बदलते समीकरण (पंजाबी कहानी) : गुरमीत कड़ियालवी
Badalte Samikaran (Punjabi Story) : Gurmeet Karyalvi
"शादी के चार - पांच महीनों के बाद भी जब प्रेगनेंसी ना हुई तो सास को बेचैनी होने लगी । मुझसे पूछती ,'दिन ऊपर हुये ।"
सास दिनों का बहुत हिसाब - किताब रखती । एक बार जब दस - बारह दिन ऊपर हो गये तो उसने हिदायतें देनी शुरू कर दी,
'बहू ! अपना ध्यान रख । ऊपर - नीचे पैर न रखना । पानी की बाल्टी न उठाना । दिल में कुछ होता है क्या ? मुँह का स्वाद बदल गया क्या ? कुछ फ़र्क महसूस होता है ?'
मैं क्या बताती , जब मुझमें कोई फ़र्क आया ही नहीं था । न शारीरिक , न मानसिक आखिर कुछ दिनों के अंतराल बाद शरीर ने गर्भवती होने की सूचना न दी तो सास को घबराहट बढ़ गयी । वह भगवान , पड़ोसियों , रिश्तेदारों तथा अन्य कई लोगों को भला - बुरा कहने लगी । कहती रिश्तेदारों ने बहू की कोख हरी न होने देने के लिये कुछ टोना करवाया हुआ है । हर समय उखड़ी रहती । कितनी ही लेडी डॉक्टरों से मुझे चैक करवाया गया । नुक्स कोई नहीं था । सब कुछ नार्मल ।'सब ठीक है'का ऐलान करने के बावजूद हरेक लेडी डॉक्टर ढेर सारी दवाइयां लिख देती और मेरी सास सुबह - शाम पास खड़े होकर मुझे यह दवाइयां खिलाती। गर्म दवाईयां खा - खाकर मेरा अंदर जलने लगा था । दिन में हर समय पसीना आता रहता जैसे गर्म दवाइयों ने अंदर आग लगा दी हो । मुझे बेहद प्यास लगती । टीके लगा - लगा कर मेरा शरीर छलनी कर दिया । हारमोन बढ़ाने के लिये , गरोडोटरोपिक के महंगे इंजैक्शन। फर्टिलिटी बढ़ाने के लिये आयरन की हाथ भर गोलियां । नतीजा फिर वही का वही । हर महीने घरवालों के चेहरे लटक जाते । सास का मन सबसे अधिक उचाट हो जाता । अपने बेटे की औलाद को गोदी में उठाकर खिलाने का चाव उसे ही अधिक था । हमारी शादी के बाद से ही उसने फेरीवालों से सस्ते भाव के कपड़े खरीद खरीद के घर भर लिया था।
'मम्मी ! यह क्या खरीद - खरीद कर घर भरते जा रहे हो ?'सभी के द्वारा पूछे जाने इस सवाल के जवाब में वह कहती,
"जब संजू के घर में लड़का होगा तो संजू की बुआ , मौसी तथा और कितनी कामवालियों , बधाई देने वालियों तथा ऐरे - गैरे रिश्तेदारों को लेने - देने के काम आयेंगे ।'
"यह मौसी , बुआ को देने वाले कपड़े हैं ?" मैं सोचती , परन्तु कह न पाती । बड़ी बुरी नियत है । दरअसल जिन्होंने सारी उम्र लोगों को लूट कर खाया हो , अपनी जेब से धेला नहीं खर्च कर सकते।
ससुर तहसील में रजिस्ट्री क्लर्क है । जाट जमीदारों की जेबों से पैसे वसूल कर कितने ही प्लाट लिए हुये है ।
'मम्मी जी, ये भी अपना चैकअप करवा के देख लें । शायद कहीं ?
