बकायन का गुच्छा (रूसी कहानी) : अलेक्सांद्र कुप्रिन
Bakayan Ka Guchchha (Russian Story in Hindi) : Aleksandr Kuprin
निकोलाई यवेग्राफोविच अलमासोव को कभी-कभार तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, जब तक उसकी पत्नी दरवाजा खोलती। बिना अपना ओवरकोट और टोपी उतारे वह अपने अध्ययन कक्ष में चला जाता था । ज्यों ही उसकी पत्नी त्योरियाँ चढ़ाकर जोर से अपना निचला होंठ काटते हुए उसका मलिन चेहरा देखती तो समझ जाती थी कि उसपर कोई आपत्ति आई होगी। वह चुपके से अपने पति का पीछा करती थी। अलमासोव अपने कमरे में उसी स्थान पर थोड़ी देर के लिए खड़ा होकर कोने को असावधानी से देखता था, फिर हाथ में पकड़े बस्ते को गिरा देता था। ज्यों ही वह गिरता, वह खुल जाता था। वह अपने आपको कुरसी पर गिरा देता था और अपने हाथों को दुष्टता से जकड़ लेता था।
भद्र युवा अधिकारी अलमासोव अभी-अभी भाषण सुनकर स्टाफ कॉलेज से लौटा था। आज उसने प्राध्यापक को क्रियात्मक कार्य का अंतिम कठिन काम दिखाया था- एक स्थानीय सर्वेक्षण।
अब तक सारी परीक्षाएँ प्रसन्नतापूर्वक संपन्न हुई थीं । केवल परमात्मा और अलमासोव की पत्नी ही जानते थे कि इसके लिए उसको कितना परिश्रम करना पड़ा था । इसका आरंभ इस प्रकार हुआ था – पहले-पहल कॉलेज में उसका दाखिला असंभव प्रतीत हुआ । लगातार दो साल तक उसने उत्तीर्ण होने का गंभीर प्रयास किया और तीसरे प्रयत्न में निरंतर परिश्रम के साथ ही सब बाधाओं को पार कर सका। यदि इसमें उसकी पत्नी का सहयोग न होता तो वह कभी भी पर्याप्त शक्ति नहीं जुटा पाता और काफी पहले ही अपने प्रयासों को छोड़ बैठता, परंतु विरोचका उसके साहस को कैसे गिरने देती ! वह सदा उसका साहस बाधाएँ रखने में उसकी सहायता करती थी। वह हर विफलता का मुकाबला सहजता और प्रसन्नता के साथ करना सीख चुकी थी । उसने प्रत्येक सुविधा से अपने आपको वंचित कर लिया था ताकि उसको आराम दे सके जो भले ही मामूली लगता था, परंतु मानसिक काम करनेवालों के लिए जरूरी था । आवश्यकतानुसार यह उसके कागजों की नकल बनाती, नक्शे खींचती, उसके लिए पढ़ती, अनुबोधक और स्मारक पुस्तक बनाती थी।
पाँच मिनट की भारी खामोशी अलार्म घड़ी की तीखी आवाज ने तोड़ दी —– जो थकानेवाली और जानी-पहचानी थी — एक, दो, तीन —दो स्पष्ट ठोकरें और तीसरी कड़क । अलमासोव बिना कोट और टोपी उतारे एक ओर मुड़कर बैठा था। विरोचका उससे दो कदम की दूरी पर खड़ी थी। वह चुप थी और उसके सुंदर एवं तेजस्वी चेहरे पर पीड़ा सी नजर आ रही थी । वह पहले उस सावधानी से बोली जिसका अधिकार किसी प्यारे के बीमार बिस्तर के पास एक औरत को होता है।
"कोलया, क्या तुम्हारा काम असंतोषजनक था?"
उसने अपने कंधे झटक दिए और कोई उत्तर नहीं दिया ।
"कोलया, क्या उन्होंने सर्वेक्षण अस्वीकार कर दिया है? मुझे बताओ, चिंता न करो; हम आपस में इसकी बात कर सकते हैं।”
अलमासोव जल्दी से अपनी पत्नी की ओर मुड़ा और उस क्रोध तथा चिड़चिड़ाहट, जिनका प्रयोग देर से रोकी अपनी गालियों को बाहर निकालने के लिए लोग प्रायः करते हैं, के साथ शुरू किया।
“हाँ, उन्होंने अस्वीकार कर दिया, यदि तुम जानना ही चाहती हो। तुम स्वयं नहीं देख सकतीं क्या? भाड़ में जाए यह सारा मामला!...यह सारा कूड़ा-करकट ! " उसने बस्ते में बँधे नक्शे को जोर से ठोकर मारी- "यह सारा कूड़ा- करकट, अच्छा है कि आग में डाल दिया जाए ! यह कॉलेज का अंत है । एक महीने में मैं पलटन को लौट जाऊँगा, वह भी अपमान के साथ ! और यह सबकुछ इस शापग्रस्त जगह के लिए... धिक्कार है!"
