बाद-ए-सबा का इंतिज़ार (कहानी) : सैयद मोहम्मद अशरफ़
Baad-e-Saba Ka Intezar (Story in Hindi) : Syed Muhammad Ashraf
डाक्टर आबादी में दाख़िल हुआ।
रास्ते के दोनों जानिब ऊंचे कुशादा चबूतरों का सिलसिला इस इमारत तक चला गया था जो ककय्या ईंट की थी जिस पर चूने से क़लई की गई थी। चबूतरों पर अन्वाअ’-ओ-एग्ज़ाम के सामान एक ऐसी तर्तीब से रखे थे कि देखने वालों को मा’लूम किए बग़ैर क़ीमत का अंदाज़ा हो जाता था। सामान फ़रोख़्त करने वाले मुख़्तलिफ़ रंगों और नस्लों के नुमाइंदे थे जो अपनी-अपनी दूकानों पर चाक़-ओ-चौबंद बैठे थे। चबूतरों का ये सिलसिला इस इमारत पर जाकर ख़त्म नहीं होता था बल्कि इमारत के दूसरे रुख पर इसी तरह के चबूतरे अन्वाअ’-ओ-इक़्साम के सामान के साथ सजे हुए दूर तक चले गये थे। रास्ते में गठीले बदन के मर्द, कंधे पर मश्कीज़े लटकाए हाथों में कटोरा पकड़े बजा रहे थे और छिड़काव करते फिर रहे थे। ख़रीदार मुख़्तलिफ़ क़बीलों, गिरोहों और रंगों की पोशाक पहने इस चबूतरे से उस चबूतरे तक आ जा रहे थे। रास्ता तरह-तरह की शीरीं, नर्म, सख़्त, करख़्त, भद्दी, चटख़्ती हुई, दुखी सुखी आवाज़ों से भरा हुआ था।
ककय्या ईंट की सफ़ेद इमारत के दीवारें नाक़ाबिल-ए-उ’बूर हद तक ऊंची नहीं थीं। उनमें जगह-जगह दर, दरीचे और रौशन-दान थे और उनसे आती हुई हू, हक़ की पुर-असरार गूंजदार आवाज़ें बाज़ार में साफ़ सुनाई दे रही थीं। बाज़ार में खड़े हो कर उन आवाज़ों को सुनकर ऐसा लगता था जैसे इन आवाज़ों के जिस्म हूँ और उन जिस्मों पर दराज़ सफ़ेद रेशम जैसी दाढ़ियाँ हूँ और कानों से नीचे तक खेलती हुई नर्म-नर्म काकुलें हों। उन आवाज़ों को सुनकर एक ऐसे सुकून का एहसास होता जो सख़्त लू में, कोसों का सफ़र पा प्यादा तय करने के बाद ठंडी सुराही का सोंधा-सोंधा पानी सैर हो कर पीने पर मिलता है। नीची-नीची दीवारों वाली इस नूरानी इमारत को चारों तरफ़ से सतूनों, बुर्जियों, मिनारों और फाटकों ने घेर रखा था जो बज़ाहिर किसी महल की मौजूदगी का एहसास दिलाते थे। किसी ने शायद बहुत कोशिश की भी नहीं और अगर करता भी तो ग़ालिबन ये जानना बहुत मुश्किल होता कि बाज़ार इस सफ़ेद इमारत को घेरे हुए है या बाज़ार इस सफ़ेद इमारत का बाहरी हिस्सा है या ये दोनों सतूनों और मिनारों वाली इमारत के ना-काबिल-ए-तक़्सीम हिस्से हैं। ये तीनों किसी वाहिद नक़्शे की बुनियादी लकीरों की तरह एक दूसरे से मुत्तसिल और मुसलसल थे। महलनुमा इमारत के अंदर से कभी-कभी तेज़ आवाज़ें बुलंद होतीं जो सफ़ेद इमारत के हू हक़ और बाज़ार की चहकती रंगा-रंग आवाज़ों पर एक लम्हे के लिए छा जातीं। कभी-कभी ये वक़्फ़े तवील भी हो जाते। फिर अचानक ये भी होता कि बाज़ारों की आवाज़ें धीमी-धीमी सरगोशियों के लब-ओ-लहजा में बुलंद होतीं उनमें खनखनाहट पैदा होती बहुत सी आवाज़ें मिल जातीं और फिर सफ़ेद इमारत नूरानी काकुलदार आवाज़ें बाज़ार की आवाज़ों के साथ मिलकर महल की सब आवाज़ों को ढाँप लेतीं।
