बंद खिड़कियां (तमिल उपन्यास) : वासंती (अनुवाद : एस. भाग्यम शर्मा)

Band Khidkiyan (Tamil Novel in Hindi) : Vaasanthi (Translator : S. Bhagyam Sharma)

(सारांश : “बंद खिड़कियां" सदियों से चले आ रहे पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों के अहं और दंभ के कारण स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार और अत्याचार तथा स्त्री के विरोध की कहानी है । यह कहानी एक नवयुवती, पोती तथा उसकी वृद्ध दादी के बीच समानान्तर रूप से चलती है । पति के दुर्व्यवहार का जो दंश पचास वर्ष पूर्व अनपढ दादी ने झेला, वही अपमान और तिरस्कार आज उसकी उच्च शिक्षित पोती भी झेल रही है । फर्क केवल इतना है, जहां दादी के पास इसको झेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं था वहीं पोती को माता-पिता की नाराजगी के बावजूद उस घर में आश्रय मिला है ।लेकिन दोनो ही परिस्थितियों में औरत, यानि दादी और पोती ने अत्याचार के विरुद्ध बगावत कर दी । दादी ने पति के घर में रहते हुए उसके अनैतिक कार्यों का विरोध किया, वहीं पोती अपने पति का घर इसी कारण छोड़ आई । चूंकि दादी पचास वर्ष पूर्व इस दौर से गुजर चुकी है इसलिये वह पोती की वेदना को समझती है, और उसे नैतिक रूप से संबल दे पति के साथ संबंध विच्छेद के फैसले पर कायम रहने की हिम्मत बंधाती है ।वह नहीं चाहती कि जो अपमान और तिरस्कार उसने झेला वह उसकी पोती को झेलना पड़ें।)

अध्याय 1

सरोजिनी ने ऊपर देखा, आकाश सफेद और नीले रंग का दिखाई दे रहा था। घड़ी के हिसाब से और 15-20 मिनट में अंधेरा होना शुरू हो जाएगा। थोड़ी देर में ही इस आराम कुर्सी को अगर अंदर नहीं रखें तो पक्षी इसके ऊपर गंदगी फैला देंगे।

पक्षियों का कोलाहल शुरू हो गया। भले ही आकाश में अभी प्रकाश था पर उससे नहीं डरकर जैसे घड़ी को देखकर उन्होंने समय मालूम कर लिया हो वैसे झुंड के झुंड पक्षियों ने उड़ना शुरू कर दिया। हरे, काले, सफेद सभी एक-दूसरे के बीच में ना जाकर लाइन से जा रहे थे।

सरोजिनी ने उत्सुकता से ऊपर देखा। मुझमें और इन पक्षियों में कोई संबंध है ऐसा उसे भ्रम हुआ। कितने वर्षों से इन पक्षियों को देखती आई है ! समय जब नहीं कटता तब यही उसके शाम के मनोरंजन का साधन है।

आज उसका मन निर्मल है। ऊपर सिर उठाकर देखते हुए उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान खिली।

कितनी मजेदार मन:स्थिति है यह ! वही मन में आज अचानक घबराहट हुई। फिर भी आज के समाचार से मन दुखी नहीं हुआ। मन को लगा उसके विपरीत कोई साधन की पूर्ति हो गई जैसे । इसी में सफलता मिल गई जैसे उसे खुशी भी हुई।

उसने फिर से आकाश को देखा। उसे हंसी आई। यह मेरी सभी भावनाएं अपनी निजी बातों को जो सिर्फ मुझे ही पता होनी चाहिए।

अपनी मन की खिड़कियों को किसी के लिए भी खोल नहीं सकते।

खोलने की जरूरत भी नहीं।

"अम्मा, अंधेरा हो गया ! बरामदे में आकर बैठेंगे क्या?"

मुरुगन की आवाज सुनकर सरोजिनी यादों में खोई अपने वर्तमान में आई।

अरे, अंधेरा होने पर भी मैंने कैसे ध्यान नहीं दिया?

वह मुस्कुराते हुए बगीचे में से उठकर घास को पारकर बरामदे में आकर फिर से एक आराम कुर्सी पर बैठ गई।

अब उसे हर बात पर हंसी आ जाती है, जैसे ज्ञानियों को आती है वैसे ही।

मैं ज्ञानी हूं?

मैं हां बोलूं तो भी क्या संसार उसे मानेगा। पहले मुझे लोगों ने भगवान ही बोला?

उसे फिर हंसी आई।

"अम्मा !"

मुरूगन सामने खड़ा हुआ। "अम्मा, साहब और अरुणा के आने में देर होगी लगता है। आ भी जाएं तो खाना खाएंगे कि नहीं पता ही नहीं मन ठीक नहीं है कहकर सोने भी जा सकते हैं, आप आकर खा लीजिएगा?"

"आज क्या बनाया है ?"

"इडली चटनी ही है।'

"ठीक है आ रही हूं।"

वह उठी। उसकी चाल अभी भी ठीक है। उसकी निगाहें अभी भी तेज है। छोटी उम्र में और युवा अवस्था में, इतना परिश्रम कोल्हू के बैल जैसे उसने काम किया है उससे मन में और शरीर में एक दृढ़ता आ गई है। अतः इसीलिए 70 की उम्र में भी रुपयों को अपनी बीमारी के लिए खर्च करने की जरूरत उन्हें नहीं पड़ती ।

कोल्हू का बैल ‌।

मुरूगन ने दो नरम इडलियों को चांदी के प्लेट में चटनी के साथ लाकर रखा। दही को भी साथ में रखकर "खाइए" कहा।

उस समय कोल्हू के बैल जैसे रहने के कारण अब तक उसे सम्मान मिल रहा है।

उसे अपने आप में हंसी आ गई। यह कोल्हू का बैल भी कभी-कभी नियंत्रण से बाहर हो जाता है इन लोगों को तो पता नहीं।

वह पता भी कैसे हो ?

किसी को नहीं पता। वह मेरा अपना रहस्य है।

वह खाना खाकर बैठक में सोफे पर आकर बैठी। 9:00 बज गए थे।

अभी तक कार्तिकेय, उसकी पत्नी नलिनी और पोती अरुणा घर वापस नहीं आए थे। 

टीवी में एक हिंदी धारावाहिक नाटक आ रहा था। भाषा समझ में नहीं आई फिर भी नाटककारों के चेहरे सुंदर थे। उसे देखने की इच्छा हुई। जमीन पर बैठकर टीवी देखने वाला मुरूगन जल्दी से उठ कर खड़ा हुआ।

"आ गए" बोला।

"टीवी को बंद कर दूं क्या ?" पूछा।

"कर दो" सरोजनी ने कहा, उसकी समायोजित बुद्धि को जान उसे आश्चर्य हुआ।

उसने जल्दी से बाहर का दरवाजा खोला तो चुपचाप तीनों अंदर आए। कार्तिकेय का चेहरा एकदम कसा हुआ था। नलिनी के चेहरे से शोक टपक रहा था। अगले ही क्षण रो देगी ऐसा लग रहा था। सिर्फ अरुणा ने कुछ भी नहीं हुआ जैसे चेहरे पर एक मुस्कान लिए हुए सरोजिनी के पास में आकर उनके कंधे पर हाथ रखा।

"सब कुछ खत्म हो गया दादी, मैं केस जीत गई ‌। अब मैं स्वतंत्र हूं!"

सरोजिनी ने कार्तिकेय और नलिनी की तरफ बिना मुड़े ही मौन अरुणा के हाथों को सहलाया। अरुणा के होठों पर मुस्कान होने पर भी आंखों में चोट लगे जैसे दिख रहा था।

‘मेरी पोती अपने आप संभल जाएगी’ अपने अंदर कहते हुए हंसी।

अरुणा को देखकर,"जाकर खाना खाओ। चेहरा तुम्हारा मुरझाया हुआ है" बोली।

"चेहरे का मुरझाना भूख से नहीं है" नलिनी बोली।

"कौन कह रहा है ? मुझे भूख है ! जो कुछ है वह सब लेकर आओ" कहते हुए अरुणा खाने के मेज के पास गई।

मुरूगन ने बिना बोले जल्दी-जल्दी मेज पर सब सामान लाकर रखा।

"बड़ी अम्मा ने खा लिया!" बोला।

"अम्मा-अप्पा आप दोनों खाना खाने नहीं आ रहे हो ?" थोड़ी जोर से अरुणा बोली‌।

कार्तिकेय किसी पत्रिका को पलटाते हुए "मुझे भूख नहीं है" बोले।

"मुझे भी भूख नहीं है" कहकर नलिनी तेजी से ऊपर जाने लगी।

अरुणा नलिनी के जाते हुए देखकर कार्तिकेय के सामने आकर खड़ी हुई।

"अप्पा, इसका क्या मतलब है ?"

"किसका ?"

"घर पर कोई गलती हो गई है ऐसे दोनों चेहरे को रखकर अभी भूख नहीं है कहने का क्या मतलब है ?"

'उसका कोई गलत अर्थ नहीं है अरुणा!’ कार्तिकेय ने ऐसे धीमी आवाज में कहा "हमारा मन आज विशेष रुप से खुशी की स्थिति में होगा ऐसे सोचती हो क्या ?"

"क्यों नहीं होना चाहिए ? मैं केस नहीं जीतती और मुझे तलाक नहीं मिला होता तब आपको दुखी होना चाहिए था !"

कार्तिकेय ने अपने सिर को नीचे कर लिया।

"वह ठीक है। परंतु तुम्हें एक अच्छा जीवन मिलना चाहिए इस उम्मीद से की गई यह शादी की थी वह खत्म हो गई तो हमें दुख तो होगा ना ?"

अरुणा हंसने लगी।

"यह मजेदार बात आप कह रहे हो ! संबंध को खत्म करने पर ही मेरे लिए छुटकारा था एक साल से आपको भी सब बातें पता थी । और आपने उसके लिए प्रयत्न भी किया। मेरी तरफ केस का फैसला हो जाने से शांति नहीं मिली आप कह रहे हो। आप दोनों कितने नाटककार हो!"

दुबारा कार्तिकेय अपना सिर पेपर में छुपा लिया।

"तुम चाहे जो सोचो" धीमी आवाज में बोले। "किसी बात में हार गए ऐसे ही मुझे लग रहा है। एक समझौते में हार गए ऐसी एक तकलीफ हो रही है...."

"क्योंकि, आप एक नाटककार हो" अरुणा की आवाज तेज हुई।

"तलाक का मतलब घर का गौरव चला गया ऐसा आप सोचते हो इसीलिए सर झुका कर बैठे हो। वह बदमाश जो अन्याय करता था मैं उसे सहन करती रहती तो आप गौरव का अनुभव करते ! बाहरी दुनिया को अपने घर की बातों का पता नहीं चलना चाहिए इसलिए मैं आत्महत्या कर लेती तब आप अपना सर ऊंचा करके चलते, मैं अभी अच्छी तरह हूं इसलिए आप हार गए ?"

"ओ कमऑन अरुणा!" कहते हुए कार्तिकेय उठे। उसे हल्के से गले लगाते हुए "तुम जो कह रही हो उसमें एक भी न्याय नहीं है !" वे बोले। "इस तलाक के लिए मैंने कितना प्रयत्न किया यह तुम्हें पता है !"

"मैं जिद्द पर अड़ी थी आपके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। अब आपको और अम्मा को दुखी होने का कारण अपने परिवार के गौरव का चले जाना है। आदमी कितना भी अन्याय करें औरतों को मुंह बंद करके रहना ही आपकी परंपरा है । मैं भी दादी जैसे रह जाती तो आपको अच्छा लगता!"

"अरुणा!" कार्तिकेय की सहनशक्ति जवाब दे गई।

"दादी के बिना मुंह खोले रहने से सब लोगों को आराम हो गया था । दादी को एक पदवी "देवी है!” का मिल गया था | सचमुच में उन्होने सिर्फ एक पत्थर जैसे जीवन जिया ऐसे कितने लोगों ने इसे समझा होगा?"

'आज इतना बस है' सोचती हुई सरोजिनी उठी। "मैं अपने कमरे में जा रही हूं।" कहते हुए वह अपने कमरे की तरफ चल दी।

"अभी तुम्हें दादी की बातों को बोलने को किसने कहा?" कार्तिकेय उसे डांट रहे थे।

"उसे नहीं कहूं तो क्या करूं ? दादी का उदाहरण ही तो आप लोगों को परेशान कर रहा है!"

"नॉनसेंस, अभी मैं तुम्हारे साथ खाना खाऊंगा तो तुम्हारा समाधान हो जाएगा सोचती हो ?"

"करीब-करीब !"

"ठीक राइटो ! खाना खाते हैं !"

सरोजिनी हंसती हुई अपने पलंग पर लेट गई |

दादी का उदाहरण।

उनको फिर से हंसी आई। नींद नहीं आने के कारण खिड़की से बाहर दिख रहे नक्षत्रों को टकटकी बांधकर देख रही थी तो अरुणा आकर पास में खड़ी हुई।

सरोजिनी हाथ को आगे करके, हंसकर "आओ!" बोली।

अरुणा उनके हाथों को पकड़कर हिचकते हुए पूछा।

"जो हो गया उसके बारे में आपको दुख है क्या दादी ?"

"नहीं रानी बेटी!" सरोजिनी बोली। "मैं जो नहीं कर सकी तुमने उसे किया इस बात की मुझे बहुत खुशी हो रही है।"

अरुणा ने अपने खिले चेहरे से झुक कर सरोजिनी के गाल को चूमा।

"आपने ही मुझे समझा है मुझे पता है। अम्मा को दुनिया के बारे में फिकर है !"

"वाह री दुनिया ! वह तो बेवकूफ दुनिया है ! उसकी ओर ध्यान नहीं देने के लिए एक विशेष योग्यता की जरूरत है बेटी!"

"उस विशेष योग्यता के बारे में अभी आपको पता चला है क्या ? पहले आपने ऐसा नहीं सोचा!"

सरोजिनी ने जवाब नहीं दिया। इसके बारे में भी बात करने की जरूरत नहीं है सोचा।

अध्याय 2

अरुणा की नज़र में एक आधारहीन बच्ची का वात्सल्य दिखाई दिया ।

'ओह मेरे लिए यह बच्ची दुखी हुई' ऐसी बात सोच कर सरोजा को थोड़ा संकोच हुआ।

"एक दिन आप अपनी कहानी को मुझे आदि से अंत तक बताना दादी!"

सरोजिनी हंसी।

"मेरी कहानी में क्या दिलचस्पी है? तुम बोली जैसे दूसरों को परेशान ना करके, मुंह से बात ना कहना ही तो मेरे जीवन की कहानी है?"

अरुणा ने सरोजिनी के कंधे को प्रेम से दबाया।

"दूसरों को पता न होने वाली आपकी कहानी होगी। उस कहानी को आपने अपने अंदर जब्त किया हुआ है!"

सरोजिनी एकदम से हड़बड़ा गई। फिर अपने को संभाल कर हंस दी।

"मुझे क्यों घसीट रही है । मैं तो पढ़ी-लिखी नहीं हूं | किसी भी बात को बहुत सोचकर बोलने की आदत भी नहीं है। बड़े लोगों जैसे रहना चाहिए बोला, वैसे ही मैं रही। इसके अलावा मेरी कहानी में क्या रखा है?"

अरुणा थोड़ी देर बिना बोले रही। बाद में धीमी आवाज में बोली:

"एक बात बताइए दादी। मेरी स्थिति में यदि आप इस जमाने में रही होती तो पति से तलाक ले लेती?"

उसका प्रश्न उसे सुई की नोक जैसे चुभा। उसकी मन की खिड़की धीरे से खुली, सब बातों के लिए सिर झुका कर चुपचाप खड़े होने वाली अपनी स्थिति को भी देखा।

सरोजिनी का शरीर थोड़ा फैला।

"कर सकती थी बेटी" धीरे से बोली। "वही सही होता।"

अरुणा ने झुककर फिर अपनी दादी को चूम लिया। "थैंक्यू दादी, आप ही मेरी सच्ची सहेली हो,अम्मा में इस तरह सोचने की शक्ति नहीं है।"

"संवादों के लिए स्वयं के अनुभव की जरूरत होती है अरुणा!"

"राइट्!"

अरुणा हंसते हुए उठ गई।

25 साल की यह लड़की कितनी सुंदर और होशियार है, यही बात उस बेवकूफ आदमी को सहन नहीं हुई। भले ही वह हंसती हुई खड़ी है परंतु इसके घाव भरने में अभी समय लगेगा.... बेचारी।

"पुरानी सब बातों को भूल जा बेटी!" धीरे से बोली।

"आज से भूल गई!" कहकर अरुणा हंसी। अगले महीने आगे पढ़ने के लिए दादी, मैं अमेरिका जा रही हूं । नई जिंदगी शुरू करने वाली हूं!"

"वही ठीक है। तुम्हारी अम्मा और अप्पा भी ठीक हो जाएंगे। फिक्र मत करो, अभी जाकर सो जाओ।"

अरुणा धन्यवाद कहती हुई उनके कंधे को थपथपा कर, "गुड नाइट दादी" कहकर दरवाजे को थोड़ा सा उढका कर बाहर चली गई।

उनकी नाड़ी को किसी ने बुरी तरह से झकझोर दिया सरोजिनी को ऐसा महसूस हुआ । उनकी नींद उड़ गई।

"आप पति को तलाक दे देती?" 

उनके माथे और हथेली पर पसीना आ गया। खिड़की के बाहर अंधेरा था उसे सरोजिनी घूर कर देखने लगी।

मैंने जो अरुणा को जवाब दिया उसे नलिनी और कार्तिकेय ने सुना होता तो क्या सोचते? अरुणा को समाधान करने के लिए मैंने ऐसे कहा वे सोचते। वही सत्य है यह वे समझेंगे क्या ? पढ़ाई ने कितना अंतर उत्पन्न किया है! मेरे साथ जो कुछ हुआ वह उस समय की परिस्थितियों के कारण हुआ। उन परिस्थितियों के जैसे ही मुझे रहना पड़ा। मैं गलत थी या सही थी मेरी समझ में जो आया उसी तरह मैंने उसका सामना भी करके दिखाया। परंतु मैंने जो करके दिखाया वह लोगों को पता नहीं है।

‘आज मुझे उसके लिए कोई दुख भी नहीं है, ना ही मैं अपने को अपमानित महसूस करती हूं। इस पागल दुनिया के बारे में सोच, मुझे हंसी आती है....’

सरोजिनी की निगाहें अब भी आकाश की ओर थी।

उसकी मन की खिड़कियां धीरे से खुली..... उसने एक तीसरे मनुष्य जैसे अपने को 60 साल पहले की उस छोटी सरोजिनी को देखा।

वह एक बहुत बड़ा मकान था, चार मंजिली इमारत। कई चौक थे। उसकी बारहसाल की उम्र में शादी हो गई पहली बार जब इस घर में कदम रखा उस समय पहले चौक को देखा। बड़े-बड़े गद्दे पड़े हुए थे। दरवाजे के हैंडल पर सोने की परत चढ़ी हुई थी । दीवारों पर बड़े-बड़े आईने लगे हुए थे, उसने उसमेंअपने चेहरे को एक बार देखा बस।

"पहली मंजिल मे लड़कियों को जाने की इजाजत नहीं है" ऐसा सासू मां ने कह दिया तो वह भी उनकी बात को रखते हुए कभी वहाँ नहीं गई। यही नहीं और भी कई नियम इस घर में थे।

किसी भी बात के लिए ‘क्यों?’ ऐसा नहीं पूछ सकते थे। "क्योंकि यह इस घर का रिवाज था!"

सरोजिनी की आंखें चौड़ी हुई 55 साल तक उसने इन कठिनाइयों को झेला।

“उस लड़की सरोजिनी की उम्र 16 साल की होगी। परंतु उस घर में आकर चार साल होने के बाद उसके चेहरे पर एक प्रौढ़ता नजर आ गई थी। "साक्षात लक्ष्मी है"जब सांस खुश होती तब यह बात कहतीं और कई बार मेरी नजर भी उतारती। मेरे घुंघराले बालों को कैस्ट्रॉइल लगा लगा कर कंघी करती ‌और कहती "घुंघराले-घुंघराले बाल वेश्याओं के मुंह पर ही लटकते हैं।"

अभी तक अंधेरा दूर नहीं हुआ। पिछवाड़े में मुर्गे के बांग देने से सरोजिनी की आंखें खुली। रेशमी गद्दे बिछे उस डबल बेड पर जम्मू लिंगम का विशाल शरीर गहरी नींद में था। सास और अम्मा के बताए हुए आदत के अनुसार सरोजिनी अपने मंगलसूत्र को आंखों में लगाया । सोए हुए पति के पैरों को छूकर नमस्कार किया। पिछली रात में जो दूध का बर्तन पीने के लिए लेकर आई थी उसे लेकर बिना आवाज किए पिछवाड़े की तरफ चल दी। उसके शरीर का अंग-अंग दुख रहा था। पिछली रात जंबूलिंगम ने उसके शरीर को बुरी तरह से रौंद डाला था। यह क्या उसका दीवानापन उसमें इतनी शक्ति उसे देखकर उसे आश्चर्य होता था। सोने के लिए कितनी भी देर से जाओ वह झपटने के लिए तैयार रहता। दिन पर दिन उसकी शक्ति बढ़ती जा रही थी और स्वयं की शक्ति कम होती जा रही थी ऐसा उसे लगता। रात 1:00 बजे तक उसके ज्यादतियों को सहकर सुबह मुर्गी के बांग देने के पहले उसे उठना पड़ता। क्या सभी महिलाओं पर ऐसा अत्याचार होता है ? उसे पता नहीं। एक बार बड़े संकोच से अपनी अम्मा से बोली।

"पूरी रात मुझे वे परेशान करते हैं। मुझसे सहन नहीं होता। पूरे शरीर में दर्द होता है!"

मेरी अम्मा बड़ी जोर से हंसी।

"अरे लड़की! तुम्हारे ऊपर उसे इतना प्रेम है। उसके लिए तुम्हें खुश होना चाहिए? तुम्हारे शरीर में शक्ति नहीं है। तुम्हारी सास दही-दूध तुम्हारी आंखों में भी नहीं दिखाती ऐसा लगता है।"

"अरे वह सब नहीं" घबराहट में बोली "बढ़िया ही खाना देते हैं।"

अम्मा कहीं उसकी सास से कुछ कह दे तो कई महीनों तक उस घर में सिर उठा नहीं सकेगी।

सास अभी तक उठी नहीं। सरोजिनी ने कुएं में से पानी खींचकर अपने सिर के ऊपर डाला। गीली साड़ी को पहने हुए पूजा के कमरे में जाकर कमरे को झाड़ कर पोंछा लगा रंगोली बना फिर कमरे में जाकर दूसरी साड़ी पहनकर रसोई में जाती।

घर में ननद-देवर और सब लोग मिलकर 20 जने थे। उन लोगों के उठने से पहले नाश्ता तैयार करना पड़ेगा। बने हुए नाश्ते को सास अपने हाथों से सबको देती। आराम से राजा जैसे उठ कर आते जंबूलिंगम मेज कुर्सी पर खाने के कमरे में बैठते उन्हें सास पास में बैठ कर अपने हाथों से परोसती तभी उन्हें तृप्ति होती। उस समय वह वहां नहीं जा सकती।

"यहां क्या डांस कर रही हो? अंदर जाकर काम करो!" उस घर में काम की कोई कमी नहीं थी। खाना खाते-खाते शाम हो जाती। फिर से रात का खाना बना कर थोड़ी देर हवा में बैठने तक शरीर टूट जाता था। सभी इतने कामों को बिना बोले बिना आवाज उठाए चेहरे पर बिना कोई शिकन लाए.....

इन सबकी उसे आदत हो गई। यह उसके स्वभाव में ही आ गया। कोल्हू के बैल जैसे काम करके रात को सब का खाना देकर सोने के लिए गई। जंबूलिंगम अभी तक आया नहीं। उसे भूख लगने लगी। उसकी आंखें नींद से बंद होने लगी। पति के पहले खाना खा लो तो छत ऊपर गिर जाएगी। उसने ठंडे पानी को पीकर उनके कमरे के पास नीचे कपड़ा बिछाकर सो रही थी तो कोई गाड़ी आने की आवाज सुनकर वह जागी ।

आंगन के पास में ही एक घोड़ा गाड़ी खड़ी हुई । उसमें से कोई युवा कूदकर उतरा। उसके बाद वह गाड़ी के अंदर से जंबूलिंगम को हाथों से पकड़ कर उतारा और बिस्तर तक लेकर आया।

"इनको क्या हुआ?" उसने घबराहट में पूछा।

उसने निगाहें उठाकर देखा।

"कुछ नहीं, थोड़ा ज्यादा पी लिया: सुबह तक होश में आ जाएगा।"

उसने आगे आकर जंबूलिंगम को बिस्तर पर लिटाने में मदद की। वह युवा फिर से उसे देखकर "दरवाजा बंद कर लीजिए। कहकर बिना मुड़े बाहर चला गया।

कुछ भी ना समझ आने के कारण वह डर के मारे पूरी रात रोई। सुबह हमेशा की तरह नमस्कार करके उठी। शाम तक काम करके फिर सासू मां से अपने पति के नए आदत के बारे में बोलने पर सास ने बडी ही लापरवाही से बोली "आदमी है तो सब कुछ होगा। इन सब पर ध्यान ना देना ही होशियारी है।"

अध्याय 3

‘किसी ने जगाया हो ऐसे सरोजिनी की आंखें खुली। खिड़की के कांच के द्वारा सूर्य का प्रकाश अंदर आया। कितनी देर सो गई यह सोच कर उसे आश्चर्य हुआ। थोड़ी देर तो उसे समझ नहीं आया कि मैं कहां हूं। यह वर्तमान काल है या बीता काल? नीला वेलवेट वाला गद्दा नहीं था । ऊपर लटकने वाले झूमर वाली लाइटें भी नहीं थी ।

यह वर्तमान समय है। कई युगों के बाद मैंने दूसरा जन्म लिया है। उस समय की सरोजा में और इस जीवन के तरीके में कोई संबंध नहीं है।

मन बदला नहीं?’

सरोजिनी अपने मन ही मन हंसने लगी। मन तो वही है। करीब-करीब सभी लड़कियों का मन एक सा ही होता है। प्रेम के लिए तरसने वाले को यदि वह ना मिले तो दुखी होना, गुस्सा होना.... वातावरण के अनुसार उसका रूप बदलता है वरना सब एक ही है। पढ़ा-लिखा होना स्वयं के पैरों पर खड़े होने की स्थिति होने पर, "अरे जा रे तेरी दया की मुझे जरूरत नहीं" ऐसा अरुणा के आने के बावजूद उसके पति का प्यार उसे नहीं मिला तो उसके लिए वह कितना तरसेगी यह मुझे भी पता है। वह बेवकूफ यदि थोड़ा ठीक रहता इस पर प्रेम दिखाता तो यह उसके पास शरणागति कह कर रह जाती। बेचारी...

खुद खराब था और इसके बावजूद इस पर उसने इल्जाम लगाया कि यह चरित्रहीन है ! पापी कहीं का....

सरोजिनी का शरीर एक बार पूरा हिल गया। कई सालों की वेदना मिली जैसे उसका मन भारी हुआ।

कोई कमरे के दरवाजे को खटखटा कर अंदर आया।

"बड़ी अम्मा, उठी नहीं?" मुरूगन बोला। उसकी आवाज में एक अपनत्व था।

"उठ रही हूं" कहकर सरोजिनी आंखों को बंद करके लेटी रही।

"खिड़की के परदो को खोल दूं ?" मुरूगन बोला।

"ठीक"

"कमरे के अंदर तेज धूप की रोशनी आई तो सरोजिनी ने अपने हाथों से आंखों को ढंक लिया।

मुरूगन के चले जाने के बाद उसे उठने में आलस आ रहा था। जल्दी उठना है ऐसा जो एक बंधन था उसे गए बहुत दिन हो गए। आज मन में एक थकावट आ गई। पिछली जिंदगी को झांककर जब बाहर आती हूं तब मुझमें थकावट आ जाती है‌। एक जन्म बेकार ही चला गया जैसे "मनुष्य, मनुष्य जैसे नहीं चले तो कितनी ही चीजें गलत हो जाती हैं?" वह अपने आप ही बोल रही थी। अरुणा के दुखी होने का यही कारण है। वह लड़का कल तक जो उसका पति था वह प्रभाकर मेरे सामने आए तो मैं यही बोलूंगी "उसके ऊपर तुम जो भी दोषारोपण कर रहे हो उन सब का कारण तुम ही हो...."

"क्या बात है अम्मा तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है क्या...…"

आंखों पर से अपने हाथों को हटा कर सरोजिनी ने देखा।

"नहीं। तबीयत को कुछ नहीं हुआ।" कहकर सरोजिनी उठ कर बैठी।

"रात को ठीक से नींद नहीं आई। अब उठ कर भी मैं क्या करने वाली हूं ऐसा सोच कर ही पड़ी हुई थी।"

"और थोड़ा सोने की इच्छा है तो लेट जाइएगा।" नलिनी बोली।

"नहीं वो सब कुछ नहीं। इतनी देर सोए ?" कहती हुई सरोजिनी पलंग से उतरी।

"हमें भी कल रात को नींद नहीं आई..…अरुणा के साथ ऐसा हो गया" धीमी आवाज में कार्तिकेय बोले।

इस विषय में यह लोग कुछ ज्यादा ही संकोच कर रहे हैं ऐसा सरोजिनी को लगा।

"जो हो गया उसके बारे में दुख मनाने से कोई फायदा नहीं। वह अलग होकर आ गई यह उसके लिए बहुत अच्छा है। कुछ दुर्घटनाएँ घट नहीं जाती हैं क्या ? उसी तरह इस शादी के बारे में भी दोनों सोचो"

"आप जो कह रही हैं वह ठीक है" कार्तिकेय बोले।

नलिनी बिना कुछ बोले सिर झुका कर खड़ी रही।

"नलिनी, मुंह को लटका के मत खड़ी रहो। जो नहीं होना चाहिए वह नहीं हुआ। जो होना चाहिए वही हुआ। अब जो काम होना है उसकी तरफ ध्यान दो। नहीं तो इस बच्ची के मन का घाव भरने में बहुत दिन लगेंगे!"

"वह तो धैर्य से ही रह रही है, जैसे कुछ भी नहीं हुआ ‌। मुझे ही सहन नहीं हो रहा है" नलिनी बोली। उसकी आवाज में दर्द और आंखों में आंसू थे।

यह क्यों ऐसी अंधी है? सरोजिनी को आश्चर्य हुआ।

"आंखों को अच्छी तरह से खोल कर देखो नलिनी। तुम्हारी समस्या यह है कि तुम्हारी आंखों पर गौरव का पर्दा पड़ा है..."

तौलिया  लिए हुए स्नानाघर को जाते समय हल्के से  मुस्कुराते हुए बोली:

"इस तलाक ने अपने परिवार के गौरव को बचाया है इस बात को तुम्हें समझना चाहिए।"

स्नानाघर में जाकर दरवाजे को बंद करते समय "तुम्हें समझ में नहीं आएगा" अपने आप से बोली।

दांत को साफ कर चेहरा धोकर आईने में देखकर पोंछने लगी तब, "अच्छा आदमी मिल जाए फिर आराम से जीवन जीने वाली औरतों को निश्चित रूप से समझ में नहीं आएगा" स्वयं से कहने लगी।

कार्तिकेय एक अच्छा लड़का है। अपनी पत्नी को आंखों पर बैठा कर रखता है। "पुरुष हो तो वह जैसा चाहता है वैसा रह सकता है। उन सब बातों पर बिना ध्यान दिए रहना चाहिए" वह इन सब बातों से दूर रहने वाला आदमी है। एक पति को जैसा होना चाहिए वह वैसा ही है। नलिनी को उसने कोई कमी नहीं रखी। सभी आदमी लोग ऐसे ही अच्छे होते हैं ऐसी एक सोच नलिनी की है। इसीलिए वह इस आघात को सहन नहीं कर पा रही.....

सरोजिनी खाना खाने के कमरे में आई तो कार्तिकेय ऑफिस रवाना होने के लिए नाश्ता कर रहा था। मुरूगन परोसने में उसकी मदद कर रहा था। सरोजिनी को देखते ही, "बैठिए" कहकर कुर्सी को सरकाया।

"अम्मा के लिए कॉफी लेकर आओ मुरूगन!" कार्तिकेय ये बोल कर चुप हुआ उसके पहले ही मुरूगन  कॉफी रखकर हंसा।

"अम्मा को बाथरूम में घुसते देखा था" उसने अपनी सफाई दी।

मुस्कुराते हुए सरोजिनी कॉफी पीने लगी ‌यह उसकी तीस साल की आदत है । कई वर्षों से इसी घर में रहने वाली मरगथम का लड़का है वह ‌। वह जहां भी खेल रहा होता उसे ढूंढ कर उसके हाथ में कॉफी देने वाली बात उसे अब तक याद है।

"अरुणा उठ गई क्या? उसे कॉफी दे दी ?" धीरे से पूछा ।

"उठ गई हैं पर नीचे उतर के नहीं आई।"

"क्यों ?" सरोजिनी ने नलिनी को देखकर पूछा।

नलिनी के चेहरे पर तनाव साफ दिखाई दिया । सीधे ना देख कर कहीं देखते हुए जवाब दिया।

"आधे घंटे से फोन पर किसी से बात कर रही है ।"

सरोजिनी कुछ सोचते हुए अपनी कॉफी को पीने लगी। कार्तिकेय बातों में शामिल हुए बिना खाना खा रहा था।

अरुणा धड़ाधड़ सीढ़ियों से उतर कर आ रही थी।

"गुड मॉर्निंग !" उत्साह के साथ बोलती हुई वह आई। कार्तिकेय बे मन से "गुड मॉर्निंग" बोले। ‌नालिनी ने कुछ भी नहीं बोला।

सरोजिनी आगे आकर प्रेम से बोली "आओ अरुणा, यहां आकर बैठो" ।

अरुणा का चेहरा उदास था। उसकी नाक की कोर लाल थी। थोड़ी देर पहले तक वह रोई जैसे, जल्दी से पाउडर लगाकर आई हो जैसे दिख रही थी। उसकी आंखें सूजी हुई थी।

"कल पूरी रात यह लड़की सोई नहीं होगी" सोचकर सरोजिनी को दया आई।

कार्तिकेय और नलिनी ने उसे  देखकर अपने चेहरे को घुमा लिया।

"कॉफी लेकर आ रही हूं" बड़बड़ा कर नलिनी अंदर चली गई।

सरोजिनी ने मुस्कुराते हुए अरुणा के कंधों को पकड़ा।

"बोलो, आज क्या करने वाली हो ? आज तुम्हारा कुछ प्रोग्राम है क्या?"

तनाव कुछ दूर हुआ हो जैसे अरुणा प्यार से मुस्कुराई।

"हाँ दादी, बाहर जाने वाली हूं।"

"खाने पर आ जाओगी ना ?"

"नहीं, आने में 4:00 बज जाएंगे।"

"उसके बाद ?"

"फिर कुछ नहीं है। क्यों ?"

सरोजिनी धीरे से हंसी।

"मुझे सिनेमा जाना है ऐसा लग रहा है।"

विश्वास नहीं कर सकते ऐसे आंखों को चौड़ा करके अरुणा जोर से हंसी। "अरे वाह! मैं तैयार हूं दादी! अम्मा आएगी क्या पूछ लो।"

"मैं नहीं आऊंगी !" नालिनी चिड़चिड़ाते हुए "घर में वीडियो डालें तो भी मेरा देखने का मूड नहीं है..."

"क्यों ? तुम्हारे मूड को अभी क्या हो गया ?" अरुणा थोड़ी जोर से बोली।

"कुछ नहीं हुआ!" नालिनी निष्ठुरता से बोली। "सिनेमा देखने जैसा नहीं... बस इतना ही"

"आपकी इच्छा नहीं है तो हम आपको मजबूर नहीं करेंगे" अरुणा थोड़ी झल्लाते हुए बोली "मैं और दादी जा रहे हैं। दादी हिंदी या तमिल "

"अंग्रेजी फिल्म जाएंगे!" आश्चर्य से अरुणा जोर से मुंह खोल के हंसी।

"क्यों आपको तो अंग्रेजी समझ में नहीं आती !"

"फिर भी अच्छा है" कहकर सरोजिनी हंसी। "अपने आचरण संस्कार आदि की बेकार की बातें नहीं होगी।"

पीने के लिए उठाए गये कॉफी के मग को नीचे ठक से रखकर अरुणा उठ कर दादी के गले लगी।

"आपकी सोचने की जो शक्ति है वह मेरी सहेलियों में भी नहीं है।"

"तुम्हारी इन बातों से मेरा कोई संबंध नहीं है" इस तरह के भाव से कार्तिकेय उठ गए। नलिनी के चेहरे में प्रसन्नता नहीं थी।

"बाहर जाना है कह रही है ना, कार चाहिए ना अरुणा, ऑफिस से भिजवा दूं ?" कार्तिकेय बोले।

"नहीं"

"कैसे जाओगी ?"

"शंकर के साथ जाऊंगी। अमेरिकी एंबेसी में उनके पहचान वाले हैं। वे उनसे मेरी पहचान कराएंगें।"

नलिनी ने तुरंत मुड़ कर देखा।

"उसके लिए आने में 4:00 क्यों बजेंगे ?"

"कुछ काम है अम्मा" चिड़चिड़ाते हुए अरुण बोली "मुझे क्या छोटी बच्ची समझ रही हो ? खोद-खोद कर क्यों पूछ रही हो?"

दूसरे ही क्षण अरुणा बिना वहां खड़े हुए सीधे ऊपर चली गई।

"थोड़ा छोड़ो नलिनी" धीमी आवाज में कार्तिकेय बोले।

नलिनी सिर झुकाए धीमी आवाज में "इन सब परेशानियों का कारण ही शंकर है। उसी से तो फोन पर इतनी देर बात की, उसी के साथ यह घूम रही है यह देखकर दुनिया इसी की गलती  कहेगी ।“

"दुनिया के बारे में भूल जाओ नलिनी" धीमी आवाज में सरोजिनी बोली।

"तुम क्या सोचती हो यह ही जरूरी है।"

"अम्मा आप क्या कह रही हो ?"

