बकरी (नाटक) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
Bakri (Hindi Play) : Sarveshwar Dayal Saxena
इस नाटक के बारे में
यह नाटक इब्राहीम अल्काज़ी के साथ इस बातचीत के बाद लिखा गया था कि हिंदी में आम आदमी का समसामयिक नाटक नहीं है। इसके लिखे जाने पर उनके राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की नाट्य मंडली ने इसे दो दिन कुछ आमंत्रित लोगों के सामने खेला भी लेकिन किन्हीं अज्ञात कारणों से इसका विधिवत् प्रदर्शन नहीं किया गया। बाद में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ही एक छात्र रणजीत कपूर ने इसे लखनऊ में प्रस्तुत किया। जहाँ इसकी प्रस्तुति को राज्य की नाटक अकादेमी ने पुरस्कृत भी किया।
लिखे जाने और खेले जाने के दौरान नाटक के आलेख में रूप की दृष्टि से कुछ परिवर्तन हुए, कुछ और भी जुड़ा। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और लखनऊ की प्रस्तुति में वे जुड़े हुए अंश नहीं खेले गए। इसे संपूर्ण रूप में प्रस्तुत करने के लिए आलेख कविता नागपाल ने ले लिया और इसे जन नाट्य मंच द्वारा प्रस्तुत करने का बीड़ा उन्होंने उठाया। उसी समय संयोग से श्रीकान्त व्यास से भेंट हुई और उन्होंने इसे तुरंत छापने में उत्साह दिखाया। फलस्वरूप इसका प्रकाशन और प्रथम बार संपूर्ण मंचन साथ-साथ संपन्न हुआ।
नाटक में अनेक रूपगत परिवर्तनों और परिवर्द्धनों के लिए लेखक कुमारी ज्योति देशपांडे, भानु भारती और कविता नागपाल का कृतज्ञ है। जिस लगन और परिश्रम से ज्योति देशपांडे ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में इसका निर्देशन किया वह लगभग अदेखा ही रह गया, यह खेद की बात है ।
यह नाटक न लिखा जाता (1) यदि हिंदी में कोई ऐसा नाटक होता जिसमें जनचेतना को लोकभाषा और लोकरूपों के माध्यम से सामाजिक अन्याय के साथ जोड़ने का एक नया व्याकरण देखने को मिलता। (2) यदि हिंदी के तथाकथित श्रेष्ठ नाटक बड़े प्रेक्षागृहों, भारी तामझाम और विद्वत् प्रेक्षक समाज के मुहताज न होते। (3) यदि हिंदी के नाटककार यशः प्रार्थी न होकर आम आदमी की पीड़ा, आम आदमी की ज़बान में आम आदमी के बीच ले जाना हिंदी रंगमंच के लिए आज अनिवार्य मानते।
यह नाटक जितना ही गाँवों, कस्बों, मजदूर बस्तियों और स्कूलों-कालेजों में खेला जाएगा उतना ही इसका उद्देश्य पूरा होगा।
दूसरे संस्करण की भूमिका
'बकरी' के प्रथम संस्करण का छः महीने के अन्दर समाप्त हो जाना इस बात का सूचक है कि हमारे रंगजगत् का मन बदल रहा है। नाटक के प्रकाशन के साथ ही कई महीनों तक 'जन नाट्य मंच' इसे राजधानी के विभिन्न भागों में खेलता रहा। कोई पचीस प्रदर्शन इसके विश्वविद्यालय, कालेजों, कारखानों के मजदूरों के बीच, आधी रात चाँदनी चौक के चौराहे पर दुकानदारों के लिए हुए, जिनके बीच तब तक आज का नाटक नहीं पहुँचा था। चंडीगढ़ में इसके प्रदर्शन ने वहाँ के रंगजगत् में एक नई भूमिका अदा की। यह सिलसिला जोर पकड़ रहा था कि आपात्कालीन स्थिति लागू हो गई और इस नाटक का प्रदर्शन बन्द हो गया। पर सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन के रंगकर्मियों द्वारा यह खेला जाता रहा। ऐसा एक प्रदर्शन पटना के नौबतपुर प्रखंड के गाँव टेड़वा में 'राकेश' संस्था ने तृप्तिनारायण शर्मा के निर्देशन में किया, जहाँ यह पेट्रोमैक्स के सहारे खेला गया। कहते हैं पुलिस द्वारा पूछताछ किए जाने पर एक दूसरा ही आलेख 'बकरी' नाम से अधिकारियों को दे दिया गया जो बीस सूत्रीय कार्यक्रम से जुड़ा लगता था। यह जेल से बचने के लिए जरूरी था। आपात्काल की समाप्ति के बाद अब इस नाटक का खेला जाना फिर तेज़ी से शुरू हुआ है। नाट्य संसार, पटियाला, ने चंडीगढ़ में यदि ऐसी प्रस्तुति की जिसमें नट-नटी के नृत्यों का आधार क्लासिकी तथा पंजाबी लोक नृत्यों का था और गीतों में पंजाब की लोकधुनों का भरपूर उपयोग और इस तरह नौटंकी विन्यास से कटा हुआ तो ग्वालियर के रंगश्री (लिटिल बैले ट्रुप) की प्रस्तुति में गतियों का नियोजन दूसरी तरह था। यदि यह नाटक क्षेत्रीय नाट्य रूपों में ढलने की लचक रखता है और शास्त्रीय मनःस्थिति वालों को भी ग्राह्य हो सकता है तो निश्चय ही हिंदी के भावी नाटकों की परिधि के विस्तार का रास्ता दिखाता है।
तीसरे संस्करण की भूमिका
पिछले तीन वर्षों में 'बकरी' के तीन सौ से अधिक प्रदर्शन हो चुके हैं। सर्वाधिक प्रदर्शन 'इप्टा' बंबई ने एम. एस. सत्यु के निर्देशन में किए। वहाँ इसकी रजत जयंती मनायी गई। इतना ही नहीं, जहाँ यह नाटक हिंदी की बोलियों की ओर बढ़ा है यानी ब्रजभाषा, छत्तीसगढ़ी और कुमायूँनी में खेला गया है, वहाँ यह देश की प्रादेशिक भाषाओं में भी खेला जा रहा है। बंगलौर में कन्नड़ में इसकी प्रस्तुति प्रसन्ना ने की जहाँ भारी विवाद के बावजूद इसके प्रदर्शन हुए और हो रहे हैं। कन्नड़ में भी इसका निर्देशन एम. एस. सत्यु ने ही किया। उड़िया और गुजराती में भी यह नाटक खेला जा रहा है। मारिशस में इस नाटक के खेलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अनेक स्थानों पर नाटक खेले जाने के बाद दर्शकों और कलाकारों में मुठभेड़ का कारण बना है और जमकर वाद-विवाद हुआ है। कहीं-कहीं नाटक खेलने से रोका भी गया है और रंगकर्मियों ने डटकर उसका सामना किया है। और फिर और संगठित होकर इसे खेला है । पत्र-पत्रिकाओं में भी इसके प्रदर्शन को लेकर काफी विवाद हुआ है। ये तमाम घटनाएँ यह दिखाती हैं कि यह नाटक देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में और अधिक सार्थक हो उठा है और इस स्थिति से टकराने वाली और मुँह चुराने वाली ताकतों का और अधिक ध्रुवीकरण कराता है। गाँधीवाद का मुखौटा लगाकर आज भी सत्ता की राजनीति की जा रही है और देश की जनता को छला जा रहा है। लेखक चाहता है कि देश की राजनीतिक स्थिति सुधरे और यह नाटक अपने निहित व्यंग्यार्थ में शीघ्र से शीघ्र असंगत हो जाए।
