आजाद-कथा (उपन्यास) : रतननाथ सरशार - अनुवादक – प्रेमचंद

Azad Katha (Novel in Hindi) : Ratan Nath Sarshar

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 51

कई दिन तक तो जहाज खैरियत से चला गया, लेकिन पेरिस के करीब पहुँचकर जहाज के कप्तान ने सबको इत्तिला दी कि एक घंटे में बड़ी सख्त आँधी आनेवाली है। यह खबर सुनते ही सबके होश-हवास गायब हो गए। अक्ल ने हवा बतलाई, आँखों में अँधेरी छाई, मौत का नक्शा आँखों के सामने फिरने लगा। तुर्रा यह कि आसमान फकीरों के दिल की तरह साफ था, चाँदनी खूब निखरी हुई, किसी को सान-गुमान भी नहीं हो सकता था कि तूफान आएगा; मगर बेरोमीटर से तूफान की आमद साफ जाहिर थी। लोगों के बदन के रोंगटे खड़े हो गए, जान के लाले पड़ गए; या खुदा, जाएँ तो कहाँ जाएँ, और इस तूफान से नजात क्योंकर पाएँ? कप्तान के भी हाथ-पाँव फूल गए और उसके नायब भी सिट्टी-पिट्टी भूल गए। सीढ़ियों से तख्ते पर आते थे और घबरा कर फिर ऊपर चढ़ जाते थे। कप्तान लाख-लाख समझाता था, मगर किसी को उसकी बात पर यकीन न आता था -

किसी तरह से समझता नहीं दिले नाशाद;

वही है रोना, वही चीखना, वही फरियाद।

इतने में हवा ने वह जोर बाँधा कि लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। कप्तान ने एक पाल तो रहने दिया, और जहाज को खुदा की राह पर छोड़ दिया। लहरों की यह कैफियत की आसमान से बातें करती थीं। जहाज झोंके खा कर गेंद की तरह इधर से उधर उछलता था। सब के सब जिंदगी से हाथ धो बैठे, अपनी जानों को रो बैठे। बच्चे सहम कर अपनी माँओं से चिपटे जाते थे। कोई औरत मुँह ढँक कर रोती थी कि उम्र भर की कमाई इस समुद्र में गँवाई। कोई अपने प्यारे बच्चे को छाती से लगा कर कहती - बेटा, अब हम रुख्सत होते हैं। पर वह नादान मुसकिराता था और इस भोलपन से माँ के दिल पर बिजलियाँ गिराता था। किसी को मारे खौफ के चुप लग गई थी, किसी के हाथ-पाँवों में कँपकँपी थी। कोई समुद्र में कूद पड़ने का इरादा करके रह जाता था, कोई बैठा देवतों को मनाता था। क्या बूढ़े, क्या जवान, सबकी अक्ल गुम थी। वेनेशिया के चेहरे का रंग काफूर हो गया। हँसोड़ के दिल से हँसी का खयाल कोसों दूर हो गया। मियाँ आजाद का चेहरा जर्द, अपिल्टन के हाथ-पाँव सर्द। मियाँ आजाद सोचने लगे, या खुदा, यह किस मुसीबत से दो-चार किया, माशूक के एवज मौत को गले का हार किया! जी लगाने की खूब सजा पाई, इश्क की धुन में जान भी गँवाई। हमारी हड्डियाँ तक गल जाएँगी; पर हुस्नआरा हमारी खबर भी न पाएँगी। सिपहआरा बार-बार फाल देखेंगी कि आजाद कब मैदान से सुर्खरू हो कर आएँगे और हम कब मसजिद में घी के चिराग जलाएँगे मगर आजाद की किश्ती गोते खाती है और जरा देर में तह की खबर लाती है।

जहाज में तो यह कुहराम मचा था, मगर खोजी लंबी ताने सो ही रहे थे। इस नींद पर खुदा की मार, इस पिनक पर शैतान की फटकार! आजाद ने जगाया कि ख्वाजा साहब, उठिए, तूफान आया है। हजरत ने लेटे ही लेटे भुनभुना कर फरमाया कि चुप गीदी, हमने ख्वाब में बहुरूपिया पकड़ पाया है। तब तो आजाद झल्लाए और कस कर एक लात लगाई। खोजी कुलबुला कर उठ बैठे और समुद्र की भयानक सूरत देखी, तो काँप उठे।

कप्तान खूब समझता था कि हालत हर घड़ी नाजुक होती जाती है; लेकिन पुराना आदमी था, कलेजा मजबूत किए हुए था। इससे लोगों को तसल्ली होती थी कि शायद जान बच निकले। सामने पेरिम का जजीरा नजर आता था मगर वहाँ तक पहुँचना मुहाल था। सब के सब दुआ कर रहे थे कि जहाज किसी तरह इस टापू तक पहुँच जाय। मरने की तैयारियाँ हो रही थीं। इतने में आजाद ने क्या देखा कि अपिल्टन वेनेशिया का हाथ पकड़ कर तख्ते पर खड़े रो रहे हैं। आजाद को देखते ही वेनेशिया ने कहा - मिस्टर आजाद, रुख्सत! हमेशा के लिए रुख्सत!

आजाद - रुख्सत!

हँसोड़ - है-है!लो, अब भँवर में जहाज आ गया।

यह सुन कर औरतों ने वह फरियाद मचाई कि लोगों के कलेजे दहल गए।

अपिल्टन - बस, इतनी ही दुनिया थी!

आजाद - हाँ, इतनी ही दुनिया थी!