डाक्टर ने हाथ लगा कर जनेऊ बराबर किया, गले में पड़े आले को टटोल कर महसूस किया और हाथ में थामे बैग को मज़बूती से पकड़े इस ऊंचे मुस्ततील कमरे में दाख़िल हो गया जो इस आबादी और इमारतों के ऐन दरमियान में वाक़े’ था। एक लम्हा को ठिठक कर उसने कमरे की सोगवार ठंडी ख़ामोशी भरी फ़िज़ा से ख़ुद को हम-आहंग किया। ये भी मुम्किन है कि वो इस बेपनाह हसीन कमरे को देखकर सहम गया हो। कमरे के दरमियान मुदव्वर पायों की एक बड़ी और हसीन मसहरी पड़ी थी जिसके सिरहाने के स्याह हिस्से में नफ़ीस काम बना हुआ था। मसहरी पर क़ीमती और मरऊ’ब करने वाला बिस्तर लगा हुआ था और इस बिस्तर पर वो बदन रखा हुआ था। वो एक दराज़ क़द निहायत हसीन-ओ-जमील ख़ातून थी। उसके बाल तुर्की नज़ाद औरतों की तरह सुनहरे थे जिनसे उम्र की शहादत नहीं मिलती थी। उसकी पेशानी शफ़्फ़ाफ़ और नाक सुत्वाँ और बुलंद थी। आँखें नीम-वा और सुर्मगीं थीं। होंट और रुख़्सार बीमारी के बावजूद गुलाबी थे। होंट भी नीम-वा थे और सफ़ेद मोती से दाँत सितारों की तरह सांस के ज़ेर-ओ-बम के साथ साथ रह-रह कर दमक रहे थे। शफ़्फ़ाफ़ गर्दन पर नीलगूं महीन रगें नज़र आरही थीं और गर्दन के नीचे का औरत हिस्सा उठा हुआ और मख़्रूती था। सा’द-ए-सीमीं कूल्हों के उभार से लगे हुए रखे थे। डाक्टर ने ग़ौर से उसके हाथों पैरों को देखा और एक अ’जीब बात महसूस की कि ख़ातून के भरे-भरे हाथ और पैर मेहनत के आ’दी होने की ग़म्माज़ी कर रहे थे लेकिन उन्हें नर्म और साफ़सुथरा रखने का एहतिमाम भी किया गया था। मरीज़ा की सांस बे-तर्तीब थी। कई लम्हों तक बदन साकित नज़र आता फिर यकायक झटके के साथ बे-तर्तीब साँसें आने लगतीं।
मसहरी से टिका हुआ वो दराज़ क़द शख़्स इस्तादा था जिसके सर और बालों को एक गोशेदार कुलाह ने ढाँप रखा था। सुर्ख़-ओ-सफ़ेद मुअ’म्मर चेहरे पर ख़ूबसूरत दाढ़ी थी जो बातर्तीब नहीं थी। उस शख़्स की आँखों में जलाल-ओ-जमाल की परछाईयां रह-रह कर चमकती थीं। अपनी शख़्सियत और लिबास से वो कभी बादशाह लगता कभी दरवेश। डाक्टर मसहरी की दूसरी तरफ़ उस शख़्स के मुक़ाबिल सर झुका कर खड़ा हो गया।
डाक्टर देर तक मरीज़ा को देखता रहा। वो शख़्स मुतफ़क्किर आँखों से मरीज़ा को एक टक देखे जा रहा था। दफ़अ’तन डाक्टर को एहसास हुआ कि इस बड़े मुस्ततील कमरे के चारों तरफ़ बहुत से कमरे हैं जिन पर पर्दे पड़े हुए हैं और उन पर्दों के पीछे चूड़ियों की खनखनाहट धीमी-धीमी मग़्मूम सरगोशियाँ और दबी-दबी आहें सुनाई दे रही हैं। किसी-किसी कमरे में नौ उ’म्र बच्चों की शोर मचाने वाली आवाज़ें भी बुलंद हो रही थीं। जब इन आवाज़ों का शोर एक ख़ास आहंग से ज़्यादा बुलंद हो जाता तो दराज़ क़दर शख़्स के माथे पर नागवारी की लकीरें खींच जातीं। डाक्टर ने महसूस किया कि पर्दे के पीछे से बुलंद होने वाली सरगोशियाँ काबिल-ए-फ़हम हैं लेकिन उनका ता’ल्लुक़ किसी एक ज़बान से नहीं है।
डाक्टर ने क़दरे तवक़्क़ुफ़ के बाद मर्ज़ का हाल जानने के लिए इस शख़्स के रिश्ते के बारे में सोचा।
“ये... आपकी कौन हैं?”
“अ’ज़ीज़ा हैं।”
“क्या?”
“अ’ज़ीज़ा का मतलब बहुत इ’ज़्ज़त वाली और बहुत प्यारी भी।”
“आपसे सम्बंध क्या है?”
“मैं ही रब-ए-मजाज़ी हूँ।”
डाक्टर आँखें फैलाए उसका चेहरा देखता रहा। फिर आवाज़ साफ़ कर के बोला, “डाक्टर होने के नाते मुझे जानना चाहिए कि रोगी को क्या रोग है। रोग के बारेमें जानने के लिए आपसे उनके सम्बंध के बारे पूछना आवश्यक है। आप जो सम्बंध बता रहे हैं वो मेरी समझ में नहीं आ सका।”
दराज़ क़द इन्सान तकलीफ़ के साथ मुस्कुराया।
“आप मा’लूम कीजिए जो कुछ मेरे इ’ल्म-ए-हुज़ूरी में है आपके रूबरू पेश करूँगा।”
डाक्टर के चेहरे के तास्सुरात से महसूस हो रहा था कि वो इस जुमले को मुकम्मल तौर पर न समझ पाने के बावजूद मुतमइन है कि वो शख़्स मरीज़ा के बारे में बहुत कुछ या सब कुछ जानता है।
“ये दिशा कब से है?”
