बहादुर सेनापति (कहानी) : विष्णु प्रभाकर

Bahadur Senapati (Hindi Story) : Vishnu Prabhakar

दूर-दूर तक चौड़ी सपाट भूमि, कहीं कोई साया नहीं। पीछे एकमात्र जल-विहीन सूखा तालाब! उसी में गड्ढा खोदकर पड़े थे। सोच रहे थे कि कब चार्ज का ऑर्डर मिले, कब वे अपने दिल की निकालें, लेकिन दुश्मन खामोश था। कोई भी नजर नहीं आता था, और ये उतावले हो रहे थे। उन्होंने सुना था कि दुश्मन का तोपखाना सिर्फ चार मील है।

रफीक बोला, ‘चार मील भी कोई रास्ता है?’
जीत सिंह ने कहा, ‘और फिर टैंक, मशीनगन, कार सबकुछ तो है उनके पास! फिर भी जान निकलती है।’

कहकर वह मुसकाया, ‘माथा गर्व से ऊँचा उठ गया। रामचंद्र, तीसरा सैनिक उसी तरह छाती फुलाकर बोला, हथियार से क्या होता है? बात दिल की है। उनके पास दिल है कहाँ? साले भाड़े के ट्टटू...।’
एक जोर का कहकहा लगा। कई आवाज एक साथ गूँजी, ‘भाड़े के ट्टटू।’ वह लड़ना क्या जाने और लड़ें किसलिए? पेट के लिए कहीं लड़ा जाता है?’
एक सैनिक पूछ बैठा, ‘तो किसके लिए?’
जीत सिंह ने राइफल तोलकर जवाब दिया, ‘देश के लिए।’
एक बार फिर गर्व से सबके मस्तक ऊँचे उठे, ‘हाँ! हम देश के लिए लड़ते हैं; उस देश के लिए लड़ते हैं, जिसकी मिट्टी से हम बने हैं।’
‘और तब तक लड़ते रहेंगे, जब तक यह आजाद नहीं हो जाता।’
‘हाँ, हमने दिल्ली पहुँचने की प्रतिज्ञा की है!’
‘हमें लाल किले पर अपना प्यारा झंडा फहराना है।’

बेशक हम लाल किले पर अपने प्यारे तिरंगे झंडे को फहराएँगे। हमारे नेताजी ने बहादुरशाह की कब्र पर कसम खाई थी कि...।
‘हम उसे झूठी नहीं होने देंगे।’
‘कभी न होने देंगे।’

जैसे उत्साह साकार होकर हर एक सिपाही के रूप में वहाँ आ गया था। वे संख्या में बहुत कम थे। उनके वस्त्र फट गए थे। उनके पास हथियार के नाम पर केवल राइफलें थीं। उनके पास पेट भर भोजन भी नहीं था, लेकिन वे कह रहे थे, ‘हम घास खाएँगे, पर जीते जी पीछे नहीं हटेंगे।’

रफीक ने मुसकराकर कहा, ‘खुदा की कसम! हाथ बार-बार काँप उठते हैं। जी करता है कि राइफल तोलकर भागा चला जाऊँ और दुश्मन के तोपखाने में आग लगा दूँ।’

जीत सिंह हँसा, ‘जी तो मेरा भी ऐसा ही करता है, पर लपटान साब का हुक्म!’ फिर जैसे क्षण भर वहाँ सन्नाटा छा गया! पर दूसरे ही क्षण रफीक यकायक धीरे से बोल उठा, ‘क्यों जीत, घर में तेरी बीवी है?’
‘है, क्यों?’
‘पूछता था, क्या सोचती होगी?’
‘सोचती क्या होगी? गर्व से उसकी छाती फूलती होगी। सरकार कुछ भी कहे, परंतु लोग तो हमारे ही साथ होंगे।’
‘बेशक वे हमारे साथ होंगे।’

‘तो बस, हमें यही चाहिए। जब मैं भरती हुआ था तो मेरा दोस्त गोपाल बहुत गुस्सा हुआ था। कांग्रेसी है न, लेकिन उसे क्या पता कि आज मैं भी उसी राह का राही हूँ। लौट सका तो...’

