बात मरनेवाले की : अख्तर मुहीउद्दीन (कश्मीरी कहानी)

Baat Marnewale Ki : Akhtar Mohiuddin (Kashmiri Story)

ये बच्चे तो नहीं थे, पर दौड़ने से इनकी साँस फूल गई थी। प्रत्येक की यही कोशिश थी कि वह दूसरों को पीछे छोड़कर सबसे पहले मेरे पास पहुँचे। भागम-भाग में इन्होंने एक-दूसरे के पाँव कुचले थे। किसी-किसी को ठोकर भी लगी थी और उँगलियाँ लहूलुहान हो गई थीं। सभी मेरे कमरे में घुसे, कोई पहले और कोई बाद में और घुसते ही चिल्लाने लगे--"आपको वही और सिर्फ वही लिखना होगा, जो मैं कहूँगा, क्योंकि वही और सिर्फ वही सच है।"

मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने आँखें झुका लीं। देखकर सब चुप हो गए। उन्होंने शायद मेरे माथे पर पड़े बल भी देखे होंगे।

आखिर मैंने स्वयं एक व्यक्ति से पूछा, “कहो भाई, क्या बात है?” वह खुश हुआ। उसे शायद एहसास हुआ कि अब उसी की बात दस्तावेज बनेगी। दम साधकर और फिर साँस छोड़कर वह धीरे-धीरे बोलने लगा। जैसे बोलने से पहले शब्दों को तौल रहा हो, “लोगों की मत मारी गई है। इतनी दौलत हाथ लगी है कि आँखें होने के बावजूद उन्हें कुछ नहीं दिखता है। सड़क पर चलते नहीं, उसे रौंदते हैं। जाने कौन जहन्नुमी था? जाने कहाँ से खटारा कार मिली थी, जिसे वह बेहिसाब दौड़ा रहा था। मैं पहले ही जानता था कि वह कोई अनर्थ कर डालेगा और हुआ भी वही। गली से एक बच्चा बाहर आया। बिल्कुल नव-प्रस्फुटित कली-सा। और उसे ही कुचल डाला इस जहन्नुमी कारवाले ने।"
सुनकर मुझे जाने क्या हो गया और मुँह से अचानक चीख-सी निकल पड़ी, “क्या कहा?"

उसने कहा, “और कह ही क्या रहा हूँ? यह बच्चा कार के नीचे आ गया। लोग कहते हैं अपनी माँ का इकलौता बेटा था। मर गया। बेचारा मर गया।”

यह कहकर उसने ठंडी साँस भरी। शायद उसकी आँखों से आँसू भी बह रहे थे। चूँकि वह अचानक उठ खड़ा हुआ और मेरे कमरे से बाहर चला गया, इसलिए मैं ठीक से उसकी आँखें देख नहीं सका। हाँ, मैंने दूसरे व्यक्ति की ओर नजर डाली--यह देखने के लिए कि उस पर भी मेरी तरह कोई असर हुआ है या नहीं! मगर वह अपनी घनी मूँछों की ओट में मंद-मंद मुसकरा रहा था। मैं उसकी मुसकराहट का मतलब समझने की कोशिश ही कर रहा था कि वह बोल उठा, “सब बकवास करते हैं। बात सिर्फ इतनी है कि आबादी बढ़ गई है। आप नहीं देखते कि चौक में ही कितने लोग होते हैं! आबादी बढ़ने के कारण ही आदमी की कोई कद्र नहीं रही है। माताओं की लातों से उनके ही बच्चे कुचले जाते हैं। महँगाई की मार में बड़े परिवार को कैसे पाल सकती हैं, सो भी आज की माँएँ! कारवाला ठीक से सीधी सड़क पर जा रहा था। कोई गलत काम तो नहीं कर रहा था। अचानक एक बच्चा गली से दौड़ता हुआ आया। क्या पता माँ ही लाठी लेकर पिटाई करने के लिए पीछा कर रही हो! आफत की आँखें ही कहाँ होती हैं? कारवाले ने ब्रेक लगाई, लेकिन लगा नहीं। आखिर मशीन ही ठहरी। बचाने की बहुत कोशिश की बेचारे कारवाले ने मगर बेसुध। बच्चा पहियों के नीचे आ गया। कोई यह नहीं सोचता कि जरा उसकी माँ से पूछे कि अगर तुझे इस बच्चे की जरूरत नहीं थी तो इसकी मौत बेचारे कारवाले के मत्थे क्यों मढ़ी? हजरत, कहें क्या? जमाना बहुत खराब हो गया है।”

उसने कहा और कुछ इस तरह सिर झटककर बाहर निकला, जैसे जमाना खराब करने में मेरा भी हाथ हो! मैंने उससे कहना चाहा--मेरे भाई, जमाना जरूर खराब है, पर मेरे किए नहीं है। .. मगर उसने मुझे यह कहने के लिए भी समय नहीं दिया। इस तरह बाहर चला गया, जैसे मेरे यहा... तशरीफ लाकर उसने मेरी सात पीढ़ियों पर एहसान किया हो, या यह भी हो सकता है कि भागमभाग में उसके पैर का अँगूठा ही कट गया हो और उससे खून बह रहा हो।