“बहुत अ’र्से से।”
फिर देर तक ख़ामोशी रही। ख़ामोशी और ज़्यादा गहरी महसूस होने लगी थी कि बराबर के कमरों से इसी काबिल-ए-फ़हम मगर ना-मानूस ज़बान में सरगोशियाँ बुलंद हो रही थीं।
दराज़ क़द इन्सान ने डाक्टर के चेहरे पर परेशानी पढ़ी और इस बार वो तफ़सील से गोया हुआ।
“अ’ज़ीज़ा... मेरी मुराद मरीज़ा ने मुद्दतों से ग़िज़ा को मुँह नहीं लगाया। घरेलू नुस्ख़ों से तैयार शूदा अदवियात होंटों तक तो पहुंच जाती है लेकिन मे’दे तक नहीं जा पातीं। मरीज़ा अपने मर्ज़ का इज़हार बज़ात-ए-ख़ुद कभी नहीं करतीं। कभी-कभी जिल्द बदन बुख़ार की शिद्दत से सुर्ख़ हो जाती है और ज़िंदगी के सारे आसार ख़त्म होते महसूस होने लगते हैं। तनफ़्फ़ुस की बे-तर्तीबी तरद्दुद का सबसे बड़ा सबब है।”
“किस चीज़ की बे-तर्तीबी”, डाक्टर ने पूछा।
“तनफ़्फ़ुस की, मुराद साँसों की बे-तर्तीबी।”
डाक्टर ने एक गहरि सांस ली और झिझकते हुए पूछा, “क्या मैं रोगी को आला लगा कर देख सकता हूँ?”
“ज़रूर। अ’ज़ीज़ा कभी भी पर्दा नशीन ख़ातून नहीं रहीं।”
मरीज़ा की साँसें उस वक़्त निस्बतन मा’मूल पर थीं। डाक्टर ने सीने पर पड़े कामदार दुपट्टे को तहज़ीब से एक तरफ़ किया और सीने पर आला रखकर ग़ौर से सुना। उसकी आँखें हैरत से फैल गईं। उसने जल्दी से आला हटाया और कान लगा कर कमरे के हर कोने से उभरती महीन से महीन आवाज़ को सुनना चाहा। कमरे में साँसों के इ’लावा और कोई आवाज़ नहीं थी। उसने फिर आला लगाया। उसके चेहरे पर फिर हैरत के आसार नमूदार हुए। वो देर तक आले को सीने पर रखे आँखें बंद किए कुछ सुनता रहा। मरीज़ा के चेहरे पर, जितने वक़्त तक आला रहा इत्मिनान रहा। डाक्टर ने आला हटाया और बेचैन आवाज़ में बोला, “रोगी का दिल बहुत अच्छी हालत में है। किसी रोग का कोई निशान नज़र नहीं आता।”
दराज़ क़द इन्सान के चेहरे पर कोई तहय्युर नमूदार नहीं हुआ। “क्या इस बात से आपको अचरज नहीं?”
“नहीं”, दराज़ क़द इन्सान का जवाब मुख़्तसर था। डाक्टर को इस जवाब की उम्मीद नहीं थी लेकिन उसने ख़ुद को सँभाला और एक-एक लफ़्ज़ पर-ज़ोर देकर बोला।
“अब जो बात आपको बताऊँगा उसे सुनकर आप उछल पड़ेंगे। रोगी के दिल से संगीत की लहरें निकल रही हैं जिन्हें मैं ने कई बार सुना।”
दराज़ क़द इन्सान धीमे से वक़ार के साथ मुस्कुराया और आहिस्ता से इस्बात में सर हिलाया।
दराज़ क़द इन्सान के इत्मिनान पर डाक्टर को हैरत हुई लेकिन उसने सिलसिला कलाम जारी रखा।
“हृदय की चाल से जो धुन फूट रही थी उसमें नदी के बहने की कल-कल थी। हवा की मदभरी सरसराहाट थी, पंछियों की चहकार थी...”