" ..... हा , मेरे बेटे मे ही नुक्स होगा कोई ? तुम पढ़ी - लिखी लड़कियों को अब अपने मर्द में नुक्स लगेगा । हमने तो ऐसा कुछ सुना देखा नहीं- भई आदमियों में भी नुक्स होता है । संजू हटटा - कटटा , अच्छा भला ..... इसे क्या होगा भला ? कहती है , चैक करवा कर देख लेना चाहिये।"
सास कनखियों से मुझे ताक रही थी । मुझे ताड़ती रहती, जैसे मेरी जासूसी कर रही हो । पहले जब भी में पड़ोसिन मधु से बातें करती थी तो सास नजदीक नहीं आती थी , परन्तु अब में जब भी पड़ोसिन के आँगन की ओर झुकती , हमारे घरों के बीच छोटी - सी दीवार ही है , तो सास सुगबुगाहट सेने लगती । बहाने से आवाज लगाकर मुझे अन्दर बुला लेती । विशेषकर जब मनमिंदर ड्यूटी से वापस घर आ गया हो , तब तो सास की बाज जैसी आँख मेरी निगरानी करने लगती । सास के अन्तर्मन को अच्छी तरह समझती हूँ । ससुराल वालों के विचार मनमिंदर के बारे में अच्छे नहीं है । उसके मुँह पर मिंदर - मिंदर करते , परन्तु पीठ पीछे कहते हैं ,
'माँ - बाप की मर्जी के खिलाफ जाकर गैर जाति में शादी कर ली । किसी की बेटी को फसा कर ले आया है । यह क्या अच्छी बात है ?"
सास - ससुर वैसे तो हर काम के समय मधु तथा मनमिंदर के पास भागते रहते हैं , परन्तु प्रत्येक आये गये के सामने उनकी चुगली भी करते रहते हैं ।
मुझे अक्सर समझाने लगते ,'इनके ज्यादा मुँह लगना ठीक नहीं । चाल - चलन भी ठीक नहीं इनका। अपनी मर्जी से शादी की है , दोनों ने ।'जैसे मधु - मनमिंदर ने बहुत बड़ा गुनाह किया हो । सास - ससुर जितना मधु - मनमिंदर के प्रति भड़ास निकालते , मेरी उतनी दिलचस्पी उनमें बढ़त जाती , विशेषकर मनमिंदर में । कोई बात तो होगी , जिस कारण मधु जैसी जहीन तथा खूबसूरत लड़की उसकी ओर आकर्षित हो गयी थी । मैं स्वयं लवमैरिज के पक्ष में थी । मुझे याद है कि एक बार क्लास में अरुणा मैडम ने सभी लड़कियों से विवाह संबंधी राय जाननी चाही थी । मैंने बिना झिझक कहा था लव मैरिज । इस कारण क्लास की लड़कियाँ मुझे छेड़ती भी रही थीं । वह कहती थी कि मैं उस दिलवाले का नाम बताऊँ जिससे लव मैरिज करवाने जा रही हूँ । मुझे मोनिका जैसी शरारती लड़कियों की टोली से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया था । आखिर बात तभी ठंडी पड़ी जब क्लास की सबसे चुप रहने वाली लड़की दीपिका के अफ़ेयर की बात बाहर निकली थी । अपनी पसन्द के लड़के से शादी कर वह आम से खास हो गयी थी । वैसे हैरानी की बात यह थी कि दीपिका ने क्लास में अपनी पसन्द'माँ - बाप की मर्जी से विवाह'को बताया था । अब चर्चा का विषय मैं नहीं दीपिका हो गयी थी । तब मुझे दीपिका पर काफी रश्क हुआ था।
जिस दिन सारी असलियत सास के सामने रखी, उसके सिर पर जैसे कोई एटम बम फट गया हो ।
-'यह कैसे हो सकता है ? "
'हो क्यों नहीं सकता है ?'
-'डॉक्टर ऐसे ही बकवास करता है ।'
- " टैस्ट करवाये हैं ! "
- ‘ टैस्ट गलत भी तो हो सकते हैं ?'
'सारी लैबोरेटरियाँ तो गलत नहीं हो सकतीं ?'
'हे भगवान ! ऐसा भी होता है क्या ? "
'बस , ऐसा ही हुआ है मम्मी !"