“बस बोलते जाते हैं। न कुछ जानते हैं, न कुछ करते हैं।” यह तीसरा बोल रहा था। ऐसे बोल रहा था, जैसे अपने साथ ही बात कर रहा हो। नजरें नीची किए हुए। थोड़ा-सा खखारकर उसने मेरी ओर देखा और फिर बात आगे बढ़ाई, “हमारे एडमिनिस्ट्रेशन में बहुत ज्यादा करप्शन है, साहब। इसके रहते आप मोटरवाले या बच्चेवाली माँ पर क्या लांछन लगाएँगे? किसी का कोई दोष नहीं है। दोष है तो बस एडमिनिस्ट्रेशन का। यहाँ किसी भी अधिकारी की कोई भी जिम्मेदारी नहीं है। जब ऐसी दुर्घटना होगी तो आप किसे पकड़ेंगे, कैसे पकड़ेंगें? साफ बात है कि मोटरवाला सीधी सड़क पर अपनी मोटर चला रहा था। नहीं चलाता मोटर? क्या मोटर के आगे इंजन के बदले घोड़ा जोतता? या मोटर को सड़क पर नहीं, किसी मैदान में ले जाकर चलाता? बच्चा गली से दौड़ता निकला। बच्चा जो ठहरा, दौड़ेगा ही। उसकी माँ ने उससे थोड़े ही कहा था कि बेटा दौड़कर जा और मोटर के नीचे आ जा! अरे साहब, दौड़ना बच्चे की वृत्ति है। अब आप पूछेंगे कि दोष किसका है? आखिर एक हत्या हो गई, सो क्या अकारण हो गई? नहीं साहब! दोष है और म्यूनिसिपैलिटी का है। वहाँ ब्लाइंड कॉर्नर था। मोटरवाले को गली नहीं दिखी और बच्चे को मोटर नजर नहीं आई। एक्सीडेंट नहीं होता तो क्या गुलाब खिलता? मगर कौन पूछता है म्यूनिसिपैलिटीवालों से? खैर, हमें क्या है? हमने अपनी जिंदगी गुजार दी है।” यह कहकर वह इस अंदाज से चला, जैसे मेरे कमरे से निकलकर सीधा कब्र में जाकर इत्मीनान से लेटेगा और सोचेगा कि अब जो होगा सो होगा, उसे कुछ नहीं होगा।

चौथे ने कहा, “देख लिया? यह था एक और बतक्कड़ लाल बुझक्कड़। म्यूनिसिपैलिटी! अबे ओ म्यूनिसिपैलिटी क्या करती? ब्लाइंड कॉर्नर कई जगह होते हैं, पर हर जगह एक्सीडेंट नहीं होते हैं। साहब, मैंने खुद देखा है। विदेशों में भी ब्लाइंड कॉर्नर होते हैं, लेकिन वहाँ इंतजाम भी होता है। वहाँ के इंतजाम के क्या कहने! हमारे यहाँ इतनी पुलिस है कि हर प्राणी के पीछे नकीर- मुनकीर की तरह दो-दो जने लगे हैं। दो ही क्‍यों! ज्यादा भी हो सकते हैं। मगर कायदा? न अफसरों में अक्ल, न जवानों में काम करने का शौक। बस सभी का सारा ध्यान सिर्फ अपनी- अपनी जेब की तरफ। क्या ही अच्छा होता, अगर वहाँ ट्रैफिक पुलिस का एक सिपाही होता! कार के देखते ही वह हाथ उठाकर उसे धीरे-धीरे चलने का इशारा करता। दूसरा हाथ उठाकर बच्चे को गली के मुहाने पर ही रोकता। न कारवाले से चूक होती, न बच्चा ही मरता। वह अपनी माँ का इकलौता बेटा था या ग्यारहवाँ? क्‍या फर्क पड़ता है उससे? क्‍यों साहब, मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा? सारा कुसूर ट्रैफिक पुलिस का है। मेरी राय है कि इस मामले में हमें अपना जोरदार विरोध प्रकट करना चाहिए।"

इतना कहकर वह कुछ इस प्रकार कमरे से निकला कि मुझे लगा, वह तुरंत चौक में जाकर पुलिस के खिलाफ लेक्चर झाड़ेगा। इधर मेरे समीप बैठा पाँचवाँ व्यक्ति हुक्के की तरफ हाथ बढ़ाता हुआ मुझसे कह रहा था, “इन मूर्खों की बातें दर्ज करते-करते हाथ थक गए होंगे आपके!”

यह कहकर उसने अजीब तरह से सिर हिलाया। चिलम बाएँ हाथ से थामी, जो उसने फिरन के दामन से बाहर निकाला था, “मैं हैरान हूँ कि इनकी अक्ल को हो क्‍या गया है? अरे भाई, बात तो बिल्कुल सीधी है। एक पत्ता भी उसकी मरजी के बिना हिल नहीं सकता, जिसने यह सारी दुनिया पैदा की है। उस बच्चे की तकदीर में इतना ही दाना-पानी था, इसलिए यह सब होना ही था। दोष न कारवाले का है और न ही बच्चे की माँ का। म्यूनिसिपैलिटी या पुलिस भी कुछ नहीं कर सकती थी। करनेवाला बस वही है और रहनेवाला भी बस उसी का नाम है।”

इतना कहकर वह तंबाकू पीने लगा। छठा व्यक्ति भी कुछ कहना चाहता था। मगर जब उसने देखा कि पाँचवाँ व्यक्ति उठने का नाम ही नहीं ले रहा है तो वह चुप रहा। शायद वह अपनी बात बाद में कहेगा।

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