दराज़ क़द इन्सान ने हाथ उठा कर उसे रोक दिया। डाक्टर को महसूस हुआ कि दराज़ क़द इन्सान किसी पिछली बात को याद कर के कहीं खो गया है। दराज़ क़द इन्सान गोया हुआ।
“इस आवाज़ में मैदान-ए-जंग में तबल पर पड़ने वाली पहली ज़रब की आवाज़ का इर्तिआ’श भी होगा। दो मुहब्बत करने वाले बदन जब पहली बार मिलते हैं और एक दूसरे को अपने होंटों से महसूस करते हैं वो नर्म लज़्ज़त भरी आवाज़ भी होगी। मुल्ला गिरी रंग की अ’बा पहने सूफ़ी के नारा-ए- मस्ताना की गूंज भी होगी। दरबार में ख़ून बहा का फ़ैसला करने वाले बादशाह की आवाज़ की गरज भी शामिल होगी। सहराओं में बहार की आमद से मुतशक्किल होने वाली ज़ंजीर की झनक भी होगी और बंजर ज़मीन पर पड़ने वाले मौसम बर शगाल के पहले क़तरे की खनक भी होगी। बरब्त, सितार और तबले की...” वो ख़ामोश हो गया।
“हाँ कुछ इस प्रकार की आवाज़ें हैं पर उन्हें शब्दों में बता पाना बहुत कठिन है।” डाक्टर बोला। अचानक बराबर के कमरे से एक नौ उ’म्र लड़का निकला।
“डाक्टर ने लेडी को क्या रोग बताया अंदर से इन्क्वारी की है।”
ये आवाज़ सुनते ही मरीज़ा के चेहरे का रंग बदल गया और साँसें यका-य़क बे-तर्तीब हो गईं। दराज़ क़द शख़्स के चेहरे पर नागवारी का धुआँ फैल गया।
“अंदर जाओ, अंदर जाओ। ख़बरदार बिला इजाज़त यहां क़दम न रखना।” नौ उ’म्र बच्चा हैरत से उसे देखता हुआ अन्दर चला गया।
डाक्टर ने मरीज़ा के सुनहरे बालों में कंघी करने वाले अंदाज़ से जड़ों तक उंगलियां ले जा कर कासा-ए-सर पर हथेली जमा दी।
“फीवर बढ़ रहा है”, वो बड़बड़ाया। पेशानी की पसीने के क़तरों से अपनी हथेली को नम करता हुआ वो आँखों तक हाथ ले गया। अंगूठे के नर्म पेट से आँख के पपोटे को आहिस्तगी से ऊपर उठाया।
आँखों की सफ़ेदी चमकी। रुख़्सारों की गर्मी हाथ की पुश्त से महसूस करता हुआ वो धीमे से बोला।
“असल मर्ज़ का ता’ल्लुक़ तनफ़्फ़ुस से है।”
डाक्टर ने उसके चेहरे की तरफ़ देखकर कुछ सोचा और फिर मरीज़ा के उभरते डूबते सीने पर आँखें जमा दीं और बे-तर्तीब साँसों का मुआ’इना करने लगा। डाक्टर ने सीधे खड़े हो कर बहुत यक़ीन के साथ कहा।
“इस रोगी के सारे शरीर में जीवन है। केवल सांस की प्राब्लम है और यही सबसे बड़ी प्राब्लम है। फेफड़े की ख़राबी का कोई इलाज नहीं है।”
“क्या आपको यक़ीन-ए-कामिल है कि आ’ज़ा-ए-तनफ़्फ़ुस क़तअ’न बेकार हो चुके हैं?” डाक्टर ने उसकी तरफ़ देखा तो उसने डाक्टर को आसान ज़बान में सवाल समझाया।
डाक्टर ने आला लगा कर पहली बार फेफड़ों को देखा। देर तक देखता रहा। फिर बोला, “बड़ी विचित्र बात है। फेफड़े बिल्कुल ठीक हैं पर पूरी सांस नहीं ले पा रहे।”
“पूरी सांस लेने से बदन के दीगर आ’ज़ा की क़ुव्वत का क्या ता’ल्लुक़ है?” दराज़ क़द इन्सान ने सवाल किया
“बहुत बड़ा सम्बंध है। ताज़ा हवा जब फेफड़ों के रास्ते रक्त में मिलती है तो जीवन का सरूप बनता है।
वो जीवन रक्त के साथ मिलकर शरीर के हर अंग को शक्ति देता है। पूरी हवा न मिले तो रक्त... लाल रक्त थोड़ी देर बाद नीला पड़ जाता है और शरीर के हर भाग में रोग छा जाता है।”
“आपका गुमान है आ’ज़ा-ए-तनफ़्फ़ुस अपना काम ब हुस्न-ओ-ख़ूबी अंजाम दे रहे हैं तो फिर बदन में ताज़ा हवा की कमी क्यों है?”
“शरीर में ताज़ा हवा की कमी इसलिए है कि इस कमरे में ताज़ा हवा नहीं है।” डाक्टर ने ए’तिमाद के साथ जवाब दिया।
“इस कमरे में खुलने वाले बाक़ी कमरों के दरवाज़े खुले हुए हैं, इन कमरों में बाहर की तरफ़ बेशुमार खिड़कियाँ हैं।” दराज़ क़द इन्सान ने तफ़सील से बताया।
“पर मुझे लगता है कि किसी खिड़की से ताज़ा हवा नहीं आ रही।”
दफ़अ’तन बराबर का एक कमरा खुला और एक नौ उ’म्र फ़्राक स्कर्ट पहने दाख़िल हुई।
“मामा ने पूछा कि लेडी का फीवर डाउन हुआ कि नहीं?”
मरीज़ा का बदन एक लम्हे को तड़पा और सांस फिर बे-तर्तीब हो गई।
“दूर हो जाओ मेरे निगाहों के सामने से। ना-हंजार।” दराज़ क़द इन्सान शदीद तैश के आलम में दाँत पीसते हुए आवाज़ के आहंग को कम करते हुए बोला।
“आप एंग्री क्यों होते हैं। मेरे को हाल पूछने अंदर से मामा भेजती है। मेरी मिस्टेक किधर होती।” लड़की ने नाक फुलाकर एहतिजाज किया।
उस लड़की के अलफ़ाज़, लहजे और आवाज़ से दराज़ क़द इन्सान पर पागलपन जैसा दौरा पड़ गया। डाक्टर ने बमुश्किल उसे समझाया। लड़की को हाथ के इशारे से अंदर जाने को कहा।
फिर डाक्टर बोला, “मेरे पास एक ही दवा है। इस प्रकार के रोगी के लिए किसी भी डाक्टर के पास एक ही मेडिसिन होती है। वो मेडिसिन देकर फेफड़ों की बारीक-बारीक नसों को फुलाया जा सकता है ताकि उनमें ताज़ा हवा भली भांत भर जाये। पर...”
