घर समृद्ध होना ही चाहिए। मल्लिका के दस वीर पुत्र हुए, जो राज-सेना के ऊँचे पदों पर थे। बन्धुल मल्ल ने एक युग तक राजा के ऊपर अपना प्रभाव रखा। इसी बीच उसके बहुत से शत्रु हो गये। दूसरे जनपद के आदमी को इतने ऊँचे पद पर देखना वह नहीं पसन्द करते थे। ईर्ष्यालुओं ने राजा के पास चुगली करनी शुरू की। राजा कुछ मंदबुद्धि था भी, "बन्धुल मल्ल तो महाराज को निर्बुद्धि कहता है" कहकर उसे भड़काया गया। अन्त में यहाँ तक बतलाया गया कि सेनापति राज्य को छीनना चाहता है। प्रसेनजित् को बात ठीक जँच गई। वह उसके और अपने शत्रुओं के हाथ में खेलने लगा। बन्धुल मल्ल को चिन्तित देख एक दिन मल्लिका ने कहा--

"प्रिय ! तू क्यों इतना चिन्तित है?"

"क्योंकि राजा मुझ पर संदेह करने लगा है।"

"तो क्यों न सेनापति का स्थान छोड़ कुसीनारा चले चलें । वहाँ अपनी जीविका के लिए हमारे पास काफी कर्मान्त (कामत, खेती) है।"

"इसका अर्थ है राजा को उसके शत्रुओं के हाथ में छोड़ देना। देखती नहीं मल्लिका! मगधराज अजातशत्रु कई बार काशी पर आक्रमण कर चुका है। एक बार हमने उसे बन्दी बना लिया, महाराज ने उदारता दिखलाते हुए राजपुत्री व से ब्याह कर उसे छोड़ दिया। किन्तु अजातशत्रु सारे जम्बूदीप का चक्रवर्ती बनना चाहता है मल्लिका ! वह इस ब्याह से चुप होने वाला नहीं है। उसके गुप्तचर राजधानी में भरे हुए हैं। हमारे दूसरे पड़ोसी अवन्तिराज के दामाद वत्सराज उदयन की नीयत भी ठीक नहीं है, वह भी सीमान्त पर तैयारी कर रहा है। ऐसी अवस्था में श्रावस्ती को छोड़ भागना भारी कायरता होगी, मल्लिका !"

"और मित्र-द्रोह भी।”

"मुझे अपनी चिन्ता नहीं है, मल्लिका ! युद्धों में कितनी बार मैं मृत्यु के मुख में जाकर बाहर निकला हूँ, इसलिए किसी वक्त मृत्यु यदि अपने जबड़े के भीतर मुझे बन्द कर ले, तो कोई बड़ी बात नहीं ।”

माली की लड़की मल्लिका-जो कि एक साधारण कमकर की लड़की है, अपने गुणों से प्रसेनजित् की पटरानी बनी-अब नहीं थी, नहीं तो हो सकता था कि राजा के कानों को लोग इतना खराब न कर पाते। एक दिन राजा ने सीमान्त के विद्रोह की बात कहकर एक जगह बन्धुल मल्ल के पुत्रों को भेज दिया। जब वह सफल हो लौट रहे थे तो धोखे से उन्हीं के खिलाफ बन्धुल मल्ल को भेजा, इस प्रकार बाप और उसके दसों लड़के एक ही जगह काम आये। जिस वक्त इस घटना की चिट्ठी मल्लिका के पास आई, उस वक्त वह बुद्ध और उनके भिक्षु संघ को भोजन कराने जा रही थी, उसकी दसों तरुणी बहुओं ने बड़े प्रेम से कई तरह के भोजन तैयार किये थे। मल्लिका ने चिट्ठी पढ़ी, उसके कलेजे में आग लग गई, किन्तु उसने उस वक्त अपने ऊपर इतना काबू किया कि आँखों में आँसू क्या मुंह को म्लान तक नहीं होने दिया। चिट्ठी को आँचर के कोने में बाँध उसने सारे संघ को भोजन कराया। भोजनोपरान्त बुद्ध के उपदेश को श्रद्धा से सुना, तब अन्त में चिट्ठी को पढ़ सुनाया। बन्धुल परिवार पर बिजली गिर गई। मल्लिका में काफी धैर्य था, किन्तु उन तरुण विधवाओं को धैर्य दिलाना बुद्ध के लिए भी मुश्किल था ।

समय बीतने पर प्रसेनजित् को सच्ची बातें मालूम हुई। उसे बहुत शोक हुआ, किन्तु अब क्या हो सकता था। प्रसेनजित् ने अपने मन की सान्त्वना के लिए बन्धुल के भागिनेय दीर्घकारायण को अपना सेनापति बनाया।

6.