"कौन सी जगह, कोलया? मैं समझी नहीं! "
वह कुरसी के बाजू पर बैठ गई और अपनी बाँहें उसके गले में डाल दीं।
"कौन सी जगह, कोलया?" उसने पुनः पूछा ।
"ओह, हरियावल की साधारण जगह! तुम जानती हो, उसको पूरा करने के लिए मैंने रात तीन बजे तक किस तरह काम किया था। नक्शा ठीक तरह से खींचकर उसमें रंग भरा था, वे सब यही कहते हैं। ठीक है, पिछली रात जब मैं थका हुआ बैठा था, मेरा हाथ काँप गया और उस जगह निशान लग गया - तेल से पुता गाढ़ा निशान ! मैंने उसे रगड़कर साफ करना चाहा, परंतु वह और अधिक गंदा हो गया । मैं आश्चर्य करता हुआ सोच रहा था कि उसके साथ क्या किया जाए? मुझे सूझा कि निशान के ऊपर झाडियों का गुच्छा बना दिया जाए और मैंने बना दिया; यह अच्छा बन गया और उसने निशान को ढक लिया। मैं आज उसे प्राध्यापक के पास ले गया ।"
"आह! हाँ, ये झाडियाँ तुमने यहाँ कैसी लीं ?"
“यदि मैं उसे उसी समय बता देता कि यह कैसे हुआ तो शायद वह हँस देता, लेकिन मैं सोचता हूँ कि वह हँसता नहीं, क्योंकि वह जर्मन अभिमानी की तरह अत्यंत कठोर है । मैंने उसे कहा - ' परंतु यहाँ झाड़ियों का गुच्छा है।' 'नहीं, ' उसने उत्तर दिया- 'मैं उस जगह को अपनी हथेली की तरह जानता हूँ, वहाँ कोई झाड़ी नहीं है । ' काफी लंबी बातचीत हुई और कई अधिकारी वहाँ उपस्थित थे। 'यदि तुम्हें विश्वास है कि वहाँ झाड़ियाँ हैं तो कल हम वहाँ चलेंगे और उस स्थान का निरीक्षण करेंगे। मैं तुम्हें बताऊँ कि या तो तुम बहुत असावधान हो या फिर तुमने तीन मील दूर से नक्शा बनाया है । '"
“परंतु वह इतना आश्वस्त क्यों है कि वहाँ झाडियों का गुच्छा नहीं है?"
"ओह, प्रिय! क्या बचकाना प्रश्न पूछती हो, क्योंकि वह गत बीस वर्षों से अपने शयन कक्ष से अधिक उस जगह को जानता है और वह संसार में अत्यंत घृणित अभिमानी है और सौदेबाजी में जर्मन है। अंत में यह पता चल जाएगा कि मैं झूठा हूँ और इसके अतिरिक्त...।”
बात करते समय वह राखदानी से जली दियासलाइयाँ उठाकर अपनी अंगुलियों के बीच तोड़ता रहा और टुकड़ों को फर्श पर जोर से फेंकता रहा । यह स्पष्ट था कि वह बहुत उद्विग्न था ।
बिना एक भी शब्द बोले पति-पत्नी गंभीरता से सोचते हुए बैठे रहे । एकाएक उत्साहित विचार से उछलकर विरोचका कुरसी से उतरी।
"सुनो कोलया, हमें इसी क्षण जाना होगा। तैयार हो जाओ, शीघ्र ! "
निकोलाई यवेग्राफोविच ने त्योरियाँ चढ़ाई; जैसे शारीरिक पीड़ा हो।
"ओह, निरर्थक मत बनो, विरा! तुम क्या सोचती हो कि मैं जाकर क्षमा माँगू? इसका अर्थ यह होगा कि मैं अपनी गलती को प्रमाणित करता हूँ । मूर्खता की बात मत करो। "
“मैं मूर्खता की कोई बात नहीं करना चाहती, " विरोचका ने अपना पैर ठोकते हुए कहा, "मैं तुम्हें जाकर माफी माँगने के लिए नहीं कह रही हूँ, केवल इतना ही कि यदि वहाँ वे झाड़ियाँ नहीं हैं तो हमें तुरंत जाकर वहाँ लगा देनी चाहिए।"
"लगा देनी चाहिए ?... झाडियाँ ? " निकोलाई यवेग्राफोविच ने विस्मय से आँखें फैलाई।
“हाँ, उन्हें लगा दें। यदि तुमने झूठ बोला है तो उसे सच कर दो। तैयार हो जाओ, शीघ्र । मुझे मेरा कोट और टोपी दो... वहाँ नहीं, अलमारी में देखो... मेरा छाता ।"