"यह दुनिया जो चाहे बात बनाएगी। सच को झूठ और झूठ को सच कहेगी।"

बाहर गाड़ी आकर खड़ी होने की आवाज आई।

"आ गया साला" नलिनी बड़बड़ाने लगी। कार में से शंकर की आकृति दिखाई दे रही थी।

अध्याय 4

नलिनी को तेजी से अंदर जाते सरोजिनी ने देखा। 'सब परेशानियों के लिए इस लड़के को जिम्मेदार यदि नलिनी मानती है तो यह उसकी बेवकूफी है' ऐसा उसने सोचा।

शंकर के चेहरे पर आज खुशी नहीं थी उसने इसे महसूस किया। "नमस्कार बड़ी अम्मा" कहकर एक हल्की मुस्कान के साथ नमस्कार किया। 

"नमस्कार। आओ बेटा" वह बोली।

"हेलो" कहकर आगे आकर कार्तिकेय ने उससे हाथ मिलाया।

"अमेरिका एंबेसी में अरुणा का एक अपॉइंटमेंट है। मैं काउंसलर को जानता हूं। उसे लेकर जाने के लिए आया हूं" शंकर बोला।

"अरुणा अभी आ जाएगी, आप बैठिए। मुझे ऑफिस के लिए रवाना होना है।"

"आप रवाना होइए। अरुणा के आने तक मैं बड़ी अम्मा से बात करता हूं।"

"आप कैसी हो बड़ी अम्मा?" पूछा।

"मैं अच्छी हूं" सरोजिनी हंसी। "उम्र हो गई इसके अलावा और कोई परेशानी नहीं, समय पर खाती हूं सोती हूं ।"

"बहुत खुशी हो रही है आपकी बात को सुनकर बड़ी अम्मा। साधारणत: इस उम्र को पकड़ने के पहले ही बहुत से लोगों को अपने जीवन से विरक्ति हो जाती हैं। उनकी बातों में शिकायतों के सिवाय और कुछ नहीं होता।"

वह मुस्कुराकर बिना बोले बैठी थी। देखने में तो यह एक योग्य लड़का लगता है। इसकी आंखों में कोई भी बुराई नजर नहीं आती है। अरुणा के साथ इसका साधारण संबंध हो सकता है नहीं तो ज्यादा भी हो तो इसको या अरुणा को दोष देने से कोई फायदा नहीं ऐसा वह अपने मन में सोच रही थी । 

"अरुणा कैसी है बड़ी अम्मा ?" धीमी आवाज में उसने पूछा।

"वह ठीक ही है" उसने भी धीमी आवाज में जवाब दिया।

उसने कुछ सोचते हुए सिर को झुका लिया।

"सुबह फोन पर बात करते समय "अपसेट" है ऐसा मुझे लगा" वह बोला।

"हां.... थोड़ा इधर-उधर हुए बिना रहेगा क्या ?" सरोजिनी बोली।

"इस घटना के बिना भी रह सकते थे? जीवन में दो साल व्यर्थ हो गये ऐसा ही तो है। व्यर्थ ही नहीं मन में जो घाव हुआ है उसे भरने में और कुछ दिन समय लगेगा।"

शंकर ने उन्हें असमंजस में देखा।

"आप ही तो उसके साथ अपनत्व से हैं उसने बताया।"

सरोजिनी हंसी।

"मेरा जीवन काल तो समाप्त हो गया। मेरा अपनत्व और मदद होने पर भी उसके लिए कोई फायदा नहीं है। इस तरह के विषयों में किसी से मदद की उम्मीद रखने की जरूरत नहीं। मन को जो ठीक लगे उसे करना चाहिए। हमने जो अनुभव किया है वह सिर्फ हमें ही पता है।"

"बिल्कुल ठीक कहा आपने" शंकर मुस्कुराकर "अभी मुझे समझ में आ रहा है। अरुणा भी आपके जैसे स्वभाव की है।"

'इसको मेरे स्वभाव के बारे में क्या पता ?' ऐसा सोच कर उसे हंसी आई।

सीढियों से चलने की आवाज आई। अरुणा उतर रही थी। हैंडलूम की साड़ी पहने गंभीर मुद्रा में बड़ी अच्छी लग रही थी। सुबह उसके चेहरे पर जो तनाव था वह अब नहीं है। नहाकर क्रीम और पाउडर लगाकर आई थी।

उसको आते देख शंकर उठकर खड़ा हुआ।

"हाय!" कहते हुए अरुणा पास में आई।

"हम चलते हैं दादी" बोलकर सरोजिनी को देखा। "अम्मा से कह देना। वह नहीं दिख रही है। मैं बाहर खाना खाऊंगी। पक्का आज सिनेमा चलेंगे। शाम का 'शो'”

“और कोई बात तो नहीं है ना?"

"कोई बात नहीं !"

अरुणा हंसते हुए सरोजिनी से हाथ मिलाकर शंकर के साथ बाहर निकल गई।

वे आपस में हंसते हुए अंग्रेजी में बात करते हुए गाड़ी के अंदर बैठे, उनको अंदर बैठे ही सरोजिनी ने देखा।

दो साल पहले ऐसे ही अरुणा और प्रभाकर जोड़ी से हंसते हुए जाने की बात उसे याद आई। बड़े घर से संबंध, खूब पढ़ा लिखा सब मालूम करके ही शादी की थी। पढ़ने वाले दिनों में अरुणा पढ़ाई पर ही ध्यान देती थी। वह किसी प्रेम-व्रेम  में नहीं फंसी। एम.ए. पूरा करने तक हम रुके रहेंगे ऐसा अम्मा-अप्पा ने कहा | नलिनी के पसंद किए हुए लड़के के लिए उसने हामी भरी। उसकी शादी बड़े धूम-धाम से की जो अभी तक सरोजिनी की आंखों के सामने फिल्म जैसे दिखाई देता है। कितनी सुंदर लग रही थी जोड़ी! मेरी ही तो नजर नहीं लग गई? यह लड़की पढ़ी-लिखी है। होशियार है खुशी से अपनी गृहस्थी चलाएगी मैंने सोचा। होशियार होने के कारण ही इसने ज्यादा तकलीफ पाई, अपमानित हुई आखिर में अलग होकर आ गई....

सरोजिनी उठी। नलिनी कही दिखाई नहीं दे रही है‌? अभी भी वह कोपगृह में होगी। 'उसे अपने आप ही शांत होने दो' इस तरह की बात सोचकर थकी हुई सी सरोजिनी बाहर के बरामदे में आई। बगीचे में काम कर रहे हैं वेल्लस्वामी "नमस्कार अम्मा" बोला।

"वेल्लेस्वामी उस बैंत की कुर्सी को थोड़ा नीम के पेड़ की छाया में डाल दोगे?" वह बोली‌ |

उसने तुरंत उठकर कुर्सी को छाया में डाल दिया। छाया में ठंडी-ठंडी हवा आ रही थी। आगे की तरफ तेज धूप थी। वह उस ठंडी सांस को अपने अंदर आराम से आंखें बंद कर खींच रही थी।

शादी होकर सिर्फ तीन महीने के अंदर उसका सपना मिट गया उसे पता चला। उसका चेहरा मुरझाया हुआ काला पड़ गया.... सरोजिनी को उसे देखते ही घबराहट हो गई थी। पहले किसी ने भी उससे कुछ भी नहीं कहा। सभी प्रश्नों को उन्होंने टाल दिया। अरुणा ने भी उसके प्रश्नों का टालमटोल जवाब दिया। "अच्छी हूं मैं दादी!" उसके बोलते समय ही बोलने दो ऐसा सोचकर मैं चुप रही | एक दिन इसी बरामदे में अपनी सोच में बैठी हुई थी तो उसके वहां होने से अनजान कार्तिकेय  बैठक में अपनी लड़की को हिदायत दे रहे थे।

"यह देखो अरुणा, थोड़ा सहन करो जल्दबाजी में कोई फैसला मत लो। प्रभाकर पढ़ा लिखा है, पैसे वाला है। अच्छी नौकरी में है। काफी रुपए होने से आदमी अपने रास्ते से भटक जाता है। तुम्हें ही उसे ठीक रास्ते पर लाने की कोशिश करनी है। तुरंत ही यह ठीक नहीं होगा करके छोड़ने का केस नहीं है?"

"अप्पा मुझमें इतनी सहनशक्ति नहीं है। उस आदमी का स्वभाव भी अच्छा नहीं है" अरुणा बोली।

"शादी हो कर तीन महीने ही हो रहे हैं इतनी जल्दी उसके स्वभाव का तुमने पता लगा लिया ?" 

"तीन दिन में ही मुझे पता चल गया। आपसे कुछ भी ना कह के मैं मुंह बंद करके रही वही बड़ी बात है। मैं क्यों कष्ट उठाऊं ? मैं इतनी बेकार हो गई क्या?"

"इतनी उतावली मत करो अरुणा। इतनी बेकार हो गई हो इसका ऐसा अर्थ नहीं है । अरे पति पत्नी के संबंध को इतने आराम से तोड़ के आना संभव नहीं। अभी तक अपने कुटुंब में ऐसा नहीं हुआ हैं । तुम्हारी दादी कितनी तकलीफ में भी मुंह को बंद करके रही थी इसीलिए यह परिवार अभी तक गर्व से सिर ऊंचा करके खड़ा है, एक अच्छे नाम…...."

"दादी का जमाना दूसरा था मेरा जमाना दूसरा है... मैं दादी जैसे रहूंगी आप उम्मीद कर रहे हैं क्या ?"

"दादी जैसे तुम रहोगी ऐसा मैं नहीं सोच रहा। मेरे अप्पा जैसा प्रभाकर निश्चित ही नहीं होगा। तुम्हें बोलने का अधिकार है। पीहर में आकर अपनी समस्या को बता रही हो। जब चाहती हो तो बाहर जाती हो। तुम्हारी दादी को इस में से कोई एक भी अधिकार उनके पास था तुम ऐसा सोचती हो ?"

"अप्पा आपका मेरी और दादी की तुलना करके देखना मूर्खता है। उनको अधिकार ना देने के कारण वे मुंह बंद करके रहीं। वे अभी मेरी उम्र में होती तो निश्चित रूप से मुंह बंद करके नहीं रहतीं...."

"उसके बारे में मुझे नहीं पता। तुम कुछ समय और सहन करके रहो। उसे अपने रास्ते पर लाने के लिए बदल कर देखो। कुछ औरतें कितना साहस दिखाती है ! पीना कोई बहुत बड़ी गलती है? प्राइवेट कंपनियों में तो काम करने वाले थोड़ा बहुत पीते ही हैं ‌। इन सब को नजरअंदाज करके रहना नहीं सीख सकती तो उसे अपने रास्ते में लाने की देखो।"

"यहां सिर्फ पीना ही नहीं है अप्पा । उसका सहवास भी गलत है ऐसा मेरा अनुमान है।"

"अनुमान के नाम पर अलग रह सकते हैं क्या ? अरुणा और कुछ दिन प्रयत्न करके देखो। प्रेम को उत्पन्न करने के लिए समय भी नहीं देने से उसे एक अपनत्व कैसे आएगा?"

अरुणा ने बहुत देर तक जवाब नहीं दिया।

"ओह इस बच्ची को इस तरह की तकलीफ है ?" ऐसा सोच सरोजिनी घबरा गई।

"थोड़ा सहन करके देखो अरुणा" कार्तिकेय हमदर्दी के साथ बोले। "दादी पुराने जमाने की बातों पर विश्वास करने वाली है। तुम इस तरह से अलग होकर आ रही हो उन्हें पता चले तो उन्हें सदमा लगेगा।"

"आपसे ज्यादा दादी मुझे अच्छी तरह समझेंगीं।"

"हो सकता है। परंतु उन्हें आघात लगे बिना नहीं रहेगा। कुछ समय और इसे संभालो देखते हैं। उसमें कोई बदलाव ना मालूम हो तो फिर कुछ सोचते हैं।"

इस बार और इसके अगले दो बार भी अरुणा ने संधि के लिए मानकर पति के घर वापस चली गई। तीसरी बार जाते समय सरोजिनी के कमरे में आकर उसके हाथों को पकड़कर बोली "मुझमें और सहनशक्ति नहीं है दादी! अब मैं सहन नहीं कर पा रही हूं। मैं कितना भी झुकु उनकी हेकड़ी और बढ़ती है! आत्मसम्मान भी कुछ है ना दादी ? किसी भी औरत से इतनी ज्यादा दोस्ती ! इसके ऊपर मुझ पर संदेह। किससे बात की, कहां गई थी...."

फिर अचानक हंसने लगी।

"मुझे कभी कुछ ऐसा भी लगता है दादी ? सचमुच में किसी के साथ भाग जाऊं तो क्या है!"

अरुणा निश्चित रूप से ऐसी बातों को अपनी मां से भी नहीं बोली होगी ऐसा अब सोचने पर मन में एक बात याद आ रही है।

'अरुणा आपके जैसे स्वभाव की है।'

शंकर के शब्दों की याद आते ही अचानक मन खुल गया।

अध्याय 5

पचास साल के बाद भी अंतर पता नहीं लग रहा है: सरोजा की आंखों में एक उत्सुकता के साथ पुराने दृश्य दिखे।

सरोजा हमेशा की तरह रसोई में थी।

इडली के आटे को सांचों में डालकर चूल्हे पर रखा और नारियल की चटनी पत्थर पर पीसना शुरू किया । उस दिन शुक्रवार था। उस दिन सुबह जल्दी सिर में तेल लगाकर सिर धोकर घुंघराले बाल उसके कंधे पर फैले हुए थे।

अगले आधे घंटे में सभी लोग सुबह के नाश्ते के लिए धड़ाधड़ आ जाएंगे। ननंद लक्ष्मी जिसकी उम्र शादी के लायक है, रसोई में मदद करने की उम्र में ही थी। परंतु वह नहीं आती। "शादी होने के बाद कहीं जाकर निश्चित रूप से काम करना ही पड़ेगा। जब तक यहां रहेगी उसे कोई काम करने की जरूरत नहीं। यहां काम करने के लिए आदमी नहीं है क्या...." एक बार सास ने ऐसी गर्जना की। जब थोड़ा नारियल घिसने के लिए लक्ष्मी को सरोजा ने कहा था तब वे बोली थी ।

सास जो कहती है वह सही है ऐसा सरोजिनी को भी लगा। सभी लड़कियों को शादी के बाद कोल्हू के बैल जैसे चलना चाहिए यही उनकी तकदीर में लिखा है तो शादी होने तक क्यों काम करें उस पर दया करना भी स्वाभाविक है। अब लक्ष्मी कभी कुछ करने को आए तो भी सरोजिनी उसे अधिकार के साथ मना कर देती है।

देवरों की शादी होएगी तो उनकी पत्नियों के आने के बाद मेरे काम में कुछ कमी आएगी ऐसा मैंने अपने आप में सोचा। 'नहीं तो मेरी बहू आने के बाद....'

अचानक उसका हाथ संकोच से रुक गया। कल रात को जंबूलिंगम आकर खड़ा हुआ उस घटना को सोचकर उसका चेहरा लाल हुआ।

अब हमेशा ही जंबूलिंगम का रात में देर से आना उसकी आदत हो गई। जब उसको नशा ज्यादा हो जाता है तो उसका दोस्त दिनकर साथ में आकर बिस्तर तक उनको पकड़ कर ला कर बिस्तर पर लेटा देता है,फिर क्षमा मांगने की आवाज में "जरा ज्यादा ही पी लिया" कहकर उसे देखे बिना ही उसका वापस चले जाना आदत सी हो गई।

कल ऐसे ही सोने के कमरे के पास आंगन में रात को बिना खाना खाए वह इंतजार कर रही थी। रात को 12:00 बजे घोड़ा गाड़ी आकर खड़ी हुई। जंबूलिंगम को पकड़कर दिनकर आए तो उसे लगा यह ही हमारे परिवार को बर्बाद कर रहा है ऐसा गुस्सा उसे आया । वह हमेशा की तरह दो शब्द बोलने के लिए मुंह खोलने लगा तो उसने अपने आप को जब्त ना कर पाने के कारण बीच में बोली "नहीं। जो मालूम है उसे आपको सफाई देने की जरूरत नहीं।"

दिनकर विस्मय से एक दृष्टि ड़ाल सिर झुका कर चला गया।

"इन्हें यह आदत डालकर आप अच्छे बनकर नाम कमा लें सोचते हो।"

वह हड़बड़ा कर उसे देखा। फिर अपने को संभालते हुए मुस्कुराया।

"मेरा और इसका कोई संबंध नहीं है। जंबूलिंगम इस आदत में कैसे गया यह जानना जरूरी नहीं। उसे ठीक करना जरूरी है। मैं जो कहता हूं वह सब उसकी समझ में नहीं आता। उसे ठीक करना आपके हाथ में है। वह पीकर पड़ा हुआ है ऐसा समाचार आते ही मेरा जाकर उसे लेकर आना ही मेरे लिए संभव है।"

इस पर विश्वास करना चाहिए या नहीं कुछ क्षण मौन खड़ी रही। वह उसे ही देखते हुए खड़े रहते देखकर कुछ संकोच से धीमी आवाज में बोली "मैं क्या बोल सकती हूं? पत्नी की बात सुनने वाला आदमी हो तब ना?"

वह जरा संकोच के साथ बोला "वह सुने इस तरह से बोलना आपके सामर्थ्य पर निर्भर है"

"कैसे?" डर कर वह बोली। "उनकी इच्छा के अनुसार ही चलती हूं। जो कहते हैं एक शब्द वापस नहीं बोलती, कोल्हू के बैल जैसे पूरे दिन काम करती हूं थकी...."

वह जल्दी से चुप हो गई। ज्यादा ना जानने वाले एक आदमी से कैसे इस तरह बात कर ली यह सोच कर उसे शर्म आई।

वह उस को किस नजर से देख रहे, दया या व्यंग्य उसे पता नहीं चला ।

वह अपने कंधों को झटका दे कर मुस्कुराया।ऐ

"आप कैसे करोगी पता नहीं। परंतु आपको ही करना है। क्योंकि उसकी यह आदत आपको ही परेशान करती है ।"

अगले ही क्षण वह वहां रुके बिना गाड़ी में बैठ कर रवाना हो गया।

वह दरवाजा बंद करके अंदर आ गई। जंबूलिंगम गहरी नींद में सोया था। उसकी बदबू दार सांस और नशे में चमकने वाले चेहरे से उसे नफरत हुई। उसके पास जाने में ही उसे शर्म आ रही थी।

'इसको ठीक करना आपके हाथ में ही है ।“

"हे भगवान इसे कैसे करूंगी?"

वह बात बहुत देर तक उसके दिमाग में घूमती रही-अचानक उस पराये आदमी ने उसे अपनत्व से देखा। भूख से पेट में चूहे कूदने लगे। उसे उठाकर खाना खिलाए सोच उठाने का प्रयत्न किया। वह लकड़ी जैसे पड़ा रहा। उसको एक तरह से आराम लगा। थके हुए इस शरीर को कुछ आराम मिलेगा सोच कर उसे शांति मिली। कभी-कभी इस समय पीकर लकड़ी जैसे गिरा पड़ा रहता है तो पड़े रहने दो ऐसा लगता है। उसकी सास ने कहा जैसे कुछ हुआ ही नहीं ऐसा सोचने से मुझे भी यह बात ठीक है ऐसा समाधान हुआ।

परंतु कितने दिन ऐसे चलेगा उसे अक्सर चिन्ता हो जाती है। उसे उसकी पत्नी होने का क्या फायदा है? इस साथ का क्या मतलब है?

'आपको ही इसे ठीक करना है। उसके पीने की आदत आपको भी परेशान करती है।"

ये शब्द उसके अंदर एक अजीब सी परेशानी पैदा करती हैं‌। शादी होकर इतने वर्षों इनके साथ रहने में उसमें रिश्ते में किस हद तक पकड़ है यह है उसे ही नहीं पता। एक बच्चा भी हुआ होता तो स्थिति दूसरी तरह की हो जाती ऐसा उसे महसूस होने लगा।

"कैसे करोगे मुझे नहीं पता। आपको ही ठीक करना है।"

"क्यों सरोजा, अभी तक नाश्ता नहीं बना?"

"बन गया अम्मा" कहती हुई जल्दी-जल्दी चटनी को बर्तन में निकालने लगी..

"भाभी, आपको भैया बुला रहे हैं?" लक्ष्मी बोली ।

यह क्या इस समय इस पसोपेश में सरोजा ने सास को देखा।

"जाकर पूछ कर जल्दी से आजा" चिड़चिड़ाते हुए सास बोली।

गीले हाथों को सिर से पोंछते हुई सरोजिनी लेटे हुए जंबूलिंगम के कमरे के अंदर गई।

कमरे के बाहर उसे देखते ही "दरवाजा बंद कर बाहर की आवाज से सिर में दर्द हो रहा है" जंबूलिंगम चीखा।

वह दरवाजे को बंद करके आई। पलंग के पास आकर, "तबीयत ठीक नहीं है क्या?"

"दूर खड़े होकर कैसे  पूछा ?" जोर से डांटा।

"सिर को दबाओ!"

पूजा की तैयारी करनी है डर के मारे सर दबाने लगी। कल ज्यादा पीने की वजह से आज सिर दर्द है सोचकर, उससे यह कैसे बोले सोच रही थी और मन में बोल कर देख रही थी।

अचानक उसने उसे खींच कर पलंग पर उठा लिया।

"अरे अभी क्या?" वह अचंभित होकर दूर जाने की कोशिश करने लगी तो उसके पीठ पर जोर से मुक्का मारा।

"बच्चे पैदा करने के लायक तो नहीं है तो कम से कम इसके लिए तो उपयोग में भी नहीं आनी चाहिए क्या?" उसको कारण भी पता ना चलने से उसकी आंखों में आंसू भर आए। जितने भी दिन थे सब अपमान में ही खराब हुए।

दस मिनट नरक की वेदना के बाद "लकड़ी है बराबर लकड़ी है।" ऐसे बड़बड़ाते हुए उसे छोड़ दिया। उसकी अतृप्ति पर ध्यान न देकर वह जल्दी से उठ कर अपने बालों को बांधकर चली गई ।

"अम्मा के लिए पूजा की तैयारी करनी है।" ऐसे बुदबुदाते हुए गई।

"नाश्ता करने आओगे ?” पूछा

उसने कोई जवाब नहीं दिया तो ना रुक कर दरवाजे को खोलकर फिर से बंद करके रसोई की तरफ भागी।

सब लोगों को नाश्ता दे रही सास एकदम से सर ऊपर करके बोली "क्यों इतनी देर?"

उसको एकदम से घबराहट हुई।

"उनके सिर में दर्द हो रहा था। दवाई लगाने के लिए बोला।" सास ने उस पर विश्वास नहीं किया उसे अच्छी तरह से पता था।

"यह देखो पूजा के कमरे में बिना दोबारा नहाए मत जाना" बोली। सरोजिनी का चेहरा लाल हो गया। लक्ष्मी के अजीब सी निगाह को देखकर।

कुछ बोले बिना कुएँ पर जाकर दोबारा नहा कर पूजा के कमरे में जाकर पूजा के सामानों को निकाल कर रखा। अंदर आई तो देखा जंबूलिंगम नाश्ता कर रहा था। अपने बेटे को मनुहार करके पास बैठकर सासु मां खिला रही थी ।

इसी रीति से ही दिन गुजर रहे थे। बिना किसी बदलाव के, जंबूलिंगम जब बिना नशे के सुबह के समय होता था तब उससे बात करने का समय ही नहीं मिलता। "आपका पीना मुझे पसंद नहीं। शरीर के लिए बुरा है: पैसों का भी नुकसान है।" ऐसे बोलने का उसने सोचा परंतु उसको समय नहीं मिला वक्त निकलता गया। नदी के पानी के साथ बहता हुआ कचरा जैसे, स्वयं भी बिना दिशा जाने हुए जा रही है ऐसा उसे भ्रम हुआ।

किसी शपथ के लिए आ रहा जैसे दिनकर का जंबूलिंगम को रात के समय लेकर आना जारी रहा। देखने से उसे उस पर दया आती।

"आपका तो यही काम हो गया" एक दिन बोली। एक दिन माफी मांगने के जैसे उसने कहा "मुझे उन्हें सुधारना नहीं आया मुझमें ही कोई दोष होगा।" वह बोली।

"आप में कोई दोष नहीं है।' वह बोला उसे घूर कर देखते हुए। "जंबूलिंगम एक मूर्ख है। अपने पास जो महंगी चीज है उसको महसूस नहीं करता।"

उसकी निगाहों में जो संकेत था उस पर उसने पहली बार ध्यान दिया।

अध्याय 6

"क्यों मां आज नहाना, पूजा ऐसा कुछ भी नहीं है क्या?"

दूसरी बार पास में आकर नलिनी को पूछने आई सरोजिनी ।

सामने खड़ी नलिनी के चेहरे पर चिंताओं की रेखाएं दिखाई दे रही थी।

"आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या?" उसने पूछा।

सरोजिनी हल्के मुस्कुराते हुए उठी।

"ऐसा कुछ नहीं है। तबीयत बिल्कुल ठीक है।"

"रोज इस समय तक नहाकर आप पूजा पूरी कर लेते हो!"

"उसके बाद रोज चुपचाप बैठी रहती। आज शुरू में ही बैठ गई: वही अंतर है ना कोई काम ना कुछ? कुछ नहीं। कुछ भी करो मेरे लिए एक जैसा ही है।"

"कभी भी कुछ करो, मुझे कुछ नहीं है" नलिनी बोली। फिर चलते हुए धीमी आवाज में बोली "पोती के बारे में सोच रहे होंगे आप "

सरोजिनी ने जवाब नहीं दिया। “दुखी होने के लिए इसमें क्या है।” 

"बिना दुखी हुए कैसे रह सकते हैं?" नलिनी अपने मन में कुछ सोचते हुए बोली ।

सरोजिनी एक क्षण चुप रही।

"वह कह रही है वह सच है। इसमें दुखी होने की जरूरत नहीं।"

"आपको मैं समझ नहीं सकी" निष्ठुरता से बोली।

"यह देखो। तलाक लेने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है ऐसी सोचने में ही साल भर निकल गया। डाइवोर्स मिलने के बाद किस बात का दुख? अभी तक यह ढका हुआ मामला था एकदम से उघड़ गया उससे तुम्हें संकोच हो रहा है।"

नलिनी कुछ देर चुप रही। फिर धीरे से बोली: संकोच तो होगा मेरी सहेलियों के घरों में उनकी लड़कियों के साथ ऐसा नहीं हुआ!"

"उसके लिए हम क्या कर सकते हैं? वह प्रभाकर इस तरह का आदमी होगा हमने सोचा था क्या?"

"वह अच्छा है, यही ठीक नहीं है ऐसी ही बात लोग कर रहे हैं!"

"हां, बोलेंगे" सरोजिनी सहन ना कर सकी । "यह ठीक; यह गलत बोलने के लिए किसमें योग्यता है? यह देखो नलिनी, अपनी लड़की पर हमें विश्वास नहीं है तो दुनिया भी विश्वास नहीं करेगी।"

फिर अपने स्वयं से बोल रही जैसे बोली:

"यह एक बेवकूफ दुनिया है।"

अपने कमरे के अंदर घुसने के पहले दोबारा खड़ी होकर नलिनी से बोली "मन को जो पसंद नहीं आ रहा हो उसके साथ रहना ही गलत है। उस समय मन, मन नहीं रहेगा, बंदर का खेल हो जाएगा। वह कुछ भी कर सकता है, क्या सही क्या गलत क्या ठीक उसे समझ में नहीं आएगा।"

नलिनी ने असमंजस में उन्हें दिखा।

"अभी इस शंकर के साथ घूमना ठीक है बोल रहे हो क्या?"

सरोजिनी को बड़ा अजीब लगा। "अरुणा एक बार धोखा खाई हुई है। वही समझ जाएगी क्या सही है क्या गलत है। उसकी अभी तक शादी नहीं हुई है ऐसा ही हमें सोचना चाहिए।"

“इसकी शादी टूटने का कारण ही वह है।“ 

"नहीं। उसके आने के पहले ही शादी टूट गई। तुमने ही ध्यान नहीं दिया।"

वह आगे वहां खड़ी ना रहकर अंदर चली गई।

'इसको मैं कुछ भी बोलूं समझ में नहीं आएगा।' वह स्वयं से बोली।

गीजर के नल को खोलने से गर्म पानी आया। शरीर के लिए वह बड़ा सुहा रहा था। "अब इस शरीर को आराम की आदत पड़ गई।" सोचते हुए उसे हंसी आई। जनवरी जैसे ठंड के महीने में भी सरोजिनी कुएं के पानी से नहाती थी। जबकि और लोग गर्म पानी से नहाते थे। वहां बड़े सारे भगोने में बाहर आंगन में चूल्हा जलाकर पानी गर्म होता रहता था। परंतु उसको तो सास के उठने से पहले नहाना पड़ता था तो फिर गर्म पानी कैसे तैयार होता?

अंधेरा दूर भी नहीं होता बाहर खड़े होकर दांत साफ करना पड़ता जल्दबाजी में सिर पर पानी डालकर पूजा के कमरे में भागकर जाकर पूजा की तैयारी करती बस अभी उसे सब पिक्चर जैसे दिखाई दे रहा है।

"उस समय मेरे बारे में किसी ने सोचा क्या? मेरी सुविधा-असुविधा के बारे में किसी को पता था? किसी ने एक शब्द भी पूछा?"

जल्दी से किसी ने पकड़ कर उसे हिलाया जैसे पानी ऊपर डालते समय उसका हाथ रुक गया। पुरानी यादें भयंकर रूप से उन्हें याद आ रही थी।

एक बार जंबूलिंगम को घर आने में बहुत देर हो गई। वह 1:00 बजे तक इंतजार करती रही फिर थकावट के कारण सोने के कमरे के पास ही चांदनी रात में नीचे लेट कर सो गई। सुबह आंख खुली तो वह बिस्तर पर सोई हुई थी और पास में जंबूलिंगम सोए हुए थे इसे उसने महसूस किया तो उसे आश्चर्य हुआ। घोड़ा-गाड़ी कब आई ये अंदर कब आए और मुझे किसने उठा कर ऊपर डाला यह सब मुझे कैसे महसूस नहीं हुआ और लकड़ी जैसे मैंने इन सब को महसूस कैसे नहीं किया उसको सोचते ही उसे शर्म आई।

रोज जैसे वह आंखें खोलते ही अपने मंगलसूत्र को आंखों में लगाया और उसके पैरों को छू कर बाहर आई तो उसे कुछ समाधान हुआ। उसे लगा पत्नी आंगन में सो रही है ऐसी प्रज्ञा थी तभी तो उसने उसे उठाकर पलंग पर डाला?

इस सोच ने उसके सारी नाड़ी और नसों में इस खुशी का तूफान सा आया । 

हमेशा से अधिक समय तक कुएं के पानी से नहा कर गीले साड़ी पहनकर बाहर आते समय कोई कुएं के पास खड़ा दिखाई दिया। उसे अजीब सा लगा। अभी अंधेरा पूरा गया नहीं। वह जल्दी से फिर कमरे में जाकर सूखी साड़ी को पहन कर बाहर आई।

कुएं के पास अपने चेहरे को धोता हुआ दिनकर खड़ा था। यह क्या कर रहा है सोचकर आश्चर्य से उसने देखा। वह अपने रुमाल से चेहरे को पोंछते हुए उसकी तरफ देख हल्का सा मुस्कुराया।

"कल रात को आते समय देर हो गई। बहुत थकावट होने के कारण यही सो गया। अच्छा मैं चलता हूं" बोला।

"आप कहां सोए थे? मैंने नहीं देखा" वह आश्चर्य से बोली। "बाहर आंगन में" दिनकर बोला।

उसका चेहरा लाल हो गया। अपने को संभालते हुए बोली "सोठ की कॉफी बना देती हूं पीकर जाइए" वह बोली।

"नहीं देर हो जाएगी" वह बोला फिर हिचकिचाते हुए उसे देखा।

"सर्दी के दिनों में खुली आंगन में चांद के चांदनी में लड़कियों का अकेला सोना ठीक नहीं। इतनी जल्दी उठ कर ठंडे पानी को सिर पर डालने से ठंड लग जाएगी!"

शर्म से उसकी आंखें लाल और गर्म हो गई। मुझे नहाते हुए इसने देखा होगा क्या ? ऐसे डर से उसका दिल धड़कने लगा। परेशानी से उसे देखा। उसकी निगाहों में एक हंसी, व्यंग्य और एक मित्रता दिखाई दी जिसे देख कर उसे कारण का पता ना चलते हुए भी हंसी आ गई।

"इस शरीर को जुकाम भी नहीं पकड़ेगा" कहकर वह हंसी तो एक बार उसने उसे ऊपर से नीचे तक देखा।

"बहुत लापरवाही मत करिए। आपकी तबीयत खराब हो जाए तो यहां आपको देखने वाला कोई नहीं है मुझे पता है।"

ऐसा कह कर जल्दी से बिना मुड़े वह पिछवाड़े से ही बाहर चला गया।

वह आश्चर्य के साथ रसोई के चौखट पर गई और उसी समय उसने काम शुरू कर दिया। उसके सामने खड़ा होना, उससे बात करना और उसको जवाब देना एक गलत काम है ऐसा उसके मन को बुरा लगने लगा। फिर भी उसका अपनत्व वाला भाव, दया वाली दृष्टि मन को एक आराम देने के साथ अच्छा भी लग रहा था।

वह अचानक हड़बड़ा कर अपने स्वयं की स्थिति में आ गई।

"मेरी बुद्धि खराब हो गई। इसी ने मुझे उठा कर छूकर कल पलंग पर डाला है। आज नहाते समय मुझे देखा होगा क्या? उसे मन में रखकर ही मुझसे आराम से बात कर रहा था क्या? मैं एक बेवकूफ हूं, यहां जो परेशानियां है वह कम है क्या?"

जल्दी-जल्दी उसके हाथ चलने लगे और दिमाग से सोचने भी लगी। आज समय मिलने पर जरूर पूछ लेना चाहिए। यह सब तुम्हारे लिए अच्छा है क्या पूछना है। शरीर, मान, रुपया सब कुछ जा रहा है। कोई भी आकर हमारे सोने के कमरे में घुसता है आप बिना होश में रहे आपकी तबीयत की वजह से आपकी पत्नी के शरीर को कोई छूएं आपको सही लगता है क्या पूछना पड़ेगा.....

उस दिन बिना आदत के दोपहर को खाना खाकर जंबूलिंगम घर पर ही था। वह खाना खा के रवाना होगा उस समय उसे अच्छी तरह से समझाऊँगी ऐसा उसने पक्का इरादा किया। उसकी सास उनके पास ही ना जाने देकर हमेशा की तरह स्वयं ने ही खाना परोसा। उसके बाद वे दोनों हाथ धोकर ही रवाना हो गए।

लंबी बैलगाड़ी में घुंघरू की आवाज सुनकर उसे पता चला। उनके साथ सास भी क्यों गई उसे पता नहीं चला। किसी घर में कोई मौत हो जाए या कोई काम हो तो दोनों साथ जाते हैं। परंतु कहां जा रहे हैं सास बोल कर जाती।

आज तो उसका होना भी याद नहीं जैसे चले जाना उसे दुखी किया।

"मैं इस घर में सब लोगों के लिए खाना बनाने, पति बुलाए तब उसके दीवानेपन की इच्छा की पूर्ति के लिए ही हूं।" उसका मन ऐसा सोच-सोच कर दुखी हुआ। आज रात को इसके बारे में भी पूछ लूंगी। शादी होकर दस साल हो रहे हैं। पीछे आंगन से बाहर के दरवाजे तक घर की पूरी जिम्मेदारी मैंने संभाली हुई है। एक दिन भी रसोई में ना हो तो घर ही हिल जाएगा। आपके चेहरे पर कोई बदलाव न आए सास के चेहरे पर कोई बदलाव न आए इस तरह से मैं हमेशा चलती हूं। आपकी पत्नी होने के कारण ही तो मैं यह सब कुछ खुशी से करती हूं? आपको ऐसा महसूस नहीं होता है क्या ?" ऐसा पूछना चाहिए।

उस दिन रात देर से आया। परंतु दिनकर नहीं आया। नशा भी ज्यादा नहीं था।

भूख और नींद की स्थिति में था।

"खाना खाओगे ?" सरोजिनी ने पूछा।

"नहीं खाना खा लिया।" वह बोला।

"थोड़ा जल्दी आ जाओ तो ठीक है?" वह बोली। "आपके लिए मैं भूखी इंतजार करती हूं।"

"फिक्र मत करो! अब तुम्हें मेरे लिए इंतजार करने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि इस काम के लिए एक दूसरी आने वाली है" वह व्यंग्य से बोला..."

नलिनी के आवाज को सुनकर सरोजिनी वर्तमान स्थिति में आई।

अध्याय 7

सरोजिनी स्वयं तैयार होकर अपने कमरे में अरुणा का इंतजार कर रही थी।

दोपहर का खाना खाकर थोड़ी सी नींद निकालने के बाद कॉफी पीने जब उठी तब अरुणा घर आ गई थी। उसका चेहरा थका हुआ होने पर भी वह उत्साहित थी।

उसे देखते ही "हेलो दादी" हंसते हुए बोली।

"मुझे अमेरिका की एंबेसी में नौकरी मिल गई।"

अरुणा उससे गले मिलकर हंसी।

"मैं भूली ही नहीं, टिकट लेकर आई हूं !"

"शंकर आ रहा है क्या ?"

"नहीं हम दोनों लोग ही हैं।"

अरुणा ने झुक कर दादी को मजाक से देखा।

"क्यों पूछ रही हो दादी ?"

"ऐसे ही पूछा। छोटे हो तुम दोनों जाते समय मैं क्यों आऊं !"

"यह दादी बहुत तेज है" ऐसा सोच एक नजर से अरुणा, दादी को देखकर हंसी।

"हम दोनों के जाते समय एक आदमी क्यों इसलिए शंकर नहीं आया।"

"होशियार लड़का है" कहकर सरोजिनी हंसी। "तुम जाकर थोड़ा नाश्ता करके तैयार हो। मैं भी तैयार होती हूं।"

"मुझे सिर्फ काफी ही चाहिए।" मुरूगन को आवाज देकर कुर्सी को खींच कर बैठ गई।

"अम्मा कहां है दादी ?" धीरे पूछी।

"पता नहीं। आज सहेलियों के घर में किट्टी पार्टी है लगता है...."

अरुणा को बकवास लगा।

"इस अम्मा को तो दूसरा कोई काम नहीं है। किट्टी पार्टी में चिटफंड से ही रुपए जमा करना है क्या ? यह पिछड़ा हुआ काम ही नहीं है। बहुत ही खतरनाक रिश्ता है यह।"

सरोजिनी बिना जवाब दिए कॉफी पी रही थी।

"एक-दूसरे की बातें ही यही होती है। अपने स्टेटस, अपने रुपयों के बारे में ढिंढोरा पीटने के लिए इस तरह की भीड़ जमा होती हैं।"

"आज नहीं जाऊंगी ऐसे ही पहले नलिनी बोल रही थी। बार-बार फोन आने की वजह से गई होगी" धीरे से सरोजिनी बोली।

"हां... आज जाने की इच्छा ना होने का कारण है ना" अरुणा बोली। "मेरे विषय के बारे में सभी लोग पूछेंगे उसका डर, संदेह और संकोच के कारण नाटक करने की उन्हें आदत सी पड़ गई।"

सरोजिनी ने उसके हाथ को धीरे से दबाया।

"लड़कियों के बारे में सोचे तो मुझे धोखा होता है दादी। साधारणत: सभी लोग औरतो को परेशान करने वाली समस्याओं को ठीक तरह से यथार्थ भाव से नहीं देखते क्यों पता है दादी ?"