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
* * * * *
नाटक के प्रकाशनोद्घाटन के अवसर पर 'जन नाट्य मंच' द्वारा 13 जुलाई 1974 को त्रिवेणी कला संगम, नई दिल्ली, की उद्यान रंगशाला में आयोजित प्रथम प्रस्तुति के पात्रों का भूमिका सहित परिचय :
नट : अनिल कुमार
नटी : कविता नागपाल
भिश्ती : अनिल कुमार
दुर्जनसिंह : पंकज कपूर
कर्मवीर : राकेश सक्सेना
सत्यवीर : मनीष मनौजा
सिपाही : सुभाष त्यागी
विपती : शैहला हाशमी / अतिया बख़्त
युवक : सफदर हाशमी
ग्रामीण जन
काका : अरुण शर्मा
काकी : अतिया बख़्त / शैहला हाशमी
चाचा : देवाशीष घोष
राम : ब्रिज सोनक
एक ग्रामीण : दीपकचन्द
दूसरा ग्रामीण : उम्मेदसिंह
* * * * *
निर्देशक : कविता नागपाल
संगीत : मोहन उपरेती
नृत्य संरचना : भगवतीचरण शर्मा
भूमिका दृश्य
(नट विद्रोही है। उसे मंगलाचरण पर यकीन नहीं। सारी मंडली मंगलाचरण गाना शुरू करती है। नट चुप रहता है। नटी के आँखें तरेरने पर वह गाता है पर उसे राजनीतिक संदर्भ से जोड़ देता है। गायन शैली नौटंकी ।)
नटी : (समवेत )
दोहा
सदा भवानी दाहिने सम्मुख रहें गणेश
पाँच दैव रक्षा करें, ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।
नट : पांच दैव सम पाँच दल, लगी ढोंग की रेस
जिनके कारण हो गया देश आज परदेस ।
नटी : (समवेत )
चौबोला
करूँ स्वाँग प्रारंभ आसरौ हमको मातु तुम्हारो
मझधारों के बीच भँवर में डौंगा पड़ौ हमारो ।
नट : अनल कंठ में भरौ, सकल कायरता जड़ता जारौ
जन मन संशय हरौ, दैन्य, दानव, दुर्दिन संहारौ ।
दौड़
मुक्ति की हो अभिलाषा, जगे समता की भाषा।
नटी : तुम्हारे पद सिर नाऊँ
अभिनव रूपनाट्य के तेरे चरनन फूल चढ़ाऊँ ।
बहरे तबील
नट : ऐसा नाटक तू हम से कराए है क्या,
जिसमें आती कहीं तुक नज़र ही नहीं।
रूप के सूप में बात उड़ जाए है
सत्य क्या है, है इसकी खबर ही नहीं ।
नटी : ( नाराज होकर ) सत्य ? क्या है सत्य ?
नट : नहीं जानती ? तब तो...
( व्यंग्य से देखता है और हाथ जोड़कर गाता है। साथ सभी गाते हैं, नटी को छोड़कर।)
वंदना
हे संकट मोचू
बना दे हमें घोंचू ।
अपना सिर नोचूँ न उनका मुँह नोचूँ ।
हे संकट मोचू....
किसकी रसोई में किसका कलेजा
कौन पकाए, कुछ भी न सोचूँ ।
हे संकट मोचू.....
हों जड़भरत हमारे श्रोता
दर्द न छलके जितना खरोचूँ ।
हे संकट मोचू....
नटी : वैसे ही नाटक खेलना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसा गीत गाकर क्या हमारी मंच से ही छुट्टी कराओगे ?
नट : नहीं भवानी, यह तो वंदना थी, मंगलाचरण। आम आदमी की हालत देखते हुए आम आदमी की ओर से।
नटी : (बात काटकर) आम आदमी को मारो गोली। ज़रा यहाँ के दर्शकों का भी तो खयाल करो। बड़े शहर के सभी पढ़े-लिखे समझदार लोग हैं। एक से एक अच्छे नाटक देखने के आदी । कुछ गठी हुई चीज़ पेश करनी चाहिए।
नट : गठी हुई चीज़ ? समझा नहीं। मतलब कहीं खरी सही बात दबा-छिपाकर कहने से ता ....
नटी : हाँ-हाँ, यही मतलब है। इनकी भाषा में इसके लिए वह क्या शब्द है ? कलात्मक... सुरुचिसंपन्न ।
नट : कलात्मक यानी डब्बे में डब्बा ?
नटी : (चिढ़कर) हाँ, डब्बे में डब्बा।
नट : (गाकर) डब्बे में डब्बा। उसमें मुरब्बा
फिर भी हैं चींटी, या मेरे अब्बा !
नटी : (झुंझलाकर) यह मज़ाक नहीं है। भला सच्ची बात कहे कौन मना करता है ? पर ज़रा जबान सँभाल कर, मुँहफट होकर नहीं, गँवारों की तरह ।
नट : फिर हम गँवारों के बीच जाते हैं- गँवई-गाँव में यहाँ नहीं होगा हम से नाटक ( जाने लगता है ।)
नटी : ( पकड़कर) क्यों शाम चौपट कर रहे हो ? इतने भलेमानस आए हैं, कुछ तो खयाल करो ।
नट : मुझसे नहीं होगा।
नटी : होगा, क्यों नहीं होगा?
नट : मुझे डर लगने लगा है।
नटी : किससे ?
नट : तुम्हारे दर्शकों से, तुमसे ।
नटी : मुझसे, दर्शकों से ?
नट : हाँ, तुम लोग लगता है सरकारी आदमी हो !
नटी : झूठ, मैं केवल नटी हूँ। दर्शक केवल दर्शक। वे अच्छा नाटक देखना चाहते हैं। हम अच्छा नाटक खेलना चाहते हैं। इसीलिए तुम्हें खींचकर लाई हूँ, बहुत कविता रचते थे, जब ज़रा मंच पर आओ।
नट : यानी नाटक का जो सजा-सजाया थाल चला आ रहा है उसमें थोड़ी चटनी रख दें बस ?
नटी : अरे बाबा फार्म... फार्म में थोड़ा बदलाव सभी बड़े नाटककार यह करते हैं।
नट : समझा, समझा। यह मुझसे नहीं होगा।
नटी : ( रूठती हुई) जा मेरी तेरी ना पटनी।
नट : कैसी बनाई चटनी ?
युगल गीत
जा मेरी तेरी ना पटनी
कैसी बनाई चटनी ।
गाल बजाया पेट बजाया
जब से हुई छँटनी ।
जा मेरी तेरी ना पटनी...
कैसी अमीरी कैसी गरीबी
प्यारी लगे नटनी ।
जा मेरी तेरी ना पटनी...
थोड़ी दिलासा बाकी निराशा
सारी उमर खटनी।
जा मेरी तेरी ना पटनी...
लोकतंत्र की ले के पतुरिया
भाग गई जटनी ।
जा मेरी तेरी ना पटनी...