खोजी - भई आजाद, खुदा गवाह है, मैं इस वक्त अफीम के नशे में नहीं। अफसोस, तुम्हारी जान जाती है, हुस्नआरा समझेंगी कि आजाद ने धोखा दिया। हाय, आजाद तेरी जवानी मुफ्त गई।

एकाएक जहाज तीन बार घूमा और हवा के झोंके से कई गज के फासले पर जा पहुँचा। अब लाइफ-बोट के सिवा और कोई तदबीर न थी। जहाज डूबने ही को था, दस फुट से ज्यादा पानी उसमें समा गया था। लाइफ-बोट समुद्र में उतारे गए और आजाद लड़कों और औरतों को उठा-उठा कर लाइफबोट में बैठाने लगे। उनकी अपनी जान खतरे में थी, मगर इसकी उन्हें परवा न थी! जब वह वेनेशिया के पास पहुँचे, तो उसने इनसे हाथ मिलाया और अपिल्टन और वह, दोनों लाइफबोट में कूद पड़े। आजाद की दिलेरी पर लोग हैरत से दाँतों तले उँगली दबाते थे। लोगों को यकीन हो गया था कि यह कोई फरिश्ता है, जो बेगुनाहों की जान बचाने के लिए आया है।

टापू के वाशिंदे किनारे पर खड़े रोशनी कर रहे थे कि शोले उठें और जहाज के लोग समझ जाएँ कि जमीन करीब है। सैकड़ों आदमी गुल मचाते थे, तालियाँ बजाते थे। कुछ लोग रो रहे थे। मगर कुछ ऐसे भी थे, जो दिल में खिले जाते थे कि अब पौ बारह हैं।

एक - बस, अब जहाज डूबा। तड़के ही से लैस होकर आ डटूँगा।

दूसरा - हमें एक बार जवाहिरात का एक संदूक मिल गया था।

तीसरा - अजी हमने इसी तरह बहुत-कुछ पैदा किया।

चौथा - अजी, क्या बकते हो? कुछ तो खुदा से डरो। वे सब तो मुसीबत मे हैं, और तुम लोगों को लूट की धुन सवार है। शर्म हो, तो चुल्लू-भर पानी में डूब मरो।

मियाँ खोजी बार-बार हिम्मत बाँध कर लाइफ-बोट की तरफ जाते और डर कर लौट आते थे। आखिर आजाद ने उन्हें भी घसीट कर लाइफ-बोट में पहुँचाया। वहाँ जाते ही उन्होंने गुल मचाया कि अफीम की डिबिया तो वहीं रह गई! मियाँ जरी कोई लपक के हमारी डिबिया ले आए। आजाद ने कहा - मियाँ तुम भी कितने पागल हो? यहाँ जानों के लाले पड़े हैं, तुम्हें अपनी डिबिया ही की फिक्र है।

लाइफ-बोट कुल तीन थे उनमें मुश्किल से पचास-साठ आदमी बैठ सकते थे। लेकिन हर शख्स चाहता था कि मैं भी लाइफ-बोट में पहुँच जाऊँ। कप्तान ने यह हालत देखी, तो जंजीरें खोल दीं। किश्तियाँ बह निकलीं। अब बाकी आदमियों की जो हालत हुई, वह बयान में नहीं आ सकती। अहगर कोई फोटोग्राफर इन बदनसीबों की तसवीर उतारता, तो बड़े से बड़े संगदिल भी उसे देख कर सिर धुनते। मौत चिमटी जाती है, और मौत के पंजों में फँसी हुई जान फड़फड़ा रही है। मगर जान बड़ी प्यारी चीज है। लोग खूब जाते थे कि जहाज के डूबने में देर नहीं,

लाइफ-बोट भी दूर निकल गए। मगर फिर भी यह उम्मीद है, शायद किसी तरह बच जायँ। दो बदनसीब बहनें यों बातें कर रही थीं -

बड़ी बहन-कूद पड़ो पानी में। शायद बच जायँ।

छोटी बहन - लहरें कहीं न कहीं पहुँचा ही देंगी।

बड़ी - अम्माँ सुनेंगी तो क्या करेंगी?

छोटी - मैं तो कूदती हूँ।

बड़ी - क्यों जान देती है?

एक औरत ने अपने प्यारे बच्चे को समुद्र में फेंक दिया और कहा - यह लड़का तेरे सिपुर्द करती हूँ।

यह कह कर खुद भी गिर पड़ी।

अब सुनिए; जिस लाइफ-बोट पर वेनेशिया, और अपिल्टन थे, वह हवा के झोंके से पेरिम से दूर हट गया। वेनेशिया ने कहा - अब कोई उम्मेद नहीं।

अपिल्टन - खुदा पर भरोसा रखो।

वेनेशिया - या खुदा, हमें बचा ले। हम बेगुनाह हैं।

अपिल्टन - सब्र, सब्र!

वेनेशिया - लो, आजाद की किश्ती भी इधर ही आने लगी। अब कोई न बचेगा।

दोनों किश्तियाँ थोड़े ही फासले पर जा रही थीं, इतने में एक लहर ने अपिल्टन की किश्ती को ऐसा झोंका दिया कि वह नीचे ऊपर होने लगी और तीन आदमी समुद्र में गिर पड़े। अपिल्टन भी उनमें से एक थे। उनके गिरते ही वेनेशिया ने एक चीख मारी और बेहोश हो गई। आजाद ने यह हाल देखा, तो फौरन बोट पर से कूद पड़े और जान हथेली पर लिए हुए, लहरों को चीरते, अपिल्टन की मदद को चले। इधर अपिल्टन का कुत्ता भी पानी मे कूदा और उनके सिर के बाल दाँतों से पकड़े ऊपर लाया। मियाँ आजाद भी तैरते हुए जा पहुँचे और अपिल्टन को पकड़ लिया। उसी वक्त किश्ती भी आ पहुँची और लोगों ने मदद दे कर अपिल्टन को खींच लिया। मगर किश्ती इतनी तेजी से निकल गई कि आजाद उस पर न आ सके। अब उनके लिए मौत का सामना था। मगर वह कलेजा मजबूत किए टापू की तरफ तैरते चले जाते थे। टापूवालों ने उन्हें आते देखा, तो और भी हौसला बढ़ाया, और हिम्मत दिलाई। सब के सब दुआ कर रहे थे कि या खुदा इस जवान को बचा। ज्यों ही आजाद टापू के करीब पहुँचे, रस्सियाँ फेकी गईं और आजाद ऊपर आए। सब ने उनकी पीठ ठोंकी। वेनेशिया ने मियाँ आजाद से कहा - तुम न होते तो, मैं कहीं की न रहती। तुम्हारा एहसान कभी न भूलूँगी।

अपिल्टन - भाई, देखना, भूल न जाना। टर्की से खत लिखते रहना।

आजाद - जरूर, जरूर!

