आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार - अनुवादक – प्रेमचंद

Azad Katha (Novel in Hindi) : Ratan Nath Sarshar

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 81

एक दिन दो घड़ी दिन रहे चारों परियाँ बनाव-चुनाव हँस-खेल रही थीं। सिपहआरा का दुपट्टा हवा के झोंकों से उड़ा जाता था। जहाँनारा मोतिये के इत्र में बसी थीं। गेतीआरा का स्याह रेशमी दुपट्टा खूब खिल रहा था।

हुस्नआरा - बहन, यह गरमी के दिन और काला रेशमी दुपट्टा! अब कहने से तो बुरा मानिएगा, जहाँनारा बहन निखरें तो आज दूल्हा भाई आने वाले हैं; यह आपने रेशमी दुपट्टा क्या समझ के फड़काया!

अब्बासी - आज चबूतरे पर अच्छी तरह छिड़काव नहीं हुआ।

हीरा - जरा बैठ कर देखिए तो, कोई दस मशकें तो चबूतरे ही पर डाली होगी।

एकाएक महरी की छोकरी प्यारी दौड़ती हुई आई और बोली - हुजूर; हमने यह आज बिल्ली पाली है। बड़ी सरकार ने खरीद दी और दो आने महीना बाँध दिया। सुबह को हम हलुआ खिलाएँगे। शाम को पेड़ा। उधर सिपहआरा और गेतीआरा गेंद खेलने लगीं तो हुस्नआरा ने कहा, अब रोज गेंद ही खेला करोगी? ऐसा न हो, आज भी अम्माँजान आ जायँ।

अब्बासी - हुजूर, गेंद खेलने में कौन सा ऐब है? दो घड़ी दिल बहलता है। बड़ी सरकार की न कहिए; वह बूढ़ी हुई, बिगड़ी ही चाहें।

यही बातें हो रही थीं कि शाहजादा हुमायूँ फर हाथी पर सवार बगीचे की दीवार से झाँकते हुए निकले। सिपहआरा बेगम को गेंद खेलते देखा तो मुसकिरा दिए। हाथी तो आगे बढ़ गया, मगर हुस्नआरा को शाहजादे का यों झाँकना बुरा लगा। दारोगा को बुला कर कहा, कल इस दीवार पर दो रद्दे और चढ़ा दो, कोई हाथी पर इधर से निकल जाता है तो बेपरदगी होती है। सौ काम छोड़ कर यह काम करो।

जब दारोगा चले गए तो जहाँनारा ने कहा - सिपहआरा बहन ने इनको इतना ढीठ कर दिया, नहीं शाहजादे हों चाहे खुद बादशाह हों, ऐसी अंधेर-नगरी नहीं है कि जिसका जी चाहे, चला आए।

फिर वही चहल-पहल होने लगी। सिपहआरा और अब्बासी पचीसी खेलने लगीं।

अब्बासी - हुजूर, अबकी हाथ में यह गोट न पीटूँ तो अब्बासी नाम न रखूँ।

सिपहआरा - वाह! कहीं पीटी न हो।

अब्बासी - या अल्लाह, पचीस पड़ें। अरे! दिए भी तो तीन काने? बाजी खाक में मिल गई।

हुस्नआरा - लेके हरवा न दी हमारी बाजी! बस अब दूर हो।

अब्बासी - ऐ बीबी, मैं क्या करूँ ले भला। पाँसा वही है लेकिन वक्त ही तो है।

हुस्नआरा - अच्छा बाजी हो ले, तो हम फिर आएँ।

सिपहआरा - अब मैं दाँव बोलती हूँ।

हुस्नआरा - हमसे क्या मतलब, वह जानें, तुम जानो। बोलो अब्बासी।

अब्बासी - हुजूर, जब बाजी सत्यानास हो गई तब तो हमको मिली हौर अब हुजूर निकली जाती हैं।

हुस्नआरा - हम नहीं जानते। फिर खेलने क्यों बैठी थीं?

अब्बासी - अच्छा मंजूर हैं, फेकिए पाँसा।

सिपहआरा - दो महीने की तनख्वाह है, इतना सोच लो।

अब्बासी - ऐ हुजूर, आपकी जूतियों का सदका, कौन बड़ी बात है। फेकिए तीन काने।

सिपहआरा ने जो पाँसा फेका तो पचीस! दूसरा पचीस, तीस, फिर पचीस, गरज सात पेचें हुई। बोलीं - ले अब रुपए बाएँ हाथ से ढीले कीजिए। महरी, बाजी की संदूकजी तो ले आओ, आलमारी के पास रखी है।

हुस्नआरा ने महरी को आँख के इशारे से मना किया। महरी कमरे से बाहर आ कर बोली - ऐ हुजूर, कहाँ है? वहाँ तो नहीं मिलती।

सिपहआरा - बस जाओ भी, हाथ झुलाती आईं, चलो हम बतावें कहाँ है।

महरी - जो हुजूर बता दें तो और तो लौंडी की हैसियत नहीं है, मगर सेर भर मिठाई हुजूर की नजर करूँ।

सिपहआरा - महरी को साथ ले कर कमरे की तरफ चली। देखा तो संदूकची नदारद! हैं, यह संदूकची कौन ले गया? महरी ने लाख हँसी जब्त की, मगर जब्त न हो सकी। तब तो सिपहआरा झल्लाईं यह बात है! मैं भी कहूँ, संदूकची कहाँ गायब हो गई। तुम्हें कसम है, दे दो।

सिपहआरा फिर नाक सिकोड़ती हुई बाहर आई तो सबने मिलकर कहकहा लगाया। एक ने पूछा - क्यों, संदूकची मिली? दूसरी बोली - हमारा हिस्सा न भूल जाना। हुस्नआरा ने कहा - बहन; दस ही रुपया निकालना। अब्बासी ने कहा - हुजूर, देखिए, हमी ने जितवा दिया, अब कुछ रिश्वत दीजिए।

महरी - और बीबी, मैं भला काहे को छिपा देती, कुछ मेरी गिरह से जाता था।

सिपहआरा - बस-बस बैठो, चलीं वहाँ से बड़ी वह बनके।

महरी - अपनी हँसी को क्या करूँ, मुझी पर धोखा होता है।

इतने में दरबान ने आवाज दी, सवारियाँ आई हैं, और जरा देर में दो औरतें डोलियों से उतर कर अंदर आईं। एक का नाम था नजीर बेगम, दूसरी का जानी बेगम।

हुस्नआरा - बहुत दिन बाद देखा। मिजाज अच्छा रहा बहन? दुबली क्यों हो इतनी?

नजीर - माँदी थी, बारे खुदा-खुदा करके, अब सँभली हूँ।

हुस्नआरा - हमने तो सुना भी नहीं। जानी बेगम हमसे कुछ खफा सी मालूम होती हैं, खुदा खैर करे!

जानी - बस, बस, जरी मेरी जबान न खुलवाना, उलटे चोर कोतवाल को डाँटे। यहाँ तक आते मेहँदी घिस जाती।

जानी बेगम की बोटी बोटी फड़कती थी। नजीर बेगम भोली-भाली थीं। जानी बेगम ने आते ही आते कहा, हुस्नआरा आओ, आँख-मूँदी धप खेलें।

जहाँनारा - क्या यह कोई खेल है?

जानी - ऐ है, क्या नन्हीं बनी जाती हैं!

नजीर - बस हम तुम्हारी इन्हीं बातों से घबराते हैं। अच्छी बातें न करोगी।

जानी - ऐ, वह निगोड़ी अच्छी बातें कौन सी होती है, सुनें तो सही।

नजीर - अब तुम्हें कौन समझाए।

जानी बेगम सिपहआरा के गले में हाथ डाल कर बागीचे की तरफ ले गईं तो हुस्नआरा ने कहा - इनके तो मिजाज ही नहीं मिलते।

बड़ी बेगम - बड़ी कल्ला दराज छोकरी है। इसके मियाँ की जान अजाब में हैं, हम तो ऐसे को अपने पास भी न आने दें।

हुस्नआरा - नहीं अम्माँजान, यह न फरमाइए, ऐसी नहीं है, मगर हाँ; जबान नहीं रुकती।

एकाएक जानी बेगम ने आ कर कहा - अच्छा बहन, अब रुखसत करो। घर से निकले बड़ी देर हुई।

हुस्नआरा - आज तुम दोनों न जाने पाओगी। अभी आए कितनी देर हुई?

जानी - नजीर बेगम को चाहे न जाने दो, मैं तो जाऊँगी ही। मियाँ के आने का यही वक्त है। मुझे मियाँ का जितना डर है, उतना और किसी का नहीं। नजीर की आँखों को तो पानी मर गया है।

नजीर - इसमें क्या शक, तुम बेचारी बड़ी गरीब हो।

इसी तरह आपस में बहुत देर तक हँसी-दिल्लगी होती रही। मगर जानी बेगम ने किसी का कहना न माना। थोड़ी ही देर में वह उठ कर चली गईं।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 82

सुरैया बेगम चोरी के बाद बहुत गमगीन रहने लगीं। एक दिन अब्बासी से बोलीं - अब्बासी, दिल को जरा तकसीन नहीं होती अब हम समझ गए कि जो बात हमारे दिल में है वह हासिल न होगी।

शीशा हाथ आया न हमने कोई सागर पाया;
साकिया ले तेरी महफिल से चले भर पाया।
सारी खुदाई में हमारा कोई नहीं।

अब्बासी ने कहा - बीबी, आज तक मेरी समझ में न आया कि वह, जिसके लिए आप रोया करती हैं, कौन हैं? और यह जो आजाद आए थे, यह कौन हैं। एक दिन बाँकी औरत के भेष में आए, एक दिन गोसाई बनके आए।

सुरैया बेगम ने कुछ जवाब न दिया। दिल ही दिल में सोची कि जैसा किया वैसा पाया। आखिर हुस्नआरा में कौन सी बात है जो हममें नहीं। फर्क यही है कि वह नेकचलन हैं और मैं बदनाम।

यह सोच कर उनकी आँखें भर आईं, जी भारी हो गया। गाड़ी तैयार कराई और हवा खाने चलीं। रास्ते में सलारू और उसकी वकील साहब नजर पड़े। सलारू कह रहा था - जनाब, हम वह नौकर हैं जो बाप बनके मालिक के यहाँ रहते हैं। आपको हमारी इज्जत करनी चाहिए। इत्तिफाक से वकील साहब की नजर इस गाड़ी पर पड़ी। बोले - खैर बाप पीछे बन लेना जरी जा कर देखो तो, इस गाड़ी में कौन सवार है? सलारू ने कहा, हुजूर, मैं फटेहालों हूँ, कैसे जाऊँ! आप भारी-भरकम आदमी हैं, कपड़े भी अच्छे-अच्छे पहने हैं। आप ही जायँ। वकील साहब ने नजदीक आ कर कोचवान से पूछा - किसकी गाड़ी है? कोचवान पंजाब का रहने वाला पठान था। झल्ला कर बोला - तुमसे क्या वास्ता, किसी की गाड़ी है!

सलारू बोले - हाँ जी, तुमको इससे क्या वास्ता कि किसकी गाड़ी है? हट जाओ रास्ते से। देखते हैं कि सवारियाँ हैं, मगर डटे खड़े हैं। अभी जो कोई उनका अजीज साथ होता तो उतर के इतना ठोकता कि सिट्टी-पिट्टी भूल जाती। तुम वहाँ खड़े होनेवाले कौन हो?

वकील साहब को एक तो यही गुस्सा था कि कोचवान ने डपटा, उस पर सलारू ने पाजी बनाया। लाल-लाल आँखों से घूर कर रह गए, पाते तो खा ही जाते।

सलारू - यह तो न हुआ कि कोचवान को एक डंडा रसीद करते। उलटे मुझ पर बिगड़ रहे हो।

कोचवान चाहता था कि उतर कर वकील साहब की गरदन नापे, मगर सुरैया बेगम ने कोचवान को रोक लिया और कहा - घर लौट चलो।

बेगम साहब जब घर पहुँचीं तो दारोगा जी ने आ कर कहा कि हुजूर, घर से आदमी आया है। मेरा पोता बहुत बीमार है। मुझे हुजूर, रुखसत दो। यह लाला खुशवक्त राय मेरे पुराने दोस्त हैं, मेरी एवज काम करेंगे।

सुरैया बेगम ने कहा - जाइए, मगर जल्द आइएगा।

दूसरे दिन सुरैया बेगम ने लाला खुशवक्तराय से हिसाब माँगा। लाला साहब पुराने फैशन की दस्तार बाँधे, चपकन पहने, हाथ में कलमदान लिए आ पहुँचे।

सुरैया बेगम - लाला, क्या सरदी मालूम होती है, या जूड़ी आती है, लेहाफ दूँ।

लाला साहब - हुजूर, बारहों महीने इसी पोशाक में रहता हूँ। नवाब साहब के वक्त में उनके दरबारियों की यही पोशाक थी। अब वह जमाना कहाँ, वह बात कहाँ, वह लोग कहाँ। मेरे वालिद 6 रुपया माहवारी तलब पाते थे। मगर बरकत ऐसी थी कि उनके घर के सब लोग बड़े आराम से रहते थे। दरवाजे पर दो दस्ते मुकर्रर थे। बीस जवान। अस्तबल में दो घोड़े। फीलखाने में एक मादा हाथी! एक जमाना वह था कि दरवाजे पर हाथी झूमता था। अब वह कोने में जान बचाए बैठे हैं।

यह कहते-कहते लाला साहब नवाब साहब की याद करके रोने लगे।

एकाएक महरी ने आ कर कहा - हुजूर, आज फिर लुट गए। लाला साहब भी पगड़ी सँभालते हुए चले। सुरैया बेगम झपटी कि चल कर देखें तो, मगर मारे रंज के चलना मुश्किल हो गया। जिस कोठरी में लाला साहब सोए थे उसमें सेंध लगी हैं। सेंध देखते ही रोएँ खड़े हो गए। रो कर बोलीं - बस अब कमर टूट गई। मुहल्ले में हलचल मच गई। फिर थानेदार साहब आ पहुँचे, तहकीकात होने लगी।

थानेदार रात को इस कोठरी में कौन सोया था?

लाला साहब - मैं! ग्यारह बजे से सुबह तक।

थानेदार - तुम्हें किस वक्त मालूम हुआ कि सेंध लगी।

लाला साहब - दिन चढ़े।

थानेदार - बड़े ताज्जुब की बात है कि रात को कोठरी में आदमी सोए, उसके कल्ले पर सेंध दी जाय ओर उसको जरा भी खबर न हो। आप कितने दिनों से यहाँ नौकर हैं? आपको पहले कभी न देखा।

लाला साहब - मैं अभी दो ही दिन का नौकर हूँ। पहले कैसे देखते।

सुरैया बेगम की रूह काँप रही थी कि खुदा ही खैर करे। माल का माल गया और यह कंबख्त इज्जत का अलग गाहक है। खैर, थानेदार साहब तो तहकीकात करके लंबे हुए। इधर सुरैया बेगम मारे गम के बीमार पड़ गईं। कई दिन तक इलाज होता रहा, मगर कुछ फायदा न हुआ। आखिर एक दिन घबरा कर हुस्नआरा को एक खत लिखवाया जिसमें अपनी बेकरारी का रोना रोने के बाद आजाद का पता पूछा था और हुस्नआरा को अपने यहाँ मुलाकात करने के लिए बुलाया था। हुस्नआरा बेगम के पास यह खत पहुँचा तो दंग हो गईं। बहुत सोच-समझ कर खत का जवाब लिखा।

'बेगम सहब की खिदमत में आदाब!

आपका खत आया, अफसोस! तुम भी उसी मरज में गिरफ्तार हो। आपसे मिलने का शौक तो है, मगर आ नहीं सकती, अगर तुम आ जाओ तो दो घड़ी गम-गलत हो। आजाद का हाल इतना मालूम है कि रूम की फौज में अफसर हैं। सुरैया बेगम, सच कहती हूँ कि अगर बस चलता तो इसी दम तुम्हारे पास जा पहुँचती। मगर खौफ है कि कहीं मुझे लोग ढीठ न समझने लगें।

तुम्हारी
हुस्नआरा'

यह खत लिख कर अब्बासी को दिया। अब्बासी खत ले कर सुरैया बेगम के मकान पर पहुँची, तो देखा कि वह बैठी रो रही हैं।

अब सुनिए कि वकील साहब ने सुरैया बेगम की टोह लगा ली। दंग हो गए कि या खुदा, यह यहाँ कहाँ। घर जा कर सलारू से कहा। सलारू ने सेचा, मियाँ पागल तो हैं ही, किसी औरत पर नजर पड़ी होगी, कह दिया शिब्बोजान हैं। बोला - हुजूर, फिर कुछ फिक्र कीजिए। वकील साहब ने फौरन खत लिखा -

'शिब्बोजान, तुम्हारे चले जाने से दिल पर जो कुछ गुजरी, दिल ही जानता हो। अफसोस, तुम बड़ी बेमुरव्वत निकलीं। अगर जाना ही था तो मुझसे पूछ कर गई होतीं। यह क्या कि बिना कहे सुने चल दीं, अब खैर इसी में है कि चुपके से चली आओ। जिस तरह किसी को कानोंकान खबर न हुई और तुम चल दीं, उसी तरह अब भी किसी से कहो न सुनो, चुपचाप चली आओ। तुम खूब जानती हो कि मैं नामीगिरानी वकील हूँ।

तुम्हारा
वकील'

सलारू ने कहा - मियाँ, खूब गौर करके लिखना और नहीं हम एक बात बतावें। हमको भेज दीजिए, मैं कहूँगा, बीबी, वह तो मालिक हैं, पहले उनके गुलाम से तो बहस कर लो। गो पढ़ा-लिखा नहीं हूँ; मगर उम्र भर लखनऊ में रहा हूँ!

वकील साहब ने सलारू को डाँटा और खत में इतना और बढ़ा दिया, अगर चाहूँ तो तुमको फँसा दूँ। लेकिन मुझसे यह न होगा। हाँ, अगर तुमने बात न मानी तो हम भी दिक करेंगे।

यह खत लिख कर एक औरत के हाथ सुरैया बेगम के पास भेज दिया। बेगम ने लाला साहब से कहा - जरा यह खत पढ़िए तो। लाला साहब ने खत पढ़ कर कहा, यह तो किसी पागल का लिखा मालूम होता है। वह तो खत पढ़ कर बाहर चले गए और सुरैया बेगम सोचने लगीं कि अब क्या किया जाय? यह मूजी बेतरह पीछे पड़ा। सबेरे लाला खुशवक्त राय सुरैया बेगम की डयोढ़ी पर आए तो देखा कि यहाँ कुहराम मचा हुआ है। सुरैया बेगम और अब्बासी का कहीं पता नहीं। सारा महल छान डाला गया, मगर बेगम साहब का पता न चला। लाला साहब ने घबरा कर कहाँ - जरा अच्छी तरह देखो, शायद दिल्लगी में कहीं छिप रही हों। गरज सारे घर में तलाशी की, मगर बेफायदा।

लाला साहब - यह तो अजीब बात है। आखिर दोनों चली कहाँ गईं? जरा असबाब-वसबाब तो देख लो, है या सब ले-देके चल दीं।

लोगों ने देखा कि जेवर का नाम भी न था। जवाहिरात और कीमती कपड़े सब नदारद।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 83

शाहजादा हुमायूँ फर भी शादी की तैयारियाँ करने लगे। सौदागरों की कोठियों में जा-जा कर सामान खरीदना शुरू किया। एक दिन एक नवाब साहब से मुलाकात हो गई। बोले - क्यों हजरत, यह तैयारियाँ!