सरोजिनी समर्थन में हंसी। "मालूम है बच्ची। लड़कियों को ही लड़कियों के ऊपर दया भाव नहीं है।"

"बिल्कुल ठीक बोला आपने" गुस्से से अरुणा आगे बोली।

"मैं बिल्कुल भी सहन न करने के कारण ही पति से अलग होकर आई हूँ ऐसा अम्मा और उनकी सहेलियां नहीं सोचेंगी। मुझमें ही कोई कमी है ऐसा ही वे आपस में बात करेंगी। हम सब एक साथ, अर्थात् लड़कियों का समुदाय अपने अंदर एक हीन भावना रखते हैं उसे दूर कर दूसरों की गलतियों को बताना बंद करना होगा और मिलकर रहे तभी हमारे लड़कियों का विमोचन होगा दादी। नहीं तो कभी विमोचन नहीं होगा। सिर्फ आदमियों को ही कहने से कोई दोष नहीं है।"

सरोजिनी सौम्यता से बोली “दूसरी लड़कियां तुम्हारे बारे में क्या सोच रही हैं वह मुख्य बात नहीं है बेटी। तुम्हारे अंदर कोई भी असमंजस नहीं रहना चाहिए। तुमने जो फैसला किया है वह सही है तुम असमंजस में नहीं हो ऐसा मुझे लगता है |" 

“मुझे किसी तरह का असमंजस नहीं है दादी।” सिर झुका कर अरुणा बोली।

"फिर बेकार में परेशान मत हो | तुम्हारे कमाने के बाद सब ठीक हो जाएगा। जीभ को मोड़कर बात करने वाले सब भूल जाऐंगे। जाकर अपने चेहरे को धो कर अच्छी तरह से ड्रेस करके आओ।"

जवाब में अरुणा हंसी तो उसमें एक अपनत्व का पता चला।

"चलो आप भी तैयार हो जाओ।"

सरोजिनी एक मुस्कान के साथ अपने कमरे में चली गई। "इस बच्ची को अपनी पुरानी जिंदगी को पूरी तरह से भूलना चाहिए," वह अपने आप में कहने लगी।

दिमाग व्यस्त रहेगा तो कमी का एहसास नहीं होगा। नहीं तो खाली दिमाग शैतान का घर हो जाता है ‌। वैसे शैतान कोई बन जाए तो मैं उसकी गलती नहीं मानूंगी। दूसरा रास्ता नहीं था ऐसा ही वह सोचती है ।

सिर्फ सुबह गर्म पानी के चूल्हे को जलाने, नाश्ता तैयार करने हैं, चटनी पीसने, खाने के लिए सब्जी काटने और उसे पकाने में शरीर ही काम में आता है और दिमाग का काम नहीं होता तो भी जो हो रहा है उसका मौन हिसाब रखता ही रहेगा। यह मौन हिसाब जब विश्वरूप धारण कर शैतान में परिवर्तित हो जाता है तो जब उस पर कोई ध्यान नहीं देता। तब वह शैतान सहन न कर सकने के कारण वह ढीठ हो जाता हैं उसे देख सभी लोग घबरा जाएंगे...

बाहर जाने को तैयार हो खिड़की के पास एक कुर्सी पर बैठकर सरोजिनी को हंसी आई।

दूसरी तरफ मौन होकर सिर झुका कर खड़ी सरोजिनी नजर आई।

अंदर जंबूलिंगम नई पत्नी के साथ मस्ती कर रहा था। उसका नाम रत्नम है जो सरोजिनी को पसंद नहीं। कोई नाचने वाली जैसे नाम है । कोई सुंदर जैसे भी नहीं है। सिर्फ उसकी छाती बहुत बड़ी दो नारियल रखे हुए जैसे भारी हैं। यही जंबूलिंगम के नजर में आया होगा ऐसा सरोजिनी नफरत के साथ सोची। रत्नम की तकदीर से जंबूलिंगम अब घर पर देर से नहीं आता। घर में जब भी होता है कमरे को बंद करके नई पत्नी के साथ ही रहता है । रत्नम को इन सब की जरूरत है ऐसा सरोजिनी ने सोचा। दूसरे दिन सरोजिनी को जो थकावट होती थी वह उसमें दिखाई नहीं दे रही है। यह बिल्कुल राक्षस किंगर वंश की है ऐसा सरोजिनी को लगता था।

"एक लड़का पैदा करके दे दो ऐसे नई बहू के सामने मैंने एक शर्त रख दी " ऐसा मेरी सास अपनी सहेलियों से बोलकर हंसती थी। सरोजिनी मौन होकर अपने कामों में लगी रहती थी। वंश को एक वारिस देने की जिम्मेदारी होने की वजह से नई बहू को रसोई में काम करने के लिए नहीं भेजते क्योंकि वह थक न जाए इस बात का मां-बेटा दोनों बहुत ध्यान रखते थे। कई गाड़ियों में भरकर इसका दहेज भी आया यह भी एक कारण होगा ऐसा सरोजिनी ने सोचा।

सरोजिनी जल्दी-जल्दी से रसोई के कामों में लगी हुई थी। एक और नारियल को घिसने पर ही चटनी के लिए पूरा पड़ेगा।

नारियल को तोड़कर जैसे ही गर्दन को ऊंची की तो जंबूलिंगम दरवाजे पर खड़े दिखाई दिए।

उसको कारण समझ में नहीं आने से दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसे आमने-सामने देखे ही कई दिन हो गए थे। रत्नम के आने के बाद नीले रंग के वेलवेट के गद्दे को उसने छुआ भी नहीं वह उसका नहीं था। बच्चे बड़े हॉल में लाइन से सोते थे उनके साथ ही उसे जमीन पर सोना होता था। क्यों यह बात बच्चों ने भी कभी नहीं पूछा। यह भी एक मजाक है । यहां पर बड़ी शांति है। पीट दिया जैसे अच्छी नींद आती है। जंबूलिंगम के आने का इंतजार की भी जरूरत नहीं होने से टाइम से खाने का काम खत्म हो जाता है। फिर भी उसके साथ धोखा हुआ और अपमान किया जैसे उसके मन के अंदर एक भूत सवार हो गया था।

जंबूलिंगम के जरी वाले धोती के नीचे काले पैरों को देखते हुए वह खड़ी रही।

"इधर आ मैं आकर खड़ा हुआ हूं दिखाई नहीं दे रहा?" उसने गर्जना की। "रत्ना के कमर में बहुत दर्द हो रहा है उसे अरंडी का तेल लगाकर मालिश कर दे और गर्म पानी डालकर उसे नहलाओ ...."

आश्चर्य और अपमान से उसका चेहरा लाल हुआ।

"यहां बहुत काम है" वह बड़बड़ाई। "बच्चे नाश्ते के लिए आ जाएंगे। मरगथम को भेजती हूं।" किसी तरह बोली।

वह गुस्से में आकर उसके गाल पर एक चांटा मारा।

"कामवाली को बुलाने के लिए मुझे पता नहीं है ? वह बाथरूम में हैं जल्दी से जाओ। काम का कुछ भी होने दो।

रत्नम को कोई भी शर्म है ऐसा नहीं लगा। एक स्टूल पर बिल्कुल नंगी बैठी हुई थी। इसके कमर में कुछ नहीं हुआ उसके समझ में आया। अपने महत्व को बताना और मुझे समझाने के लिए ही यह नाटक है ऐसा मुझे लगा। उसे तेज गुस्सा आया। चूल्हे पर गर्म पानी बहुत देर से गर्म हो रहा था उस चूल्हे की लकड़ी को उठाकर इसके छाती पर दे मारूँ ऐसे उसके मन में एक भूत सवार हुआ।

"चलें दादी ?"

सरोजिनी धीरे से अपने स्थिति में लौटी।

"क्यों दादी आपका चेहरा क्यों लाल हो रहा है ? आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या? अरुणा बोली।  

अध्याय 8

अरुणा आराम से गाड़ी चला रही थी। सरोजिनी बाहर देखती हुई अपने विचारों में डूबी हुई बैठी थी।

"क्यों दादी, गहरी सोच में हो?" धीरे से मुस्कुराते हुए पूछा।

"अरे अब मुझे क्या सोचना है!" साधारण ढंग से सरोजिनी बोली।

"क्यों नहीं सोचना चाहिए? क्या काम है आपके पास?"

"वो ठीक है!" कहकर सरोजिनी हंसी। "मेरी सभी यादों को सोच नहीं कह सकते। कुछ खास काम किए हुए लोगों को सोचना चाहिए। मेरी सारी सोच एक सपने जैसी है। जो बिना अर्थ, बेमतलब की ।"

अरुणा हंसी।

"वह बिना अर्थ बेमतलब की सोच क्या है वही बता दीजिए!"

सरोजिनी के होंठों पर हंसी थी। परंतु उनकी आंखें दूर की बात को ढूंढ रही थी।

"वे सब कहने लायक यादें नहीं है । कुछ बिखरे हुए टुकडों-टुकडों में, सिनेमा के सीन जैसे याद आते है..."

थोड़ी देर अरुणा बिना बात किए गाड़ी को चला रही थी। उसके मौंन में एक सहानुभूति है ऐसा लग रहा था ऐसा सरोजिनी को लगा। किसके लिए इसे सहानुभूति सोच कर उसे हंसी आई।

"पुरानी बातों को सोचकर अभी आपको कैसा लगता है दादी? गुस्सा आता है या दुख होता है?"

सरोजिनी ने अपने होठों को पिचकाया।

"कुछ भी नहीं होता है। कोई दूसरी औरत की पिक्चर देख रहे हैं जैसे लगता है।"

"आप कैसे चुपचाप रहे दादी?" थोड़ी देर बाद अरुणा बोली।

"किसलिए?"

"दादा जी ने जो अन्याय किया था ?"

सरोजिनी धीमी आवाज में बोली।

"दूसरा कोई भी उपाय नहीं था बच्ची‌। उस समय बात करो तो पीठ पर मार पड़ती। खाना नहीं मिलेगा। नहीं तो अपने पीहर भेज देंगे। पीहर लौट के जाओ, भाभियों की गालियां सुनो दुनिया के लोग 'वारावेट्टी' (तमिल का शब्द जो औरत ससुराल में न रहकर पीहर में रहती है उसके लिए यह गाली जैसी प्रयुक्त में आता है) उसे समाज से अलग समझा जाता है। भले ही पति की गालियां और मार खाकर यही रहें ऐसा सोचने लगती हैं।"

"कितना ही अपमानित हो.."

सरोजिनी, दूर पीछे देखती हुई। "जोर से दबा कर मालिश कर बांझ, गधी हो इसके अलावा क्या काम है?" जंबूलिंगम की डांट और उसका बेशर्माई से शरीर को दिखाते हुए बैठे रहना और उसका व्यंगात्मक हंसी...

"कितना भी अपमान हो..."टूटे हुए शब्दों में बोली....

"अच्छा हुआ मैं 50 साल बाद पैदा हुई दादी!" कहकर अरुणा हंसी।

सरोजिनी कुछ नहीं बोली। थिएटर आ गया। गाड़ी को रोक के ताला लगाकर अरुणा सरोजिनी के हाथ को पकड़ कर चली।

सरोजिनी बड़ी दिलचस्पी से भीड़ को देखते हुए चली। अपने जैसा भाषा जाने बिना पिक्चर देखने कोई आया है क्या सोच कर उसे हंसी आई।

"भाषा न जानने वाले भी आते हैं" अरुणा बोली "कोई अंग्रेजी पिक्चर हो तो कोई मजेदार सीन होगा ऐसा सोच कर लोग आते हैं।"

उनके जाकर बैठते ही विज्ञापन शुरू हो गया। पिक्चर के शुरू होते ही उसके बारे में अरुणा ने बीच-बीच में उन्हें बताया। इससे दूसरों को परेशानी होगी सोच वह चुप हो गई। सरोजिनी को कुछ भी जानने की जरूरत नहीं थी पात्रों के चेहरे के भावों से ही कहानी को समझ सकी। एक स्त्री का मन न लगने के कारण दूसरे पुरुष से अपना शारीरिक संबंध बनाने के बारे में कहानी चल रही थी। पति उसे जानकर भी बिना कुछ बोले चुप रहता है ऐसा लग रहा है।

इंटरवल में अरुणा उसे देखकर हंसी।

"यह सब विदेशों में ही होता है। यहां पर आदमी कुछ भी कर सकता है। औरतें दूसरे पुरुष से साधारण ढंग से बात करें तो भी उसे चरित्रहीन बोलेंगे।"

"इस सिनेमा में पुरुष अच्छा ही तो दिखाई दे रहा है। वह महिला फिर क्यों दूसरे के पास जाती है ?"

अरुणा हंसते हुए धीमी आवाज में बोली "उससे उसे तृप्ति नहीं हुई होगी।"

सरोजिनी का चेहरा भी शर्म से लाल हुआ। पता नहीं कौन-कौन से विचार उसको बचाने वाले के द्वारा आए ।

अचानक अरुणा करडी हो गई सरोजिनी को लगा। कुर्सी से हाथों को जोर से पकड़ कर अपने को खींचा। वह जहां देख रही थी उसी तरफ सरोजिनी ने देखा।

प्रभाकर एक लड़की के कंधे को थामें हुए बैठा था।

'यह लड़की ऐसी क्यों उतावली हो रही है' सरोजिनी को दुख हुआ। उससे अपना संबंध अलग कर आने के बाद उसे कुछ भी करने दो हमें क्या करना ऐसे ही सोचना चाहिए ना?

फिर से फिल्म शुरू हो गई उसके बाद अरुणा का ध्यान पिक्चर में नहीं था इसे सरोजिनी ने महसूस किया। नौकरी लग जाने के बाद या विदेश जाने के बाद ही इसके मन में एक शांति आएगी ऐसा सरोजिनी ने सोचा।

फिल्म अजीब ढंग से दौड़ रही थी, आखिर में वह लड़की, ना पति की रही ना प्रेमी की कहीं अकेले चली गई।

फिल्म खत्म हुई तो थिएटर में एकदम से रोशनी हो गई। "भीड़ को जाने दो। हम आराम से जाएंगे दादी" अरुणा बोली।

प्रभाकर और उस लड़की के बाहर चले जाने के बाद अरुणा उठी। 'नलिनी के संकोच में और इसके संकोच में ज्यादा अंतर नहीं है।' ऐसा सोचकर सरोजिनी को दुख हुआ। इससे तो मैं ही अच्छी हूं यह सोच उसे हंसी आई।

मौन के साथ दोनों चलकर कार में बैठे। थोड़ी देर गाड़ी चलाने के बाद अचानक याद आया जैसे उनकी तरफ मुड़कर, "फिल्म अच्छी लगी दादी?" अरुणा ने पूछा।

"समझ में नहीं आने से पसंद आई। तुमने तो आधी फिल्म देखी ही नहीं ऐसा मैं सोचती हूं।"

"देखी दादी !" कमजोर आवाज में अरुणा बोली ।

थोड़ी देर मौन रहने के बाद सरोजिनी बोली "उससे रिश्ता तोड़कर आने के बाद भी उसे देखकर परेशान क्यों होती हो?"

"आपकी आंखें बहुत ही सूक्ष्म है दादी!" कुछ ठरकाते हुई सी अरुणा बोली ।

"परेशानी तो होती है दादी, क्यों पता नहीं। उसने मेरा जो अपमान किया वह सब याद आ जाता है।"

"उसे सहन नहीं कर सकते इसीलिए तो तुम अलग हुई! अब तुम्हें सिर ऊंचा करके चलना चाहिए अरुणा!"

"सिर तो मैंने ऊंचा किया हुआ है दादी। इस बारे में आपको संदेह करने की जरूरत नहीं। उसे देखते ही पुरानी बातें याद आ जाती है। एक आदमी का एक लड़की से घिनोने ढंग से व्यवहार करने का अधिकार किसने उसे दिया ऐसा सोच कर गुस्सा आता है। उसके घमंड को समाज स्वीकार करता है उस पर मुझे गुस्सा आ रहा है।"

"सब आदमी ऐसे नहीं है अरुणा। तुम्हारी अम्मा को देखो। वह तुम्हारे गुस्से के बारे में समझ नहीं सकेगी।"

"हां.... अप्पा अलग तरीके के हैं। आश्चर्य होता है दादी। दादा ने आपको भयंकर रूप से सताया हैं। अप्पा का उन पर ना जाना एक आश्चर्य की बात है।"

सरोजिनी जवाब ना देकर बाहर देखती रही।

"दादा आपको कैसे-कैसे अपमानित करते थे उसे देख-देख कर अप्पा उनके ठीक विपरीत बदल गए है ना दादी?"

"हो सकता है!" सरोजिनी मुस्कुराते हुए बोली।

"आपके जमाने में ऐसे ही रहना चाहिए ऐसे एक सोच के कारण ही आदमी लोग ऐसा करते थे। आपने भी मुंह बंद करके उसका समर्थन किया, पढ़ाई तो थी नहीं इसलिए। पढ़ाई करके बदले हुए इस जमाने में लड़कियों का इस तरह सहन करना संभव है?"

सरोजिनी सहानुभूति के साथ उसके हाथ को दबाया। "अप्पा-अम्मा बोल रहें थे इसलिए मैंने भी बहुत सहन करके देखा । एक दिन भी समय पर घर नहीं आया। आता तो भी कोई न कोई लड़कियों को लेकर आता मेरे सामने ही उससे प्रेम लड़ाता। इसके स्वभाव को जानकर उसके दोस्त मुझसे सहानुभूति से बात करें तो उसे संदेह होता! और मेरा उनसे रिश्ता है ऐसा कहता! कैसी उल्टी गंगा ?"

कितनी बार इसे कहकर परेशान होगी इस पश्चाताप से सरोजिनी ने धीरे से पूछा।

"यह कहानी तो मुझे पता है। जो मालूम नहीं है वह पूछ रही हूं। उस शंकर से तुमको सचमुच में घनिष्ठता थी क्या? अभी भी है?"

"प्रभाकर सोचता था वैसा नहीं" अरुणा गुस्से से बोली। "अभी भी नहीं है। परंतु दादी, प्रभाकर उस तरह संदेह करके मुझे अपमानित करता तो मुझे लगता ऐसा एक रिश्ता सचमुच में कर लूं गुस्सा आता। वही आगे भी रहती तो शायद कर भी लेती।"

सरोजिनी का दिल हल्का सा कांपा। मन की खिड़कियां खडकने लगी।

अध्याय 9

मन में उबलता हुआ गुस्सा चावल को फटकारते समय हाथों की उंगलियों के किनारों में कंपन हुआ। मन के अंदर "ओ" ऐसा एक अहंकार आवाज देने लगी। थोड़ी दूर पर बैठकर चौपड़ खेल रही लक्ष्मी मुझे ही देख रही थी यह महसूस होते ही उसने अपने को संभाला।

लक्ष्मी की शादी होकर वह पोंगल के लिए पीहर आई हुई थी। घर में बड़ा भाई और नई भाभी ने जो तूफान और अन्याय खड़ा किया हुआ था | उसे और लोगों के साथ वह भी प्रेम से देख रही थी । किसी एक को भी मुझ पर हमदर्दी नहीं होगी? यह कितने एहसान फरामोश लोग हैं? मुंह बंद करके रहो तो बिना जबान की है ऐसे सोच कर इसको ऐसा ही रखना है ऐसे सबके मन में आ गया क्या?

पोंगल के लिए सिर्फ एक हफ्ता ही है। अभी बहुत सा काम है। मरगदम और उसका पति पोन्नयन के अलावा घर में रहने वाले कोई भी लोग उसकी मदद नहीं करतें। सासू मां का तो सबको आदेश देने का काम ही होता है।

सरोजिनी की रसोई और बाहर के काम के कारण कमर टूट जाती है । इसके बीच उसे रत्नम की सेवा-सुश्रुषा भी करनी पड़ती है।

"उसको गैस की तकलीफ है शायद उसे पीपली का रसम बना कर दो" ऐसा उसके लिए सास मनुहार करती थी ।

अपने अंदर उठे क्रोध को वह अपने आंसुओं के साथ पी लेती। सास की बात की अवहेलना करो तो वह सबके सामने अपमानित करेगी इसलिए खूब मिर्ची डालकर रसम बनाकर चावलों को फटकाने के लिए बैठ गई थी।

ऊपर-नीचे चावलों के आने के बीच में काली आकृति बड़ी-बड़ी छातियों के साथ और व्यंगात्मक आंखें जम्बूलिंगम के अहंकार की कल्पना चढ़-उतर रही थी। यदि इसने एक लड़के को पैदा करके दे दिया फिर तो यह महारानी बन जाएगी और मुझे इस घर में जो मर्यादा मिल रही है वह भी नहीं मिलेगी।

उसके अंदर से दुख उमड़ा। फिर तो जच्चा को तेल लगाकर नहलाने उसके बच्चे को देखना सब काम मेरे सिर पर ही आ जाएगा! वह इस सोच में डूबी।

ऐसी भयंकर कल्पना में वह मग्न हो गई थी। वह उसमें ही डूब गई। "तुमने क्या उसे दवाई पिला दी‌" रत्नम से लड़ाई की। "आदमी के साथ सोने के लिए तुम एक बेशर्म औरत हो" उसने उसे श्राप दिया। "धत तेरी की बेशर्म लोग हैं" उसे उनके ऊपर थूकने की इच्छा हुई।

"पोंगल के लिए सब लोग कपड़े पसंद कर रहे हैं। आप नहीं जा रही हो क्या ?"

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ उसने सिर ऊपर कर देखा । सामने हल्के मुस्कान के साथ दिनकर खड़ा था। यह कहां से आया? आंगन में उसके सिवाय और कोई नहीं था।

"दुकान से बहुत सारे कपड़े लेकर आए हैं। सब लोग अपने लिए चुन रहें हैं।" उसने स्पष्ट किया | "आप नहीं गई ?"

उसकी आवाज बड़ी नम्र थी। उसके देखने से उसका शरीर पुलकित हुआ और वह घबराई।

घुटने के ऊपर हो गई साड़ी को ठीक करके कांपते हुए आवाज में बोली "मुझे किसी ने बताया भी नहीं। किसी ने देखने के लिए बुलाया भी नहीं।"

एक क्षण चुप रहने के बाद वह नम्रता से बोला। "मैं आपको बुला रहा हूं ना?"

वह छ: महीने के बाद अचानक आकर आज बहुत अधिकार के साथ बात करने से उसे संकोच हुआ। अचानक सीधी होकर "तुम इस घर के कौन हो?" ऐसी एक नजर उस पर डालकर अपने सर को नीचा कर लिया।

"जंबूलिंगम ने बोलने के लिए कहा।"

उसने आश्चर्य से उसे सिर उठाकर देखा। यह यहाँ आकर बहस क्यों कर रहा है? इसका कहना सच होगा क्या?

"मुझे काम है" सिर झुकाए हुए वह बोली। उनको जो अच्छा लगे उसे लेने दो। रसोई में रहने वाली कोई भी हो क्या फर्क पड़ता हैं ?"

"रसोई में रहो तो भी लाल रंग अच्छा रहेगा।"

उसने घबराते हुए सिर उठाकर उसे देखा तो वह जल्दी से जा रहा था।

अचानक उसका दुख, सहन-शक्ति से बाहर होकर आंसुओं में तब्दील हो गया। मैं कितनी असहाय और बेकार हो गई उसके मन में प्रलाप होने लगा। "इस घर में मेरा कोई सम्मान नहीं है इस कारण ही यह ऐसा कह रहा है।" उसके शरीर में सिहरन हुई।

घर के बैठक में बहुत चहल-पहल थी। उससे अपना कोई संबंध नहीं है ऐसे एक विषाद में वह जल्दी-जल्दी से चावल को फटकारने लगी और चावल को बोरी में भरकर उसे बांधकर रखा। आंगन को साफ करके रसोई की तरफ गई।

खोलते हुए पानी में चावल को धोकर डालते समय पुराने शब्द उसे याद आए।

"जम्बूलिंगम एक बेवकूफ है ! अपने पास जो हीरा है उसके बारे में उसे पता नहीं।"

स्वयं के पश्चाताप में उसकी आंखों में आंसू भर आए। अपने आदमी को कोई बेवकूफ कहें ऐसी परिस्थिति आई इस पर उसे गुस्सा आया।

मुझसे रत्ना किस बात में अच्छी है ऐसा सोचकर उसे गुस्सा आया। उसके मदमस्त शरीर को देखकर यह बच्चा पैदा करके देगी ऐसी एक आशा से उसे लेकर आए हैं। जो काम मुझसे नहीं हुआ वह उसे करने आई है। इस मामले में वह मुझसे महान है। दूसरों की आंखों में, मैं कैसे भी लगूं तो उससे क्या फर्क पड़ा ?

"भाभी!" लक्ष्मी की आवाज सुन वह मुडी।

लक्ष्मी के हाथ में दो प्योर सिल्क की साड़ियां थी। एक लाल दूसरी नीली।

"इसमें से आपको जो पसंद हो उसे आप रख लो ऐसा बोला है" वह बोली।

सरोजिनी को आश्चर्य हुआ। उसकी इच्छा को आज तक किसी ने भी नहीं पूछा। उसका मन एकदम से हल्का हुआ। उसके होठों पर एक मुस्कान भी खिली। कुछ सोचते हुए उसकी आंखें थोड़ी नम भी हुई।

"लाल अच्छी है" वह बोली ।".

"रत्नम भाभी ने नीला लिया है।"

"मेरे लिए लाल रहने दो" वह तपाक से बोली।

"आपकी मर्जी" कहकर चली गई।

त्यौहार के दिन पिछवाड़े आंगन से लेकर बाहर तक घर को त्यौहार के लिए चमकाया हुआ था। उस कोलाहल में सरोजिनी अपने स्वयं की पसंद और नफरत सब भूल गई थी। इस बार तुम दोनों को मिलकर पोंगल बनाना है।" रत्नम और उसको देखकर उसकी सास ने कहा। भोगी (पोंगल के पहले दिन का त्यौहार) त्यौहार के दिन और दिनों से जल्दी उठकर, मरगथम को जगा कर, गर्म पानी का चूल्हा जलाने के लिए बोल कर, स्वयं कुएं के नीचे ठंड में सरोजिनी ठंडे पानी से नहा कर आई। पूजा के कमरे में दीपक जलाकर आते समय सास दिखी।

"रत्नम उठी नहीं क्या ?"पूछा ।

"मैंने नहीं देखा" बिना सिर ऊपर किए अपने काम की तरफ ध्यान दे रही थी।

"इतनी देर सोएगी त्यौहार के दिन ?" ऐसे भुनभुनाते हुए अंदर की तरफ गई।

थोड़ी देर बाद कठोर सा मुंह बनाकर वापस आई।

"सुबह होते ही वह कोने में बैठ गई। तुम्हें ही हमेशा की तरह सब कुछ करना है।"

सरोजिनी को बिना बात की एक खुशी और तृप्ति मिली।

"ठीक है" उसने जवाब दिया।

एक नई उत्साह से उसने बाहर से लेकर पिछवाड़े तक रंगोली बनाई। हंसमुख चेहरे के साथ त्योहार के सारे व्यंजन बनाए । आज सास भी उसके साथ आराम से अच्छी तरह व्यवहार कर रही थी।

दूसरे दिन पोंगल बनाने के लिए पिछवाड़े में बड़े सारे चूल्हे के ऊपर उसने और जंबूलिंगम दोनों ने पूजा कर पोंगल के लिए बर्तन को चढ़ाया। उस दिन सरोजिनी ने अपना श्रृंगार अच्छी तरह से किया। सिर पर फूल लगाया और आंखों में काजल लगाया। लाल साड़ी को पहनने से उसमें एक नई आभा आ रही थी जिसे उसने स्वयं महसूस किया। आधी पूजा के समय ही दिनकर आया उसने देखा। बीच में जब उसकी नजर मिली तब उसके आंखों में हमेशा की तरह मित्रता का भाव है उसकी समझ में नहीं आया। उसे एक अजीब सा डर लगा। यह दो दिन और तेरे लिए है यह समझे बिना खेल रही हो ऐसा वह बोल रहा है उसे लगा।

कुछ नया हुआ है जैसे उसे लगा। आज यदि रत्नम इस पूजा में शामिल होने की स्थिति में होती तो आज मेरी कौन परवाह करता उसे आज पहली बार ऐसा लगा। रसोई से बाहर आने का भी आज उसे समय नहीं मिला होता...

"छी.... मैं भी कितनी बेशर्म हूं" अपने आप को दोष देने लगी। यह सब कोलाहल सुबह से मेरे मन अंदर उफनता हुआ उत्साह का कोई अर्थ नहीं है बेकार है उसे लगा।

उस दिन हॉल में बहुत भीड़ होने के कारण रात को वह सामान वाले जगह में ही सोई‌। नींद ना आने से करवटें बदल रही थी तो किसी ने उसे जगाया। तो वह चिल्ला कर उठ बैठी। खिड़की में से आ रही चांद की रोशनी में जंबूलिंगम आया हुआ है उसे पता चला।

"आ मेरे साथ सोने चल" बोला |

अचानक अपमान की एक ज्वाला उसके नाभि में से उठी उसे महसूस हुआ। आज तक वह जो फैसला न कर पाई आज अचानक, "पास मत आना" चिल्लाई।

"शर्म नहीं आई आपको, दो दिन के लिए मुझे ढूंढ कर आने की ?"

"ठीक है री, मैं तुम्हारा ही पति हूं याद है ना ? मैं जब बुलाऊं तो तुम्हें आना पड़ेगा।"

"नहीं आऊंगी" उसने जोर देकर बोला।

"उसके लिए दूसरे को देखो।"

उसके बाद वह एकदम से उसे नज़र अंदाज़ कर हॉल में बच्चों के बीच में जाकर लेट गई।

अध्याय 10

कार्तिकेय और नलिनी इसी बात पर वाद-विवाद कर रहे थे। उसमें मुझे शामिल नहीं होना है ऐसा सोचकर सरोजिनी मौन रही।

"अरुणा के बारे में हमेशा कुछ न कुछ बोलते रहना तुम्हें बंद करना पड़ेगा" कार्तिकेय ने कहां। "उसकी उम्र हो गई है। वह एक अलग औरत है इस बात को ही तुम भूल जाती हो।"

"यह देखिए, इस भीड़ में रहते समय कोई अलग औरत या पुरुष नहीं हो सकता। भीड़ हमारे बारे में क्या सोचती है उसके बारे में डरते रहना चाहिए।"

"अभी क्या करना है कह रही हो ?" 

नलिनी सिर झुका कर भुनभुनाने लगी।

"उस शंकर के साथ घूमना बंद करने को बोलो, मैं कुछ बोलूं तो उल्टा सीधा जवाब देती है।"

"तुम ही उल्टी-सीधी बात करती हो नलिनी!" कार्तिकेय गुस्से से बोले। मन में तकलीफ पा रही लड़की से सहानुभूति दिखाने के बदले दुनिया क्या बोलेगी इस बारे में फिक्र करती रहती हो।"

कार्तिकेय वहाँ खड़े ना होकर सीधे ऊपर चले गए। सरोजिनी को दुख हुआ।

उसने जहां तक देखा कार्तिकेय और नलिनी के बीच कभी कोई मतभेद नहीं होता था। आज तक कोई भी वादविवाद उसके कानों तक नहीं आया। अभी नलिनी बिना मतलब का भ्रम पालकर कार्तिकेय को एक संकट में डाल रही है यह देख उसे दुख हुआ।

शंकर और अरुणा सिर्फ मित्र हैं, दोनों में और कोई संबंध नहीं है कहें तो वह विश्वास करेगी क्या।

नलिनी बिना आवाज के रो रही थी। सरोजिनी धीरे से उठ कर उसके पास गई। उसके कंधे पर हाथ रख कर, "यह देखो, मैं तुझसे बड़ी हूं इस हक से कह रही हूं। कुछ दिन अपनी सहेलियों से मिलना और अपने किटी पार्टी में जाना बंद कर दो। हर बार तुम्हारे वहां जाकर आने के बाद तुम बहुत ही परेशान रहती हो।"

फिर से नलिनी की आंखों से आंसू गिरने लगे। "सहेलियों के पास जाना अचानक कैसे छोड़ दूं?"

"तुम्हारी लड़की के बारे में तुम्हारे सामने ही तुम्हारे मन को दुखाने जैसी बात करने वालों को तुम अपनी सहेली कहकर कैसे विश्वास करती हो ?"

थोड़ी देर नलिनी कुछ नहीं बोली। फिर धीमी आवाज में बोली "सहेलियां ही हमें अच्छाई और बुराई बताती हैं।"

सरोजिनी को हंसी आ गई। "फिर मैं और कार्तिकेय तुम्हारे अपने नहीं हैं सोचती हो क्या?"

फिर से नलिनी असमंजस में सिर को झुका कर हाथों में सिर को रख लिया।

"मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है अम्मा" क्षमा मांगने की तरह बोली।

"आपको और आपके बेटे दोनों को अरुणा के ऊपर जो प्रेम हैं उसकी वजह से ही आप दोनों सच्चाई को देख नहीं पा रहें हो | मुझे ऐसा लगता है।"

"ऐसा कुछ नहीं है। तुम जो सच समझ रही हो वह सच नहीं है हम समझ गए। बस इतना ही फर्क है। इसके अलावा किसके लिए फिक्र करनी चाहिए और किसके लिए नहीं यह मालूम होने के बाद हम मन को परेशान नहीं करते हैं।"

संतुष्ट न हुए जैसे नलिनी बैठी रही।

"यह देखो, नलिनी तुम सोच रही हो ऐसा शंकर और उसका कोई रिश्ता नहीं है।"

नलिनी ने जवाब नहीं दिया।

"तुम इस पर विश्वास नहीं करो तो और कोई भी विश्वास नहीं करेगा नलिनी।"

"रिश्ता किसी भी तरह का हो उससे संबंध रखना उसके साथ अकेले जाना ठीक नहीं। तलाक के बाद और भी ज्यादा हिफाजत से रहना चाहिए। क्योंकि शंकर शादीशुदा है। दुनिया वालों के बोलने से उसके परिवार में टूटन हो सकती है।"

सरोजिनी बिना जवाब दिए सोच में पड़ी।

नलिनी की बात में दम है ऐसा उसे पहली बार लगा। शंकर को उसकी पत्नी के साथ अभी तक नहीं देखा उसे याद आया।

"तुम कह रही हो वह ठीक है" धीरे से बोली "परंतु तुम्हारे फिक्र करने से कुछ नहीं होगा। अरुणा के लिए शंकर सिर्फ एक मित्र है इसके अलावा और कोई बात नहीं है।"

"कोई बात है दुनिया ऐसा कहेगी। शंकर की पत्नी भी उस पर अविश्वास कर सकती है। उसकी वजह से बेकार तकरार होगी।"

"इसी बारे में मैं अरुणा से बात करूंगी। वह जिम्मेदार लड़की है । उसका मन काम में लग जाएगा फिर उसको किसी काम के लिए टाइम नहीं मिलेगा। शंकर भी अपना उत्तरदायित्व समझता है मुझे ऐसा लगता है ।"

नलिनी के चेहरे पर थोड़ी शांति दिखी फिर भी चिड़चिड़ाते हुए कुछ बुदबुदाई ।

"यदि जिम्मेदार है तो क्यों वह जहां भी जाएं उसके साथ जाता है ?"

"दोस्त की पत्नी की जो स्थिति हुई उसके लिए उसके मन में दया नहीं होनी चाहिए क्या?" सरोजिनी बोली। 

बिना उम्मीद के उसके मन की खिड़कियां धीरे से खुली।

दिनकर मुस्कुराते हुए खड़ा था। "आपकी तबीयत का ख्याल आप रखो नहीं तो यहां कोई आपको पूछने वाला नहीं है मुझे पता है।" वह बोला।

सरोजिनी के होठों पर हल्की मुस्कान आई।

"दया हो तब भी चार लोगों की आंखों में खटकने जैसे व्यवहार नहीं करना चाहिए ना ?"

सरोजिनी की निगाहें और उसका मन उसे देख रहा था।

"आज के जमाने में बच्चे सीधे चलने वाले हैं नलिनी। इसके बारे में संकोच उस जमाने के लोगों को ही होता था ।"

हॉल की घड़ी 5 बार घंटी बजा कर बंद हुई तो वह अपना स्वयं का ध्यान आते ही उठ गई।

"शंकर तुम्हें अच्छा नहीं लगता। उससे संबंध नहीं होता तो अरुणा की शादी नहीं टूटती ऐसा तुम सोचती हो। वही गलत है। किसी भी हालत में यह शादी टूटती, नहीं तो अरुणा ने और कुछ कर लिया होता। अभी तुम इन सब के बारे में सोचते हुए मत बैठो। मैं थोड़ी देर बगीचे में टहलती हूं।"

"ठीक है मैं अब सारी जिम्मेदारी आप पर छोड़ती हूं। आप ही अपनी पोती को संभालो। मैं कुछ दिन मुंह नहीं खोलूंगी।"

"वही ठीक है" कहकर सरोजिनी हंसी। तुम्हें भी शांति औरों को भी शांति।"

सरोजिनी बाहर खड़े रहकर बगीचे में चलने के लिए मुड़ने लगी।

"यह दया, सहानुभूति इन सब पर मैं विश्वास नहीं करती।" नलिनी फिर भी बड़बड़ा रही थी।

"यह मंत्र औरत कमजोर स्थिति में है उस अवसर का फायदा उठाने का है ।"

वह सुनाई नहीं दिया जैसे सरोजिनी वहां से चली गई।

पति के प्रेम के सिवाय, और कोई भी अनुभव नलिनी को नहीं है। सरोजिनी ने सोचा नलिनी अपने अनुभव से यह शब्द नहीं बोल रही है । वह स्वयं भी सोच कर इसे नहीं बोली होगी। यह उसकी सहेलियों के अनुभव हो सकते हैं।

5:00 बज जाए तो बगीचे में ठंडी हवा चलना शुरू हो जाती है। थोड़ी देर में पक्षी अपने घर को वापस आना शुरू कर देते हैं। प्रकृति का हर काम समय पर होता है न समय से पहले न समय के बाद सोचकर सरोजिनी अपने अंदर विस्मित हुई। एक दिन सूरज नहीं निकला ऐसा नहीं होता है सर्दी के दिनों के बाद गर्मी के दिन नहीं आएं ऐसा नहीं होता है ?

आखिर आकाश ने पेड़ों को भी एक नई फुर्ती दी जिससे वे धीरे-धीरे हिलने लगे तो सरोजिनी कुछ नया देख रही हैं जैसे उसे देखने लगी। अपनी इच्छा और सोच मनुष्य में ना हो और इन पक्षियों जैसे रहे तो कोई असमंजस, संकट, लाभ हानि नहीं होगा ऐसा वह सोच रही थी। "हमें जीना नहीं आए तो कोई क्या करेगा" यह विचार उसके मन में आया।

उसके विचार में बाधा आई। एक लड़की संकोच से अंदर आ रही थी।

"तुम कौन हो ?"

"सरोजिनी अम्मा जिसमें रहती हैं वह मकान यही है क्या ?" उस लड़की ने पूछा।

"हां"

"वह आप ही हो क्या ?"

"हां तुम कौन हो ?"