वेनेशिया - आजाद, जैसे बहन को अपने भाई की मुहब्बत होती है, वैसे ही मुझको तुम्हारी मुहब्बत है।

आजाद - मैं जहाँ रहूँगा, आप लोगों से जरूर मिलूँगा।

खोजी - यार, हमारी अफीम की डिबिया जहाज ही में रह गई। देखें, किस खुशनसीब के हाथ लगती है।

सब लोग यह जुमला सुन कर खिलखिला कर हँस पड़े।

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 52

माल्टा में आर्मीनिया, अरब, यूनान, स्पेन, फ्रांस सभी देशों के लोग हैं। मगर दो दिन से इस जजीरे में एक बड़े गरांडील जवान को गुजर हुआ है। कद कोई आध गज का हाथ-पाँव दो-दो माशे के; हवा जरा तेज चले, तो उड़ जायँ। मगर बात-बात पर तीखे हुए जाते हैं। किसी ने जरा तिर्छी नजर से देखा, और आपने करौली सीधी की। न दीन की फिक्र थी, न दुनिया की, बस, अफीम हो, और चाहे कुछ हो या न हो।

आजाद ने कहा - भई, तुम्हारा यह फिकरा उम्र भर न भूलेगा कि देखें हमारी अफीम की डिबिया किस खुशनसीब के हाथ लगती है।

खोजी - फिर, उसमें हँसी की क्या बात है? हमारी तो जान पर बन आई और आपको दिल्लगी सूझती है। जहाज में डूबने का किस मर्दक को रंज हो। मगर अफीम के डूबने का अलबत्ता रंज है। दो दिन से जम्हाइयों पर जम्हाइयाँ आती हैं। पैसे लाओ, तो देखूँ, शायद कहीं मिल जाय।

मियाँ आजाद ने दो पैसे दिए और आप एक दुकान पर पहुँच कर बोले - अफीम लाना जी?

दुकानदार ने हाथ से कहा कि हमने समझा नहीं।

खोजी - अजब जाँगलू है! अबे, हम अफीम माँगते हैं।

दुकानदार हँसने लगा।

खोजी - क्या फटी जूती की तरह दाँत निकालता है! लाता है अफीम कि निकालूँ करौली!

इतने में मियाँ आजाद पहुँचे और पूछा - यहाँ क्या खरीदारी होती है?

खोजी - अजी, यहाँ तो सभी जाँगलू ही जाँगलू रहते हैं। घंटे भर से अफीम माँग रहा हूँ, सुनता ही नहीं।

आजाद - फिर कहने से तो आप बुरा मानते हें। भला यह बारूद बेचता है या अफीम? बिलकुल गौखे ही रहे!

खोजी - अगर अफीम का यही हाल रहा, तो तुर्की तक पहुँचना मुहाल है।

आजाद - भई, हमारा कहा मानो। हमें टर्की जाने दो और तुम घर जाओ।

खोजी - वाहवा, अब मैं साथ छोड़ने वाला नहीं। और मैं चला जाऊँगा, तो तुम लड़ोगे किसके बिरते पर?

आजाद - बेशक, आप ही के बिरते पर तो मैं लड़ने जाता हूँ न?

खोजी - कौन? कसम खाके कहता हूँ, जब सुनिएगा; यही सुनिएगा कि ख्वाजा साहब ने तोप में कील लगा दी।

आजाद - जी, इसमें क्या शक है।

खोजी - शक-वक के भरोसे न रहिएगा! अकेली लकड़ी चूल्हे में भी नहीं जलती। जिस वक्त ख्वाजा साहब अरबी घोड़े पर सवार होंगे और अकड़ कर बैठेंगे, उस वक्त अच्छे-अच्छे जंडैल-कंडैल झुक-झुक कर सलाम करेंगे।

इतने में एक हब्शी सामने से आ निकला। करारा जवान, मछलियाँ भरी हुई, सीना चौड़ा। खोजी ने जो देखा कि एक आदमी अकड़ता हुआ सामने से आ रहा है, तो आप भी ऐंठने लगे। हब्शी ने करीब आ कर कंधे से जरा धक्का दिया, तो मियाँ खोजी ने बीस लुढ़कनियाँ खाईं। मगर बेहया तो थे ही, झाड़पोंछ कर उठ खड़े हुए, और हब्शी को ललकार कर कहा - अबे ओ गीदी, न हुई करौली इस वक्त। जरा मेरा पैर फिसल गया, नहीं तो वह पटकनी देता कि अंजर-पंजर ढीले हो जाते!

आजाद - तुम क्या, तुम्हारा गाँव भर तो इसका मुकाबला कर ले!

खोजी - अच्छा, लड़ा कर देख लो न! छाती पर न चढ़ बैठूँ, तो ख्वाजा नाम नहीं। कहो, ललकारूँ जा कर।

आजाद - बस, जाने दीजिए। क्यों हाथ-पाँव के दुश्मन हुए हो!

दूसरे दिन जहाज वहाँ से रवाना हुआ। आजाद को बार-बार हुस्नआरा की याद आती थी। सोचते थे, कहीं लड़ाई में मारा गया, तो उससे मुलाकात भी न होगी। खोजी से बोले - क्यों जी, हम अगर मर गए, तो तुम हुस्नआरा को हमारे मरने की खबर दोगे, या नहीं?

खोजी - मरना क्या हँसी-ठट्ठा है? मरते हैं हम जैसे दुबले-पतले बूढ़े अफीमची कि तुम ऐसे हट्टे-कट्टे जवान?

आजाद - शायद हमीं तुमसे पहले मर जायँ?

खोजी - हम तुमको अपने पहले मरने ही न देंगे। उधर तुम बीमार हुए, और हमने इधर जहर खाया।

आजाद - अच्छा, जो हम डूब गए?

खोजी - सुनो मियाँ, डूबनेवाले दूसरे ही होते हैं। वह समुंदर में डूबने नहीं आया करते, उनके लिए एक चुल्लू काफी होता है।

आजाद - जरा देर के लिए मान लो कि हम मर गए तो इत्तिला दोगे न?