सास मेरी ओर तरस भरी निगाहों से देखने लगी।
'बेटी समझदार बनो । इस बात का धुआँ भी बाहर न निकले।" सास मेरे सामने हाथ जोड़े खड़ी थी ।
" निम्मी बेटा .... किसी के सामने बात न करना । अपने मायके वालों के सामने भी नहींl"
साम की यह हालत मुझसे सहन न हुई । मैं उसके हाथ अपने हाथों में लेकर कितनी देर तक रोती रही थी ।
'निम्मी बेटा । बात बाहर निकली तो संजू की बेइज्जती होगी । लोग अच्छा नहीं समझेंगे । देखो-- वह तुम्हें कितना प्यार करता है । उसकी इज्जत तुम्हारे हाथ में है ।"
"उसके घर किस बात की कमी है । उम्मीद नहीं छोड़ना। बेटा प्रार्थना किया करो .......।"
सास मिन्नतें करती । मैं सास को क्या बताती कि धरती कितनी भी उपजाऊ क्यों न हो , भुने हुये बीजों से उगने की आस कैसे की जा सकती है । प्रार्थना करने से भुने दाने तो नहीं उग सकते।
"आप फिक्र न करें मम्मी जी ... मैं सारा दोष खुद पर से लूंगी।" और मैंने अपना सारा दोष स्वयं पर ले भी लिया था । कोई भी रिश्तेदार या लिहाजदार पूछता तो में अपनी कोख को कोसने लगती। बनी बनाई कहानी बयां करने लगती,-
"बचपन में बीमार हुई थी । काफी अरसा बीमार रही। तबी शायाद बच्चेदानी मे नुकस पड गया।"
जैसे कहते हैं न किसी झूठ को सौ बार बोल देने से सच हो जाता है, यहाँ भी हो गया । मैं अंदर ही अंदर घुलने लगी । दुख किसी के साथ बांट नहीं सकती थी । लोग कहते हैं माँ - बेटी हमराज होती हैं , परन्तु मैं तो माँ को भी दुख बता नहीं सकती थी। माँ बहानों से कई सवाल पूछती , परन्तु मैं हर बार टल जाती
"निम्मी बेटा आजकल पढ़े - लिखे जल्दी बच्चा नहीं चाहते , लेकिन अच्छा होता है कि जल्दी से अपनी फैमिली कम्पलीट कर लो । जवानी में पैदा हुये बच्चे अपने बराबर के हो जाते हैं । बाप के साथ कंधों से कंधा मिला लेते हैं ।'
माँ को क्या और कैसे बनाती कि एक छोटी सी घटा के बरसने के इन्तजार में मारूथल में उम्र गवां देने जैसी मेरी हालत है।
"निम्मी .... अब ज्यादा देर न करो । हम भी नाना - नानी बने । वैसे भी बनने को होना ही है । उम्र बढ़ जाने से कई समस्यायें घेर लेती हैं ।"
"कुल का निशान बाकी रखना हो , तो स्त्री के लिये हरेक उम्र ही गर्भ की उम्र होती है।" कहीं पड़ी हुई कविता की यह पंक्तियाँ मुझे याद आती तो चेहरे पर रोशनी आ जाती है पर जल्द गायब भी हो जाती । मैं मम्मी को टालकर पास से उठ जाती।
" मम्मी , जब संजू चाहेंगे बच्चा कर लेंगे । अभी हमने प्लान नहीं किया।" कहने को तो कह देती परन्तु फिर सारा दिन उखड़ी उखड़ी रहती । इस प्रकार भला कब तक चलेगा?
आस पड़ोस, रिश्तेदारों को कैसे टाला जा सकेगा ? धरती को बंजर होने का ताना , परन्तु यदि बीज ही उगने योग्य न हो ... ? संजू के साथ लगातार कई दिनों तक सलाह - मशवरा करने के बाद जब मैंने अपना फैसला सास को बताया तो वह भड़क उठी-
"ना भई ना .... किसी ऐरे - गैरे का लेकर पालने से क्या लाभ ? बेगाना खून। किसी का क्या भरोसा .... बड़े होकर कैसा निकले । कितने केस ऐसे देखे हैं ... किसी का बच्चा लेकर पाला । बड़े होकर जब उसने जमीन - जायदाद संभाल ली तो अपने असली माँ - बाप के पास चला गया । रहे फिर पालनहार बुढ़ापे में राम भरोसे।"
सास की दलील यह होती , परन्तु असल बात मैं समझती थी । सास सोचती यदि किसी दूसरे का बच्चा अडाप्ट किया , लोग कितने ही सवाल पूछेंगे । किस - किस का मुँह कोई पकड़ सकता है । लोग तो बात की तह तक जाते हैं । असलियत का पता लगा ही लेंगे ।
"डॉक्टर तो सूखी जड़ भी हरी कर देते हैं दवाईयों से। मैं करूंगी डॉक्टर मनीषा से बात । कोई हल तो होगा ही ?"
कैसे बताती कि इस बारे में डॉक्टर मनीषा से पहले ही बात की जा चुकी है । संजू के अंदरूनी नुक्स पता लगने पर डॉ . मनीषा ने ही बच्चा गोद लेने की सलाह दी थी ।
बात दूसरे विकल्प पर आई थी।
"अच्छा यह होगा कि सौमन बैंक से सोमन लेकर नम्रता की कोख में इन्जैक्ट करवा दिया जाये । ऐसे केसों में आजकल बहुत से परिवारों में इसे ही अपनाया जा रहा है । बच्चा गोद लेने से तो यह बेहतर है । अपने पेट से बच्चा पैदा होने से माँ तथा बाकी परिवार की भी अटैचमेंट हो जाती है।"
इस बात की सूचना मिलने पर सास - ससुर बुदबुदाने लगे । सारी रात वह दोनों खुसर - पुसर करते रहे । सास ने सुबह - सुबह ही हमारा दरवाजा खटखटा दिया।
"निम्मी बेटा .... उठो चाय पी लो।" मैंने हड़बड़ाहट में दरवाजा खोला तो सास चाय वालो केतली लिये खड़ी थी । मैंने हतप्रभ होते हुये चाय पकड़ ली । उस दिन सारी दोपहर बेटा - बेटा करती रही। आखिर शाम को वह असल मुद्दे पर आ ही गई।
"निम्मी बेटा .... कुदरत ने कितना बड़ा धक्का किया हमारे साथ। कितनी सुंदर जोड़ी है मेरे बेटे - बहू की .... परन्तु प्रमात्मा ने ....।"
सास ने बनावटी सी गहरी साँस ली ।
"निम्मी ... यदि सीमन बैंक से सीमन लिया तो क्या मालूम किस का हो ? कोई भी छोटी - नीची जाति ... बेटा बुरा ना मनाना .... ! ठंडे दिमाश से सोचना यदि तुम्हारे ससुर का सीमन ले लिया जाये .... ? कम से कम अपना खून तो होगा। बच्चे से सभी प्यार करेंगे--अपना खून ....।"
मैं क्या कहती , ससुर का बीज अपनी कोख में ? मैं तो रिश्तों के फंदे में ही उलझ गई थी।
"मम्मी , आप संजू से पूछ लेते ? "
"संजू से बात कर ली है .... उसकी भी यही मर्जी है।"
जब संजू की मर्जी शामिल है तो मेरे इन्कार का क्या अर्थ था ? अब सास - ससुर और संजू के चक्कर डॉ . मनीषा की ओर लगने लगे । अपने स्वभाव के विपरीत बेटा - बेटा कहने वाली सास से मुझे भय लगने लगा । अपने स्वार्थ के कारण आदमी कितना नीचे झुकने लगता है , इसका एहसास मुझे सास के व्यवहार से हुआ । मैं समझ जाती कि मुझे डॉक्टर के पास जाने के लिये तैयार किया जा रहा है , हर महीने मुझे डॉक्टर मनीषा के पास जाना पड़ता । दिनों से लगातार ओवोलेशन स्टडी करवायी जाती । अड़ोस - पड़ोस से भेद रखने के लिये मुझे और संजू को पहले ही स्कूटर पर भेज दिया जाता । सास और हर समय खीझने वाला ससुर बाद में आते। संजू हमेशा की भाँति मायूस होता । उसकी मौजूदगी मुझे तंग करती । सोचती , जब इसका कोई काम ही नहीं , फिर इस हर बार अपने साथ लाकर जलील क्यों किया जाये । वह हारा हुआ सा अस्पताल के बेंच पर सिर झुकाये बैठा रहता । उसकी यह हालत मेरे लिये अत्यन्त दुखदायी सिद्ध होती । मुझे संजू पर गुस्सा आता। वह परिवार पर निर्भर है , परन्तु इतनी गुलामी भी क्या हुई ? माँ - बाप के किसी भी फैसले के खिलाफ क्यो नही जाता ? क्या इसकी अपनी कोई सोच नहीं । जैसे मां - बाप कहते हैं , मान लेता है । आर्थिक तौर पर आत्म निर्भर है पर बोलने की हिम्मत ही नहीं करता । अभी भी दूध पीता बच्चा है क्या ? कभी - कभी मुझसे कहता,