तभी उसके लेफ्टिनेंट कमांडर ज्ञान सिंह वहाँ आ गए। सिंह के आखिरी शब्द उन्होंने सुने, मुसकराकर कहा, ‘लौटने की चिंता है तुम्हें?’ जीत सिंह का मुँह फक हो गया। वह खिसिया गया, परंतु दूसरे ही क्षण दृढ़ता से मुड़कर उसने कहा, ‘नहीं, नहीं लपटान साब! मैं लौटना नहीं चाहता। मैं अपने दोस्त की बात कह रहा था, जो मुझसे नफरत करता था...’

कमांडर बीच में बोल उठा, ‘हाँ, मेरा भी एक दोस्त है, वह भी मुझसे नफरत करता है। कहता था कि मैं पेट के लिए लड़नेवाला हूँ। मैं गुलाम देश के लिए क्यों नहीं लड़ता।’

रफीक बोला, ‘जी लपटान साब, यही बात थी। जीत यही कहता था। अगर लौट सका तो कहेगा...।’
‘नहीं,’ जीत बोला, ‘मैं नहीं लौटना चाहता हूँ। मैं यहीं मरना चाहता हूँ।’
रफीक बोला, ‘और मैं भी...’

कमांडर का मुख चमक उठा। उसने जीत सिंह के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘घबराओ नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम यहीं मरना चाहते हो। हम सब यही चाहते हैं और विश्वास रखो, मैं भी तुम लोगों के साथ यहीं इसी मिट्टी में अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते सो जाना चाहता हूँ।’

सूखे काठ को एक चिनगारी भस्म कर सकती है, परंतु महादावानल में उसकी क्या बिसात? वह देख रहा था कि उसके सैनिक यंत्र की तरह राइफल चला रहे थे। उनके मुखों पर पसीना बहने लगा था, लेकिन उनकी आँखें लक्ष्य पर लगी थीं, उनके हाथ लक्ष्य की ओर निशाना साध रहे थे; ये फुर्ती से पेटी खोलते, चढ़ाते और फिर दागते दन-दन दनादन दनन दनदन...और इधर टैंक, मशीनगन आग फेंकती, सैनिक हथगोले फेंकते और वह देखता...

दोनों सैनिक गद्गद हो उठे। उनके नेत्रों में गर्व की लाली और स्नेह का जल उमड़ा और अपनी सुगंध से सबके दिलों को महकाता हुआ दूर तक फैल गया।
रफीक बोला, ‘पर लपटान साब, दुश्मन क्या अफीम घोलकर सो गया है?’
जीत सिंह, ‘हाँ, आप हुक्म कीजिए! हम उसे ढूँढ़ लेंगे।’
कमांडर ने कहा, ‘ढूँढ़ने के लिए हमारी पतरोल गई हुई है। उसके आने पर कुछ किया जाएगा।’

और फिर मुड़कर कमांडर साहब बाहर देखते हुए आगे बढ़ गए, परंतु जहाँ वे जाते, यही एक प्रश्न उठता, ‘आप ऑर्डर क्यों नहीं कर रहे हैं? उनका कहना भी ठीक था। दूसरा दिन बीत चला था, दुश्मन का कहीं पता नहीं था।’

इसी तरह तीसरा दिन आया। उपाय ऊगकाईलाँ मैदान में प्रकाश चमक उठा, पक्षी बोले, लेकिन सब ओर से सैनिकों ने कहा, ‘दुश्मन कहाँ है, हम उससे पूछेंगे, वह अब तक क्यों नहीं आया?’
कमांडर ने कहा, ‘डरो नहीं, वह आनेवाला है। तुम तैयार हो जाओ।’
वे चिल्लाए, ‘हम तैयार हैं।’

अचरज! तभी देखते-देखते आसमान काँप उठा। घर-घर, गहर-गहर, घूँ-घूँ की तेज आवाज करते हुए बममार जहाज कहर बरसाने लगे। खंदक में सन्नाटा छा गया। सब साँस रोककर लेट गए, जैसे वहाँ कोई है ही नहीं।

पर बाहर जैसे भूकंप आ गया। धम, धम, धड़क, धनननन का अनवरत शब्द कानों को फाड़े डाल रहा था। जमीन उछल-उछल पड़ती थी। लगा कि खंदक टूटकर जमीन में समा जाएगा और ये सब वहीं जमींदोज हो जाएँगे, लेकिन किसी को कुछ चिंता नहीं थी। बम कहाँ पड़ा, कोई मरा या क्या हुआ...

वे तभी उठे, जब शांत हो गया। उठकर उन्होंने देखा कि वे सब उसी तरह थे, जैसे हमले से पहले...
एक सैनिक ने कहा, ‘तो उन्होंने व्यर्थ ही इतना कवर किया।’
लेकिन कमांडर बोला, ‘साथियो! समाचार मिला है कि तुम लोगों की इच्छा पूरी होनेवाली है। दुश्मन चल पड़ा है।’
सैनिक प्रसन्न हो उठे। उन्होंने हथियार सँभाल लिये। कमांडर ने फिर कहा, ‘परंतु उसके पास टैंक है।’
एक सैनिक ने कहा, ‘हमारा एक-एक सिपाही जीवित टैंक है।’
‘उनके पास बख्तरबंद गाडि़याँ हैं।’
‘हमारी चोट के सामने वे व्यर्थ हैं।’
‘उनके पास ट्रक्स भी हैं।’
‘यहाँ उनकी कोई कीमत नहीं है।’
‘वे संख्या में बहुत हैं।’
‘परंतु मुर्दे हैं।’
कमांडर मुसकराया, ‘साथियो! विश्वास रखो। वह तुम्हें नहीं जीत सकता।’
‘बेशक नहीं जीत सकता। हम जान हथेली पर रखकर लड़ते हैं।’
‘छाती में छिपाकर नहीं।’ कमांडर खुशी से भर उठा, ‘शाबाश दोस्तो। आओ, हम सब मिलकर उसे भगा दें!’
‘सब मिलकर।’

तभी तोपों की पहली बाढ़ छूटी और उसी बाढ़ के बाद दुश्मन आगे बढ़ा। उनके पास तेरह टैंक थे, ग्यारह बख्तरबंद गाडि़याँ थीं और सत्तर ट्रक थे। वे दो हिस्सों में बँट चुके थे। एक भाग सीधा उनकी ओर बढ़ रहा था। टैंक और गाडि़याँ आग बरसा रही थीं। गोले धमाके के साथ गिरते, जमीन पर धड़ाका उठता और तब मिट्टी बहुत ऊँचाई तक झरकर फैल जाती, पर सैनिक साँस रोके चुपचाप राह देखते रहे कि कब दुश्मन उतरे और वे दो-दो हाथ करें, लेकिन वे किले में बंद थे। धीरे-धीरे टैंक और बख्तरबंद कारें उनके इतने समीप आ गए कि सीधे मार पड़ने लगी। दुश्मन सैनिक चुन-चुन अपना निशाना बनाने लगे।

कमांडर ने देखा—गोले सीधे खंदक में जा रहे हैं और वे दोनों सुरंगें, जो रास्ते में फेंक दी गई थीं, नहीं फटी हैं। फिर भी गति पर बे्रक लग गया है।’
पर वे बराबर आग उगल रहे हैं; वह आग, जो जीव मात्र को झुलसाने के लिए तैयार हैं।
उसने फिर अपने सैनिकों को देखा, उनका उत्साह मंद नहीं पड़ा था, पर वे बहुत कम थे, बहुत कम...पीछे से मदद आनी चाहिए...