शाहजादा - आपके मारे कोई सौदा न खरीदे?

नवाब - जनाब, चितवनों से ताड़ जाना कोई हमसे सीख जाय।

शाहजादा - आपको यकीन ही न आए तो क्या इलाज?

नवाब - खैर, अब यह फरमाइए, हैदर को पटने से बुलवाइएगा या नहीं? भला दो हफ्ते तक धमा-चौकड़ी रहे। मगर उस्ताद, तायफे नोक के हों। रद्दी कलावंत होंगे तो हम न आएँगे। बस यह इंतजाम किया जाय कि दो महफिलें हों। एक रईसों के लिए और एक कदरदानों के लिए।

इधर तो यह तैयारियाँ हो रही थीं, उधर बड़ी बेगम के यहाँ यह खत पहुँचा कि शाहजादा हुमायूँ फर को गुर्दे के दर्द की बीमारी है और दमा भी आता है। कई बार वह जुए की इल्लत में सजा पा चुका है। उसको किसी नशे से परहेज नहीं।

बड़ी बेगम ने यह खत पढ़वा कर सुना तो बहुत घबराईं। मगर हुस्नआरा ने कहा, यह किसी दुश्मन का काम है। आज तक कभी तो सुनते कि हुमायूँ फर जुए की इल्लत में पकड़े गए। बड़ी बेगम ने कहा - अच्छा, अभी जल्द न करो। आज डोमिनियाँ न आएँ। कल परसों देखा जायगा।

दूसरे दिन अब्बासी यह खत ले कर शाहजादा हुमायूँ फर के पास गई। शाहजादा ने खत पढ़ा तो चेहरा सुर्ख हो गया। कुछ देर तक सोचते रहे। तब अपने संदूक से एक खत निकाल कर दोनों की लिखावट मिलाई।

अब्बासी - हुजूर ने दस्तखत पहचान लिया न?

शाहजादा - हाँ, खूब पहचाना, पर यह बदमाश अपनी शरारत से बाज नहीं आता। अगर हाथ लगा तो ऐसा ठीक बनाऊँगा कि उम्र भर याद करेगा। लो, तुम यह खत भी बेगम साहब को दिखा देना और दोनों खत वापस ले आना।

यह वही खत था जो शाहजादे की कोठी में आग लगने के बाद आया था।

रात भर शाहजादे को नींद नहीं आई, तरह-तरह के खयाल दिल में आते थे। अभी चारपाई से उठने भी न पाए थे कि भाँड़ों का गोल आ पहुँचा। लाला कालीचरन ने जो डयोढ़ी का हिसाब लिखते थे, खिड़की से गरदन निकाल कर कहा - अरे भाई, आज क्य...

इतना कहना था कि भाँड़ों ने उन्हें आड़े हाथों लिया। एक बोला - हमें तो सूम मालूम होता है। दूसरे ने कहा - लखनऊ के कुम्हारों के हाथ चूम लेने के काबिल हैं। सचमुच का बनमानुस बना कर खड़ा कर दिया। तीसरे ने कहा - उस्ताद, दुम की कसर रह गई। चौथा बोला - फिर खुदा और इनसान के काम में इतना फर्क भी न रहे! लाला साहब झल्लाए तो इन लोगों ने और भी बनाना शुरू किया। चोट करता है, जरा सँभले हुए। अब उठा ही चाहता है। एक बोला - भला बताओ तो, यह बनमानुस यहाँ क्यों कर आया? किसी ने कहा - चिड़ीमार लाया है। किसी ने कहा - रास्ता भूल कर बस्ती की तरफ निकल आया है। आखिर एक अशर्फी दे कर भाँड़ों से नजात मिली।

दूसरे दिन शाहजादा सुबह के वक्त उठे तो देखा कि एक खत सिरहाने रखा है। खत पढ़ा तो दंग हो गए।

'सुनो जी, तुम बादशाह के लड़के हो और हम भी रईस के बेटे हैं। हमारे रास्ते में न पड़ो, नहीं तो बुरा होगा! एक दिन आग लगा चुका हूँ, अगर सिपहआरा के साथ तुम्हारी शादी हुई तो जान ले लूँगा। जिस रोज से मैंने यह खबर सुनी है, यही जी चाह रहा है कि छुरी ले कर पहुँचूँ और दम के दम में काम तमाम कर दूँ। याद रखो कि मैं बेचोट किए न रहूँगा।'

शाहजादा हुमायूँ फर उसी वक्त साहब-जिला की कोठी पर गए और सारा किस्सा कहा। साहब ने खुफिया पुलिस के एक अफसर को इस मामले की तहकीकात करने का हुक्म दिया।

साहब से रुखसत हो कर वह घर आए तो देखा कि उनके पुराने दोस्त हाजी साहब बैठे हुए हैं। यह हजरत एक ही घाघ थे, आलिमों से भी मुलाकात थी, बाँकों से भी मिलते-जुलते रहते थे। शाहजादा ने उनसे भी इस खत का जिक्र किया। हाजी साहब ने वादा किया कि हम इस बदमाश का जरूर पता लगाएँगे।

शहसवार ने इधर तो हुमायूँ फर को कत्ल करने की धमकी दी, उधर एक तहसीलदार साहब के नाम सरकारी परवाना भेजा। आदमी ने जा कर दस बजे रात को तहसीलदार को जगाया और यह परवाना दिया -

'आपको कलमी होता है मुबलिग पाँच हजार रुपया अपनी तहसील के खजाने से ले कर, आज रात को कालीडीह के मुकाम पर हाजिर हो। अगर आपको फुरसत न हो तो पेशकार को भेजिए, ताकीद जानिए।'

तहसीलदार ने खजानची को बुलाया, रुपया लिया, गाड़ी पर रुपया लदवाया और चार चपरासियों को साथ ले कर कालीडीह चले। यह गाँव यहाँ से दो कोस पर था। रास्ते में एक घना जंगल पड़ता था। बस्ती का कहीं नाम नहीं। जब उस मुकाम पर पहुँचे तो एक छोलदारी मिली। वहाँ जा कर पूछा - क्या साहब सोते हैं?

सिपाही - साहब ने अभी चाय पी है। आज रात भर लिखेंगे। किसी से मिल नहीं सकते।

तहसीलदार - तुम इतना कह दो कि तहसीलदार रुपया ले कर हाजिर है।

चपरासी ने छोलदारी में जा कर इत्तला की। साहब ने कहा, बुलाओ। तहसीलदार साहब अंदर गए तो एक आदमी ने उनका मुँह जोर से दबा दिया और कई आदमी उन पर टूट पड़े। सामने एक आदमी अंगरेजी कपड़े पहने बैठा था। तहसीलदार खूब जकड़ दिए गए तो वह मुसकिरा कर बोला - वेल तहसीलदार! तुम रुपया लाया, अब मत बोलना। तुम बोला और मैंने गोली मारी। तुम हमको अपना साहब समझो।

तहसीलदार - हुजूर को अपने साहब से बढ़ कर समझता हूँ, वह अगर नाराज होंगे तो दरजा घटा देंगे। आप तो छुरी से बात करेंगे।

शहसवार ने तहसीलदार को चकमा दे कर रुखसत किया और अपने साथियों में डींग मारने लगा - देखा, इस तरह यार लोग चकमा देते हैं। साथी लोग हाँ में हाँ मिला रहे थे कि इतने में एक गंधी तेल की कुप्पियाँ और बोतलें लटकाए छोलदारी के पास आया और बोला, हुजूर, सलाम करता हूँ। आज सौदा बेचने जरा दूर निकल गया था, लौटने में देर हो गई। आगे घना जंगल है, अगर हुक्म हो तो यहीं रह जाऊँ?

शहसवार - किस-किसी चीज का इत्र है? जरा मोतिए का तो दिखाओ।

गंधी - हुजूर, अव्वल नंबर का मोतिया है, ऐसा शहर में मिलेगा नहीं।

शहसवार ने ज्यों ही इत्र लेने के लिए हाथ बढ़ाया, गंधी ने सीटी बजाई और सीटी की आवाज सुनते ही पचास-साठ कांस्टेबिल इधर-उधर से निकल पड़े और शहसवार को गिरफ्तार कर लिया। यह गंधी न था, इंस्पेक्टर था, जिसे हाकिमजिला ने शहसवार का पता लगाने के लिए तैनात किया था।

मियाँ शहसवार, जब इंस्पेक्टर के साथ चले तो रास्ते में उन्हें ललकारने लगे। अच्छा बचा, देखो तो सही, जाते कहाँ हो।

इंस्पेक्टर - हिस्स! चोर के पाँव कितने, चौदह बरस को जाओगे।

शहसवार - सुनो मियाँ, हमारे काटे का मंत्र नहीं, जरा जबान को लगाम दो, वरना आज के दसवें दिन तुम्हारा पता न होगा।

इंस्पेक्टर - पहले अपनी फिक्र तो करो।

शहसवार - हम कह देंगे कि इस इंस्पेक्टर की हमसे अदावत है।

इंस्पेक्टर - अजी, कुढ़-कुढ़ कर जेलखाने में मरोगे।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 84

इधर बड़ी बेगम के यहाँ शादी की तैयारियाँ हो रही थीं, डोमिनियों का गाना हो रहा था। उधर शाहजादा हुमायूँ फर एक दिन दरिया की सैर करने गए। घटा छाई हुई थी। हवा जोरों के साथ चल रही थी। शाम होते-होते आँधी आ गई और किश्ती दरिया में चक्कर खा कर डूब गई। मल्लाह ने किश्ती के बचाने की बहुत कोशिश की, मगर मौत से किसी का क्या बस चलता है। घर पर यह खबर आई तो कुहराम मच गया। अभी कल की बात है कि दरवाज पर भाँड़ मुबारकबाद गा रहे थे, आज बैन हो रहा है, कल हुमायूँ फर जामे में फूले नहीं समाते थे कि दूल्हा बनेंगे, आज दरिया में गोते खाते हैं। किसी तरफ से आवाज आती है - हाय मेरे बच्चे! कोई कहता है - हैं, मेरे लाला को क्या हुआ! रोने वाला घर भर और समझाने वाला कोई नहीं। हुमायूँ फर की माँ रो-रोक कर कहती थीं, हाय! मैं दुखिया इसी दिन के लिए अब तक जीती रही कि अपने बच्चे की मय्यत देखूँ। अभी तो मसें भी नहीं भीगने पाई थीं कि तमाम बदन दरिया में भीग गया। बहन रोती थी, मेरे भैया, जरी आँख तो खोलो। हाय, जिन हाथों से मैंने मेहँदी रची थी उनसे अब सिर और छाती पीटती हूँ। कल समझते थे कि परसों बरात सजेगी, खुशियाँ मनाएँगे और आज मातम कर रहे हैं। उठो, अम्माँजान तुम्हारे सिरहाने खड़ी रो रही हैं।

यहाँ तो रोना-पीटना मचा हुआ था, वहाँ बड़ी बेगम ने ज्यों ही खबर पाई आँखों से आँसू जारी हो गए। अब्बासी से कहा - जा कर लड़कियों से कह दे कि नीचे बाग में टहलें। कोठे पर न जायँ। अब्बासी ने जा कर यह बात कुछ इस तरह कही कि चारों बहनों में कोई न समझ सकीं। मगर जहाँनारा ताड़ गई। उठ कर अंदर गई तो बड़ी बेगम को रोते देखा। बोली - अम्माँजान, साफ-साफ बताओ।

बड़ी बेगम - क्या बताऊँ बेटी, हुमायँ फर चल बसे।

जहाँनारा - अरे!

बड़ी बेगम - चुप-चुप, सिपहआरा न सुनने पाए। मैंने गाड़ी तैयार होने का हुक्म दिया है, चलो बाग को चलें, तुम जरा भी जिक्र न करना।

जहाँनारा - हाय अम्मीजान, यह क्या हुआ?

बड़ी बेगम - खुदा के वास्ते बेटी, चुप रहो, बड़ा बुरा वक्त जाता है।

जहाँनारा - उफ, जी घबराता है, हमको न ले चलिए, नहीं सिपहआरा समझ जायँगी। हमसे रोना जब्त न हो सकेगा। कहा मानिए, हमको न ले चलिए।

बड़ी बेगम - यहाँ इतने बड़े मकान में अकेली कैसी रहोगी?

जहाँनारा - यह मंजूर है, मगर जब्त मुमकिन नहीं।

सब की सब दिल में खुश थीं कि बाग की सैर करेंगे; मगर यह खबर ही न थी कि बड़ी बेगम किस सबब से बाग लिए जाती हैं। चारों बहनें पालकी गाड़ी पर सवार हुई और आपस में मजे-मजे की बातें करती हुई चलीं। मगर अब्बासी और जहाँनारा के दिल पर बिजलियाँ गिरती थीं। बाग में पहुँच कर जहाँनारा ने सिर-दर्द का बहाना किया और लेट रहीं, चारों बहनें चमन की सैर करने लगीं। सिपहआरा ने मौका पा कर कहा - अब्बासी, एक दिन हम और शहजादे इस बाग में टहल रहे होंगे। निकाह हुआ और हम उनको बाग में ले आए। हम पाँच रोज यहाँ ही रहेंगे। अब्बासी की आँखो में बेअख्तियार आँसू निकल पड़े। दिल में कहने लगी, किधर खयाल है, कैसा निकाह और कैसी शादी? वहाँ जनाजे और कफन की तैयारियाँ हो रही होंगी।

एकाएक सिपहआरा ने कहा - बहन, हिचकियाँ आने लगीं।

हुस्नआरा - कोई याद कर रहा होगा।

अब सुनिए कि उसी बाग के पास एक शाह साहब का तकिया था जिसमें कई शाहजादों और रईसों की कबरें थीं। हुमायूँ फर का जनाजा भी उसी तकिए में गया, हजारों आदमी साथ थे। बाग के एक बुर्ज से बहनों ने इस जनाजे को देखा तो सिपहआरा बोली - बाजीजान, किससे पूछें कि यह किस बेचारे का जनाजा है। खुदा उसको बख्शे।

हुस्नआरा - ओफ ओह! सारा शहर साथ है। अल्लाह, यह कौन मर गया, किससे पूछें?

अब्बासी - हुजूर, जाने भी दें, रात के वक्त लाश न देखें।

हुस्नआरा - नहीं, गुलाब माली से कहो, अभी-अभी पूछे।

अब्बासी थरथर काँपने लगी। गुलाब माली के कान में कुछ कहा। वह बाग का फाटक खोल कर बाहर गया, लोगों से पूछा। फिर दोनों में कानाफूसी हुई। इसके बाद अब्बासी ने ऊपर जा कर कहा। हुजूर, कोई रईस थे। बहुत दिनों से बीमार थे। यहाँ कजा आ पहुँची।

गेतीआरा - कुछ ठिकाना है! आदमियों का कहाँ से कहाँ तक ताँता लगा हुआ है।

सिपहआरा - खुदा जाने, जवान था या बूढ़ा?

अब्बासी ने बड़ी बेगम से जा कर जनाजे का हाल कहा तो उन्होंने सिर पीट कर कहा - तुम्हें हमारी कसम है जो उलटे पाँव न चल जाओ।

हुस्नआरा - अम्माँजान, आप नाहक घबराती हैं, आखिर यहाँ खड़े रहने में क्या डर हैं?

बड़ी बेगम - अच्छा, तुमको इससे क्या मतलब।

सिपहआरा - किसी का जनाजा जाता है। लाखों आदमी साथ हैं।

हुस्नआरा - खुदा जाने, कौन था बेचारा।

बड़ी बेगम - अल्लाह के वास्ते चली जाओ!

जहाँनारा - इतनी कसमें देती जाती हैं और कोई सुनता ही नहीं।

सिपहआरा - बाजी, सुनिए, कैसी दर्दनाक गजल है! खुदा जाने कौन गा रहा है।

शबे फिराक है और आँधियाँ हैं आहों की;
चिराग को मेरे जुलमत कहे में बार नहीं।

जमीन प्यार से मुझको गले लगाती है;
अजाब है यह दिला गोर में फिशार नहीं।

पस अज फिना भी किसी तोर से करार नहीं;
मिला बहिश्त तो कहता हँ कूय यार नहीं।

अब्बासी - कोई बूढ़ा आदमी था।

सिपहआरा - तो फिर क्या गम!

बड़ी बेगम - तो फिर जितने बूढ़े मर्द और बूढ़ी औरतें हों, सबको मर जाना चाहिए?

सिपहआरा - ऐसी बातें न कहिए, अम्माँजान!

हुस्नआरा - बूढ़े और जवान सबको मरना है एक दिन।

बड़ी बेगम और सिपहआरा नीचे चली गईं। हुस्नआरा भी जा रही थीं कि कबरिस्तान से आवाज आई - हाय हुमायूँ फर, तुमसे इस दगा की उम्मेद न थी।

हुस्नआरा - ऐं अब्बासी, यह किसका नाम लिया?

अब्बासी - हुजूर, बहादुर मिरजा कहा, कोई बहादुर मिरजा होंगे।

हुस्नआरा - हाँ, हमीं को धोखा हुआ। पाँव-तले से जमीन निकल गई।

जब तीनों बहनें नीचे पहुँच गईं, तो बड़ी बेगम ने कहा- आखिर तुम्हारे मिजाज में इतनी जिद क्यों है?

हुस्नआरा - अम्माँजान, वहाँ बड़ी ठंडी हवा थी।

बड़ी बेगम - मुरदा वहाँ आया हुआ है और इस वक्त, भला सोचो तो।

सिपहआरा - फिर इससे क्या होता है?

बड़ी बेगम - चलो बैठो, होता क्या है!

तीनों बहनें लेटीं तो सिपहआरा को नींद आ गई, मगर हुस्नआरा और गेतीआरा की आँख न लगी। बातें करने लगीं!

हुस्नआरा - क्या जाने, कौन बेचारा था?

गेतीआरा - कोई उसके घरवालों के दिल से पूछे।

हुस्नआरा - कोई बड़ा शाहजादा था!

गेतीआरा - हमें तो इस वक्त चारों तरफ मौत की शक्ल नजर आती हैं।

हुस्नआरा - क्या जाने, अकेले थे या लड़के-वाले भी थे।

गेतीआरा - खुदा जाने, मगर था अभी जवान।

हुस्नआरा - देखो बहन, सैकड़ों आदमी जमा हैं, मगर कैसा सन्नाटा है! जो हैं, ठंडी साँसे भरता है!

इतने में सिपहआरा भी जाग पड़ीं! बोलीं - कुछ मालूम हुआ बाजीजान, इस बेचारे की शादी हुई थी कि नहीं? जो शादी हुई होगी तो सितम है।

हुस्नआरा - खुदा न करे कि किसी पर ऐसी मुसीबत आए।

सिपहआरा - बेचारी बेवा अपने दिल में न जाने क्या सोचती होगी?

हुस्नआरा - इसके सिवा और क्या सोचती होगी कि मर मिटे!

रात को सिपहआरा ने ख्वाब में देखा कि हुमायूँ फर बैठे उनसे बातें कर रहे हैं।

हुमायूँ - खुदा का हजार शुक्र है कि आज यह दिन दिखाया, याद है, हम तुमसे गले मिले थे?

सिपहआरा - बहुरूपिये के भी कान काटे!

हुमायूँ - याद है, जब हमने महताबी पर कनकौआ ढाया था?

सिपहआरा - एक ही जात शरीफ हैं आप।

हुमायूँ - अच्छा, तुम यह बताओ कि दुनिया में सबसे ज्यादा खुशनसीब कौन है?

