बाबा तिलका माँझी : (झारखण्ड लोक-कथा
Baba Tilka Manjhi : Lok-Katha (Jharkhand)
झारखंड का जंगलतरी क्षेत्र जंगल-पहाड़ से घिरा है। इसके उत्तर में भागलपुर, पूरब में मुर्शिदाबाद और बीरभूम, पश्चिम में मुंगेर और हजारीबाग तथा दक्षिण में धनबाद है। जंगलतरी का एक क्षेत्र राजमहल और साहेबगंज गंगा के किनारे बसा है।
‘दामिन’ के क्षेत्र में एक गाँव है तिलकपुर। तिलकपुर साहेबगंज जिले के राजमहल क्षेत्र में पड़ता है। यह गाँव पहाड़ों और जंगलों के बीच में बसा है। सन् 1750 में इसी गाँव में तिलका माँझी का जन्म हुआ था। उनकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं, इसलिए उनका नाम ‘तिलका’ पड़ा।
बालक तिलका बचपन से ही बड़ा होनहार था। शुरूसे ही वह सामान्य बच्चों से भिन्न और बहुत चंचल था। दौड़ने में बहुत तेज। देखते-ही-देखते ताड़ के पेड़ पर चढ़ जाता। परिवार वालों के लाख मना करने पर भी उसकी यह हरकत रुकी नहीं।
गाँव के माँझी बाबा कहने लगे, ‘हम लोग तो डर गए थे!’ तिलका ने पूछा, ‘क्यों?’ सब ने कहा, ‘हम लोगों को लगा कि कहीं तुम्हें जानवर तो उठाकर नहीं ले गया!’ तिलका ने शान से कहा, ‘जानवर हमको नहीं उठा सकता, दादू! जानवर को हम ही उठाकर ले आएँगे।’ तिलका की बहादुरी भरी बातों पर सभी हँसने लगे।
माँझी ने कहा, ‘यह लड़का एक दिन सब का नाम ऊँचा करेगा। तिलकापुर का नाम रोशन करेगा।’ माँ ने कहा, ‘काकू! इसको यही आशीर्वाद दीजिए कि यह बड़ा होकर एक भला इनसान बने। इसके गुस्से से तो हमको डर लगने लगा है।’
माँझी ने कहा, ‘इसका गुस्सा ज़िंदा रखना होगा, री बिटिया! यही गुस्सा एक दिन काम आएगा। देखो इसकी ललाट और आँखें। इसकी गुस्सैल आँखें देखकर तो सामने वालों की बोलती बंद हो जाएगी। इसका गुस्सा सकारात्मक है, बिटिया। इसे अन्याय बरदाश्त नहीं होगा। यह गुलामी स्वीकार नहीं करेगा। आजाद पंछी की तरह विचरण करेगा। तुम देख लेना, एक दिन यह सबका अगुआ बनेगा।’ तब तिलका 9-10 बरस का हो गया था।
जंगल में खेलते-घूमते, गाय-भैंस चराते तिलका बड़ा हो रहा था। अब निशाना साधना भी उसको आ गया था। गुलेल चलाने, ढेंलमांस घुमाने, तीर से निशाना साधने के अलावा तिलका बरछा-बल्लम भी घुमाने लगा था। बाँसुरी और तुरही बजाने में भी माहिर हो गया था।
नगाड़े पर जब चोट करता तो लोग उठ खड़े होते। माँदर जब बजाता तो औरत-मर्द थिरकने लगते। उसके गीत सुन लोग झूम उठते। गाँव और आस-पास के सभी लड़के-लड़कियाँ तिलका से हिल-मिल गए। एक दिन तिलका ने सभी लड़के-लड़कियों को बुलावा दिया। सभी एक टीले पर इकट्ठा हुए। तिलका ने कहा, ‘एक बात मेरे दिमाग में कब से दौड़ रही है। सोचा आज तुम सब को कह ही दूँ।’
सब ने कहा, ‘बोलो, बोलो तिलका!’
तिलका ने पूछा, ‘अच्छा, तुम सब बताओ, यह जंगल किसने बनाया?’
सभी ने कहा, ‘मरांगबुरू ने।’
फिर उसने पूछा, ‘यह जमीन किसने बनाई?’
फिर सभी ने दुहराया, ‘मरांगबुरू ने।’
‘ये नदी-पहाड़ और इनसान किसने बनाए?’
एक स्वर में उत्तर मिला, ‘मरांगबुरू ने।’
अब तिलका चुप हो गया। लड़कों ने पूछा, ‘तुम चुप क्यों हो गए?’
‘मैं सोच में पड़ गया हूँ। यही सवाल मेरे दिमाग में कौंध रहा है कि अगर सबकुछ मरांगबुरू ने बनाया तो यह सब हमारा हुआ कि नहीं?’
सब ने कहा, ‘हाँ-हाँ, सबका है।’
‘अगर सबका है तो फिर हमारे-तुम्हारे घरवाले मालगुजारी क्यों देते हैं घटवाल को? वह घटवाल यह मालगुजारी उठाकर ललमुँहे अँगरेजों को दे देता है। ऐसा क्यों हो रहा है?’
सभी चुप्प! सन्नाटा छा गया। फिर आपस में खुसुर-फुसुर होने लगी।
तिलका ने कहा, ‘इसके संबंध में गाँव के बूढ़े-बुजुर्गों से बात करनी होगी। जानना होगा ऐसा क्यों हो रहा है?’
इस बात का जवाब उस बूढ़े के पास नहीं था। बैठक में सन्नाटा छा गया। सभी चुप्प! कुछ देर बाद माँझी ने कहा, ‘हमारे बाप-दादा तो किसी को लगान नहीं देते थे। जब से अँगरेज कंपनी बहादुर आया तब से यह लगान शुरूहुआ है।’
तिलका ने कहा, ‘क्या कंपनी बहादुर ने इसकी सेवा की है? क्या उसने इसे काट-छाँटकर खेती लायक बनाया है? अगर नहीं तो कंपनी बहादुर होता कौन है लगान लेनेवाला?’ सभी तिलका का मुँह ताकने लगे।
तिलका ने कहना शुरूकिया, ‘जब मरांगबुरू ने हम लोगों को जमीन दी। बाप-दादों ने इसे कोड़-काड़कर खेती लायक बनाया, तो फिर हम लोग लगान क्यों देते हैं? नहीं देना चाहिए न?’
सब ने समवेत स्वर में कहा, ‘हाँ-हाँ, नहीं देना चाहिए। अब हम आगे से लगान नहीं देंगे।’
फिर तिलका ने कहा, ‘अगर यह बात पक्की है तो एक दिन घटवाल को बुलाया जाए। उससे भी पूछेंगे कि लगान लेनेवाले वे होते कौन हैं? यह भी कह दिया जाए कि आगे से हम सब कोई लगान नहीं देंगे।’
‘मेरे मन में यह नया सवाल दौड़ने लगा है कि हमारा समाज इतनी मेहनत करता है। जानवर की तरह खटता है। फिर भी हमको भरपेट भोजन नहीं मिलता है, लेकिन जो कम मेहनत करता है, वह मजे में है। ऐसा क्यों? महाजन पसीना नहीं बहाता, फिर भी मस्ती में रहता है। दिनोदिन उसका मकान बड़े से बड़ा होता जाता है। हमारे मकान पर फूस भी ठीक से नहीं। ऐसा क्यों?’
सभा में सन्नाटा छा गया। सभी अवाक् थे। फुसफुसाहट होने लगी। यह तिलका क्या सोचता रहता है! कभी कहता है, जंगल हमारा है, जमीन हमारी है। लगान नहीं देना है। कानून नहीं मानना है। अभी कह रहा है कि महाजन कैसे बढ़ रहा है? हमसब गरीब क्यों हैं? हमारे छप्परों पर ठीक से फूस भी नहीं है? सभी आश्चर्यचकित थे तिलका की बुद्धि पर। उसकी सोच-समझ पर।
लंबी चुप्पी के बाद तिलका ने खुद मौन तोड़ा। कहने लगा, ‘यह हमारी किस्मत का दोष नहीं है और न भगवान् ने ऐसा बनाया है। यह उस व्यवस्था का दोष है, जो हम पर थोप दी गई है। हमारी उन आदतों का दोष है, जिनके हम सब गुलाम हो गए हैं।’
तिलका ने पूछा, ‘इस सभा में कितने लोग हैं जो दारू पीते हैं? जरा हाथ उठाइए!’ कुछ को छोड़ लगभग सब ने हाथ उठा दिए।
तिलका ने कहा, ‘अच्छा बताइए, दारू किससे बनता है?’
सब ने कहा, ‘मातकोम (महुआ) से।’
‘महाजन दारू बनाता है, बेचवाता है। हम सब पीते हैं। खेत बंधक रखते हैं महाजन के यहाँ। सारी उपज महाजनों के यहाँ जाती है। तो हम सब गरीब नहीं बनेंगे तो कौन बनेगा—महाजन?
‘महाजन तो हमको लूटकर अमीर बन रहा है। हमको दारू पिलाकर नशेबाज बना रहा है और यह बात फैला रहा है कि हम सब (पहाड़िया और संथाल) निकम्मे हैं, कामचोर हैं। क्या संथाल-पहाड़िया कामचोर हैं? या महाजन चोर है? लुटेरा है?’
‘महाजनों से लड़ना है। उसके शोषण से लड़ना है। अँगरेजी शासन से लड़ना है, उसके अत्याचार से लड़ना है और तीसरा अपनी आदतों से लड़ना है। तीनों लड़ाई साथ-साथ लड़नी पड़ेंगी। तभी कुछ होगा। तभी हमारा समाज सुख-चैन से जी सकेगा। तभी हमारे गाँव की जमीन हमारे गाँव समुदाय के हाथ में रहेगी। तभी जंगल बचेगा और हमारी संस्कृति मजबूत होगी।’ इधर तिलका ने अपने आंदोलन को विस्तार देना शुरू किया।
अब तिलका के आंदोलन को कुचलने की योजना बनाई जाने लगी। तिलका को कैसे गिरफ्तार किया जाए? इसकी व्यूह रचना अगस्टस क्लीवलैंड ने शुरू कर दी। तिलका जंगलतरी के चप्पे-चप्पे से परिचित था। सो उसने छापामारी युद्ध शुरू कर दिया। तिलका की गुरिल्ला युद्ध नीति से अँगरेजी सैनिक परेशान हो उठे। दर्जनों सैनिक हताहत भी हुए।
क्लीवलैंड अब आपे से बाहर हो चुका था। वह अपने नेतृत्व में खुद सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी लेकर 13 जनवरी, 1884 को राजमहल की पहाड़ियों में घुसा। कुछ पहाड़िया और संताल सैनिक भी साथ थे। इन आदिवासी सैनिकों को जंगलतरी और पहाड़ों-कंदराओं की अच्छी जानकारी थी। तिलका की युद्धनीति से भी वे सब थोड़ा-बहुत परिचित थे।
एक घाटी से गुजरती हुई सैनिकों की टुकड़ी पर तीन तरफ से तिलका के लड़ाकों ने धावा बोल दिया। क्लीवलैंड की सेना में भगदड़ मच गई। इसी बीच तिलका, जो एक ताड़ पेड़ पर चढ़कर बैठे थे, ने क्लीवलैंड पर तीर बरसाने शुरू कर दिए। तिलका का निशाना सही बैठा और अगस्टस क्लीवलैंड घायल होकर गिर गया। उसका इलाज चला, परंतु वह स्वस्थ नहीं हो सका और बीमारी की हालत में ही मर गया।
एक दिन तिलका अपने लड़ाकों के साथ पहाड़ी की तराई में सुस्ता रहे थे। मीठी धूप के कारण अधिकांश लोगों को झपकी आने लगी थी। भेदिए ने इसका फायदा उठाया और कैप्टन आयरकूट को इसकी सूचना दे दी। अँगरेजों की टुकड़ी ने चारों तरफ से तिलका की टुकड़ी को घेर लिया। अलसाई टुकड़ी जब तक सजग होती तब तक सब घिर चुके थे।
इस बार तिलका को घात लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया। चार घोड़ों से उसको घसीटकर भागलपुर लाया गया। बड़ी संख्या में लोग भागलपुर के एक चौक पर इकट्ठा हो गए। यहीं एक बड़ा बरगद का पेड़ था। उसी पेड़ से लटकाकर तिलका को सार्वजनिक रूप से फाँसी दे दी गई। कहते हैं कि अँगरेजी सेना इतनी डरी हुई थी कि फाँसी के बाद तिलका की लाश तक को भी नहीं बख्शा। अँगरेज सैनिकों ने गोली से उनकी लाश को छलनी कर दिया। भागलपुर में वह चौक आज ‘तिलका माँझी चौक’ कहलाता है। आदि विद्रोही तिलका बाबा शहीद हो गए, लेकिन आज भी उनकी आवाज पूरे झारखंड में गूँज रही है, ‘यह जमीन मरांगबुरू की देन है। इस पर किसी की मिल्कियत नहीं हो सकती। कोई इस पर लगान नहीं ले सकता।’