जबकि अलमासोव उसकी टोपी ढूँढ़ रहा था और व्यर्थ में विरोध करने का प्रयास कर रहा था, विरोचका ने जल्दी से मेज के दराज खोले, छोटी अलमारी खोली, टोकरियाँ और बक्से निकाले और उन्हें खाली करके उनके सामान को फर्श पर डाल दिया।
“कान की बालियाँ...केवल कूड़ा-करकट... वे इनके लिए कुछ नहीं देते... और यह मूल्यवान रत्न के साथ अंगूठी ...हम इसको फिर किसी तरह खरीद लेंगे। इसके खो जाने पर दया आती है। कंगन... यह भी कुछ नहीं देते...बहुत पुराने हो गए हैं... तुम्हारा सिगरटकेस कहाँ है, कोलया?"
पाँच मिनट में उसका सारा खजाना सिमटकर उसके बैग में आ गया । विरोचका पहले ही कपड़े पहनकर तैयार थी। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाईं कि कोई चीज भूल तो नहीं गई।
"चलो!” उसने दृढ़ता से कहा।
" परंतु कहाँ के लिए?" अलमासोव ने विरोध किया – “इस समय अँधेरा हो रहा है और वह स्थान यहाँ से पाँच मील दूर है।"
"अनर्थक, चलो।"
अलमासोव दंपती पहले गिरवी रखनेवाले के पास गए। महाजन, जिसने उनकी चीजों की कीमत लगाई, मानव दुर्भाग्य को प्रतिदिन देखने का आदी हो गया था । इसलिए इनकी दुर्दशा ने उसे प्रभावित नहीं किया। उसने चीजों को क्रम से परखने में इतनी देर लगा दी कि विरोचका ने अपना धैर्य खोना शुरू कर दिया। वह विशेषकर उस समय दु:खी हुई जब उसकी अंगूठी के चमकीले नगीने का परीक्षण तेजाब से करके उसके तीन रुबल दिए गए।
"यह असली पत्थर है ! " विरोचका ने विरोध किया- "यह कम-से-कम सत्ताईस रुबल का है । " महाजन ने उदासीनता से आँखें बंद कर लीं।
“हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, मैडम। हम पत्थरों को नहीं लेते।" उसने अंतिम वस्तु को काँटे पर रखते हुए कहा, "हम केवल धातु का मूल्य लगाते हैं। "
उसको पूरा करने के लिए पुराने कंगन की अधिक कीमत लगाई गई, जिसे देखकर विरोचका अत्यंत चकित हुई। सब मिलाकर उन्हें तेईस रुबल मिले, जो जरूरत से अधिक थे।
अब अलमासोव दंपती माली के घर पहुँचे तो सेंट पीटर्सबर्ग की रात सफेद आकाश पर छाई हुई थी और हवा दूधिया नीले में। पुराना दक्षिण निवासी माली सोने का चश्मा पहने अपने परिवार के साथ खाना खाने ही वाला था। वह इतनी रात को आनेवाले इन ग्राहकों और उनकी अजीब प्रार्थना से बहुत चकित और क्रोधित हुआ। उसने अवश्य किसी रहस्य की शंका की होगी, क्योंकि उसने विरोचका के प्रश्नों का उत्तर रूखेपन से दिया ।
" मुझे खेद है कि मैं श्रमिकों को रात इस समय और इतनी दूर भेज नहीं सकता । यदि चाहो तो हम इसे कल कर सकते हैं, आपकी सेवा के लिए तैयार हूँ ।"
अब करने के लिए केवल एक ही चीज रह गई कि माली को उस स्थान के बारे में सारी बात बता दी जाए, जो विरोचका ने बता दी। माली ने शंका और अमित्रता भाव से सुना, परंतु जब विरोचका झाड़ी लगाने के बिंदु पर पहुँची तो उसने रुचि दिखाई और समय-समय पर स्वीकृति के भाव के साथ मुसकराया।
"यह ठीक है, इसके अतिरिक्त तो कुछ नहीं करना ? " वह सहमत हो गया जब विरोचका ने कहना समाप्त किया।
“तुम किस प्रकार की झाड़ियाँ लगवाना चाहते हो?"
जो झाड़ियाँ उसके पास थीं, किसी तरह से, उनमें से कोई भी उचित प्रतीत नहीं हुई किंतु वे चाहें या न चाहें, उनको बकायन का गुच्छा लेना ही था ।
अलमासोव ने अपनी पत्नी को घर लौट चलने के लिए जोर दिया, परंतु व्यर्थ । वह उसके साथ जाने के लिए आग्रह करती रही। वह मालियों के काम में खलल डालेगी, उन्हें परेशान करेगी, काम में विघ्न डालेगी और जब तक आश्वस्त नहीं हो जाएगी कि झाड़ियों के आसपास की घास एवं बाकी भूमि की घास में कोई अंतर नहीं है तब तक वह घर लौटने के लिए राजी नहीं होगी!
अगले दिन विरोचका घर में बैठ नहीं सकी और अपने पति से मिलने बाहर चली गई। जब वह अभी थोड़ी दूरी पर था तो यह उसकी प्रसन्न मुद्रा और चाल से समझ गई कि झाड़ी की कहानी का सुखांत हो गया है। उसका चेहरा जीत की खुशी से चमक रहा था।
"यह अच्छा रहा, अति उत्तम!" उसने अपनी पत्नी की चिंतित दृष्टि के उत्तर में पुकारा । तब वह अभी दस कदम दूर था, बोला, “कोशिश करो और अपने आपमें चित्र खींचो कि हमें गुच्छा कैसे मिला।'' वह देखता रहा और एक पत्ता तोड़कर चबा भी गया -" 'यह कैसा वृक्ष है?' उसने पूछा । 'मैं नहीं जानता, श्रीमान्, यह भोजपत्र ही होगा ! ' मैंने उत्तर दिया ।
फिर वह मेरी तरफ मुड़ा और अपना हाथ बढ़ाया- 'मुझे खेद है, वाहक, बूढ़ा होने के कारण मैं इन्हें पहचानने में असमर्थ हूँ।' कितना अच्छा आदमी है और चतुर भी । उसको धोखा देने के लिए मुझे शर्मिंदा होना चाहिए। वह हमारे प्राध्यापकों में से सर्वोत्तम है। उसके ज्ञान का जवाब नहीं और वह सर्वेक्षण में कितना अचूक और तेज है; यह केवल आश्चर्यजनक है! "
परंतु विरोचका के लिए कहानी को एक ही बार सुनना काफी नहीं था । उसने प्राध्यापक से हुई बातचीत को बार- बार सुनाने के लिए कहा। वह छोटी सी बात में भी रुचि लेती थी - प्राध्यापक के चेहरे पर कैसे भाव थे, उसने किस स्वर में बात की और कहा कि वह बूढ़ा हो गया था, कोलया ने स्वयं उस क्षण कैसा महसूस किया था आदि ।
वे दोनों एक साथ घर लौटे; जैसे सड़क पर केवल वही दोनों ही हों - एक-दूसरे का हाथ थामे और अकारण हँसते हुए। रास्ते में चलनेवाले हैरानी से इस अद्भुत जोड़े को देखने के लिए खड़े हो जाते थे।
निकोलाई यवेग्राफोविच ने कभी भी इतनी भूख से नहीं खाया था जैसा उस दिन । रात के भोजन के बाद जब विरोचका चाय का प्याला लेकर अपने पति के अध्ययन कक्ष में गई तो दोनों पति-पत्नी एकाएक हँस पड़े और एक-दूसरे को देखने लगे।
"तुम हँस क्यों रहे हो ? " विरोचका ने पूछा।
“और तुम क्यों?"
"पहले तुम बताओ, मैं बाद में बताऊँगी।"
"ओह, यह केवल अनर्थक था । मैं बकायन की झाड़ी के बारे में सोच रहा था, और तुम?"
"मैं भी बकायन की झाड़ी की बाबत सोच रही हूँ। मैं कहना चाहती हूँ कि आजके बाद बकायन ही मेरा फूल होगा।"
(अनुवाद : भद्रसैन पुरी)