हिंसा तेरी अहिंसा मेरी
रस्सी है बटनी।
जा मेरी तेरी ना पटनी...
(दोनों अलग-अलग और मिलकर भी गाते हैं। नटी गाने पर भाव दिखा नाचती है, नट गाते-गाते चुप हो जाता है ।)
नटी : चुप क्यों हो गए ?
नट : बात फिर वहीं चली जाती है, मुझसे नाटक नहीं बनेगा।
नटी : न सही, कुछ तो बनेगा। ( दर्शकों से) माफ कीजिएगा। बड़ा सिरफिरा आदमी है। इसका कोई ठीक नहीं। सीधे चल देगा। अब आप सब आ ही गए हैं। जैसा भी हो, जो भी हो, देखकर जाइए। हमने तो सोचा था कवि है तो नाटक भी लिख लेगा।
नट : क्या समझावन बुझावन हो रहा है ?
नटी : कुछ नहीं। दर्शकों को मजा आ रहा है। शुरू करो।
नट : तुम इतनी मटक रही हो तो क्यों नहीं मज़ा आएगा ?
नटी : हाँ, इसी से तो बाक्स आफिस बनता है, शुरू करो।
नट : अच्छी बात है। तो एक मशक ला दो ।
नटी : मशक ?
नट : हाँ।
नटी : (हैरत से) मशक ?
नट : ( चिढ़कर) हाँ, मशक मरी हुई बकरी की खाल जिसमें पानी भरकर...
नटी : हाँ समझ गई, समझ गई।
(नट का मुँह देखती धीरे-धीरे प्रस्थान करती है।)
पहला अंक : पहला दृश्य
(एक भिश्ती मशक लादे सड़क सींचता गा रहा है ।)
बकरी को क्या पता था
मशक बन के रहेगी,
पानी भरेंगे लोग
औ' वह कुछ न कहेगी,
जा जा के सींच आएगी
हर एक की क्यारी,
मर कर के भी बुझाएगी
वह प्यास तुम्हारी ।
(मंच के कोने में खड़े तीन डाकू जैसे दीखने वाले खूंख्वार आदमी उसका गाना ध्यान से सुनते और कुछ सोचते हैं। भिश्ती के प्रस्थान करते ही वे एक-दूसरे के कान में कुछ कहते हैं और गाने लगते हैं ।)
मुझे मिल गई मिल गई
मिल गई रे
मुझे मिल गई मिल गई
मिल गई रे
मिल गई मिल गई
मिल गई रे
मुझे मिल गई मिल गई
मिल गई रे ।
( एक सिपाही का प्रवेश ।)
सिपाही : क्या मिल गया ठाकुर ?
(तीनों मगन होकर गाते रहते हैं ।)
सिपाही : (हैरत से) ऐसा क्या मिल गया भाई, हम भी जानें।
(तीनों गाने में मगन हैं ।)
सिपाही : क्या हूर की परी मिल गई ?
तीनों : नहीं।
( फिर गाते हैं ।)
सिपाही : बड़ा माल हाथ लग गया ?
तीनों : नहीं।
(फिर गाते हैं ।)
सिपाही : राजा, नवाब, सेठ साहूकर फँस गया ?
तीनों : नहीं।
( फिर गाते हैं ।)
सिपाही : सोना चाँदी की खान मिल गई ।
तीनों : सोना भी मिल गया
चाँदी भी मिल गई
राजा भी मिल गया
बाँदी भी मिल गई।
मिल गई मिल गई
मिल गई रे
मुझे मिल गई मिल गई
मिल गई रे ।
सिपाही : ताज्जुब है ! अरे कोई नया डाका डाला है ?
दुर्जनसिंह : होश में बात करो दीवान जी, अब हम डाकू नहीं, शरीफ आदमी हैं।
तीनों : और क्या !
सिपाही : शरीफ आदमी (रोने लगता है) हाय अब मेरा क्या होगा ? मेरा क्या होगा, दुर्जनसिंह ।
(तीनों फिर गाने लगते हैं ।)
तीनों : कुर्सी भी मिल गई
सेवा भी मिल गई
माधव भी मिल गए
मेवा भी मिल गई
मिल गई मिल गई।
मिल गई रे
मुझे मिल गई मिल गई
मिल गई रे ।
सिपाही : (रोता रहता है) मेरा क्या होगा ? हाय मेरा क्या होगा दुर्जनसिंह ?
दुर्जन : वही जो हमारा होगा।
सिपाही : यानी ?
दुर्जन : मज़े । ( मूँछों पर ताव देता है) मज़े, खूब मज़े !
सिपाही : मज़े ?
दुर्जन : हाँ मज़े ।
सुबह ओ शाम बोलेगा
मज़ा तुम से ये मिमिया कर
हमारी गली से दीवान जी
जाना न तुम आकर ।
है ऐसा क्या मेरी सोहबत में
जो तुम पा नहीं सकते
छुड़ाकर हाथ दामन से
हमारे जा नहीं सकते।
सिपाही : (रिरियाकर) साफ-साफ बताओ दुर्जनसिंह । मेरी कुछ समझ में नहीं आता।
दुर्जन : ये समझने की न बातें हैं न समझाने की
उट्टो आवाज़ सुनो बकरी के मिमियाने की।
उसकी आवाज़ के जादू को ज़रा पहचानो
सिर झुकाओ, चलो मिट्टी को भी सोना मानो ।
तीनों : मुझे मिल गई मिल गई
मिल गई रे
मुझे मिल गई मिल गई
मिल गई रे ।
सिपाही : ( रूठकर बैठ जाता है) जाओ।
दुर्जन : दीवान जी इस तरह मत बैठो। तुम भी हमारे साथ नाचो गाओ।
सिपाही : मैं समझ गया अब तुम लोग हमें अपना नहीं मानते ।
दुर्जन : यह कैसे हो सकता है दीवान जी। तुम तब भी हमारे थे अब भी हमारे हो।
तेरी किरपा के बिना, हे प्रभु मंगलमूल,
पत्ता तक हिलता नहीं, फँसे न कोई फूल।
सिपाही : बातें मत बनाओ। साफ-साफ बताओ क्या मिल गई ?
दुर्जन : (दोनों साथियों से) बता दें ?
कर्मवीर : बता दो।
दुर्जन : सच बता दें ?
सत्यवीर : बता दे, दीवान जी अपने ही आदमी हैं।
दुर्जन : तो सुनो दीवान जी ।
सिपाही : हाँ।
दुर्जन : बहुत सुंदर, बहुत नेक, बहुत अच्छी (रुककर ) एक तरकीब मिल गई।
दोनों : नायाब तरकीब ।
सिपाही : (फिर रोने लगता है) हाय ! उससे क्या होगा। इससे तो लूटपाट करते थे वही भला था।
तीनों : उसी से सब कुछ होगा दीवान जी ।
दुर्जन : हम मालामाल होंगे।
सत्यवीर : हमारी इज्जत होगी।
कर्मवीर : जनता हमारे इशारा पर चलेगी।
सिपाही : ( उछलकर) मालामाल होंगे !
तीनों : शर्तिया मालामाल होंगे !
सिपाही : तब बताओ तरकीब ।
दुर्जन : पहले एक बकरी ले आओ।
सिपाही : बकरी ?
दुर्जन : हाँ, हाँ बकरी ।
सिपाही : पर...