“पर क्या...?” दराज़ क़द इन्सान ने बेसब्री से पूछा।
“पर ये दवा तभी काम करती है जब रोगी को अच्छी मात्रा में ताज़ा हवा मिल सके। तभी तो फेफड़ों की फूली हुई नसों में हवा जा सकेगी। जब ताज़ा हवा ही न हो तो केवल फेफड़ों की नसों को फुला कर क्या-किया जा सकता है।”
“तब?” दराज़ क़द इन्सान ने मुतफ़क्किर हो कर पूछा।
“इसका कोई उपाय नहीं है।” डाक्टर का लहजा मायूसाना था। फिर कुछ देर की ख़ामोशी के बाद बोला, “क्या रोगी का कमरा बदला नहीं जा सकता।” डाक्टर ने पूछा।
“नहीं, ये अ’ज़ीज़ा का मख़्सूस कमरा है। ज़िंदगी इसी में गुज़री है। बाहर फैली तमाम इमारतों के दरमियान ये कमरा अ’ज़ीज़ा के इ’लावा किसी को नहीं दिया जा सकता।”
“लेकिन रोगी को इस कमरे के इ’लावा दूसरा कमरा तो दे सकते हैं।”
“लेकिन बिना ताज़ा हवा के रोगी इतने दिन तक जीवित कैसे रहा?”
“ताज़ा हवा की कमी का मस्अला बहुत पुराना नहीं है। इस कमरे के चारों तरफ़ मरीज़ा के मुताल्लिक़ीन के कमरे हैं। उनमें दरीचे और रौशन-दान हैं, दरवाज़े हैं लेकिन वो लोग उनको खोलते नहीं।”
“क्या उन लोगों को दूसरों से मिलने के लिए अपने कमरों से निकलना नहीं पड़ता?”
“नहीं। उन्होंने सहूलत और आराम के पेश-ए-नज़र दूसरों से मिलने के लिए अंदर ही अंदर दीवारों में रास्ते बना लिये हैं।”
“फिर तो बहुत अचंभे की बात है कि रोगी अब तक जीवित कैसे है। दिन रात उसी पुरानी हवा में जीवित रहना बहुत कठिन है।”
“नहीं। दरअसल इस इमारत के एक कमरे में शाम ढले बाहर का दरवाज़ा खुलता है और ताज़ा हवा की एक लहर अंदर आ जाती है। शायद इसी से कारोबार-ए-हस्ती क़ायम है। यूं भी अ’ज़ीज़ा बहुत सख़्त-जान है।” वजीह मर्द ने बिस्तर पर लेटी ख़ातून को मुहब्बत से देखते हुए कहा।
डाक्टर कुछ देर तक सोचता रहा फिर बोला।
“मैंने इस प्रकार का रोगी पहली बार देखा है। क्या आप बता सकते हैं कि उनके और नातेदार भी हैं। कभी-कभी बीमारी पुरखों से भी मिल जाती है।”
“अ’ज़ीज़ा की कई बहनें हैं। एक बहन बहुत मुअ’म्मर है। उसका घर इस मुल्क से बाहर है। वो नौजवानों की तरह तर-ओ-ताज़ा है। वो अपने देस के बाहर भी अ’क़ीदत-ओ-एहतिराम की नज़र से देखी जाती है।”
“और?”
“एक बहन जो इससे कुछ बड़ी हैं वो भी इस मुल्क से बाहर रहती हैं और अपने मुल्क में बहुत ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम हैं। तमाम-तर ऐश-ओ-लज़्ज़त कोशी उनकी क़िस्मत में नविश्त कर दी गई है। एक बहन इस मुल्क में भी है और बहुत आराम से है। उसके मुता’ल्लिक़ीन अ’ज़ीज़ा को भी उसकी रविश पर चलाना चाहते हैं लेकिन मरीज़ा के अ’ज़ीज़ों ने इनकार कर दिया।”
“क्या उस बहन के चाल चलन में कोई बुराई है?” डाक्टर ने आला गर्दन में लटकाते हुए पूछा।
“नहीं कोई बुराई नहीं लेकिन अगर अ’ज़ीज़ा उसकी चाल चलती तो अपना आपा खो देती।”
अचानक दराज़ क़द शख़्स को कुछ याद आया। वो हल्के-हल्के जोश के अंदाज़ में गोया हुआ। “अ’ज़ीज़ा के बुज़ुर्गों में एक ज़ई’फ़ा है। उनके घर वाले उन्हें बहुत इ’ज़्ज़त देते हैं लेकिन कभी घर से बाहर निकलने नहीं देते। मसमूअ’ हुआ कि वो ताक़तवर ज़ईफ़ा महबूस हो कर अब कमज़ोर हो गई हैं। उनके मुता’ल्लिक़ीन एहतिरामन उन्हें सलाम तो कर लेते हैं लेकिन कोई उनके पास देर तक बैठना गवारा नहीं करता।”
यकायक किसी पर्दे के पीछे से दाल-भात मांगने की आवाज़ आई। ये एक शीरीं निस्वानी आवाज़ थी। वो आवाज़ थोड़ी देर बाद राम सीता, लंका और हनूमान के क़िस्से सुनाने लगी।
डाक्टर ने दराज़ क़द इन्सान को हैरत से देखा जैसे उसे ए’तबार न आया हो लेकिन दराज़ क़द इन्सान के चेहरे के संजीदा तेवरों ने डाक्टर का ए’तिमाद उसे वापस किया।
डाक्टर ने मरीज़ा पर नज़रें गाड़ दीं। उसकी हालत में कोई फ़र्क़ नहीं आया था।
“आप बता रहे थे कि शाम ढले बराबर के कमरे की खिड़की से ताज़ा हवा का झोंका अंदर आता है?”