खोजी - पहले तो हम तुमसे पहले ही डूब जायँगे, और अगर बदनसीबी से बच गए, तो जा कर कहेंगे - आजाद ने शादी कर ली, और गुलछर्रें उड़ा रहे हैं।

आजाद - तब तो आप दोस्ती का हक खूब अदा करेंगे!

खोजी - इसमें हिकमत है।

आजाद - क्या है, हम भी सुनें?

खोजी - इतना भी नहीं समझते! अरे मियाँ, तुम्हारे मरने की खबर पा कर हुस्नआरा की जान पर बन आएगी, वह सिर पटक-पटक कर दम तोड़ देगी; और जो यह सुनेगी कि आजाद ने दूसरी शादी कर ली, तो उसे तुम्हारे नाम से नफरत हो जायगी, और रंज तो पास फटकने भी न पाएगा। क्यों, है न अच्छी तरकीब?

आजाद - हाँ, है तो अच्छी!

खोजी - देखा, बूढ़े आदमी डिबिया में बंद कर रखने के काबिल होते हैं। तुम लाख पढ़ जाओ, फिर लौंडे ही हो हमारे सामने। मगर तुम्हारी आजकल यह क्या हालत है? कोई किताब पढ़ कर दिल क्यों नहीं बहलाते?

आजाद - जी उचाट हो रहा है। किसी काम में जी नहीं लगता।

खोजी - तो खूब सैर करो। यार, पहले तो हमें उम्मेद ही नहीं कि हिंदोस्तान पहुँचे, लेकिन जिंदा बचे, और हिंदोस्तान की सूरत देखी, तो जमीन पर कदम न रखेंगे। लोगों से कहेंगे, तुम लोग क्या जानो, माल्टा कहाँ है? खूब गप्पे उड़ाएँगे।

यों बातें करते हुए दोनों आदमी एक कोठे में गए। वहाँ कहवे की दुकान थी। आजाद ने एक आदमी के हाथ अफीम मँगाई। खोजी ने अफीम देखी तो खिल गए। वहीं घोली और चुस्की लगाई। वाह आजाद, क्यों न हो, यह एहसान उम्र-भर न भूलूँगा। इस वक्त हम भी अपने वक्त के बादशाह हैं -

फिक्र दुनिया की नहीं रहती मैख्वारों में;

गम गलत हो गया जब बैठ गए यारों में।

उस दुकान में बहुत से अखबार मेज पर पड़े थे। आजाद एक किताब देखने लगे। मालिक-दुकान ने देखा, तो पूछा - कहाँ का सफर है?

आजाद - टर्की जाने का इरादा है।

मालिक - वहाँ हमारी भी एक कोठी है। आप वहीं ठहरिएगा।

आजाद - आप एक खत लिख दें, तो अच्छा हो।

मालिक - खुशी से। मगर आजकल तो वहाँ जंग छिड़ी है!

आजाद - अच्छा, छिड़ गई?

मालिक - हाँ, छिड़ गई। लड़ाई सख्त होगी। लोहे से लोहा लड़ेगा।

जब आजाद यहाँ से चलने लगे, तो मालिक ने अपने लड़के के नाम खत लिख कर आजाद को दिया। दोनों आदमी वहाँ से आ कर जहाज पर बैठे।

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 53

रात के ग्यारह बजे थे, चारों बहनें चाँदनी का लुत्फ उठा रही थीं। एका-एक मामा ने कहा - ऐ हुजूर, जरी चुप तो रहिए। यह गुल कैसा हो रहा है? आग लगी है कहीं।

हुस्नआरा - अरे, वह शोले निकल रहे हैं। यह तो बिलकुल करीब है।

नवाब साहब - कहाँ हो सब की सब! जरूरी सामान बाँध कर अलग करो। पड़ोस में शाहजादे के यहाँ आ लग गई। जेवर और जवाहिरात अलग कर लो। असबाब और कपड़े को जहन्नुम में डालो।

बहारबेगम - हाय, अब क्या होगा!

हुस्नआरा - हाय-हाय, शोले आसमान की खबर लाने लगे!

नीचे उतर कर सबों ने बड़ी फुरती से सब चीजें बाहर निकाली और फिर कोठे पर गईं, तो क्या देखती हैं कि हुमायूँ फर की कोठी में आग लगी है और हर तरफ से शोले उठ रहे हैं। ये सब इतनी दूर पर खड़ी थीं, मगर ऐसा मालूम होता था कि चारों तरफ भट्ठी ही भट्ठी है। धन्नियाँ जो चटकीं, तो बस, यही मालूम हुआ कि बादल गरज रहा है।

बहारबेगम - हाय, लाखों पर पानी पड़ गया!

सिपहआरा - बहन, इधर तो आओ। देखो, हजारों आदमी जमा हैं। जरा देखो, वह कौन है? है-है! वह कौन हैं?

बहारबेगम - कहाँ कौन है?

सिपहआरा - यह महताबी पर कौन है?

हुस्नआरा - अरे, यह तो हुमायूँ फर हैं। गजब हो गया। अब यह क्योंकर बचेंगे?

सिपहआरा फूट-फूट कर रोने लगी। फिर बोली - बाजी, अब होगा क्या? चारों तरफ आग है। बचेगा क्योंकर बेचारा!