"मेरा नाम श्यामला है। मेरे नाना आपके गांव के हैं। यहां पर अपने चिकित्सा के लिए आए हैं, आपसे मिलना है ऐसा कह रहे थे।"

सरोजिनी का दिल थोड़ा सा धड़कने लगा।

"कौन हैं तुम्हारे नाना ?"

"उनका नाम दिनकर है।" श्यामला बोली।

अध्याय 11

एक क्षण धक से रह गई फिर सरोजिनी अपने आप को संभाल कर मुस्कुराई।

"अंदर आओ बेटी" प्रेम से बोली तो श्यामला संकोच से अंदर आई। बैठने को बोले तो बड़े संकोच से सोफे के किनारे पर बैठी।

उसका संकोच उसका स्वभाव है ऐसा सरोजिनी ने सोचा। बड़े घर वालों से छोटे घर वालों को होने वाला संकोच उसने सोचा।

खाने के हॉल से उसने रसोई की तरफ देखा। मुरुगन अपने रोज के काम में लगा हुआ था। उन्हें देखते ही तुरंत खड़ा हो गया।

"क्या चाहिए बड़ी अम्मा?" पूछा।

"एक के लिए थोड़ा कॉफी और नाश्ता लेकर आओ" बोली।

"ठीक है" मुरूगन बोलकर फिर पूछा "कोई आया है क्या ?"

"हां" मुस्कुराते हुए संकोच से बोली।

"तुम्हें याद है कि नहीं ? अपने गांव में दिनकर के नाम के एक आदमी रहते थे। उनकी पोती आई है।"

"आपने ऐसे कैसे बोला ? बहुत पुरानी बात होने पर भी मुझे अच्छी तरह याद है । मैं नाश्ता लेकर आ रहा हूं आप जाइए!" वह उत्सुकता से बोला।

होठों में मुस्कान लिए वह श्यामला के करीब आकर बैठी।

"मैं दिनकर जी की एकमात्र दोहेती हूं।" श्यामला बोली।

"उनके सिर्फ एक ही लड़की है?" सरोजिनी ने आश्चर्य से पूछा।

"नहीं, मेरा एक मामा भी था। जब वह छोटे थे तभी मर गए ।"

उनके भौंहें थोड़ी फड़फड़ाई फिर अपने सिर को झुका लिया। एक अजीब सा दुख उनको हुआ।

"गांव में इलाज की सुविधा नहीं है। नाना को देखने के लिए वहां कोई आदमी भी नहीं है इसीलिए मैंने उन्हें यहाँ आने को कहा।"

"क्या बीमारी हुई ?"

"उम्र का तकाजा है" कह कर श्यामला हंसी। "80 साल के हो रहें है ना ?" हां मुझे ही 75 साल हो गए।"

"इस उम्र में नाना अच्छे ही हैं। उनकी निगाहें तेज है।"

उनकी निगाहें तो हमेशा ही तेज थी ऐसा सरोजिनी ने सोचा

वह लड़की अपने भोलेपन में बोलती चली गई।

"कुछ दिनों से उन्हें सांस लेने की दिक्कत थी। यहां दिखाएंगे कह कर मैंने आने को कहा। लड़की की बेटी हूं तो क्या हुआ, मेरे पास रह नहीं सकते क्या ! जबरदस्ती लेकर आई।"

सरोजिनी उसके कंधे को पकड़ वात्सल्य के साथ बोली "बहुत अच्छा काम किया तुमने" ।

"उनको यहां आए कितने दिन हो गए ?"

"एक महीना हो गया !"

"अरे बाप रे एक महीना ? क्यों इतने दिन नहीं बताया?"

"इतने दिनों वे इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती थे। अभी घर आए हैं। अभी और एक हफ्ते में गांव वापस चला जाऊंगा ऐसा जिद्द कर रहे हैं। आज सुबह ही उन्होंने आपका पता दिया।"

सरोजिनी का दिल धड़कने लगा। अपने चेहरे पर बिना कुछ दिखाएं सरोजिनी अपनी मुस्कुराहट को बनाकर ही पूछी।

"मेरे बारे में क्या बोला।"

श्यामला अपनत्व से हंसी।

"आपके बारे में बहुत बड़ी बात कही। अपने गांव के जमींदार की पत्नी हैं। परंतु जमींदारनी जैसे नहीं रहती। खाना बनाने से लेकर सब काम वे स्वयं ही करती हैं। एक समय में 30 लोगों का खाना खाने वाला कुटुंब था ‌‌"

सरोजिनी हंसी।

"इतने बडें मकान में खाना बनाने के लिए कोई आदमी नहीं था...."

"उन्होंने यह भी बोला, आपकी सास बहुत ही कंजूस थी। आपको बहुत परेशान कर आप से काम लेती रहती थी। आप सब बातों को सहन करती थी...." 

कोई कहानी सुन रही है जैसे सरोजिनी बड़े उत्सुकता से सुन रही थी।

"और क्या बोला ?"

"आप महालक्ष्मी जैसे सुंदर थी।"

दिनकर की निगाहें अभी उसके ऊपर पड़ रही जैसे सरोजिनी का चेहरा लाल हुआ। 

"चालीस साल हो गए उनसे संपर्क छूटे।"

"उन्हें सब अच्छी तरह याद है, आपको नहीं है क्या ?"

सरोजिनी हंसी।

"यादों के सिवाय बुजुर्ग लोगों का और कोई संपत्ति नहीं है बेटी।"

"इसका मतलब नाना की आपको याद है....?"

"अच्छी तरह से !"

"नाना बहुत खुश होंगे। आपका एक बेटा है ऐसा उन्होंने बोला था।"

"हां बेटा और बहू के साथ ही रहती हूं ‌। एक पोती भी है तुम्हारी जैसी। बहू से तुम्हारा परिचय कराती हूं। पोती और बेटा काम पर गए हैं।"

"मुरूगन नाश्ते की प्लेट रखकर श्यामला को उत्सुकता से देखा।

"यह भी तुम्हारे गांव का ही है। छोटी उम्र में तुम्हारे नाना को इसने देखा है।" सरोजिनी बोली।

"भाई साहब कैसे हैं बेटी?" मुरूगन ने पूछा।

"मुझे उनसे मिलना है। आप अपना पता देकर जाइए। बड़ी अम्मा जब समय मिलेगा देखने आएंगी। मैं भी एक बार उन्हें देखने आऊंगा।" मुरूगन बोला।

"ओ! जरूर आइए" तुरंत श्यामला ने एक चिट में पता लिख कर दिया।

"नलिनी को बुलाओ मरुगन !" सरोजिनी के कहते ही मुरुगन वहां से चला गया। नलिनी के आते ही सरोजिनी ने उससे परिचय कराया।

"इनके नाना तुम्हारे ससुर के बहुत अच्छे दोस्त थे वह बोली। "उनकी तबीयत ठीक नहीं है। यहां पर चिकित्सा के लिए आए हैं।"

"तुम लोगों को देखने की उनकी इच्छा है" बोली।

"उन्हें देखने जरूर आएंगे " नलिनी बोली। 

श्यामला धन्यवाद देकर रवाना हो गई तो नलिनी ने पूछा "उस लड़की को देखें तो बहुत साधारण घर की है ऐसा लगता है?"

"हो सकता है, उस समय दिनकर की खेती-बाड़ी थी। फिर सब को बेचकर दूसरे गांव चले गए। हमसे संपर्क टूटे 40 साल हो गया।" 

"अरे बाप रे, इतने सालों के बाद उस आदमी को अपनी याद आई। आश्चर्य हो रहा है। कोई रुपए की मदद की आशा कर रहे हैं क्या ?"

तुरंत सरोजिनी ने नलिनी को घूर के देखा।

"पक्का ऐसा नहीं होगा। दिनकर बहुत मान सम्मान वाला आदमी है। ऐसे अपेक्षा करने वाला आदमी नहीं है। हम अपने आप भी देंगे तो भी वह नहीं लेंगे ।"

"वे ऐसा ना सोचे तो भी दोहेती सोच सकती है।"

यह क्या बेकार की बातें कर रही है सरोजिनी को चिड़चिड़ाहट हुई।

"ऐसी सोचने वाली जैसे नहीं लग रही थी । अस्पताल से स्वस्थ्य होकर दिनकर घर आ गये हैं।" कहकर फिर से बगीचे में जाकर बैठ गई।

अध्याय 12

सहूलियत कम हो जाने वाली स्थिति में दिनकर का परिवार कितनी परेशानियों में रहा होगा सोचकर उसके मन में दया आई और दुख भी हुआ । उसके मन में इन सब के लिए स्वयं के दोषी होने का दुख भी महसूस हुआ। उनके आगे के इलाज के लिए रुपए की मदद हो सके तो देकर उनके उधार को चुकाने पर एक भार कम होगा जैसे उसे लगा । कार्तिक और नलिनी इसके लिए मानेंगे क्या? 40 साल तक कोई संपर्क ना रहने के बाद, जिसे देखा ही नहीं उसके लिए चिकित्सा का खर्चा क्यों वहन करेंगे ? क्या दान देने के लिए हम धार्मिक ट्रस्ट है पूछ सकते हैं?

सोच-सोच कर उसके मन में अनेकों विचार आ रहे थे।

अरुणा अभी तक नहीं आई। पक्षियों की आवाजें उसके कानों को बहुत तेज लग रही थी। और कुछ देर अपने अंदर विचारों में मग्न होकर अंधेरा होते समय अपने कमरे में वापस आ गई।

शाम की प्रार्थना को पूरा करके जब उसने सिर उठाया तो उसके कमरे में कार्तिकेय खड़े थे।

"क्या बात है अम्मा ? आज कौन आए थे?" मुस्कुराते हुए पूछा।

"अपने गांव के आदमी दिनकर थे। वे तुम्हारे पिताजी के अच्छे दोस्त थे। वे यहां आए हैं। उनको आपसे मिलने की बड़ी इच्छा है। उनकी दोहिती आई थी।" सरोजिनी ने साधारण ढंग से कहा।

"उस आदमी को मैंने देखा है क्या ?" 

"नहीं, परंतु वह तुम्हारे अप्पा के बहुत..…"

"दोस्त बोल रही हो। अजीब बात है। एक दिन अप्पा जब बीमार थे उस समय बताया था, कि मेरा एक विरोधी है दिनकर । उसके पास तुम कभी मत जाना।" कहकर कार्तिकेय हंसे।

"मैं उसे उसी समय ही भूल गया !"

सरोजिनी को अपने नीचे के पेट में से कुछ निकल गया ऐसा महसूस हुआ।

कार्तिकेय के चेहरे पर कोई विशेष भाव दिखाई नहीं दिया। ऐसे ही कह दिया जैसे लगा।

वह जल्दी से अपने को संभालकर गंभीर हुई। एक हल्की सी मुस्कान अपने होंठों पर लाई।

"तुम्हारे अप्पा के बारे में तो तुम्हें मालूम है ना कार्तिकेय ? किस पर कब गुस्सा आएगा। उनका कोई भरोसा है क्या? दिनकर साथ पैदा हुए जैसे थे। आखिर के दिनों में तुम्हारे अप्पा को गलतफहमी हो गई थी।"

"क्यों ?" बिना किसी उत्साह के कार्तिकेय बोले "व्यापार में पार्टनर थे क्या?"

"वह कुछ नहीं।"

"फिर ?"

सरोजिनी खिड़की के बाहर देखने लगी।

"मालूम नहीं" धीरे से बोली।

"उनके गुस्से का तो कोई ठिकाना था नहीं यह मैं शुरू के दिनों से ही समझ गई थी। उसके लिए कारण जानना बेकार का विषय है ऐसे सोच कर मैं चुप रहती। इसके लिए भी ऐसी थी !"

कार्तिकेय कुछ क्षण मौन रहे।

"अप्पा के मरने पर यह दिनकर आएं थे क्या ?" पूछा।

यह क्या इतना प्रश्न पूछ रहा है सरोजिनी को सोचकर आश्चर्य हुआ।

"नहीं, वे गांव को छोड़कर कहीं और चले गए थे बोला ना ! उनको समाचार देने के लिए भी किसी को उनका पता मालूम नहीं था।"

कार्तिकेय का कुछ देर मौन बैठे रहना उसे अजीब सा लगा।

उसके मन में एक धीमा विषाद फैला।

नलिनी इससे क्या बोली होगी ऐसा सोचने लगी ‌। बिना आदत के एक चिडचिड़ापन उसकी आवाज में दिखाई दिया।

"तुम्हारे अप्पा के शब्दों को बचाना है तुम्हें ऐसा लगता है तो मैं तुमसे जबरदस्ती नहीं करूंगी, मुरूगन को साथ लेकर मैं चली जाऊंगी।"

कार्तिकेय घबराया और पास में आकर उनके कंधे पर हाथ को रखा।

"माफ करना अम्मा। मैंने उस विचार से नहीं बोला। आपको अकेले जाने की जरूरत नहीं। कल मैं आपको लेकर जाऊंगा।"

स्वयं भावना में बहकर थोड़ा गुस्से में आने के लिए सरोजिनी को शर्म आई।

"तुम्हें जैसे सहूलियत होगी वैसे ही जाएंगे" समाधान के तौर पर बोली।

थोड़ी देर और विषयों के बारे में बात कर कार्तिकेय उठे।

"आपकी तबीयत ठीक है ना ?"

"हां ठीक हूं?" कहकर मुस्कुराते हुए सरोजिनी खिड़की को देखते हुए आराम कुर्सी पर बैठी।

अम्मा अब अकेला रहना ही पसंद करेगी ऐसा महसूस कर कार्तिकेय बाहर चले गए।

खिड़की के बाहर से मोगरे की खुशबू के साथ आने वाली ठंडी हवा अच्छी लग रही थी। अब अंधेरा खत्म होना शुरू हो गया। पक्षियों का कलरव कानों में जोर-जोर से सुनाई दे रहा था।

सरोजिनी के होठों पर मुस्कान खिली।

शाम के समय होने पर सरोजिनी का इन पक्षियों की आवाज सुनना ही एक मनोरंजन का साधन था। पिछवाड़े में कुंए के नीचे बैठकर आम के पेड़ के ऊपर तोते के झुंड के झुंड आकर कोलाहल करते थे उनकी तीव्र आवाज को बड़ी उत्सुकता से सुनना उस समय की बात सरोजिनी को अच्छी तरह याद है।

सरोजिनी ने गर्दन को ऊपर करके देखा।

पूरा पेड़ फूलों से भरा था। पूरे वातावरण में खुशबू फैल गई थी। उसने अपनी आंखों को बंद करके एक दीर्घ श्वास खींचा। इस पेड़ ने कभी धोखा नहीं दिया। कोई सत्य का शपथ लिया हो ऐसे समय पर फूलता, फलता है । आस-पड़ोस के लड़के पत्थर मारकर जो गिरा दे उससे जो बच जाता उसका वह स्वयं भी हर साल अचार बनाती और कच्ची कैरियों को पका कर आम में बदलती। सरोजिनी ने बगीचे पर अपनी निगाहों को घुमाया। बगीचे के कोने में एक बांझ पेड़ था। उसके जैसे वह सिर्फ छाया के लिए खड़ा था। उसकी कोई भी परवाह नहीं करता। छाया चाहिए तब सिर्फ खड़े रहने के सिवाय.....

यहां भी उसकी याद सिर्फ खाने के समय के अलावा कहाँ आती ?

"भूख को शांत करने के लिए मेरी याद आती है।" ऐसा उसने अपने मन में सोचा। जम्बूलिंगम के याद आते ही एक तीखी नफरत उसके मन में उबलने लगती। 'किसी भी तरह की भूख लगे' वह अपने आप में कहने लगी।

यह लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं? मेरे गले में मंगलसूत्र पहनाने के कारण मेरा मान-अपमान सब कुछ चला जाता है ऐसा सोचते हैं?

उसे सोच-सोच कर उसे दुख हुआ। जब रस्सी को खींचे तो भेडें कैसे पीछे पीछे जाती हैं ऐसा सोचने के लिए क्या मैं भेड़ हूं? पहले मैं ऐसे ही जाती, 'इनकी पत्नी हूं मैं' ऐसा मेरे अंदर मैंने एक सम्मान बना रखा था। उसका भी कुछ अर्थ नहीं था। उस स्थान से उतरने के लिए एक क्षण ही लगेगा ऐसा कह रहे जैसे एक दूसरी औरत को लेकर आएं फिर मेरी इस पदवी का क्या सम्मान है? एक काम वाली जैसे सम्मान?

सरोजिनी अपमान के बारे में सोच-सोच कर आंसू बहने लगे।

शादी का क्या मतलब है? अम्मा-अप्पा ने ज्योतिषी के पास जाकर जन्मपत्री बनाकर, उसका मिलान करके लड़का ढूंढ के गहनों और सामान के साथ बड़े तामझाम से मुझे यहां भेजा उसका क्या अर्थ है? यह मरगथम यहां पर आकर रह रही जैसे पहनी हुई साड़ी के साथ मैं भी आ सकती थी ना? झाड़ू के लिए सिल्क के झालर की क्या जरूरत ?

नाम बहुत बड़ा। जमींदार जंबूलिंगम की पत्नी ! यहां किस तरह का रहना है आकर देखें तभी तो पता चले? पिछले महीने दूसरे जिले के जमींदार और उसकी पत्नी आए थे। खूब गहने कीमती सिल्क की साड़ी रानी जैसे आई थी। उसके बराबर बैठ कर बात करने वाली यह रत्नम थी। उन्हें कॉफी और नाश्ता देने के लिए ही मैं थी । मुझे उस जमींदार की पत्नी ने देख कर, रत्नम के कान में धीरे से कुछ कहा,

"इतनी सुंदर खाना बनाने वाली हो तो आफत है रत्नम, संभल कर रहना।"

अभी ही मेरे चेहरे को देखा जैसे रत्नम एक अहंकार की नजर मुझ पर डाली और सिर झुका लिया।

मैं जल्दी-जल्दी अंदर जाने लगी तो सुनाई दिया।

"ये उनकी पहली पत्नी हैं। सुंदर है तो क्या हुआ ? है तो बांझ! परेशान होकर ही मुझसे इन्होंने शादी की और वे कहते यह तो सिर्फ लकड़ी है ।"

उनका जोर से खिलखिला कर हंसना मुझ पर आग को उठा कर फेंक दिया हो ऐसा लगा ।

रसोई में जाने के बाद उसके हाथ पैरों में इतना कंपन होने लगा कि वह खड़ी भी नहीं रह पाई और सरोजिनी नीचे ही बैठ गई। बिना कारण समझे ही अपमान के कारण उसकी आंखों से अश्रु धारा बहने लगी।

सिर्फ लकड़ी.....

चिकने-चिकने गुदगुदे सोने जैसे चमकने वाले अपने हाथों और पैरों को एक बार देखने लगी।

"सुंदर होने से क्या फायदा ?"

'उस रत्नम में क्या सुंदरता है यह सोचकर उससे शादी की' उसके गुस्से का यही जवाब है मालूम होने पर उसे एक दोषी होने का एहसास होने लगा। पति को संतुष्ट ना कर सकना मेरा ही दोष नहीं है क्या ? ऐसे ही अम्मा बोलती थी। "पुरुष के चेहरे का भाव न बिगड़े ऐसा तुम्हें रहना चाहिए" अम्मा के इस उपदेश का यही अर्थ है। बढ़िया रुचिकर खाना बनाने इतने बड़े घर को ठीक तरह से देखभाल करने से ही कुछ ना होगा। वह तो वह काम वाली बाई भी कर लेंगी.....

अभी इस पेड़ पर कोलाहल कर रहे मिट्ठू को देखते हुए बैठी सरोजिनी के शरीर में एक गुस्सा फैला। पक्षियों की सरलता से कोलाहल करते देख उसके अंदर एक ज्वाला सुलगने लगी।

'मैं लकड़ी नहीं हूं। मेरे अंदर बहुत सी इच्छाएं हैं। लक्ष्मी और उसके पति को प्रेम से हंसते हुए हाथ में हाथ लिए देखती तो मुझे लगता मेरे पति ने एक दिन भी मुझसे ऐसे बैठकर प्रेम से बात नहीं की तो मुझे बुरा लगता एक कमी सी खलती। मैंने उनके पास जो देखा वह एक पशु के जैसे कामी दीवानापन अजीब सा जुनून। जानवर जैसे झपट्टा मारकर आने वाले शरीर को देखते ही मेरा शरीर डर से ठंडा पड़ जाता था। उस घिनोनेपन के कारण ही मैं लकड़ी हो जाती थी इसके लिए मैं क्या करूं?

रत्नम को ऐसा कुछ नहीं हुआ तो उसका गुण भी ऐसे ही एक कामी पशु शेरनी जैसे होगा शायद!

फिर उस काले शरीर बड़ी-बड़ी छातियों के बारे में सोचते ही उबकाई आने लगती है।

उसके तेल मालिश कर नहलाने मुझे बुलाने का इनका एक विशेष अर्थ होगा क्या? मेरी लकड़ी जैसे होने की वजह से उनको जो धोखा हुआ उसका बदला लेने के लिए ही होगा.....

एकदम से अंधेरा होने लगा पर उसे पता ना होने के कारण वह कुएं के नीचे ही बैठी थी। घर के सब लोग पास के गांव गए थे। किसी रिश्तेदार की शादी में, हमेशा की तरह उसे छोड़कर मरगथम और उसका पति ही उसकी रखवाली के लिए थे | उन दोनों ने भी अपने घर जाकर दरवाजा बंद कर लिया।

"अकेले अंधेरे में बैठकर क्या कर रही हैं ?"

आदमी की मधुर आवाज को सुनकर सरोजिनी हड़बड़ा कर अपने पूर्व स्थिति में आई।

दिनकर खड़ा था। अपनी तहमत को हमेशा की तरह मोड़ कर घुटने तक रखा हुआ था। पूरे हाथ के शर्ट को कोहनी तक मोड़ कर रखा हुआ था।

शरमाते हुए वह उठी, "और क्या कर सकती हूं? बेकार की सोच" वह धीमी आवाज में बोली।

चंद्रमा की चांदनी में उसकी हंसी से उसके सफेद दांत दिखे। आंखों में शरारत दिखाई दी।

"उसे अंधेरे में करने की क्या जरूरत है ? अंदर जाकर रोशनी में कर सकते हैं ना?"

उसने सर झुका लिया!

"घर में कौन हैं ? खाली दीवार को देख कर बैठे रहने से ज्यादा अच्छा है बाहर अपने साथ के लिए यह पेड़ पक्षी है।"

एक क्षण उसने खड़े होकर उसे घूर कर देखा।

"मनुष्य के साथ के लिए मैं आया हुआ हूं, आइए बाहर बरामदे में बैठकर बात करते हैं। मैं घर के अंदर आ सकता हूं ना।"

अच्छा आदमी है यह सोच कर वह चलने लगी। अंधेरे में किसी से टकराकर नीचे गिरने लगी। उसने जल्दी से पकड़ कर उसको सहारा देकर उठा दिया।

"क्या है ? मैं तो अंधी हूँ सोचा?" बोला।

उसे हंसी आ गई। उसी समय सातों स्वरों को छेड़ दिया जैसे स्पर्श से उसके शरीर में एक कंपन उत्पन्न हुआ। जम्बूलिंगम के स्पर्श से उसे कभी ऐसा कंपन नहीं हुआ था इस सोच से उसे एक भ्रम भी हुआ।

"क्यों दादी अंधेरे में बैठकर क्या कर रही हो ?"

सरोजिनी को भूतकाल से बाहर आने में कुछ समय लगा।

साफ ट्यूबलाइट की चमक में खड़ी अरुणा को देखकर धीरे से मुस्कुराई, “आ बेटी!" बोली।

"न कोई काम न कोई काज ? बेकार की सोच।"

फिर से इस शब्द के प्रयोग से मुस्कुराहट हंसी में बदली।

अध्याय 13

अरुणा ने कुछ क्षण उसे घूर कर देखा।

"कोई बहुत बड़ी सोच में डूबी हुई हो आप ऐसे लग रहीहैं। ऐसे क्या सोचती हो दादी?"

अरुणा की उत्सुकता में एक परिहास भी छिपा हुआ है उन्हें लगा।

अरुणा धीरे से मुस्कुराई, "मुझे ऐसा लगता है आपकी यादें बहुत ही दिलचस्प होगी दादी । अम्मा को देखने से ऐसा नहीं लगता।

"ऐसा क्यों ?"

"अम्मा का सभी अनुभव साधारण ही लगता है। बड़ी सरलता से मिला आरामदायक जीवन है उनका। बहुत गहरा सोचने की मेरी अम्मा की आदत नहीं है।"

"मुझे भी क्या, मैं बिना पढ़ी-लिखी, तुम्हारी अम्मा तो पढ़ी लिखी है ।"

"पढ़ने का और दिलचस्पी का कोई संबंध है मुझे नहीं लगता दादी। वह तो आपके स्वभाव के ऊपर निर्भर है। किसी घटना से आपका मन कितना व्यथित हुआ है यह उस पर निर्भर करता है।"

मन में एक हल्का कंपन हुआ। खून में गर्मी आ गई जैसे लगा। अपने को संभालते हुए सरोजिनी मुस्कुराई।

"मुझे यह सब समझ में आ रहा है अरूणा। मेरे जैसे कितनी लड़कियों के जिंदगी में ऐसा हुआ होगा। सभी लोगों को मुंह बंद करके कोल्हू के बैल जैसे ही उस जमाने में रहना पड़ा होगा...." 

अरुणा की निगाहों में एक हिचकिचाहट नजर आई।

"आपको कभी गुस्सा नहीं आया क्या दादी?"

सपने से उठे जैसे सरोजिनी ने धीरे से पूछा "किस पर ?"

"दादाजी पर। आप गर्भवती थी तब भी वे आपको बेल्ट से मारते थे!"

सरोजिनी ने अपना सिर झुका लिया। उनके मन की खिड़की धीरे से खुली। रौद्र रूप में जंबूलिंगम हाथ में काले रंग के बेल्ट के साथ खड़ा था।

"अहंकारीगधी, अहंकारी गधी..."

कितनी बार उसके पीठ पर वह चाबुक सा पड़ा? उसे याद नहीं।

अहंकारी गधी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला । उससे अपना कोई अधिकार नहीं है ऐसा अपने आप को तैयार कर लिया जैसा.....

फिर से सरोजिनी ने खिड़की से बाहर काले आकाश को देखा।

"गुस्सा करके उस समय कोई फायदा नहीं था बच्ची। जिद्द जरूर कर सकते.."

"आपने ज़िद्द की?"

"खूब ! उसी के लिए मारपीट!"

सरोजिनी के अंदर एक हंसी फूटी।

"किस तरह की जिद्द ?"

"वह सब मुझे याद नहीं....!"

अरुणा ताली बजाकर हंसी। "आप बहुत चालाक हो!"

सरोजिनी ने फिर से अपना सिर झुका लिया।

"कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है बच्ची। चालाकी तो धोखा देने वाला शब्द है मुझे लगता है। उससे हम क्या प्राप्त कर लेते हैं मालूम नहीं।"

"क्यों दादी? हमारा भी एक अलग मन है दिखाते हैं ना?"

सरोजिनीने बिना बात किए हुए अरुणा को देखा। यथार्थ में अभी ही जुड़ी जैसे उसके दोनों हाथों को पकड़कर वह हंस दी।

"हां बच्ची ‌। परंतु यह तृप्ति सिर्फ अपने लिए!"

अरुणा ने झुककर दादी के माथे को चूम लिया।

"वह बहुत है दादी!"

उसकी बातों से सरोजिनी को कुछ चुभा। अरुणा के चेहरे से और उसके मन के अंदर जो चोट पहुंची है उसके बीच कोई संबंध नहीं है उसे लगा।

"बैठो। आज क्या हुआ बताओ। क्यों आने में इतनी देर हुई ?"

"काम बहुत इंटरेस्टिंग था दादी। आज कोई फिल्म दिखायी। घर आकर भी क्या करूंगी सोच कर वहीं बैठ कर देख कर आई।"

"ठीक है। एक फोन कर सकती थी ना?"

अरुणा सिर झुका कर कुछ भुनभुनाई।

"भूल गई।"

थोड़ी देर मौन रहने के बाद सरोजिनी बोली "तुम्हारी अम्मा से तुम कितने दिन नाराज रहोगी?"

"सचमुच में भूल गई दादी!"

"उस भूलने के लिए,गुस्सा भी एक कारण होगा। 'कुछ देर परेशान होने दो' ऐसी एक सोच। परंतु तुम भूल गई। इसमें सिर्फ वह ही नहीं तड़पी यह सब के लिए दंड था....."

अरुणा हंसने लगी।

"सॉरी दादी। आज के बाद मैं फोन करना नहीं भूलूंगी।

"शंकर से आज मिली थी क्या?" अचानक पूछते जैसे सरोजिनी पूछी

"नहीं! क्यों? एक हफ्ता हो गया उन्हें देखें!"

"उसकी पत्नी को मैंने नहीं देखा है। लेकर आने को बोलो ना।"

"कहती हूं। पर उनके पास समय नहीं होगा क्योंकि वह डॉक्टर का काम करती है।"

"ओ ! इसीलिए वह उसे यहाँ लेकर नहीं आया!"

"हां। साधारणतः उसके घर आने में रात्रि 7:30 या 8:00 बज जाते हैं। बहुत नजदीक होने के बावजूद भी मैंने उन्हें अधिक नहीं देखा।"

"जितना देखा, वह कैसी हैं?" 

सरोजिनी ने पूछा।

अरुणा की भौंहें थोड़ी ऊपर हुई।

"क्यों? बहुत अच्छी है। बहुत पढ़ी लिखी और पैसा होने के बावजूद भी उसमें घमंड नहीं है और वह बहुत मिलनसार है।"

पूछना चाहिए या नहीं सोचते हुए सरोजिनी ने बड़े सौम्यता से मुस्कुराते हुए पूछा "शंकर और उसके बीच रिश्ता अच्छा ही तो चल रहा है?" 

चौंकते हुए अरुणा ने सरोजिनी को मुड़कर देख फटकर हंस दी।

"दादी, आप भी अम्मा के ग्रुप में शामिल हो गई क्या?"

सरोजिनी में हल्के अपमान की भावना जागृत हुई।

"मैंने तो यूं ही पूछा अरुणा।"

"आपने अपने आप नहीं पूछा। अम्मा ने कुछ बोला होगा ।"

"अम्मा ने कुछ नहीं बोला। मैं ही सोच रही थी।"

"क्या सोच रहीं थी?"

"बोलूं तो बुरा तो नहीं मानोगी ?"

"आपका कैसे बुरा मानूँगी ?"

"कुछ नहीं" सरोजिनी ने थोड़ा खींचा। "उस शंकर की शादी नहीं हुई है ऐसा सोच रही थी। अच्छा लड़का दिखता है। तुम्हारे साथ प्रेम से रहता है, तुम भी उससे शादी कर सकती हो ऐसा सोचा।"

अरुणा प्रेम से सरोजिनी के सिर पर मार कर हंसी।

"ठीक अंधी सोच है। इसी तरह की सोच सारे दिन सोचते रहते हो क्या? अच्छा हुआ ऐसी बात शंकर के सामने नहीं बोली। शंकर और मल्लिका दोनों में बहुत घनिष्ठता है। वे बहुत अच्छे दंपत्ति हैं। शंकर और मेरे बीच सिर्फ मित्रता है आप लोग क्यों नहीं समझ रहे हो?"

"मैं कुछभी नहीं समझने वाली हूं। पर सब लोगों में समझने की शक्ति नहीं है। सब लोगों को कुछ भी सोचने दो ऐसा नहीं रह सकते, तुम्हारी अम्मा कह रही है जैसे!"

"अम्मा दुनिया की बात पर ही विश्वास करेगी। अपनी स्वयं की लड़की की बात नहीं मानेगी!"

"हमेशा अम्मा के ऊपर गुस्सा मत हुआ करो अरुणा। मैं एक बात कह रही हूं उसे सुनो। इस इतवार को उस मल्लिका और शंकर दोनों को अपने घर में खाना खाने के लिए बुलाओ। तुम्हारी अम्मा को संतुष्टि मिलेगी।"

"अम्मा की संतुष्टि के लिए या उनकी तृप्ति के लिए मैं कोई प्रयत्न नहीं करूंगी दादी ! मेरा इस घर में रहना ही उनके लिए संकट की बात है। इस संकट को दूर करने के लिए विदेश में चली जाऊं तो ही ठीक रहेगा मैं सोचती हूं।"

उसकी आवाज में जो दुख और गुस्सा था उसे देख सरोजिनी चौंक गई।

"ऐसे बात नहीं करनी चाहिए बच्ची। तेरी अम्मा को मैं ठीक कर दूंगी। चिंता मत करो। तुम विदेश जाओ, परंतु यहां से संबंध मत तोड़ो । यदि तुमने तोड़ दिया तो तुम किसी कारण से डर कर भाग रही हो ऐसा लोग सोचेंगे? इस बारे में तुम्हें किसी तरह का असमंजस भी नहीं होना चाहिए। परंतु, उसे बाहर दिखाना है इसलिए दूसरों की आंखों में किरकिरी हो ऐसा कोई भी काम मत करना।"

"ऐसा कुछ मैंने किया मुझे नहीं लगता दादी।"

"हमें नहीं मालूम होता अरुणा। वह सब दूसरों को दिखाई देता है। यदि वह बातें अच्छे स्वभाव वाली मल्लिका के पास पहुंचे तो वह भी दूसरी तरह से सोचना शुरु कर देगी । इसीलिए तो कह रही हूं, एक दिन दोनों लोगों को यहां लेकर आओ। तुम लोग साथ में एक दो जगह जाकर आओ।"

"खाने के लिए बुला कर लाती हूं। परंतु उनके साथ बाहर मैं क्यों जाऊं? मल्लिका को शंकर के साथ रहने का समय बहुत कम मिलता है। फिर मैं भी बेमतलब उनके साथ जाऊंगी तो अच्छा लगेगा? दादी आप मुझे छोड़ दो आप लोगों से ज्यादा अच्छी तरह मल्लिका ने मुझे समझा है। शंकर के साथ मेरी जितनी घनिष्ठता है उतनी घनिष्ठता मुझे मल्लिका से भी है। तलाक के लिए मुझेकहने वाली मल्लिका ही थी शंकर नहीं है।तलाक के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए बोलने वाला शंकर था।"

"इन सब के बारे में तुमने विस्तार से कभी कहा ही नहीं है"सरोजिनीधीमी आवाज में बोली।

"यह सब बोलने की क्या जरूरत है?"

बड़े थकान के साथ अरुणा ने कहा "केस के खत्म होने तक मुझे बहुत फ़िक्र लग रही थी। अपने पक्ष में फैसला होना है यह फिक्र थी। प्रभाकर की हैसियत और रुपयों के आगे वह कुछ भी कर सकता था मुझे इसका डर था। उसका मन बहुत गंदा है दादी। वह कुछ भी कर सकता है। वह खराब औरतों से संबंध रखता है। वह मेरे सामने ही यह सब नाटक करता था यह बात मैंने बताया तो इस पर उसे बहुत गुस्सा आ गया इसीलिए उसने शंकर से मेरा संबंध जोड़ दिया। वह किसी भी हद तक जा सकता है वरना एक आदमी ऐसे कैसे बोल सकता है? शंकर ने उसकी कितनी मदद की है! मल्लिका को सब पता था।उसे पता था कि प्रभाकर कितना भयंकर आदमी है । किसी को मरवाने में भी वह नहीं हिचकिचायेगा ।"

सरोजिनी चौंकते हुए अरुणा को देखा। यह शब्द बोलने वाली अरुणा है या सरोजनी ?

अध्याय 14

सुबह उठते ही सरोजिनी को याद आया कि आज शनिवार है और कार्तिकेय की आज छुट्टी है । कल रात सोने जाते समय उसने बोला था।

"आपको जाना है बोला था ना, उस बुजुर्ग आदमी को देखने कल चलें ठीक है?"

"आपके लिए ही चल रहा हूं"ऐसा कह रहा है उसे लगा। 'इसके अप्पा ने इससे जाने क्या-क्या बोला होगा'यह सोचकर उसे फिक्र लगी। दिनकर मेरा विरोधी है इतना कह कर छोड़ दिया होगा क्या?

जंबूलिंगम की गुस्से वाली आंखें गुस्से से चौड़ी दिख रही थी। इस समय सोचने पर भी अजीब सा डर लगता है, सिनेमा के थिएटर में प्रभाकर को दूर से देखकर ही अरुणा का चेहरा काला पड़ गया था।

अरुणा इस डर से बाहर आ सकी। और चार-पांच साल में वह प्रभाकर के बारे में भूल जाएगी। मेरे जैसे मरने तक मार खाते नहीं रहना पड़ेगा। मेरे जाने की जगह न होने के कारण पति से मार खाकर उसके क्रोध के दंड को झेलना पड़ा....

दंड के बारे में सोचने से ही मुंह बंद करके रहना पड़ा था ‌। उस जमाने में ऐसा ही रहना है ऐसा सभी लोग अपेक्षा करते थे। मुझे ऐसे रहने के लिए मजबूर किया यह अपेक्षा नहीं। इसी के लिए मुझे एक पदवी मिली 'देवी'। सास ने ही अपने मरते समय मुंह खोलकर यह देवी की पदवी मुझे दी.....

अभी उसबात को सोचकर सरोजिनी को हंसी आ रही है। रत्नम से उन्हें जो धोखा, घृणा हुई उसकी वजह से मुझे यह पदवी मिली। रत्नम इन्हें पोता पैदा करके देगी ऐसा सोच रहे थे इसीलिए उसका आदर-सत्कार कर रहे थे पर बेकार साबित हुआ। उसका इंतजार भी अब थोड़ा कम हुआ और मुझे कुछ सम्मान देने लगे। उसके बाद मेरे पेट में बच्चा है सोच कर उन लोगों की निगाहें ही बदल गई।

सरोजिनी स्वयं मुस्कुराई।

'यह बात तो सच है उसकी मदद के बिना मैं एक लड़का पैदा नहीं कर सकती थी।'

सरोजिनी ने एक थकान से दीर्घ श्वास लिया। उसने उठकर खिड़की के पर्दों को हटाया। तेज धूप आने से अपने आप में बोली 'कार्तिकेय को मैंने पैदा किया वह एक सवाल...... एक साधना थी।’

"अम्मा, मुंह धो लिया? कॉफी ले आए?" 

मुरूगन की आवाज सुन सरोजिनी अपने स्वयं को वर्तमान में पाया।

"नहीं मैं आ रही हूं"कहती हुई बाथरूम में घुसी।

उन पुरानी कहानियों को गड्ढे में डाल देना ही अच्छा है। परंतु जो यादें हैं उन्हें इतनी सरलता से अंदर गाड़ देना संभव है कहां गाड़े? अकस्मात ही वे पंख लग गए जैसे उड़ने लगते हैं?