“हाँ! हालांकि वो वक़्त शाम का वक़्त होता है लेकिन वो हवा बाद-ए-सबा की तरह दिल ख़ुशकुन होती है।”
“क्या शाम ढल चुकी।” दराज़ क़द इन्सान ने बेचैनी से पूछा।
“नहीं, अभी कुछ देर है। क्या आपको समय बीतने का अंदाज़ा नहीं होता?” दराज़ क़द इन्सान ख़ामोश रहा। इस सवाल के अंदर ऐसा कुछ था जिसने उसे मज़ीद बेचैन कर दिया।
डाक्टर उसकी तरफ़ सवालिया नज़रों से देखता रहा। जब ये नज़रें सुई बन कर दराज़ क़द इन्सान के चेहरे पर जगह जगह खुब गईं तब उसने गहरी और मजबूर आवाज़ में कहा।
“नहीं।”
“अचरज की बात है।” डाक्टर और कुछ नहीं बोल सका।
लेकिन उसकी निगाहें मर्द के चेहरे पर जमी रहीं। मर्द उन निगाहों की ताब न ला सका। धीमे-धीमे गोया हुआ।
“बहुत दिनों से ऐसा महसूस होता है कि हर घड़ी वक़्त-ए-ग़ुरूब छाया हुआ है।”
“क्या आप भी हर वक़त दीवारों के बीच बंद रहते हैं?” डाक्टर ने कुरेदने वाले अंदाज़ में पूछा।
इस मर्तबा मर्द की ख़ामोशी मुहीब थी। डाक्टर सहम कर रह गया।
मर्द ने डाक्टर की दिली कैफ़ियात का अंदाज़ा लगा लिया। शगुफ़्ता लहजे में बोला।
“बहुत सी बातें पुर-असरार होती हैं और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मैं भेद पर से पर्दा हटा भी दूं तब भी आप पूरी बात नहीं समझ सकेंगे।”
दोनों देर तक ख़ामोश रहे। फिर डाक्टर ने पहल की।
“मैं बस ये जानना चाहता हूँ कि जब ताज़ा हवा का झोंका इस कमरे में आता है तो रोगी की हालत में किस तरह का फ़र्क़ आता है?”
“शाम ढले आप देख लीजिएगा।”
“शाम ढलने में अभी देर है।”
दोनों फिर ख़ामोश हो गये। डाक्टर को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे इस मर्द के इ’लावा किसी और को ख़ातून की ज़िंदगी में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है। मरीज़ की हालत पूछने वालियों को उसने देखा नहीं लेकिन इतना अंदाज़ा था कि वो भी मरीज़ की हालत में बस उतनी ही दिलचस्पी ले रही हैं जैसे लोग मौसम की तब्दीली के बारे में एक दूसरे से मा’लूम करते हैं। उसकी समझ काम नहीं कर रही थी कि इस रोबदार मर्द की इस आबादी में क्या हैसियत है। इस इमारत के दूसरे मकीनों से इसका क्या ता’ल्लुक़ है और बाहर फैली हुई इस बस्ती से मर्द का क्या इलाक़ा है। उसके दिल में रह-रह कर सवाल उठ रहे थे लेकिन वो मर्द के लहजे की संजीदगी और मौक़ा की नज़ाकत के पेश-ए-नज़र ज़्यादा सवालात नहीं करना चाह रहा था। उसने कुछ घुमा कर मा’लूम करना चाहा।
“ये बाहर का इ’लाक़ा किस का है?”
“क्या आप पहली मर्तबा आये हैं?”