बहारबेगम - इसकी जवानी पर तरस आता है।

हुस्नआरा - मुँह टाँप कर खूब रोईं। सिपहआरा का यह हाल था कि आँसुओं का तार न टूटता था। हुमायूँ फर महताबी पर इस ताक में सोए थे कि शायद इन हसीनों में से किसी का जलवा नजर आए। लेकिन ठंडी हवा चली, तो आँख लग गई। जब आग लगी और चारों तरफ गुल मचा, तो जागे; लेकिन कब? जब महताबी के नीचे के हिस्से में चारों तरफ आग लग चुकी थी। खिदमतगारों के हाथ-पाँव फूल गए। यही सोचते थे, किसी तरह से इस बेचारे की जान बचाएँ। असबाब बटोरने की फिक्र किसे! कोई शाहजादे की जवानी को याद करके रोता था, कोई सिर धुन कर कहता था - गरीब बूढ़ी माँ के दिल पर क्या गुजरेगी? शहर से गोल के गोल आदमी आ कर जमा हो गए। सिपाही और चौकीदार, शहर के रईस और अफसर उमड़े चले आते थे। दरिया से हजारों घड़े पानी लाया जाता था। मिश्ती और मजदूर आग बुझाने में मसरूफ थे। मगर हवा इस तेजी पर थी कि पानी तेल का काम देता था। शाहजादे इस नाउम्मेदी की हालत में सोच रहे थे कि जिन लोगों के दीदार के लिए मैंने अपनी जान गँवाई उन्हें मालूम हो जाय, तो मैं समझूँ कि जी उठा। इतने में इधर नजर पड़ी, तो देखा कि सब की सब औरतें कोठे पर खड़ी हाय-हाय कर रही हैं। सोचे, खैर शुक्र है! जिसके लिए जान दी, उसको अपना मातम करते तो देख लिया। एकाएक उन्हें अपना छोटा भाई याद आया। उसकी तरफ मुखातिब हो कर कहा - भाई, घर-बार तुम्हारे सुपुर्द है। माँ को तसल्ली देना कि हुमायूँ फर न रहा, तो मैं तो हूँ। यह फिकरा सुन कर सब लोग रोने लगे। इतने में आग के शोले और करीब आए और हवा ने और जोर बाँधा, तो शाहजादा ने सिपहआरा की तरफ नजर करके तीन बार सलाम किया। चारों बहनें दीवारों से सिर टकराने लगीं कि हाय, यह क्या सितम हुआ! शाहजादे ने यह कैफियत देखी, तो इशारे से मना किया। लेकिन दोनों बहनों की आँखों में इतने आँसू भरे हुए थे कि उन्हें कुछ दिखाई न दिया।

सिपहआरा खिड़की के पास जा कर फिर सिर पीटने लगी। हुमायूँ फर उसे देख कर अपना सदमा भूल गए और हाथ बाँध कर दूर ही से कहा - अगर यह करोगी, तो हम अपनी जान दे देंगे! गोया जान बचने की उम्मेद ही तो थी! चारों तरफ आग के शोले उठ रहे थे, धुआँ बादल की तरह छाया हुआ था, भागने की कोई तदबीर नहीं। हवा कहती है कि मैं आज ही तेजी दिखलाऊँगी, और आप कहते हैं कि मैं अपनी जान दे दूँगा।

इतने मे जब आग बहुत ही करीब आ गई, तो हुमायँ फर की हिम्मत छूट गई। बेचैनी की हालत में सारी छत पर घूमने लगे। आखिर यहाँ तक नौबत आई कि जो लोग करीब खड़े थे, वह लपटों के मारे और दूर भागने लग। आग हुमायूँ फर से सिर्फ एक गज के फासले पर थी। आँच से फुँके जाते थे। जब जिंदगी की कोई उम्मेद न रही, तो आखिरी बार सिपहआरा की तरफ टोपी उतार कर सलाम किया और बदन को तौल कर धम से कूद पड़े।

उधर सिपहआरा ने भी एक चीख मारी और खिड़की से नीचे कूदी।

शाहजादा साहब नीचे घास पर गिरे। यहाँ जमीन बिलकुल नर्म और गीली थी। गिरते ही बेहोश हो गए। लोग चारों तरफ से दौड़ पड़े और हाथों-हाथ जमीन से उठा लिया। लुत्फ की बात यह कि सिपहआरा को भी जरा चोट नहीं लगी थी। उसने उठते ही कहा कि लोगो, हुमायूँ शाहजादा बचा हो, तो हमें दिखा दो। नहीं तो उसी की कब्र में हमको भी जिंदा दफन कर देना।

इतने में नवाब साहब ने सिपहआरा को अलग ले जा कर कहा - तुम घबराओ नहीं। शाहजादा साहब खैरियत से हैं।

सिपहआरा - हाय! दूल्हा भाई, मैं क्योंकर मानूँ!

नवाब साहब - नहीं बहन, आओ, हम उन्हें अभी दिखाए देते हैं।

सिपहआरा - फिर दिखाओ मेरे दूल्हा भाई!

नवाब साहब - जरा भीड़ छँट जाय, तो दिखाऊँ। तब तक घर चली चलो।

सिपहआरा - फिर दिखाओगे? हमारे सिर पर हाथ रख कर कहो।

नवाब साहब - इस सिर की कसम जरूर दिखाएँगे।

सिपहआरा को अंदर पहुँचा कर नवाब साहब हुमायूँ फर के यहाँ पहुँचे, तो देखा कि टाँग में कुछ चोट आई है। डॉक्टर पट्टी बाँध रहा है और बहुत से आदमी उन्हें घेरे खड़े हैं। लोग इस बात पर बहस कर रहे हैं कि आग लगी क्योंकर? रात भर शाहजादे की हालत बहुत खराब रही। दर्द के मारे तड़प-तड़प उठते। सुबह को चारपाई से उठ कर बैठे ही थे कि चिट्ठारसाँ ने आ कर एक खत दिया। शाहजादे साहब ने इस खत को नवाब साहब की तरफ बढ़ा दिया। उन्होंने यह मजमून पढ़ सुनाया -

अजी हजरत, तसलीम।

सच कहना, कैसा बदला लिया! लाख-लाख समझाया, मगर तुमने ने माना। आखिर, तुम खुद ही मुसीबत में पड़े। तुमने हमरा दिल जलाया है, तो हम तुम्हारा घर भी न जलाएँ? जिस वक्त यह खत तुम्हारे पास पहुँचेगा, मकान जल-भुन के खाक हो गया होगा। शहसवार।

शाहजादे साहब ने यह मजमून सुना, तो त्योरियों पर बल पड़ गए और चेहरा मारे गुस्से के सुर्ख पड़ गया।

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 54

रात का वक्त था, एक सवार हथियार साजे, रातों-रात घोड़े को कड़कड़ाता हुआ बगटुट भागा जाता था। दिल में चोर था कि कहीं पकड़ न जाऊँ! जेलखाना झेलूँ। सोच रहा था, शाहजादे के घर में आग लगाई है, खैरियत नहीं। पुलिस की दौड़ आती ही होगी। रात भर भागता ही गया। आखिर सुबह को एक छोटा सा गाँव नजर आया। बदन थक कर चूर हो गया था। अभी घोड़े से उतरा ही था कि बस्ती की तरफ से गुल की आवाज आई। वहाँ पहुँचा, तो क्या देखता है कि गाँव भर के बाशिंदे जमा हैं, और दो गँवार आपस में लड़ रहे हैं। अभी यह वहाँ पहुँचा ही था कि एक ने दूसरे के सिर पर ऐसा लट्ठ मारा कि वह जमीन पर आ रहा। लोगों ने लट्ठ मारनेवाले को गिरफ्तार कर लिया और थाने पर लाए। शहसवार ने दरियाफ्त किया, तो मालूम हुआ कि दोनों की एक जोगिन से आशनाई थी।

सवार - यह जोगिन कौन है भई?