वह हमेशा से कुछ जल्दी ही ब्रश करके मुंह धो कर बाहर आई।

कार्तिकेय हमेशा की तरह डाइनिंग टेबल पर पेपर पढ़ता हुआ कॉफी पी रहा था। नलिनी उस दिन आईकोई तमिल पत्रिका को देख रही थी जैसे ही सास के आने का उसने महसूस किया, "मुरूगन, बड़ी अम्मा के लिए कॉफी लेकर आओ !"कहकर फिर से पत्रिका में ध्यान देने लगी।

"इतना इंटरेस्टिंग क्या है आज पत्रिका में?" कार्तिकेय ने पूछा।

नलिनी निगाहों को ऊपर कर आलस के साथ मुस्कुराई।

"कोई धारावाहिक है। आते ही पढ़ लूं तभी दूसरा काम होगा।"

"उसमें इतना क्या इंटरेस्ट है?"

"वही तो है लिखने वाले की होशियारी! कहानी तो मुझे पसंद नहीं। फिर भी बिना पढ़े नहीं रहा जाता!"

"पसंद नहीं तो छोड़ देना चाहिए ना?"सरोजिनी कहकर हंसी।

"मुझे पसंद नहीं आने का कारण, वह एक लड़की के भाग जाने की कहानी है। इन्हें ऐसी कहानी लिखनी चाहिए क्या? क्यों नहीं ये लोग अच्छी कहानी लिखते? अच्छे परिवार की लड़कियों की कहानी नहीं लिखनी चाहिए क्या?"

"उनके बारे में लिखो तो क्या तुम इतनी उत्सुकता से उसे पढ़ोगी?"कहकर कार्तिकेय हंसे।

"आखिर में कहानी कैसे जा रही है देखना है!"नलिनी बोली। "उस लड़की के व्यवहार में न्याय है ऐस संपादक जी कह रहे हैं ऐसा लग रहा है!"

आगे के संभाषण में भाग न लेकर सरोजिनी ने अपनी कॉफी पीना शुरु कर दिया।

"आज कितनी पत्रिकाएं आई हैं?"कार्तिकेय ने पूछा।

"सिर्फ एक क्यों?"

"अच्छी बात है। जल्दी से उसे खत्म कर अपने कामों की ओर ध्यान दो। सुबह नाश्ते के बाद उस दिनकर को देख कर आएंगे।"

"मैं क्यों? मुझे आना है, क्यों अम्मा?" अपनी भोंहों को ऊंचा कर नलिनी ने पूछा।

"अरुणा को साथ ले जाने की मैंने सोची। बुजुर्ग आदमी है, सब लोग जाए तो खुश होंगे।"

नलिनी थोड़ी देर बिना जवाब दिए पुस्तक में अपनी निगाहें डाले हुए बैठी थी फिर थोड़ी देर बाद फड़फड़ाते हुए बोली....

"मुझसे पूछे तो सिर्फ आप दोनों ही जाकर आइए। मेरा काम खत्म होने में समय लगेगा। अरुणा को लेकर जाओगे तो कई बातें होगी।'शादी हो गई क्या आदमी क्या करता है'ऐसे प्रश्न उठाएंगे। अपने गांव के उम्र दराज व्यक्ति से स्पष्ट बोल भी नहीं सकते। गांव जाएंगे तो पता नहीं क्या बोलेंगे? हम क्यों इन बेकार की बातों 

को शुरू करें?"

इसकी सोच हमेशा एक ही तरफ रहती है ऐसे दुख के साथ सरोजिनी हल्के से मुस्कुराई।

"ठीक है, फिर मैं और कार्तिकेय ही जाकर आते हैं।"

"मुरुगन को चाहे तो लेकर जाइए। वह भी उनसे मिलना है बोल रहा था।"

"आकर खाना बनाऊं क्या?"बड़े खुश होकर बोला।

"सब्जी काट कर रख दो। आज मैं बनाती हूं"नलिनीबोली।

सरोजिनी आश्चर्य से उठी। अपने स्टेटस के जैसे दिनकर का परिवार नहीं है यही सोच कर नलिनी मुश्किल से अलग हो गई लगता है।

'उसका नहीं आना अच्छा ही है' उसने अपने मन में सोचा।

"मैं जाकर नहाती हूं"कहते हुए अपने कमरे के अंदर गई।

नहाकर बोलने वाले श्लोकों को कहकर खत्म किया । फिर दूसरी साड़ी पहनकर अपने को आईने में देखा "वह मुझे अभी पहचान नहीं पाएंगे" ऐसे रहती थी उन्होंने बोला था..."

"शक्ल में और जीवन में बहुत अंतर होता है ऐसा उस अम्मा के जीवन से मालूम करना चाहिए नहीं बोला?"

"हेलो दादी!"

सरोजिनी आईने में अरुणा की शक्ल देख कर मुस्कुराई।

"आओ कॉफी पी लिया?"पूछी।

"हो गया। आज क्या विशेष बात है? लाल रंग की साड़ी पर आप बहुत जच रही हो दादी!"

सरोजिनी ने अपनी शर्म को छुपाने के लिए साड़ी के पल्ले को ठीक करने लगी।

"इस उम्र में क्या जचूंगी" बड़बड़ाई।

"अपने गांव वाले को मिलने जा रही हो? मैं भी आ सकती हूं क्या?"अरुणा बोली।

"आ सकती हो!" खुश होकर सरोजिनी बोली।"एक बार अपनी अम्मा से पूछ लो, यदि वह कहे तो आओ।‌"

"अम्मा से क्यों पूछना है? यह बहुत अच्छी बात है? मुझे उस आदमी से मिलना चाहिए लगता है। अम्मा से तो मेरा एकविवाद हो चुका। मैं तलाकशुदा हूं यह उन से नहीं बोलूंगी कह दिया।"अरुणा हंसते हुए फिर बोली "उनके पूछें बिना..."इसे और उसने मिला लिया।

सरोजिनीने कुछ जवाब न देकर प्यार से अरुणा को गले लगा लिया।

"जहां तक मैं जानती हूं दिनकर बेकार की बातें पूछने वाला नहीं है बच्ची!"

"आपको उन्हें देखकर कितने साल हो गए दादी?"

"तुम्हारे पिताजी की उम्र जितना!"

"अरे बाप रे आपको उनकी याद है?"

"अपने घर अक्सर आते थे। इसलिए याद है।"

और यह आगे क्या-क्या पूछेगी ऐसा सोच सरोजिनी सौम्यता से बोली "आ रही हो तो तैयार हो जाओ अरुणा।जल्दी रवाना होंगे तो ही जल्दी वापस आ सकेंगे।"

उसके जाते ही सरोजिनी ने अपने बिंब को आईने में देख उसे आश्चर्य हुआ। मैंने कैसे लाल साड़ी पहनी?

मुरूगन बड़े उत्साह से गाड़ी के पीछे की सीट पर बैठकर गांव के जीवन के बारे में वर्णन कर रहा था। सरोजिनी बिना मुंह खोले मौन होकर मुस्कुराते हुए बैठी थी।

उस लड़की श्यामला ने जो पता दिया था गाड़ी उस और दौड़ने लगी और फिर एक छोटे से घर के सामने आकर खड़ी हुई तो घर को देखते हुए गाड़ी से उतरी।

गाड़ी की आवाज सुनकर श्यामला बड़े खुश होकर अंदर की तरफ मुड़ कर "नाना, जम्बूलिंगम जमींदार के घर से सब आए हैं!"वह बोली।

सरोजिनी का दिल जोर से धड़कने लगा।

अंदर घुसते ही दिनकर आराम कुर्सी में बैठे हुए दिखे।

कितनी दुबले हो गए हैं? ऐसे भ्रमित होती हुई दुख से उसका गला भर गया।

"आइए सरोजिनी अम्मा" दिनकर की आवाज में पुरानी गंभीरता दिखाई दी। "आप अच्छी हैं?"

सरोजिनी ने उनकी आंखों को देखा। उसमें अभी उपहास नहीं था उसे महसूस करके वह मुस्कुराई।

अध्याय 15

"आप अच्छे हैं?" सरोजिनी ने धीमी आवाज में पूछा उसके मन में थोड़ी घबराहट हो रही थी।

"ओ ! बहुत अच्छी तरह से हूँ कोई कमी नहीं, अभी मेरे दांत भी नकली नहीं है वही है" दिनकर के हंसी में 50 साल फिर से फिसल के चले गए।

"रसोई में रहने पर भी लाल रंग की साड़ी अच्छी लगती है "उसके शब्द सुनाई दे रहे जैसे उसे भ्रम हुआ।

दिनकर कार्तिकेय की तरफ इशारा कर "यही आपके बेटे हैं?"बोले

तुरंत सरोजिनी अपने को संभाल कर मुस्कुरा दी।

"हां, कार्तिकेय इसका नाम है। 'ये वे' ऐसा सम्मान देने की क्या जरूरत है ? यह आपके बेटे जैसा है।"

दिनकर के नजर में एक उत्सुकता और खुशी दिखाई दी। उठ कर कार्तिकेय की हाथों को पकड़ा फिर "आओ बेटा यहां बैठो, तुम्हारे आने से मुझे बहुत खुशी हुई।" कहकर अपने पास के कुर्सी पर उन्हें बिठाया।

"यह मेरी पोती, अरुणा है" सरोजिनी ने अरुणा के कंधे को पकड़ते हुए बोला।

"वानक्कम दादा" कहते हुए अरुणा दोनों हाथ जोड़कर मुस्कुराई।

दिनकर ने उसे बड़े प्यार से देखा।

"छोटी उम्र में तुम्हारी दादी भी बिलकुल ऐसी ही थी |" बोले।

मुस्कुराते हुए बैठी सरोजनी पर एक नजर डालकर, "अभी भी आपको याद है क्या, 50 साल हो गए आपको देखे दादी बता रही थी?" सरोजिनी बोली।

"बहुत अच्छी तरह याद है। तुम्हारे दादाजी और मैं जिस समय पक्के दोस्त थे उस समय अक्सर तो क्या रोज ही जमींदार जी के महल में जाने की मुझे आदत थी।"

कार्तिकेय और अरुणा दोनों ही मौन बैठे हुए थे जिस पर ध्यान ना देकर अपने ढंग से दिनकर बात करे जा रहे थे।

"पोंगल त्योहार पर, जमींदार जी के महल में बहुत बड़ा फंक्शन होता था। एक महीने पहले से ही घर में तैयारियां शुरू हो जाती। जमींदार की पत्नी होने पर भी सरोजिनी अम्मा चावल को फटकारने से लेकर मिठाईयां बनाने तक सब कुछ वही करती थी।"

सरोजिनी संकोच से हंसी।

"यदि मुझे जमींदार की पत्नी हूँ इसका किसी ने मुझे एहसास कराया होता तो मैं जमींदारनी जैसे सम्मान से रहती ?"

यहां पर और कोई भी है यह ना सोच कर दिनकर और सरोजिनी अपने विचारों में मुस्कुराते हुए एक दूसरे को देखते हुए बैठे थे।

"वह समय ऐसा था।" धीमी आवाज में दिनकर बोले, "जमींदार का मतलब एक स्टेटस में रहना ऐसा ही सोचते थे। बहू और पत्नी को उनके स्थान पर ही रखना चाहिए उस समय ऐसे ही सोचने का जमाना था...."

"मैं सबको भूल गई साहब" सरोजिनी मुस्कुराते हुए बोली "मुझे जो जगह दिया था उससे ज्यादा ही मैंने ले लिया मुझे अभी ऐसा लगता है।"

दिनकर ने उसे कुछ सोचते हुए देखा।

"मेरे मन में भी कोई दुख नहीं है ।"

"कोई दुख भी क्यों होना चाहिए साहब ?" बोलकर आगे बोली "आप ही ने तो सफाई दी थी ना वह जमाना ही ऐसा था। इतना ही अपने को मिलेगा मालूम होने के बाद आशा कहां होती है ? अपने कर्तव्य को यदि मैं पूरा नहीं करती तब मुझे दुख होता। अपनी जमीन के लिए कोई वारिस नहीं है सास को दुख था। जब उसे भी दूर कर दिया फिर मुझे कोई दुख नहीं है।"

दिनकर ने जल्दी से सिर उठाकर उसे मुड़कर देखा। सिर झुका कर धीमी आवाज में बोले "आप एक असाधारण औरत हो सरोजिनी अम्मा।"

दोनों ही लोग अपनी भावनाओं को बाहर उड़ेलने में संकोच कर रहे हो ऐसा एक-दूसरे को देखते हुए बैठे रहे।

उसी समय याद आया जैसे सरोजिनी दिनकर से बोली "आपको मरगथम की याद है? उसका लड़का है ये मुरूगन। मरगथम मर गई। यह हमारे साथ ही है।"

"मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है," कह कर दिनकर हंसे। "आम के पेड़ पर एक भी कैरी को पकने नहीं देते थे तुम इसके लिए जंबूलिंगम से कितनी मार खाते थे !"

मुरुगन शर्म से हंस दिया।

"उसके बाद बड़ी अम्मा दवाई लगाती थीं। वह दया नहीं करती तो मैं आज मनुष्य जैसे खड़ा नहीं हो पाता। सचमुच में अम्मा एक देवी ही हैं। नहीं तो बड़े साहब के गुस्से को कौन सहन कर सकता ?"

"हे भगवान ! ऐसा बोलना ठीक नहीं मुरूगन भगवान भी नाराज हो जाएंगे । मैं बहुत साधारण स्त्री हूं। मुझमें बहुत से दोष और कमियां है...."

"हां दादी" अरुणा बोली। "हां ऐसे मुंह बंद करके बैठे रहे इसमें कोई देवी वाली बात हो मुझे नहीं लगता...."

कार्तिकेय ने मुंह नहीं खोला। अपने अप्पा के बारे में किसी का बोलना उनको पसंद नहीं आया जैसे वे मौन रहें।

"उस जमाने में और कोई रास्ता नहीं था बच्ची!" दिनकर अरुणा को देखकर बोले। "परंतु तुम्हारी दादी स्वाभिमानी थी। समय आने पर इतनी तकलीफ में भी अपने स्वाभिमान को दिखाए बिना नहीं रहती थी ।"

सरोजिनी ने अपना सिर झुका लिया।

"आखिर तक मेरे विषय में वे नहीं बदले...."

"वे बदलेंगे ऐसा आपने सोचा क्या सरोजिनी अम्मा ?"

"नहीं" बड़े तसल्ली से सरोजिनी बोली। "अभी भी उनमें मुझे कोई कमी पता नहीं चला सहाब। कभी-कभी मुझे उनको सोच कर दया आती है।"

"जंबूलिंगम को सोचकर?" गुस्से से दिनकर बोले। फिर कार्तिकेय को देखकर "माफ करना भैया। तुम्हारे अप्पा की कमियों को गिना रहे हैं ऐसा गलत मत समझना। मैं और जम्बूलिंगम दोनों साथ में बड़े हुए हैं। साथ-साथ पढ़े हैं । हमेशा से ही उसे ज्यादा अहंकार था। परंतु मेरे साथ वह बहुत मिलकर रहता था। मेरी बात का सम्मान देता था। कितना भी नजदीक का दोस्त हो फिर भी एक हद तक ही अच्छी बात को बता सकते हैं। एक बड़े जमींदार के वारिस बन जाने से उसके अधिकार बहुत ज्यादा होने पर उसको मैं क्या कह सकता हूं? गलत सहवास में पड़ गया। वेश्या के घर में पीकर पड़े होने पर मैं उसे ढूंढ कर घर पर लाकर छोड़ता। सरोजिनी अम्मा बिना खाना खाए उसके लिए इंतजार करती रहती। इन्होंने कितनी मार खाई होगी, कितना अपमान सहा होगा परंतु इन्होंने कभी बाहर कुछ नहीं कहा फिर भी मुझे सब बातों का पता था । जो अन्याय किया है वही कम नहीं है करके दूसरी शादी और कर ली।"

"अब यह सब क्यों ?" सरोजिनी धीरे से बोली। "हम लोगों की जिंदगी अब खत्म होने वाली है। उनकी तो खत्म हो गई।"

"वह ठीक है" दिनकर बोले। "पूरी जिंदगी व्यर्थ हो जाने के बाद उसके बारे में बात करके क्या फायदा ? फिर भी कुछ बातें भूलने की सोचें तो भी भूल नहीं पाते, 50 साल हो जाए तो भी भूल नहीं पाते। इसीलिए यहां आए हैं तो इस समय आपको और आपके बेटे को देखने की मेरी इच्छा हुई।"

"आपको मैंने देखा नहीं" कार्तिकेय बोले। "बड़ा आश्चर्य होता है मुझे पता भी न देकर आप ऐसे कहां चले गए ? अप्पा के मौत के बाद आपको सूचना देने का हमने प्रयत्न किया था। आपका पता है हमें पता नहीं था।"

एक क्षण के लिए सरोजिनी को देखकर दिनकर ने सिर झुका लिया।

"खेती-बाड़ी मकान सब कुछ चले जाने के बाद मनुष्य का पता क्या है?" हल्के मुस्कान के साथ बोले।

"कुछ दिन पास के क्षेत्र में रहा। मेरा एक लड़का पैदा हुआ। 5 साल का बच्चा सड़क पर खेल रहा था। एक गाड़ी आकर टकराने से वह मर गया।"

"कितने साल पहले ?" अधीरता से सरोजिनी ने पूछा।

"मुझे भी याद नहीं है अम्मा" थके हुए आवाज में दिनकर बोले।

"उसके बाद तमिलनाडु की हवा भी नहीं चाहिए सोचकर आंध्रप्रदेश में चला गया। इस शहर में आप लोग रहते हैं ऐसा एक गांव के आदमी ने जो अकस्मात आया था उसने बताया। तब मैंने पते को लिखकर रख लिया था।"

सरोजिनी के चेहरे से मुस्कुराहट गायब हो गई।

"कितने दिन आप यहां रहेंगे?" ये प्रश्न बड़ी मुश्किल से पूछा।

"कल ही रवाना हो रहा हूं।'

"इतनी जल्दी क्यों ?"

"जल्दी ? मुझे यहां आए हुए एक महीने से ज्यादा हो गया!"

"बहुत सोचकर ही श्यामला को सरोजिनी अम्मा के पास भेजा। इस शहर में आकर आपको और भैया को देखे बिना जाने का मेरा मन नहीं किया।"

अपनी भावनाओं को भूलकर सरोजिनी हल्के से मुस्कुराई।

"दोबारा कब मिलेंगे पता नहीं, पता दे दो तो पत्र तो लिख सकते हैं।"

"मैं देती हूं" कहकर श्यामला लिख कर दी।

कार्तिकेय चलते समय उन्हें प्रणाम कर संकोच से बोला "आपको किसी भी तरह की मदद की जरूरत हो तो मुझे बिना संकोच के बोलिएगा!"

दिनकर उनके कंधे को वात्सल्य के साथ पकड़ा। "अब मुझे क्या चाहिए बेटे? यम आकर ले जाने का समय आ गया है। आज मेरा मन भरा हुआ है। यही मेरे लिए बहुत है" वे बोले।

घर वापस आए तो सरोजिनी का मन वर्तमान से भूतकाल की ओर जाकर खड़ा हो गया।

अध्याय 16

उस दिन मन कैसे पंख लगाकर उड़ रहा था? किस कारण से उड़ रहा था?

इन प्रश्नों को कई बार अपने अंदर वह पूछती और भ्रमित होडर जाती। उसको जवाब नहीं मिला। उसका दिल धड़कने लगा। कपकपी सी लगी... नए संचारों के लिए निडर होकर खड़े हुए जैसे। इस बात से ही उसे डर सा लगा। परंतु उस डर के बीच उसका निडर होकर उस पूरी रात दिनकर के साथ अकेले बैठकर उसकी बातें उसके हंसी मजाक की सुंदर यादें आकर एक सुख की अनुभूति प्रदान करती है।

सब तरह से निशब्दताथी उस रात। पत्ते और पक्षी अपनी सांस को रोके कुछ प्रतीक्षा कर रहे जैसे वह मौन था। सफलता के रास्ते में नीचे मिट्टी दबी हुई थी।

"इतने अंधेरे में फिर से आप गिर जाएंगी"उसके साथ ही दिनकर चले। सचमुच में डगमगा कर गिरने वाली थी तो उसने उसके हाथ को पकड़ लिया और"विपत्ति में कोई दोष नहीं"हंसते हुए बोला।

"घर पर आ गए"कहकर बाहर बरामदे के लाइट को उसने जलाया। बत्ती की रोशनी में अपने हाथ को छुड़ाकर उसे देख हंसा।

"किस तरह इतने निडर होकर आप गुप्त अंधेरे में बैठी थीं? मैं नहीं आया होता तो क्या हुआ होता?"

उसको भी हंसी आ गई।

"कुछ भी नहीं हुआ होगा। नीचे गिर कर अपने आप उठ गई होती।"

"चोट के साथ...."

एक क्षण उसी हंसी वाले निगाहों से सरोजिनी ने देखकर सिर को झुका लिया।

"कितनी भी चोट लग जाए उससे किसी को भी कोई परेशानी नहीं होगी साहब!"धीमी आवाज में बोली।

वह थोड़ा रुक कर धीरे बोला।

"दूसरों को परेशान होने की जरूरतहै ऐसा क्यों सोचती हैं? आपको तो परेशानी होती ना?"

"हां परेशानी होती है? मुझे कुछ भी हो जाए तो फिक्र करने वाला एक भी आदमी नहीं है यह बात मुझे परेशान करती है चोट नहीं।"

उसे स्वयं को भी पता न लगा अचानक उसके आंखों से आंसू गिरने लगे। वह स्तंभित होकर परेशानी से उसे देखने लगा।

"आप बुरा नहीं मानो तो एक बात कहता हूं। आपके बारे में मुझे फिक्र है।"

वह चकित होकर गर्दन ऊपर कर उसे देखा। इस घर में किसी के पास भी दिखाई नहीं देने वाला दया भाव उसके आंखों में दिखा। 'इनकी फिक्र करने से मेरा क्या होने वाला है?' वह सोचने लगी। फिर भी उस शब्दों को सुनकर कारण नासमझ आने पर भी उसके मन को वह छू गया।

"जंबूलिंगम मेरा करीबी दोस्त है इसलिए मुझे आपके लिए दुख होता है....."वह बोला। "कितना भी करीबी दोस्त हो फिर भी कुछ बातों के बारे में बात नहीं कर सकते। उसे अच्छी सलाह दे नहीं सकते। यदि बोले तो उसे गलत लगेगा। आपके साथ उनका व्यवहार ठीक नहीं मुझे मालूम होने के बावजूद मैं आपके पक्ष में बात करूं तो वह गलत ढंग से ले सकता है। दोस्ती ही खत्म हो जाएगी। इसलिए उसे ठीक करना आपके हाथ में हैं बहुत दिन पहले आपसे मैंने कहा था।"

अब उसका संकोच थोड़ा दूर हो गया "उन्हें सुधारना मेरे लिए संभव नहीं है!" बड़े दुख से बोली। "मुझमें रोष अधिक है। ढोंग करना मुझे नहीं आता। उन्हें तृप्त करना मुझे नहीं आता यहमेरी ही कमी है ना?"

उसकी आंखों में फिर से आंसू भर आए।

"नहीं आप में कमी नहीं है" उसे ध्यान से देखकर दिनकर बोले।

"वीणा को बजाओ तो ही स्वर आएगा। उसे तोड़ो तो स्वर आएगा क्या ?"

उसने असमंजस में उसे देखा। वीणा में और अपने में क्या संबंध है उसे समझ में नहीं आया। वह मेरी बढ़ाई कर रहा है यही समझ में आया। उसे शर्म भी आई।

"आप कुछ भी बोलो उनके लिए तो मैं कुछ भी नहीं हूं। घर की रसोई को संभालने वाली एक बाई हूं। मेरा भी मन है मेरी भी कुछ इच्छाएं होगी..."

"वह मुझे समझ में आता है।"

वह एकदम से उसे घूर कर देखी। 

"आपके समझने से मुझे क्या फायदा है बताइए?"

उसने अपने सर को झुका लिया।

"फायदा नुकसान देखने का विषय नहीं है यह। मैं आपका दोस्त हूं इसे आपको समझना चाहिए। मैं विशेष रुप से आपकी मदद नहीं कर सकता तो भी आपके लिए बोलने के लिए मैं एक हूं ना...."

उसका शरीर एकदम से रोमांचित हो गया। इन्हें सचमुच में अपने ऊपर दया और अपनत्व है ऐसा उसे लगा। वह अपने को संभाल कर बोली "आपको बहुत धन्यवाद। आप मेरे लिए बोले तो फिर एक विपत्ति आ जाएगी। आप बोले तो भी यहां सुनने वाला कोई नहीं है?"

"यही वास्तविकता है" दुखी होकर वह बोला। फिर उसे देखकर थोड़ा मुस्कुराकर पूछा "पर आपके पक्ष में कोई आदमी है यह आपके लिए बल तो है?"

उसने हिचकते हुए उसे देखा। उस हंसी में दया की भावना से उसे कुछ होने लगा। अभी तक महसूस नहीं किया ऐसी एक भावना से रोमांचित होकर दिल में एक भावना उठी। जंबूलिंगम से आने वाली बदबू और काले शरीर को देखते ही उसे डर और घृणा के कारण अकड़ जाने वाला उसकाशरीर दिनकर के सानिध्य में पिघल कर खड़ा है ऐसा उसे लगा। उसके गालऔर कान इस ठंड में भी गर्म हो गए।

'सुंदर होने से क्या यह तो सिर्फ लकड़ी है ऐसा यह बोलते हैं!' रत्नम की हंसी उसे याद आई।

'गलत ! यह झूठ है मैं लकड़ी नहीं हूं...'

शरीर के सारे अंग एक तरह से एक प्रतीक्षा में खड़े थे। आंखें मोहित होकर अपने होश खो रहे थे।

"आपको अभी तक मुझ पर विश्वास नहीं हुआ ऐसा लगता है..."

वह हिचकिचाकर अपने को संभाल लिया। 

'ओफ ! क्या हो गया मुझे? ऐसा उसे एक डर लगा। 'मैं एक शादीशुदा औरत हूं। ऐसे होश खोकर रहूं तो ठीक है?' एक डर उसे उत्पन्न हुआ। 'मैं क्यों इस आदमी से बात करती हुई खड़ी हूं?' उसका मन घबराया।

"आपके ऊपर विश्वास नहीं है ऐसा नहीं" ऐसा वह हिचकते हुए संकोच से बोली। "आपकी मित्रता तो मेरे लिए विपत्ति ही लेकर आएगी..."

"फिकर मत करिए। ऐसी आफत आने जैसा मैं व्यवहार नहीं करूंगा।"

"आपकी पत्नी को एक बार यहां ले कर आइए ना?" ऐसा कहकर उसने बात को बदला।

"मेरी तो शादी ही नहीं हुई है फिर पत्नी कहां से होगी?"

वह आश्चर्य से उसे देखी।

"अभी तक शादी नहीं हुई? क्यों? आपके दोस्त की तो दो शादी हो गई है!"

वह हंसा।

"सोलह साल में ही उसको बंधन में बांधना है उसकी अम्मा के समझ में आ गया था। मैं तो बिना बाप का हूं। मुझ पर घर की जिम्मेदारी बहुत है‌। अभी हीसबसे छोटी बहन की शादी की । अब मुझे मेरे बारे में सोचना है। आप कोई अच्छी लड़की को जानते हैं तो बताइए?"

वह मैत्री भाव से हंसी।

"आपको किस तरह की लड़की चाहिए?"

"आपके जैसे होना चाहिए"

फिर से उसके पूरे शरीर खून तेजी से दौड़ने लगा और गर्मी से वह रोमांचित हुई।

उसने हिचकती हुए सिर नीचे कर लिया।

"नहीं, नहीं मेरी जैसी आपको नहीं चाहिए। आप भी बिना तृप्ति के थक कर फिर दूसरी शादी करेंगे।"

वह उसे घूर कर देखने लगा।

"जम्बूलिंगम और मैं दोनों ही एक तरह के आदमी है आप कह रही है क्या!"

वह जवाब दिए बिना मौन खड़ी रही।

अचानक उसे कमजोरी लगी। स्वयं पर पश्चाताप से आंखों में आंसू उमड़ पड़े।

"घर में बहुत अंधेरा है। मैं जाकर लाइट जला कर आता हूं।" वह उसे ना देख सके इसलिए उसने पीठ पीछे कर ली।

"मरगथम को तुम्हारी सहायता के लिए लिए बैठने के लिए बोलूं !" धीरे नम्रता से बोला "इतनी बड़े घर में रात के समय अकेले बैठे रहना डर नहीं लगता?"

"डर तो लगता है!" वह बोली,"मरगथम के पति को बुखार हो रहा है उसे खाने को कुछ देकर आती हूं उसने बोला है।"

"फिर ठीक है। उसके आने तक मैं बैठ जाऊं?"

"नहीं"बोलने में उसे संकोच हो रहा था।

"मैं बरामदे में ही बैठा रहता हूं। आप अंदर जाकर किवाड़ लगा कर बैठ जाओ"वह मुस्कुराते हुए बोला। वह सकुचाई।

"अंदर बिजली के लाइट को जला कर बैठे तो सासु मां को पसंद नहीं आता। तेल डाल के लटकने वाले दीपक को ही जलाने को बोलती हैं। उसे ही जलाना है। रोज मरगथम का पति ही उसे जलाता है। ऊंचा होने के कारण मैं नहीं जला सकती।

"बस यही बात है। मैं जलाता हूं।" कह कर वह अंदर गया। अंधेरे में मुश्किल से बिजली का स्विच से दिखाई दिया तो उसे ऑन किया। माचिस की डिबिया को निकालकर कुर्सी पर चढ़कर दो दीपकों को जलाया। "और दीपक भी जलाना है?"पूछा। "हां रसोई जाने के रास्ते में एक बरामदा है। वहां बिजली नहीं है।"

उसके पीछे गया। वह आदत के कारण बड़े आराम से गई। वह किसी से टकराकर "अरे बाप रे" बोला तो उसने अनजाने में ही उससे "हाथ को दीजिए" बोली। 

उसके जवाब के बिना उसके हाथ को पकड़ लिया।

"यही पीछे का बरामदा है" वह बोली।

"माचिस का डिब्बा दीजिए" उसनेआले में से उठा कर दिया।

"अरे बाप रे अंधेरे में आप की निगाहें बड़ी तेज हैं?" कहकर उसने आश्चर्य प्रकट किया।

"अंधेरे की मुझे आदत है!"कहकर वह हंसी।

वह मौन होकर माचिस को जलाकर उसने जिस दिशा में कहा वहां के दीपक को जलाया।

"आपको बहुत धन्यवाद। आप कुछ खाएंगे?" पूछी ‌।

"नहीं नहीं आप खा लीजिए। मैं बाहर बैठता हूं। मरगथम को आने के लिए बोल कर मैं रवाना होता हूं" बोला।

उस धीमी रोशनी में उसे अच्छी तरह देखा।

"आप चाहे या ना चाहे मैं आपका दोस्त हूं। उसे आपको नहीं भूलना चाहिए"कहकर वह तेजी से बाहर चला गया।

बहुत देर तक उसका मन एक अजीब नशे में तैरने लगा। यह गलत है यह गलत है ऐसा मन के दिमाग में एक आवाज आ रही थी फिर भी एक लाजमी लक्ष्य उसके सामने घूमने लगा।

बैलगाड़ी की आवाज सुनाई दे रही थी शादी में से वापस आए लोगों की भीड़ घर के अंदर घुसते समय, आज कुछ आश्चर्यजनक एक नई शक्ति आये जैसे उसका मन भरा हुआ था।

अध्याय 17

"हेलो दादी !"

बड़े आराम से अपनी पुरानी यादों से अपने को अलग कर सरोजिनी ने मुड़ कर देखा ।

अरुणा आज लाल रंग की साड़ी पहने बहुत अच्छी लग रही थी।

"आओ !" सरोजिनी मुस्कुराते हुए बोली। "लाल रंग तुझ पर बहुत खिल रहा है बेटी!"

"थैंक्यू दादी" हंसते हुए अरुणा उसके पास आई। आज शाम को आप फ्री हैं ना ?"

सरोजिनी मुस्कुराई। "क्या प्रश्न है? सारे दिन ही मैं बेकार ही तो पड़ी हुई हूं?"

"फिर भी पूछ रही हूं। शाम को बाहर चलेंगे आ रही हो क्या ?"

"आती हूं ! कहां?"

"लालबाग। आज वहां रोज शो है। अम्मा-अप्पा को और कहीं जाना है। आप आइए ना।"

बेचारी इस लड़की को कोई दूसरा साथी नहीं मिला इस दया भाव से, "आऊंगी!" मुस्कुरा कर बोली।

आज शनिवार है उसे याद आया।

"आज घर में ही रहोगी ना?" बोली।

हाथों को ऊपर उठा कर सुस्ती छोड़कर, "करीब-करीब...." अरुणा बोली।

"अभी अप्पा के साथ साग सब्जी लेने जा रही हूं, वहां से आकर फिर सूती साड़ियों में कलफ लगाऊंगी, तेल लगाकर सिर धोना है । फिर साड़ियों को स्त्री करने देना है !"

"अरे बाप रे कितना काम !"

"मजाक कर रही हो !"

"नहीं, जिस तरह तुम बड़ी हुई हो उसके लिए तो यह ज्यादा ही है।"

"आपको भी तो लाड प्यार से बड़ा किया था। फिर बैल जैसे काम किया। उसमें और इसमें कोई संबंध है क्या ?"

"संबंध नहीं है। क्योंकि यह समय ही अलग है। हमारे जीने का तरीका ही दूसरा था। तुम तो आदमी पढ़ते हैं जैसे पढ़ी हो इसीलिए अंतर नहीं होना चाहिए क्या ?"

अरुणा का चेहरा हल्का सा काला पड़ा।

"मुझमें और आप में अंतर है दादी। इसीलिए तो मुझे एक हिस्सा मिलना चाहिए ऐसा जिद्द करने की सोचती हूँ। नहीं मिले तो झगड़ा करके गुस्सा होकर उसे छीनने की सोचती हूँ ।"

सरोजिनी बिना जवाब दिए उसे मौन होकर देखती रही ।

अरुणा अपने आप में बात कर रहे जैसे बोली "मेरे अंदर जो अंतर आया है उसे दूसरे लोग कब समझेंगे? विशेष रूप से आदमी लोग कब समझेंगे? उसे समझ कर उसके लिए एक इज्जत देना चाहिए ऐसा कब अपना समुदाय सोचेगा?"

अरुणा की आवाज यह कहते हुए गदगद हुई। उसकी आंखों में आंसू छलक आए।

सरोजिनी घबराई। यह बच्ची अब भी क्यों इस विषय पर बात करती हैं और भावनातिरेक में बहकर दुखी होती है।

उसे समाधान करने के लिए, उसके हाथ को धीरे से थपथपाया। 

अरुणा अपने ही धुन में बोलती चली गई।

"यह न्याय नहीं है तो बताओ मैंने कुछ गलती की है जैसे मुझे ही नीचा दिखाते हुए ना रहे यह कब सीखेंगे ?"

सरोजिनी धीरे से बोली "समय बदल रहा है अरुणा, मैं जिस समय रही थी और तुम जिस समय रह रही हो उस में बहुत अंतर आया है उसे मैं देख रही हूं?"

'लड़कियों के मन में जो अंतर आया है वह आदमियों के मन में नहीं आया दादी। हमारे समाज में भी नहीं आया। इसीलिए तो एक बंद इमारत को तोड़कर बाहर आए जैसे बाहर खड़ी लड़कियां थक जाती हैं !"

"विरोध में खड़े होना इतना आसान नहीं है बच्ची। विरोध के लिए यदि तुम भी आती हो तो उसका सामना करने के लिए तुम्हें तैयार रहना चाहिए। उसे संभालने की होशियारी तुम्हें प्राकृतिक रूप से आनी चाहिए। तुमने जो किया है वह सही है ऐसा दूसरे सोचे वैसे परिस्थिति तुम्हें ही पैदा करनी है। मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं। परंतु धीरे-धीरे लोग बदलेंगे ऐसा मुझे विश्वास है। सभी लड़कियों के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है। शिक्षित होने से ताकत आती है। उस ताकत से समाज भी बदलेगा । उसे बदल देंगे। क्योंकि उसमें एक तुम भी हो।"

अपने आंखों में भरे हुए आंसुओं के साथ अरुणा ताली बजाकर हंसी।

"अरे बाप रे दादी, आप यदि पढ़ी होती तो पूरे शहर में तहलका मचा देती । कम से कम एक मंत्री तो बन गई होती।"

"इन सब सोच के लिए पढ़ने की जरूरत नहीं है। अनुभव ही बहुत है" कहकर सरोजिनी हंसी।

"अपनी कहानी को तो आप मुझे नहीं बता रही हैं....!"

"यह सब बताने लायक नहीं है बच्ची !"

"निश्चित रूप से कुछ है मुझे लगता है !"

सरोजिनी ने चकित होकर उसे देखा।

"कैसे बोल रही हो ?"

"दिनकर दादा को देखने के बाद लग रहा है !"

उसे हल्का सा सदमा लगा। अपने चेहरे ने और बात करने के ढंग से क्या उसे पता चल गया?

"अरे जा रे !" प्यार से बोली। "फिल्म देख-देख कर तुम कल्पना ज्यादा करने लगी हो ।"

"फिर कुछ नहीं है क्या ?"

"नहीं कुछ नहीं !"

"फिर तो आपकी कहानी में कोई इंटरेस्ट ही नहीं।"

"पिक्चर तो बिल्कुल बना नहीं सकते।"

कुछ भी न मालूम जैसे उस सीधी-सादी हंसी को अरुणा कुछ देर तक बड़ी उत्सुकता के साथ देखी।

"मुझे विश्वास नहीं हो रहा है दादी।"

"तुम्हें विश्वास करने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है क्योंकि मेरा जीवन बिना नमक-मिर्ची वाला था।"

"अरुणा !"

अंदर से कार्तिकेय की आवाज सुनाई दी।

अरुणा तुरंत उठ गई। "मैं चलती हूं दादी। अम्मा को गीजर ऑन करने के लिए कह देना।"

"आज मैं तुम्हारे सिर पर तेल लगाऊंगी।"

"राइटो !"

सरोजिनी उठ कर उसके साथ चल कर बाहर बरामदे तक आई। अरुणा और कार्तिकेय को जाते हुए देखकर वह बगीचे में जो कुर्सी थी उस पर बैठ गई।

अरुणा की बात सोच कर उसे हंसी आई। तमिल में कहावत है "सांप का दूध सांप ही जाने" इस तरह उसके अंदर कितनी शंकाएँ हैं सोचकर उसे आश्चर्य हुआ।

"दिनकर दादा को देखने के बाद निश्चित रूप से कुछ है लगता है !"

क्या कार्तिकेय ने भी ऐसा ही सोचा होगा? संकोच से उसका गाल हल्का लाल हो गया। "विरोधी" ऐसा अप्पा ने विशेष रूप से बोला था अम्मा की इतने सालों बाद उसे देखने की इच्छा है इसका कुछ मतलब है ऐसा कल्पना करेगा क्या?

"कुछ भी सोचने दो" वह अपने आप में बोली। "ये लोग अब मेरे बारे में कुछ भी सोचे तो क्या होगा ?"

दिनकर ने सोच-विचार कर ही पोती को मेरे पास भेजा। वे इतने साल कहां थे मुझे पता नहीं।

"एकदम से तमिलनाडु से नफरत करके उसे छोड़ आंध्र प्रदेश में चले गए...."