"निम्मर ! तू और विवाह कर ले । मैं तलाक लिख देता हूँ । मेरे कारण तू क्यों दुख भोगती है।"
वैसे मैं जानती हूँ कि संजू यह बात कभी दिल से नहीं कहता । ऐसा कहते हुये उसका पीलेपन से भरा चेहरा एकदम सफेद हो जाता । वैसे उसे भी इस बात का यकीन है कि मैं ऐसा कभी नहीं करूंगी । मुझे कभी - कभी संजू पर बहुत गुस्सा आता । मैं चाहती , वह मेरे साथ झगड़ा करे । मेरे साथ नराज हो , बहुत गुस्सा हो । गुस्से से बोले । रूठ जाये । परन्तु वह तो अपनी माँ से ज्यादा लाचारगी दिखाता । इतना लाचार आदमी ....। इस तरह के आदमी मुझे शुरू से ही बहुत बुरे लगते थे । कभी कभी इस पर तरस आने लगता । इसका भी क्या कसूर ? इसके वश में भी क्या है ? उसकी लाचारगी और हीनता मुझसे सहन न होती। इससे क्या पाप हुआ, सभी अंग होने के बावजूद यह मर्द न बन सका । भरपूर मर्द।
हर महीने में शूलों की सेज चढ़ती। रिजल्ट के नैगेटिव होने के बारे में सुनते ही मेरा मन खुशी से भर उठता परन्तु मैं अपनी इस आंतरिक खुशी को चेहरे पर जाहिर न होने देती । मैं संजू का अंतर्मन पढ़ने की कोशिश करती , मुझे अनुभव होता , जैसे उसने भी चैन की सांस ली हो । बाकी परिवार का चेहरा ऐसे उतर जाता , जैसे किसी निकट आत्मीय के दाह संस्कार से वापस आये हो । मैं हर महीने रिजल्ट नैगेटिव होने की प्रार्थना करती , परन्तु प्रार्थना हर बार तो नहीं सुनी जाती ... ।
वह दिन मेरे लिये मरण समान था , जिस दिन लैबोरेटरी टेस्ट के नतीजे पौजेटिवं आ गये । आखिर डॉ . मनीषा की लगातार पाँच महीने की कोशिशों के बाद ससुर का बीज मेरी कोख में जा टिका था । सारे परिवार की खुशी का ठिकाना ना रहा । सभी एक - दूसरे को बधाई देने लेने लगे । खुशी के वेग में मेरी भावनाओं की परवाह ही किसे थी । मेरा मन घबराता । जी चाहता कोख में टिके बीज को उल्टियाँ कर - कर के ही बाहर निकाल दूँ । मैं गले में अंगुलियाँ डालकर उल्टी करने की कोशिश करती , परन्तु कहाँ ... ? गले में से तो पीला सा पानी ही बाहर आता।
डॉ . मनीषा के पास निरन्तर चैकअप चलता रहा । स्कैनिंग रिपोर्ट आने पर सबसे अधिक खुशी ससुर को हुई । "बच्चे की ग्रोथ तो ठीक हो रही है ...?"
ससुर खुशी से बताता । मुझे सुनाई देता जैसे 'मेरे बच्चे'कहा हो । ससुर घर में फ्रूट और सूखे मेवे अधिक लाने लगे । अपनी धर्म - पत्नी के द्वारा वह मुझे अधिक से अधिक फ्रूट खाने की चेतावनी देने लगे,
"संजू की माँ , निम्मर से कहो , वह फल ज्यादा खाया करे । इसी के लिये ही तो लाया हूँ।"
कई बार तो सीधे मुझसे ही मुखातिब हो कहने लगते, '"निम्मर, फल खाना तुम्हारे लिये बेहद जरूरी है। दूध भी पीया करो । कैल्शियम और आयरन बच्चे की ग्रोथ के लिये बहुत जरूरी है । खाने - पीने में लापरवाही ना बरतना । कुछ भी खाने का मन हो , बता देना। ऐसे समय में एहतियात बहुत जरूरी है।" ससुर की आवाज़ में अधिकार साफ झलकता । सुनकर मेरा सिर चकराने लगता।
संजू ऐसा कुछ भी क्यों नहीं कहता ?