एक गँवार - इतनी उमिर आई, उस जोगिन कतहूँ न देखी।

इतने में थानेदार आ गए। जख्मी को चारपाई पर डाल कर अस्पताल भिजवाया और खूनी को गवाहों के साथ थाने ले गए। मियाँ सवार भी उनके साथ हो लिए, थाने में तहकीकात होने लगी।

थानेदार - यह किस बात पर झगड़ा हुआ जी?

चौकीदार - हुजूर, वह सास जौन जोगिन बनी है।

थानेदार - हम तुमसे इतना पूछता है किस बात पर लड़ाई हुआ?

चौकीदार - जैसे इहौ वहाँ जात रहै और वहौ वहाँ जात रहै। तौन आपस में लाग-डाँट ह्वै गई। ए बस एक दिन मार-धार ह्वै गई बस, लाठी चलै लाग। मूर से रकत बहुत बहा।

मौलवी - सूबेदार साहब, आज दोनों ने खूब कुज्जियाँ चढ़ाई थीं।

थानेदार - आप कौन हैं?

मौलवी - हुजूर, गाँव का काजी हूँ।

थानेदार - यहीं मकान है आपका?

मौलवी - जी हाँ, पुराना रईस हूँ।

शहसवार - बेशक!

थानेदार - देहातवाले भी अजीब जाँगलू होते हैं। एक बार एक देहाती मुशायरे में जाने का इत्तफाक हुआ। बड़े-बड़े गँवार के लट्ठ जमा थे। एक साहब ने शेर पढ़ा, तो आखिर में फरमाते हैं - बीमार हौं। लोग हैरत में थे कि इस हौं के क्या माने? फिर हजरत ने फरमाया - सरशार हौं। मारे हँसी के लोट गया। हाँ, मौलवी साहब, फिर क्या हुआ?

मौलवी - बस, जनाब, फिर दोनों में कुश्ती हुई। कभी यह ऊपर, वह नीचे, कभी वह नीचे, यह ऊपर। तब तो मैं भागा कि चौकीदार से कहूँ। दौड़ता गया।

थानेदार - जनाब, इस मुहावरे को याद रखिएगा।

मौलवी - बस, मैं दौड़के पूरन चौकीदार के मकान पर गया। उसकी जोड़ू, बोली -

सवार - कौन बोली?

थानेदार - (हँस कर) सुना नहीं आपने? जोड़ू!

मौलवी - हुजूर, हुक्काम हैं, आपको हँसना न चाहिए।

थानेदार - जी हाँ, मैं हुक्काम हूँ; मगर आप भी तो उमराँ हैं! हाँ, फरमाओ जी।

मौलवी - देखिए, फरमाता हूँ।

सवार - अब हँसी जब्त नहीं हो सकती।

मौलवी - बस जनाब, वहाँ से मैं इस चौकीदार को लाया। वहाँ आ कर देखा, तो खून के दरिया बह रहे थे।

इतने में खबर आई कि जख्मी दुनिया से रवाना हो गया। थानेदार साहब मारे खुशी के फूल गए। मामूली मार-पीट 'खून' हो गई। खूनी का चालान किया और जज ने उसे फाँसी की सजा दे दी।

जिस वक्त खूनी को फाँसी हो रही थी, मियाँ सवार भी तमाशा देखने आ पहुँचे। मगर उस वक्त की हालत देख कर उनके दिल पर ऐसा असर हुआ कि आँखें खुल गईं। सोचने लगे - दुनिया से नाता तोड़ लें। किसी से हसद और कीना न रखें। अगर कहीं पकड़ा गया होता, तो मुझे भी यों ही फाँसी मिलती। खुदा ने बहुत बचाया। मगर जरा इस जोगिन को देखना चाहिए। यह दिल में ठान कर जोगिन के मकान की तरफ चले।

जब लोगों से पूछते हुए उसके मकान पर पहुँचे, तो देखा कि एक खबसूरत बाग है और एक छोटा सा खुशनुमा बँगला, बहुत साफ सुथरा। मकान क्या, परीखाना था। जोगिन के करीब जा कर उसको सलाम किया। जोगिन के पोर-पोर पर जोबन था। जवानी फटी पड़ती थी। सिर से पैर तक सँदली कपड़े पहने हुए थी। शहसवार हजार जान से लोट पोट हो गए। जोगिन इकनी चितवनों से ताड़ गई कि हजरत का दल आया है।

सवार - बड़ी दूर से आपका नाम सुन कर आया हूँ।

जोगिन - अक्सर लोग आया करते हें। कोई आए, तो खुशी नहीं, न आए, तो रंज नहीं।

सवार - मैं चाहता हूँ कि उम्र भर आपके कदमों के तले पड़ा रहूँ।

जोगिन - आपका मकान कहाँ है?

सवार -

घर बार से क्या फकीर को काम?

क्या लीजिए छोड़े गाँव का नाम।

जोगिन - यहाँ कैसे आए?

सवार - रमते जोगी तो हैं ही, इधर भी आ निकले।

जोगिन - आखिर इतना तो बतलाओ; कि हो कौन?

सवार - एक बदनसीब आदमी।

जोगिन - क्यों?

सवार - अपने कर्मों का फल।

जोगिन - सच है!

सवार - मुझे इश्क ही ने तो गारद कर दिया। एक बेगम की दो लड़कियाँ हैं। उनसे आँखें लड़ गईं। जीते जी मर मिटा।

जोगिन - शादी नहीं हुई?

