बाल-वसंत : मैथिली लोक कथा
Baal-Vasant : Maithili Lok-Katha in Hindi
प्राचीन कालीन मिथिला के किसी गाँव में एक किसान रहता था। उसके सात बेटे थे। सबसे छोटे बेटे की शादी सदियों से बाढ़ , अति वृष्टि ,अनावृष्टि आदि प्रकोप झेलते हुए अत्यंत निर्धन परिवार में हुई थी। दुल्हन जब ब्याह कर ससुराल आई तो एकदम खाली हाथ ,न कोई दहेज और न तन पर ही कोई गहने या ढंग के कपड़े लत्ते। उसकी इस स्थिति का परिवार की स्त्रियों ने खूब मज़ाक उड़ाना प्रारम्भ कर दिया था ।
गुण से भरी वह कन्या जी जन से सबकी सेवा ,करने सब को खुश रखने के दुष्कर कार्य में लग गई। मगर अन्न पानी से परिपूर्ण घर में उसकी निर्दोषिता अपराध साबित होने लगी। नैहर दरिद्र होने के कारण मात्र से सास उस बहू को फूटी आँख से भी नहीं देखना चाहती थी। पूरे दिन उसे घर का भांति भांति का काम करवाती रहती। बीस पचीस लोगों की रसोई बनाने के बाद ,गौशाले के गाय भैंसों के गोबर साफ करने होते थे। उन गोबरों के ढेरों के उपले बनाने होते थे। देखते देखते सुबह का निकला सूरज अपनी घर वापसी की तैयारी में ढलान पर आ गया होता। तब उसे भोजन के समय बड़े ही कटु वचनों और अनेक गालियों ,उलाहनों के साथ बचा खुचा रूखा सूखा परोसा जाता था।
ऐसी ही दिनचर्या में समय व्यतीत करते हुए छोटी बहू जब पहली बार गर्भवती हुई ,तब उसे अच्छे अच्छे,स्वादिष्ट भोजनों की तीव्र अभिलाषा जागृत होने लगी। भोजन बनाते समय भी सास वहीं बैठी रहती और उसे कुछ भी मन लायक खाने क्या देखने तक नहीं देती थी।
जब उससे रहा नहीं गया, तब एक रात के एकांत में अपने पति से बड़ी मिन्नतें करते हुए कहा, “ प्रिय! मुझे खीर पूड़ी खाने का बहुत मन कर रहा है। आप कुछ उपाय करिए”। पति को अपनी पत्नी से प्यार था ही ,उसने उसकी बातें ध्यान से सुनी। उसे पूरा भरोसा दिया कि वह उसकी जरूर मदद करेगा।
दूसरे दिन सुबह उठाते ही उसने ,ओसारे पर बैठी अपनी माँ से कहा , “ मां ! मैं खेत पर काम करने जा रहा हूँ। आज मेरे लिए खूब बढ़िया खीर और पूड़ी बना कर रामपुर वाली[ जिसका नाम मालती था ] के हाथों खेत पर भेज दीजिएगा”।
उसकी माँ बहुत तेज और चालाक महिला थी ,साथ ही परम शंकालू भी। वह तुरत समझ गई कि अपनी स्त्री के खाने के लिए यह सब मांगा जा रहा है।क्रोध से उसका सर्वांग जल उठा था। मगर करती क्या ,दुनिया के सामने तो वह अपनी छोटी बहू को अनाथ ,अभागिन ,बेचारी आदि कह कह कर खुद को दयावान माँ साबित करती रहती थी। इसलिए मन मार कर , मालती से सब भोजन बनवाया। खीर पूड़ी तैयार होने के बाद ,उसने उसे एक बड़े से कटोरे में रख कर लाल गमछे से अच्छी तरह बांध दिया। उसके हाथों भोजन भेजते समय उसने मालती के जिह्वा पर कोयले से कुछ लिख दिया ,और चेतावनी भी दे दी ,कि वापस आते समय भी यह सब उसके जीभ पर लिखा रहना चाहिए। नहीं तो उसकी नाक और झोंटा {केश} काट कर उसे उसके दरिद्र नैहर में भीषण दुख पाने के लिए छोड़ दिया जाएगा।