दुर्जन : जो भी, जहाँ भी, जैसी भी मिले।
(सिपाही का प्रस्थान । भिश्ती का फिर मशक लिये पानी छिड़कते गाते प्रवेश ।)
भिश्ती : बकरी को क्या पता था मशक बन के रहेगी,
जन्नत वो बख्श करके भी खुद नर्क रहेगी।
चुटकी में दूसरों के उसका आब रहेगा,
कल खून बहाया था आज पानी बहेगा।
(भिश्ती का गाते हुए प्रस्थान । दूसरी ओर से सिपाही का बकरी लिये प्रवेश ।)
दुर्जन : शाबाश! यह हुई न बात अब बताइए दीवान जी यह क्या है ?
सिपाही : बकरी ।
दुर्जन : किसकी बकरी ?
सिपाही : गाँव के हरिजन की ।
दुर्जन : नहीं, बिलकुल गलत ।
सिपाही : फिर ?
दुर्जन : यह गाँधी जी की बकरी है।
सिपाही : गाँधी जी की ?
दुर्जन : हाँ, हाँ महात्मा गाँधी की, मोहनदास कर्मचन्द गाँधी । अच्छा बताओ यह क्या देती है ?
सिपाही : दूध ।
दुर्जन : नहीं। कुर्सी, धन और प्रतिष्ठा । (कुछ रुककर) अच्छा बताओ, यह क्या खाती है ?
सिपाही : घास ।
दुर्जन : नहीं, बुद्धि, बहादुरी और विवेक । यह गाँधी जी की बकरी है।
दोनों : (नाचते गाते हैं)
उह करी न अह करी
गाँधी जी की बकरी,
हर किला फतह करी
गाँधी जी की बकरी,
शत्रु को जिबह करी
गाँधी जी की बकरी ।
दुर्जन : दीवान जी ऐलान कर दो, हमें गाँधी जी की बकरी मिल गई है। लोग दर्शन करने आएँ, पर खाली हाथ नहीं ।
दोनों : साथ में कुछ लाएँ, धन-दौलत, रुपया-पैसा ।
सिपाही : पर लोग मानेंगे कैसे कि यह गाँधी जी की बकरी है ?
दोनों : हम मानेंगे तो लोग भी मानेंगे। अपना मन चंगा, कठौती में गंगा ।
दुर्जन : यूँ समझो दीवान जी कि इस बकरी की माँ की माँ की माँ की ....
दोनों : माँ की माँ की माँ की माँ की माँ की माँ की माँ की...
दुर्जन : माँ, गाँधी जी के पास थी ।
सिपाही : ( उछलकर) समझ गया। जब कुत्तों का खानदान होता है तो बकरी का क्यों नहीं हो सकता ?
दुर्जन : यह हुई न समझदारी की बात। दीवान जी, यह गाँधी जी की बकरी है। इसकी हम प्रतिष्ठा करेंगे।
(तीनों मिलकर एक मंडप बनाते हैं। सामान दीवान जी लाते हैं। बकरी के गले में फूलमालाएँ पहनाते हैं और उसे मंडप में प्रतिष्ठित करते हैं। मंडप पर एक साइनबोर्ड लगा देते हैं। 'लोक सेवा सदन'। साथ गाते जाते हैं ।)
गायन
सोने की छत हो, चाँदी के खम्बे
जय जगदम्बे, जय जगदम्बे ।
सोओ प्रभुजी, तान के लम्बे
जय जगदम्बे, जय जगदम्बे ।
चाहे हो दिल्ली, चाहे हो बम्बे
जय जगदम्बे, जय जगदम्बे ।
दुर्जन : दीवान जी ! अब हम जाते हैं। आप बकरी के पास किसी को फटकने न दो। कोई पूछे बोलो, यह गाँधी जी की बकरी है। हर सवाल का हल इसके पास है।
दोनों : पर जो खाली हाथ आए ?
दुर्जन : वह वापस जाए।
(तीनों जाते हैं। सिपाही अकेला रह जाता है। डंडा उठाकर गाता है ।)
डंडा गीत
डंडा ऊँचा रहे हमारा
सबसे प्यारा सबसे न्यारा
डंडा ऊँचा रहे हमारा।
सुख सुविधा सरसाने वाला
शक्ति सुधा बरसाने वाला
प्रभुता सत्ता का रखवारा।
डंडा ऊँचा रहे हमारा।
इस डंडे को लेकर निर्दय
हो स्वतंत्र हम विचरें निर्भय
बोलो शक्ति प्रदाता की जय ।
दीन दुःखी का ताड़नहारा ।
डंडा ऊँचा रहे हमारा।
( एक गरीब औरत का प्रवेश ।)
औरत : उर्र, उर्र, उर्र! अरे मिल गई मिल गई हुजूर ई बकरी हमार है । इहाँ कौन बाँध लावा ?
सिपाही : बकवास बंद करो। यह गाँधी जी की बकरी है।
औरत : नाहीं, हुजूर, हम पाला पोसा है। ई हमार है।
सिपाही : तेरा दिमाग फिर गया है ? तू इसको मामूली बकरी समझती है ? यह गाँधी महात्मा की बकरी है। यहाँ से दफा हो, वरना इस बकरी को बिना खाना-पीना दिए कमजोर कर मार डालने की साजिश पर भारत सुरक्षा कानून के अन्दर तू हवालात की हवा खाएगी। इस बकरी की जो हालत तूने कर रखी है वह कितना बड़ा जुर्म है; जानती है तू ?
औरत : पर हुजूर, अभी तो हमरे घर पर रही। हम खिलाय - पिलाय के ....
सिपाही : क्या खिलाया इसको ?
औरत : आज ? आज पीपल का पत्ता छोटा लरिका....
सिपाही : (कड़ककर ) पीपल का पत्ता ? गाँधी जी की बकरी पीपल का पत्ता खाती थी ? फल खाती थी फल ! यह देख क्या देख रही है।
(कुछ केले के छिलके उठाकर दिखाता है ।)
औरत : (घबराकर काँपने लगती है) पर हुजूर...
सिपाही : जानती है यह कितने की बकरी है ?
औरत : जमींदार साहब बीस रुपिया देत रहेन, हम नाहीं दिया, हम को, बच्चों को, जान से पियारी है। हम गरीब आदमी हैं, दुइ बखत दूध....
सिपाही : (कड़ककर ) बीस रुपये ? यह पचपन करोड़ की बकरी है। भाग जा यहाँ से, नेता लोग आ रहे हैं।
(तीनों नेताओं की पोशाक पहने, टोपी लगाए आते हैं। औरत को देखकर चारों एक पंक्ति में खड़े होकर गाने लगते हैं।)
पूजा गीत
तन मन धन उन्नायक जय हे
जय जय बकरी माता !
अन्याय अहिंसा दंभ क्रूरता
भुला, करे मन चंगा,
ए बी सी डी ई एफ जी एच
क ख ग घ अंगा।
दुर्जन सज्जन आएँ ।
सब तेरे गुन गाएँ
हे त्राता सुख दाता ।
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे !
दुर्जन : भाइयो, यह हमारा सौभाग्य है कि हमें गाँधी जी की बकरी मिल गई। कुछ मिलना कुछ खोना भी होता है। हम जितना खोने को तैयार रहते हैं उससे पता चलता है कि हम कितना पाना चाहते हैं। इस बकरी ने हमेशा दिया है। आपको आजादी दी, एकता दी, प्रेम दिया। आज भी बहुत कुछ देने को मुंतजिर है। पर आप लेना भूल गए हैं। क्योंकि आप देना भूल गए हैं।
कर्मवीर : जितना आप इसे देंगे उतना ही यह आपको देगी। ऐसा कुछ भी नहीं है जो इसके पास न हो लेकिन जब सवाल मर चुके हों तो जवाब कहाँ से मिलेगा। पेट भी वही बजा सकता है जिसकी आत्मा में जान हो।
सत्यवीर : जिसकी आत्मा कमजोर हो, जिसे लालच, स्वार्थ ने घेर रखा हो, वह इस बकरी से क्या पाएगा? भगवान के पास खाली हाथ न जाने का मतलब यही है जो फूल लेकर जाता है वह स्वर्ग लेकर लौटता है। इसीलिए श्रद्धा देना जानती है। आप इस बकरी को जितना दें उतना कम है।
तीनों : गाँधी जी की बकरी की जय!
सिपाही : (औरत से) बोलती क्यों नहीं ?
तीनों : गाँधी जी की बकरी की जय !
औरत : (सिसकते हुए) जय ।
दुर्जन : यह बकरी सबकी है। इसलिए किसी की नहीं है। इससे मोह का मतलब अपने प्रति निर्ममता है। ऐसे लोगों की दुनिया में कमी नहीं जो कहेंगे यह बकरी उनकी है पर इतिहास को झुठलाया नहीं जा सकता।
कर्मवीर : जो इतिहास को झुठलाता है वह समाजद्रोही है, देशद्रोही है। समय उसे कभी माफ नहीं करेगा। यह युग झूठे दावों का युग नहीं है। अधिकारों का दावा करने के पहले देखना होगा कि आपके कर्त्तव्यों की बुनियाद क्या है।
तीनों : गाँधी जी की बकरी की जय !
औरत : पर हुजूर ई बकरी हमार है। हम गरीब आदमी हैं, आप किसी और बकरी को गाँधी जी की बकरी बनाय लें। हमारे बच्चे एही के दूध से रूखी रोटी खात हैं। एही के सहारे हम जीय रहे हैं।
दुर्जन : ए औरत, तू कौन है ?
औरत : हम आपकी परजा हैं सरकार।
दुर्जन : परजा नहीं, लोकतंत्र में जनता जर्नादन कहो, जनता। क्या चाहती है तू ?
औरत : हम अपनी बकरी चाहत हैं हुजूर। ई बकरी हमार है।
दुर्जन : सत्यवीर, इसे सत्य का मार्ग दिखलाओ।
औरत : ई सच है सरकार। हमरे ही घर ई पैदा भई, हम ही एहका पाला-पोसा, रात-दिन साथ रही। बच्चों के साथ सोई, खेली, बड़ी हुई।
सत्यवीर : औरत, कबीरदास कह गए हैं 'ई जग अंधा मैं केहि समझाऊँ' ! बोल तूने इससे क्या सीखा ?
औरत : हम अनपढ़ और गरीब हैं हुजूर, क्या सीखें ?
सत्यवीर : इस बकरी ने तुझसे यह नहीं कहा कि पढ़-लिख, अपने पैरों पर खड़ा होना सीख। किसी का मुँह न देख अपने बच्चों को भी इस लायक बना कि वे अपने हाथ से कमा सकें। कम से कम में घर चला। फालतू खर्च मत कर दूसरों की सेवा कर सच बोल त्याग कर सबको अपना समझ....
औरत : नाहीं हुजूर ।
सत्यवीर : फिर यह तेरी बकरी कैसे हुई ? जब इसने तुझसे कुछ कहा ही नहीं, फिर तेरी कैसे हुई।
औरत : हुजूर हम एह की दुई एक बात समझत हैं। हम जानत हैं, हुजूर कि ई कब खूंटे से खुलना चाहे, कब दूब चरना चाहे, कब पीपल के पत्ते खाना चाहे, कब जामुन के ।
सत्यवीर : इसीलिए कह रही है तू कि यह तेरी बकरी है ? पेट से ज्यादा तूने कुछ पहचाना ही नहीं जा चली जा यहाँ से! तू इस लायक नहीं कि गाँधी जी की बकरी पाल सके। यह बकरी तेरे यहाँ रही जरूर पर यह न तेरी कभी हो सकी, न होगी।
सिपाही : हुजूर, भारतीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत....
औरत : हम अपनी बकरी ले के जाएँगे।
सिपाही : औरत होश में बात कर।
औरत : होश में न का बेहोश हुई? ई बकरी हमार है !
सिपाही : इसकी है, भाग यहाँ से।
(धकेलकर खींचता है, औरत अपने को छुड़ाती है, हाथ जोड़कर घिघियाती है।)
औरत : आप बड़े लोग हैं हुजूर। आपको एक नहीं हजार बकरी मिल जाएँगी। हम गरीब का सहारा न छीनो ।
सत्यवीर : गरीबी (हँसता है) इस बकरी ने तुझे नहीं बताया कि गरीबी केवल मन की होती है, गरीबी केवल विचारों की होती है, दृष्टि की होती है। जानती है औरत, गाँधी जी केवल छः पैसे में गुजर करते थे।
औरत : हम नाहीं जानित हुजूर ।
कर्मवीर : क्यों नहीं जानती ? यदि यह नहीं जानती तो आजाद देश में रहने का हक तुझे क्या है ?
औरत : हम देश में नहीं रहित हुजूर, गाँव में रहित है ।
सत्यवीर : लेकिन यह बकरी सारे देश की है।
औरत : नाहीं हुजूर । गाँव में सब एहका पहचानत हैं, गाँव की है।
सत्यवीर : औरत, बहस मत कर।
औरत : हम बहस के लायक नाहीं हुजूर हमरी बकरी मिल जाए, हम चले जाएँगे।
सिपाही : हुक्म हो तो इसे भारत सुरक्षा कानून, निवारक नजरबंदी कानून, अपराध संहिता की बकरी धारा के अधीन ...
दुर्जन : औरत यह बकरी तुझे नहीं मिलेगी। यह तेरी नहीं है।
औरत : हुजूर एहका छोड़ दें, हमरे पीछे-पीछे न लग जाए तो जौन सजा चोर की ऊ हमरी आपके पीछे नाहीं जाएगी हुजूर, हमरे पीछे जाएगी।
दुर्जन : गाँधी जी की बकरी तेरे पीछे जाएगी ? गँवार के !
औरत : हाँ हुजूर। बड़ी मोहब्बती है। गाँव में सबका चीन्हती है। सबके पीछे लग जाती है। सिवान के बाहर कबहू नहीं जाती।
दुर्जन : बुलाओ गाँव वालों को।
औरत : अबहिने लाइत है।
( औरत का प्रस्थान ।)
दुर्जन : दीवान जी यह औरत तो बड़ी डामिस निकली।
सिपाही : तुम नाहक बहस कर रहे हो दुर्जनसिंह, अभी इसको धारा....
दुर्जन : नहीं दीवान जी, इतनी जल्दी नहीं करनी है। लोगों को मालूम होना चाहिए कि हम न्याय करते हैं। हम उनके हैं, उनके लिए हैं।
कर्मवीर : लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए जनता के द्वारा....