ससुर का व्यवहार दिनों - दिन बदलने लगा था । पहले वह मुझे'निम्मर बेटा या निम्मर पुतर'कहा करता था , परन्तु अब सिर्फ'निम्मर'ही कहता ।'पुत्तर या बेटा'मुँह में ही भींच लेता । रसोई में आने बहाने मेरे पास मंडराने लगता।
"पापा , आप रूम में बैठो आराम से काम मैं खुद कर लूँगी।"
खींझकर मैंने एक दिन कह ही दिया । माथे पर त्यौरी चढ़ाये वह कमरे में जा बैठा । कई दिनों तक घरवालों से घुटा - घुटा सा रहा । घर में फ्रूट न आया । फिर कुछ दिन बीतने पर सब सामान्य हो गया । घर में फिर से ताज़ा और महंगा फ्रूट आने लगा ।
सास का रवैया समझ से बाहर होने लगा ।'बेटा - बेटा'करने वाली और मेरे गर्भवती होने की प्रार्थना करने और मंदिरों - गुरूद्वारों की दहलीज़ों पर माथा घिसाने वाली सास अब बाघिन बन खाने को दौड़ने लगी । मेरे साथ जिद करने लगी । संजू ने तो मुझे पहले ही दिन से कभी कोई सूट इत्यादि नहीं लेकर दिया था । मुझे भी अब पहनने - ओढ़ने का चाव नहीं रह गया था । परन्तु अब जब कभी अपनी मर्जी का सूट मेरे लिये ले आते तो सास जल - भुन कर कोयला हो जाती । उसे तब तक सबर न आता जब तक मुझसे महंगा सूट न ले आये । अब उसे मेरे हर काम में दोष नजर आने लगा । बात - बात पर टोकती । मेरा उठना - बैठना , बोलना - चलना उसे अच्छा न लगता । अब मेरी बनाई हर सब्जी में उसे नमक - मिर्च अधिक लगने लगा । मेरे धुले कपड़ों में से मैल नजर आता । कपड़े प्रैस करती तो सिलवटें निकली हुई न लगती । क्रीज ठीक न बैठी लगती। फ़र्श पर लगाया झाडू - फटका पसंद न आता । मेरी चाय बेस्वाद लगती । काम - धंधे से थोड़ा फुरसत पा टी.वी देखने के लिये स्विच ऑन कर बैठती तो नसीहतें देने लगती।
'घर में तुम्हारे पापा जी बैठे हैं । टी.वी. देखना अच्छा लगता है क्या ?'मैं मन ही मन हँसती।'पापाजी'शब्द मेरे गले में अटकने लगता । मैं आवाज एकदम तेज कर टी.वी. बंद कर देती । सास अंदर बैठी कितनी देर तक कुढ़ती रहती । मुझे लगता वह मेरे साथ अपने नये बन रहे रिश्ते को लेकर अंदर ही अंदर उलझी रहती है ।
सास ही क्यों , मैं स्वयं भी इस परिवार के साथ अपने नये रिश्ते को लेकर उलझन में हूँ । हम सभी इस घर में रिश्तों के नये समीकरण बनाने और समझने में लगे हैं । मुझे लगता है कि जैसे ससुर को आँखें मेरी पीठ पर उग आयी हैं । मालूम नहीं इतनी नर्वस क्यों होने लगी हूँ । दूध फ्रिज़ की बजाये अलमारी में रख देती हूँ । रजाई तह लगा कर फ्रिज में रखने चल देती हूँ । चाय में नमक और दाल सब्जी में चीनी डाल देती हूँ । चप्पलें - जूते ट्रंक में रखने लगती हूँ । बाथरूम में नहाते समय तौलिया बाहर ही भूल जाती हूँ । गर्म पानी में ठंडा पानी मिलाना भूल जाती हूँ । गर्म - गर्म पानी से शरीर जलने लगता है । कई बार गर्म पानी के भुलावे में ठंडे पानी से ही नहा लेती हूं ।
'ध्यान मालूम नहीं कहाँ रहता है , महारानी का । हम तो ऐसा नहीं करते थे । ऐसे चलितर हमें नहीं आते थे।'सास मेरी बदहवासी को त्रिया - चत्रित कहती है । संजू समेत सारा परिवार मुझे फुटी आँख नहीं सुहाता । मुझे यूनिवर्सिटी के दिनों की क्लास फैलो प्रोमिला बार - बार याद आने लगती है,
'गमलों में लगे वृक्षों की जड़ें बहुत गहरी नहीं होती , इसलिये इन वृक्षों की उम्र भी अधिक नहीं होती । कई रिश्ते भी गमलों में लगे वृक्ष की ही तरह होते हैं ।"