खीर पूड़ी का लाल कपड़े में बंधा गठरी अपने सिर पर लिए वह अत्यंत उमंग और उल्लास के साथ खेत पर पहुंची। उसके पति उसे दूर से ही देख कर बहुत प्रसन्न लग रहा था। उसने अपना हल एक ओर हटा कर और बैलों को पानी पिला कर एक पेड़ के छाए में बांध दिया। ,पास बहती नदी की धारा में हाथ मुंह धोया। फिर एक विशाल और प्राचीन पीपल वृक्ष की छाँव में बैठ कर बड़े अधीर होकर पोटली खोली । वाह! एक पूड़ी निकाल कर आधा उसने खाई और आधा ,पत्नी की ओर बढ़ाया। वहीं साथ में बैठी पत्नी ने बड़ी उदास होकर कहा “ कैसे खाऊँ ! सासु माँ ने तो मेरे जीभ पर कुछ लिख दिया है। कुछ खाने से वह मिट जाएगी और जग जाहिर हो जाएगी कि यह सब प्रपंच आप ने मेरे खाने के लिए ही किया था। फिर मुझे अपमानित कर नैहर भेज दिया जाएगा ”।
समझदार पति ने वस्तुस्थिति को भाँपते हुए कहा, “तब ठीक है , इस खीर पूड़ी को कहीं छुपा कर रख दो ,जब घर में माँ तसल्ली से देख लेंगी ,फिर किसी बहाने से यहाँ आकर खा लेना”।
रामपुर वाली ने ऐसा ही किया था। उसने उसी पेड़ के एक गड्डे में खीर पूड़ी छुपा दिया। पति को खिला पिला कर वापस घर आई। सास ने उसकी जिह्वा की अच्छी जांच पड़ताल की। उसपर लिखी हुई को अमिट देखकर उसे तसल्ली हुई कि उसने सच में खीर पूड़ी नहीं खाई थी और बेटे ने अपने लिए ही मंगाया था।
इसके बाद किसी बहाने से वह वापस उसी पेड़ के नीचे अपना खीर पूड़ी ढूँढने आई। मगर वहाँ कुछ भी नहीं था। उसने इधर देख ,उधर देखा ,व्याकुल होकर चारों ओर देखा ,कही कुछ नहीं।परेशान सोचने लगी “जमीन निगल गई , या आसमान खा लिया’।
उस वृक्ष के खोखल में एक नागिन रहती थी ,वह भी उस समय गर्भवती थी। खीर पूड़ी की सुगंध पाकर उसकी भी अभिलाषा जागृत हो उठी और उसने वह सब बहुत तेजी से खा लिया था।
इस सत्य से बेखबर ,रामपुर वाली को अपना अभिलाषित भोजन गायब हो जाने के कारण बहुत दुख हुआ। इतने प्रयत्न के वावजूद वह अपने मन का नहीं खा सकी थी।
कुछ समय पश्चात नागिन के दो बच्चे हुए। एक दिन ,खेत देखने के लिए ,जिस समय वह वहाँ पर गई थी , वे दोनों शिशु उसके खेत में खेल रहे थे। इतने में कुछ चरवाहे बच्चे डंडे लेकर उसे मारने दौड़े। भय के मारे वे सपौले रामपुर वाली के पास आ गए। उसने उसे वहीं अपनी टोकरी पलट कर छुपा दिया। शरारती बच्चे जब उसके पास आकर साँप के बारे में पूछा ,तो वह भगवान को साक्षी मानकर साफ झूठ बोल गई कि इधर तो कोई साँप आया ही नहीं है। खतरा टलते ही दोनों सपोले वहाँ से जान बचा कर भागते अपने घर पहुंचे।
अपनी माँ से बाहर की सारी कहानी बताई कि कैसे एक महिला ने आज उनलोगों की जान बचाई थी। ज्ञानवान माता ने अपने दोनों बच्चों जिनका नाम बाल और बसंत था ,कहा “ उसे उस मानवी के उपकार का बदला अवश्य चुकानी चाहिए”।
दूसरे दिन फिर वे दोनों उस खेत में पहुंचे। रोज की भांति मालती भी वहीं अपनी फसल देखने आई थी। उसे देखकर दोनों बच्चे
करीब आकर बड़ी विनम्रता से बोले , “ हमलोग परम पूज्य बासुकि नाग की संतान हैं। आपने कल उन दुष्ट चरवाहों से हमारी जान की रक्षा की थी ,इसलिए हम आपको इसके बदले में कोई वरदान देना चाहते हैं। आप मांगिए”।
मालती को अपनी सास की कटु वचन ,जिठानी ,देवरानी ,ननदों ,टोल पड़ोस के ताने और बेइज्जती याद आने लगे। उसकी आँखें भरभरा गई। उसने अपनी रुलाई के वेग को रोकते हुए अत्यंत भरे गले से कहा, “ मेरे नैहर से भी हमें खोज खबर लेने वाले ढेरों साज सामान के साथ आएँ। नैहर में सुख समृद्धि बढ़े पिता भाई कीआयु बढ़े । ससुराल में हमारा सम्मान बढ़े और मेरे पति एवं होने वाले बच्चों की आयु यश ,धन धान्य आदि बढ़े ”। “इतनी सी बात! अवश्य पूरी होगी आपकी मनोकामना”।ऐसा कह कर वे दोनों वहाँ से प्रस्थान कर गए।
दूसरे दिन ,सूर्योदय के तुरत बाद ही , मालती के ससुर के दरवाजे पर विविध प्रकार के सामान ,कपड़े ,गहने ,लिए दो भाई पालकी से उतरे। सुबह सवेरे से ही गाँव का माहौल चहल पहल से भरा होता है। इतने बड़े धनवान को देख टोल क्या गाँव भर के लोग चकित रह गए। शायद रास्ता भटक गए हों। मालती के ससुराल वालों ने मन ही मन सोचा। मगर वे दोनों ,चार कहारों वाली पालकी से उसी के दालान पर उतरे थे ,और साथ के बैल गाड़ी से सब सामान उतारकर उनके साथ वाले दरवाजे लगे आँगन में रखने लगे। दोनों तेजस्वी बालक ने आगे बढ़ कर उन चकित बुजुर्ग लोगों से अपना परिचय देते हुए कहा , “ हम रामपुर से आए हैं। आपकी छोटी बहू मालती के भाई हैं। बहन मालती के ब्याह के बहुत बाद हमारा जन्म हुआ था। यहाँ से कोई संपर्क भी नहीं था ,इसलिए आप लोग हमें पहचान नहीं पा रहे हैं। हम अपनी बहन को कुछ दिन के लिए अपने घर ले जाना चाह रहे हैं आप अभी विदा कर देते तो। अच्छा होता ,नदी किनारे का हमारा गाँव है। रात में हम जा नहीं सकेंगे”।
मालती का मन और उन दोनों भाईयों की असीम इच्छा के साथ ही इतने सामानों को देख कर , उसे भाईयों के साथ नैहर जाने की अनुमति दे दी गई।
कुछ दूर जाने पर एक बहुत बड़ा सुरंग जैसा दिखाई दिया। उस सुरंग से बाहर निकलने के बाद एक सुंदर महल दिखाई दिया। अत्यंत वैभव और दास दासियों से परिपूर्ण उस राज महल के बड़े कक्ष में दो ऊँचे सिंहासन पर मनुष्य का रूप धारण किए बासुकि नाग और उनकी रानी साथ साथ बैठे हुए थे । वहाँ उपस्थित राजपरिवार ,दस दासियाँ ,सैनिक अमात्य आदि सबने मिल कर उसका राजकुमारी की तरह सत्कार किया। एक असली राजकुमारी की भांति वह वहाँ अत्यंत सुख पूर्वक खुशी खुशी रहने लगी।
कुछ दिनों के बाद उसे नागलोक से वापस अपना ससुराल आना ही था। बड़े शान शौकत के साथ उसे भेजा गया था। उसे विदाई में फिर ढेर सारा सामान बर्तन कपड़े ,पलंग आदि मिले थे।
इधर उसके ससुराल में तो उसी दिन से सबके विचार बदल गए थे जिस दिन उसके दोनों धनी भाई उसे लेने आए थे। मन ही मन वे लोग अपने व्यवहार के कारण लज्जित भी महसूस करने लगे थे ।
सास ने देखा कि मालती का नैहर तो अब बहुत धनी हो गया है। उसे पूछने वाले ,खोज खबर लेने वाले भाई बंधु भी हैं। उस दिन से ससुराल में उसका मान सम्मान बढ़ गया। और वह भी सभी अभिलाषाओं से परिपूर्ण एक सुखी जिंदगी बिताने लगी थी।
यह लोक कथा आज भी मिथिला में नई वधू को मधुश्रावनी के पूजन पर सुनाई जाती है।
(प्रस्तुति : डा0 कामिनी कामायनी)