दुर्जन : कर्मवीर, अब उस औरत को ठीक करने का काम तुम्हारा है। सब कुछ कानून और नियमों से होना चाहिए। (औरत के साथ चार-छः ग्रामवासियों का प्रवेश। सभी अनपढ़, नंगे हैं ।)
दुर्जन : सिपाही !
सिपाही : अब सब लोग लाइन में खड़े हो जाइए। चुपचाप। हिलिए डुलिए नहीं ।
(चारों आँख मींच कर गाते हैं।
गायन
तन मन धन उन्नायक जय हे
जय जय बकरी माता !
अन्याय अहिंसा दंभ क्रूरता
भुला, करै मन चंगा
ए बी सी डी ई एफ जी एच
क ख ग घ अंगा !
दुर्जन सज्जन आएँ
सब तेरे गुन गाएँ
हे त्राता सुखदाता।
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय हे !
दुर्जन : प्यारे भाइयो, आपने गाँधी महात्मा का नाम सुना है। हाथ उठाकर बोलिए, हाँ सुना है।
ग्रामीण : हाँ सुना है।
दुर्जन : पच्चीस साल से इस बकरी की खोज हो रही थी। सरकार का खुफिया विभाग, पुलिस, पलटन सब इसे खोज रहे थे। आखिरकार यह बकरी आपके गाँव में मिली है। यह गाँधी जी की बकरी है। गाँधी महात्मा की बकरी है जिन्होंने आपको इस लाइक बनाया कि आप आज इस तरह शान से खड़े हैं। आपको आज़ादी दिलाई। सब लोग प्रेम से बोलिए 'गाँधी महात्मा की जय !'
ग्रामीण : गाँधी महात्मा की जय ।
दुर्जन : आप लोग समझदार हैं। गाँधी जी और उनकी बकरी की महिमा जानते हैं। आप जानते हैं कि देवता का मान कैसे करना चाहिए। गाँधी जी देवता थे। उनकी बकरी किसी देवी से कम नहीं। अब आप बताइए देवी का मान होना चाहिए या नहीं ?
ग्रामीण : (आपस में) जरूर होना चाहिए।
दुर्जन : यदि उसका मान नहीं हुआ तो क्या गाँव वालों को शांति मिलेगी ? दिल पर हाथ रखकर, भगवान का नाम लेकर बताइए, क्या शांति मिलेगी ?
ग्रामीण : (समवेत ) नहीं, कभी नहीं मिलेगी।
दुर्जन : अब आप ही बताइए यह बकरी हम इस औरत को कैसे दे दें ? यह कहती है कि यह बकरी हमारी है। हम भी कहते हैं कि यह बकरी तुम्हारी है....
औरत : (बात काटकर) हुजूर बना रहें।
दुर्जन : ...और तुम्हारे साथ-साथ सारे देश की है। इस बकरी में आज भी बड़े-बड़े गुण हैं। यद्यपि इस औरत की लापरवाही से, खाना-पीना ठीक न मिलने से, मैं तो कहूँगा कि आप सबके ठीक देखभाल न करने से, यह काफी कमज़ोर हो गई है। अब यह हमारी देख-रेख में रहेगी, पुलिस और पलटन की देख-रेख में रहेगी। इस बकरी में दैवी शक्ति है जिसे पहचानने की ज़रूरत । है आपका हर दुख, हर तकलीफ यह हल कर सकती है।
एक ग्रामीण : हुजूर गाँव में सूखा पड़ा है।
दुर्जन : हाँ, उसे भी। इस बकरी के बताए रास्ते पर चलो, खेत लहलहाने लगेंगे।
दूसरा ग्रामीण : साहब पानी एक बूँद नहीं, कहीं नहीं।
दुर्जन : पानी जमीन फोड़कर अपने आप निकलेगा ।
तीसरा ग्रामीण : मालिक, महामारी फैल रही है। आदमी, मवेशी पटापट मर रहे हैं।
दुर्जन : यह इसलिए कि इस पर जुल्म हुआ है।
चौथा ग्रामीण : सरकार कुआँ सूख गया, पीने का पानी चार मील से लाते हैं।
दुर्जन : यदि यह बकरी इस औरत के पास रही तो कुआं क्या सब सूख जाएगा, आग बरसेगी, आग !
औरत : (रुआँसी होकर ) यह झूठ है।
दुर्जन : अब आप फैसला करें, आप लोग कहें तो बकरी इस औरत को दे दें। फिर तबाही के ज़िम्मेदार हम नहीं। बोलिए, आप क्या कहते हैं ? बकरी शान से यहाँ सेवाश्रम में रहे या इस औरत के पास ?
एक ग्रामीण : (हाथ जोड़कर) आसरम में राखें ।
सभी ग्रामीण : आसरम में राखें ।
कर्मवीर : (जज की विग लगाकर) सिपाही, सार्वजनिक संपत्ति हड़पने के आरोप में इस औरत को दफा एक्स क्यू ज़ीरो के अधीन दो साल सख्त कैद की सजा दी जाती है। साथ ही पाँच सौ रुपया जुर्माना । न देने पर छः महीने की कैद बामशक्कत ।
(सिपाही औरत को हथकड़ी लगाकर ले जाता है। औरत 'ई अनियाय है; जुलुम है, बकरी हमार है, तुम सबै हमार दुश्मन हो, चिल्लाती है। उसकी आवाज गाँधी जी की जयजयकार में डूब जाती है ।)
दुर्जन : प्यारे भाइयो! हमें आपकी समझदारी पर भरोसा था। अब आप यहाँ से खाली हाथ कोई न जाएँ। यहाँ से अब खाली हाथ कोई नहीं जाएगा। आपको जो मानता माँगना हो माँगें, आपकी मनोकामना पूरी होगी। जो कुछ आपके पास है इस पर निछावर कर दें, जो कुछ है इस पर चढ़ा कर जाएँ, सच्चे मन से आपके संकट टल जाएँगे।
(ग्रामीण एक-एक करके बकरी को दंडवत् करते हैं और कंठा-माला चढ़ाते हैं ।)
कर्मवीर : (कड़ककर ) इस बकरी को इन फटे चीथड़ों की दरकार नहीं । अब समझा तुम लोगों की यह हालत क्यों है। तुम लोग तहस-नहस हो जाओगे। जाओ, निकल जाओ यहाँ से।
(सभी ग्रामीण काँपने लगते हैं ।)
सत्यवीर : क्या मति मारी गई है तुम्हारी ? कुछ रुपया-पैसा, सोना-चाँदी चढ़ाओ।
एक ग्रामीण : हम पचन के पास कछू नहीं सरकार, सिवाय एक बिगहा जमीन के ।
सत्यवीर : यहाँ किसके पास कुछ है? तुम लोग बकरी स्मारक निधि बनाओ। तुमसे नहीं होता, हम बनाएँगे। उसमें दान दो। जैसे भी हो, जितना भी हो। जो दान कष्ट उठाकर नहीं दिया जाता वह नहीं फलता ।
कर्मवीर : इस पर सब मिलकर राय करो। निधि में काफी पैसा होना चाहिए। तुम्हारे कल्याण के लिए 'बकरी शांति प्रतिष्ठान', 'बकरी संस्थान', 'बकरी सेवा संघ', 'बकरी मंडल' बहुत-सी संस्थाएँ बनानी हैं। तभी कुछ होगा।
एक ग्रामीण : लेकिन सूखा ...?