प्रोमिला की इस बात का अर्थ भी समझ में नहीं आता था । यूनिवर्सिटी के दिनों की बात और थी , तब प्रोमिला की बात पर हम सिर्फ हंस देती थी ।
कई बार सोते समय मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे मेरी छातियाँ दूध उतर आने से अकड़ने लगी हो । फिर एक गुदगुदा सा बच्चा मेरी छाती से दूध चूसने लगता । धीरे - धीरे छातियाँ ढीली पड़ने लगती। मैं बच्चे को सहलाने लगती । आत्मा एक अजीब से सकून से भर जाती । फिर मालूम नहीं नफरत कहाँ से आ जाती। गोदी में पड़ा बच्चा सपोलिया सा लगने लगता। में बच्चे को उठा दूर फेंक देती। बच्चा चीख कर शांत हो जाता। मैं हड़बड़ाकर उठ बैठती। हाँठ और गला सूखे हुये लगते । जीभ टालू से चिपकी हुई । अंदर जैसे आग भड़कने लगती । बार - बार पानी पीने से भी प्यास है कि बुझती ही नहीं । जी चाहता है कि बहुत बड़ी सी बहती हुई नदी को एक साँस में पी जाऊँ । अक्सर सपने में ऐसा होता रहता । पानी की भरी नदी मेरे मेरे पास आ जाती । मैं पानी पीने के लिये अंजुरि भरने लगती तो नदी एकदम सूखी नजर आती । संजू शांत चित्त सोया रहता । मेरे अंदर उठे तूफान से एकदम बेखबर । मुझे उस पर बहुत गुस्सा आता।
फिर मैं सोचती , संजू शांत होने का सिर्फ दिखावा करता है । उसके अंतर्मन की टूटन को कोई नहीं समझ सकता। हर समय उखड़ा - उखड़ा रहता है । मेरा जी चाहता , मैं संजू को अपनी बाँहों में भरकर चूम लूं । आने वाले बच्चे के बारे में उससे बातें करूँ । मेरे उभरे हुए पेट पर कान लगाकर वह बच्चे की धड़कन सुने । उसके साथ तोतली भाषा में ऊल - जलूल बातें करे । मेरी सेहत के बारे में पूछे । बच्चे का नाम रखने के बारे में सुझाव दे । आने वाले दिनों को लेकर मेरे साथ बातें करे , परन्तु संजू .... संजू तो जैसे घर से गायब ही हो गया है । संजू के स्थान पर ससुर ही लल्लो - चप्पो करता रहता है । आने बहाने बात करने लगता है,
'निम्मर , बच्चे को कौन से स्कूल में डालने के बारे में सोचा है मेरा ख्याल है सेंट एनडरिन ठीक रहेगा । यहाँ पर दो ही स्कूल ठीक हैं । सेंट एनडरिन या फिर लेडी नाजिम। तेरा क्या ख़्याल है ?'
मुझे ससुर की यह बातें बेवकत , फालतू सी चुभने लगती । इसके साथ क्या सलाह करूँ ? यह बातें तो सिर्फ़ बच्चे के पिता से ही की जा सकती हैं । बच्चे के पिता के बारे में सोचते ही दिमाग में बने सारे समीकरण गड़बड़ा जाते हैं ।
'देख लेंगे ।'मैं संक्षेप - सा जवाब देती ताकि बात आगे न बढ़ सके । ससुर को मेरे संक्षिप्त जवाब से जैसे संतुष्टि नहीं होती । वह मेरे मुँह से'देख लेंगे'की बजाय'देख लेना'सुनने की ख्वाहिश रखने लगा है ।
'निम्मर , तुझे अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिये । संजू को तो जैसे तुम्हारी फ़िक्र ही नहीं । मालूम नहीं कहाँ खोया रहता है ? मुझे लगता है जैसे तेरी केयर ही न करता हो ।'
मुझे अनुभव हुआ , जैसे ससुर ने जानबूझकर ही संजू का जिक्र छेड़ा , सिर्फ यह जतलाने के लिये कि सारे घर में सिर्फ उसे ही मेरी फ़िक्र है।
'नहीं पा ....।' मेरी आवाज कहीं खो गयी है । सोचती रहती हूँ क्या जवाब दूं। सच बोलूं कि झूठ?
(अनुवाद : डॉ. जसविन्दर कौर बिन्द्रा)