बड़ा कौन है ? (कहानी) : हजारीप्रसाद द्विवेदी
Bada Kaun Hai ? (Hindi Story) : Hazari Prasad Dwivedi
बहुत दिन पहले की बात है, काशी में एक राजा राज्य किया करते थे । इनकी शिक्षा और स्वभाव, दोनों ही खूब अच्छे थे। प्रजा का यह अपनी संतान की तरह पालन करते थे । विचार करते समय किसी तरफ पक्षपात न करके ठीक-ठीक फैसला किया करते थे । क्रोध और लाभ में पड़कर कभी किसी का विचार न करते थे । उनका इस प्रकार का आचरण होने से ही उनके मंत्री भी अच्छे थे। वे भी किसी के साथ अन्याय नहीं करते थे। इससे राज्य की सभी प्रजा बड़ी प्रसन्न थी । जो लोग दूसरों के नाम पर झूठ-मूठ मामला - मुकद्दमा गढ़ा करते हैं, राज्य में नहीं दीख पड़ते थे । अदालत में मुकद्दमे नहीं आते थे। विचारक लोग सारा दिन चुपचाप बैठकर, कोई काम न पाकर शाम को उठ जाया करते। आदमियों के अभाव में अदालत खाली ही पड़ी रहती । राजा का राज्य इस प्रकार बिना किसी गोलमाल के खूब अच्छी तरह से चलने लगा। सभी राजा का गुण गा-गाकर राजा की जयजयकार मनाते ।
राजा ने एक दिन मन में सोचा - राज्य तो इस समय खूब अच्छी तरह चल रहा है, प्रजा सुखी है और देखता हूं, सभी हमारा गुणगान कर रहे हैं। पर, मुझे यह भी जानना चाहिए कि मेरे अंदर क्या दोष है ! दोष जानकर उसे दूर किया जायेगा। उन्होंने पहले राजमहल के आदमियों को बुलाकर पूछा, “यदि मुझसे कोई दोष हो तो तुम लोग साफ-साफ बता दो ।" किंतु उनके दोष की बात न कहकर सभी उनके गुण की ही बात कहने लगे । राजा ने सोचा कि शायद ये भय के कारण हमारा दोष नहीं बता रहे हैं। अच्छा, तो और लोगों से इसकी खबर ली जाये। फिर राजा अपने राजमहल के, शहर के, यहां तक कि देश के आदमियों से एक-एक करके अपना दोष पूछने लगे। किंतु किसी ने उनके दोष की बात न कही ।
राजा ने फिर भी सोचा कि संभवतः भय से ही ये लोग हमारा दोष नहीं बता रहे हैं । वे मंत्री के हाथ में राज्य देकर, वेश बदलकर एक रथ पर चढ़कर राज्य में निकल पड़े। उन्होंने सोचा था कि सारे राज्य में घूम-फिरकर देखेंगे कि हममें कोई दोष है या नहीं । घूमते-घूमते वे राज्य की अंतिम सीमा तक गये और खोज करने में कोई कसर न छोड़ी; पर किसी ने उनके दोष की बात नहीं की, बल्कि सबने गुण की ही प्रशंसा की। तब अपनी राजधानी की ओर रथ फिराने के लिए उन्होंने सारथी को हुक्म दिया। सारथी रथ लौटाकर ले चलने लगा।
इधर कोशल के राजा भी ठीक उसी तरह अपना दोष खोजने के लिए घूम रहे थे । वे बड़े धार्मिक राजा थे। कहीं पर किसी प्रकार का दोष अपने अंदर न पाकर वे भी अपनी राजधानी की ओर लौटे आ रहे थे। संयोग से इन दोनों राजाओं के रथ भिन्न दिशाओं से आकर ऐसी एक ढालू जगह पर आ गये, कि इधर-उधर से निकल जाने का कोई रास्ता नहीं रहा । किसी एक रथ को उलटा लौटाकर कुछ दूर हटा ले जाने के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं था। कोशलराज के सारथी ने काशीराज के सारथी से कहा, “तुम अपना रथ पीछे फिरा ले जाओ ।" उसने जवाब में कहा, “तुम अपना रथ घुमाओ, हमारे रथ में काशीराज हैं। कोशलराज के सारथी ने कहा, “हमारे रथ में कोशलराज हैं, तुम्हीं अपना रथ फिराओ ।" काशीराज के सारथी ने सोचा- ठीक ही तो है, ये भी तो एक राजा हैं। अब किसका रथ लौटाया जाय ? अच्छा, इनमें जिनकी उम्र कम है, उन्हीं का रथ फिराकर दूसरे का रास्ता साफ कर देना उचित होगा। उसने कहा, “तुम्हारे राजा की उम्र क्या है ?” जवाब मिलने पर मिलाकर देखा तो दोनों राजाओं की उम्र समान थी। फिर एक-एक करके राज्य, धन, बल और कुल पूछकर देखा गया कि कोई किसी से किसी बात में कम नहीं है, दोनों ही समान हैं । फिर काशीराज के सारथी ने सोचा कि इन दोनों में जो चरित्र में बड़े होंगे, उन्हीं का रथ आगे जायेगा । उसने कोशलराज के सारथी से पूछा, “तुम्हारे राजा का चरित्र कैसा है?” कोशलराज के सारथी ने कहा, “हमारे राजा बड़े अच्छे चरित्र के हैं, सुनो-
कठिनों के प्रति कठिन और मृदु के प्रति मृदुतर
साधुजनों में साधु, शठों के प्रति शठता-पर,
नीति यही कोशलनरेश की परम निपुण है ।
थोड़े में बतलाना उसका बहुत कठिन है ।
इस हेतु हटा अपना शकट मुझे राह तुम छोड़ दो !
कर शीघ्र कार्य हे मित्र, यह अपना हठ छोड़ दो !”
काशीराज के सारथी ने कहा, "क्यों भाई, तुमने कोशलराज के सभी गुण कह दिये ?" उसने कहा, “हां । ” काशीराज के सारथी ने कहा, “यदि ये ही सब गुण हैं तो अवगुण किसे कहते हैं ?” उसने जवाब दिया, "अच्छी बात है, ये अवगुण ही सही, तुम्हारे राजा के गुण क्या हैं ? हम भी तो सुनें !”
काशीराज के सारथी ने कहा, “सुनो, कहता हूं-
क्रोधी को कर प्रेम जीतते हैं काशीपति,
और दुष्ट को दिखा साधुता करते निजवश,
कृपण मनुज को दानवीरता से वश करते,
अद्वितीय हैं झूठ जीतने में सच के बल । "
यह सुनकर कोशलराज और उनका सारथी सोचने लगे कि सच ही तो है, जो बुराई का सामना बुराई से करे, वह बड़ा कैसे हो सकता है। बड़ा तो वही है जो दुष्ट के साथ भी अच्छा व्यवहार करे, और अपनी विनय से उसकी दुष्टता को जीत ले। यही सोचकर उन्होंने काशीराज के बड़प्पन की मन-ही-मन सराहना की। वे दोनों रथ से उतर गये । उन्होंने काशीराज को प्रणाम किया और अपने रथ को लौटाकर उनके रथ का रास्ता कर दिया। दोनों राजाओं में परस्पर बातें हुईं। फिर दोनों ही अपनी-अपनी राजधानी को चले गये ।