जाड़ों का दिन था। कपिलवस्तु के आसपास के खेतों में हरे-भरे गेहूँ, जौ तथा फूली हुई पीली सरसों लगी थी; आज नगर को खूब अलंकृत किया गया था; जगह-जगह तोरण-बन्दनवार लगे थे। संस्थागार (प्रजातंत्र-भवन) को खास तौर से सजाया गया था। तीन दिन की भारी मेहनत के बाद आज जरा-सा अवकाश पा कुछ दास किसी घर के एक कोने में बैठे हुए थे। काक ने कहा-

"हम दासों का भी कोई जीवन है ! आदमी की जगह यदि बैठे पैदा हुए होते, तो अच्छा था; उस वक्त हमें मनुष्य जैसा ज्ञात तो न होता।"

"ठीक कहते हो काक ! कल मेरे मालिक दंडपाणि ने लाल लोहा करके मेरी स्त्री को दाग दिया ।”

"क्यों दादा ?"

“क्यों, इनसे कौन पूछे। यह तो दासों के पति-पत्नी के संबंध को भी नहीं मानते। जिस पर यह दंडपाणि अपने को निगंठ-श्रावक (जैन) कहता है-जो निगंठ की भूमि के कीड़े को हटाने के लिए अपने पास मोर पंखी रखते हैं। कसूर यही था कि मेरी स्त्री कई दिन से सख्त बीमार हमारी बच्ची की बेहोशी की बात मुझसे कहने आई थी। बेचारी बच्ची आखिर बची भी नहीं। अच्छा हुआ मर गई। संसार में उसे भी तो हमारे ही जैसा जीवन जीना पड़ता। सचमुच काक ! हम दासों का कोई जीवन नहीं है। इतना ही नहीं, हमारा कसाई स्वामी कह रहा है कि इस चहल-पहल के बीतते ही वह मेरी स्त्री को बेच देगा।"

"तो उस कसाई दंडपाणि को लोहे से दागने से भी संतोष नहीं आया ?"

"नहीं भाई ! वह कहता है कि बारह वर्ष बाद उस बच्ची के उसे पचास निष्क (अशर्फियाँ) मिलते । मानो, हमने जान-बूझकर उसके पचास निष्क बर्बाद कर दिये।”

"और मानो, हम दासों के पास माँ-बाप का हृदय ही नहीं है।"

"एक तीसरे वृद्ध दास ने बीच में कहा-"और एक यह भी दासी ही का लड़का है, जिसके स्वागत के लिए यह सारी तैयारी की जा रही है।"

"कौन दादा ?"

"यही कौसल-राजकुमार विदूडभ।"

"दासी का पुत्र !"

"हाँ, महानाम शाक्य की उस बुढ़िया दासी को नहीं जानता, हमारे जैसी काली नहीं—किसी शाक्य के वीर्य से होगी।"

"और दासियों में उसकी क्या कमी है दादा ?"

"हाँ तो उसी दासी से महानाम की एक लड़की पैदा हुई थी। बड़ी गौर, बड़ी सुन्दर, देखने में शाक्यानी मालूम होती थी।"

“क्यों न मालूम होगी ? और सुन्दर लड़कियों को चाहे वह दासी की हों, मालिक बड़े चाव से पालते-पोसते हैं।"

“कोसलराज प्रसेनजित् किसी शाक्य-कुमारी से ब्याह करना चाहता था, किन्तु कोई शाक्य अपनी कन्या को देना नहीं चाहता था- शाक्य अपने को तीनों लोक में सबसे कुलीन मानते हैं, काक! किन्तु साफ इन्कार करने से कोसलराज शाक्यों के गण पर कोप करता। इसीलिए महानाम ने अपनी इसी दासी की लड़की को शाक्य-कुमारी कहकर प्रसेनजित् को दे दिया। इसी लड़की वार्ष भक्षत्रिया का लड़का है यह विदूडभ राजकुमार !"