इसका मतलब आंध्र प्रदेश जाने के पहले एक घर रहा होगा ‌।

ऐसी नफरत होना है तो....

नफरत या डर? जल्दी से उसे एक बात याद आई।

"बेटा एक्सीडेंट में मर गया।"

आंखों फाड़कर उसने बाहर देखा। सभी बातें उसकी आंखों के सामने आने लगी। उसके मन की खिड़कियां खुली। "ओ" सोचते ही उसका दिल जोर से धड़कने लगा। नई बात जो समझ में आई उसे सोच उसका शरीर कांपने लगा।

उसे पुरानी बातें याद आनी शुरू हुई और उन्हें जोड़कर देखा।

धीरे-धीरे पहले समझ में नहीं आने वाली बातें अब उसके समझ में आने लगी।

उस समय कार्तिकेय आठ साल का था। जम्बूलिंगम का स्वभाव पहले जैसा ही था। परंतु सरोजिनी बदल गई थी। बच्चे को पैदा करके देने से उसकी कीमत सास की निगाहों में बढ़ गई थी। उसको भी बच्चे के तुतली बातें और उसका खेलना आदि ने सरोजिनी में एक नई शक्ति पैदा कर दी । तुम जो अपमान कर रहे हो उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा ऐसे उसने अपने कार्यों से जम्बूलिंगम को महसूस कराना शुरू कर दिया।

सासू मां को जंबूलिंगम का व्यवहार बुरा लगा।

"वह एक बेवकूफ है" मरते समय वह बोलने लगी। "वह मनुष्य की कीमत नहीं समझता है। रत्नम ने ऐसा कौनसा बड़ा काम कर दिया है पता नहीं। वह कितनी भी बेहुदी हरकतें करें तो यह बेहोश हुआ पड़ा रहता है। एक लड़का पैदा कर दें तो रिश्ता बढ़ जाता है? तुम्हें एक सन्यासी बना दिया उस पापी ने" ऐसा कहकर वह दुखी होती।"

सरोजिनी अपना मुंह ही नहीं खोलती। खोले भी तो "मैं तो तृप्ति से हूं ना" ऐसा कहती क्या ?

"तू भाग्यशाली है !" ऐसा कह के उसकी नजर उतारती । "तू मनुष्य नहीं देवी है। वरना एक साधारण स्त्री में इतनी सहनशक्ति कैसे होती।"

उसे चुपचाप अपने कमरे में बुलाकर अपने सब गहनों को लक्ष्मी, सरोजिनी का ही है ऐसा पत्र लिखकर उसे रजिस्टर कराने को बोला। 

सास के मृत्यु के बाद जब सब काम खत्म हुआ तो उसे पिछवाड़े में एक रात वह सोई हुई थी तब जम्बूलिंगम और एक दूसरे आदमी की आवाज सुनाई दी। यहां से अंदर चली जाऊँ उसने सोचा। परंतु उसका शरीर बहुत ही थका हुआ था। "मैं सोई नहीं हूं उन्हें पता नहीं" उस धैर्य के साथ आलस में पड़ी हुई थी।

"काम खत्म हो गया स्वामी" वह आदमी बोला |‌

"कैसे?" जंबूलिंगम ने पूछा।

"छोटा बच्चा सड़क पर इधर-उधर जा रहा था तो ड्राइवर ने उसके ऊपर चढ़ा दिया।

"किसी को संदेह तो नहीं होगा ? अपनी गाड़ी है मालूम तो नहीं कर लेंगे?"

"इन बातों की फिक्र मत करिए। वह दूसरा जिला है। अपने नंबर प्लेट को भी बदल दिया ।

"लड़का कितने साल का था ?"

"चार साल का‌"

उस दिन समझ में ना आने वाली बात आज साफ उसके समझ में आई।

अध्याय 18

उसके पेट के अंदर से एक भयंकर ज्वाला उठी। कुर्सी को मजबूती से उसने पकड़ा। आंखें चौड़ी होकर फैल 50 साल पीछे झांकने लगी।

सरोजिनी को यह बात सोच-सोच कर अब भी सहन नहीं हो रही थी। जंबूलिंगम मरने-मारने में पीछे नहीं रहता है ऐसा एक संदेह सरोजिनी के मन में हमेशा से था। राक्षसों जैसे भीम काय शक्ल के आदमी बाहर के कमरे में चार पांच लोग उससे बातें करते थे यह बात उसे पता था । उन आदमियों को देखकर ही उसे दुख होता था।

जम्बूलिंगम से उनके बारे में पूछने की उसकी हिम्मत नहीं थी। एक बार उसकी सास का मूड ठीक होने पर उससे धीरे पूछा था।

"यह लोग क्यों आते हैं ? यह खेती करने वाले लोग जैस नहीं लग रहे हैं? मारने वाले हत्यारे जैसे लगते हैं। उनको देखने से ही मुझे कुछ-कुछ होने लगता है। उन्हें यहां क्या काम है?"

आराम से बैठी सासू मां का चेहरा एकदम से टेंशन में आ गया।

"पुरुषों को बहुत से काम होते हैं ! उन सब के बारे में तुम्हें जान कर क्या करना है?" गुस्से से बोली।

"इतने बड़े जमीन की देखभाल करना कोई सामान्य काम तो नहीं है ?"

सरोजिनी हमेशा की तरह मुंह बंद करके अपने कामों में लग गई। परंतु उसके मन को संतुष्टी नहीं हुई। "उसे संभालने के लिए मारने की भी जरूरत होगी क्या? उसके मन में ऐसे प्रश्न उठे, जिसे उसने दबा लिया। 

"अपने आदमी के बारे में ऐसे क्यों सोचें" ऐसे अपने आप से कहने लगी। "उनका व्यवहार मुझसे ठीक नहीं है इसलिए ऐसी बातों को सोचना ठीक है क्या ? सास कह रही है जैसे कितने ही बातें होती होगी । पुलिस की राह देखने के बदले अपने आदमियों को ही रक्षा के लिए रखना ठीक रहता है" अपने आप में ही सोचकर उसका निर्णय कर लिया।

परंतु उसका फैसला ठीक नहीं है ऐसा उसके कानों में कई बातें पहुंची। काम करने वाले नौकरों से जब बात की तब उन लोगों ने बात को बदल दिया जिससे उसके मन में शंका उत्पन्न हो गई। पन्नाडे में शडैयन नाम का एक किसान था। वह बहुत ही अच्छा आदमी था ऐसा सरोजिनी सोचती थी। दिनकर को भी उसकी तारीफ, जंबूलिंगम से करते हुए कई बार सरोजिनी ने भी सुना । शडैयन का किसानों के बस्ती में बहुत नाम था। हर साल पोंगल पर टोकरी भर-भर के फल व सब्जियां, "हमारे बगीचे का है" ऐसे नम्रता से बोल कर सरोजिनी को देकर उसे प्रणाम करके जाता था। रत्नम से जंबूलिंगम जब दूसरी शादी करके लेकर आया फिर भी सरोजिनी को वह 'मालकिन' 'जमींदारनी अम्मा' से ही पुकारता।

अचानक जंबूलिंगम को शडैयन से कुछ नाराजगी हो गई। रत्नम ने वह मेरी इज्जत नहीं करता ऐसे बोला होगा ऐसा सरोजिनी को लगता था। अक्सर जंबूलिंगम शडैयन को बुलाकर जोर-जोर से उस पर चिल्लाता और उसके बारे में दूसरों से भी कुछ-कुछ कहता था। उसी समय एक दिन दिनकर शडैयन के पक्ष में बोला।

"शडैयन अच्छा मेहनती किसान है जम्बू। उसका विरोध लेना ठीक नहीं। उसको देख दूसरे किसान भी जल्दी-जल्दी काम करते हैं। आंख बंद करके भी तुम उसे सारी जिम्मेदारी दे सकते हो।"

"अरे तुम्हें क्या हुआ, उसके साथ पैदा हुआ जैसे उसकी वकालत करने आ गए!" जंबूलिंगम बोला।

"साथ पैदा हुआ हो तो ही बात करना चाहिए क्या जम्बू ! मनुष्य की

 इज्जत भी कुछ है कि नहीं?"

"यह सब मुझे कुछ नहीं पता" बड़े कडाई के साथ बोला। "मेरा नमक खाने वाला कुत्ता है वह, उसे चुपचाप पूंछ को लपेट के बैठना चाहिए पर वह न्याय की बातें करके सबको भड़काने की सोच रहा है ?"

"वह जो कह रहा है वह न्याय संगत है जम्बू। तुम्हारे दादा के जमाने की मजदूरी अभी भी तुम दोगे तो वह न्याय है क्या ?"

"न्याय है कि नहीं, मैं अभी इतना ही दे सकता हूँ । कोई भूखा पेट हो तो मुझे बताओ।"

"तुम्हारे पास आकर नहीं बोलें तो कोई नहीं है ऐसा मत सोचो। उनके पास कम है इसीलिए तो वे अभी न्याय की बात कर रहे हैं।"

"वह सब उस बदमाश शडैयन के उकसाने से ही है...."

थोड़ी देर दिनकर बिना कुछ बोले चुप रहा ।

"पता नहीं, तुम्हारा दोस्त हूं इस कारण से तुम्हें अच्छाई और बुराई को समझाना मेरा कर्तव्य है ऐसा मैं सोचता हूं। सुनना ना सुनना तुम्हारा अधिकार है।"

"हां, यही होशियारी की बात है, सभी लोगों को मैंने नापतोल कर ही रखा है। शडैयन को कैसे दबाना है मुझे पता है।"

"फिर ठीक है" ऐसा कह के जल्दी से दिनकर रवाना हो गया। आड में छुपकर खड़ी होकर उनकी बातों को ध्यान से सुन रही सरोजिनी को पार कर जाते समय उसे देख वह थोड़ा विस्मय से कुछ क्षण हिचक कर खड़ा हुआ। उसकी आंखों में एक खुशी दिख तुरंत गायब हो गई। दूसरे ही क्षण दुख, पश्चाताप परस्पर एक सहानुभूति की छाया जैसे आई। वहां खड़े हुए बिना वह भी जल्दी से चली गई ।

उसकी आंखों में जो दया और प्रेम दिखा जिससे वह भ्रमित हो गई। जंबूलिंगम से इतना अलग यह आदमी कैसे हैं उसे आश्चर्य हुआ। इसके जैसे स्वभाव जम्बूलिंगम का रहा होता तो मेरा जीवन ही दूसरे तरह का होता ऐसी कल्पना करती हुई वह पिछवाड़े के आंगन में जा बैठी। चंद्रमा की चांदनी के ठंडक ने उसके अंदर रोष उत्पन्न किया। अंदर रत्नम और जम्बूलिंगम बात करते हुए हंसते हुए जो प्रेमालाप कर रहे थे वह धीरे से उसे सुनाई दे रहा था। "जंबूलिंगम दिनकर के जैसे सौम्य, दयावान, प्रेमी होता तो उसके छूते ही यह शरीर इस तरह अकड़ता नहीं । वह पिघल जाता। आ... जो नहीं है उसके बारे में सोच कर क्या फायदा? उनके लिए तो रत्नम ही ठीक जोड़ी है ऐसे ही देख कर लेते तो ठीक रहता।"

एक दिन अंधेरे में, वह फिसली तो दिनकर ने उसे पकड़कर उठाया तो उसकी नाड़ियों में तेजी से खून दौड़ने लगा उसे याद आया। यह सोचते ही उसके गाल गर्म होने लगे वह एकदम से हड़बड़ा कर उस सोच को अपने से दूर किया।

रत्नम से जंबूलिंगम ने शादी कर जब लेकर आया तब से इस घर में जो तमाशा हो रहा है उसे सहन नहीं कर सकने के कारण वह अपने पीहर गई तो अपनी अम्मा से कह कर रोई। अम्मा कुछ देर बिना बोले चुप रही फिर धीरे से उसे चुप कराने के आवाज में बोली "यह देखो। उन्होंने दूसरी शादी की यह सच है। परंतु उन्होंने तुम्हें अलग नहीं किया? और अभी भी तुम्हें अपने घर में पत्नी का दर्जा दिया हुआ है?"

उसने तड़प कर अपनी मां को देखा।

"ऐसे रहने में कोई सम्मान है क्या ? मुझे वापस भेज देते तो उन्हें मुझसे अच्छी कोई खाना बनाने वाली नहीं मिलती। मैं सिर्फ एक खाना बनाने वाली ही हूं।"

उसके होंठ फड़फड़ाने लगे आंखों में आंसू भर आए। "मेरी दशा तुम्हारे समझ में नहीं आ रही है" ऐसा गुस्सा उसके अंदर आया।

अम्मा आसपास देखकर धीमी आवाज में बोली।

"यह दूसरी शादी तुम्हारी वजह से ही हुई ऐसा तुम्हारी सास परोक्ष रूप से बोलती है। तुम्हें बच्चा नहीं हुआ यह एक कारण है उसके साथ तुम पति से ढंग से नहीं रहती थी...."

उसने एकदम से गुस्से से सामने देखा। “धुत् तेरी की” यह सब बातें मां-बेटा करते हैं ?

"हां.... उन्होंने आकर देखा क्या !" गुस्से से और एक अहंकार के साथ फट पड़ी ।

"मेरे साथ वे स्वीकारने लायक नहीं रहते तो तुम क्या कहोगी ?"

"पीठ पर मुक्का मारूंगी" वे गुस्से से बोली "वे लोग आदमी हैं री ! कुछ भी कर सकते हैं ‌। इस रत्नम से असंतुष्ट होने पर वह एक और को भी लेकर आ सकते हैं। तुम कैसी पूछ सकती हो? उन्हें अपनी मुट्ठी में रखने का सामर्थ्य तुममें नहीं है। लड़का पैदा करके नहीं दिया। अपने घर में कोई भी बांझ नहीं थी। तुम ही ऐसी हो। अभी तक तुम्हें उस घर की बड़ी बहू जैसे सम्मान देकर रखा हुआ है तो तुम्हें खुश होना चाहिए।"

इस बात के लिए ही अम्मा खुश हो रही है ऐसा सरोजिनी को लगा।

"तुम कैसे पूछ सकती हो ?"

मतलब मुझे कोई अधिकार नहीं है। उसने मुझे जो छाया मुझे दिया है वह उसके अधीन रहने का शासन।

अम्मा इस तरह की बात करके उसे वापस भेजे करीब दो साल हो गए।

"लोगों ने मुझे भले ही अपने आधीन समझा परंतु मैंने अपने को इतना हीन और दयनीय नहीं समझा" अपने आप से कह कर वह हंस दी।

"जब तुम दूसरी औरत को लेकर आ गए, तब ही मेरे शरीर के ऊपर तुम्हारा हक खत्म हो गया उसने गंभीरता से कह दिया। तुम्हें चाहिए तब आऊं नहीं चाहिए तो दूर चली जाऊं क्या इसके लिए मैं कोई कुत्ता हूँ ?"

"अब मैं बहुत शांति से हूं। बाघ जैसे झपट्टा मारकर मेरे शरीर को रौंध डालना ही शरीर का सुख है तो वह मुझे नहीं चाहिए।"

चांद की चांदनी चारों ओर फैली थी। उसकी सभी नाडियों में एक लालसा दिखाई दी जो उसके समझ में नहीं आया परंतु उसकी आंखों से आंसू लगातार झरने लगे।

एक दिन शाम को वह फूलों की माला बना रही थी। उसके सिवाय पूरे घर के लोग मदुरई जाने के लिए तैयार हो रहे थे। रास्ते के लिए पूरा खाना बनाकर वह भगवान के तस्वीर पर डालने के लिए फूलों की माला तैयार कर रही थी।

कहीं से मरगथम भागी भागी आई। आसपास देखकर बड़ी धीमी आवाज में झुक कर बोली "अम्मा उस शडैयन की किसी ने हत्या कर दी।"

"क्या?" बड़ी अधीरता से वह बोली। "मुझे विश्वास नहीं।"

"कसम से ! बगीचे के माडस्वामी उसे देखकर आया है ।"

"वह आश्चर्यचकित होकर सामने देखी। थोड़ी दूर पर माडस्वामी खड़ा था। उसकी आंखों में आंसू भरा हुआ था।

"हां अम्मा मैंने आंखों से देखा। यल्लैअम्मन मंदिर के पीछे बहने वाले नाले में उसका गर्दन कटा हुआ शव पड़ा था।"

सरोजिनी से सहन नहीं हुआ। शडैयन कितना अच्छा आदमी था! उसकी हत्या गांव वाले करेंगे क्या? उसकी छाती जोर-जोर से धड़कने लगी और आंखों से आंसू बहने लगे। फूलों की टोकरी पैरों से लुढ़क गई उस पर भी ध्यान ना देकर वह जल्दी से उठ कर अंदर गई। संदूक के अंदर कपड़ों को ठूंस रहे जम्बूलिंगम और रत्नम ने गर्दन उठाकर उसे देखा। रत्नम के चेहरे पर उपहास के भाव दिखाई दिये।

"क्या अन्याय है देखो!" सरोजिनी बिना संबोधन के बोली। उसके गले में कुछ फंसा जैसे आंखों में आंसू बहते हुए बोली "उस शडैयन की किसी ने हत्या कर दी।

यल्लैअम्मन के मंदिर के पीछे बहने वाले नाले में उसका शव पड़ा है।"

किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। किसी ने भी आश्चर्य प्रगट नहीं किया । वहां एक अजीब सा तनाव था। उन सब पर ध्यान न देकर वह बोल रही थी "वह कितना अच्छा आदमी था! उसको पता नहीं कोई...."

जंबूलिंगम आराम से उसके सामने आकर उसके गाल पर जोर से चाटा मारा।

"क्यों ऐसे प्रलाप कर रही हो ? वह शडैयन तुम्हारा कौन लगता है? तुम उसकी रखैल हो क्या?"

वह एक सदमे के साथ उसे देखी। हंसी को रोक नहीं पा रही थी रत्नम को उसने देखा।

"थूं!" कहकर थूंकने का जो वेग उसमें आया उसे मुश्किल से दबाकर वह कमरे से बाहर आ रही थी तभी जंबूलिंगम कुछ धीमी आवाज में बोल रहा था तो उस पर रत्नम जोर से हंसी जो उसको सुनाई दी। उसके मन में आग सी लगी।

अध्याय 19

कार्तिकेय की गाड़ी कंपाउंड के अंदर आ रही थी । सरोजिनी को दिखाई दी तो वह हड़बड़ा कर वर्तमान में लौटी।

"रत्नम को मरे दस साल हो गए ‌अभी तक मुझे उसके ऊपर जो नाराजगी थी वह कम क्यों नहीं हुई"उसे खुद को आश्चर्य हुआ।

अभी इतनी सुबह से उसके बारे में सोच कर बैठे रहो तो और किसी काम में मन ही नहीं लगेगा....

कार की आवाज को सुन मुरूगन भागकर गाड़ी में से सब्जियों के थैलियों को उठा कर लाया। अरुणा मुस्कुराते हुए चेहरे से सरोजिनी को देखकर हाथ हिलाते हुए आईं।

"क्यों दादी धूप सेक रही हो ?"बोली।

"मेरे कामों का कोई अर्थ नहीं होता"सरोजिनी कहकर मुस्कुराई। "अंदर रहने के बदले बाहर बैठी हूं।"

कुछ सोचते हुए अरुणा ने उन्हें देखा।

"हमेशा कुछ सोचते हुए रहती हो। इसीलिए कहां बैठी हो यह भी आपको पता नहीं। बहुत तेज धूप हो रही है। अंदर आइए मुझे सिर पर तेल लगाने को कहा था ?"

"मुझे याद है। अभी आ रही हूं।"कहती हुई सरोजिनी उठी।

साथ में आ रहे अरुणा ने हिचकते हुए पूछा "आपको परेशानी तो नहीं होगी दादी?"

"इसमें क्या परेशानी है? पहले तो हर हफ्ते लगाती थी। अभी तो तुम आती नहीं हो।"

"आपकी उम्र हो गई है ना?"

"उम्र हो गई तो क्या? हट्टी-कट्टी तो हूं! मेरी सास का मुझसे काम कराना अच्छा ही रहा। इसीलिए तो मैं अभी भी ठीक हूं। तुम्हें तो मालूम है मेरी एक सौत भी थी। वह खा-खा कर आराम से पड़ी रहती थी। चालीससाल पूरा होने के पहले ही उसे गठिया हो गया। शुगर भी हो गया। हार्ट प्रॉब्लम गया क्योंकि वह हमेशा सोती रहती थी।"

"उन्होंने भी तो आपको दादाजी से ज्यादा परेशान किया था ना?"

सरोजिनी कुछ देर नहीं बोली। फिर धीरे से एक दीर्घ विश्वास छोड़ते हुए बोली "उसे क्या कहें बेटी! यदि घास को भी अधिकार दे दो वह भी कूदेगी। जैसे चूहे को हल्दी की गांठ मिल जाए तो अपने को पंसारी समझने लगता है। यदि मैं उसकी जगह होती तो शायद मैं भी ऐसी रही होती!"

"यह तो पक्का है आप ऐसे नहीं रही होती।"

"तुम ऐसा सोचती हो तो ठीक है। जाकर कोई पुरानी साड़ी पहन के आओ। चौक में एक कुर्सी डालकर बैठो तो मैं तुम्हारे सिर पर तेल लगाऊंगी।"

अरुणा के घने लंबे घुंघराले बालों में तेल लगाते समय "पापी उस लड़के को इस लड़की से समझौता करके रहना नहीं आया।" फिर से उसे दुख हुआ। इस लड़की में उसने, क्या कमी देखी: एक हल्के सोच ने उसकी भावनाओं को आघात किया। मुझे जो अनुभव हुआ था वही इस बच्चे के साथ भी हुआ । इस लड़की की कोमलता को वह दुष्ट समझ ही न सका।

"आपको उनके ऊपर बहुत गुस्सा आया होगा ना दादी ?"

सरोजिनी चकित रहगई।

"किस पर?"

"छोटी दादी पर"

"गुस्सा आए बिना रहेगा क्या? आता था। पर आने से क्या फायदा?कोई उसकी परवाह करें तभी तो उसका सम्मान है?"

थोड़ी देर चुप रही अरुणा फिर बोली "तमाशा जैसे लग रहा है दादी। आपको बांझ कहकर दादा ने दूसरी शादी कर ली। आखिर में छोटी दादी के ही बच्चे नहीं हुए।"

आमने-सामने ना देख कर बड़बड़ा रही जैसे सरोजिनी बोली "अपने घमंड में आदमी जो काम करता है उसके लिए कोई कारण चाहिए क्या?"

"एक बात बोलूं तो आप बुरा तो नहीं मानोगी दादी? आप की जगह मैं होती तो ऐसे एक घमंडी आदमी को बच्चा पैदा करके नहीं देती। मैं उसके पास ही नहीं गई होती।"

धीमी आवाज में रहस्य को बोल रही जैसे अरुणा बोली। परंतु सरोजिनी के अंदर एक ज्वाला सी उत्पन्न हुई। उसके हाथ एक क्षण के लिए स्तंभित हो रुक गए। फिर अपने को संभाल कर बड़े दुखी आवाज में बोली "हां वह एक अपमानजनक जिंदगी ही थी। अभी भी सोचें तो कभी-कभी बहुत तकलीफ होती है।" 

"सिर्फ कभी-कभी?"

सरोजिनी सौम्यता से हंसी। तुम्हारे पास तो शिक्षा है। नौकरी करके अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हो वह सामर्थ्य तुममें है। जिनके पास कुछ भी ना हो वहइस स्थिति में क्या कर सकते हैं।"

"आत्म सम्मान तो हर क्षेत्र में होता है दादी।"

"होता है वह तो सही है और उसके लिए बहुत से दंड भी मिलते है...." कहकर सरोजिनी हंसी।

अचानक अरुणा ने सिर ऊपर करके उन्हें देखा।

"दादी आप कैसे हंसती रहती हो ?"

सरोजिनी को फिर से हंसी आई।

अरुणा के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभरी।

"सिर की मालिश हो गई?" कहकर सरोजिनी ने उसके गाल पर तेल के हाथ को प्यार से लगाया।

"बस दादी आपको थैंक्स। बड़ा आराम मिला।"

अपने हाथों को शिकाकाई से धोकर सरोजिनी अपने कमरे में चली गई।

बच्ची में बचपना तो है फिर भी अरुणा बहुत ही सूक्ष्म बुद्धि वाली लड़की है ऐसा सोच कर उसे आश्चर्य हुआ।

"मैं होती तो उसके पास ही नहीं गई होती...."

सरोजिनी अपने अंदर ही मुस्कुराई। "मेरा खून ही तो तुम्हारे अंदर है" वह धीरे से बड़बड़ाई।

मेरे अंदर भी उस समय विरोध की भावना रहती थी। घर के कामों को एक कर्तव्य जानकर करने पर भी गौरव की बात आती तो मैं नहीं छोड़ती। अपमान होने पर मन में जो चोट पहुंचती वह मेरे अंदर दबी हुई है। मेरा मन जब सूखकर जलने को तैयार हो जाता था तो मैं समझ जाती हूं।

शडैयनकी जिस दिन हत्या हो गई थी। घबराकर मैं जब गई तो उन्होंने मेरी ओर व्यंग्यात्मक रूप से देख एक चांटा मार कर भगा दिया। उसको देख रत्नम बड़ी खुश होकर हंसी । उसी समय मेरे पत्थर बन गए मन में एक आग सी लग गई ‌।

आराम कुर्सी पर आराम से बैठी हुई सरोजिनी ने आंखों को बंद कर लिया।'उस दिन जो बात हुई उसमें मेरी जिम्मेदारी नहीं थी। उसके लिए वह और रत्नम भी इसके जिम्मेदार थे' उसने अपने मन में सोचा।

"मन में कोई दुख तो नहीं है?"दिनकर के इतने वर्षों बाद पूछने पर उसे याद आया।

'नहीं' उसने अपने आपसे कहा। बहुत ही उत्साह से उसका मन खुला।

शडैयन के मरने की बिल्कुल भी परवाह ना कर पूरा परिवार नई लाए मोटर गाड़ी में बैठकर मदुरई के लिए रवाना हो गए। जंबूलिंगम के मार को और रत्नम के व्यंग्यात्मक हंसी से ऊपर शडैयन की हत्या का जंबूलिंगम से कोई संबंध है जैसा उसे संदेह थावह और ज्यादा पक्का विश्वास हो गया जिससे उसे आघात लगा। कितने निकृष्ट गुणों वाला मेरा पति है सोच कर उसे नफरत हुई। पैसे का घमंड और मैं आदमी हूं यह सोच उसे इस तरह से करने को उकसाता है क्या? अचानक उसे दिनकर की याद आई। वह कितना अलग आदमी है! बड़ा जमींदार है यह नाम नहीं होने पर भी खेती, जमीन-जायदाद उसके पास भी है| वह एक अच्छा आदमी और दिलवाला है। वह कितना न्याय प्रिय,शरीफ़ और दिल का साफ आदमी है। उसकी दोस्ती भी इस आदमी को नहीं बदल पाई यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है।‌ इसका कारण पैदा होना और उसका परवरिश ही मुख्य कारण होगा। उसके अम्मा का लाड़-प्यार और पालन-पोषण ही इसका कारण है। "जोतू चाहे वह सब कर सकतेहो"ऐसी शिक्षा दी है तो क्या होगा....

"मरकथम तुम्हारी सहायता और साथ के लिए है हम चार दिन में वापस आ जाएंगे" जब सास यह बोल वहां से सरके तो सरोजिनी ने कोई जवाब नहीं दिया। मुंह खोले तो गुस्सा और रोना फट पड़ेगा उसे लगा।

उनके रवाना होने के थोड़ी देर बाद ही मरगथम का पति घबराहट के साथ आया।

"मरगथम के पिताजी का देहांत हो गया। मेरा साला आया था। हम सब को एक साथ रवाना होना है। आप अकेले रहोगे इसलिए हमें संकोच हो रहा है। शडैयन के मरने की वजह से कोई भी खेत से अभी यहां नहीं आएगा। सुबह माली आ जाएगा। उससे कह कर उसकी पत्नी को काम करने के लिए बोल सकते हैं। आप उसे सोने के लिए भी कह सकते हो। आज रात के लिए ही...."

उसका कलेजा धक सा हुआ। पश्चाताप के साथ ही उसे गुस्सा भी आया। अपने को संभालते हुए "आप लोग रवाना होइए। मेरे बारे में चिंता मत करो। मैं अपने आप को संभाल लूंगी। तुम रवाना हो" वह बोली।

मरगथम की जोर से रोने की आवाज सुनाई दे रही थी। "तुम जाओ" कहकर वह बाहर के दरवाजे को बंद कर दिया।

सब ने मिलकर प्रपंच करके मुझे अकेला छोड़ दिया और इस प्रपंच में मैं निराधार और अकेली हो गई उसे डर लगा। वह अपने आप को संभाल नहीं पाई और वह हिचकी ले ले कर रोने लगी। वह स्वयं को संभाल ना पाने के कारण आने वाले आंसू थे। अंधेरा हो गया इस बात को भी महसूस ना करके वह बैठी रही तो किसी के किवाड़ खटखटाने की आवाज आई।

वह मुंह पोंछकर "कौन?" उसने पूछा।

"मैं दिनकर हूं। दरवाजा खोलो!" उस आवाज को सुन उसमें एक शक्ति आ गई और मन में एक खुशी हुई। बरामदे के बिजली के स्विच को ऑन कर उसने दरवाजा खोला।

वह अंदर आकर चारों तरफ अपनी निगाहें दौड़ा कर, "घर में कोई नहीं है क्या?" पूछा।

"कोई नहीं है। सब लोग मदुरई गए हैं" कह कर उसने सिर झुका लिया।

"मरगथम के घर पर भी ताला लगा हुआ है?"

उसने अपने चेहरे को दूसरी तरफ घुमा लिया।

"उसके पिताजी ने मरने के लिए आज ही समय देखा...."

वह जल्दी से अंदर उठे ज्वाला को संभालना पाने के कारण उसके आंखों से आंसू बहने लगे और वह हाथों से उन्हें ढककर दिल टूट जाए जैसे रोना शुरू कर दिया।

"अरे ! मत रोइये। मत रो" घबराकर वह बोला।

उस आवाज में जो दया की भावना थी उससे उसे और रोना आया।

दो मजबूत हाथों ने उसके कंधों को पकड़ा। शरीर में सिहरन हुई आंसू स्तंभित हो गये अपने हाथों को हटाकर उसने गर्दन ऊंची कर देखा।

"आप रोयें तो मैं सहन नहीं कर पाऊंगा" वह प्यार और नम्रता से बोला। उसकी आंखों में जो दया की भावना थीजिसने उसके अंदर एक नए वेग को उत्पन्न किया।

उसके हाथ को अलग ना करके सर झुका कर उसने कुछ बुदबुदाया।

"अभी रोना ही मेरा साथी है।"

"डरिए मत मैं रहूंगा आपके साथ" जैसे डरी हुई छोटी लड़की को आश्वासन देते हैं वैसेही वह बोला।

फिर धीरे से उसने पूछा "इसके पहले भी आपको अकेले छोड़कर गए हैं ना। आज फिर यह डर औररोना?"

उसको तुरंत शडैयन की मौत की खबर, जम्बूलिंगम का उसे मारना और रत्नम की व्यंगात्मक हंसी एक के बाद एक याद आई।

जम्बूलिंगम ने क्या बोला होगा, उसके इतना हंसने के लिए?

"इसके बदले एक लकड़ी के साथ सोना कहकर शडैयन को लकड़ी बना दिया" बोला होगा?

अध्याय 20

एकदम से उसके शरीर में आग लगी और उसके आंखों से आंसू बहने लगे।

दिनकर ने घबराकर अपने तौलिए से उसके आंसुओं को पोंछा। "क्या हुआ, जंबू ने मारा ?"

उसने "हां" कहने जैसे सिर हिलाया।

जम्बू एक जानवर है!" वह गुस्से से बोला‌ "क्यों मारा ?" मदुरई जाने के लिए आपनेजिद्द की !"

"मुझे उनके साथ कुत्ते जैसे क्यों जाना है!" वह गुस्से से बोली। "शडैयन मर गया सुनकर मैं घबरा कर भागकर जाकर कही। उसके लिए ही मारा और गंदी बातें भी सुनाई, उसे सुन रत्नम हंसी!"

जल्दी से कुछ समझ गया जैसे उसका मन परेशान हुआ। शडैयन को जम्बूलिंगम ने अपने आदमी से मरवाया, यह बात दिनकर को भी मालूम होगी।

वह नए तरीके से अपमानित हुई जैसे फूट-फूट कर रोने लगी।

"कृपा करके आप मत रोइए" वह परेशान होकर बोला। उसके कंधे पर से हाथों को नीचे उतार उसके पीठ को शांत करने के लिए थपथपाया।

उसकी नम्र आवाज में पुरुषोंचित बात का नशा उस पर चढ़ा। क्या कर रही हूं न समझ उसकी छाती पर मुंह को रखकर वह रोई। तुरंत उसनेउसे अपने आगोश में ले लिया। उसके स्पर्श से लहरों के रूप में उसके ऊपर बिजली गिरी जैसे उसका शरीर कपकपा गया। आंखें बंद हो गई गालों और कानों में लालिमा छा गई। इस आलिंगन के लिए

करोड़ों वर्षों से इंतजार कर रही हो जैसे एक गर्मी उसके शरीर में फैली। उसके मन में जो डर था वह अपनेकिनारों को तोड़ता हुआ बाहर बहता चला गया, यह एक ही मुख्य भावना जिसमें वह बह गई।

जो कुछ उसने दबा के रखा था वह सब सीमा को पार कर बाहर आकर उसके होंठ उसके चेहरे पर लगते ही उसका हृदय पिघल गया।

उसके शरीर ने उसे स्वीकार किया। जो रोमांच अभी तक नहीं हुआ उस आलौकिक दुनिया में वह पहुंच गई। स्वर्ग का द्वार खुल गया। यह उसी तरह का अनुभव है । ऐसी एक कीमती वस्तु है। बहुत बड़ी खुशी उसे मिली जैसे एक संतुष्टि और शांति का अनुभव हुआ । चेहरे पर एक चमक के साथ होंठों में एक मुस्कान लिए वह अभी भी एक नशे में है जैसे उसकी आंखें उसे ही देख रही थी तो दिनकर सिर झुका कर थोड़ी दूर पर जा खड़ा हुआ।

"माफ कीजिए" वह धीमी आवाज में बोला। "एकक्षण की देरी से बुद्धि खराब हो गई, गलती हो गई। "

उसने जवाब नहीं दिया। उसके ही समझ में नहीं आया पर उसका मन भरा हुआ था।

उसकी मौन को सहन नहीं कर पा रहा जैसे उसने फिर से सिर झुका कर बोला "मैंने जो किया है वह माफ न करने लायक गलती है। माफी मांगना भी गलत है लग रहा है। मैं रवाना होता हूं।"

"नहीं खड़े होइए" वह साफ बोली "मेरे साथ रहोगे बोलकर अब कहां रवाना हो रहे हो?"

उसने आश्चर्य से उसे देखा।

"आपके साथ रहूंगा बोलने से क्या हो गया देखा...." 

वह धीमी आवाज में बोली "प्रकृति के विरोध में कुछ भी नहीं हुआ ना साहब ! जो हुआ उसको कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती। आपको माफी मांगने की जरूरत नहीं है। गड़बड़ी मुझसे भी हुई है यह सच है...."

"मेरी वजह से दाग लग गया यह भी सच है...."

उसने उसे घूर कर देखा।

"आ ! ऐसी शब्दों को बोलकर अपने को परेशान मत कीजिए। औरतों पर राज करके अपने को योग्य जैसे मान एक गरीब आदमी की हत्या कर बिना शर्म के घमंड सेयहाँ खड़ा है,इसका इसे कोई संकोच भी नहीं है। इस तरह के आदमियों के बीच में आपका इस तरह बात करना एक तमाशा जैसे लग रहा है। हमने किसी का खून नहीं किया, आप बेकार असमंजस में मत पड़िए।"

वह अभी तक चकित हो खड़ा रहा। 

"आपको असमंजस नहीं है?"

वह धीरे से मुस्कुराई।

"नहीं सचमुच में मेरा मन साफ-सुथरा निर्मल हो गया।"

वह खड़ा हो सम्मान से उसे देखा।

"मैं सिर्फ एक लकड़ी नहीं हूं इसे मैंने आज ही समझा...."

"दादी लालबाग जाना है मैंने बोला था ना?"

सरोजिनी धीरे से वर्तमान में लौटी। खिड़की के बाहर से नजरों को हटाए बिना, "चलेंगे, कब जाना है !"

"4:00 बजे! अभी 3:30 बजे हैं। खाना खाने के बाद आपने रेस्ट किया? आप बैठी ही रहींऐसा लग रहा है।"

"यह भी रेस्ट ही है?" कहकर सरोजिनी हंसी।

"मैं पाँचमिनट में तैयार हो जाऊंगी, तुम जाकर तैयार हो,।"

"राइटो !" कहकर अरुणा चली गई।

सरोजिनी उठकर बाथरूम में जो आईना था उसके सामने खड़ी होकर बाल बनाने लगी। उसके बाल अभी तक नलिनी के सफेद हुए बालों जितना भी सफेद नहीं हुए। उसके स्किन में अभी भी एक चमक बरकरार है।

अरुणा के उम्र में यह शरीर वैसे ही रहा होगा?

"अपने पास जो कीमती वस्तु है उसको ना समझने वाला बेवकूफ आदमी है!"

अभी उसके बारे में सोच कर सरोजिनी को हंसी आ रही थी।

'एक को जो पसंद है वह दूसरे को पसंद ना हो कैसे हो सकता है? दिनकर के छूते ही मेरा शरीर पिघल गया वही शरीर जंबूलिंगम जो परेशानियां करता था उससे शरीर लकड़ी जैसे हो जाता था? उसके बावजूद भी अम्मा और दूसरे लोग भी बार-बार यही समझाते कि पति का हर तरह से साथ देना, यही तुम्हारा कर्तव्य है ऐसा बोलते थे....! शादी के पहले 4-5 ज्योतिषीयों को जन्मपत्री दिखाकर दसगुण मिल रहे हैं बताया। उनसे पूछ कर ही यह शादी हुई। अलग-अलग जाति के गायों को मिला दिया जैसे नहीं हुआ क्या?

अरुणा को भी यही अनुभव हुआ होगा चार दीवारों के बीच कैदी जैसे रहना मेरी मजबूरी थी परयह अरुणा के लिए नहीं थी....

उसे मजबूर किया होता तो भी मुझे आश्चर्य नहीं होता।

"प्रभाकर स्वयं तो किसी भी लड़की के साथ घूमता था। परंतु मैं किसी लड़के के साथ साधारण बातचीत भी करूं तो उसे संदेह होता। कभी-कभी मुझे लगता दादी सचमुच में मैं किसी के साथ भाग जाऊं।"

सरोजिनी अपने आप में हंसी।

परंतु वह नहीं भागी - मन में जो भावनाएं उफनने से वह पाप का भागीदारबन जाता है।

उसकोफिर से हंसी आई। कैसा बदला? कैसा पाप? मानवता ही ना हो ऐसी बेईमानी और अन्याय सारी दुनिया में हो रहा है। यह सब जीवन में बहुत साधारण सी बात है ऐसेही सोच कर दुनियाजी रही है । परंतु एक लड़की परिस्थिति वश अपने लिए जो लाइन खींच दी गई है उसे पार करती है तो वह माफ न करने वाला दोष हो जाता है! उसके लिए सब लोग लंबी जीभ करके बातें करते हैं.....