सवार - एक दुश्मन पैदा हो गया। आजाद नाम था। बहुत ही खूबसूरत सजीला जवान।

मियाँ आजाद का नाम सुनते ही जोगिन के चेहरे का रंग उड़ गया। आँखों से आँसू गिरने लगे। शहसवार दंग थे कि बैठे-बिठाए इसे क्या हो गया।

सवार - जरा दिल को ढारस दो, आखिर तुम्हें किस बात का रंज हैं?

जोगिन -

खौफ से लेते नहीं नाम कि सुन ले न कोई;

दिल ही दिल में तुम्हें हम याद किया करते हैं।

हमारी दास्तान गम से भरी हुई है! सुन कर क्या करोगे। हाँ, तुम्हें एक सलाह देती हूँ। अगर चाहते हो कि दिल की मुराद पूरी हो, तो दिल साफ रखो।

सवार - तुम्हारे सिवा अगर किसी और पर नजर पड़े, तो आँखें फूट जायँ।

जोगिन - यही दिल की सफाई है।

सवार - शीशी से गुलाब निकाल लो। मगर गुलाब की बू बाकी रहेगी। दुनिया को छोड़ तो बैठें, पर इश्क दिल से न जायगा। अब हम चाहते हैं कि तुम्हारे ही साथ जिंदगी बसर करें। आजाद उसके साथ रहें, हम तुम्हारे साथ।

जोगिन - भला तुम आजाद को पाओ, तो क्या करो?

सवार - कच्चा ही चबा जाऊँ?

जोगिन - तो फिर हमसे न बनेगी? अगर तुम्हारा दिल साफ नहीं, तो अपनी राह लगो।

सवार - अच्छा, अब आज से आजाद का नाम ही न लेंगे।

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 55

आजाद का जहाज जब इस्कंदरिया पहुँचा, तो वह खोजी के साथ एक होटल में ठहरे। अब खाना खाने का वक्त आया, तो खोजी बोले - लाहौल, यहाँ खानेवाले की ऐेसी तैसी चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, मगर हम जरा सी तकलीफ के लिए अपना मजहब न छोड़ेंगे। आप शौक से जायँ और मजे से खायँ; हमें माफ ही रखिए।

आजाद - और अफीम खाना मजहब के खिलाफ नहीं?

खोजी - कभी नहीं! और, अगर हो तो भी क्या यह जरूरी है कि एक काम मजहब के खिलाफ किया, तो और सब काम मजहब के खिलाफ ही करें?

आजाद - अजी, तो किस गधे ने तुमसे कहा कि यहाँ खाना मजहब के खिलाफ है? मेज-कुर्सी देखी और चीख उठे कि मजहब के खिलाफ है? इस खब्त की भी कोई दवा है!

खोजी - अजी, वह खब्त ही सही। आप रहने दीजिए।

आजाद - खाओ, या जहन्नुम में जाओ।

खोजी - जहन्नुम में वे जायँगे, जो यहाँ खायँगे। यहाँ तो सीधे जन्नत में पहुँचेंगे।

आजाद - वहाँ अफीम कहाँ से आएगी?

इतने में दो तुर्की आए और अपनी कुर्सियों पर बैठ कर मजे से खाने लगे। आजाद की चढ़ी बनी। पूछा, ख्वाजा साहब, बोल गीदी, अब शरमाया या नहीं? खोजी ने पहले तो कहा, ये मुसलमान नहीं हैं। फिर कहा, शायद हों ऐसे-वैसे! मगर जब मालूम हुआ कि दोनों खास तुर्की के रहनेवाले हैं, तो बोले - आप लोग यहाँ होटल में खाना खाते हैं? क्या यह मजहब के खिलाफ नहीं?

तुर्की - मजहब के खिलाफ क्यों होने लगा?

आखिर, खोजी झेंपे। फिर होटल में खाना खाया। थोड़ी देर के बाद आजाद तो एक साहब से मिलने चले और खोजी ने पिनक लेना शुरू किया। जब नींद खुली, तो सोचे कि हम बैठे-बैठे कब तक यहीं मक्खियाँ मारेंगे। आओ देखें, अगर कोई हिंदुस्तानी भाई मिल जाय, यो गप्पें उड़ें। इधर-उधर टहलने लगे। आखिरकार एक हिंदुस्तानी से मुलाकात हुई। सलाम-बंदगी के बाद बातें होने लगीं। ख्वाजा साहब ने पूछा - क्यों साहब, यहाँ कोई अफीम की दुकान है? उस आदमी ने इसका कुछ जवाब ही नहीं दिया। खोजी तीखे आदमी। उनका भला यह ताब कहाँ कि किसी से सवाल करें और वह जवाब न दे? बिगड़ खड़े हुए न हुई करौली, खुदा की कसम! वरना तमाशा दिखा देता।

हिंदुस्तानी ने समझा, यह पागल है। अगर बोलूँगा, तो खुदा जाने, काट खाय, या चोट करे। इससे यही अच्छा कि चुप ही रहो। मियाँ खोजी समझें कि दब गया, और भी अकड़ गए। उसने समझा, अब चोट किया ही चाहता है। जरा पीछे हट गया। उसका पीछे हटना था कि मियाँ खोजी और भी शेर हुए। मगर कुंदे तौल-तौल कर जाते थे। फिर रोब से पूछा - क्यों बे, यहाँ ठंडा पानी मिल सकता है? वह गरीब झट-पट ठंडा पानी लाया। खोजी ने दो-चार घूँट पानी पिया और अकड़ कर बोले - माँग, क्या माँगता है? उस आदमी ने समझा, यह जरूर दीवाना है! आपकी हालत तो इतनी खराब है, पल्ले टका तो है नहीं और कहते हैं - माँग, क्या माँगता है? खोजी ने फिर तन कर कहा - माँग कुछ। उस आदमी ने डरते-डरते कहा - यह जो हाथ में है, दे दीजिए।

खोजी का रंग उड़ गया। जान तक माँगता, तो देने में दरेग न करते; मगर चीनिया बेगम तो नहीं दी जाती। उससे पूछा - तुम यहाँ कब से हो, क्या नाम है? उसने जवाब दिया - मुझे तहौबरखाँ कहते हैं!

खोजी - भला, उस होटल में मुसलमान लोग खाते हैं?