सिपहआरा - हम!

हुमायूँ - और जो मैं मर जाऊँ तो तुम क्या करो?

इतना कहते-कहते हुमायूँ फर के चेहरे पर जर्दी छा गई और आँखें उलट गईं। सिपहआरा एक चीख मार कर रोने लगीं। बड़ी बेगम और हुस्नआरा चीख सुनते ही घबराई हुई सिपहआरा के पास आईं। बड़ी बेगम ने पूछा - क्या है बेटी, तुम चिल्लाई क्यों?

अब्बासी - ऐ हुजूर, जरी आँख खोलिए।

बड़ी बेगम - बेटा, आँख खोल दो।

बड़ी मुश्किल से सिपहआरा की आँखें खुलीं। मगर अभी कुछ कहने भी न पाई थीं कि किसी ने बागीचे की दीवार के पास रो कर कहा - हाय शाहजादा हुमायूँ फर!

सिपहआरा ने रो कर कहा - अम्मीजान, यह क्या हो गया! मेरा तो कलेजा उलटा जाता है।

दीवार के पास से फिर आवाज आई - हाय हुमायूँ फर! क्या मौत को तुम पर जरा भी रहम न आया?

सिपहआरा - अरे, क्या यह मेरे हुमायूँ फर हैं!! या खुदा, यह क्या हुआ अम्मीजान!

बड़ी बेगम - बेटी सब्र करो, खुदा के वास्ते सब्र करो।

सिपहआरा - हाय, कोई हमें प्यारे शाहजादे की लाश दिखा दो।

बड़ी बेगम - बेटा मैं तुम्हें समझाऊँ कि इस दिन में तुम पर यह मुसीबत पड़ी और तुम मुझे समझाओ कि इस बुढ़ापे में यह दिन देखना पड़ा।

सिपहआरा - हाय, हमें शाहजादे की लाश दिखा ओ। अम्मीजान, अब सब्र की ताकत नहीं रही, मुझे जाने दो, खुदा के लिए मत रोको, अब शर्म कैसी और हिजाब किसके लिए?

बड़ी बेगम - बेटी, जरा दिल को मजबूत रखो, खुदा की मर्जी में इनसान को क्या दखल!

सिपहआरा - क्या कहती हैं आप अम्मीजान, दिल कहाँ है, दिल का तो कहीं पता ही नहीं। यहाँ तो रूह तक पिघल गई।

बड़ी बेगम - बेटी खूब खुल कर रो लो। मैं नसीबों-जली यही दिन देखने के लिए बैठी थी!

सिपहआरा - आँसू नहीं है अम्मीजान, रोऊँ कैसे? बदन में जान ही नहीं रही, बाजीजान को बुला दी। इस वक्त वह भी मुझे छोड़ कर चल दीं?

हुस्नआरा अलग जा कर रो रही थीं। आईं, मगर खामोश। न रोई, न सिर पीटा, आ कर बहन के पलंग के पास बैठ गईं।

सिपहआरा - बाजी, चुप क्यों हो! हमें तकसीन तक नहीं देतीं; वाह!

हुस्नआरा खामोश बैठी रहीं हाँ, सिर उठा कर सिपहआरा पर नजर डाली।

सिपहआरा - बाजी, बोलिए, आखिर चुप कब तक रहिएगा?

इतने में रूहअफजा भी आ गई, उन्होंने मारे गम के दीवार पर सिर पटक दिया था। सिपहआरा ने पूछा - बहन, यह पट्टी कैसी बँधी है?

रुहअफजा - कुछ नहीं, यों ही।

सिपहआरा - कहीं सिर-विर तो नहीं फोड़ा? अम्माँजान, अब दिल नहीं मानता, खुदा के लिए हमें लाश दिखा दो। क्यों अम्माँजान; शाहजादे की माँ की हालत क्या होगी?

बड़ी बेगम - क्या बताऊँ बेटी -

औलाद किसी की न जुदा होवे किसी से;

बेटी, कोई इस दाग को पूछे मेरे जी से!

इतने में एक आदमी ने आ कर कहा कि हुमायूँ फर की माँ रो रही हैं और कहती हैं कि दुलहिन को लाश के करीब लाओ। हुमायूँ फर की रूह खुश होगी।

बड़ी बेगम ने कहा - सोच लो, ऐसा कभी हुआ नहीं है; ऐसा न हो कि मेरी बेटी डर जाय, उसका तो और दिल बहलाना चाहिए, न कि लाश दिखाना। और लोगों से पूछो, उनकी क्या राय है। मेरे तोओ हाथ-पाँव फूल गए हैं।

आखिर यह राय तय पाई कि दुलहिन लाश पर जरूर जायँ।

सिपहआरा चलने को तैयार हो गईं।

बड़ी बेगम - बेटा, अब मैं क्या कहूँ, तुम्हारी जो मर्जी हो वह करो।

सिपहआरा - बस हमें लाश दिखा दो, फिर हम कोई तकलीफ न देंगे।

बड़ी बेगम - अच्छा जाओ, मगर इतना याद रखना कि जो मरा वह जिंदा नहीं हो सकता।

सिपहआरा ने अब्बासी को हुक्म दिया कि जा कर संदूक लाओ। संदूक आया तो सिपहआरा ने अपना कीमती जोड़ा निकाला, सुहाग का इत्र मला, कीमती दुपट्टा ओढ़ा जिसमें मोतियों की बेल लगी हुई थी। सिर पर जड़ाऊ छपका, जड़ाऊ टीका, चोटी में सीसफूल, नाक में नथ, जिसके मोतियों की कीमत अच्छे-अच्छे जौहरी न लगा सकें, कानों में पत्ते, बालियाँ, बिजलियाँ, करनफूल, गले में मोतियों की माला, तौक, चंदनहार, चंपाकली, हाथों में कंगन, चूड़ियाँ, पोर-पोर छल्ले, पाँव में पायजेब, छागल। इस तरह सोलहों सिंगार करकने वह बड़ी बेगम और अब्बास के साथ पालकी गाड़ी में सवार हुई। शहर में धूम मच गई कि दुलहिन दूल्हा की लाश पर जाती हैं। शाहजादे की माँ को इत्तला दी गई कि दुलहिन आती हैं। जरा देर में गाड़ी पहुँच गई। हजारों आदमियों ने छाती पीटना शुरू किया। सिपहआरा ने गाड़ी से उतरते ही लाश को छाती से लगाया और उसके सिरहाने बैठ कर ऊँची आवाज से कहा - प्यारे शाहजादे, जरी आँख खोल कर मुस्करा दो। बस, दो दिन हँसा कर उम्र भर रुलाओगे? जरी अपनी दुलहिन को तो आँख-भरके देख लो। क्यों जी, यही मुहब्बत थी, इसी दिन के लिए दिल मिलाया था?

शाहजादे की माँ ने सिपहआरा को छाती से लगा कर कहा - बेटी हुमायूँ फर तुम्हारे बड़े दुश्मन निकले। हाय, यह अंधेर भी कहीं होता है कि दुलहिन लाश पर आए। निकाह के वक्त वकील और गवाह तो दूर रहे, दूसरा मुकदमा छिड़ गया।

सिपहआरा ने अपनी माँ की तरफ देख कर कहा - अम्माँजान, आपने हमारे साथ बड़ी दुश्मनी की पहले ही शादी कर देंती तो यों नामुराद तो न जाती।

इधर तो यह कुहराम मचा हुआ था, उधर शहर के बेफिक्रे अपनी खिचड़ी अलग ही पकाते थे।

एक औरत - आज जब घर से निकली थी तो काने आदमी का मुँह देखा था। इधर डोली में पाँव गया और उधर पट से छींक पड़ी।

दूसरा आदमी - अजी बीबी, न कुछ छींक से होता है, न किसी से, 'करम-लेख नहिं मिटै करै कोई लाखन चतुराई।' किस्मत के लिखे को कोई भी आज तक मिटा सका है? देखिए,करोड़ों रुपए घर में भरे हैं, मगर किस काम के!

मौलवी - मियाँ, दुनिया के यही कारखाने हैं, इनसान को चाहिए कि किसी से न झगड़े, न किसी से फसाद करे, बस, खुदा की याद करता रहे।

एक बुढ़िया - सुनते हैं कि दो-तीन दिन से रात को बुरे-बुरे ख्वाब देखते थे।

मौलवी - हम इसके कायल नहीं, ख्वाब क्या चीज है!

सिपहआरा को इस वक्त वह दिन याद आया, जब शाहजादा हुमायँ फर अपनी बहन बन कर उनसे गले मिलने गए। एक वह दिन था और एक आज का दिन है। हमने उस हुमायूँ फर को बुरा-भला क्यों कहा था?

बड़ी बेगम ने कहा - बेटी, अब जरी बैठ जाओ, दम ले लो।

अब्बासी - हुजूर, इस मर्ज का तो इलाज ही नहीं है।

सिपहआरा - दवा हर मर्ज की है! इस मर्ज की दवा भी सब्र ही है। सब्र ही ने हमें इस काबिल किया कि हुमायूँ फर की लाश अपनी आँखों देख रहे हैं!

जब लोगों ने देखा कि सिपहआरा की हालत खराब होती जाती है तो उन्हें लाश के पास से हटा ले गए। गाड़ी पर सवार किया और घर ले गए।

गाड़ी में बैठ कर सिपहआरा रोने लगीं और बड़ी बेगम से बोलीं - अम्माँजान, अब हमें कहाँ लिए चलती हो?

बड़ी बेगम - बेटी, मैं क्या करूँ, हाय!

सिपहआरा - अम्माँजान, करोगी क्या, मैंने क्या कर लिया?

अब्बासी - हमारी किस्मत फूट गई, शादी का दिन देखना नसीब में लिखा ही न था। आज के दिन और हम मातम करें!

सिपहआरा - अम्माँजान, इस वक्त बेचारा कहाँ होगा?

बड़ी बेगम - बेटी, खुदा के कारखाने में किसी को दखल है?

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 85

एक पुरानी, मगर उजाड़ बस्ती में कुछ दिनों से दो औरतों ने रहना शुरू किया है। एक का नाम फिरोजा है, दूसरी का फारखुंदा। इस गाँव में कोई डेढ़ हजार घर आबाद होंगे, मगर उन सब में दो ठाकुरों के मकान आलीशान थे। फिरोजा का मकान छोटा था, मगर बहुत खुशनुमा। वह जवान औरत थी, कपड़ेलत्ते भी साफ-सुथरे पहनती थी, लेकिन उसकी बातचीत से उदासी पाई जाती थी। फरखुंदा इतनी हसीन तो न थी, मगर खुशमिजाज थी। गाँववालों को हैरत थी कि यह दोनों औरतें इस गाँव में कैसे आ गईं और कोई मर्द भी साथ नहीं! उनके बारे में लोग तरह-तरह की बातें किया करते थे। गाँव की सिर्फ दो औरतें उनके पास जाती थीं, एक तंबोलिन, दूसरी बेलदारिन। यार लोग टोह में थे कि यहाँ का कुछ भेद खुले, मगर कुछ पता न चलता था। तंबोलिन और बेलदारिन से पूछते थे तो वह भी आँय-बाँय-साँय उड़ा देती थीं।

एक दिन उस गाँव में एक कांस्टेबिल आ निकला। आते ही एक बनिये से शक्कर माँगी। उसने कहा - शक्कर नहीं गुड़ है। कांस्टेबिल ने आव देखा न ताव, गाली दे बैठा। बनिये ने कहा - जबान पर लगाम दो। गाली न जबान से निकालो। इतना सुनना था कि कांस्टेबिल ने बढ़ कर दो घूसे लगाए और दुकान की चीजें फेक-फाँक दीं। सामने वाला दुकानदार मारे डर के शक्कर ले आया, तब हजरत ने कहा - काली मिर्च लाओ। वह बेचारा काली मिर्च भी लाया। तब आपने दो लोटे शरबत की पिए और कुएँ की जगत पर लेट कर एक लाला जी को पुकारा - ओ लाला, सराफी पीछे करना; पहले एक चादर तो दे जाओ। लाला बोले - हमारे पास और कोई बिछौना नहीं है, बस एक बिस्तरा है। कांस्टेबिल उठ कर दुकान पर गया। चादर उठा ली और कुएँ की जगत पर बिछा कर लेटा। लाला बेचारे मुँह ताकने लगे। अभी हजरत सो रहे थे कि एक औरत पानी भरने आई। आपने पाँव की आहट जो पाई तो चौंक उठे और गुल मचा कर बोले - अलग हट, चली वहाँ से घड़ा सिर पर लिए पानी भरने!

सूझता नहीं, कौन लेटा है, कौन बैठा है? इस पर एक आदमी ने कहा, वाह! तुम तो कुएँ के मालिक बन बैठे! अब तुम्हारे मारे कोई पानी न भरे? दूसरा बोला - सराफ की दुकान से चादर लाए, मुफ्त में शक्कर ली और डपट रहे हैं।

एक ठाकुर सहब टट्टू पर सवार चले जाते थे। इन लोगों की बातें सुन कर बोले - साहब को एक अर्जी दे दो, बस सारी शेखी किरकिरी हो जाय।

कांस्टेबिल ने ललकारा - रोक ले टट्टू। हम चालान करेंगे।

ठाकुर - क्यों रोक लें, हम अपनी राह जा रहे हैं, तुमसे मतलब?

ठाकुर - तो जुल्मी कहाँ है? हम ऐसे-वैसे ठाकुर नहीं है, हमसे बहुत रोब न जमाना।

इतने में दो-एक आदमियों ने आकर दोनों को समझाया, भाई, जवान, छोड़ दो, इज्जतदार आदमी हैं। इस गाँव के ठाकुर हैं, उनको बेइज्जत न करो।

इधर ठाकुर को समझाया कि रुपया-अधेली ले-दे कर अलग करो, कहाँ की झंझट लगाई है। मुफ्त में चालान कर देगा तो गाँव भर में हँसी होगी। कुछ यह समझे, कुछ वह समझे। अठन्नी निकाल कर कांस्टेबिल की नजर की, तब जा कर पीछा छूटा।

अब तो गाँव मे और भी धाक बँध गई। पनभरनियाँ मारे डर के पानी भरने न आईं, यह इधर-उधर ललकारने लगे। गल्ले की चंद गाड़ियाँ सामने से गुजरीं। आपने ललकारा, रोक ले गाड़ी। क्यों बे पटरी से नहीं जाता, सड़क तो साहब लोगों के लिए है। एक गाड़ीवान ने कहा - अच्छा साहब, पटरी पर किए देते हैं। आपने उठ कर एक तमाचा लगा दिया और बोले, और सुनो, एक तो जुर्म करें, दूसरे टर्रायँ। सब के सब दंग हो गए कि टर्राया कौन, उस बेचारे ने तो इनके हुक्म की तामील की थी। हलवाई से कहा - हमको सेर भर पूरी तौल दो। वह भी काँप रहा था कि देखें, कब शामत आती है, कहा, अभी लाया। तब आप बोले कि आलू की तरकारी है? वह बोला - आलू तो हमारे पास नहीं है, मगर उस खेत से खुदवा लाओ तो सब मामला ठीक हो जाय। कहने भर की देर थी। आप जा कर किसान से बोले - अरे, एक आध सेर आलू खोद दे। उसकी शामत जो आई तो बोला - साहब, चार आने सेर होई, चाहे लेव चाहे न लेव। समझ लो। आपने कहा, अच्छा भाई लाओ, मगर बड़े-बड़े हों।

किसान आलू लाया। तरकारी बनी, जब आप चलने लगे तो किसान ने पैसे माँगे। इसके जवाब में आपने उस गरीब को पीटना शुरू किया।

किसान - सेर भर आलू लिहिस पैसा न दिहिस, और ऊपर से मारत है।

मुराइन - और अलई के पलवा बकत है, राम करै, देवी-भवानी खा जायँ।

लोगों ने किसान को समझाया कि सरकारी आदमी के मुँह क्यों लगते हो। जो कुछ हुआ सो हुआ, अब इन्हें दो सेर आलू ला दो। किसान आलू खोद लाया। आपने उसे रूमाल में बाँधा और 8 पैसे निकाल कर हलवाई को देने लगे।

हलवाई - यह भी रहने दो, पान खा लेना।

कांस्टेबिल - खुशी तुम्हारी। आलू तो हमारे ही थे।

हलवाई - बस, अब सब आप ही का है।

कांस्टेबिल ने खा-पी कर लंबी तानी तो दो घंटे तक सोया किए। जब उठे तो पसीने में तर थे। एक गँवार को बुला कर कहा - पंखा झल। वह बेचारा पंखा झलने लगा। जब आप गाफिल हुए तो उसने इनकी लुटिया और लकड़ी उठाई और चलता धंधा किया। यह उनके भी उस्ताद निकले।

जमादार की आँख खुली तो पंखा झलने वाले का कहीं पता ही नहीं। इधर-उधर देखा तो लुटिया गायब। लाठी नदारद। लोगों से पूछा, धमकाया, डराया, मगर किसी ने न सुना। और बताए कौन? सब के सब तो जले बैठे थे। तब आपने चौकीदारों को बुलाया और धमकाने लगे। फिर सबों को ले कर गाँव के ठाकुर के पास गए और कहा - इसी दम दौड़ आएगी। गाँव-भर फूँक दिया जायगा, नहीं तो अपने आदमियों से पता लगवाओ।

ठाकुर - ले अब हम कस-कस उपाव करी। चोर का कहाँ ढूँढ़ी?

जमादार - हम नहीं जानता। ठाकुर हो कर के एक चोर का पता नहीं लगा सकता।

ठाकुर - तुमहू तो पुलिस के नौकर हो। ढूँढ़ निकालो।

ठाकुर साहब से लोगों ने कहा - यह सिपाही बड़ा शैतान है। आप साहब को लिख भेजिए कि हमारी रिआया को सताता है। बस, यह मौकूफ हो जाय। ठाकुर बोले - हम सरकारी आदमियों से बतबढ़ाव नहीं करते। कांस्टेबिल को तीन रुपए दे कर दरवाजे से टाला।

जमादार साहब यहाँ से खुश-खुश चले तो एक घोसी की लड़की से छेड़छाड़ करने लगे। उसने जा कर अपने बाप से कह दिया। वह पहलवान था, लँगोट बाँध कर आया और जमादार साहब को पटक कर खूब पीटा।

बहुत से आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे। जमादार ने चूँ तक न की, चुपके से झाड-पोंछ कर उठ खड़े हुए और गाँव की दूसरी तरफ चले। इत्तिफाक से फीरोजा अपनी छत पर खड़ी बाल सुलझा रही थी। जमादार की नजर पड़ी तो हैरत हुई। बोले - अरे, यह किसका मकान है? कोई है इसमें?

पड़ोसी - इस मकान में एक बेगम रहती हैं। इस वक्त कोई मर्द नहीं है।

जमादार - तू कौन है? बता इसमें कौन रहता है? और मकान किसका है?

पड़ोसी - मकान तो एक अहीर का है, गुल इसमें एक बेगम टिकी हैं।

जमादार - कहो, दरवाजे पर आवें। बुला लाओ।

पड़ोसी - वाह, वाह परदेवाली हैं। दरवाजे पर न आएगी।

जमादार - क्या! परदा कैसा? बुलाता है कि घुस जाऊँ घर में? परदा लिए फिरता है!

फीरोजा के होश उड़ गए। फरखुंदा से बोली - अब गजब हो गया। भाग के यहाँ आई थी, मगर यहाँ भी वही बला सिर पा आई।

फरखुंदा - इसको कहाँ से खबर हुई?