लेकिन कोई रास्ता नहीं था। कोई भी रास्ता...आगे से आग बराबर उसी तेजी से बढ़ी आ रही थी। कान से कोई शब्द नहीं सुनाई पड़ रहा था। युद्ध का भीषण शब्द रौरव चारों ओर छा गया था।
सैनिकों की राइफल की आग उनके सामने चिनगारी की तरह थी।

सूखे काठ को एक चिनगारी भस्म कर सकती है, परंतु महादावानल में उसकी क्या बिसात? वह देख रहा था कि उसके सैनिक यंत्र की तरह राइफल चला रहे थे। उनके मुखों पर पसीना बहने लगा था, लेकिन उनकी आँखें लक्ष्य पर लगी थीं, उनके हाथ लक्ष्य की ओर निशाना साध रहे थे; ये फुर्ती से पेटी खोलते, चढ़ाते और फिर दागते दन-दन दनादन दनन दनदन...और इधर टैंक, मशीनगन आग फेंकती, सैनिक हथगोले फेंकते और वह देखता...

नहीं, नहीं, ऐसे नहीं होगा। नहीं होगा। इसी प्रकार वे सब भुन सकते हैं। खंदक में रहना आत्महत्या करने के समान है। वे मर जाएँगे या कैद हो जाएँगे और दुश्मन का कुछ नहीं होगा।
आह! वह किटकिटाया—दुश्मन का कुछ नहीं होगा।

दुश्मन के सैनिक बहुत थे, परंतु आजाद हिंद फौज के सैनिकों का उत्साह संख्या की परवाह नहीं कर रहा था। उनके कदम बढ़ना जानते थे, उनकी आँखें दुश्मन पर थीं, उनके हाथों में बायोनेट थी। वे नारा लगाते—नेताजी की जय, और दुश्मन पर टूट पड़ते। उनका बहादुर कमांडर बराबर उनके साथ था। वह लड़ रहा था, पर उसकी आँखें मैदान की स्थिति को जाँच रही थीं। उसने जान लिया था कि वे संख्या में कम हैं, पर वे पीछे नहीं हटेंगे। और वे नहीं हटे। वह चिल्लाया—‘शाबाश वीरो! बढ़े चलो, नेताजी के नाम पर धब्बा न लगने पाए।’
तो वह क्या करे, आखिर क्या करे...?

दिमाग बड़ी तेजी के साथ घूमा। वह एक सुरक्षित स्थान पर खड़ा था। वह सबकुछ देख रहा था। देख रहा था अपने मुट्ठी भर सैनिकों का उत्साह और दुश्मन के किले से उमड़ती हुई आग, जो कुछ ही क्षणों में सबको फूँक सकती थी। नहीं, यह नहीं होगा। वह कायर की मौत है और आजाद हिंद का सैनिक कायर की मौत नहीं मर सकता। नहीं, कभी नहीं...।

बस, इस क्षण में विचारों का एक समूह, घटनाओं की एक लंबी तालिका उसके मस्तिष्क में आई और गई और वह चिल्ला उठा, ‘चार्ज।’

जैसे बिजली कौंध गई। तूफान फूट पड़ा। सैनिक मौत की तेजी से खंदक से बाहर निकल आए और बायोनेट लेकर ही दुश्मन पर धावा बोल दिया। सबसे आगे वह था। वह उनका कमांडर जो था; चिल्ला रहा था—
‘नेताजी की जय! इनकलाब जिंदाबाद! आजाद हिंदुस्तान जिंदाबाद! चलो दिल्ली! जय हिंद!’