उसने अपने मुंह को धोकर दूसरी साड़ी पहन ली।

"आप एक असाधारण महिला है सरोजिनी अम्मा !"

किसने बोला इसे?

उसके शरीर में एक बार कपकपी आई। यह दिनकर के शब्द हैं।

उन शब्दों का क्या अर्थ है? साधारण महिला होती तो अपनी गलती को महसूस कर-कर ही मर जाती इसका यही अर्थ है।

इसे तो मैंने दोष माना ही नहीं तो मुझे गलती का एहसास क्यों हो? उस दिन हुई घटना से मैंने अपनी पवित्रता खो दी ऐसे मैंने नहीं सोचा। मैंने कोई अपमान का अनुभव नहीं किया। सचमुच में जिससे शादी की उसने मेरे शरीर को मनुष्य का शरीर ना सोच कर उसके साथ हिंसा की और अपमानित किया तब मैं कलंकित हुई सोच कर तड़पी..

शाम को ठंड लगेगी ऐसा सोच कर उसने साड़ी के मैचिंग रंग का शाल भी ले लिया। काले रंग के जरी के बॉर्डर वाली क्रेप सिल्क की साड़ी में चमकती हुई अरुणा नीचे उतरी।

"आपके पास जो कीमती वस्तु है उसके बारे में ना जानने वाला बेवकूफ आदमी" जो दिनकर ने बोला था वही शब्द प्रभाकर के उपयुक्त हो रहा है ऐसा उसे लगा। इसीलिए रिश्ता ही खत्म हो गया। उसके बारे में अब क्या सोचना ऐसा सोच उसने अपने आप को समाधान किया।

"रेडी हो गई दादी?" हंसती हुई अरुणा पास में आकर खड़ी हुई ‌। "आइए" उसके साथ चल कर कार में जाकर बैठ कर हंसी। "इस साड़ी में तुम बहुत अच्छी लग रही हो बच्ची।"

"थैंक्स दादी" हंसती हुई बोली। "यदि मैं अच्छी ड्रेस पहन कर तैयार हूं तो अम्मा को पसंद नहीं आता !"

"इस उम्र में तैयार नहीं होगी तो फिर कब होगी?"

"मुझे दूसरी तरह से रहना चाहिए ऐसा अम्मा की सोच है। विधवा का वेश कर लूं तो ही अम्मा खुश रहेगी।"

"छी..छी...! मुझसे कोई पूछे तो तुम्हारी शादी नहीं हुई है बोलूंगी।"

अरुणा थकी हुई सी हंसी। "आपके जैसे सोचनेवाले कितने लोग है दादी?"

रवाना होने के पहले नलिनी से कोई वाद-विवाद हुआ होगा ऐसा सरोजिनी ने सोचा।

उसने बड़े प्यार से अरुणा के कंधे को पकड़ा।

"दुनिया बदल रही है अरुणा। तुम्हारी अपनी जिंदगी है। उसको अच्छी तरह से जीने का तुम्हें अधिकार है।"

"थैंक्यू दादी"कहकर अरुणा हंसी। "परंतु मैं इस अधिकार का गलत प्रयोग नहीं करूंगी।"

"हां यही ठीक है।"

अरुणा गाड़ी बड़े आराम से चला रही थी। सरोजिनी ने सोचा सामंजस्य न होने वाले पति से कानूनी तौर से अलग होना कितनी गौरव की बात है। यदि यह काम नहीं हुआ होता तो अरुणा का जीवन ही बदल गया होता।

लालबाग आ गया। बहुत सारी गाड़ियां लालबाग के पार्किंग में खड़ी हुई थी। ऊंचे स्टेटस वाले लोगों की भीड़ से वहां बड़ा अच्छा लग रहा था।

अरुणा किसी पर ध्यान न देकर सरोजिनी के हाथ को पकड़ कर चलने लगी। ज्यादातर लोगों की निगाहें अरुणा के ऊपर पड़ रही थी जिस पर सरोजिनी ने ध्यान दिया। वे लोग एक-दूसरे पर इशारा करके आपस में कुछ-कुछ फुसफुसा रहे थे। इसी कारण से नलिनी ने आने को मना कर दिया ऐसा सरोजिनी के समझ में आया। उसे बहुत वेदना भी हुई। यह तो बड़े सभ्य समाज के लोग हैं। इन लोगों की सोच कितनी संकुचित है इस पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था।

गुलाब के फूलों पर ध्यान देते हुए वे आगे बढ़े।

"हाय अरुणा!" की आवाज सुनकर दोनों ने पीछे मुड़कर देखा।

शंकर खड़ा था। उसके साथ उसकी पत्नी और कोई दो यूरोपियन लोग भी थे।

"ये आंटरसन, ब्रिटिश हाई कमिश्न दिल्ली में है।"कहकर शंकर ने उनका परिचय कराया।

आंटरसन ने अरुणा से हाथ मिलाकर उससे कुछ अप्रिशिएट की लंबी बात बोले।

"वह बोल रहे हैं वह सच है। आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो" शंकर की पत्नी बोली।

अरुणा को ही हंस कर देख रहे शंकर पर सरोजिनी की निगाहें पड़ी। दिनकर की याद उसे जल्दी से आई। 

अध्याय 21

सरोजिनी ने अनजाने में ही शंकर की पत्नी मल्लिका को देखा।

मल्लिका, शंकर, और अरुणा को देख वह हल्की मुस्कुराई। हल्का सा संकट उस मुस्कुराहट के पीछे छाया जैसे है ऐसे सरोजिनी को लगा।

वह मल्लिका के पास जाकर उसके कंधे को पकड़ कर वह बोली "मल्लिका हो ना?" कहकर हंसी। "तुम्हारे बारे में अरुणा हमेशा बड़प्पन से बोलती है"।

मल्लिका के चेहरे पर एकदम से प्रकाश दिखाई दिया।

"मुझे देख कर उस पर विश्वास करने लायक कुछ है बड़ी अम्मा?"

"सिर्फ देखने के बदले अच्छी तरह से घुले मिले तो ही उस पर विश्वास करें या नहीं पता चलेगा!" कहकर सरोजना हंसी। "तुम लोगों को एक दिन खाने पर बुलाना है ऐसा मैं अरुणा से बोल रही हूं।"

अरुणा और शंकर आपस में धीमी आवाज में बात कर रहे थे। मल्लिका उनकी और देख कर दूसरे क्षण साधारण भावना से पूछी "फिर अभी तक क्यों नहीं बुलाया?"

उसका स्वभाव सरोजिनी को पसंद आ गया।

"तुम्हें शंकर के साथ रहने के लिए इतवार का दिन ही मिलता है। उस दिन तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए ऐसा अरुणा कहती है"। ‌

उस समय मल्लिका के चेहरे पर बड़ी खुशी दिखाई दी।

"यह सब बेकार की बात है ! वह तो एकदम कंजूस है" कहकर वह हंसी। "अरुणा! मुझे एक फ्री का खाना मिल रहा है तुम उसे क्यों खराब कर रही हो?" वह बोली।

"मैं क्यों खराब करूं?" आंखों को फैलाकर अरुणा हंसी। "शंकर नाराज होंगे इसीलिए नहीं बुलाया!"

"हां इतवार को भी मल्लिका ने खाना नहीं बनाया तो वह खाना बनाना भूल जाएगी!" शंकर बोला।

अरुणा फिक से हंस पड़ी।

इन लोगों को साफ मन से बिना कपट के बात करते देख सरोजिनी को बहुत अच्छा लगा।

"ठीक है तुम मुझे मत बुलाओ । तुम और दादी कल हमारे घर खाना खाने आ जाओ" मल्लिका बोली।

"हां यह अच्छा आईडिया है" शंकर बोला।

"तुम्हें क्यों परेशानी। तुम तो नौकरी करने वाली हो! इतवार के दिन करने के लिए बहुत से काम होते हैं !" सरोजिनी बोली।

"यह सब कोई बात नहीं है वह सब संभाल लेगी !" शंकर बोला। "मैं हूं ना!"

फिर से सब लोग हंसे। मल्लिका बड़ी तृप्ति के साथ शंकर को देख सरोजिनी से हंसते हुए बोली "सच है बड़ी अम्मा शंकर मेरी बहुत मदद करते हैं!"

"मैं इसकी बुआ का लड़का हूं। इसीलिए यह मुझे थोड़ा ज्यादा ही सम्मान देकर बात करती है!"

मल्लिका ने प्रेम से उसके पीठ पर मारा।

"ऐसा नहीं करूं तो इसके भाव बढ़ जाएंगे!" 

वे लोग गुलाब के पौधों को देखते हुए चल रहे थे तभी अरुणा मौन हो गई सरोजिनी ने ध्यान दिया।

पुरस्कृत पौधों को देखकर खत्म होने के बाद रवाना होते समय अरुणा के चेहरे पर एक उत्साह दिखाई दिया।

"फिर कल का खाना तुम्हारे घर पक्का है ना?" मल्लिका को देख कर बोली |

"खाना तो मैं दूंगी। मस्ती तुम करोगी" कहकर मल्लिका हंसी।

"मिर्ची थोड़ी ज्यादा ही डालेगी" शंकर बोला।

"चलो दादी चलते हैं " अरुणा बोली फिर उनको देखकर, "आप लोग कितना भी डरा दो हम तो खाना खाने आएंगे ही!"

"व्हाट इज द स्प्रिट !" कहकर शंकर, सरोजिनी के कार में बैठते ही दरवाजे को बंद कर मुस्कुराया।

कार रवाना होकर कुछ दूर जाने तक सरोजिनी मौन रही। अरुणा के होठों पर हंसी धीरे-धीरे गायब हो गई। उसके माथे पर तीव्र चिंता की लाइने दिखाई दी।

"वह लड़की मल्लिका बहुत अच्छे स्वभाव की लगती है" सरोजिनी आगे बोली "वह बहुत मजाकिया है!"

"हां!" मुस्कुराते हुए अरुणा बोली "बहुत अच्छी लड़की है और होशियार भी। हां शंकर जैसे एक पति मिल जाए तो जिंदगी को मजाकिया ढंग से काट सकते हैं। शादी के बाद नहीं बदलने के लिए उनके साथी का अच्छा होना है दादी। ठीक है ना?"

"सच है" धीमी आवाज में बोली।

"मेरी शादी होने के बाद बहुत ही जल्दी हंसना मैं भूल गई थी दादी।"

"यह देखो तुम्हें इन बातों को भूल जाना चाहिए" सरोजिनी बोली। फिर थोड़ी कठोरता से "तुम्हारी शादी हुई थी उसी को भूल जाओ। अभी पहले जैसे हंस सकती हो।"

"ऐसे रहने के लिए तो मैं कोशिश कर रही हूं दादी। पर वह इतना आसान नहीं है। मैं भूल जाऊं पर दूसरे मुझे भूलने नहीं देंगे ऐसा लगता है।"

"उसके बारे में तुम्हें चिंता नहीं करनी चाहिए। कितने दिन दुनिया बोलेगी? इसके अलावा दुनिया बोले तो क्या है?"

थोड़ी देर मौन रहकर गाड़ी चला रही अरुणा उसकी तरफ मुड़कर, "थैंक्स दादी" कहकर मुस्कुराई। "आपका सहारा ना होता तो मैं इस घर में अभी जिस उत्साह से हूं वैसे नहीं रह सकती थी ।"

सरोजिनी बिना कुछ जवाब दिए बाहर देख रही थी। फिर संकोच से बोली "थोड़े दिन के लिए तुम शंकर और मल्लिका से बिना मिले रहो तो अच्छा है मुझे लगता है!"

"क्यों?" आश्चर्य से पूछी। "आपने भी औरों जैसे सोचना शुरु कर दिया क्या?"

"नहीं, उन्हें देख-देख कर अपने को जो नहीं मिला उसके बारे में सोच ज्यादा हो सकती है।"

"नॉनसेंस दादी!" अरुणा हंसी। "इस तरह की कोई भी बात मुझे नहीं लगती।"

"नहीं तो फिर ठीक है" बोली।

"कल खाने के लिए भी जाना उन्हें परेशान करना ही हुआ। मुझे जाना है ऐसा नहीं लगता है।"

इसके बाद किसी भी विषय में बात नहीं करना है ऐसे सोच सरोजिनी मौन रही।

"आपसे एक बात पूछ सकती हूं?" धीरे से हंसती हुई पूछा।

"कुछ नया क्या पूछने वाली हो?"

"हां आप बड़ी होशियार हो... समझ गईं।"

"किसे?"

"मेरे प्रश्न को - वह दिनकर आपसे सहानुभूति रखते थे ना?"

उसने कुछ पहले सोचा भी था तो भी उसे आश्चर्य हुआ।

"यह कैसा प्रश्न है अभी?" ऐसा कहकर छोड़ दे ऐसी हंस दी।

"ऐसे ही पूछ रही हूं। वे आपसे सहानुभूति रखते थे इसीलिए तो दादा नाराज थे ऐसा मुझे संदेह है।"

"वह सब कुछ नहीं है बच्ची" सरोजिनी बोली ।

"तुम्हारे दादा जी को पता नहीं मुझे देखना ही बुरा लगता था।"

"क्या बात है मुझे बहुत आश्चर्य है दादी। आप छोटी उम्र में बहुत सुंदर रहीं होगीं। नम्रता का आपका स्वभाव अलग, मेरी जैसे जबान चलाने वाली आप बिल्कुल नहीं रहीं होगीं!"

सरोजिनी थोड़ा सोच कर आराम से बोली।

"एक पुरुष को तृप्त करना है तो सारी बातें उसकी रूचि के अनुसार होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है। उस जमाने में मुख्य रूप से आदमियों को सब अधिकार मिला हुआ था। किसी भी औरत को छोड़कर वह दूसरी शादी अपनी इच्छा अनुसार करने के लिए स्वतंत्र होता था और आंखें बंद करके कुछ भी कर सकता था। उनकी रूचि के अनुसार मुझे चलना नहीं आया। फिर क्या? मेरी सुंदरता और मेरी नम्रता से ही उन्हें नफरत हो गई होगी?"

"उस जमाने में दूसरे आदमियों से बात करने का अवसर मिलता था ? या पर्दे में रहते थे क्या?"

वह बहुत ही चतुराई से सब बातों को खोद खोद कर पूछ रही थी सरोजिनी चेत गई। उसे हंसी भी आई।

"नहीं, पर्दा जैसे ही रहती थी। त्योहार के दिनों भीड़ में ही देखते थे। वह भी अक्सर रिश्तेदारों की ही होती थी । घर में कोई खाने आ जाए तो बिना सिर उठाए ही खाना परोसना होता था।"

"फिर उस दिनकर दादा से कभी बात नहीं की?"

"उस साहब को तुम छोड़ोगी नहीं लगता है!" कहकर सरोजिनी हंसी।

"गलत है तो नहीं पूछूंगी!"

"तुम्हारे पूछने में कोई गलती नहीं है। पर मुझे ही बोलने के लिए कोई विषय नहीं है। एक दो बार बात की होगी। तुम्हारे दादा घर पर ना रहे उस समय वे आए होंगे ।"

अरुणा उसे मुड़कर देख मुस्कुराए।

"अब मैं आपसे खोद खोद कर नहीं पूछूंगी दादी!"

सरोजिनी को अजीब सा लगा। मेरी बातों से इसने क्या ग्रहण किया होगा? दिनकर को देखने इसे भी ले जाना बहुत बड़ी गलती है ऐसा उसे परोक्ष रूप से लगा।

मेरे मन की रहस्यों को किसी को भी खोलकर नहीं बताना चाहिए ऐसा मैंने एक व्रत लिया है‌ । इसी कारण भी मुझे उसे नहीं भूलना है। मैं बुढ़ापे में अपनी स्मृति भी खोने लग जाऊं तब भी इस बात को मुझे बाहर नहीं निकालना है। एक लाइन को रखकर उसका पूरा तोरण बना दे इस तरह की सूक्ष्म बुद्धि इस लड़की की है....

घर पहुंचने तक जो शपथ ली सरोजिनी के मन को उसने विश्व रूप धारण करवा दिया।

अध्याय 22

सरोजिनी का शरीर सुबह उठी तब एक नया खून आया जैसे उत्साहित था। मन के अंदर नहीं समा पा रहीं ऐसी एक खुशी मुंह और होठों पर चमक रही थी।

उसने अपने दोनों हाथों को सिर के ऊपर उठाकर अंगड़ाई ली। उसकी दोनों आंखें अभी तक एक खुशी में डूबी हुई थी।

"क्या हो गया तुम्हें?" ऐसा अपने आप से ही उसने पूछा।

"बहुत बड़ी बात हो गई" अपने आपको जवाब दिया। पिछली रात की यादें गुलाब जल की वर्षा में भीगे है जैसे उसे याद आने लगी। एकदम से लाखों-लाखों फूल खिले। उसकी खुशबू से उसका जी भर गया।

जिन बातों को महसूस नहीं किया, जिसे वह भूल गई थी, जिसे उसने अनुभव किया उस आनंद के होठों पर एक ज्ञान की मुस्कान खिली।

"वीणा को बजाने से ही स्वर आएंगे तोड़ोगे तो आएगा?"

वह स्वयं मुस्कुराई। "आ, उसका मतलब अभी समझ में आया" अपने आप से बोली।

वह साधारण गाना नहीं था। वह गंधर्व का गाना कभी जो सुना नहीं अति कर्णप्रिय बड़े सुंदर लोगों द्वारा गाया गया बहुत ही प्रिय लग रहा था। पंख लगा कर उड़ने जैसा एक आनंद था वह। एक साथ कई इंद्रधनुष आकाश में आएं तो जो खुशी होगी ऐसी सुखाअनुभूति हुई। कोई दुख नहीं। कोई डर नहीं। एक सत्य को लेकर की गई एक यात्रा थी। 

वह धीरे से खिड़की के पास जाकर बगीचे को देखा। स्लेटी रंग के ओढ़ने का सवेरा अभी भी ढका हुआ था। पक्षी सुबह होने से पहले ही कलरव कर रहे थे ऐसा लग रहा था जैसे वे सवेरे के स्वागत कागान कर रहे हो। चमेली, गुलाब और मोगरा सबकी महक से वातावरण भर गया। अभी तक क्यों नहीं देखा इतना सुंदर सवेरे का उदय उसे बहुत अच्छा लगा। एक लक्ष्य को ढूंढ कर जाने वाली यात्रा फिर.....

वह हमेशा की तरह फुर्ती से उठकर नहाने के लिए कुएं के पास जाकर दांत साफ करके नहा कर आई। चूल्हा जलाकर कॉफी के लिए पानी रखते समय रसोई के दरवाजे के पास दिनकर सिर झुका कर खड़ा था।

"मैं रवाना होता हूं" जमीन को देखते हुए बोला।

"क्या कॉफी पिए बिना? वह हंसते हुए प्रेम सेबोली। "नहीं जी" वह बोला अभी भी उसने सिर नहीं उठाया। "पूरा सवेरा होने के पहले ही घर से रवाना होना अच्छा रहेगा..."

"नहीं तो आफत"

"किसे?"

मैंने एकदम से उसे सिर उठाकर देखा। उसकी आंखों में हल्का सा आश्चर्य दिखा। फिर असमंजस में सर झुका कर धीमी आवाज में बोला "दोनों के लिए। कल जो घटना घटी उसके लिए दोबारा आपसे माफी मांगता हूं।"

वह बड़ी तसल्ली से भीगें स्वर में बोली "आपको माफी मांगने की जरूरत नहीं। आप यही सोच रहे हैं गलती हो गई तो उस गलती के लिए मैं भी तो जिम्मेदार हूं।"

वह असमंजस के साथ उसे देखा।

"अभी भी यह गलत है आपको नहीं लग रहा है?"

"नहीं" वह निर्णय के साथ बोली। यह विवाद करने का विषय नहीं है ऐसा कहने जैसे उसने एक एल्मुनियम के लोटे को उठाकर उसे दिया।

"दूध दोहना आता है? गौशाला में सफेद गाय है उसका दूध थोड़ा दोहकर ले आइएगा। ग्वाले के आने में देर होगी। बढ़िया कॉफी बना कर दूंगी, पूरा सवेरा होने के पहले ही आप रवाना हो जाएंगे।"

वह दूसरा रास्ता ना होने के कारण रवाना हुआ तो उसे देख वह व्यंग्य से हंसी। उसे देख उसके चेहरे पर भी हल्की सी मुस्कान दौड़ गई।

नई नवेली अपनी गृहस्थी शुरू करने जैसे बड़े उत्साह के साथ खोलते पानी में कॉफी का पाउडर डालकर डिगाशन तैयार किया।

सिर्फ 5 मिनट में वह दूध दोहकर लाकर दिया।

"हां! आप बहुत फुर्तिले हैं उसने तारीफ की।

रसोई के पास वाले बरामदे में बैठा।

"आप भी उसी फुर्ती से कॉफी बना कर दे रही है क्या?"

"हां दूंगी!" वह हंसते हुए कहकर अगले ही क्षण भाफ निकल रहे कॉफ़ी लाकर दिया।

"बढ़िया !" उसने तारीफ कर उसे देख मुस्कुराया।

"चूल्हा भी आपका कहना मानता है। कॉफी फर्स्ट क्लास है आप नहीं पी रही हैं क्या।"

"मैं आराम से पीऊंगी ।"वह बोली।

"बहुत धन्यवाद"बोला "फिर मैं चलता हूं। दरवाजा बंद कर लीजिए।"

उसे जल्दी-जल्दी जाते हुए देखकर फिर उसने दरवाजा बंद किया।

15 मिनट बाद ही ग्वाला दूध दोहने आया।

"क्यों अम्मा आप अकेले ही हो? मरगथम के घर के दरवाजे पर ताला लगा है। दुख के साथ वह पूछा।

"क्या करें?" वह बोली "मरगथम के पिताजी का देहांत हो गया इसीलिए सब लोग रवाना होकर चले गए। अकेली ही हूं।"

"गलत है!" दुख के साथ वह बोला, "साहब के आने तक मैं अपनी पत्नी को रात में यहां सोने के लिए कहूंगा।"

"ऐसा ही करो"सरोजिनी बोली । माली आया तो मरगथम नहीं है ऐसा कहकर उसने अपनी पत्नी को लेकर आऊंगा बोला।

शडैयन की मौत के बारे में, काम करने वालोंमें से किसी ने भी उससे इसके बारे मेंबात नहीं की क्योंकि वे भीतोडर रहे थे उसे ऐसा लगा उसका अनुमान सही है ऐसा सोच उसके मन में समाधान ना हो सकने वाला गुस्सा उबलने लगा ‌। कितना अहंकार होने पर उसने ऐसा एक अन्याय कर ऊपर से मुझे मारकर हंसने के लिए उसमें कितनी नीचता होगी?

वह दृश्य उसके आंखों के सामने दिखने से गुस्सा और नफरत से वह उबलती है। तुम्हें क्या अधिकार है मुझे अपमानित करने का? मैं तुम्हारे आधीन हूं यह सोच?

मैं तेरी आधीन नहीं हूं! निश्चित तौर पर तुमने उस नीच के सामने मुझे जो अपमानित किया वह सहन करने लायक नहीं.....

जैसे-जैसे दिन सरकने लगे उसे शडैयन की हत्या से ज्यादा रत्नम के सामने अपमानित होने की बात ही याद रहने लगी।

रात के समय कोनार की पत्नी का खर्राटे लेने से उसकीप्रतिध्वनि (इको) महल में गूंज रही थी तो उसकी आंखों से अश्रु झरने लगते हैं। यदि तुमने मुझसे मनुष्य जैसे व्यवहार किया होता, तो तुम्हारे दोस्त को अपने शरीर सौंपने की हिम्मत नहीं की होती। "गलती हो गई" ऐसा उस सहाब के घबराने जैसा कुछ भी नहीं हुआ। कोई गलती नहीं हुई। तुम्हारे लिए मैं वट सावित्री का व्रत रखूं तू इसके लायक नहीं है...

शादी में गए हुए भीड़ को लौटने तक सरोजिनी के मन में एक धैर्य और एक जिद्द दोनों ही घुस गए थे।

घर लौटने के बाद सरोजिनी की सास और रत्नम दोनों ही सामान्य नहीं थे इस बात को सरोजिनी ने महसूस किया। मुझे क्या लेना-देना ऐसा सोच अपने काम को करते हुए चुप रही।

उस दिन शुक्रवार था। माली ने मोगरे की कलियों को तोड़ कर दिया था| सरोजिनी पिछवाड़े के बरामदे में बैठकर उसकी माला बना रही थी। सामने उसकी सास बाल बनाते हुए बैठी हुई थी।

भगवान के फोटोओं पर माला चढ़ाने के लिए सरोजिनी उठने लगी तो चमचमाती साड़ी में रत्नम दौड़ कर आई।

"उसे यहां दे!" कहती हुई फूल की माला को छीनने लगी।

"अरे, पहले भगवान को चढ़ाना है!"कहकर सरोजिनी ने घबराते हुए मना किया।

"ओहो!" कहकर व्यंग्य से हंसी।

"भगवान इतना फूल मांग रहे हैं क्या ? इतना बहुत है भगवान के लिए कहकर एक छोटा सा टुकड़ा हार का देकर बाकी सब को गोला बनाकर अपने सिर परलगाने लगी, तो सरोजिनी आश्चर्य और गुस्से से बोली "अम्मा इसे देखो, क्या यह सही है?"

"क्या सही क्या गलत ? तुम कौन हो मुझसे पूछने वाली?" रत्नम आंखेँ मटका कर बोली।

नीचे बैठी हुई सास उठी।

"यह देखो रत्नम! तुम्हारे सभी बातें हद को पार कर रहे हैं। भगवान को फूल डाले बिना इस घर में सिर पर फूल नहीं लगाते । इसके अलावा फूल पर तुम्हारे अकेले का ही अधिकार है क्या? बड़ी बहू जिसने फूल दिया उसके यहां रहते हुए तुम कैसे ऊंची हो जाओगी और सारा फूल तुम ही लगाओगी?"

रत्नम व्यंग्य से हंसी।

"मैं महान हूं। आदमी को जिस औरत से प्रेम ज्यादा होता है वही महान होती है। यह इसे भी मालूम है । फूल लगाकर मटकनी की इसेकहाँ जरूरत है।"

सास के चेहरे पर जो गुस्सा दिखाई दे रहा था उसे देख सरोजिनी को आश्चर्य हुआ।"

"तेरे इस तरह मटकनेका क्या फायदा? इसने जो नहीं किया वह तुमने करके दिखा दिया क्या? शादी के घर में कितने लोगों ने पूछा पहली बहू को बच्चे नहीं हुए इसलिए आपने इससे शादी कराई इसके हुआ क्या? मेरा सिर शर्म से झुक गया।"

"शर्म से अच्छी तरह झुका लीजिए!"गुस्से से रत्नम चिल्लाई "बिना वीर्य वाले लड़के को पैदा करके मेरे ऊपर बांझ का दोषारोपण? हमारे घर हर एक के आठबच्चों से कम किसी के नहीं हैं। किसी और से मैंने शादी की होती तो अभी तक मेरे भी पाँचबच्चे हो जाते! बांझ मैं नहीं आपका बेटा है!"

सास का चेहरा एकदम से लाल हो गया सरोजिनी ने बड़ी उत्सुकता से उसे देखा।

"इसको कितना घमंड है तुमने देखा?" सरोजिनी को देखकर वह बोली "इसे जंबू ने सिर के ऊपर बैठा रखा है इसको इसलिए यह भी बोलेगी और भी बोलेगी!"

"बोलूंगी!” रत्नम आगे भी बोली "लड़के को क्यों नहीं किसी डॉक्टर के पास ले जाते हो। तब रहस्य का पता चलेगा!"

सरोजिनी की आंखें और अधिक उत्सुकता से फैली।

अध्याय 23

आंगन में हल्के धूप में बैठकर चावल को फटकारते हुए सरोजिनी के हाथ बीच में हल्का सा स्तंभित होकर रुक जाता। कान तीव्र होकर अंदर कमरे में जंबूलिंगम और रत्नम के बीच में जो गरम वाद-विवाद हो रहे उसी में रमा।

उसके सामने थोड़ी दूर पर बैठी मरगथम ने उसे एक बार देख अपने अंदर बड़बड़ा रही जैसे बोली।

"छोटी अम्मा की जबान बहुत ज्यादा चलती है।"

सरोजिनी बिना जवाब दिए चावल को साफ करती हुई नीचे झुक कर रही थी।

"हमारी जाति में इस तरह बोलें तो आदमी लोग सिर ही काट देंगे!"

सरोजिनी बिना मुंह खोले चावल फटकारने में ही लगी रही। फटकारते समय धान के ऊपर-नीचे होते समय लहरों जैसी उसके मन में विचार आ-जा रहे थे। पहली बार उसे ऐसा लगा कि रत्नम की पीठ थपथपा कर उसे शाबाशी दें। होठों पर एक हल्की मुस्कान भी आकर चमकी और गायब हो गई।

'मुझसे ज्यादा रत्नम होशियार है इसमें कोई संदेह नहीं' उसने अपने मन में सोचा ।

"क्यों मैंने जो कहा उसमें क्या गलती है?" अंदर रत्नम का चिल्लाकर पूछना उसके कानों में साफ सुनाई दे रहा था ।

"तुम अपना मुंह बंद नहीं करोगी?" जंबूलिंगम ने ऐसा बोल कर आज तक जो गुस्सा नहीं दिखाया था वह आज दिखाया।

"नहीं!" रत्नम फट पड़ी। "मुझ पर इतना बड़ा इल्जाम लगाते हैं तो मैं कैसे उसे बर्दाश्त करूं? उस सरोजिनी के जैसे मैं बिना जबान की नहीं हूं। मुझे बांझ कह कर अलग करके तो देखो! आपने बेटे की दूसरी शादी क्यों की पूछो। उसके बच्चे नहीं हुए तो कारण बांझ है?"

"फिर कौन से कारण को तूने ढूंढ लिया?" सास ने डांटा।

"वह सब कहती रहूं तो आप का ही अपमान होगा। दिन क्या रात क्या सारा समय मैं इनका साथ दे रही हूं वैश्या को भी इतना दर्द नहीं हुआ होगा....."

"अरे बाप रे! ये कैसी बात कर रही है जंबू !" 

एक जोरदार चांटा पड़ा उसकी आवाज आई। पर रत्नम चुप नहीं हुई।

"इनके साथ ऐसे सोने के लिए हर साल एक बच्चा पैदा करना था। नहीं पैदा हुआ उसका क्या कारण है? मुझमें कोई खराबी नहीं है। इनमें खराबी है। इतना ज्यादा आपको क्रोध आ रहा है तो मेरा भाई डॉक्टर है, उनके पास जा कर दिखा लो।"

"रत्नम तुम हद से ज्यादा हो रही हो।" सास तेज आवाज में बोली।

"अम्मा आप चुप रहिए। मैं इसे संभाल लूंगा" जंबूलिंगम बोला।

"तेरे बड़े भाई का घमंड अपने पीहर में ही कर, यहां नहीं! किसी को भी दिखाने मैं जाने वाला नहीं इससे ज्यादा एक शब्द भी तुम बोली....." जंबूलिंगम के तेजी से बाहर जाने की आवाज सुनाई दी।

जाने के पहले मैं क्या बोली पता नहीं।

कुछ तेज आवाज में गुस्से से रत्नम बोली और अपने कमरे में चली गई।

सास आंगन को देखती हुई चलकर इस तरह झूले पर बैठी उससे जो आवाज आई जिससे उनके गुस्से की तीव्रता को सरोजिनी ने महसूस किया।

सरोजिनी ने अपना सिर ऊंचा नहीं किया। एक शब्द भी नहीं बोली।

मरगथम और उसने काम को खत्म करने के बाद, "मैं सबको समेट दूंगी आप जाइए" उसके ऐसे बोलने पर वह पिछवाड़े के कुंए पर जाकर अपने चेहरे को धोने लगी।

थोड़ी देर में बाहर गाड़ी आकर खड़ी हुई। माली ने रत्नम के संदूक को उठाकर गाड़ी में रखा, रत्नम अकड़ के साथ बिना सास से बोले उठकर गाड़ी में बैठी। जंबूलिंगम वहां नहीं दिखे।

गाड़ी के रवाना होने को सरोजिनी और मरगथम आश्चर्य से देखें "यही ठीक" मरगथम बड़बड़ाई ।

इसके चले जाने से अपने को कोई फायदा नहीं इसे महसूस कर सरोजिनी मौन होकर अपना काम कर रही थी। बहुत देर तक सास गुस्से में और दुख के साथ वहीं बैठी रही। एक हल्की सी खुशी उसे हुई। ‌"ऐसा अपमान इनका होना चाहिए" मन में विचार उठा। जब से रत्नम आई है तब से मुझे बिना किसी दया भाव के मेरे साथ कैसा व्यवहार किया। एक नौकरानी से भी बुरा व्यवहार मेरे साथ किया! पीहर वापस जाने पर भी रत्नम को वहां भी रानी जैसे ही रहने को मिलेगा क्योंकि उसके घर में ऐसी सुविधाएं हैं। उसके पिताजी बहुत बड़े जमींदार और भाई बहुत पढ़े-लिखे है । वह चली जाए तो नुकसान इन्हीं का है ऐसा लगा इतनी सरलता से जंबूलिंगम का मन रत्नम को छोड़ने का किया होगा क्या ? इसमें संदेह है। अपनी अम्मा का अपमान करने के कारण उसे भेजा होगा। हो सकता है वही गुस्से में रवाना हो गई होगी।

कुछ भी हो मेरे जीवन में तो कोई बदलाव आने वाला नहीं ऐसे विश्वास के साथ हमेशा की तरह वह अकेली ही सोई। 

उनकी बातों ने जंबूलिंगम को बुरी तरह हिला दिया होगा ऐसा उसे लगा। उसके चेहरे पर मौन और तनाव को देखते हुए रत्नम जो कह रही है वह सही होगा यह डर उसे महसूस हुआ ऐसा लगता है।

'यह लोग जो अन्याय करते हैं उसके लिए रत्नम ने जो किया अच्छा किया और करना चाहिए उसे लगा' वह स्वयं से ऐसा कहने लगी।

"दूसरे किसी आदमी से शादी की होती तो अभी तक 6 बच्चे पैदा हो गए होते?

मुझे भी हुए होते?

सरोजिनी को एक सदमा लगा। दिनकर के साथ उस दिन शारीरिक संबंध बना उसकी याद उसे आई।

उसे डर के बदले उसके पूरे शरीर में एक सिहरन उठी। वह कितना अच्छा संगम था ! उसकी वजह से उसके बीज से उत्पत्ति हो तो वह रिश्ता कितना तृप्ति कारक होगा उसे लगा। मुझे घर से ही भगा दें तो भी मैं छोटी नहीं हो जाऊंगी।

रत्नम ने शब्दों से उन्हें जो अपमानित किया मैं तो उसे करनी में करके दिखा दूंगी। 

दिनकर फिर आया ही नहीं। कितने दिन हो गए हैं ऐसी याद भी नहीं । अभी तक वह याद मन में संतोष दे रही है....

रत्नम के गए दस दिन हो गए। उसके जाने से जंबूलिंगम ही ज्यादा प्रभावित हुआ ऐसा दिखाई दिया। सासु अम्मा को तो कुछ भी नहीं हुआ है जैसे हमेशा की तरह रही। सरोजिनी का काम किसी तरह भी कम नहीं हुआ। हमेशा की तरह घर में आने-जाने वालों का कोलाहल मचा हुआ था।

आज उसे एक मिनट बैठूं ऐसा लग रहा था। सुबह 4:30 बजे से उठने के बाद अभी शाम को 5:00 बजे तक एक मिनट भी आराम न मिलने से उसका सिर घूमने लगा। दोपहर के समय जल्दी-जल्दी समय ना मिलने के कारण दो मिनट में खाने को फटाफट खा गई। शायद वह हजम नहीं हुआ उसके पेट में कुछ अजीब सा हो रहा था। मटके से पानी लेकर दो ग्लास पीकर हॉल में आकर बैठी।

बाहर एक गाड़ी आकर खड़ी हुई थी और बैठक में एक पुरुष के साथ सासू मां वाद-विवाद कर रही थी | उसने अभी ही उस पर ध्यान दिया | उसी समय उसके बैठते ही मरगथम आकर उसके कान में कुछ फुसफुसाई। 

"छोटी अम्मा का बड़ा भाई आया है। उनकी छोटी बहन के शरीर में कोई खराबी नहीं बोला । साहब को डॉक्टर के पास लेकर जाएंगे ऐसा बोल रहे हैं। यह सब इस घर का रिवाज नहीं है ऐसे अम्मा गुस्से से बोल रही हैं....."

"घर में साहब नहीं है क्या?"

"नहीं"

अचानक सरोजिनी को उबकाई आने लगी। पिछवाड़े में कुएं के पास जाकर धड़ाधड़ उल्टी की।

तुरंत दौड़कर आई मरगथम उनको कुल्ला करने के लिए पानी दिया और उन्हें संदेह से देखने लगी।

"क्यों अम्मा आपकी तबीयत ठीक नहीं है?" पूछी "अरे वाह रे आपको नहाए तो बहुत दिन हो गया ना?" थोड़ी देर बाद बोली।

बिजली चमके जैसे लगा सरोजिनी को फिर उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया।

"हां" कहकर मरगथम शुरू हुई। "हमारे पिताजी के मरने से पहले ही तो आप नहाई थी, उसके बाद नहीं? एक महीने से ज्यादा हो गया!"

आधे अधूरे होश में रहे सरोजिनी को मरगथम के चेहरे पर प्रसन्नता दिखाई दी।

"छोटी अम्मा की नाक काटने के लिए बहुत बढ़िया।" कहती हुई वह सरोजिनी के हाथ को पकड़ कर घर के अंदर ले गई और झूले पर सुलाया।

उसमें सोचने की शक्ति चली गई ऐसा सरोजिनी को लगा।

अगले कुछ क्षणों में ही सासू मां के अंदर आने का पता चला। उठ कर बैठी तो सासू मां ने अपने हाथ को ऊपर कर उसे लेटाया। 

"अरे वाह सौभाग्यवती तूने मेरे बेटे की इज्जत को बचा दिया।" कहकर, "अब मैं हिम्मत से रत्नम के बड़े भाई से बात कर सकती हूं" कहकर वह मुस्कुराई।

सास के कमरे में से बाहर जाने को सरोजिनी ने संशय और आश्चर्य से देखा।

बाहर जंबूलिंगम की गाड़ी आकर खड़े होने की आवाज आई।

मरगथम उसकी सहेली जैसे सफलता की मुस्कान के साथ खड़ी हुई थी।  

अध्याय 24

"आज मेरे और दादी का खाना बाहर है" सुबह नाश्ते के वक्त अरुणा बोली ।

"अरे, मैं तो भूल ही गई" कहकर सरोजिनी मुस्कुराई तो नलिनी प्रश्नवाचक नजरों से उन्हें देखा।

"कहाँ खाना है? होटल ले जा रही हो क्या?"