फीरोजा - क्या बताऊँ? इस वक्त कौन इससे सवाल-जवाब करेगा?

फरखुंदा - देखिए, पड़ोसिन को बुलाती हूँ। शायद वह काम आएँ।

दरवाजा खुलने में देर हुई तो कांस्टेबिल ने दरवाजे पर लात मारी और कहा - खोल दो दरवाजा, हम दौड़ लाए हैं। मुहल्लेवालों ने कहा - भई, तुम्हारे पास न सम्मन, न सफीना। फिर किसके हुक्म से दरवाजा खुलवाते हो? ऐसा भी कहीं हुआ है। इन बेचारियों का जुर्म तो बताओ!

जमादार - जुर्म चलके साहब से पूछो जिनके भेजे हम आए हैं। सम्मन सफीना दीवानी के मजकूरी लाते हैं। हम पुलिस के आदमी हैं।

दूसरे आदमी ने आगे बढ़ कर कहा - सुनो भई जवान, तुम इस वक्त बड़ा भारी जुल्म कर रहे हो। भला इस तरह कोई काहे को रहने पाएगा।

जमादार ने अकड़ कर कहा - तुम कौन हो? अपना नाम बताओ। तुम सरकारी आदमी को अपना काम करने से रोकते हो। हम रपट बोलेंगे।

यह सुन कर वह हजरत चकराए और चुपके लंबे हुए। तब जमादार ने गुल मचा कर कहा, मुखबिरों ने हमें खबर दी है कि तुम्हारे लड़का होने वाला है। हमको हुक्म है कि दरवाजे पर पहरा दें।

पड़ोसिन ने जो यह बात सुनी तो दाँतो-तले अँगुली दबाई - ऐ है, यह गजब खुदा का, हमें आज तक मालूम ही न हुआ, हम भी सोचते थे कि यह जवान-जहान औरत शहर से भाग कर गाँव में क्यों आई! यह मालूम ही न था कि यहाँ कुछ और गुल खिलनेवाला है।

इतने में फरखुंदा ने कोठे पर जा कर पड़ोसिन से कहा - हरी अपने मियाँ से कहो कि इस सिपाही से कुल हाल पूछें - माजरा क्या है?

पड़ोसिन कुछ सोच कर बोली - भई, हम इस मामले में दखल न देंगे। ओह, तुम्हारी बेगम ने तो अच्छा जाल फैलाया था, हमारे मियाँ को मालूम हो जाय कि यह ऐसी हैं तो मुहल्ले से खड़े-खड़े निकलवा दें।

इतने में पड़ोसिन के मियाँ भी आए। फरखुंदा उनसे बोली, खाँ साहब, जरी इस सिपाही को समझाइए, यह हमारे बड़ी मुसीबत का वक्त है।

खाँ साहब - कुछ न कुछ तो उसे देना ही पड़ेगा।

फरखुंदा - अच्छा, आप फैसला करा दें। जो माँगे वह हमसे इसी दम ले।

खाँ साहब - इन पाजियों ने नाक में दम कर दिया है और इस तरफ की रिआया ऐसी बोदी है कि कुछ न पूछो। सरकार ने इन पियादों को इंतजाम के लिए रखा है और यह लोग जमीन पर पाँव नहीं रखते। सरकार को मालूम हो जाय तो खड़े-खड़े निकाल दिए जायँ।

पड़ोसिन - पहले बेगम से यह तो पूछो कि शहर से यहाँ आ कर क्यों रही हैं? कोई न कोई वजह तो होगी।

फरखुंदा ने दो रुपए दिए और कहा, जा कर यह दे दीजिए। शायद मान जाय। खाँ साहब ने रुपए दिए तो सिपाही बिगड़ कर बोला - यह रुपया कैसा? हम रिश्वत नहीं लेते!

खाँ साहब - सुनो मियाँ, जो हमसे टर्राओगे, तो हम ठीक कर देंगे। टके का पियादा, मिजाज ही नहीं मिलता।

सिपाही - मियाँ, क्यों शामतें आई हैं, हम पुलिस के लोग हैं, जिस वक्त चाहें, तुम जैसों को जलील कर दें। बतलाओ तुम्हारी गुजर-बसर कैसे होती है? बचा, किसी भले घर की औरत भगा लाए हो और ऊपर से टर्राते हो!

खाँ साहब - यह धमकियाँ दूसरों को देना। यहाँ तुम जैसे को अँगुलियों पर नचाते हैं।

सिपाही ने देखा कि यह आदमी कड़ा है तो आगे बढ़ा। एक नानबाई की दुकान पर बैठ कर मजे का पुलाव उड़ाया और सड़क पर जा कर एक गाड़ी पकड़ी। गाड़ीवान की लड़की बीमार थी। बेचारा गिड़गिड़ाने लगा, मगर सिपाही ने एक न मानी। इस पर एक बाबू जी बोल उठे - बड़े बेरहम आदमी हो जी! छोड़ क्यों नहीं देते?

सिपाही - कप्तान साहब ने मँगवाया है, छोड़ कैसे दूँ? यह इसी तरह के बहाने किया करते हैं, जमाने भर के झूठे!

आखिर गाड़ीवान ने सात पैसे और एक कद्दू दे कर गला छुड़ाया। तब आपने एक चबूतरे पर बिस्तर जमाया और चौकीदार से हुक्का भरवा कर पीने लगे। जब जरा अँधेरा हुआ, तो चौकीदार ने आ कर कहा - हवलदार साहब, बड़ा अच्छा शिकार चला जात है। एक महाजन की मेहरिया बैलगाड़ी पर बैठी चली जात है। गहनन से लदी है।

सिपाही - यहाँ से कितनी दूर है?

चौकीदार - कुछ दूर नाहिन, घड़ी भर में पहुँच जैहों। बस एक गाड़ीवान है और एक छोकरा। तीसर कोऊ नहीं।

सिपाही - तब तो मार लिया है। आज किसी भले आदमी का मुँह देखा है। हमारे साथ कौन-कौन चलेगा?

चौकीदार - आदमी सब ठीक हैं, कहैं भर की देर है। हुक्म होय तो हम जाके सब ठीक करी।

सिपाही - हाँ-हाँ और क्या?

अब सुनिए कि महाजन की गाड़ी बारह बजे रात को एक बाग की तरफ से गुजरी जा रही थी कि एकाएक छः सात आदमी उस पर टूट पड़े। गाड़ीवान को एक डंडा मारा। कहार को भी मार के गिरा दिया। औरत के जेवर उतार लिए और चोर-चोर का शोर मचाने लगे। गाँव में शोर मच गया कि डाका पड़ गया। कांस्टेबिल ने जा कर थाने में इत्तला की। थानेदार ने चौकीदर से पूछा, तुम्हारा किस पर शक है। चौकीदार ने कई आदमियों का नाम लिखाया और फिरोजा के पड़ोसी खाँ साहब भी उन्हीं में थे। दूसरे दिन उसी सिपाही ने खाँ साहब के दरवाजे पर पहुँच कर पुकारा। खाँ साहब ने बाहर आ कर सिपाही को देखा तो मूँछों पर ताव दे कर बोले, क्या है साहब, क्या हुक्म है? सिपाही- चलिए, वहाँ बरगद के तले तहकीकात हो रही है! दारोगा जी बुलाते हैं।

खाँ - कैसी तहकीकात? कुछ सुने तो!

सिपाही - मालूम हो जायगी! चलिए तो सही।

खाँ - सुनो जी, हम पठान हैं। जब तक चुप हैं तब तक चुप हैं। जिस दम गुस्सा आया, फिर या तुम न होगे या हम न होंगे। कहाँ चलें, कहाँ?

सिपाही - मुझे आपसे कोई दुश्मनी तो है नहीं, मगर दारोगा जी के हुक्म से मजबूर हूँ।

चौकीदार - लोधे को बुलाया है, घोसी को और तुमको।

खाँ - ऐं, वह तो सब डाकू हैं।

सिपाही - और आप बड़े साहु हैं! बड़ी शेखी।

खाँ - क्यों अपनी जान के दुश्मन हुए हो?

सिपाही - अब चलिएगा या वारंट आए।

खाँ साहब घर में कपड़े पहनने गए तो बीवी ने कहा, कैसे पठान हो? मुए प्यादे की क्या हकीकत है कि दरवाजे पर खोटी-खरी कहे। भला देखूँ तो निगोड़ा तुम्हें वह क्योंकर ले जाता है। यह कह कर वह दरवाजे पर आ कर बोली, क्यों रे, तू इन्हें कहाँ लिए जाता है? बता, किस बात की तहकीकात होगी? क्या तेरा बाप कतल किया करता है?

सिपाही - आप खाँ साहब को भेज दें। अजी खाँ साहब, आइएगा या वारंट आए?

बीवी - वारंट ले जा अपने होतों-सोतों के यहाँ।

सिपाही - यह औरत तो बड़ी कल्ला-दराज हें।

बीवी - मेरे मुँह लगेगा तो मुँह पकड़के झुलस दूँगी। वारंट अपने बाप-दादा के नाम ले जा!

इतने में खाँ साहब ढाटा बाँध कर बाहर निकले और बोले - ले तुझे दाएँ हाथ खाना हराम है जो न ले चले।

सिपाही - बस, बहुत बढ़-बढ़ कर बातें न कीजिए, चुपके से मेरे साथ चलिए।

खाँ साहब अकड़ते हुए चले तो सिपाही ने फिरोजा के दरवाजे पर खड़े हो कर कहा, इन्हें तो लिए जाते हैं, अब तुम्हारी बारी भी आएगी।

खाँ साहब बरगद के नीचे पहुँचे तो देखा, गाँव भर के बदमाश जमा हैं। और दारोगा जी चारपाई पर बैठे हुक्का पी रहे हैं। बोले, क्यों जनाब, हमें क्यों बुलाया?

दारोगा - आज गाँव भर के बदमाशों की दावत है।

खाँ साहब ने डंडे को तौल कर कहा, तो फिर दो एक बदमाशों की हम भी खबर लेंगे।

दारोगा - बहुत गरमाइए नहीं, चौकीदारों ने हमसे जो कहा वह हमने किया।

खाँ - और जो चौकीदार आपको कुएँ में कूद पड़ने की सलाह दे?

दारोगा - तो हम कूद पड़ें?

खाँ - तो हमारी निस्बत आखिर क्या जुर्म लगाया गया है?

दारोगा - कल रात को तुम कहाँ थे?

खाँ - अपने घर पर, और कहाँ।

चौकीदार - हुजूर, बखरी में नाहीं रहे और एक मनई इनका वही बाग के भीतर देखिस रहा।

खाँ साहब ने चौकीदार को एक चाँटा दिया, सुअर, अबे हम चोर हैं? रात को हम घर पर न थे?

दारोगा जी ने कहा, क्यों जी, हमारे सामने यह मार-पीट! तुम भी पठान हो और हम भी पठान हैं। अगर अबकी हाथ उठाया तो तुम्हारी खैरियत नहीं।

इतने में एक अंगरेज घोड़े पर सवार उधर से आ निकला। यह जमघट देख कर दारोगा से बोला, क्या बात है? दारोगा ने कहा, गरीब परवर, एक मुकदमे की तहकीकात करने आए हैं। इस पठान की निस्बत एक चोरी का शक है, मगर यह तहकीकात नहीं करने देता। चौकीदार को कई मरतबा पीट चुका है। चौकीदार ने कहा, दोहाई है साहब की! दोहाई है, मारे डारत है।

साहब ने कहा - वेल, चालान करो। हमारी गवाही लिखवा दो, हमारा नाम मेजर कास है।

लीजिए, चोरी और डाका तो दूर रहा, एक नया जुर्म साबित हो गया।

अब दारोगा जी ने गवाहों के बयान लिखने शुरू किए। पहले एक तंबोलिन आई। भड़कीला लहँगा पहने हुए, माँग-चोटी से लैस, मुँह में गिलौरी दबी हुई, हाथ में पान के बीड़े, आ कर दरोगा जी को बीड़े दे कर खड़ी हो गई।

दारोगा - तुमने खाँ साहब को रात के वक्त कहाँ देखा था?

तंबोलिन - उस पूरे के पास। इनके साथ तीन-चार आदमी और थे। सब लट्ठ बंद। एक आदमी ने कहा, छीन लो सास से, मैं बोली कि बोटियाँ नोच लूँगी, मैं कोई गँवारिन नहीं हूँ। खाँ साहब ने मुझसे कहा, तंबोलिन, कहो फतह है।

खाँ - अरी तंबोलिन!

तंबोलिन - जरा अरी तरी न करना मुझसे, मैं कोई चमारिन नहीं हूँ।

खाँ - तुमने हमको चोरों के साथ देखा था?

तंबोलिन - देखा ही था क्या कुछ अंधे हैं, चोर तो तुम हो ही।

खाँ - खुदा इस झूठ की सजा देगा।

तंबोलिन - इसका हाल तो जब मालूम होगा, तब बड़े घर में चक्की पीसोगे।

खाँ - और वहाँ गीत गाने के लिए तुमको बुला लेंगे।

दूसरे गवाह ने बयान किया, मैं रात को ग्यारह बजे इस पूरे की तरफ जाता था तो खाँ साहब मुझे मिले थे।

खाँ - कसम खुदा की, कोई आदमी मेरी ही शक्ल का रहा होगा।

दारोगा - आपने ठीक कहा।

काले खाँ - जब पठान होके ऐसी हरकतें करने लगे तो इस गाँव का खुदा ही मालिक है। कौन कह सकता है कि यह सफेद-पोश आदमी डाका डालेगा।

खाँ - खुदा की कसम, जी चाहता है सिर पीट लूँ, मगर खैर, हम भी इसका मजा चखा देंगे।

दारोगा - पहले अपने घर की तलाशी तो करवाइए, मजा पीछे चखवाइएगा।

यह कह कर दारोगा जी खाँ साहब के घर पहुँचे और कहा, जल्दी परदा करो, हम तालाशी लेंगे। खाँ साहब की बीवी ने सैकड़ों गालियाँ दीं, मगर मजबूर हो कर परदा किया। तलाशी होने लगी। दो बालियाँ निकलीं, एक जुगुनू और एक छपका! खाँ साहब की बीवी हक्का-बक्का हो कर रह गई, यह जेवर यहाँ कहाँ से आए? या खुदा, अब हमारी आबरू तेरे ही हाथ है!

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 86

फीरोजा बेगम और फरखुंदा रात के वक्त सो रही थीं कि धमाके की आवाज हुई फरखुंदा की आँख खुल गई। यह धमाका कैसा? मुँह पर से चादर उठाई, मगर अँधेरा देख कर उठने की हिम्मत न पड़ी। इतने में पाँव की आहट मिली, रोएँ खड़े हो गए। सोची, अगर बोली तो यह सब हलाल कर डालेंगे। दबकी पड़ी रही। चोर ने उसे गोद में उठाया और बाहर ले जा कर बोला - सुनो अब्बासी, हमको तुम खूब पहचानती हो? अगर न पहचान सकी हो, तो अब पहचान लो।

अब्बासी - पहचानती क्यों नहीं, मगर यह बताओ कि यहाँ किस गरज से आए हो? अगर हमारी आबरू लेनी चाहते हो तो कसम खा कर कहती हूँ, जहर खा लूँगी।

चोर - हम तुम्हारी आबरू नहीं चाहते, सिर्फ तुम्हारा जेवर चाहते हैं। तुम अपनी बेगम को जगाओ, जरा उनसे मिलूँगा। नाहक इधर-उधर मारी-मारी फिरती हैं, हमारे साथ निकाह क्यों नहीं कर लेतीं?

यकायक फीरोजा की आँख भी खुल गई। देखा तो मिर्जा आजाद खड़े हैं। बोली, आजाद मिर्जा, अगर हमें दिक करने से तुम्हें कुछ मिलता हो तो तुमको अख्तियार है। नाहक क्यों हमारी जान के दुश्मन हुए हो? इस मुसीबत के वक्त तुमसे मदद की उम्मीद थी और तुम उल्टे गला रेतने को मौजूद?

अब्बासी - बेगम आपको हमेशा याद किया करती हैं।

आजाद - मेरे लायक जो काम हो, उसके लिए हाजिर हूँ, तुम्हारे लिए जान तक हाजिर है।

सुरैया - आपकी जान आपको मुबारक रहे, हम सिर्फ एक काम को कहते हैं। यहाँ एक कानिस्टिबिल ने हमें बहुत दिक किया है, तुम किसी तदबीर से हमें उसके पंजे से छुड़ाओ, ( आजाद के कान में कुछ कह कर) मुझे इस बात का बड़ा रंज है। मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।

आजाद - वही कानिस्टिबिल तो नहीं है जो खाँ साहब को पकड़ ले गया है।

फीरोजा - हाँ-हाँ, वही।

आजाद - अच्छा, समझा जायगा। खड़े-खड़े उससे समझ लूँ तो सही। उसने अच्छे घर बयाना दिया!

सुरैया - कंबख्त ने मेरी आबरू ले ली, कहीं मुँह दिखाने लायक न रखा। यहाँ भी बला की तरह सिर पर सवार हो गया। तुमने भी इतने दिनों के बाद आज खबर ली। दूसरों का दर्द तुम क्या समझोगे? जो बेइज्जती कभी न हुई थी वह आज हो गई। एक दिन वह था कि अच्छे-अच्छे आदमी सलाम करने आते थे और आज एक कानिस्टिबिल मेरी आबरू मिटाने पर तुला हुआ है और तुम्हारे होते।

आजाद - सुरैया बेगम, खुदा की कसम, मुझे बिलकुल खबर न थी, मैं इसी वक्त जा कर दारोगा और कानिस्टिबिल दोनों को देखता हूँ। देख लेना, सुबह तक उनकी लाश फड़कती होगी, ऐसे-ऐसे कितनों को जहन्नुम के घाट उतार चुका हूँ। इस वक्त रुखसत करो, कल फिर मिलूँगा।

यह कह कर आजाद मिर्जा बाहर निकले। यहाँ उनके कई साथी खड़े थे, उनसे बोले, भाई जवानों! आज कोतवाल के घर हमारी दावत है, समझ गए, तैयार हो जाओ। उसी वक्त आजाद मिर्जा और लक्ष्मी डाकू, गुलबाज, रामू यह सब के सब दारोगा के मकान पर जा पहुँचे। रामू को तो बैठक में रखा और महल्ले भर के मकानों की कुंडियाँ बंद करके दारोगा जी के घर में सेंध लगाने की फिक्र करने लगे।

दरबान - कौन! तुम लोग कौन हो, बोलते क्यों नहीं?

आजाद - क्या बताएँ, मुसीबत के मारे हैं, इधर से कोई लाश तो नहीं निकली?

दरबान - हाँ, निकली तो है, बहुत से आदमी साथ थे।

आजाद - हमारे बड़े दोस्त थे, अफसोस!

लक्ष्मी - हुजूर, सब्र कीजिए, अब क्या हो सकता है!

दरबान - हाँ भाई, परमेश्वर की माया कौन जानता है, आप कौन ठाकुर हैं?

लक्ष्मी - कनवजिया ब्राह्मण हैं। बेचारे के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, कौन उनकी परवरिश करेगा!

दरबान को बातों में लगा कर इन लोगों ने उसकी मुश्कें कर लीं और कहा, बोले और हमने कत्ल किया। बस, मुँह बंद किए पड़े रहो।

दीवार में सेंध पड़ने लगी। रामू कहीं से सिरका लाया। सिरका छिड़क-छिड़ककर दीवार में सेंध दी। इतने में एक कानिस्टिबिल ने हाँक लगाई - जागते रहियो, अँधेरी रात है।

आजाद - हमारे लिए अँधेरी रात नहीं, तुम्हारे लिए होगी।

चौकीदार - तुम लोग कौन हो?

आजाद - तेरे बाप। पहचानता है या नहीं?

यह कह कर आजाद ने करौली से चौकीदार का काम तमाम कर दिया।

लक्ष्मी - भाई, यह तुमने बुरा किया। कितनी बेरहमी से इस बेचारे की जान ली!

आजाद - बस, मालूम हो गया कि तुम ना के चोर हो, बिलकुल कच्चे!

अब यह तजवीज पाई कि मिर्जा आजाद सेंध के अंदर जाएँ। आजाद ने पहले सेंध में पाँव डाले, डालते ही किसी आदमी ने अंदर से तलवार जमाई दोनों पाँव खट से अलग।

आजाद - हाय मरा! अरे दौड़ो!

लक्ष्मी - बड़ा धोखा हुआ, कहीं के न रहे!

चोरों ने मिल कर आजाद मिर्जा का धड़ उठाया और रोते-पीटते ले चले, मगर रास्ते ही में पकड़ लिए गए।

मुहल्ले भर में जाग हो गई। अब जो दरवाजा खोलता है, बंद पाता है। यह कौन बंद कर गया? दरवाजा खोलो! कोई सुनता ही नहीं। चारों तरफ यही आवाजें आ रही थीं। सिर्फ एक दरवाजे में बाहर से कुंडी न थी। एक बूढ़ा सिपाही एक हाथ में मशाल, दूसरे में सिरोही लिए बाहर निकला। देखा तो दारोगा जी के घर में सेंध पड़ी हुई है! चोर-चोर!

एक कानि. - खून भी हुआ है। जल्द आओ।

सिपाही - मार लिया है, जाने न पावे।

यह कह कर उसने दरवाजे खोलने शुरू किए। लोग फौरन लट्ठ ले-ले कर बाहर निकले। देखा तो चोरों और कानिस्टिबिलों में लड़ाई हो रही है। इन आदमियों को देखते ही चोर तो भाग निकले! आजाद मिर्जा और लक्ष्मी रह गए। आजाद की टाँगे कटी हुई। लक्ष्मी जख्मी। थाने पर खबर हुई। दारोगा जी भागे हुए अपने घर आए। मालूम हुआ कि उनके घर की बारिन ने चोरों को सेंध देते देख लिया था। फौरन जा कर कोठरी में बैठ रही। ज्यों ही आजाद मिर्जा ने सेंध में पाँव डाला, तलवार से उनके दो टुकड़े कर दिए।

आजाद पर मुकदमा चलाया गया। जुर्म साबित हो गया। कालेपानी भेज दिए गए।

जब जहाज पर सवार हुए तो एक आदमी से मुलाकात हुई। आजाद ने पूछा, कहो भाई, क्या किया था? उसने आँखों में आँसू भर के कहा, भाई, क्या बताऊँ? बे-कसूर हूँ। फौज में नौकर था, इश्क के फेर में नौकरी छोड़ी, मगर माशूक तो न मिला, हम खराब हो गए।

यह शहसवार था।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 87

खाँ साहब पर मुकदमा तो दायर ही हो गया था; उस पर दारोगा जी दुश्मन थे। दो साल की सजा हो गई। तब दारोगा जी ने एक औरत को सुरैया बेगम के मकान पर भेजा। औरत ने आ कर सलाम किया और बैठ गई।

सुरैया - कौन हो? कुछ काम है यहाँ?

औरत - ऐ हुजूर, भला बगैर काम के कोई भी किसी के यहाँ जाता है? हुजूर से कुछ कहना है, आपके हुस्न का दूर-दूर तक शोहरा है। इसका क्या सबब है कि हुजूर इस उम्र में, इस हालत में जिंदगी बसर करती हैं?

सुरैया - बहन, मैं एक मुसीबत की मारी औरत हूँ ।

औरत - ऐ हुजूर, मुझे बहिन न कहें, मैं लौंडी, हुजूर शाहजादी हैं। हुजूर पर ऐसी क्या मुसीबत है? हुजूर तो इस काबिल हैं कि बादशाहों के महल में हों।

औरत - अल्लाह मालिक है। कोशिश यह करनी चाहिए कि दुनिया में इज्जत के साथ रहे और किसी का होके रहे।

सुरैया - मगर जब खुदा को भी मंजूर हो। हमने तो बहुत चाहा कि शादी कर लें, मगर खुदा को मंजूर ही न था। किस्मत का लिखा कौन मिटा सकता है?

औरत - हुजूर का हुक्म हो तो कहीं फिक्र करूँ?

सुरैया - हमको माफ कीजिए। हम अब शादी न करेंगे।

औरत - हुजूर से मैं अभी जवाब नहीं चाहती। खूब सोच लीजिए। दो-तीन दिन में जवाब दीजिएगा। यहाँ एक रईसजादे रहते हैं, बहुत ही खूबसूरत, खुशमिजाज और शौकीन। दिल बहलाने के लिए नौकरी कर ली है। हुकूमत की नौकरी है।

सुरैया - हुकूमत की नौकरी कैसी होती है?

औरत - ऐसी नौकरी, जिसमें सब पर हुकूमत करें। कोतवाल हैं।

अब्बासी - अच्छा, उन्हीं थानेदार का पैगाम लाई होगी!

औरत - ऐ, थानेदार काहे को हैं, बराय नाम नौकरी कर ली, वरना उनको नौकरी की क्य जरूरत है, वह ऐसे-ऐसे दस थानेदारों को नौकर रख सकते हें।

अब्बासी - हुजूर को तो शादी करना मंजूर ही नहीं है।

औरत - वाह! कैसी बातें करती हो।

सुरैया - तुम उनकी सिखाई-पढ़ाई आई हो, हम समझ गए। उनसे कह देना कि हम बेकस औरत हैं, हम पर रहम करो, क्यों हमारी जान के दुश्मन हुए हो, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो पंजे झाड़ के हमारे पीछे पड़े हो?

औरत - हुजूर के कदमों की कसम, उन्होंने नहीं भेजा है।

सुरैया - अच्छा तो इसमें जबरदस्ती काहे की है।

औरत - आपके और उनके दोनों के हक में यही इच्छा है कि हुजूर इन्कार न करें। वह अफसर पुलिस हैं, जरा सी देर में बे-आबरू कर सकते हैं?

सुरैया - हमारा भी खुदा है।

औरत - खैर न मानो।

औरत दो-चार बातें सुना कर चली गई तो अब्बासी और सुरैया बेगम सलाह करने लगीं-

सुरैया - अब यहाँ से भी भागना पड़ा, और आज ही कल में।

अब्बासी - इस मुए को ऐसी जिद पड़ गई कि क्या कहें! मगर अब भाग के जायँगे कहाँ?

सुरैया - जिधर खुदा ले जाय। कहीं से लाला खुशवक्त राय को लाओ, बड़ा नमकहलाल बुड्ढा है। कोई ऐसी तदबीर करो कि वह कल सुबह तक यहाँ आ जाय।

अब्बासी - कहिए तो कल्लू को भेजूँ, बुला लाए।

कल्लू कौम का लोहार था। ऊपर से तो मिला हुआ था, मगर दिल में इनका दुश्मन था। अब्बासी ने उसको बुला के कहा, तुम जाके लाला खुशवक्त राय को लिवा लाओ। कल्लू ने कहा, तुम साथ चलो तो क्या मुजायका है, मगर अकेला तो मैं न जाऊँगा। आखिर यही तै हुआ कि अब्बासी भी साथ जाय। शाम के वक्त दोनों यहाँ से चले। अब्बासी मर्दाना भेष में थी। कुछ दूर चल कर कल्लू बोला, अब्बासी बुरा न मानो तो एक बात कहूँ! तुम इस बेगम के साथ क्यों अपनी जिंदगी खराब करती हो? उनकी जमा-जथा ले कर चली आओ और मेरे घर पर पड़ रहो।

अब्बासी - तुम मर्दों का ऐतबार क्या?

कल्लू - हम उन लोगों में नहीं हैं।

अब्बासी - भला अब लाला साहब का मकान कितनी दूर होगा?

कल्लू - यही कोई दो कोस, कहो तो सवारी केराया कर लूँ या गोद में ले चलूँ।

अब्बासी - ऐं, या तो घर बिठाते थे, या गोद बिठाने लगे।

कल्लू - भई, बहुत कही, ऐसी कही कि हमारी जबान बंद हो गई।

अब्बासी - ऐ, तुम ऐसे गँवारों को बंद करना कौन बात है।

थोड़ी देर में दोनों एक मकान में पहुँचे। यह कल्लू के दोस्त शिवदीन का मकान था। शिवदीन ने कहा, आओ यार, मिजाज अच्छे?

कल्लू - सब चैन ही चैन है। इनको ले आया हूँ, जो कुछ सलाह करनी हो, कर लो। सुनो अब्बासी, शिवदीन की और हमारी यह राय है कि तुमको अब यहाँ से न जाने दें। बस हमें अपनी बेगम के माल-टाल का पता बतला दो।

अब्बासी - बड़ी दगा दी कल्लू, बड़ी दगा दी तुमने।

कल्लू - अब तुम रात भर यहीं रहो, हम लोग जरा सुरैया बेगम से मुलाकात करने जायँगे।

अब्बासी - बड़ा धोखा दिया, कहीं के न रहे।

अब्बासी तो यहाँ रोती रही, उधर वह दोनों चोर कई आदमियों के साथ सुरैया बेगम के मकान पर जा पहुँचे और दरवाजा तोड़ कर अंदर दाखिल हुए। सुरैया बेगम की आँख खुल गई, बिचारी अकेली मकान में मारे डर के दबकी पड़ी थी। बोली - कौन है? अब्बासी?

कल्लू - अब्बासी नहीं है, हम है, अब्बासी के मियाँ।

सुरैया - हाय मेरे अल्लाह, गजब हो गया?

शिव. - चुप्पे-चुप्पे बोल, बताओ, रुपया कहाँ हैं? सच बता दो, नहीं मारी जाओगी

कल्लू - बताएँ तो अच्छा न बताएँ तो अच्छा, हम घर भर ढूँढ़ ही मरेंगे। सुना है कि तुम्हारे पास जवाहिर के ढेर हैं।

सुरैया - अमीर जब थी तब थी, अब तो मुसीबत की मारी हूँ।

कल्लू - तुम यों न बताओगी, हम कुछ और ही उपाय करेंगे, अब भी बताती है कि नहीं।

सुरैया बेगम ने मारे खौफ के एक-एक चीज का पता बतला दिया। जब सारी जमा-थमा ले कर वे सब चलने लगे, तो कल्लू सुरैया बेगम से बोला, चल हमारे साथ, उठ।

सुरेया - खुदा के लिए मुझे छोड़ दो! रहम करो।

शिव. - चल, चल उठ, रात जाती है।

सुरैया बेगम ने हाथ जोड़े, पाँव पड़ी, रो-रोक कर कहा,खुदा के वास्ते मेरी इज्जत न लो। मगर कल्लू ने एक न सुनी। कहने लगा, तुझे किसी रईस अमीर के हाथ बेचेंगे; तुम भी चैन करोगी, हम भी चैन करेंगे।

सुरैया - मेरा माल लिया, अब तो छोड़ो।

कल्लू - चलो, सीधे से चलो, नहीं तो धकियाई जाओगी। देखो मुँह से आवाज न निकले वरना हम छुरी भोंक देंगे।

सुरैया (रो कर) - या खुदा, मैंने कौन सा गुनाह किया था, जिसके एवज यह मुसीबत पड़ी!

कल्लू - चलती है कि बैठी रोती है?

आखिर सुरैया बेगम को अँधेरी रात में घर छोड़ कर उनके साथ जाना पड़ा।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 88

आध कोस चलने के बाद इन चोरों ने सुरैया बेगम को दो और चोरों के हवाले किया। इनमें एक का नाम बुधसिंह था, दूसरे का हुलास। यह दोनों डाकू दूर-दूर तक मशहूर थे, अच्छे-अच्छे डकैत उनके नाम सुन कर अपने कान पकड़ते थे। किसी आदमी की जान लेना उनके लिए दिल्लगी थी। सुरैया बेगम काँप रही थी कि देखें आबरू बचती है या नहीं। हुलास बोला, कहो बुद्धसिंह, अब क्या करना चाहिए?

बुद्धसिंह - अपनी तो यह मरजी है कि कोई मनचला मिल जाए तो उसी दम पटील डालो।

हुलास - मैं तो समझता हूँ, यह हमारे साथ रहे तो अच्छे-अच्छे शिकार फँसे। सुनो बेगम, हम डकैत हैं, बदमाश नहीं। हम तुम्हें किसी ऐसे जवान के हाथ बेचेंगे, जो तुम्हें अमीरजादी बना कर रखे। चुपचाप हमारे साथ चली आओ।

चलते चलते तीनों आमों के एक बाग में पहुँचे। दोनों डाकू तो चरस पीने लगे, सुरैया बेगम सोचने लगी - खुदा जाने, किसके हाथ बेचें, इससे तो यही अच्छा है कि कत्ल कर दें। इतने ही में दो आदमी बातें करते हुए निकले -

एक - मिर्जा जी, दो बदमाशों से यह शहर पाक हो गया। आजाद और शह-सवार। दोनों ही कालेपानी गए। अब दो मुड्ढा और बाकी हैं।

मिर्जा - वह दो कौन है?

पहला - वही हुलास और बुद्धसिंह। अरे, वह दोनों तो यहीं बैठे हुए हैं! क्यों यारो, चरस के दम उड़ रहे हैं? तुम लोगों के नाम वारंट जारी है।

हुलास - मीर साहब, आप भी बस वही रहे। पड़ोस में रहते हो, फिर भी वारंट से डराते हो? ऐसे-ऐसे कितने वारंट रोज ही जारी हुआ करते हैं। हमसे और पुलिस से तो जानी दुश्मनी है, मगर कसम खाके कहता हूँ कि अगर पचास आदम भी गिरफ्तार करने आएँ तो हमारी गर्द तक न पाए। हम दोनों एक पलटन के लिए काफी हैं। कहिए, आप लोग कहाँ जा रहे हैं?

मिर्जा - अजी, हम भी किसी शिकार ही के तलाश में निकले हैं।

जब मीर और मिर्जा चले गए तो दोनों चोर भी सुरैया बेगम को ले कर चले। इत्तिफाक से उसी वक्त एक सवार आ निकला। बुद्धसिंह ने साईस को तो मार गिराया और मुसाफिर से कहा, अगर आबरू के साथ घोड़ा नजर करो तो बेहतर है, नहीं तो तुम भी जमीन पर लोट रहे होगे। सवार बेचारा उतर पड़ा। हुलास ने तब सुरैया बेगम को घोड़े पर सवार किया और लगाम ले कर चलने लगा।

सुरैया बेगम दिल में सोचती थी कि इतनी ही उम्र में हमने क्या-क्या देखा। यह नौबत पहुँची है कि जान भी बचती दिखाई नहीं देती।

हुलास - बीबी, क्या सोचती जाती हो? कुछ गाना जानती हो तो गाओ। इस जंगल में मंगल हो।

बुद्धसिंह - इससे कहो कि कोई भजन गाए।

हुलास - इनको गजलें याद होंगी या ठुमरी-टप्पा। यह भजन क्या जानें!

सुरैया - नहीं मियाँ, हमें कुछ नहीं आता, हम बहू-बेटियाँ गाना क्या जानें।

इतने में किसी की आवाज आई। हुलास ने बुद्धसिंह से पूछा, यह किसकी आवाज आई?

बुद्धसिंह - अरे, कौन सा आदमी बोला था?

आवाज - जरा इधर तक आ जाओ। मैं मिर्जा हूँ, जरा सुन लो।

हुलास और बुद्धसिंह दोनों आवाज की तरफ चले, इधर-उधर देखा, कोई न मिला। सुरैया बेगम का कलेजा धड़कने लगा। मारे डर के आँखें बंद कर लीं और आहिस्ता-आहिस्ता दोनों को पुकारने लगीं। हाय! खुदा किसी को मुसीबत में न डाले। यह दोनों डाकू उसको बेचने की फिक्र में थे, और इसने मुसीबत के वक्त उन्हीं दोनों को पुकारा। वह आवाज की तरफ कान लगाए हुए चले तो देखा कि एक बूढ़ा आदमी घास पर पड़ा सिसक रहा है। इनको देख कर बोला, बाबा, मुझ फकीर को जरा सा पानी पिलाओ। बस, मैं पानी पी कर इस दुनिया से कूच कर जाऊँगा। फिर किसी को अपना मुँह न दिखाऊँगा।

हुलास ने उसे पानी पिलाया, पानी पी कर वह बोला, बाबा, खुदा तुम्हें इसका बदला दे। इसके एवज तुम्हें क्या दूँ। खैर, अगर दो घंटे भी जिंदा रहा तो अपना कुछ हाल तुमसे बयान करूँगा और तुम्हें कुछ दूँगा भी।

हुलास - आपके पास जो कुछ जमा-जथा हो वह हमको बता दीजिए।

बूढ़ा - कहा न कि दो घंटे भी जिंदा रहा तो सब बातें बता दूँगा। मैं सिपाही हूँ, लड़कपन से यही मेरा पेशा है।

हुलास - आपने तो एक किस्सा छेड़ दिया, मुझे खौफ है कि ऐसा न हो कि आपकी जान निकल जाय तो फिर वह रुपया वहीं का वहीं पड़ा रहे।

बूढ़ा (गा कर) - पहुँची न राहत हमसे किसी को...

हुलास - जनाब, आपको गाने को सूझती है और हम डर रहे हैं कि कहीं आप का दम न निकल जाय। रुपए बता दो, हम बड़ी धूमधाम से तुम्हारा तीजा करेंगे।

बुद्धसिंह - पानी और पिलवा दो तो फिर खूब ठंडा हो कर बताएगा।

बूढ़ा - मेरा एक लड़का है, दुनिया में ओर कोई नहीं। बस यही एक लड़का, जवान, खूबसूरत, घोड़े पर खूब सवार होता था।

सुरैया - फिर अब कहाँ है वह?

बूढ़ा - फौज में नौकर था। किसी बेगम पर आशिक हुआ, तब से पता नहीं। अगर इतना मालूम हो जाय कि उसकी जान निकल गई तो कब्र बनवा दूँ।

सुरैया - लंबे हें या ठिंगने?

बूढ़ा - लंबा है। चौड़ा सीना, ऊँची पेशानी, गोरा रंग।

सुरैया - हाय-हाय? क्या बताऊँ बड़े मियाँ, मेरा उनका बरसों साथ रहा है। मेरे साथ निकाह होने को था।

बूढ़ा - बेटा, जरी हमारे पास आ जाओ। कुछ उसका हाल बताओ। जिंदा तो है?

सुरैया - हाँ, इतना तो मैं कह सकती हूँ कि जिंदा हैं।

बूढ़ा - अब वह है कहाँ? जरा देख लेता तो आरजू पूरी हो जाती।

हुलास - आपका सर दबा दूँ, तलुवे मलूँ, जो खिदमत कहिए करूँ।

बूढ़ा - नहीं, मौत का इलाज नहीं है। मैंने अपने लड़के को लड़ाई के फन खूब सिखाए थे। हर एक के साथ मुरौवत से पेश आता था। बस, इतना बता दो कि जिंदा है या मर गया?

सुरैया - जिंदा हैं और खुश हैं।

बूढ़ा - अब मैं अपनी सारी तकलीफें भूल गया। ख्याल भी नहीं कि कभी तकलीफ हुई थी।

ये बातें हो रही थीं कि पचास आदमियों ने आ कर इन लोगों को चारों तरफ से घेर लिया। दोनों डाकुओं की मुश्कें कस ली गईं। बुद्धसिंह मजबूत आदमी था। रस्सी तोड़ कर, तीन सिपाहियों को जख्मी किया और भाग कर झील में कूद पड़ा, किसी की हिम्मत न पड़ी कि झील में कूद कर उसे पकड़े। हुलास बँधा रह गया।

यह पुलिस का इंस्पेक्टर था।

सुरैया बेगम हैरान थीं कि यह क्या माजरा है। इन लोगों को डाकुओं की खबर कैसे मिल गई। चुपचाप खड़ी थी कि सिपाहियों ने उससे हँसी-दिल्लगी करनी शुरू की। एक बोला, वाह-वाह, यह तो कोई परी है भाई। दूसरा बोला, अगर ऐसी सूरत कोई दिखा दे तो महीने की तनख्वाह हार जाऊँ।

हुलास - सुनते हो जी, उस औरत से न बोलो, तुमको हमसे मतलब है या उससे।

इंस्पेक्टर - इसका जवाब तो यह है कि तेरे एक बीस लगाए और भूल जाय तो फिर से गिने। आँखें नीची कर, नहीं खोद के गाड़ दूँगा।

सुबह के वक्त शहर में दाखिल हुए तो सुरैया बेगम ने चादर से मुँह छिपा लिया। इस पर एक चौकीदार बोला, सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली! ओढ़नी मुँह पर ढाँपती है, हटाओ ओढ़नी।

सुरैया बेगम की आँखों से आँसू जारी हो गए। उसके दिल पर जो कुछ गुजरती थी, उसे कौन जान सकता है। रास्ते में तमाशाइयों में बातें होने लगीं!

रँगरेज - भई, यह दुपट्टा कितना अच्छा रँगा हुआ है!

नानबाई - कहाँ से आते हो जवानो? क्या कहीं डाका पड़ा था?

शेख जी - अरे यारो, यह नाजनीन कौन है? क्या मुखड़ा है, कसम खुदा की, ऐसी सूरत कभी न देखी थी। बस, यही जी चाहता है कि इससे निकाह पढ़वा लें। यह तो शब्बोजान से भी बढ़ कर है।

यह शेख जी वही वकील साहब थे जिनके यहाँ अल्लारक्खी शब्बोजान बन कर रही थी। सलारू भी साथ था। बोला, मियाँ, आँखों वाले तो बहुत देखे, मगर आपकी आँख निराली है।

वकील - क्यों बे बदमाश, फिर तूने गुस्ताखी की।

सलारू - जब कहेंगे, खरी कहेंगे। आप थाली के बैंगन हैं।

वकील साहब इस पर झल्ला कर दौड़े। सलारू भागा, आप मुँह के बल गिरे।

इस पर लोगों ने कहकहा मारा। सुरैया बेगम सोच रही थीं कि मैंने इस आदमी को कहीं देखा है, पर याद न आता था।

यह लोग और आगे चले तो तरह-तरह की अफवाहें उड़ने लगीं। एक मुहल्ले में यह खबर उड़ी कि दरिया से एक घोड़मुँहा आदमी निकाला गया है। उसी के साथ एक परी भी निकली है। दो-तीन मुहल्लों में यह अफवाह उड़ी कि एक औरत अपने घर से जेवर ले कर भाग गई थी, अब पकड़ी गई है। नौ बजते-बजते यह लोग थाने में जा पहुँचे। हुलास और सुरैया बेगम हवालात में बंद कर दिए गए। रात को तरह-तरह के ख्वाब दिखाई दिए। पहले देखा कि उसका बूढ़ा शौहर कब्र से गर्दन निकाल कर कहता है, सुरैया, वह कैसी बुरी घड़ी थी, जब तेरे साथ निकाह किया और अपने खानदान की इज्जत खाक में मिलाई। फिर दूसरा ख्वाब देखा कि आजाद एक दरख्त के साये में लेटे और सो गए। एक साँप उनके सिरहाने आ बैठा और काटना ही चाहता था कि सुरैया बेगम की आँख खुल गई।

सबेरे उठ कर बैठी कि एक सिपाही ने आ कर कहा, तुम्हारे भाई तुमसे मिलने आए हैं। सुरैया बेगम ने सोचा, मेरा भाई तो कोई पैदा ही नहीं हुआ था, यह कौन भाई बन बैठा? सोची; शायद कोई दूर के रिश्तेदार होंगे, बुला लिया। जब वह आया तो उसे देख कर सुरैया बेगम के होश उड़ गए। यह वही वकील साहब थे। आपने आते ही आते कहा, बहन, खैर तो है, यह क्या, हुआ क्या? हमसे बयान तो करो। कुछ दौड़-धूप करें? हुक्काम से मिल कर कोई सबील निकालें।

सुरैया - मियाँ, मेरी तकदीर में यही लिखा था, तो तुम क्या करोगे और कोई क्या करेगा?

वकील - खैर, अब उन बातों का जिक्र ही क्या। सच कहता हूँ शब्बोजान, तुम्हारी याद दिल से कभी नहीं उतरी, मगर अफसोस कि तुमने मेरी मुहब्बत की कदर न की। जिस दिन तुम मेरे घर से निकल भागीं, मुझे ऐसा मालूम हुआ कि बदन से जान निकल गई। अब तुम घबराओ नहीं। हम तुम्हारी तरफ से पैरवी करेंगे। तुम जानती ही हो कि हम कैसे मशहूर वकील हैं और कैसे-कैसे मुकदमे बात की बात में जीत लेते हैं।

सुरैया - इस वक्त आप आ गए, इससे दिल को बड़ी तसकीन हुई। तुम्हारे घर से निकली तो पहिले एक मुसीबत में फँस गई, बारे खुदा-खुदा करके उससे नजात पाई और कुछ दौलत भी हाथ आई तो तुम्हारे ही महल्ले में मकान लिया और बेगमों की तरह रहने लगी।

वकील - अरे, वह सुरैया बेगम आप ही थीं?

सुरैया - हाँ, मैं ही थी।

वकील - अफसोस, इतने करीब रह कर भी कभी मुझे न बुलाया। मगर वह आपकी दौलत क्या हुई और यहाँ हवालात में क्योंकर आईं?

सुरैया - हुआ क्या, दो बार चोरी हो गई, ऊपर से थानेदार भी दुश्मन हो गया। आखिर हम अपनी महरी को ले कर चल दिए। एक गाँव में रहने लगी, मगर वहाँ भी चोरी हुई और डाकुओं के फंदे में फँसी।

इतने ही में एक थानेदार ने आ कर वकील साहब से कहा, अब आप तशरीफ ले जाइए। वक्त खतम हो गया। सुरैया बेगम ने इस थानेदार को देखा, तो पहचान गई। यह वही आदमी था जिसके पास एक बार वह आजाद पर रपट करने गई थी। बोली - क्यों साहब, पहचाना? अब क्यों पहचानिएगा?

थानेदार - अलारक्खी, खुदा को गवाह रख कर कहता हूँ कि इस वक्त मारे खुशी के रोना आता है। मैं तो बिलकुल मायूस हो गया था। मुझे अब भी तुम्हारी वैसी ही मुहब्बत है जो पहिले थी।

रात के वक्त थानेदार ने हवालात में आ कर उसे जगाया और आहिस्ता से कान में कहा, बहुत अच्छा मौका है, चलो, भाग चलें। मैंने चौकीदारों को मिला लिया है।

सुरैया बेगम ने थानेदार को समझाया कि कहीं पकड़ न लिए जायँ। मगर जब वह न माना, तो वह उसके साथ चलने पर तैयार हो गई। बाहर आ कर थानेदार ने सुरैया बेगम को मर्दाना कपड़े पहिनाए ओर गाड़ी पर सवार कराके चला। जब दो कोस निकल गए तो सबेरा हुआ। थानेदार ने गाड़ी से दरी निकाली और आराम से लेट कर हुक्का पीने लगे कि एक मुसाफिर सवार ने आक पूछा - क्यों भाई मुसाफिर हिंदू हो या मुसलमान? मुसलमान हो तो हुक्का पिलाओ।

थानेदार ने खातिर से बैठाया। लेकिन जब मुसाफिर के चेहरे पर गौर से नजर डाली तो कुछ शक हुआ। कहा - जनाब, मेरे दिल में आपकी तरफ से एक शक पैदा हुआ है। कहिए अर्ज करूँ, कहिए खामोश रहूँ? आप ही तो जबलपुर में एक सौदागर के यहाँ मुंशी थे। वहाँ आपने दो हजार रुपए का गबन किया और साल भर की सजा पाई। कहिए, गलत कहता हूँ?

मुसाफिर - जनाब, आपको धोखा हुआ है, यहाँ खानदानी रईस है। गबन पर लानत भेजते हैं।

थानेदार - यह चकमे किसी और को दीजिएगा। दाई से पेट नहीं छिपता।

मुसाफिर - अच्छा, मान लीजिए, आप ही का कहना दुरुस्त है। भला हम फँस जायँ तो आपको क्या मिले?

थानेदार - पाँच सौ रुपए नकद, तरक्की और नेकनामी अलग!

मुसाफिर - बस! हमसे एक हजार ले लीजिए, अभी-अभी गिना लीजिए। लेकिन गिरफ्तार करने का इरादा हो तो मेरे हाथ में भी तलवार है।

थानेदार - हजरत, यह रकम बहुत थोड़ी है, हमें जँचती नहीं।

मुसाफिर - आखिर दो ही हजार तो मेरे हाथ लगे थे। उसका आधा आपको नजर करता हूँ! मगर गुस्ताखी माफ हो, तो मैं भी कुछ कहूँ! मुझे आपके इन दोस्त पर कुछ शक होता है। कहिए, कैसा भाँपा?

थानेदार ने देखा कि पर्दा खुल गया तो झगड़ा बढ़ाना मुनाबिस न समझा। डरे, कहीं जा कर अफसरों से जड़ दे, तो रास्ते ही में धर लिए जायँ। बोले, हजरत, अब आपको अख्तियार है, हमारी लाज अब आपके हाथ है।

मुसाफिर - मेरी तरफ से आप इतमीनान रखिए।

दोनों आदमियों में दोस्ती हो गई। थोड़ी देर के बाद तीनों यहाँ से रवाना हुए, शाम होते-होते एक नदी के किनारे एक गाँव में पहुँचे। वहाँ एक साफ-सुथरा मकान अपने लिए ठीक किया और जमींदार से कहा कि अगर कोई आदमी हमें पूछे तो कहना, हमें नहीं मालूम। तीनों दिन भर के थके थे, खाने-पीने की भी सुध न रही। सोए तो सबेरा हो गया। सुबह के वक्त थानेदार साहब बाहर आए तो देखा कि जमींदार उनके इंतजार में खड़ा है। इनको देखते ही बोला, जनाब, आपने तो उठते-उठते नौ बजा दिए। एक अजनबी आदमी यहाँ आपकी तलाश में आया है। वरदी तो नहीं पहिने है, हाँ, सिर पर पगड़ी बाँधे है। पंजाबी मालूम होता है। मुझे तो बहुत डर लग रहा है कि न जाने क्या आफत आए।

थानेदार - किसी बहाने से हमको अपने मकान पर ले चलो और ऐसी जगह बैठाओ, जहाँ से हम सुन सकें कि क्या बातें करता है।

जमींदार - चलिए, मगर आपका चलना अच्छा नहीं। अंदर ही बैठिए, अगर कोई खटके की बात होगी तो आपको इत्तला दूँगा।

थानेदार - जनाब, मैंने पुलिस में नौकरी की है; चलने का डर आपको होगा। मैं अभी दाढ़ी हज्जाम की नजर करता हूँ और मूँछें करतवा डालता हूँ। चलिए, छुट्टी हुई।

सुरैया बेगम ने समझाया कि कहीं फँस गए तो कहीं के न रहोगे। आप भी जाओगे और मुझे भी ले डूबोगे। मगर थानेदार साहब ने एक न सुनी। फौरन नाई को बुलाया, दाढ़ी मुड़वाई, स्याह किनारे को धाती पहनी, अँगरखा डाटा, काली मंदिल सर पर रखी और आधे हिंदू और आधे मुसलमान बने हुए जमींदार के पास जा पहुँचे। सलाम-बंदगी के बाद बातें होने लगीं। थानेदार ने अपना नाम शेख बुद्दू बतलाया और घर बंगाल में। जमींदार के पास एक पंजाबी भी बैठा हुआ था। समझ गए कि यही हजरत हमें गिरफ्तार करने आए हैं! नाम पूछा तो उसने बतलाया शेरसिंह।

थानेदार - आप तो पंजाब के रहने वाले होंगे?

शेरसिंह - जी हाँ, हम खास अंबरसर में रहते हैं।

थानेदार - आप कहाँ नौकर हैं?

शेरसिंह - हम जमींदार हैं। अंबरसर के पास हमारा इलाका है, उसको हमारा भाई देखता है, हम घूमते रहते हैं। आप यहाँ किसर गरज से आए हैं? और टिके आप कहाँ हैं?

थानेदार - इसी गाँव में मैं भी ठहरा हूँ। अगर तकलीफ न हो तो हमारे साथ घर तक चलिए।

थानेदार उनको ले कर डेरे पर आए। सुरैया बेगम दौड़ कर छिपने को थीं; मगर थानेदार ने मना किया और कहा कि यह मेरे भाई हैं। इनसे पर्दा करना फुजूल है!

शेरसिंह - यह आपकी कौन है?

थानेदार - जी, मेरे घर पड़ गई हैं?

सुरैया बेगम - ऐ हटो भी, क्या वाहियात बातें करते हो। हजरत, यह मेरे भाई हैं। इस पर शेरसिंह ने कहकहा लगाया और थानेदार झेंपे।

शेरसिंह - मुए पर सौ दुर्रे और गधे की सवारी। बस, अब मैं यहाँ से भाग जाऊँगा और उम्र भर तुम्हारी सूरत न देखूँगा। खुदा तुझसे समझे।

थानेदार - सुनो भाईजान, यह फकत चकमा था। हम आजमाते थे कि देखें, तुम कौल के कहाँ तक सच्चे हो। अब हम साफ कहते हैं कि हम कातिल नहीं हैं, लेकिन मुजरिम हैं। अब कहिए।

शेरसिंह - अजी, जब इतने बड़े जुर्म की सजा न दी तो अब क्या खौफ है! क्या कहीं से माल मार लाए हो?

थानेदार - भाई, माफ करो तो बता दें। सुनिए, हम वही थानेदार हैं जिसकी तलाश में तुम निकले हो। और यह वही बेड़िन हैं। अब चाहे बाँध ले चलो, चाहे दोस्ती का हक अदा करो।

शेरसिंह - ओफ! बड़ा झाँसा दिया। मुझे तो हैरत है कि तुमसे मेरे पास आया क्यों कर गया। मैं पंजाब से खास इसी काम के लिए बुलवाया गया था। यहाँ दो दिन से तुम्हें भी देख रहा हूँ और बेड़िन से नोंक-झोंक भी हो रही है। मगर टाँय-टाँय-फिस।

सुरैया - हुजूर, ले जरा मुँह सम्हाल कर बात कीजिए। बेड़िन कोई और होगी। बेड़िन की सूरत नहीं देखी!

थानेदार - यह बेगम हैं। खुदा की कसम। सुरैया बेगम नाम है।

शेरसिंह - वह तो बातचीत से जाहिर है। अच्छा बेगम साहब, बुरा न मानो तो एक बत कहूँ। अगर अपनी और इनकी रिहाई चाहती हो, तो इनको इस्तीफा दो और हमसे वादा करो।

थानेदार - इनको राजी कीजिए। हमसे क्या वास्ता। हमको तो अपनी जान प्यारी है।

सुरैया - ऐ वाह! अच्छे मिले। तुम थानेदारी क्या करते थे! अच्छा, दिल्लगी तो हो चुकी। अब मतलब की बात कहो। हम दोनों भागें, तो भाग के जायँ कहाँ? और भागे तो रहें कहाँ?

शेरसिंह - एक काम करो। हमको वापस जाने दो। हम वहाँ जा कर आयँ-बायँ-सायँ उड़ा देंगे। इसके बाद आ कर तुमको पंजाब ले जायँगे।

थानेदार - अच्छा तो है। हम सब मिल कर पंजाब चलेंगे।

सुरैया - तुम जाओ, हम तो न जायँगे। और सुनिए, वाह!

थानेदार - हमारी बात मानिए। आप घर-घर तहकीकात कीजिए और दो दिन तक यहाँ टिके रहिए और वहाँ जा कर कहिए कि मुलजिम तराई की तरफ निकल गया।

शेरसिंह - हाँ, सलाह तो अच्छी है। तो आप यहाँ रहें, मैं जाता हूँ।

शेरसिंह ने दिन भर सारे कस्बे में तहकीकात की। जमींदारों को बुला कर खूब डाँट-फटकार सुनाई। शाम को आ कर थानेदार के साथ खाना खाया और सदर को रवाना हुए। जब शेरसिंह चले गए तो थानेदार साहब बोले - दुनिया में रह कर अगर चालाकी न करें तो दम भर गुजारा न हो। दुनिया में आठों गाँठ कुम्मैत हो तब काम चले।

सुरैया - वाह! आदमी को नेक होना चाहिए, न कि चालाक।

थानेदार - नेकी से कुछ नहीं होता, चालाकी बड़ी चीज है। अगर हम शेरसिंह से चालाकी न करते तो उनसे गला कैसे छूटता।

दूसरे दिन थानेदार साहब भी रवाना हुए। दिन भर चलने के बाद गाड़ीवान से कहा - भाई, यहाँ से मीरडीह कितनी दूर है?

गाड़ीवान ने कहा - हुजूर यही मीरडीह है।

थानेदार - यहाँ हम किसके मकान में टिकेंगे?

गाड़ीवान - हुजूर, आदमी भेज दिया गया है।

यह कह कर उसने नंदा-नंदा पुकारा। बड़ी देर बाद नंदा आया और गाड़ी को एक टीले की तरफ ले चला। वहीं एक मकान में उसने दोनों आदमियों को उतारा और तहखाने में ले गया।

थानेदार - क्या कुछ नीयत खोटी है भई?

सुरैया - हम तो इसमें न जाते के। अल्लाह रे अँधेरा!

नंदा - आप चलें तो सही।

थानेदार ने तलवार म्यान से खींच ली और सुरैया बेगम के साथ चले।

थानेदार - अरे नंदा, रोशनदान तो जरा खोल दे जाके।

नंदा - अजी, क्या जाने, किस वक्त के बंद पड़े हैं।

सुरैया - है-है! खुदा जाने, कितने बरसों से यहाँ चिराग नहीं जला। यह जीने तो खत्म ही होने नहीं आते।

नंदा - कोई एक सौ दस जीने हैं।

सुरैया - उफ! बस अब मैं मर गई।

नंदा - अब नगिचाय आए। कोई पचीस ठो और हैं।

बड़ी मुश्किलों से जीने तय हुए। मगर तहखाने में पहुँचे तो ऐसी ठंडक मिली कि गुलाबी जाड़े का मजा आया। दो पलंग बिछे हुए थे। दोनों आराम से बैठे। खाना भी पहले से एक बावर्ची ने पका रखा था। दोनों ने खाना खाया और आराम करने लगे। यह मकान चारों तरफ पहाड़ों से ढका था। बाहर निकलने पर पहाड़ों की काली-काली चोटियाँ नजर आती थीं। उन पर हिरन कुलेलें भरते थे। थानेदार ने कहा - बहुत मुकामों की सैर की है, मगर ऐसी जगह कभी देखने में नहीं आई थी। बस, इसी जगह हमारा और तुम्हारा निकाह होना चाहिये।

सुरैया - भई, सुनो, बुरा मानने की बात नहीं। मैंने दिल में ठान ली है कि किसी से निकाह न करूँगी। दिल का सौदा सिर्फ एक बार होता है। अब तो उसी के नाम पर बैठी हूँ। किसी और के साथ निकाह करने की तरफ तबियत मायल नहीं होती।

थानेदार - आखिर वह कौन साहब हैं। जिन पर आपका दिल आया है? मैं भी तो सुनूँ।

सुरैया - तुम नाहक बिगड़ते हो। तुमने मेरे साथ जो सलूक किए हैं, उनका एहसान मेरे सिर पर हैं; लेकिन यह दिल दूसरे को हो चुका है।

थानेदार - अगर यह बात थी तो मेरी नौकरी क्यों ली? मुझे क्यों मुसीबत में गिरफ्तार किया? पहले ही सोची होती। अब से बेहतर है, तुम अपनी राह लो, मैं अपनी राह लूँ।

सुरैया - यह तुमने लाख रुपए की बात कही। चलिए, सस्ते छूटे।

थानेदार - तुम न होगी तो क्या जिंदगी न होगी?

सुरैया - और तुम न होगे तो क्या सबेरा न होगा?

थानेदार - नौकरी की नौकरी गई और मतलब का मतलब न निकला -

गैर आँखें सेंके उस बुत से दिले मुजतर जले,

बाये बेदर्दी कोई तापे किसी का घर जले।

सुरैया - आँखें सेंकवाने वालियाँ और होती हैं।

थानेदार - इतने दिनों से दुनिया में आवारा फिरती हो और कहती हो; हम नेक। वाह री नेकी!

सुरैया - तुमसे नेकी की सनद तो नहीं माँगती?

थानेदार - अब इस वक्त तुम्हारी सूरत देखने को जी नहीं चाहता!

सुरैया - अच्छा, आप अलग रहें। हमारी सूरत न देखिए, बस छुट्टी हुई।

थानेदार - हमको मलाल यह है कि नौकरी मुफ्त गई।

सुरैया - मजबूरी!!

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 89

सुरैया बेगम ने अब थानेदार के साथ रहना मुनासिब न समझा। रात को जब थानेदार खा पी कर लेटा तो सुरैया बेगम वहाँ से भागी। अभी सोच ही रही थी कि एक चौकीदार मिला। सुरैया बेगम को देख कर बोला - आप कहाँ? मैंने आपको पहचान लिया है। आप ही तो थानेदार साहब के साथ उस मकान में ठहरी थीं। मालूम होता है, रूठ कर चली आई हो। मैं खूब जानता हूँ।

सुरैया - हाँ, है तो यही बात, मगर किसी से जिक्र न करना।

चौकीदार - क्या मजाल, मैं नवाबों और रईसों की सरकार में रहा हूँ।

बेगम - अच्छा, मैं इस वक्त कहाँ जाऊँ?

चौकीदार - मेरे घर।

बेगम - मगर किसी पर जाहिर न होने पाए, वरना हमारी इज्जत जायगी।

बेगम साहब चौकीदार के साथ चलीं और थोड़ी देर में उसके घर जा पहुँचीं। चौकीदार की बीवी ने बेगम की बड़ी खातिर की और कहा - कल यहाँ मेला है, आज टिक जाओ। दो-एक दिन में चली जाना।

सुरैया बेगम ने रात वहीं काटी। दूसरे दिन पहर दिन चढ़े मेला जमा हुआ। चौकीदार के मकान के पास एक पादरी साहब खड़े वाज कह रहे थे। सैकड़ों आदमी जमा थे। सुरैया बेगम भी खड़ी हो कर वाज सुनने लगीं। पादरी साहब उसको देख कर भाँप गए कि यह कोई परदेशी औरत है। कहीं से भूल-भटक कर यहाँ आ गई है। जब वाज खत्म करके चलने लगे तो सुरैया बेगम से बोले - बेटी, तुम्हारा घर यहाँ तो नहीं है?

सुरैया - जी नहीं, बदनसीब औरत हूँ। आपका वाज सुन कर खड़ी हो गई।

पादरी - तुम यहाँ कहाँ ठहरी हो?

सुरैया - सोच रही हूँ कि कहाँ ठहरूँ।

पादरी - मेरा मकान हाजिर है, उसे अपना घर समझो। मेरी उम्र अस्सी वर्ष से ज्यादा है। अकेले पड़ा रहता हूँ। तुम मेरी लड़की बन कर रहना।

दूसरे दिन जब पारदी साहब गिरजाघर में आए, तो उनके साथ एक नाजुक बदन मिस कीमती अंगरेजी कपड़े पहने आई और शान से बैठ गई। लोगों को हैरत थी कि या खुदा, इस बुड्ढे के साथ यह परी कौन है! पादरी साहब ने उसे भी पास की कुर्सी पर बैठाया। इस औरत की चाल-ढाल से पाया जाता था कि कभी सोहबत में नहीं बैठी है। हर चीज को अजनबियों की तरह देखती थी।

रँगीले जवानों में चुपके-चुपके बातें होने लगीं।

टाम - कपड़े अंगरेजी है, रंग गोरा, मगर जुल्फ सियाह है और आँखें भी काली। मालूम होता है, किसी हिंदोस्तानी औरत को अंगरेजी कपड़े पहना दिए हैं।

डेविस - इस काबिल है कि जोरू बनाएँ।

टाम - फिर आओ, हम-तुम डोरे डालें, देखें, कौन खुशनसीब है।

डेविस - न भई, हम यों डोरे डालनेवाले आदमी नहीं। पहले मालूम तो हो कि है कौन? चाल-चलन का भी तो कुछ हाल मालूम हो। पादरी साहब की लड़की तो नहीं है। शायद किसी औरत को बपतिस्मा दिया है।

तीन हिंदोस्तानी आदमी भी गिरजा गए थे। उनमें यों बातें होने लगीं -

मिरजा - उस्ताद, क्या माल है, सच कहना?

लाला - इस पादरी के तो कोई लड़का-बाला नहीं था।

मुंशी - वह था या नहीं था, मगर सच कहना, कैसी खूबसूरत है!

नमाज के बाद जब पादरी साहब घर पहुँचे तो सुरैया से बोले - बेटी, हमने तुम्हारा नाम मिस पालेन रखा है। अब तुम अंगरेजी पढ़ना शुरू करो।

सुरैया - हमें किसी चीज के सीखने की आरजू नहीं है। बस, यही जी चाहता है कि जान निकल जाय। किसका पढ़ना और कैसा लिखना। आज से हम गिरजाघर न जायँगे।

पादरी - यह न कहो बेटी! खुदा के घर मे जाना अपनी आकबत बनाना है। यह खुदा का हुक्म है।

सुरैया - अगर आप मुझे अपनी बेटी समझते हैं तो मैं भी आपको अपना बाप समझती हूँ, मगर मैं साफ-साफ कहे देती हूँ कि मैं ईसाई मजहब न कबूल करूँगी।

रात को जब सुरैया बेगम सोई, तो आजाद की याद आई और यहाँ तक रोई कि हिचकियाँ बँध गईं।

पादरी साहब चाहते थे कि यह लड़की किसी तरह ईसाई मजहब अख्तियार कर ले, मगर सुरैया बेगम ने एक न सुनी। एक दिन वह बैठी कोई किताब पढ़ रही थी कि जानसन नाम का एक अंगरेज आया और पूछने लगा - पादरी साहब कहाँ हैं?

सुरैया - मैं अंगरेजी नहीं समझती।

जानसन - (उर्दू में) पादरी साहब कहाँ हैं?

सुरैया - कहीं गए हैं।

जानसन - मैंने कभी तुमको यहाँ नहीं देखा था।

सुरैया - जी हाँ, मैं यहाँ नहीं थी।

जानसन - यह कौन-सी किताब है?

सुरैया - सेनेका की नसीहतें हैं! पादरी साहब मुझे यह किताब पढ़ाते हैं।

जानसन - मालूम होता है, पादरी साहब तुम्हें भी 'नन' बनाना चाहते हैं।

सुरैया - नन किसे कहते हैं?

जानसन - नन उन औरतों को कहते हैं जो जिंदगी भर क्वाँरी रह कर मसीह की खिदमत करती हैं। उनका सिर मुँड़ा दिया जाता है और आदमियों से अलग एक मकान में रख दी जाती हें।

सुरैया - यह तो बड़ी अच्छी बात है। मैं भी चाहती हूँ कि उन्हीं में शामिल हो जाऊँ और तमाम उम्र शादी न करूँ।

जानसन ने यह बातें सुनीं तो और ज्यादा बैठना फुजूल समझा। हाथ मिला कर चला गया।

सुरैया बेगम यहाँ आ तो फँसी थीं, मगर भाग निकलने का मौका ढूँढ़ती थीं। इस तरह तीन महीने गुजर गए।

आजाद-कथा : भाग 2 - खंड90

नेपाल की तराई में रिसायत खैरीगढ़ के पास एक लक व दक जंगल है। वहाँ कई शिकारी शेर का शिकार करने के लिए आए हुए हें। एक हाथी पर दो नौजवान बैठे हुए हैं। एक का सिन बीस-बाईस बरस का है, दूसरे का मुश्किल से अट्ठारह का। एक का नाम है वजाहत अली, दूसरे का माशूक हुसैन। वजाहत अली दोहरे बदन का मजबूत आदमी है। माशूक हुसैन दुबला-पतला छरहरा आदमी है। उसकी शक्ल-सूरत और चाल-ढाल से ऐसा मालूम होता है कि अगर इसे जनाने कपड़े पहना दिए जायँ, तो बिलकुल औरत मालूम हो। पीछे-पीछे छह हाथी और आते थे। जंगल में पहुँच कर लोगों ने हाथी रोक लिए ताकि शेर का हाल दरियाफ्त कर लिया जाय कि कहाँ है। माशूक हुसैन ने काँप कर कहा - क्या शेर का शिकार होगा? हमारे तो होश उड़ गए। अल्लाह के लिए हमें बचाओ। मेरी तो शेर के नाम से ही जान निकल जाती है। तुमने तो कहा था हिरनी और पाढ़े का शिकार खेलने चलते हैं।

वजाहत अली - वाह इसी प कहती थीं कि हम बन-बन फिरे हैं। भूत-प्रेत से नहीं डरते। अब क्या हो गया कि जरा सा शेर का नाम सुना और काँप उठीं!

माशूक हुसैन - शेर जरा सा होता है! ऐ, वह इस हाथी का कान पकड़ ले तो चिंघाड़ कर बैठ जाय। निगोड़ा हाथी बस देखने ही भर को होता है। इसके बदन में खून कहाँ। बस, पानी ही पानी है।

वजाहत अली - अब्बल तो शेर का शिकार नहीं है, और अगर शेर आया भी तो हम उसका मुकाबिला कर सकेंगे। अट्ठारह-अट्ठारह निशानेबाज साथ हैं। इनमें दो तीन आदमी तो ऐसे बढ़े हुए हैं कि रात के वक्त आवाज पर तीर लगाते हैं। क्या मजाल कि निशाना खाली जाय। तुम घबराओ नहीं, ऐसा लुत्फ आएगा कि सारी उम्र याद करोगी।

माशूक हुसैन - तुम्हें कसम है, हमें यहाँ से कहीं भेज दो। अल्लाह! कब यहाँ से छुटकारा होगा। ऐसी बुरी फँसी कि कुछ कहा नहीं जाता।

नवाब साहब ने मुसकिरा कर पूछा - किससे?

माशूक हुसैन - ऐ, हटो भी! तुम्हें दिल्लगी सूझी है और हम क्या सोच रहे हैं। शेर ऐसा जानवर, एक थप्पड़ में देव को सुला दे। आदमी जरी सा भुनगा, चले हैं शेर के शिकार को! हाथी रोक लो, नहीं अल्लाह जानता है, हम हाथी पर से कूद पड़ेंगे। बला से जान जाय या रहे।

नवाब - हैं-हैं। जान तुम्हारे दुश्मनों की जाय। आखिर इतने आदमियों को अपनी जान प्यारी है या नहीं? कोई और भी चूँ करता है?

माशूक - इतने आदमी जायँ चूल्हें में। इन मुओं को जान भारी हुई है। यह घर से लड़ कर आए हैं। जोरू ने जूतियाँ मार-मार कर निकाल दिया है। इनकी और मेरी कौन सी बराबरी। हमें उतार दो, हम अब जायँगे।

नवाब - जरा ठहरो तो, मैं बंदोबस्त किए देता हूँ। किसी बड़े दरख्त पर एक मचान बाँध देंगे। बस वहीं से बैठ के देखना

माशूक - वाह, जरी सा मचान और जंगल का वास्ता। अकेली डर न जाऊँगी? हाँ, तुम भी बैठो तो अलबत्ता!

नवाब - यह तो बड़े शर्म की बात है कि हम मर्द हो कर मचान पर बैठें और लोग शिकार खेलें।

माशूक - इन लोगों से कह दो कि हमारे दोस्त की यही राय है। डर किस बात का है? साफ-साफ कह दो कि यह औरत हैं और हमारा इनके साथ निकाह होने वाला है।

नवाब - यह नहीं हो सकता। यह मशहूर करना कि एक कमसिन औरत को मर्दाना कपड़े पहना कर यहाँ लाए हैं, मुनासिब नहीं। इतने में आदमियों ने आ कर कहा - हुजूर, सामने एक कछार है। उसमें एक शेरनी बच्चों के पास बैठी है। इसी दम हाथी को पेल दीजिए।

इतना सुनना था कि नवाब साहब ने खिदमतगार को हुक्म दिया - इनको एक शाली रूमाल और पचास अशर्फियाँ आज ही देना। हाथी के लिए पेल का लफ्ज खूब लाए! सुभान-अल्लाह।

इस पर मुसाहबों ने नवाब साहब की तारीफों के पुल बाँध दिए।

एक - सुभान-अल्लाह, वाह मेरे शाहजादे। क्यों न हो।

दूसरा - खुदा आपको एक हजार बरस की उम्र दे। हातिम का नाम मिटा दिया। रियासत इसे कहते हैं।

नवाब - अच्छा, अब सब तैयार हो और कछार की तरफ हाथी ले चलें।

माशूक - अरे लोगों, यह क्या अंधेर हैं। आखिर इतनों में किसी के जोरू जाँत भी है या सब निहंग-लाडले, बेफिकरे, उठाऊ-चूल्हे ही जमा हैं। खुदा के लिए इनको समझाओ। इतनी सी जान, गोली लगी और आदमी टें से रह गया। आदमी में है क्या! अल्लाह करे, शेर न मिले। मुई बिल्ली से तो डर लगता है। शेर की सूरत क्योंकर देखूँगी। भला इतना बताओ कि बँधा होगा या खुला? तमाशे में हमने शेर देखे थे, मगर सब कठघरों में बंद थे।

एकाएक दो पासियों ने आ कर कहा कि शेरनी कछार से चली गई! नवाब साहब ने वहीं डेरा डाल दिया और माशूक हुसैन के साथ अंदर आ बैठे।

नवाब - यह बात भी याद रहेगी कि एक बेगम साहब बहादुरी के साथ शेर का शिकार खेलने को गईं?

माशूक - ऐ वाह! जो शरीफजादी सुनेगी, अपने दिल में यही कहेगी कि शरीफ की लड़की और इतनी ढीठ। भलेमानस की बहू-बेटी वह है कि जंगल के कुत्ते का नाम सुनते ही बदन के रोएँ खड़े हो जायँ। अकेले कमरे में बिल्ली आए तो थरथर काँपने लगे। ख्वाब में भी रस्सी देखे तो चौंक पड़े। अच्छी पट्टी पढ़ाते हो !

दूसरे दिन नवाब साहब ने शिकारी लिबास पहना। खेमे से निकले। माशूक हुसैन भी पीछे से निकले मगर इस वक्त बेगमों की पोशाक में थे और बेगम भी कौन? वही सुरैया, जो मिस पालेन बनी हुई पादरी साहब के साथ रही थी। ऐसा मालूम हुआ, कोई परी पर खोले चली आती है। नवाब साहब ने कहा -

आगाजे इश्क ही में हमें मौत आ गई,
आगाह भी न हाल से वह बेखबर हुआ।

सुरैया बेगम ने तिनक के कहा - बस, यह मनहूस बातें हमें एक आँख नहीं भातीं। मरने-जीने का कौन जिक्र है?

नवाब - सुनिए हुजूर! जो आप आँखें दिखलाएँगी तो हम भी बिगड़ जाएँगे। इतना याद रखिए।

सुरैया - खुदा के लिए जरा हया से काम लो। इन सबके सामने हमें रुसवा न करो। वह शरीफजादी क्या, जो शर्म से मुँह मोड़े। इतने आदमी खड़े हैं और तुमको कुछ ख्याल ही नहीं।

खुदा का कहर, बुतो का एताब रहता है,
इस एक जान प' क्या-क्या अजाब रहता है।

सुरैया - बस, हम न जायँगे। चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय।

नवाब साहब ने कदमों पर टोपी रख दी, और कहा - मार डालो, मगर साथ चलो; वरना घुट-घुट के जान जायगी।

बारे खुदा-खुदा करके बेगम साहब उठीं। इतने में चौकीदार ने आ कर कहा - खुदावंद, दो शेर जंगल में दिखाई दिए हैं। अब भी मौका है, वरना शेरनी की तरह वह भी भाग जाएँगे और फिर शिकार न मिलेगा।

बेगम - आदमी कैसे मुए जान के दुश्मन हैं!

नवाब साहब ने हुक्म दिया कि हाथी को बैठाओ। पीलबान ने 'बरी-बरी' कह कर हाथी को बैठाया। तब जीना लगाया गया। बेगम साहब ने जीने पर कदम रखा, मगर झिझक कर उतर गईं।

नवाब - पहली बार तो बेझिझक बैठ गई थीं, अबकी डरती हो।

बेगम - ऐ लो, उस बार कहा था कि मुर्गाबी का शिकार होगा।

नवाब - शेर का शिकार आसान है, मुर्गाबी का शिकार मुश्किल है।

बेगम - चलिए, रहने दीजिए। हमने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। यहाँ रूह काँप रही है कि या खुदा, क्या होगा?

नवाब - होगा क्या? कुछ भी नहीं।

आखिर बेगम साहब भी बैठीं। नवाब साहब भी बैठे। हवाली-मवाली भी दूसरे हाथियों पर बैठे और हाथी झूमते हुए चले। थोड़ी देर के बाद लोग एक झील के पास पहुँचे। शिकारी ने कहा - झील में पानी कम है, हाथी निकल जाएँगे।

बेगम - क्या कहा! क्या इस समुंदर में से जाना होगा?

नवाब - अभी दम के दम में निकले जाते हैं।

बेगम - कहीं निकले न? हमें यहाँ डुबोने लाए हो? जरी हाथी का पाँव फिसला और चलिए, पानी के अंदर गोते खाने लगे।

नवाब साहब ने बहुत समझाया, तब बेगम साहब अपने हाथी को झील के अंदर डालने राजी हुई, मगर आँखें बंद कर लीं और गुल मचाया कि जल्दी निकल चलो। पाँच हाथी तो साथ-साथ चले, दो पीछे थे। नवाब साहब ने कहा - अब आँखें खोल दो, आधी दूर चले आए हैं, आधी दूर और बाकी है। बेगम ने आँखें खोलीं तो झील की कैफियत देख कर खिल उठीं। किनारों पर ऊँचे-ऊँचे दरख्त झूम रहे थे। कोई झील के पानी को चूमता था, किसी की शाखें झील की तरफ झुकी थीं। बेगम ने कहा - अब हमें डर नहीं मालूम होता। मगर अल्लाह करे, कोई शेर आज न मिले।

नवाब - खुदा न करे।

बेगम - वाह! आ जाय क्या मजाल है। हम मंतर पढ़ देंगे।

नवाब - भला आप इतनी हुई तो!

बेगम - अजी, मैं तुम सबको बनाती हूँ, डर कैसा! मगर कहीं शेर सचमुच निकल आए, तो गजब ही हो जाय। सुनते ही रोएँ खड़े होते हैं।

इस झील के उस पार कछार था और कछार में एक शेरनी अपने बच्चों को लिए बैठी थी। खेमे के आदमियों ने कहा - हुजूर, अब हाथी रोक लिए जाँय। सुरैया बेगम काँप उठीं। हाय! क्या हुआ। यह शेरनी कहाँ से निकल आई। या तो उसको कजा लाई है या हमको।

नवाब साहब ने हुक्म दिया, खेदा किया जाय। तीस आदमी बड़े-बड़े कुत्ते ले कर कछार की तरफ दौड़े। सुरेया बेगम बहुत सहमी हुई थीं। फिर भी शिकार में एक किस्म का लुत्फ भी आता था। एकाएक दूर से रोशनी दिखाई दी। बेगम ने पूछा - वह रोशनी कैसी है? नवाब बोले - शेरनी निकली होगी और शायद हमला किया हो। इसीलिए रोशनी की गई कि डर से भाग जाय।

शेरनी ने जब आदमियों की आवाज सुनी, तो घबराई। बच्चों को एक ऐसी जगह ले गई जहाँ आदमी का गुजर मुहाल था। खेदे के लोग समझे कि शेरनी भाग गई। सुरैया बेगम यह खबर सुन कर खिलखिला कर हँस पड़ीं। लो, अब खेलो शिकार, बड़े वह बन कर चले थे! हमारी दुआ और कबूल न हो?

नवाब - आज बे-शिकार किए न जायँगे। लो, कसम खाई।

नवाब साहब रईस तो थे ही, कसम खा बैठे। एक मुसाहब ने कहा - हुजूर, मुमकिन है कि शेर आज न मिले। कसम खाना ठीक नहीं।

नवाब - हम हरगिज खाना न खायँगे जब तक शेर का शिकार न करेंगे। इसमें चाहे रात हो जाय, शेर का जंगल में न मिलना कैसा?

बेगम - खुदा तुम्हारी बात रख ले।

मुसाहब - जैसी हुजूर की मर्जी।

बेगम - खुदा के लिए अब भी चले चलो। क्या तुम पर कोई जिन सवार है या किसी ने जादू कर दिया है। अब दिन कितना बाकी है?

नवाब - दिन कितना ही हो, हम शिकार जरूर करेंगे!

बेगम - तुम्हें बाएँ हाथ का खाना हराम है जो शेर का शिकार खेले बगैर जाओ।

नवाब - मंजूर! जब तक शेर का शिकार न करेंगे, खाना न खाएँगे।

बेगम - बात तो यही है, खुदा तुम्हारी बात रख ले। ओ लोगो, कोई इनको समझाओ, यह किसी का कहना नहीं मानते, कोई सलाह देने वाला भी है या नहीं?

एक मुसाहब - हुजूर ने तो कसम खा ली, लेकिन साथ के सब आदमी भूखे-प्यासे हैं, उनके हाल पर रहम कीजिए, वरना सब हलकान हो जायँगे।

नवाब - हमको किसी का गम नहीं है, कुछ परवा नहीं है। अगर आप लोग हमारे साथी हैं तो हमारा हुक्म मानिए।

बेगम - शाम होने आई, और शिकार का पता नहीं, फिर अब यहाँ ठहरना बेवकूफी है या और कुछ?

बरकत - हुजूर ही के सब काँटे बोए हैं।

इतने में खेदेवालों ने कहा - खुदाबंद, अब होशियार रहिए। शेरनी आती है। अब देर नहीं है। कछार छोड़ कर पूरब की तरफ भागी थी। हम लोगों को देख कर इस जोर से गरजी कि होश उड़ गए, अट्ठाईस आदमी साथ थे, अट्ठाईसों भाग गए। उस वक्त कदम जमाना मुहाल था। शेर का कायदा है कि जब गोली लगती है तो आग हो जाता है। फिर गोली के बाप की नहीं मानता। अगर बम का गोला भी हो तो वह इस तरह आएगा जैसे तोप का गोला आता है। और शेरनी का कायदा है कि अगर अपने बच्चों के पास हो और सारी दुनिया के गोले कोई ले कर आए तो भी मुमकिन नहीं कि उसके बच्चों पर आँच आ सके।

बेगम - बँधी है या खुली हुई है? तमाशेवाले शेरों की तरह कठघरे में बंद है न?

मुसाहब - हाँ-हाँ, साहब, बँधी हुई है।

बेगम - भला उसको बाँधा किसने होगा?

अब एक दिल्लगी सुनिए। एक हाथी पर दो बंगाली थे। उन्होंने इतना ही सुना था कि नवाब साहब शिकार के लिए जाते हैं। अगर यह मालूम होता कि शेर के शिकार को जाते हैं तो करोड़ बरस न आते। समझे थे कि झीलों में चिड़ियों का शिकार होगा। जब यहाँ आए और सुना कि शेर का शिकार है तो जान निकल गई। एक का नाम कालीचरण घोष, दूसरे का शिवदेव बोस था। इन दोनों में यों बातें होने लगी।

बोस - नवाब हमको बड़ा धोखा दिया, हम नहीं जानता था कि यह लोग हमारा दुश्मन है।

घोष - हम इनसे समझेगा। ओ शाला फील का बान, हमारे को कीधर ले जाएगा?

फीलबान ने हाथी को और भी तेज किया तो यह दोनों साहब चिल्लाए।

बोस - ओ शाला!

घोष - ओ शाला फील का बान, अच्छा हम साहब के यहाँ तुम्हारा नालिश करेगा। अरे बाबा, हम लोग जाने नहीं माँगता। शेर शाला का मुकाबिला कौन करने सकता?

फीलबान - बाबू जी, डरो नहीं। अभी तो शेर दूर है। जब हौदा पकड़ लेगा तब दिल्लगी होगी, अभी शाला-शाला कहते जाओ।

बोस - अरे भाई, तुम हमारे का बाप, हमारे का बाप का बाप, हम हाथी को फेरने माँगता। ओ शाला, तुम आरामजादा।

फीलबान - अच्छा बाबू, देते जाओ गालियाँ। खुदा की कसम, शेर के मुँह में हाथी न ले जाऊँ तो पाजी।

बोस - बाप रे बाप, हमारे को बचाओ, हम रिश्वत देगा। हमारा बाप है, माँ है, सब तुम है।

जितने आदमी साथ थे, सब हँस रहे थे। इन दोनों की घबराहट देखने काबिल थी। कभी फीलबान के हाथ जोड़ते, कभी टोपी उतार कर खुदा से दुआ माँगते थे, कभी जंगल की तरफ देख कर कहते थे - बाबा, हमारा जान लेने को हम यहाँ आया। हमारा मौत हमको यहाँ लाया। अरे बाबा, हम लोग लिखने-पढ़ने में अच्छा होता है। हम लोग बिलायत जा कर अंगरेजी सीखता है। हम कभी शेर का शिकार नहीं करता, हमारा अपना जान से बैर नहीं है। ओ फील का बान, हम खबर के कागज में तुम्हारा तारिप छापेगा।

फीलबान - आप अपनी तारीफ रहने दें।

घोष - नहीं, तुम्हारा नाम हो जायगा। बड़ा-बड़ा लोग तुम्हार नाम पढ़ेगा तो बोलेगा, यह फील का बान बड़ा होशियार है, तुम पचास-साठ का नौकर हो जायगा। हम तुमको नौकर रखा देगा।

फीलबान - पचार-साठ! इतने रुपए मैं रखूँगा कहाँ? अच्छा दूसरी शादी कर लूँगा, मगर तारीफ किस बात की लिखिएगा। जरा हाथी दौड़ाऊँ?

बोस - तुम बड़ा नटखट है। ओ शाला, तुम फिर दौड़ाया?

जब झील के करीब पहुँचे, तो दोनों बंगाली और भी डरे। घोष ने पूछा - ओ फील का बान, इस झील में कित्ता गहरा?

फीलवान ने कहा - हाथी डुबाव है?

घोष - और इस झील के अंदर से हम लोग को जाने होगा भी।

फीलबान - जी हाँ, इसी में से जाने होगा भी।

घोष - और जो हाथी का पाँव फिसल गई तो हम लो का क्या...।

फीलबान - अगर हाथी का पाँव फिसल गई तो तुम लोग का टाँग और नाक टूट जाएगा, बस और कुछ न होगा, और मुँह बिगड़ जायगी तुम लोग की।

घोष - और तुम शाला कहाँ से बचने सकेगा?

फीलबान - हम उम्र भर हाथी पर चढ़ा किए हैं। हाथी फिसले तो डर नहीं और वह जाय तो खौफ नहीं।

घोष - बाबा, तुम्हारी हाथी पानी से डरती है या नहीं? हमसे शाच-शाच कह दो।

फीलबान - तुम इतना डरता था तो आया क्यों!

घोष - अरे बाबा, गोली लगने से तो सब कोई डरता है? जान फेरके आने सकेगा नहीं।

फीलबान ने हाथी को झील में डाला, तो इन दोनों ने वह चिल्ल-पों मचाई कि कुछ न पूछो। एक बोला - हम डूब गया, तो हमारा जागीर किसके पास जायगा!

फीलबान मुसकिरा कर बोला - वहीं से सब लिख के भेज दीजिएगा।

घोष - ओ शाला, तू हमारा जान लेगा! तुम जान लेगा शाला!

फीलबान - बाबू, गोल-माल न करो, खुदा को याद करो।

घोष - गोल-माल तुम करता है कि हम करता है?

बोस - हाथी हिलेगी तो हम तुमको ढकेल देगा, तुम मर जायगा!

घोष - अरे बाबा, घूस ले-ले, हम बहुत से रुपए देने सकता।

फीलबान - अच्छा, एक हजार रुपया दीजिए तो हम हाथी को फेर दें। भले आदमी, इतना नहीं सोचते कि पाँच हाथी तो उस पार निकल गए और एक हाथी पीछे आ रहा है। किसी का बाल बाँका नहीं हुआ तो क्या आप ही डूब जायँगे! क्या जान आप ही की प्यारी है?

घोष - अरे बाबा, तुम बात न करे। तुम हाथी का ध्यान करे, जो पाँव फिसलेगी तो बड़ी गजब हो जायगा।

फीलबान - अजी, न पाँव फिसलेगी, न बड़ी गजब होगा। बस चुपचाप बैठे रहिए। बोलिए चालिए नहीं।

घोष - किस माफिक नहीं बोलेगा, जरूर करके बोलेगा, ओ शाला! तुम्हारा बाप आज ही मर जाय।

फीलबान - हमारा बाप तो कब का मर चुका, अब तुम्हारी नानी मरने की बारी है।

फीलबान ने मारे शरारत के हाथी को दो-तीन बार अंकुश लगाया, तो दोनों आदमी समझे कि बस, अब जान गई। आपस में बातें करने लगे -

घोष - आमी दुई जानी डूबी जावो।

बोस - ई, हाथीवाला बड़ो बोरू।

घोष - जोनी आए बची आज, तेखे दली कोरा आम आर शिकार खेलने जाबेना।

बोस - तुमी अमाए जाबरदस्ती नीए एछो।

घोष - आमारा प्रान भवाए आचे।

घोष - हाथी रोक ले ओ शाला!

फीलबान - बाबू जी, अब हाथी हमारे मान का नहीं। अब इसका पाँव फिसला चाहता है, जरा सँभले रहिएगा।

नवाब साहब ने दोनों आदमियों का रोना-चीखना सुना तो महावत से बोले- खबरदार जो इनको डराएगा तो तू जानेगा।

घोष - नवाब शाब, हमारा मदद करो, अब हम जाता है बैकुंठ।

महावत ने आहिस्ता से कहा - बैकुंठ जा चुके, नरक में जाओगे।

इस पर घोष बाबू बहुत बिगड़े और गालियाँ देने लगे। तुम शाला को पानी के बाहर जाके हम मार डालेगा।

महावत ने कहा - जब पानी के बाहर जा सको न।

घोष - नवाब शाब, यह शाला हमारे को गाली देता।

नवाब - गाली कैसी बाबू, आप इतना घबराते क्यों हैं?

घोष - हमारे को यह शाला गाली देते हैं।

नवाब - क्यों बे, खबरदार जो गाली-गलौज की।

फीलबान - हुजूर, मैं ऐसी सवारी से दरगुजरा, इनको चारों तरफ मौत ही मौत नजर आती है। इन्हें आप शिकार में क्यों लाए?

बोस - अरे शाले का शाला, तुम बात करेगा, या हाथी को देखेगा? अरे बाबा, अब हम ऐसी सवारी पर न आएगा।

बारे हाथी उस पार पहुँचा, तो इन दोनों की जान में जान आई। बोस बाबू बोले - नवाब शाब, हम इसी का साथ बड़ा तकलीफ पाया। यह महावत हमारा उस जन्म का बैरी है बाबा, हम ऐसा शिकार नहीं खेलना चाहता, अब हम हाथी पर से उतर जायगा।

नवाब साहब ने फीलबान को हुक्म दिया कि हाथी को बैठाओ और बाबू लोगों से कहा - अगर आप लोगों को तकलीफ होती है तो उतर जाइए। इस पर घोष और बोस दोनों सिर पीटने लगे - अरे बाबा, इस जंगल के बीच में तुम हमको छोड़के भागना माँगता। हम जायगा कहाँ? इधर जंगल, उधर जंगल। हमारे को घर पहुँचा दो।

नवाब साहब ने कहा - अगर एक हाथी को अकेला भेज दूँ तो शायद शेर या सुअर या कोई अन्य जानवर हमला कर बैठे, हाथी जख्मी हो जाय और महावत की जान पर आ बने। आप लोग गोली चलाने से रहे, फिर क्या हो?

घोष - आपको अपना हाथी प्यारा, फील का बान प्यारा, हमारा जान प्यारा नहीं। फील का बान सात-आठ रुपए का नौकर, हमर लोग हेडक्लर्की करता और क्या बात करेगा। हम जान नहीं रखता, वह जान रखता है?

नवाब - अच्छा, फिर बैठे रहो, मगर डरो नहीं।

घोष - अच्छा अब हम न बोलेगा।

बोस - कैसे न बोलेगा, तुम न बोलेगा? तुम न बोलेगा तो हम बोलेगा।

घोष - तुम शाला सुअर है। तुम क्या बोलेगा? बोलेगा तो हम तुमको कतल कर डालेगा। शाला हमारे को फाँस के लाया और अब जान लेना माँगता है।

बोस - (धोती सँभाल कर) तुम दुष्ट चुप रहो। तुम नीच कोम है।

घोष - बोलेगा तो हम हलाल करेगा।

बोस - (दाँत दिखा कर) हम तुमको दाँत काट लेगा।

घोष - अरे तुम बोके जाय शाला बोदजात, दुष्ट।

बोस - तुम नीच कोम, छोटा को, भीख माँगनेवाला सुअर।

दोनों में खूब तकरार हुई। कभी घोष ने घूँसा ताना, कभी बोस ने पैंतरा बदला; मगर दोनों में कोई वार न करता था। दोनों कुंदे तोल-तोल कर रह जाते थे। नवाब साहब ने यह हाल देखा तो चाहा कि दोनों को अलग-अलग हाथियों पर बिठाएँ, मगर घोष ने मंजूर न किया, बोले - यह हमारा देश का, हम इसका देश का, और कोई हमारा देश का नहीं।

इतने में आदमियों ने ललकार कर कहा - खबरदार, शेरनी निकली जाती है। हुक्म हुआ है कि हाथी इस तरफ बढ़ाओ। सब हाथी बढ़ाए गए। एक दरख्त की आड़ में शेरनी दो बच्चे लिए हुए दबकी खड़ी थी। नवाब साहब ने फौरन गोली सर की, वह खाली गई। नवाब साहब ने फिर बंदूक सर की, अब की गोली शेरनी के कल्ले पर जा पड़ी। गोली खाना था कि वह झल्ला कर पलट पड़ी और तोप के गोले की तरह झपटी। आते ही उसने एक हाथी को थप्पड़ लगाया तो वह चिंघाड़ कर भागा। नवाब साहब ने फिर बंदूक चलाई, मगर निशाना खाली गया। शेरनी ने उसी हाथी को जिसे थप्पड़ मारा था, कान पकड़ कर बैठा दिया। बारे चौथा निशाना ऐसा पड़ा कि शेरनी तड़प कर गिर पड़ी।

इधर तो यह कैफियत हो रही थी, उधर बंगाली बाबू दोनों हौदे के अंदर औंधे पड़े थे। आँखें दोनों हाथें से बंद कर ली थी। बेगम साहब ने उन्हें हौदे में बैठे न देखा तो पूछा - क्या वह दोनों बाबू भाग गए?

फीलबान - नहीं खुदाबंद, मैं हाथी बढ़ाए लाता हूँ।

हाथी करीब आया तो नवाब साहब दोनों बंगालियों को देख कर इतना हँसे कि पेट में बल पड़-पड़ गए।

नवाब - अब उठोगे भी या सोते ही रहोगे? बाबू जी तो बोलते ही नहीं।

बेगम - क्या अच्छे आदमी थे बेचारे!

नवाब - मगर चल बसे। अभी बातें कर रहे थे।

बेगम - अब कुछ कफन-दफन की फिक्र करोगे या नहीं।

फीलबान ने कंधा पकड़ कर हिलाया तो बोस बाबू उठे। उठते ही शेरनी की लाश देखी, तो काँप कर बोले - नवाब शाब, शाच-शाच बोलो कि यह मिट्टी का शेर है या ठीक-ठीक शेर है? हम समझ गया कि मिट्टी का है।

नवाब - आप तो हैं पागल।

घोष - आप लोग जान को कुछ नहीं समझता?

बोस - ये लोग गँवार हैं। हम लोग एम.ए.,बी.ए. पास करता है। हम लोग बहुत सा बात ऐसा करता है कि आप लोग नहीं करने सकता।

नवाब - अच्छा, अब हाथी से तो उतरो।

फीलबान - बाबू साहब, शेरनी तो मर गई; अब क्या डर है।

दोनों बाबुओं ने हाथी से उतर कर शेरनी की तरफ देखना शुरू किया, मगर आगे कोई नहीं बढ़ता।

बोस - आगे बढ़ो महाशाई।

घोष - तुम्हीं बढ़ो, तुम बड़ा मर्द है तो तुम बढ़े।

नवाब - बढ़ना नहीं। खबरदार, बढ़े और शेर खा गया।

घोष - बाबा, अब चाहे जान जाता रहे, पर हम उसके पास जरूर करके जायगा।

यह कह कर आप आगे बढ़े, मगर फिर उलटे पाँव भागे और पीछे फिर कर भी न देखा।

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  • आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 71-80
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