"लेकिन अब तो वह भी हमारे खून का वैसा ही प्यासा होगा, जैसे शाक्य।"

बाजे बजने लगे, शाक्यों ने कोसल राजकुमार की अगवानी कर संस्थागार में बड़े धूम-धाम से उसका स्वागत किया, यद्यपि भीतर से दासी-पुत्र समझ सभी उसके ऊपर घृणा कर रहे थे। विदूडभ अपने "मातुल कुल" का स्वागत ले, नाना महानाम का आशीर्वाद पा खुशी-खुशी कपिलवस्तु से विदा हुआ। दासी-पुत्र के पैर से संस्थागार अपवित्र हो गया था, इसलिए उसकी शुद्धि होनी जरूरी थी। और कितने ही दास-दासी आसनों को धूल से धोकर शुद्ध करने में लगे थे। एक मुँहचली दासी धोते वक्त दासी-पुत्र विदूडभ को दस हजार गाली देती जा रही थी। विदूडभ का एक सैनिक अपने भाले को संस्थागार में भूल गया था। लौटकर भाला लेते वक्त उसने दासी की गाली को ध्यान से सुना। धीरे-धीरे सारी बात का पता विदूडभ को लगा। उसने संकल्प किया कि कपिलवस्तु को निःशाक्य करूँगा और आगे चलकर उसने यह कर दिखलाया। उसके क्रोध का दूसरा लक्ष्य था प्रसेनजित्, जिसने उसे दासी में पैदा किया।

दीर्घकारायण अपने मामा और ममेरे भाइयों के खून को भूल नहीं सकता था। उधर बुढ़ापे में अपनी सारी भूलों का पश्चाताप करते प्रसेनजित् अधिक-से-अधिक विश्वास और मृदुता दिखलाना चाहता था। एक दिन मध्याह्न भोजन के बाद उसे बुद्ध का ख्याल आया। कुछ ही योजनों पर शाक्यों के किसी गाँव में ठहरे सुन, कारायण और कुछ सैनिकों को लेकर वह चल पड़ा। उसने बुद्ध के गृह में जाते वक्त मुकुट, खड्ग आदि राजचिह्नों को कारायण के हाथ में दे दिया। कारायण विदूडभ से मिला हुआ था, उसने एक रानी को छोड़, विदूडभ को राजा घोषित कर, श्रावस्ती का रास्ता लिया।

कितनी ही देर तक उपदेश सुन, प्रसेनजित् बाहर निकला, तो रानी ने बिलख-बिलख कर सारी बात बतलाई। वहाँ प्रसेनजित् अपने भांजे मगध-राज अजातशत्रु से मदद लेने के लिए राजगृह की ओर चला। बुढ़ापे में कई सप्ताह चलने से रास्ते ही में उसका शरीर जवाब दे चुका था। शाम को जब राजगृह पहुँचा, तो नगरद्वार बन्द हो चुका था। द्वार के बाहर उसी रात एक कुटिया में प्रसेनजित् मर गया। सवेरे रानी का विलाप सुन अजातशत्रु और वज्रा दौड़ आये, किन्तु उस मिट्टी को ठाट-बाट से जलाने के सिवाय वह क्या कर सकते थे।

बन्धुल के खून का यह बदला था, दासता के दुष्कर्म का यह परिणाम था।

*****

(आज से सौ पीढ़ी पहले की यह ऐतिहासिक कहानी है। उस वक्त तक सामाजिक विषमताएँ बहुत बढ़ चुकी थीं। धनी व्यापरी वर्ग समाज में एक महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर चुका था। परलोक का रास्ता बतलाने वाले, नरक से उद्धार करने वाले कितने ही पथ-प्रदर्शक पैदा हो गये थे, किन्तु गाँव-गाँव में दासता के नरक को धधकता देखकर भी सब की आँखें उधर से मुंदी हुई थीं।)

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