“जी हाँ। बस दूर से देखता रहता था। देखने में ये पूरी आबादी बहुत अच्छी लगती थी। दूर से इन इमारतों की ऊंचाई, मज़बूती और पुरानापन मन को खींचता था। आज क़रीब से बाज़ार भी देखा। रंगा-रंग चीज़ें, तरह तरह की पोशाकें, अलग अलग नसलों के लोग, फिर हू हक़ करती साधू संतों की आवाज़ें। मैं ज़्यादा नहीं देख पाता था। लेकिन ककय्या ईंट की बाहर की एक इमारत को देखकर मन को बहुत शांति मिली कि इस आबादी में ऐसी सादगी भी है।”
“आइये में आपको आबादी की एक झलक दिखा दूं। जब सूरज ढलने का वक़्त क़रीब आजाये तब मुझे बता दीजिएगा। हम लोग मरीज़ा के पास वापस आ जाऐंगे।”
सागवान के स्याही माइल ऊंचे दरवाज़ों को खोल कर वो दोनों बाहर निकले। ग़ुलाम गर्दिश में कई तरह के लोग मिले लेकिन कोई इन दोनों से मुख़ातिब नहीं हुआ। डाक्टर ने महसूस किया कि मुख़ातिब कोई नहीं होता लेकिन तमाम अफ़राद इस बा रोब, वजीह और ख़ुशपोश मर्द को अ’क़ीदत-ओ-मुहब्बत की नज़र से देखते हैं। ग़ुलाम गर्दिश का ये हिस्सा चौड़ी सीढ़ियों वाले एक ज़ीने के मुक़ाबिल था। दोनों उस पर चढ़े। ऊंची नीची छतों वाली बेशुमार इ’मारतों को उ’बूर करते हुए वो लोग ज़ीने पर चढ़ते रहे। यहां तक कि सबसे ऊंची छत आगई। छत पर कंगूरेदार हिसार था। मर्द ने उस का हाथ पकड़ कर हिसार के पास लाकर खड़ा कर दिया। नीचे पूरी बस्ती फैली हुई थी। छत पर अभी सूरज की ज़र्द शुआ’एं थीं लेकिन नीचे बहुत नीचे बस्ती में अंधेरा उतर चुका था।
डाक्टर ने महसूस किया कि अंधेरा उतरने के बावजूद नीचे अभी भी रौनक़ है। तब उसे महसूस हुआ कि रौनक़ का लुत्फ़ रोशनी से नहीं आबादी से होता है। ये बुलंद और मज़बूत इमारत चारों तरफ़ से बाज़ारों से घिरी हुई थी और इस इमारत से मुत्तसिल ककय्या ईंट की वो इमारत भी रेशम जैसे अंधेरे में डूबी हुई थी जहां उसने हू हक़ की सदाएँ सुनी थीं।
“ये सब किस का है?” उसने नीचे आबादी पर निगाह डालते हुए पूछा।
“ये इमारतें, ये सतून, ये बाला ख़ाने, ये हिसार, ये बाज़ार ये हू हक़ की सदाएँ ये सब मेरी ही... इन सब का मुझसे ही इलाक़ा है।”
मर्द ने मतानत के साथ जवाब दिया।
ककय्या ईंट की इस सादा इमारत में कुछ सफेद पोश साये नज़र आये जिनके चेहरों के ख़ुतूत मल्गजे अंधेरे की वजह से साफ़ नज़र नहीं आरहे थे।
“वो... वो कौन लोग हैं?” डाक्टर ने बेसब्री से पूछा।
मर्द ने अदब से उन सायों को देखा और थोड़ी देर बाद बोला।
“वो इमारत और सफेदपोश हू हक़ की सदाएँ बुलंद करने वाले सब इसी बस्ती का हिस्सा हैं। बाज़ार के तमाम अफ़राद भी इसी बस्ती का एक हिस्सा हैं। इस इमारत के सारे मकीन भी इसी बस्ती का एक हिस्सा हैं और ये सब के सब इस मरीज़ा की बीमारी से आधे अधूरे रह गये हैं।”
“मतलब?” डाक्टर की आँखें फैल गईं।
सब उसी ख़ातून के हवाले से अपनी ज़िंदगी गुज़ारते थे। शऊ’री तौर से किसी को एहसास भी नहीं होता था कि मरीज़ा उनके लिए कितनी कार-आमद है लेकिन जब से वो बीमार हुई है, कमज़ोर हुई है सब ख़ुद में कुछ न कुछ कमी पा रहे हैं।
“ये बातें तो पहेलियों जैसी हैं।” डाक्टर धीमे से बोला। अब उसे डर लगने लगा था लेकिन अब उस की समझ में कुछ-कुछ आने लगा था। जब सूरज की आख़िरी शुआ’ मांद हो कर अंधेरे में खो गई तो इस फैली हुई आबादी में इस्तादा उस अज़ीमुश्शान इमारत की वसीअ’-ओ-अ’रीज़ छत के हिसार के पास खड़े हो कर उसने ख़ुद को मरऊ’ब पाया। लेकिन अब उससे रहा नहीं गया।
“रोगी कौन है आपने अब तक नहीं बताया? आपने अब तक रोगी से अपने रिश्ते के बारे में कुछ नहीं बताया।” छत की खुली फ़िज़ा में डाक्टर ने हिम्मत पाकर सवाल किया।
मर्द हिसार के नीचे झाँकता रहा। फिर यकायक बोला, “आप ख़ुद कुछ नहीं समझ सके?” मर्द की आँखों में एक दुख भरा सवाल था।
तब डाक्टर को अचानक ऐसा लगा जैसे पर्दा सा हट गया हो। उसे याद आया जब उसने मरीज़ा के दिल की धड़कनें सुनी थीं तो उसे कुछ आवाज़ें भी सुनाई दी थीं जिन्हें वो इस से पहले भी बारहा सुन कर ख़ुश हो चुका था।
अब उसने बग़ौर उस वजीहा मर्द को देखा और देर तक देखता रहा और सर झुका कर खड़ा हो गया।
“शाम ढल गई है। आइये नीचे चलें। रोगी को देख लें।”
वो दोनों तेज़ी से नीचे उतरे। दरवाज़े में दाख़िल होते ही उन्हें महसूस हुआ कि बराबर वाले कमरे से हवा के ताज़ा झोंके आरहे हैं। मरीज़ा बिस्तर पर गाव तकिए के सहारे वक़ार के साथ बैठी थी और उस के चेहरे पर सुर्ख़ी छलक आई थी। डाक्टर को आते देखकर उसने कोई तकल्लुफ़ नहीं किया लेकिन मर्द को देखकर उसकी आँखों में शुक्रगुज़ारी के जज़्बे लहराए।
“कैसी हो?” मर्द ने कमाल-ए-मुहब्बत के साथ क़रीब जा कर धीरे से पूछा।
वो बदिक़्क़त मुस्कुराई। बड़ी-बड़ी आँखों से मर्द का जायज़ा लिया और अदब से बोली, “इस वक़्त तो अच्छी हो जाती हूँ।”
डाक्टर साहिब कहते हैं कि तुम्हारे आ’ज़ा-ए-रईसा मुकम्मल तौर पर तंदुरुस्त हैं। बस सांस लेने भर को ताज़ा हवा की कमी है।”
मरीज़ा ख़ामोशी के साथ सर झुकाए बैठी रही।
“आप इतना परेशान क्यों होते हैं।” वो देर के बाद बोली।
“तुम जानती हो कि इस बस्ती का कारोबार-ए-हस्ती मेरी वजह से क़ायम है। तुम नसीब-ए-दुश्मनाँ ख़त्म हो गईं तो धीरे-धीरे सब कुछ ख़स-ओ-ख़ाशाक हो जायेगा।”
“क्या?” डाक्टर ने उन्हें रोक कर पूछा, “क्या ये नहीं हो सकता कि बराबर वाले कमरे की खिड़की हमेशा खुली रहे और ताज़ा हवा आती रहे।”
“बराबर वाले कमरों में जहां और मकीन हैं वहीं कुछ नौजवान भी हैं। चारों तरफ़ बने इन कमरों में सिर्फ़ एक कमरा ऐसा है जिसके मकीन ने बाहर की खिड़की खोल रखी है। शाम को जब वो वापस आता है तो दरवाज़ खोल देता है। तभी ताज़ा हवा के झोंके अंदर आ पाते हैं। दिन-भर रोज़ी-रोटी के चक्कर में मारा मारा फिरता है। शाम ढले वापस आ पाता है।”
“बाक़ी लोग भी अपनी रिहाइशगाहों की खिड़कियाँ खोल कर इधर वाले दरवाज़े नहीं खोल सकते?” डाक्टर ने पूछा।
“ग़ालिबन उन्हें अब इस ख़ातून से कोई दिलचस्पी नहीं है।”
“उस नौजवान को दिलचस्पी क्यों है?”
“क्योंकि वो इस ख़ातून को ज़िंदा देखना चाहता है।”
“वो क्यों?”
“क्योंकि उसे अपने अज्दाद से मुहब्बत है।”
“ये बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं।” डाक्टर ने बहुत मायूसी के आलम में कहा।
“मैंने पहले ही अ’र्ज़ किया था कि अगर मैं कुछ बताना भी चाहूँ तब भी ज़रूरी नहीं कि हर बात आपकी समझ में आ सके।” मर्द ने रंजीदा लहजे में जवाब दिया।
“क्या में कुछ कर सकता हूँ।” डाक्टर ने जैसे हथियार डाल दिये हों।
“आप डाक्टर हैं। आप ही बेहतर बता सकते हैं कि आप क्या कर सकते हैं?”
तब डाक्टर ने बहुत मज़बूत लहजे में लेकिन अदब के साथ कह, “मैं सिर्फ़ फेफड़ों को मज़बूत करने वाली दवा दे सकता हूँ लेकिन फेफड़ों की मज़बूती की असल दवा दरअसल ताज़ा हवा होती है।” इस माहौल में इतनी देर तक रहने के बाद वो अब साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ ज़बान में बात कर सकता था। वो फिर गोया हुआ।
“इस इमारत के तमाम नौजवान मकीनों से कहिए कि वो बाहर खुलने वाली तमाम खिड़कियाँ खोल कर इस कमरे में खुलने वाले दरवाज़े खोल दें।”
“अगर वो ऐसा न करें... तब... तब क्या होगा?” मरीज़ा ने बहुत बेसब्री के साथ पूछा।
“तब”, डाक्टर ने एक एक लफ़्ज़ पर-ज़ोर देते हुए कहा, “तब ये ख़त्म हो जायेंगे।” उसने दराज़ क़द वजीह मर्द की तरफ़ इशारा करते हुए कहा। हसीन-ओ-जमील मग़्मूम मरीज़ा और दराज़ क़द वजीह मर्द ने एक दूसरे को किन निगाहों से देखा, ये कोई नहीं देख सका क्योंकि डाक्टर धीरे से बैग उठा कर ख़ामोशी से बाहर निकल आया था।