अरुणा हंसी।

"क्यों अम्मा? हमें खाने पर बुलाने के लिए आदमी नहीं है ऐसा सोचा क्या? शंकर-मल्लिका के घर पर आज हमारा खाना है।"

"ओ" बोली नलिनी थोड़े विस्मय के साथ। "एक दिन उन्हें यहां खाने पर बुला सकते हैं?"

"वही मैंने भी बोला!" सरोजिनी बोली।

"शंकर को देखने से ही आपका चेहरा बदल जाता है। खाने पर और बुला सकते हैं क्या?" अरुणा तुरंत बोली ।

नलिनी ने अपने नीचे के होंठ को काटा अपने को कंट्रोल करने जैसे।

"मैं कुछ भी बोलूं तो तुम बुरा ही मानती हो!" भारी मन से बोली।

"नहीं ! मैं आपके मन के विचारों को अच्छी तरह से समझ गई हूं। आप ही हमेशा मुझे गलत मानती हो।" फटाक से बोली।

"शंकर अकेला आए तो आप निश्चित रूप से उसे खाने के लिए नहीं बोलोगी। मल्लिका साथ में रहे तो गौरव की बात है सोचोगी। क्योंकि आपकी सहेलियों का मुंह ढकने और उनकी आंखें पोंछने के लिए वही आपके लिए सुविधाजनक होगा।"

नलिनी के आंखों में आंसू भर आए उसे देख कार्तिकेय थोड़े सख्त आवाज में बोले।

"अरुणा, क्यों बातों को अनावश्यक लंबा कर रही हो?"

अरुणा ने सिर झुका लिया।

"सॉरी" बुदबुदाई।

"अम्मा का जो डर और संदेह है उससे मैं परेशान हो जाती हूं अप्पा। सचमुच में किसी को लेकर भाग जाती तो अम्मा की सहेलियों को तृप्ति हो जाती मुझे ऐसा लगता है।"

"अरुणा नो!" कार्तिकेय ने डांटा।

"मैंने अभी क्या बोल दिया है इसीलिए इतना परेशान हो रही है?" नलिनी गुस्से से बोली।" उन्हें खाने पर बुलाने के लिए बोलना मेरी गलती थी?"

"इतने दिन बुलाया क्या? बुलाने की अब सूझी क्या? कितनी बार शंकर अपने घर आए हैं? एक बार भी कॉफी पियोगे क्या पूछा था? खड़े होकर एक शब्द भी बोला था? शंकर के मित्रता के कारण ही प्रभाकर को छोड़कर मैं अलग हुई तुम अभी भी सोच रही हो ना?"

अचानक अरुणा के आवेश को बंद नहीं कर सकते ऐसा लगा।

"प्रभाकर से शादी करने के तीसरे दिन ही मेरी यह शादी एक मिस्टेक है मेरे समझ में आ गया आपको पता है? एडजस्ट करके रहना चाहिए मैंने भी बहुत कोशिश की आप इसे कभी समझोगे क्या? मैंने अलग होने का जो फैसला लिया उसका शंकर की दोस्ती से कोई संबंध नहीं आप विश्वास नहीं करोगी, क्योंकि तुम्हारी सहेलियों ने विश्वास नहीं किया। मल्लिका के मन को आप स्वयं जाकर भी बदलने की कोशिश करोगी ! परंतु अच्छी बात है कि वह बहुत होशियार है मुझे अच्छी तरह समझने वाली है"

वह वहां न बैठकर सीधे ऊपर फटाफट चढ़ कर चली गई।

थोड़ी देर सब लोग बिना बोले स्तब्ध रह गए और बैठे रहे।

"अभी मैंने क्या बोल दिया जो उसने मेरे ऊपर आक्रमण कर दिया?" नलिनी स्वयं के अंदर पश्चाताप की आवाज में बोली।

"अभी तुमने जो कुछ कहा उसके लिए उसने ऐसा जबाव दिया उसका ऐसा अर्थ नहीं है!" कार्तिकेय शांति से बोला।

'बहुत दिनों से बोलने की जो सोच रही थी उसको आज बोल दिया बस इतना ही।'

"मुझे समझी नहीं ऐसा हमेशा बोलती है। उसने मुझे समझा है क्या?"

नलिनी की आंखों में आंसू भर गए। सरोजिनी को दया आई।

"नलिनी" बड़ी नम्रता से बोली। "उससे तो तुम बड़ी हो। तुम्हें वह समझे उससे ज्यादा तुम्हें उसे समझना चाहिए वह ज्यादा जरूरी है। उसके ऊपर तुम्हें पूरा विश्वास रखना चाहिए। मेरी लड़की गलती नहीं करेगी एक ऐसा विश्वास रहने से दूसरे लोग कुछ भी बोले तुम्हें फिक्र नहीं होगी। मैं तुम्हें गलत बोल रही हूं ऐसा मत समझो। तुम्हारी परिस्थिति में किसी को भी इस तरह का डर होगा ही। मुझे भी हुआ था। कल उन दोनों को साथ में देखकर ही मेरा मन निर्मल हुआ। मल्लिका और शंकर बहुत ही घनिष्ठ मालूम होते हैं।"

"मेरे समझ में कुछ भी नहीं आता!" नलिनी बड़ी निष्ठुरता से बोली।

"कोई नई परेशानी ना हो तो ठीक है।"

"यही तो बोल रहे हैं! कार्तिकेय भी परेशान हुए। "कोई परेशानी आएगी ऐसे क्यों तुम सोच रही हो? उसको पढ़ने और काम पर जाने में रुचि है ना तुम क्यों असमंजस में पड़ती हो?"

बगीचे में जाकर बैठ रही हूं ऐसे ही बोल कर सरोजिनी उठकर बाहर की तरफ बगीचे में उतरी।

बगीचे में पड़ी हुई बैत की कुर्सी में बैठकर आकाश की तरफ देखती हुई उसके मन में एक ना समझ में आने वाली चंचलता समाई हुई थी। जो रिश्ता पवित्र है और बिना किसी कपट के उसे निभाने पर उस लड़की पर संदेह करें तो उसे कैसा लगेगा ! प्रभाकर से अलग होकर आई यह कितना सही कदम है उसने सोचा यह नलिनी के समझ में नहीं आएगा। यदि वह उससे अलग नहीं होती तो अपने स्वयं के पश्चाताप से उसका और शंकर का रिश्ता दूसरा ही रूप ले लेता....

अब ऐसे मोड आने की जरूरत नहीं। अरुणा स्वयं कमाती है। उसमें स्वयं के पैरों पर खड़े होने की हिम्मत है। एक आदमी की दया प्रेम से वह नहीं डगमगायेगी।

जंबूलिंगम एक प्रेम करने वाला पुरुष होता तो दिनकर के हाथ लगने से सरोजिनी पिघल जाती क्या? सरोजिनी पढ़ी-लिखी होती और स्वयं कमाती तो कहानी दूसरी हो जाती!

कैसे? अरुणा की कहानी जैसे!

उसको हंसी आई। साथ में दुख भी हुआ।

आज निश्चित ही उसके मन में जो चंचलता हो रहीहै है उसका कारण पता नहीं। यदि पुरानी बातों को फिर से याद करें तो उसने कोई बड़ी चीज हासिल की हो ऐसा उसे नहीं लगा। अपने को एक मनुष्य सिद्ध करने के लिए कितने पापड़ उसे बेलने पड़े। इस तरह के बीच के रास्तों को ढूंढने में सोच-सोच कर यह औरतों का जन्म कितना खराब है अपनी जिंदगी को देखती है तो अपमान से उसका जी भर जाता है ।

उस दिन मरकथम ने जो संदेह पैदा किया उसके अंदर एक जीव पनप रहा है, तो उस आश्चर्य में सास में जो अचानक बदलाव आया और उसमें एक शांति और खुशी मिलने से वह आश्चर्य में पड़ी बैठी थी तभी जंबुलिंगम की गाड़ी आने की आवाज में एक नए विरोध के जाल की शुरुआत हुई।

सास मुस्कुराई और लड़के को बुलाने गई।

बड़े उत्साह के स्वर में "आ जम्बू" उसके बुलाने की आवाज साफ आई। "कौन आया है देखो, डॉक्टर साहब आए हैं, रत्नम के बड़े भाई! रत्नम के ऊपर हम झूठा इल्जाम लगा रहे हैं ऐसा कह रहे हैं और तुम में ही खराबी है बता रहें है !"

सासू अम्मा की बातें सांस फूलने से बंद हुई।

"आप लोगों का इस तरह हमें अपमानित करना भगवान को भी नहीं सुहाया साहब ! आइए आप डॉक्टर हो ना, अंदर आ कर देखिए। बड़ी बहू सरोजिनी नहाई नहीं है। आज पूरे 40 दिन हो गए, उल्टी कर रही है। भगवान ही आकर आपके संदेह का जवाब दे रहे हैं जैसे अभी ही मुझे भी पता चला। अब बताइए, मेरे बेटे में खराबी है या आपकी बहन में?"

थोड़ी देर तक दोनों ने किसी तरह का कोई जवाब नहीं दिया। जम्बूलिंगम का चेहरा इस समाचार को सुनते ही किस तरह बदला होगा उसकी कल्पना करके भी सरोजिनी को डर लग रहा था।

कुछ मिनट मौन रहने के बाद रत्नम के भाई आवाज सुनाई दी।

"माफ कीजिएगा, रत्नम को एक बड़ी लेडी डॉक्टर को दिखाया। कोई खराबी नहीं है बोला।"

"वह सब मुझे कुछ नहीं मालूम। मेरी बड़ी बहू नहाई नहीं है, मेरे लड़के के बारे में जो आपने कहा वह गलत है पता नहीं चला? आप रवाना होकर घर जाकर उस अहंकारी को यह बात बताइए। कोई और समय होता तो मैं क्या करती पता नहीं। आज गुस्सा भी नहीं आया। आज मन भरा हुआ है। जम्बू उन्हें रवाना होने को बोलो!" उस आवाज में कितनी खुशी भरी थी! एक बार तो सरोजिनी घबरा गई।

"माफ कर दीजिए!"

"ठीक है रवाना होइए!"

कुछ ही देर बाद गाड़ी रवाना होने की आवाज आई।

फिर से सासू मां का उत्साहित स्वर सुनाई दिया।

"अपने कुल के देवता ने ही सरोजिनी के अंदर प्रवेश किया है जम्बू ! वह आदमी अभी तक संडासी के बीच में मुझे दबा रहा था। उस समय मरगथम आकर मुझसे बोली, "सरोजिनी अम्मा उल्टी कर रही है। वह बेहोश हो रही है। उनको नहाए बहुत दिन हो गया ना?" बोल रही। भगवान आकर बोले जैसे। तुम विश्वास नहीं करोगे, मेरी आंखों में आंसू आ गए! अपमानित करने लायक वह अपने डॉक्टर के घमंड में बात कर रहा था?"

"वह कहां है?" वह कटु शब्दों में बोला।

"झूले में लेटी हुई है। अब तुम उसे परेशान मत करो। रात को बात कर लेना!"

"अभी तो बच गए" सरोजिनी आंखें बंद करके बोली।

"कुछ पीने को चाहिए क्या बच्ची?" सासू मां ने पूछा तो आंखें बंद करके ही "नहीं" बोल दिया। साधारणतया जल्दी सोने चली जाने वाली सासू मां उस दिन उसके साथ मदद करती हुई उसे अच्छी साड़ी पहनने को कहा और सिर में खूब सारा मोगरा के फूलों का गजरा लगाया। जम्बूलिंगम के कमरे में भेजा।

उस बड़े कमरे के अंदर पैर रखते ही उस लंबे नीले वेलवेट के बिछाने चौड़े होकर लेटे हुए जंबूलिंगम को देखते ही उसका डर दूर होकर एक जिद्द और पक्का इरादा उसके अंदर पनपा । 

अध्याय 25

सरोजिनी के अंदर आने को महसूस कर पलट कर आराम से उठा। उसकी आंखों में क्रोध से मार डालने वाला एक जुनून को देखकर भी सरोजिनी को कोई डर नहीं लगा | इस पर उसे स्वयं आश्चर्य भी हुआ।

उसने सीधे उसे देखा। उसकी हिम्मत को देखकर वह भी चौंक गया और उसकी चाल में संकोच दिखाई दिया। फिर अपने आप को संभाल कर अकड़ के साथ उसके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा।

दहशत के बाबजूद भी बिना डरे अपने को संभाल कर खड़ी रही। अचानक उसे वह निम्न से भी निम्नतर दिखाई दिया।

"इतना साहस, मेरे सामने आकर खड़ी हुई हो? यह बच्चा किसका है? चुपचाप बोल दो, नहीं तो तुझे मार डालूंगा,। उसका बाप कौन है?"

"आप ही हो !"

"इतने अहंकार से बोल रही हो‌?"

उसने फिर से चाटा मारा। उसका सिर चकराने लगा।

"अहंकार नहीं। सच ही तो बोल रही हूं!"

"क्या सच है? रत्नम के आने के बाद तुम मेरे साथ नहीं सोई!"

"ऐसा है इसे आप बाहर बोलो तो क्या हो जाएगा?"

"तुम्हारा अपमान गली-गली में लोग हंसेंगे!"

"नहीं आपका ही अपमान होगा गली-गली लोग हसेंगे!"

एक क्षण वह स्तंभित होकर खड़ा रहा।

"ओहो, जो करना था वह कर के मुझे डरा रही है? तुम्हारे पेट में है उसे मैं बढने दूंगा ऐसा सोच रही है क्या?"

"बढ़ने दोगे" एक पक्के इरादे के साथ बोली। "अपने परिवार के सामने आप के सम्मान को बचाना है तो इसे बढ़ने देना होगा। आपके ऊपर गलती नहीं है तो रेहन के रूप में इसे बढ़ने देना पड़ेगा।"

"तुम्हारी इतनी हिम्मत ? किसने दिया इसे ?" उसने फिर से चाटा मारा। "मेरा बच्चा नहीं है मालूम होने पर भी उसे मेरा है मैं बोलूंगा ऐसा उम्मीद कर रही है!"

"हां, नहीं तो तुम्हारी अम्मा टूट जाएगी। नहीं तो आपका सम्मान चला जाएगा। बाहर वाले लोग भी आपको हीनता से देखेंगे। आप मुंह बंद करके रहोगे तो इस घर के सम्मान को बचाओगे। मरने तक मैं भी इस बारे में मुंह नहीं खोलूंगी यह सत्य है।"

उसके धैर्य और हिम्मत को देखकर वह स्तंभित हो खड़ा रह गया। फिर, "वह कौन है?" दांत पीसता हुआ पूछा।

वह दरवाजे के पास सरकते हुए सौम्यता से मुस्कुराई।

"उसे तुम्हें जानने की जरूरत नहीं। मैं ही उसे भूल गई।"

दूसरे ही क्षण बिना आवाज के दरवाजे को खोलकर बाहर निकल गई.....

सरोजिनी ने सिर उठाकर देखा। पक्षी के कलरव के बिना चारों तरफ भारी सा लग रहा था।

इस समय सोचे तो भी उस दिन सरोजिनी में जो हिम्मत आई उसे सोच कर भी आश्चर्य होता है। कहाँ से आई वह हिम्मत ?

वह हिम्मत नहीं। जो परिपूर्ण हैं उसको ना हिला सकने वाला सामर्थ्य है। विरोधी की कमजोरी का फायदा उठाकर उस स्थिति को साधन बनाने वाला सामर्थ्य कहो या चतुराई..... इस चतुराई की वजह से ही पेट के बच्चे को वह बचा पाई। "जमीन के लिए वारिस देने वाली महारानी" ऐसा सास और दुनिया वालों ने सम्मान देने लायक होने से ही उस घर में उसका आगे रहना संभव हुआ। 

जंबूलिंगम अपना बदला लेने में बिल्कुल नहीं चूका। उसे हमेशा दूसरों के सामने अपमानित करता रहा। उसे मारा। रत्नम को माफ कर घर लेकर आ गया। सरोजिनी सब अपमानों को मुंह बंद करके सह रही थी कि इस दोगलेपन को तो उसे सहना ही पड़ेगा | ऐसा एक वैराग्य के साथ इस तरह के एक कठिनाई वाले समय में दिनकर को उसने देखा। उसके पूर्ण गर्भवती अवस्था को देख उसकी आंखों में दया और फिक्र को देखकर उसके चेहरे पर जो खुशी और निर्मलता दिखाई दी उसे जंबूलिंगम ने देख लिया होगा.... 

धीरे-धीरे दिनकर वहां से गायब हो गया। दूसरे प्रदेश में जाने लायक उसे मजबूर किया.... अपने घर-बार, खेती-बाड़ी और बच्चे के खोंने का आघात.... उस घर में बच्चे को पैदा कर उसे बड़ा करने में उसे अपने विचित्र साहस को सोच जो कष्ट पाया उस पर उसे गर्व था। अब आराम से सोचते समय लगता है उसमें कोई गर्व की बात नहीं थी। एक आदमी के पौरुष को बचाने के लिए एक साधन के रूप में वह बदल गई थी | ये बात अब उसे अपने बच्चे को बचाने के लिए साधन बनी यह उसे समझ में आया । इस रक्षात्मक कदम के लिए उसे अपने स्वभाव के प्रतिकूल आचरण करने की जरूरत पड़ी! जम्बूलिंगम की भाषा में दैविय शक्ति की ओढनी को ओढ़ कर घूम रही थी।

अपमानजनक जिंदगी! सही जिंदगी थी क्या वह!

आज अरुणा को इस तरह का अपमान नहीं झेलना पड़ेगा। करने की जरूरत भी नहीं।

"दादी! साड़ी नहीं बदली क्या? 11:00 बजने वाले हैं। थोड़ा पहले जाएं तभी बात कर सकते हैं!"

अरुणा की आवाज सुन वह उठी। अचानक शरीर और मन में एक थकावट आई। बाहर जाना है क्या ऐसा एक आलस भी आया। नहीं आऊंगी ऐसा बोलूं तो अरुणा को कैसा लगेगा ऐसा सोच उसने अपने कमरे में जाकर साड़ी बदल ली। आईने में अपने को देखते समय फिर से वह प्रश्न गूंजने लगा।

"आपको अभी भी कोई दुख नहीं है सरोजिनी अम्मा?"

"दुख है" वह दुखी होकर बोली।

"परंतु आप सोच रहे हो उस कारण से नहीं। आपका और मेरा एक दिन का जो रिश्ता हुआ वही सच्चा था ऐसा लगता है। बाकी सब तो मेरा बदला भेष.....

लड़की पैदा हो तो शिक्षित भी ना हो और उसके जाने की दूसरा जगह भी नहीं हो तो उसे कई तरह के भेष बदलना ही पड़ता है, कितनी तरह के अपमानों को सहना पड़ता है। उस भेष को और अपमानों को सोच कर दुख होता है। मेरी वजह से उस बेचारे को कष्ट उठाने पडें

इसे सोच कर उसे बहुत दुख होता है.....

छी ! कितना घटिया जीवन है मेरा?

उसने अपने मन के दुखों को जोर से दबाकर बंद किया। दिए हुए वचन को निभा दिया। यह रहस्य मेरे साथ ही जाएगा...

वह कुर्सी पर बैठकर अरुणा का इंतजार कर रही थी। अरुणा के आने में देरी है उसे लगा। कुर्सी पर बैठकर उसने आंखें बंद कर ली।

"वह एक बेवकूफ है। अपने पास जो कीमती चीज है उसको ना पहचानने वाला...."

"रोइए मत! आप रोए तो मैं सहन नहीं कर सकता!"

"आप एक असाधारण औरत है सरोजिनी अम्मा....!"

"मैं साधारण लड़की हूं। आपके सहवास में असाधारण हो गई...."

उसे हँसू ऐसे लगा।

"दादी ! दादी ! सो गई क्या?"

उसने सकपका कर आंखें खोली।

सामने अरुणा चमचमाती हुई खड़ी थी। उसके चेहरे पर बहुत उत्साह दिखाई दे रहा था।

"हां, थोड़ी झपकी आ गई लगता है। चलें ?" वह बोली। "तुमने ही देर कर दी !"

"सॉरी दादी, बीच में फोन आ गया था। अच्छा समाचार है। अमेरिका में पढ़ने जाने की सारी तैयारी हो गई। यहां मुझे रुपयों की मदद मिल गई हैं ऐसा अमेरिका कौंसिल से समाचार कल ही आ गया था। ऑफिस वाले ही तो मुझे भेज रहें हैं ! उस ऑफिसर ने अभी मुझे फोन करके बताया!"

अरुणा के चेहरे पर बहुत ही संतोष और खुशी दिखाई दे रही थी।

सरोजिनी के चेहरे पर भी खुशी फैल गई। अरुणा का उसने आलिंगन किया ‌।

"बहुत खुशी हुई बच्ची। जा कर आओ। अच्छा पढ़ो। स्वयं कमाकर अपने पैरों पर खड़ी हो। अपने मन पसंद से अच्छा पढ़ा लिखा सभी बातों में तुम्हारे उपयुक्त आदमी को ढूंढ कर शादी भी कर लो!"

अरुणा हंसी।

"अभी मुझे शादी की आवश्यकता नहीं है दादी"

"जबतक जरूरत नहीं है तबतक जरूरत नहीं है। तुम्हें पसंद हो ऐसा आदमी मिले तब तुम शादी के बारे में सोचना | तब तक सोचने की जरूरत भी नहीं।"

"करेक्ट!" कहकर अरुणा हंसते हुए दादी को लेकर बाहर आई। कार्तिकेय और नलिनी को बोल कर बाहर कार के पास आते समय गेट के बाहर एक ऑटो रिक्शा आकर खड़ा हुआ।

"कौन आ रहा है," संदेह से सरोजिनी खड़ी हुई।

ऑटो रिक्शा में से श्यामला उतरी। सरोजिनी को कारण मालूम ना होने पर भी धक से रह गई।

"क्यों दादी गाड़ी में नहीं बैठ रही हो क्या?" ऐसा अरुणा के पूछते ही "ठहरो वह लड़की आई है। क्या समाचार है मालूम करके फिर जाएंगे, आधे घंटे बाद"

"ओ, मैंने ध्यान नहीं दिया" कहकर अरुणा ने श्यामला को देखा।

"आइए!" कहकर मुस्कुराई।

श्यामला के चेहरे पर कोई खुशी नहीं दिखाई दे रही थी | पास में आने के बाद सरोजिनी को देख कर बोली "कल रात को नाना जी का देहांत हो गया । सुबह टेलीग्राम आया था"

सरोजिनी एकदम से स्तब्ध हो गई। बोलने के लिए जीभ ने साथ नहीं दिया।

"यहां से जाते समय अच्छे ही तो थे। खुशी-खुशी गए थे। इतनी जल्दी चले जाएंगे नहीं सोचा....."

सरोजिनी थोड़ा डगमगा कर "मैंने भी नहीं सोचा" धीमी आवाज में बोली।

"यहां से रवाना होते समय बोले थे। यदि मैं मर जाऊं समाचार आए तो तुरंत आपको और आपके बेटे को सूचना देने के लिए कहा। फोन से बताने से अच्छा सामने आकर कहना है सोच कर मैं आई....."

सरोजिनी के चेहरे पर एक असाधारण कोमलता फैल गई। बड़े प्यार से श्यामला के कंधे को पकड़ कर "बहुत धन्यवाद!" धीरे से बोली।

बाहर ऑटो रिक्शा अभी भी खड़ा था।

"मैं रवाना होती हूं। नाना के बेटा नहीं होने के कारण मेरे बेटे को ही उनका दाह-संस्कार करना है...."

जल्दी-जल्दी उसके ऑटो रिक्शा में बैठने को सरोजिनी देखती रह गई।

अजीब से ख्यालों में डूबी हुई बरामदे के कुर्सी पर बैठ गई।

उसी को तीव्र नजरों से अरुणा देख रही थी उसका ध्यान उसे अभी ही आया तो उसने गर्दन ऊंची कर "मैं खाना खाने नहीं आऊंगी बच्ची" बोली।

"मैं भी नहीं जा रही हूं दादी!" अरुणा बड़ी कोमलता से उनके कंधे को दबाती हुई बोली।

अध्याय 26

"अपने कमरे में जा रही हूं" कहती हुई सरोजिनी उठी। पुराना रिश्ता जो अभी तक बड़े अच्छी तरह से चल रहा था वह कट गया जैसे उसके मन में एक शून्यता फैल गई।

"अपने-अपने कर्तव्यों को खत्म करने के बाद फिर जाना ही है। इसमें दुखी होने के लिए कुछ भी नहीं है" इस तरह से बड़बड़ाते हुए अपने कमरे की तरफ जाने लगी।

अरुणा का उनके साथ उनकी सहेली जैसे चलकर जाना उनके मन को सकून दे रहा था।

"अभी आपने उन्हें देखा था। इसीलिए आपको अधिक सदमा लगा और दुख भी होगा" अरुणा धीरे से बोली।

सरोजिनी कोई जवाब नहीं दिया। यह मुझे नाप रही है क्या ऐसा उन्हें संदेह हुआ। अपने कमरे में जाकर आराम कुर्सी पर बैठकर उसने आंखें बंद कर ली।

"क्यों दादी, आपको क्या हो रहा है?" फिक्र से अरुणा ने पूछा।

"कुछ नहीं" हाथ से सरोजिनी ने इशारा किया‌।

"आज इस समाचार की उम्मीद ना होने के कारण थोड़ा अजीब सा लग रहा है" आंखों को बंद किए हुए ही बोली ‌।

"पीने के लिए कुछ लेकर आऊं?"

"नहीं, थोड़ी देर मुझे अकेले में ही छोड़ दो। कार्तिकेय के पास जा कर "दिनकर साहब का देहांत हो गया बोल दो।"

उसके चेहरे पर जो उदासी दिखाई दी वह कुछ सोचते हुए देख "ठीक" कहकर अरुणा बाहर आ गई।

सरोजिनी के चेहरे से धीरे से उदासी दूर हुई और एक शांति और सौम्यता आ गई।

होंठों पर एक मुस्कुराहट आई। "कार्तिकेय और मुझे एक बार देखने के लिए इतने दिनों अपने को जिंदा रखा आपने" अपने आप से बोली। "आपका मन भरा हुआ है उस दिन आपने बोला था ना, उसका कोई दूसरा अर्थ नहीं हो सकता....." "सिर्फ एक दिन को याद रखकर 50 साल मैंने गवाया" आप विश्वास करोगे क्या साहब? मैं भी एक मनुष्य ही हूं इसे समझाने वाले उस दिन आप ही थे? नहीं साहब मुझे उस दिन के लिए कोई दुख नहीं है। कोई अपमान का एहसास भी नहीं....

मन बहुत हल्का हो गया जैसे तैर रहा था ऐसा हल्का-फुल्का लगा। पहले का जीवन और बाद का जीवन मिलकर गोल-गोल चकरघिन्नी जैसे घूम रहा था। उसकी सास उसे सरोजी बुलाती और अब वह सरोजिनी है दोनों बदल-बदल कर एक नियति के अंदर फंस गए जैसे आंखों में पट्टी बांधकर अंधेरा में गोल-गोल चक्कर घिन्नी जैसे घूमना ।

"अम्मा....!"

थोड़ी देर उसको सुनाई नहीं दिया।

कोई उसके कंधे को जोर से दबा कर "अम्मा!" बोला।

उसने आंखें खोली।

कार्तिकेय, मुरूगन उनके पीछे अरुणा और नलिनी खड़े थे। सब लोगों के चेहरों पर चिंता दिखाई दी।

कुछ भी याद नहीं आने से असमंजस में "क्या?" बोली

"आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या?"

"तबीयत को कुछ नहीं है?" कमजोर आवाज में बोली।

"थोड़ी थकावट लग रही है"

"बिस्तर पर लेट जाइए" कार्तिकेय बोले।

"ठीक है" कहकर उठी तो हल्का सा सिर घूमने लगा।

"उम्र हो गई ना मेरी" धीरे से कहती हुई नलिनी और अरुणा की सहायता से बिस्तर पर लेटी।

अचानक श्यामला के बोले समाचार की याद आई। परंतु दिनकर नाम याद नहीं आया। मुझे क्या हो गया उसे आश्चर्य हुआ। कार्तिकेय को सूचना नहीं देनी क्या?

हड़बड़ाहट और असमंजस में बोली "वे मर गए"

"मालूम है" कार्तिकेय बोला। 

"वे कौन है पता है?" कुछ सोचते हुए बोली,

"मालूम है दिनकर साहब ही बोल रही हो ना?"

"हां वही" होश में आए जैसे परेशान हो आंखों को बंद कर लिया।

सबकी निगाहें उसके ऊपर जमी थी जिसे उसने महसूस किया।

"उन्हें जाने क्या-क्या बीमारियां और परेशानियां थी। उम्र हो गई। उनके मौत ने आपको क्यों इतना परेशान कर रहा है?" कुछ सोचते हुए कार्तिकेय बोला।

सरोजिनी संभल गई। 

"जाने वाले चले जाएं तो थोड़ा दुख तो होता ही है।"

"उनसे हमारा संबंध भी कई दिनों से नहीं था...."

सरोजिनी बिना जवाब दिए रही। मन में जो असमंजस था उसमें कुछ बक तो नहीं दिया सोच परेशान हुई।

"आपको अपनी तबीयत को खराब करने लायक कोई समाचार नहीं है यह"

कार्तिकेय के आवाज में एक कठोरता है ऐसा उसे लगा। अनजाने में ही उसके आंखों से आंसू बहने लगे। पास में जो खड़े थे उनके कान खड़े हो गए।

अरुणा घबराकर पास में आकर उनकी आंखों को पोंछा।

"क्या है अप्पा आप!" कहकर वह परेशान हुई। "किसी की मृत्यु हो गई वह इतने दिन बाद मिला उसके लिए कितना दुख मनाना चाहिए ऐसा लिमिट लगा सकते हैं क्या ? वह दादा, दादी के उन दिनों के समय के लोग थे । उनके लिए दादी का थोड़ा दुखी होना गलत है क्या ?"

"गलत है मैंने नहीं बोला, अम्मा की तबीयत के बारे में सोचा" संकोच के साथ कार्तिकेय खड़े थे। "वे कितने नजदीक थे मुझे नहीं पता।"

"हमारी अम्मा बोलती थी, पहले वह साहब अपने घर के लिए बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। बड़े साहब और ये बड़े भाई छोटे भाई जैसे रहते थे। एक ही शहर होता तो मौत पर जाना चाहिए। बड़ी अम्मा को तृप्ति होती" मुरूगन बोला।

थोड़ी देर सोचने के बाद, "अब भी जा सकते हैं" कार्तिकेय अचानक ही बोले। "यहां से 30 किलोमीटर ही हैं वहां एक गांव में रहते हैं बताया, उनका पता भी है।"

"चलें" अरुणा बोली |

"अभी क्यों?" नलिनी खींचने लगी।

"तो क्या हो गया जाकर आते हैं! उन्हें कोई मदद की जरूरत होगी करके आ जाएंगे" कार्तिकेय बोले।

सरोजिनी को कुछ देर आश्चर्य हुआ। कार्तिकेय को रवाना होने की सोचेंगे इसकी उसे उम्मीद नहीं थी। उसके अंदर लहरों जैसे भावनाएं उफनते हुए आकर गले को दबाने लगे।

"अम्मा क्या कह रहे हो?" कार्तिकेय ने कहा।

"जैसे तुम्हारी सहूलियत हो बेटा। जाकर के आना एक सम्मानजनक बात है" एक नई शक्ति से वह बोली।

कार्तिकेय उसके पास आकर उनकी हाथों को धीरे से पकड़ा।

"अपने से जो होगा वह प्रायश्चित हम करेंगे" वह धीरे से बोला।

सरोजिनी ने आश्चर्य से उन्हें देखा।

"किसलिए प्रायश्चित?"

"अप्पा ने उनसे जो शत्रुता की...."

उसने सिर झुका लिया।

"वह भी ठीक है" वह बोली। अरुणा की निगाहें उसी पर जमी थी।

"मैं और मुरूगन जाकर शाम तक वापस आ जाएंगे, और किसी को आने की जरूरत नहीं।"

नलिनी को इस बात से सहमति नहीं है ऐसा सरोजिनी ने महसूस किया। कार्तिकेय जाने के लिए स्वयं ने निर्णय किया तो उसे बीच में बोलने की जरूरत नहीं है इसलिए चुप रही।

कार्तिकेय के पीछे जा रही नलिनी,

"क्यों जी, आपको अभी क्यों जाना है?" उसका धीरे से पूछना उसे भी सुनाई दिया।

"पता नहीं जाना चाहिए ऐसा लगा, जा रहा हूं। इसमें कोई नुकसान नहीं है। जाऊं तो अम्मा को संतुष्टि होगी।

"उन्होंने तो मुंह खोल के कुछ नहीं कहा।"

"इसीलिए तो जाकर आना है!"

अरुणा सरोजिनी को देखकर धीरे से मुस्कुराई।

सरोजिनी बिस्तर से उठ कर बैठी। अचानक उनका मन बहुत हल्का हो गया ऐसे लगा। प्रकृति ही अपने जैसे की स्थिति को संभाल लेती है उसे ऐसे लगा।

वह अरुणा के हाथ को पकड़ कर, "यह देखो, मेरे लिए बेकार में बैठकर परेशान मत हो। तुम भी नहीं जाओगी तो मल्लिका दुखी होगी। तुम जाकर आ जाओ" बोली।

"नहीं दादी मैं नहीं जा रही"

"जाकर आ.... मुझे कुछ देर अकेला रहना है"

"फिर ठीक है" कहकर अरुणा उठी। कार्तिकेय और मुरूगन के रवाना होने के बाद नलिनी अंदर आकर खाना खाने के लिए उन्हें बुलाया।

"आज मुझे खाना नहीं चाहिए। पेट कुछ खराब सा लग रहा है" सरोजिनी बोली। सरोजिनी ने जिद्द ना करके वहीं कुछ देर संकोच के साथ खड़ी रही।

"अम्मा.... आपकी तबीयत को वैसे तो कुछ नहीं हुआ ना? कुछ अलग लग रहा हो तो कहिएगा। डॉक्टर को बुलाती हूं।"

"ऐसा कुछ नहीं है। तबीयत में कुछ खराबी नहीं है। वह साहब बहुत ही नजदीक के थे। उनका स्वभाव बहुत ही बढ़िया था। कुछ खराब समय के कारण तुम्हारे ससुर जी से उनका विरोध हो गया और उन्होंने अपने प्रभाव से उनके कुटुम्ब को ही नष्ट कर दिया। वह साहब बिना कुछ बोले उस प्रदेश को छोड़कर ही चले गए...."

नलिनी थोड़ी दुखी दिखाई दी। "इन सब को भूलकर अपने को देखना है ऐसी उनकी इच्छा हुई तो आश्चर्य होता है, नहीं?"

सरोजिनी ने कोई जवाब न देकर सिर को नीचे कर लेती है।

"मेरे अंदर हमेशा एक दोषी की भावना रहते आ रही है। तुम्हारे ससुर ने जो काम किया.... उसके कारण यह समाचार सुनते ही मैं हड़बड़ा गई।"

"फिर इनका रवाना होकर जाना सही है। पहले ही पता नहीं था। उनके रहने की जगह का पता होता तो आना जाना रहता।"

सरोजिनी ने प्यार से उसे देखा। नकली भेष बनाकर बैठने से ही कितना गौरव मिलता है उसे सोच हंसी आई।

"आप आराम करिए। थोड़ी देर के बाद मैं फल का जूस लाकर देती हूं। अरुणा क्या करने वाली है देखती हूं।"

"उसे मल्लिका के घर जाने दो। फिर नलिनी तुम अरुणा के बारे में फिक्र मत करो। शंकर और उसके बीच मित्रता है। परंतु तुम सोच रही हो ऐसा नहीं। ऐसा सोचना बहुत पुराने समय का सोच है। वह पढ़ी-लिखी लड़कियां अरुणा जैसे जो हैं बड़ी होशियार है उन्हें बहुत सारी बातों में इंटरेस्ट होता है। मेरे समय और तुम्हारे समय में आदमियों का साथ एक जरूरत नहीं थी। बाहर के बातें अधिक इंपॉर्टेंट हो गया है। अब अमेरिका पढ़ने जाने के लिए वह कितनी उत्सुक है! वह अपने जिंदगी को सही ढंग से चलाएगी। तुम फिकर मत करो। तलाक का हो जाना उसके लिए कोई बहुत बड़ी बात नहीं, जिसकी वजह से सिर झुक गया ऐसा कुछ भी नहीं है। उसके लाइफ में कोई दिखावटी पन नहीं है इसका यही अर्थ है। बाद में वह अपने पसंद के लड़के से शादी कर लेगी। उस पर तुम भरोसा रखो।"

मुंह बंद करके सुन रही नलिनी के चेहरे पर शांति दिखी।

"आपका कहना ठीक है ऐसा मुझे सुबह से ही लग रहा है" वह बोली।

अरुणा के अमेरिका जाने की बात उसे सांत्वना दे रही है सोच कर सरोजिनी को थोड़ा दुख हुआ। शाम का अंधेरा होना शुरू हो गया।

"अभी तक भी नहीं लौटे?" कहते हुए अरुणा, मल्लिका और शंकर के घर से वापस आकर सरोजा के साथ बाहर के बरामदे में बैठ गई।

"दादी ने कुछ भी नहीं खाया" कहती हुई नलिनी आई।

कार्तिकेय और मुरुगन के आने में 7:30 बज गए।

बगीचे के नल पर दोनों ने हाथ पैर धोकर सरोजिनी के पास आए।

"इतनी देर क्यों?" नलिनी के प्रश्न का कार्तिकेय सरोजिनी को देखकर हल्का सा मुस्कुराते हुए बोले "उनका दोहिते ने इसी समय पेड़ से गिरकर अपना हाथ तोड़ लिया। दामाद उसे लेकर हॉस्पिटल चले गए। उनका दाह संस्कार करने के लिए कोई भी आदमी नहीं था। मैं कर दूंगा बोला।"

एकदम सकपका कर सरोजिनी ने उसे देखा। मन के अंदर कुछ प्रभाहित होता हुआ गले में आकर फंसा और आंखों में भर गया।

"मैंने जो किया वह सही है ना अम्मा?"

सरोजिनी ने उनके हाथों को पकड़ लिया।

"बहुत ही अच्छा काम किया।" बड़े प्यार से बोली।

अरुणा ने उसके कंधे को पकड़कर दबाया। उस दबाने में एक इशारा भी और आंतरिक प्रज्ञा भी दिखाई दी।

तुरंत सरोजिनी ने अपने मन की खिड़कियों के पट को जोर से बंद कर दिया।

समाप्त

  • मुख्य पृष्ठ : वासंती : तमिल कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
  • तमिल कहानियां और लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां