Baba Noordin (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

बाबा नूरदीन (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

15. बाबा नूरदीन
काल : १३०० ई०

1.

"वह समय खतम हो गया, जब हम हिन्द को दुधार गाय से बढ़कर नहीं समझते थे और किसानों, कारीगरों, बनियों और राजाओं से ज्यादा-से-ज्यादा धन जमाकर गोर भेजते या खुद मौज उड़ाते। अब हम गोर के गुलाम नहीं, हिन्द के स्वतंत्र खिलजी शासक हैं।" एक छरहरे जवान ने अपनी काली दाढ़ी के ऊपरी पूँछ की पतली स्याही पर अँगुलियाँ चलाते हुए कहा, उसके सामने एक सफेद लम्बी दाढ़ी, बड़ा अमामा (पगड़ी), सफेद अचकन पहने कोई शान्त, संभ्रान्त चेहरे का आदमी घुटने टेके बैठा था।

बूढे ने कहा-"लेकिन जहाँपनाह ! यदि पटेलों, मुखियों, इलाके - दारों को छेड़ा जायेगा, तो वह बिगड़ जायेंगे और सल्तनत के गाँव-गाँव में हम अपनी पल्टने मालगुजारी वसूल करने के लिए भेज नहीं सकते।

"पहले इस बात को आप तय कर डालिए, कि आप हिन्दी बनकर हिन्द के शासक रहना चाहते हैं, या हीरा-मोती से ऊँटों और खच्चरों को भरकर ले जाने वाले गजनी गोर के लुटेरे ?"

"अब हमें हिन्द में रहना है जहाँपनाह !"

"हाँ, गुलामों की तरह हमारी जड़ गोर में नहीं, दिल्ली में है। यदि कोई विद्रोह, कोई अशान्ति होगी तो न हमें अरब, अफगानिस्तान से सेना मिलने वाली है और न ही भागकर वहाँ टिकने का ठौर है।"

"यह मानता हूँ जहाँपनाह !"

"तो अब हमें इस घर में रहना है, इसीलिए इसे ठीक करना होगा, जिसमें यहाँ के लोग सुखी और शान्त रहें। यहाँ की प्रजा में कितने मुसलमान हैं ? सौ वर्ष में दिल्ली के आस-पास को भी हम मुसलमान नहीं बना सके। कहिए मुल्ला अबू मुहम्मद ! आप कितने दिनों में आशा करते हैं, सारी दिल्ली और इस दयार को मुसलमान बना देखने की ?"

सामने बैठे तीसरे वृद्ध ने दाँतों के बिना भीतर घुसे ओंठों के नीचे नाभि तक लटकती सफेद दाढ़ी के बालों को ठीक करते हुए कहा-"मैं निराश नहीं हूँ, सुल्ताने-जमाना ! किन्तु इस अस्सी वर्ष के बूढे का तजरबा है कि यदि हम जबरदस्ती मुसलमान बनाना चाहेंगे, तो मुझे कभी उम्मीद नहीं कि हम उसमें पूरी तौर पर सफल होंगे।"

"इसलिए, हम हिन्द में बस जाने वाले मुसलमान उस दिन तक के लिए इन्तजार नहीं कर सकते; जब सारा हिन्दू मुसलमान हो जायगा। हमने एक सदी यों ही पूँवा दी और अपनी प्रजा का कुछ भी ख्याल न कर सिर्फ अपने भूमिकर, चुंगी, महसूल को ज्यादा से ज्यादा वसूल करना चाहा। परिणाम देखा। शाही खजाने में एक रुपया आता है, तो पाँच चले जाते हैं तहसील करने वालों के पेट में। दुनिया के किसी मुल्क में देखा है कि गाँव के मुखिया, पटेल घोड़ों पर सवार हो निकलें, रेशमी लिबास पहनें, ईरान की बनी कमान से तीर चलाएँ। नहीं, वजीरुल्मुल्क ! मेरी सल्तनत में अब इस तरह की लूट बंद करनी होगी।"

"लेकिन हुजूरेवाला ! कितने ही हिन्दू इस लालच से भी मुसलमान होते थे ! अब यह भी रास्ता बंद हो जायेगा।" - मुल्ला ने कहा।

"इस्लाम इस तरह की लूट और रिश्वत अगर क़बूल करता है, तो सरकारी खजाने और सरकारी माल की भी खैरियत नहीं; और जिस हुकूमत के ऐसे खिदमतगार हों, उसके लिए क्या उम्मीद की जा सकती है।"

"ऐसों से सल्तनत के पाये मजबूत नहीं हो सकते-जहाँपनाह ! यह मानना पड़ेगा। मुझे ख्याल था सिर्फ बद्-अमनी का" वजीर ने कहा।

"गाँव के अमले चाहेंगे, वैसा करना यदि उनका बस चलेगा। किन्तु गाँव में अमले ज्यादा होते हैं या किसान ?"

"किसान ! सौ पर एक कोई अमला पड़ता होगा।"

"उन्हीं सौ किसानों का खून चूसकर वह घोड़े पर सवार हो सकता है, रेशमी लिबास पहन सकता है और ईरानी कमान से तीर चला सकता है। इस तरह की खून-चुसाई बन्द करा हम किसानों की हालत बेहतर बनायेंगे। उन्हें हुकूमत का वफादार बनायेंगे। क्या एक के नाराज करने से सौ को खुश करना और खुशहाल देखना अच्छा नहीं है ?"

"जरूर है, हुजूरेवाला ! मुझे भी अब शक नहीं रहा। यद्यपि हिन्दुस्तान के मुसलमानों, सुल्तानों में आप एक नई बात करने जा रहे हैं, किन्तु कामयाबी होगी। इससे सिर्फ गाँवों के ऊपरी श्रेणी के कुछ लोगों को हम नाराज कर लेंगे।"

"गाँवों और शहरों को ऊँची श्रेणी के कुछ लोगों के नाराज होने कीपरवाह नहीं। अब थोड़े दिनों के लिए बनी झोपड़ी की जगह हमें शासन की मजबूत इमारत की बुनियाद रखनी होगी।"

मुल्ला कुछ सोच रहा था। उसने दाढ़ी पर हाथ करते हुए फिर कहा-"हुजूरेवाला ! अब मैं भी समझता हूँ कि गाँव के आमिलों की जगह गाँवों के सारे किसानों की बेहतरी का ख्याल करना हुकूमत के लिए ज्यादा लाभदायक साबित होगा। हमने गाँवों-कस्बों के कपड़े के कारीगरों की ओर थोड़ी निगाह की; उनकी पंचायतों के मजबूत करने में सहायता दी, जिससे वे बनिये महाजनों की लूट से बचें। बेगार में हर एक अमला उनसे कपड़े बनवाता, रुई धुनवाता था, इसे रोका, और आज इसका यह परिणाम देख रहे हैं कि रुई धुनने वाले, कपड़ा बुनने-सीने वाले मुश्किल से कोई होंगे, जो इस्लाम की साया में न आ गये हों ।"

"अब आपने देखा, मुल्ला साहिब ! जो बात सल्तनत के लिए भली है, वह इस्लाम के लिए भी भली है।"

"लेकिन एक बात की अर्ज है, जहाँपनाह ! आप अमीरुल्मोमिनीन (मुसलमानों के नायक) हैं..."

"साथ ही मैं हिन्दुओं का सुल्तान हूँ। हिन्द में मुसलमानों की संख्या बहुत कम है, शायद हजार में एक ।"

"हिन्दू इस्लाम की तौहीन करते फिरते हैं। आगे उनका हौसला और बढ़ सकता है। तौहीन बन्द होनी चाहिए !"

"तौहीन ? क्या कुरान-पाक को पैरों तले रौंदते हैं ?"

"इतनी हिम्मत कहाँ हो सकती है ?"

"क्या मस्जिदों को नापाक करते हैं ?"

"यह भी नहीं हो सकता।"

"क्या रसूल-खुदा को सरे- बाजार गालियाँ सुनाते हैं ?"

"नहीं जहाँपनाह ! बल्कि, जो हमारे सूफियों के संसर्ग में आये हैं, वे तो रसूल-खुदा को भी ऋषि मानते हैं। लेकिन, वे हमारे सामने कुफ्र की रस्में अदा करते हैं।"

"जब उन्हें आप काफिर मानते हैं, तो कुफ्र की रस्म के लिए शिकायत क्यों ? मेरे चचा सुल्तान जलालुद्दीन मेरी तरह तय नहीं कर पाया था, कि उन्हें अपने को स्थायी हिन्द-शासक समझना चाहिए, या जब तक सारा हिन्द मुसलमान न हो जाय, तब तक के लिए अस्थायी। किन्तु उन्होंने एक बार आपकी तरह के प्रश्नकर्ता को क्या जवाब दिया था, मालूम है ?"

"नहीं हुजूरेवाला !"

"कहा था-'बेवकूफ, तू देखता नहीं कि हिन्दू रोजाना मेरे महल के सामने शंख बजाते और ढोल पीटते हुए यमुना किनारे अपनी मूर्तियों को पूजने जाते हैं। वे मेरी आँखों के सामने अपनी कुफ्र की रस्में मनाते हैं। मेरी और मेरे शाही रौब की हतक करते हैं। मेरे दीन के दुश्मन (हिन्दू) हैं, जो मेरी राजधानी में मेरी आँखों के सामने ऐशो-इशरत और शान-शौकत से जिन्दगी बसर कर रहे हैं, और दौलत और खुशहाली के कारण मुसलमानों के साथ अपनी शान और घमंड को जाहिर करते हैं। शर्म है मेरे लिए मैं उनको उनकी ऐशो -इशरत और फख्र-व-गरूर में छोड़े हुए हूँ। और थोड़े से तिनकों पर सब्र किये हूँ जो कि वे खैरात के तौर पर मुझे दे। देते हैं।' समझता हूँ, मैं इससे बेहतर जवाब मैं भी नहीं दे सकता।"

"लेकिन सुल्ताने-जमाँ ! सुल्तान को इस्लामी फर्ज भी है।"

"जिसने ऐसा कसूर किया है, जिसकी सजा मौत है, उसे इस्लाम की शरण में आने पर मैं जीने की इजाजत दे सकता हूँ। जो गुलाम हैं और इस्लाम लाता है, उसे गुलामी से मुक्त होने का हुक्म दे सकता हूँ, लेकिन खरीद की कीमत शाही खजाने से देकर; नहीं तो इस मुल्क में करोड़ों-करोड़ रुपये गुलामों पर लगे हैं और सभी गुलामों की आजादी के लिए तो आप कह भी नहीं सकते ?"

"नहीं जहाँपनाह ! गुलाम रखना तो अल्लाहताला ने भी जायज फर्माया है।"

"नहीं, यदि आप कहें तो तख्त को खतरे में डाल मैं मुस्लिम, गैर-मुस्लिम सभी दास-दासियों को आजाद करने का फर्मान निकाल देता हूँ।"

"नहीं! यह शरीअत के खिलाफ होगा।"

"शरीअत के खिलाफ होने की बात को छोड़ें, मुल्ला साहब ! इस वक्त आपका ध्यान होगा किसी अमीना दासी पर। सबसे ज्यादा गुलाम तो हैं मुसलमानों के घरों में।"

"और अल्लाहताला ने मोमिनों के लिए उन्हें जायज ठहराया है।"

"लेकिन यदि दास-दासियाँ भी मोमिन हैं ? फिर तो हुआ न कि आप उन्हें इस दुनिया की आजाद हवा में साँस लेने देना नहीं चाहते और सिर्फ बहिश्त की उम्मीद पर रखना चाहते हैं !"

"मुझे और कहना नहीं है। इस्लामी सल्तनत में इस्लामी शरीअत का शासन होना चाहिये, बस मैं इतना ही कहना चाहता हूँ।"

"लेकिन यह चाहना थोड़ा नहीं है। इसके लिए इस्लामी सल्तनत की अधिकांश प्रजा को मुसलमान होना चाहिए। आप लोगों के सामने-वजीर साहब ! आप भी सुनें-मैं अपने विचारों को साफ रख देना चाहता हूँ। सुल्तान महमूद जैसा एक विदेशी सुल्तान अपनी जबरदस्त विदेशी सेना के साथ शान्तिपूर्ण शहरों को लूट, लूट के माल को ऊँटों, खच्चरों पर लाद भले ही ले जा सकता था, लेकिन वही बात बाल-बच्चों के साथ दिल्ली में बस जाने वाले मेरे जैसे आदमी के बूते की नहीं है। हमारी हुकूमत कायम है हिन्दू-प्रजा की लगान पर, हिन्दू सिपाहियों और सेनानायकों पर-मेरा सेनापति मलिक हिन्दू है, चित्तौड़ का राजा मेरे लिए पाँच हजार सेना का सेनानायक है।"

"लेकिन जहाँपनाह ! गुलाम सुल्तान भी तो दिल्ली ही में रहते थे।"

"आप हिचकिचाएँ मत, मुझे चंचल और गुस्सैल कहा जाता है। किन्तु यह सब विरोधी विचारों को सुनने से मुझे रोक नहीं सकते। गुलामों की हुकूमत चिड़ियाँ रैन बसेरा थी । मंगोलों के तूफान से हिन्दुस्तान की इस्लामिक सल्तनत बाल-बाल बची है। हिन्दुओं को पता न था कि मंगोलों-जैसा दुश्मन मुसलमानों ने कभी देखा नहीं, नहीं तो जरा भी उन्होंने मंगोलों को शह दी होती, तो हिन्द की सरज़मीन में नया लगा इस्लाम का पौधा ठहर नहीं सकता था। जानते हैं न चंगेज का खानदान दुनिया की सबसे बड़ी सल्तनत चीन पर हुकूमत कर रहा है?"

"जानता हूँ, हुजूरेवाला !' मुल्ला ने कहा।।

"और वह खानदान समनिया मजहब को मानता है।"

"समनिया ! उनके बहुत से मठों-मन्दिरों के जला देने, बर्बाद कर देने पर भी, अभी यह मजहब, कुफ्र का साकार स्वरूप हिन्द की सरजमीन से उठा नहीं।"

"कुफ्र का साकार स्वरूप वही क्यों ?"

"जहाँपनाह ! हिन्दुओं-ब्राह्मणों-के मजहब में, तो सिरजनहार अल्लाह का ख्याल भी है, किन्तु समनिया तो उससे बिल्कुल इन्कार करते हैं।"

"चंगेज का खानदान आज नहीं उसके पोते कुबले खान के जमाने से ही अपने को समानों का मुरीद मानता है। यही नहीं खुद चंगेज की फौज के मंगोलों में बहुत से समनी सिपहसालार तथा सैनिक थे। बुखारा, समरकंद, बलख आदि इस्लामी दुनिया के शहरों को मुसलमानों की सभ्यता के समस्त केन्द्रों को उन्होंने चुन-चुनकर तबाह कर डाला। उन्होंने हमारी औरतों को बिना ऊँचे-नीचे घराने का ख्याल किये आम तौर से दासी बनाया। बच्चों को बेदर्दी से कत्ल किया। इन सब जुल्मों के प्रोत्साहन देने वाले वही समनी मंगोल थे। वह कहते थे, अरबों ने हमारे विहारों को बर्बाद किया, हमारे नगरों को जलाया, हमारे बच्चों को मारा; हमें उसका बदला लेना है। ख्याल कीजिए, यदि मंगोल कहीं हिन्दी समनियों (बौद्धों) से मिलकर हिन्दुओं को अपनी ओर खींचने में सफल होते, तो इस्लाम की क्या हालत हुई होती ?"

"बर्बादी होती, जहाँपनाह !"

"इसलिए हमें बालू की रेत पर अपने राज्य की नींव नहीं रखनी है, हम गुलामों की नकल नहीं कर सकते।"

वजीर अब तक चुप था, अब उसने मुँह खोला-"लेकिन सरकार आली ! गाँव के अमलों की ताकत कमजोर होने पर सल्तनत कैसे वहाँ तक पहुँचेगी ?"

"जब रेशम पहनने वाले, घोड़ों पर चलने वाले अमले थे, तब कैसे काम चलता था—आपको मालूम है ?"

"मैंने इसकी खोज नहीं की।"

"मैंने खोज की है। जब शासकों ने अपने को लुटेरों-जैसा समझा तब उन्होंने लूटने वाले अमले नियुक्त किये। ऐसा सब समय सब जगह होता है। उससे पहले हर गाँव में पंचायत होती थी, जो गाँव की सिंचाई लड़ाई-झगड़े से लेकर सरकार को लगान देने तक का सारा प्रबन्ध स्वयं करती थी। राजा को गाँव के किसी एक व्यक्ति से कोई काम न था। वह सिर्फ पंचायत से वास्ता रखता था।समझता था कि लगान देने वाले किसान और उसके बीच संबंध स्थापित करने के लिए यही पंचायतें हैं।"

"तो जहाँपनाह ! सौ बरस से मरी इन पंचायतों को फिर से हमें जिलाना होगा।"

"और दूसरा चारा नहीं। यदि इस्लामी सल्तनत को इस देश में मजबूत करना चाहते हैं, तो प्रजा को सुखी और संतुष्ट रखने की हर प्रकार से कोशिश करनी होगी ! उसके लिए हमें अपनी हिन्दू-प्रजा के रीति-रिवाज, कानून - कायदे का ख्याल रखना होगा, दिल्ली की सल्तनत में इस्लामी शरीअत (कानून) नहीं, सुल्तानी शरीअत बर्ती जायेगी। इस्लाम का प्रचार मुल्लों का काम है, उन्हें हम वजीफे दे सकते हैं। सूफियों का काम है और वह बहुत अच्छी तरह कर रहे हैं, उनकी खानकाहों (मठों) को हम नकद या सरकारी लगान (माफी) दे सकते हैं।"

2.

वर्षा बीत चुकी थी; किन्तु अभी भी ताल-तलैयों में पानी भरा हुआ था। बड़ी-बड़ी मेंड़ों से घिरे धान के खेतों में पानी भरा हुआ था, जिसमें धान के हरे-हरे पूँजे लहरा रहे थे। चारों ओर दूर तक फैली मगध की हरी-हरी क्यारियों के बीच हिल्सा (पटना) का बड़ा गाँव था; जिसमें कुछ व्यापारियों के ईंटें के पक्के मकान थे, बाकी किसानों और कारीगरों के फूस या खपडै़ल के। इनके अतिरिक्त कुछ ब्राह्मणों के घर थे, जो उनसे कुछ बेहतर अवस्था में थे। हिल्सा के मन्दिरों को सौ वर्ष पहले मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी की सेना ने ही ध्वस्त कर डाला था, और उसके बाद उनके खंडहरों में ही हिन्दू जहाँ-तहाँ पूजा कर लेते थे। गाँव के पश्चिमी छोर पर बौद्धों का मठ था; जिसका प्रतिमागृह तो टूट-फूट गया था, किन्तु घर अब भी आबाद थे। मठ के भीतर घुसकर उसके निवासियों को देखकर कोई नहीं कह सकता था, कि बौद्ध-भिक्षु उसे छोड़कर चले गये हैं।

उस दिन शाम के वक्त मठ के बाहर के पत्थर के छोटे चबूतरे पर एक अधेड़ पुरुष बैठा था। उसके शरीर पर पीला काषाय था। उसका सिर और भौंहें घुटी हुई थीं। पूँछ-दाड़ी के बाल बहुत छोटे हफ्ते भर की बनी हुई थी। उसके हाथ में काठ की माला थी। आश्विन की पूर्णिमा का दिन था, गाँव के नर-नारी खाना, कपड़ा तथा दूसरी चीजें लाकर काषायधारी पुरुष के सामने रख (चढ़ा) कर हाथ जोड़ रहे थे। पुरुष हाथ उठा स्मित मुख से उन्हें आशीर्वाद दे रहा था।

यह क्या है ? हिल्सा का पुराना बौद्ध मठ तो नष्ट हो गया ? हाँ, किन्तु श्रद्धा मठों से बाहर भक्तों के दिलों में हुआ करती है। आज हिल्सा के काषायधारी बाबा को देख क्या बौद्ध-भिक्षु छोड़ और कुछ कह सकते हैं ? वह अविवाहित है, यही नहीं, उसके चार पहले के गुरु भी अविवाहित काषायधारी थे। हिन्दू-या बौद्ध-से मुसलमान बने दस- पाँच कारीगर घरों में इसे खानकाह कहकर पुकारा जाता है, ब्राह्मण और कुछ बनिये भी इसे मठ नहीं कहते; किन्तु बाकी गाँव के लिए यह अब भी यह विचार-मठ-है। उसके बाबा की पहले भी जात-पाँत न होती थी और इन नये बाबों की भी जात नहीं है। उन्हीं की भाँति यह भी काषाय पहनते, अविवाहित रहते हैं; और बीमार होने पर यही लोगों के भूतों को झाड़ते हैं, मरण और शोक के समय यही अलख निरंजन-निर्वाण का उपदेश दे सान्त्वना प्रदान करते हैं। । इसीलिए आज शरत् पूनों की प्रावारणा के दिन लोग पहले की भाँति इन मुस्लिम भिक्षुओं को भी पूजा चढ़ा रहे हैं। और कारीगर मुसलमान जैसे पहले उन बौद्ध भिक्षुओं को अपना पूज्य गुरु मानते थे, उसी तरह अब अपने बाबा और उनके काषायधारी चेलों को मानते हैं।

खानकाह के पुराने महन्तों (पीरों) की समाधियों (कब्रों) की वन्दना कर गाँव वाले धीरे-धीरे चले गये। रात के बीतने के साथ दूध-सी चाँदनी चारों ओर छिटक गई। उसी वक्त कारीगर-घरों की ओट से दो आदमियों के साथ कोई आँगन की ओर आता दिखाई पड़ा। नजदीक आने पर बाबा ने मौलवी अबुल-अलाई को पहचाना। उनके सिर पर सफेद अमामा, शरीर पर लम्बा चोगा, पैरों में जूतों से ऊपर पायजामा था। उनकी काली दाढी हवा के हलके झोंके से हिल रही थी। बाबा ने खड़े हो दोनों हाथों को बढ़ाते हुए मधुर स्वर में कहा-

"आइये मौलाना अबुल-अलाई । अस्सलाम-अलैक ।"

बाबा मौलाना के सिकुड़ते हाथों को अपने हाथों में ले उनके बगलगीर हुए। मौलाना ने भी बेमन से 'वालेकुम-स्सलाम' किया। बाबा ने नंगे चबूतरे के पास जाकर कहा- "हमारा तख्त यही नंगा पत्थर है. तशरीफ रखिये।"

मौलाना के बैठ जाने पर बाबा भी बैठ गये। बात पहले मौलाना ने ही शुरू की !

"शाह साहेब ! जब यहाँ काफिरों की भीड़ लगी थी, तो मैंने ठहर कर देखा था, इस तमाशे को ।"

"तमाशा भले ही कहें, मौलाना ! किन्तु काफिर न कहें, नूर के कलेजे में इससे तीर लगता है।"

"यह हिन्दू काफिर नहीं तो और कौन हैं?"

"सभी में वही नूर समाया हुआ है, नूर और कुफ्र, रोशनी और अँधेरी की तरह एक जगह नहीं रह सकते।"

"तुम्हारा यह सारा तसव्वुफ (वेदान्त) इस्लाम नहीं, गुमराहियत है।"

"हम आप के ख्यालों को गुमराहियत नहीं कहते, हम 'नदिया एक, घाट बहुतेरे' के मानने वाले हैं। अच्छा आप सभी इन्सानों को खुदा के बच्चे मानते हैं या नहीं ?"

"हाँ मानता हूँ।"

"और यह भी कि वह मालिक सर्व-शक्तिमान् है।"

"हाँ।"

"मौलाना ! मेरे उन सर्व-शाक्तिमान् मालिक के हुक्म के बिना जब पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो हम और आप अल्लाह के इन सारे बच्चों को काफिर कहने वाले कौन ? अल्लाह चाहता तो सबको एक रास्ते पर चलाता। नहीं चाहता है, इसका मतलब है, सभी रास्ते उसे पसन्द हैं।"

"शाह साहब ! मुझे न सुनाइये तसव्वुफ की झूठों को ।"

"लेकिन मौलाना ! यह तो मैंने इस्लाम के ही दृष्टिकोण से कहा। हम सूफी तो अल्लाह और बन्दे में फर्क नहीं मानते। हमारा कल्मा (महामंत्र) तो है ‘अन-ल-हक्’ (मैं सत्यदेव हैं). हम-ओ-स्त (सब वही ब्रह्म है) ।"

"यह कुफ्र है।"

"आप ऐसा ख्याल करते हैं, पहले भी कितने ही लोगों ने ऐसा ख्याल किया था; किन्तु सूफियों ने अपनी शहादत-खून-से इस सत्य पर मुहर लगाई और आगे भी जरूरत पड़ने पर हम मुहर लगायेंगे।"

"आप लोगों की वजह से इस्लाम यहाँ फैलने नहीं पाता।"

"हमने तुम्हारी आग और तलवार को दिल से बुरा जरूर समझा; किन्तु, हाथ से नहीं रोका, फिर आपने कितनी सफलता पाई ?"

"आप लोग उनके धर्म को सत्य बतलाते हैं।"

"हाँ, क्योंकि महान् सत्य को कुल्हिया में बन्द करने की ताकत हम अपने में नहीं पाते। यदि इस्लाम अपने शहीदों के कारण सच्चा है, यदि तसव्वुफ अपने शम्सो-मंसूरों की शहादत से सच्चा है, तो हिन्दुओं ने भी तुम्हारी तलवारों के नीचे हँसते-हँसते गर्दन रख हिन्दू-मार्ग को सच्चा साबित किया है।"

"हिन्दू-मार्ग और सच्चा ! हिन्दू का मार्ग पूरब का, हमारा पच्छिम का, बिल्कुल उलटा।"

"इतना उलटा होता तो क्यों आज शाम को गाँव के इन किसानों ने मुसलमान मठ की पूजा की ? आप मुसलमानों में हिन्दूपन की गंधमात्र नहीं देखना चाहते, मौलाना ?"

"हाँ, नहीं रखना होगा।"

"तो हमारी सधवा मुसलमानिनों का सिन्दूर तो जाकर धुलवाइये।"

"धुलवायेंगे।"

बाबा ने हँसकर कहा-"सिन्दूर धुलवायेंगे जीते जी। जुम्मन ! बताओ बेटा ! क्या तुम्हारी सलीमा मान लेगी इसे ।"

"नहीं बाबा ! मौलवी साहब को मालूम नहीं है। सिन्दूर विधवा का धोया जाता है।" पास ही खड़े जुम्मन ने कहा।

बाबा ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा-"क्षमा करना मौलवी अबुल-अलाई ! हम सूफी न किसी सुल्तान के टुकडों पर यहाँ आकर बसे, न किसी अमीर के दान पर। हम कफनी और लँगोटी पहनकर आये। किसी हिन्दू ने हमारे ऊपर तलवार नहीं उठाई। इसी खानकाह को ले लीजिये, यह पहले समनियों का विहार था। मेरे पाँचवें दादा गुरु समनी(बौद्ध) फकीरों के चेले थे। बनावटी नहीं, वह बुखारा से आये थे और उनके तसव्वुफ़ से खिंचकर चेला बने थे। तसव्वुफ़ सब जगह एक है, बाहरी चोले से उसका झगड़ा नहीं, वह चोला समनी का भी हो सकता है, हिन्दू का भी, मुसलमान को भी। हमारे उन गुरु के बाद यह खानकाह मुसलमान नाम रखने वाले फकीरों की है। हमने चोला बदलने पर जोर नहीं दिया, हमने प्रेम सिखलाया, जिसका फल देख रहे हैं, गाँव-गाँव में हमसे घृणा रखने वालों की कमी । पंडितों ने जड़ता दिखाई, वह प्रेम के पंथ को नहीं पहचान सके, जैसे आप लोग नहीं पहचान सके, उसी से जुम्मन के बाप-दादों को हिन्दू नहीं, मुसलमान नाम रखना पड़ा, और अब उनके यहाँ आप की भी खातिर होती है।"

3.

चैत का मास बीत चुका था। जिन वृक्षों में नये-नये पत्ते लगने वाले थे, लग चुके थे। आम अबकी साल अच्छा आया था; इसलिए उसके पुराने ही पत्ते रह गये थे। उनके नीचे खलिहान लगे हुए थे, जहाँ दोपहर की गर्मी और हवा में भी किसान दँवरी कर रहे थे। उसी वक्त कोई मुसाफिर थका और धूप से पसीने-पसीने उन्हीं खलिहानों में एक वृक्ष के नीचे आ बैठा। मंगल चौधरी ने उसकी शक्ल-सूरत से परदेशी मुसाफिर समझ, पास आकर कहा-"राम-राम भाई ! इस धूप में चलना बड़ी हिम्मत का काम है।"

"राम-राम भाई । लेकिन जिसको चलना होता है, उसे धूप-ठंडा थोड़े ही देखना पड़ता है।"

"पानी पियो भाई ! मुँह सूखा मालूम होता है। घड़े में ठंडा पानी रखा है।"

"कौन बिरादरी हो ?"

"अहीर, मंगल चौधरी मेरा नाम है।"

"चौधरी ! लोटा-डोरी मेरे पास है। मैं ब्राह्मण हूँ। कुआँ बता दो।"

"कहो तो अपने लौंडे से मँगवा हूँ, पंडितजी ।

"थका हुआ हूँ, मँगवा दो चौधरी।"

"बेटा घीसा ! इधर आइयो तो।" बुला, मंगल चौधरी ने दँवरी रुकवा बेटे को गुड़ की डली के साथ कुएँ से ताजा पानी भर लाने के लिए कहा।

मुसाफिर ने पूछकर मालूम किया-दिल्ली अभी बीस कोस है, इसलिए आज नहीं पहुँच सकता ।

मंगल चौधरी हँसने-हँसाने वाले जीव थे ! चुप रहना उनके लिए सबसे मुश्किल काम था।

चौधरी ने कहा-"हमारे यहाँ इस साल तो भगवान् की कृपा से फसल बहुत अच्छी हुई। बैसाख में खलिहान उठाना मुश्किल होगा। पंडितजी ! तुम्हारे यहाँ फसल का कैसा डौल है?"

"फसल बुरी नहीं है, चौधरी !"

"राजा अच्छा होता है, तो देवता भी खुश होते हैं, पंडितजी ! जबसे नया सुल्तान तख्त पर बैठा है, तब से प्रजा बड़ी खुशहाल है।"

"क्या ऐसी बात देखते हो, चौधरी ?"

"अरे ! एक तो यही खलिहान के गंज देख रहे हो। दो वर्ष पहले आते तो देखते इनके चौथाई भी नहीं होते।"

"सुतर गया है, चौधरी।"

"सुतर गया है, किन्तु सुल्तान की नीयत की बरक्कत है, पंडितजी ! पहले हम किसान नंगे-भूखे डोलते थे और धीके.. रेशम- तंजेब पहन घोड़े पर चलते थे। गेहूँ बित्ते भर का भी नहीं होने पाता था कि उनके घोड़े हमारे खेतों में आ जमते थे। कौन बोलता ?हमारे गामडों के तो यही सुल्तान थे।"

इसी समय मंगल चौधरी की भाँति ही घुटनों तक की धोती, बदन पर एक मैली चौबन्दी, सिर पर चिकन टोपी पहने दूसरा चौधरी आ गया और बीच ही में बोल उठा-"और चौधरी ! अब देखते नहीं, सारी शान कहाँ चली गई ? अब बेटे दानों-दानों के मुहताज फिर रहे हैं। मुझसे कह रहा था वह बाभनका-क्या, नाम है चौधरी ?"

"सिब्बा।"

"अब न सिब्बा कहते हो, उस वक्त तो पंडित शिवराम था। कह रहा था-चौधरी छेदाराम ? दो मन गेहूँ देना पैसा हाथ में आते ही दाम दे दूँगा। मुँह पर नहीं करना तो मुश्किल है - लेकिन मुझे याद है, जब वह बाभन का सीधी बात भी नहीं करता था। 'अबे छिद्दे' छोड़, कोई दूसरी बात उसके मुख से नहीं सुनी।"

"और अब तुम हो चौधरी छेदाराम और मैं चौधरी मंगलराम। मंगल और छिद्दे से ढाई वर्षों में हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये।"

"मैं कहूँगा चौधरी ! वह सुल्तान की दया है, नहीं तो हम सब छिद्दे और मंगे ही बने रहते ।"

"यही तो मैं कह रहा था, इन पंडितजी से।"

"न हमारी यह पंचायत लौटकर मिली होती, न हमारे दिन लौटते ।"

"चौधरी मंगलराम ! तुम हाथ से कलम नहीं पकड़ सकते; किन्तु तुम गाँव के सरपंच हो; कैसे सब काम चला लेते हो ? अमला तो अमला, ये बनिये एक रुपये में दो रुपये का अनाज उठा ले जाते थे। जेठ भी नहीं बीतता था और घर में चूहे डंड पेलने लगते थे।"

"हम तो यही कहते हैं, हमारा सुल्तान लाख बरस जीता रहे।"

यात्री ब्राह्मण इन उजड्ड अहीरों की तारीफ सुन-सुनकर कुढ़ रहा था और कुछ बोलने का मौका ढूंढ़ रहा था। गुड़ खा, पानी पी लेने के बाद वह और उतावला हो गया था वह चौधरियों की बात न खतम होते देख बीच ही में बोल उठा-"सुल्तान अलाउद्दीन ने पंचायत आप लोगों को दी.."

"हाँ पंडत ! तेरे मुँह में घी-शक्कर; लेकिन पंडत ! न जाने किसने हमारे सुल्तान का नाम अलाभदीन रख दिया। हम तो अपने गाँव में अब उसे लाभदीन कहते हैं।"

"चौधरी, तुम कोई नाम रक्खो। लेकिन, जानते हो, सुल्तान ने हिन्दुओं पर कितना जुल्म ढाया है?"

"हमारी अहीरियाँ तो चादर भी नहीं लेतीं, ऐसे ही छाती उतान कर खेत-हार में रात-दिन घूमती हैं। उन्हें तो कोई उड़ा नहीं ले जाता?"

"इज्जत वाले घरों की इज्जत बिगाड़ते हैं।"

"तो पंडत ! हम बेइज्जत वाले हैं, और कौन है सौरा इज्जत वाला ?"

"तुम तो गाली देते हो, चौधरी मंगलराम !"

"लेकिन पंडत ! तुम्हें मालूम होना चाहिए कि जबसे हमारी पंचायत लौटी, तब से हमारी इज्जत भी लौट आई। अब हम जानते हैं, आमिल-अमले कैसे इज्जतदार बने थे। हिन्दू-हिन्दू, मुसलमान-मुसलमान कहते हैं। जो भी आमिल-अमले हुए, सब एक ही रंग में रँगे थे और फिर वह होते थे ज्यादातर हिन्दू ।"

चौधरी छेदाराम ने कोई बात छूटती देखकर कहा-"और हम लोगों से कहते हैं, हिन्दू-मुसलमान-दोनों दो। देखा नहीं चौधरी ! अपने को हिन्दू ब्राह्मण कहने वाले यह अपनी स्त्रियों को सात पर्दे की बेगम बनाते जा रहे हैं।"

"हाँ, चौधरी ! मेरे दादा कहते थे, उन्होंने कन्नौज और दिल्ली की रानियों को नंगे मुँह घोड़े पर चढ़े देखा था।"

ब्राह्मण ने कहा-"लेकिन चौधरी ! उस वक्त कोई मुसलमान हमारी इज्जत लूटने वाला न था।"

"आज भी हमारी इज्जत हार-खेत में डोलती फिरती है, कोई उसे नहीं लूटता।"

"और लुटती भी थी, तो चौधरी मंगलराम ! जब इस ब्राह्मण की -सिब्बे की चली थी।"

"मुफ्त की खाने वाले एक-दूसरे की इज्जत लूटना छोड़ और क्या करेंगे? यह हिन्दू-मुसलमानों का सवाल नहीं, पंडत ! यह मुफ्तखोरों का काम है। पक्के हिन्दू हम हैं, पंडत ! हमारी औरतें कभी सात पर्दे में नहीं रहेंगी।"

ब्राह्मण ने फिर एक बार साहस करके कहा-"अरे चौधरी ! तुम्हें पता नहीं, सुल्तान के सेनापति मलिक काफूर ने दक्खिन में जो हमारे मन्दर तोड़े, देव-मूर्तियों को पाँव-तले रौंदा।"

"हमने बहुत सुना है, पंडत ! एक बार नहीं, हजार बार-मुसलमानी राज में हिन्दू का धर्म नहीं। लेकिन, हम दिल्ली के बहुत नजदीक रहते हैं, पंडत ! नहीं तो हम भी विश्वास कर लेते। हमारे बीस कोस में न तो कोई मन्दर तोड़ा गया, न देवताओं को पाँव के नीचे दबाया गया ।"

"चौधरी मंगलराम ! यह बिल्कुल झूठ है, तुम तो मुझसे भी ज्यादा दिल्ली आते-जाते रहे हो। मैं कितनी ही बार दशहरा देखने दिल्ली गया। हूँ। कितना भारी मेला होता है-आधी से ज्यादा औरतें होती हैं। हिन्दू का मेला, मेले वाले भी ज्यादातर हिन्दू देवताओं को सजाकर सुल्तान के झरोखे के नीचे से ले जाते हैं, सब शंख, नगाड़ा, नरसिंहा बजाते हैं।"

"हाँ, झूठ है, चौधरी छेदाराम ! सेठ निक्कामल महल के सौ गज पर ही एक बड़ा मन्दर बनवा रहे हैं। और न जाने कितने लाख लगेंगे, मैंने पिछली बार पत्थर गिरा देखा, अबकी बारी देखा तो दीवार कमर भर उठ आई है। यदि सुल्तान को तोड़ना होता, तो अपनी आँखों के सामने क्यों मन्दर खड़ा होने देता ?"

"हाँ, चौधरी ! राजाओं -राजाओं में लड़ाई होती हैं। लड़ाई में कौन किसको पूछता है। कुछ हो गया होगा, उसी को लेकर हल्ला करते हैं। सौ वर्ष पहले हमारे और पास में ऐसी बातें हुई थीं; लेकिन अब कहीं कुछ सुनने में आता है ?"

"याद है, हम कई गाँवों के आदमी जब हाकिम के पड़ाव पर गये थे, उसने कहा था-पहले के सुल्तान चिड़िया-रैन-बसेरा वाले थे, हमारा सुल्तान लाभदीन हमारे घर में, दुःख-सुख में साथ रहने वाला सुल्तान है; इसलिए वह प्रजा को लूटता नहीं, खुशहाल देखना चाहता है।"

"और अब चाहने की बात नहीं, लोग-बाग चारों ओर खुशहाल दीखते हैं।"

4.

दिल्ली के बाहर सुनसान कब्रस्तान था, जिसके पास कुछ नीम और इमली के दरख़्त थे। अगहन की रातें सर्द थीं। लकड़ी की आग के पास दो फकीर बैठे थे जिनमें एक हमारे परिचित बाबा नूरदीन थे। दूसरे फकीर ने अपनी सफेद दाढ़ी और मूंछों पर दोनों हाथों को फेरते हुए कहा-

"बाबा ! पाँच बरस में फिर हरियाने में दूध की नदियाँ बहने लगी हैं।"

"ठीक कहा, बाबा ज्ञानदीन ! अब किसानों के चेहरे हरे-भरे दिखलाई पड़ते हैं।"

"बाबा ! जब खेत हरे होते हैं, तभी चेहरे भी हरे होते हैं।"

"आमिल-अमले तो गये, ये बनिया-महाजन और मर जाते, तो चैन की बंशी बजती ।"

"बहुत लूटते हैं। और, इनके ये बड़े-बड़े मठ, बड़े-बड़े मन्दर- सदाव्रत तो इसी लूट से चल रहे हैं।"

"कहते हैं, धनी नहीं रहने से धर्म नहीं चलेगा। मैं कहता हूँ जब तक धनी रहेंगे तब तक अधर्म का पलड़ा भारी रहेगा।"

"ज्ञानी-ध्यानी, पीर-पैगम्बर, ऋषि-मुनि से बढ़कर धर्म पर चलने वाला कौन होगा ? लेकिन, उनके पास एक कमली, एक कफनी से बेशी क्या था ?"

"इन्सान भाई-भाई नहीं बन सकते जब तक गरीबों की कमाई से पलने वाले अमीर हैं। और सुल्तान भी मित्र ज्ञानदीन ! आदमी-आदमी में फूट डालने वाले, यही इकट्ठी सिमटी माया है; किन्तु उसकी शान-शौकत भी तो नहीं चले, अगर कमेरों की कमाई न नोचे ?"

"उन दिनों की उम्मीद रखें, लिहाजा जब सभी गोरख-धन्धे मिट जायेंगे और पृथ्वी पर प्रेम का राज्य कायम होगा।"

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