दुर्जन : वह चिंता तुम्हारी नहीं। तुम अपना कर्तव्य करो। बकरी अपना करेगी।
(सभी ग्रामीण मुँह लटकाकर चले जाते हैं। दुर्जनसिंह, कर्मवीर, सत्यवीर सबका प्रस्थान ।)
(दृश्यलोप)
नट गायन
दौलत की है दरकार ए सरकार आपको;
सबको उजाड़ चाहिए घरबार आपको,
मक्कारी, ढोंग, छल, फरेब आप बाँटिए
बदले में मगर चाहिए एतबार आपको,
आदत जो पड़ गई है वो अब छूटती नहीं
कोई शिकार चाहिए हर बार आपको ।
(नटी का नाचते गाते प्रवेश ।)
नटी : जाल लेकर खड़े होना
न तुम पानी में,
डाल देगी यहाँ हर शय
तुझे हैरानी में ।
नट : हम तो मछली के संग।
घड़ियाल बाँध लाएँगे,
जोश होता है कुछ ऐसा
भरी जवानी में।
पहला अंक : दूसरा दृश्य
(चौपाल का दृश्य, शाम का समय, कुछ ग्रामीण चिंतामग्न बैठे हैं। एक युवक का प्रवेश ।)
युवक : (व्यंग्य से) किसका मुर्दा फूँककर बैठे हो ?
एक ग्रामीण : विपती को जेहल ले गए।
दूसरा : बकरियो छीन लीन्ही, जेहलो भेज दीन्ही ।
युवक : और आप आशीर्वाद लीन्ही । आपने उन्हें बकरी क्यों दी?
तीसरा : कहिन गाँधी बाबा की है, तो हम काव करित ?
युवक : उन्होंने कहा और आपने मान लिया। काकी तुम भी चुप रहीं ?
ग्रामीण औरत : मरदन के बीच हम काव बोलित ?
युवक : ठीक है कल को आप लोगों को भी जेहल ले जाएँगे। आज बकरी गाँधी जी की हुई, कल को गाय कृष्ण जी की हो जाएगी, बैल बलराम जी के हो जाएँगे। ये सब ठग हैं ठग.....
एक ग्रामीण : ऊ हम जानित हैं....
युवक : फिर चुप क्यों रहे? कहा क्यों नहीं कि बकरी विपती की है उसे दे दी जाए। विपती हथकड़ी पहने रोती-चिल्लाती जा रही थी। रास्ते में मैंने....
दूसरा ग्रामीण : अरे भगवान के नाव ले लिहिन तो काय करित ? कहिन, बकरी नाय है, देवी है। देवी का मान होवे के चाही, अब हम का कहित देवी के मान न होय ?
युवक : हमारा ही जूता हमारे ही सिर ?
एक ग्रामीण : अरे, अब कौन प्रपंच करै, ऊ कहिन देवी है हम मान लिहा ।
युवक : प्रपंच उन्होंने किया या आपने ?
दूसरा ग्रामीण : उनका प्रपंच ऊ जानैं, भगवान जानैं। भगवान उनका देखि हैं।
युवक : भगवान, भगवान बस उसी की वजह से यह हालत है हमारी।
औरत : अब भगवान के न गरिआओ....
युवक : फिर किसे गरिआएँ ?
औरत : अपने भाग के, जब उहै आपन नहि....
युवक : कैसे मालूम अपना नहीं।
औरत : आपन होत तो देखते-देखते बकरियो लै लेतैं और विपती के जेहलो भेज देतें ?
युवक : इसमें भाग्य कहाँ से आता है। आपने दे दिया, उन्होंने ले लिया।
एक ग्रामीण : हम कौन होत हैं देन वाले ?
युवक : फिर किसने दिया ?
दूसरा ग्रामीण : ऊ कहिन देवी का आसरम मा राखें । हम कहा राखौ। एह मा हमार काय कसूर?
एक ग्रामीण : ऊह कहिन आसरम मा न रही तो अउर सूखा पड़ी, अउर आग बरसी।
औरत : महामारियो के डरवाइन।
युवक : और आप डर गए ?
एक ग्रामीण : (उत्तेजित होकर) अब डरवाइन तो काव करी ?
युवक : यह नहीं समझ में आया कि वो झूठ बोल रहे हैं ?
दूसरा ग्रामीण : (उत्तेजित होकर) समझेन, मुला झूठ ऊ बोलिन, हम तो नाहीं बोला ।
युवक : बाबा आप नहीं बोले सो ठीक, पर झूठ बोलने वाले से झूठ सहने वाला ज्यादा बड़ा पापी होता है ।
एक ग्रामीण : (डाँटकर) चुप रहो। चार कितवचियन के बीच बैठते हो, कानून बूकै लाग्यौ । पाप पुण्य तोहंसे ढेर हम जानित है। उनके झूठ उनके साथ जाई । हमार सच हमारे साथ हम पचन बच्चा नहि न, जौन सिखाए चले हो ।
युवक : हम तो सही बात कहते हैं काका, सिखाते नहीं।
दूसरा ग्रामीण : क्या सही है?
युवक : यही कि बकरी बकरी है, देवी नहीं। आसरम जाल है। ई सब चोर हैं, डाकू ।
एक ग्रामीण : ए बचवा, इहाँ चोर डाकू के नहि न ? चोर डाकू कै फैसला भगवान के हाथ होई। हमारे तोहारे हाथ नाहीं ।
युवक : काका, अब क्या कहैं। उन्होंने हमें उल्लू बनाया है ।
..........
.............
की काहे जड़ काटत हो। हम पचन की तो भली-बुरी निभ गई। दुई दिन और सही । हाँ तुम्हारा मन न परै न जाओ। आसरम में आग लगाना ठीक नाहीं बेटा। आग लगाने को बहुत दुनिया परी है, क्यों भैया ?
(सभी ग्रामीण सिर हिलाते हैं ।)
युवक : बाबा, हम समझ नहीं पा रहे हैं, ई सब ठग हैं, आप सबको सीधे आदमी जान ठगी करते हैं, देश में ई ठगी बहुत चल रही है। सूखा, महामारी, अन्न-जल की तबाही सब इन्हीं लोगों की बजह से है।
दूसरा ग्रामीण : ई लोग का भगवानौ से बड़े हैं ?
युवक : हाँ, तबाही में भगवान से भी बड़े हैं।
एक ग्रामीण : तो इनहू के पूजो भैया, जल मा रहि के मगर से बैर ?
युवक : हाँ पूजो, पर जूते से ।
दूसरा ग्रामीण : ई गरम खून है बचवा जो चहकाय रहा है। जो बड़ा बन के आया वह बड़ा बनके रहेगा।
युवक : कोई छोटा-बड़ा बन के नहीं आया। सब बराबर बन के आए।
एक ग्रामीण : ए बेटा, एक ही खेत में न सब धान एक-सा होत है, न एक बाली में सब दाना एक-सा ।
युवक : लेकिन धान के खेत में सब धान ही होता है।
दूसरा ग्रामीण : खरपतवार भी होत है बेटा।
युवक : (तमतमाकर) हम खरपतवार नहीं हैं। हम भी इनसान हैं।
एक ग्रामीण : एह का कौन मना करता है ?