सैनिक उन नारों को दूने उत्साह से दोहराते और परवानों की तरह आगे बढ़ जाते। और इन नारों की उठती हुई आवाज तोपों, टैंकों की गड़गड़ाहट से ऊपर होकर दुश्मन की छाती में भर उठी, जैसे उन्होंने मौत को सजग देखा। वे ट्रकों से उतर पड़े और फिर आमने-सामने युद्ध छिड़ गया।

दुश्मन के सैनिक बहुत थे, परंतु आजाद हिंद फौज के सैनिकों का उत्साह संख्या की परवाह नहीं कर रहा था। उनके कदम बढ़ना जानते थे, उनकी आँखें दुश्मन पर थीं, उनके हाथों में बायोनेट थी। वे नारा लगाते—नेताजी की जय, और दुश्मन पर टूट पड़ते। उनका बहादुर कमांडर बराबर उनके साथ था। वह लड़ रहा था, पर उसकी आँखें मैदान की स्थिति को जाँच रही थीं। उसने जान लिया था कि वे संख्या में कम हैं, पर वे पीछे नहीं हटेंगे। और वे नहीं हटे। वह चिल्लाया—‘शाबाश वीरो! बढ़े चलो, नेताजी के नाम पर धब्बा न लगने पाए।’

‘शाबाश! आजाद हिंद तुम्हारा स्वागत कर रहा है।’
‘शाबाश...’
उसने खुशी से भरकर देखा, इस धावे से दुश्मन घबरा गया है। इतने टैंक, तोपों, मशीनगनों के बावजूद वह पीछे हट रहा है...।
दुश्मन पीछे हट रहा है...।

और उसके सैनिक! उसने देखा, वे धीरे-धीरे धरती पर लेट रहे हैं, फिर भी उनका प्रत्येक कदम आगे ही बढ़ रहा है। वे मृत्यु का आलिंगन कर रहे हैं, पर आगे बढ़कर। उनका यही उत्साह दुश्मन के दिलों में धड़कन पैदा कर रहा है...।
यह क्या...क्या वे फिर ट्रकों और जीपों में बैठ रहे हैं...लो!
उन्होंने घायलों को उठाया...।
वह हर्ष से भर उठा। उसने चिल्लाकर कहा, ‘शाबाश! मेरे बहादुर साथियो! जीत तुम्हारी है...।’

वह जानता था कि वे सब मर सकते हैं, वह भी मर सकता है, परंतु उसे मरने-जीने की कोई चिंता नहीं थी। उसने दुश्मनों को पीछे धकेल दिया था और हुआ क्या...वे उनको पहाड़ी के पीछे दूर उस जगह तक खदेड़ देना चाहते थे। वह फिर चिल्लाया, ‘नेताजी की जय! आजाद हिंद फौज जिंदाबाद, शाबाश! बहादुरो जीत तुम्हारी है...।’
सैनिक तेजी से आगे बढ़े। उसके आधे साथी धरती पर लेट गए थे, पर वे आँखें मूँदे कमांडर के शब्दों पर आगे बढ़ रहे थे...।

तभी सहसा वह शब्द बंद हो गया। एक गोली उड़ी और कमांडर के मस्तिष्क में घुसती चली गई। वह काँपा, लड़खड़ाया और फिर गिर पड़ा। वह सैनिकों के बीच में, दुश्मन के सिपाहियों की लाशों पर गिरा था। उसका हाथ राइफल पर था, उसके होंठ खुले थे, मानो मुसकराते हों, आजाद हिंद जिंदाबाद!

सैनिकों में क्षण भर के लिए खलबली मची। दूसरे क्षण तो दूसरा कमांडर आगे बढ़ आया। उसने कहा, ‘शाबाश। मेरे बहादुर साथियो! जीत तुम्हारी है। दुश्मन भाग रहा है! नेताजी की जय! आजाद हिंद जिंदाबाद, इनकलाब जिंदाबाद...!’
और वे आगे बढ़ गए...।
लेकिन वह सो गया। सदा-सदा के लिए सो गया था...।
और दुश्मन पीछे हट रहा था...।

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