युवक : जो उनको बड़ा कहता है।
दूसरा ग्रामीण : बरगद, बरगद है बेटा, पीपल पीपल, रेंड रेंड पेड़ वैसे सब हैं। तुम ठीक कहत हो....
युवक : हमने जानबूझकर अपने को छोटा बनाया है।
एक ग्रामीण : तुम्हरे मुँह में घी-शक्कर। तुम बड़ा बनके दिखाओ। छोटे मत रहो। देवी देवतन की किरपा तुम्हारे ऊपर रहे।
युवक : हमें किसी की कृपा नहीं चाहिए।
दूसरा ग्रामीण : तब देर काहे कर रहे हो ? दौड़ जाओ। बरगद से ऊपर निकल जाओ ।
युवक : हमें न ऊपर जाना है न नीचे बराबर रहना है।
एक ग्रामीण : कौनो ठिकाना नहि ना....
युवक : ठिकाना है, पर अभी आपकी समझ का फेर है।
(तेजी से निकल जाता है। सभी ग्रामीण गाते हैं ।)
गायन
चिरई दाना बिन मुरझाए
मछरी पानी बिन अकुलाए,
खाए दौरत बा आपन घर दुआर हे हरि ।
मानुष आपन कर्म लजाए
बैठा तीनहु लोग गँवाए
लाये नैया बीच सागर, कर दे पार हे हरि
( दृश्यलोप)
नट गायन
धर्म, ईश्वर, भाग्य सबकी उँगलियों से घूमता
आदमी मिट्टी का लोदा चाक पर है झूमता।
नेकी, सच्चाई, शराफत घर के सब कुछ ताक पर
थोड़े नकटे भी यहाँ इतरा रहे हैं नाक पर ।
एक नारा ढलता है हर नई बरबादी के बाद
आसरम ही आसरम खुल गए आज़ादी के बाद।
(नटी का नाचते गाते प्रवेश ।)
नटी : ओ बेशरम, कुछ कर शरम।
नट : मत हो गरम, छोड़ो भरम।
दोनों : आओ चलो अब हम सब मिलकर खोलें सेवा आसरम ।
नट : सेवा यहाँ पर स्वार्थ है
औ' स्वार्थ ही परमार्थ है।
कोई किसी से है न कम
हैं देश के फूटे करम ।
नटी : ओ बेशरम, कुछ कर शरम ।
नट : मत हो गरम, छोड़ो भरम ।
दोनों : आओ चलो अब हम सब मिलकर खोलें सेवा आसरम ।
पहला अंक : तीसरा दृश्य
(दुर्जनसिंह एक बड़े बक्स पर बैठा है जिस पर लिखा है 'बकरी स्मारक निधि' बक्स के एक कोने में एक कड़ी कीप लगी है जिसमें ग्रामीण एक-एक कर पंक्तिबद्ध आते हैं और धन डालते हैं। फिर मंडलाकार बकरी के चारों ओर घूमते हैं और पूजा गीत गाते हैं। बक्स पर थाल में चढ़ावा भी रखा है।)
समूह गान - तर्ज कहरवा
बकरी मैया तोरे चरनन अरज करूँ
गाँधी बाबा तोरे चरनन अरज करूँ
खेत न दाना
कूप न पानी
केकरे हुजूरे दरज करूँ
गाँधी बाबा तोरे चरनन अरज करूँ
बकरी मैया तोरे चरनन अरज करूँ ।
घास भी रांधूं
पात भी रांधूं
कब तक अपना फरज करूँ।
बकरी मैया तोरे चरनन अरज करूँ ।
गाँधी बाबा तोरे चरनन अरज करूँ ।
उन के महलिया
सोना बरसे
जनम जनम का मैं करज करूँ
बकरी मैया तोरे चरनन अरज करूँ ।
पार लगा दे नैया
ओ बकरी मैया
दोऊ कर जोड़े अरज करूँ
गाँधी बाबा तोरे चरनन अरज करूँ।
(गाते हुए प्रस्थान ।)
दुर्जन : कर्मवीर! अब इनके पास कुछ नहीं है। खुक्ख हैं साले ।
कर्मवीर : फिर भी काफी चढ़ाव आ गया।
दुर्जन : हाँ, सो तो ठीक है। पर कुछ और उपाय भी....
कर्मवीर : ठीक कहते हो, दुर्जनसिंह।
सत्यवीर : उपाय बहुतेरे हैं, बस बकरी बनी रहे।
कर्मवीर : जैसे ?
सत्यवीर : मैं बकरीवाद पर भाषण देने विदेश जाता हूँ। बकरीवाद का प्रचार करूँगा ।
दुर्जन : शाबाश बहुत अच्छा विचार है। बकरीवाद और विश्व शांति । मानवता को आगे बढ़ाने का विचार सारा विश्व हमारा है।
कर्मवीर : हम सारे विश्व के हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् ।
दुर्जन : पर तुम कर्मवीर ?
कर्मवीर : मैं चुनाव लड़ जाता हूँ।
दुर्जन : पवित्र विचार है। जनसेवा चुनाव जिताना, फिर मंत्री बनवाना - सब बकरी करवाएगी।
(बक्स पर हाथ मारता है ।)
कर्मवीर : हाँ बकरी मैया ।
(तीनों बकरी के आगे व्यंग्य से सिर झुकाते और गाते हैं।)
एक : महल दुमहले बना दे बकरी मैया ।
दो : देश विदेश घुमा दे बकरी मैया ।
तीन : बड़े बड़े पद ला दे बकरी मैया ।
सब मिलकर : बैंक पर बैंक खुला दे बकरी मैया ।
फिर जो चाहे वो गीत की तरज करूँ ।
बकरी मैया तोरे चरनन अरज करूँ।
(सिपाही का प्रवेश। उन्हें गाते देखता है और हाथ जोड़ता है ।)
सिपाही : पार लगा दे नैया ।
ओ बकरी मैया ।
दुर्जन : दोऊ कर जोड़े।
.............
............
नट गायन
हर ऐश करा जाएगी यह गाँधी की बकरी
हर खाता भरा जाएगी यह गाँधी की बकरी ।
हर सच को हरा जाएगी यह गाँधी की बकरी ।
वैतरणी तरा जाएगी यह गाँधी की बकरी ।
बकरी की इसलिए सभी जय बोल कर चलो।
जो चाहो करो झिझको न दिल खोल कर चलो।
दुर्जन के साथ सबका यहाँ मोल कर चलो।
हो टेंट या तिजोरी सब टटोल कर चलो।
हर ठोस चीज में भी यहाँ पोल कर चलो।
मिल जाए शराफत तो पत्ता गोल कर चलो।
सौ खून माफ करती है यह गाँधी की बकरी
हर राह साफ करती है यह गाँधी की बकरी ।
(नटी का नाचते गाते प्रवेश ।)
नटी : कैसा छेड़ा है तूने तराना
हमें भी समझाना।
नट : जा तेरी समझ नहिं आना
पड़ेगा पछताना |
नटी : कैसी हाँकते लंतरानी
खून भी बन गया मेरा पानी
तेरा कुछ भी नहीं है ठिकाना
करेगा मनमाना ।
नट : बीते जिंदगी जिसको सहते
क्यूँ डरें हम उसे आज कहते
जल रहा हो अगर आशियाना
पड़ेगा चिल्लाना ।
दोनों : जाके कह दो कि उट्ठे ज़माना ।
नहीं अब घबराना ।