तहौवरखाँ - बराबर! क्यों न खायँ?

होटलवालों ने मिसकोट की कि खोजी को छेड़ना चाहिए। इस होटल में काहिरा का रहने वाला बौना था। लोग सोचे, इस बौने और खोजी से पकड़ हो तो अच्छा। बौना बड़ा शरीर था। लोगों ने उससे कहा - चलो, तुम्हारी कुश्ती बदी गई है। वह देखो, एक आदमी हिंदोस्तान से आया है। कितना अच्छा जोड़ है। यह सुन कर बौना मियाँ खोजी के करीब गया और झुक कर सलमा किया। खोजी ने देखा कि एक आदमी हमसे भी ऊँचा मिला, तो अकड़ कर आँखों से सलाम का जवाब दिया। बौने ने इधर-उधर देख कर एक दफा मौका जो पाया, तो मियाँ खोजी की टोपी उतार कर पड़ाक से एक धौल जमाई और टोपी फेंक कर भागा। मगर जरा-जरा से पाँव, भाग कर जाता कहाँ? खोजी भी झपटे। आगे-आगे बौना और पीछे-पीछे मियाँ खोजी। कहते जाते थे - ओ गीदी, न हुई करौली, नहीं तो इसी दम भोंक देता। आखिर बौना हाँफ कर खड़ा हो गया। तब तो खोजी ने लपककर हाथ पकड़ा और पूछा - क्यों बे! इस पर बौने ने मुँह चिढ़ाया। खोजी गुस्से से भरे तो थे ही, आपने भी एक धप जड़ी।

खोजी - और लेगा?

बौना - (अपनी जबान में) छोड़, नहीं मार ही डालूँगा।

खोजी - दे मारूँ उठा कर?

बौना - रात आने दो।

खोजी ने झल्ला कर बौने को उठा कर दे मारा। चारों खाने चित्त, और अकड़ कर बोले - वो मारा। और लेगा! खोजी से ये बातें?

इतने में आजाद आ गए। खोजी तने बैठे थे, उम्र भर में उन्होंने आज पहली ही मर्तबा एक आदमी को नीचा दिखाया था। आजाद को देखते ही बोले - इस वक्त एक कुश्ती और निकली!

आजाद - कुश्ती कैसी?

खोजी - कैसी होती है कुश्ती? कुश्ती और क्या?

आजाद - मालूम होता है, पिटे हो।

खोजी - पिटनेवाले की ऐसी-तैसी! और कहनेवाले को क्या कहूँ?

आजाद - कुश्ती निकाली!

तहौवरखाँ - हाँ हुजूर यह सच कहते हैं।

खोजी - लीजिए, अब तो आया यकीन!

आजाद - क्या हुआ क्या?

तहौवरखाँ - जी, यहाँ एक बौना है। उसने इनके एक धौल लगाई।

आजाद - देखा न! मैं तो समझा ही था कि पिटे होगे।

खोजी - पूरी बात तो सुन लो।

तहौवरखाँ - बस, धौल खा कर लपके। उसके कई चपतें लगाईं और उठा कर दे पटका।

खोजी - वह पटखनी बताई कि याद ही तो करता होगा। दो महीने तक खटिया से न उठ सकेगा।

तहौवरखाँ - वह देखिए, सामने खड़ा कौन अकड़ रहा है? तुम तो कहते थे कि दो महीने तक उठ ही न सकेगा।

रात को कोई नौ बजे खोजी ने पानी माँगा। अभी पानी पी ही रहे थे कि कमरे का लैंप गुल हो गया और कमरे में चटाख-चटाख की आवाज गूँजने लगी।

खोजी - अरे, यह तो वही बौना मालूम होता है। पानी इसी ने पिलाया था और चपत भी इसी ने जड़ी। दिल में कहा - क्या तड़का न होगा? जिंदा खोद कर गाड़ दूँ तो सही।

खोजी पानी पी कर लेटे कि दस्त की हाजत हुई। बौने ने पानी में जमाल-गोटा मिला दिया था। तिल-तिल पर दस्त आने लगे। मशहूर हो गया कि खोजी को हैजा हुआ। डॉक्टर बुलाया गया। उसने दवा दी और खोजी दस्तों के मारे निढाल हो कर चारपाई पर गिर पड़े। आजाद एक रईस से मिलने गए थे। होटल के एक आदमी ने उनको जा कर इत्तला दी। घबराए हुए आए। खोजी ने आजाद को देख कर सलाम किया, और आहिस्ता से बोले - रुख्सत! खुदा करे, तुम जल्द यहाँ से लौटो। यह कह कर तीन बार कलमा पढ़ा।

आजाद - कैसी तबीयत है?

खोजी - मर रहा हूँ, एक हाफिज बुलवाओ और उससे कहो, कुरान शरीफ पढ़े।

आजाद - अजी, तुम दो दिन में अच्छे हो जाओगे।

खोजी - जिंदगी और मौत खुदा के हाथ है। मगर भाई, खुदा के वास्ते जरा अपनी जान का ख्याल रखना। हम तो अब चलते हैं। अब तक हँसी-खुशी तुम्हारा साथ दिया; मगर अब मजबूरी है। आब-दाने की बात है, हमको यहाँ की मिट्टी घसीट लाई।

आजाद - अजी नहीं आज के चौथे रोज दनदनाओगे। देख लेना। डंड पेलते होगे।

खोजी - खुदा के हाथ है।

आजाद - देखिए, कब मुलाकात होती है।

खोजी - इस बूढ़े को कभी-कभी याद करते रहना। एक बात याद रखना, पर देस का वास्ता है, सबसे मिल-जुल कर रहना। जूती-पैजार, लड़ाई-झगड़ा किसी से न करना। समझदार हो तो क्या, आखिर बच्चे ही हो। यार, जुदाई ऐसी अखर रही है कि बस, क्या बयान करूँ।

आजाद - अच्छे हो जाओ, तो हिंदोस्तान चले जाना।

खोजी - अरे मियाँ, यहाँ दम भर का भरोसा नहीं है।

दूसरे दिन आजाद खोजी से रुख्सत हो कर जहाज पर सवार हुए। इतने दिनों के बाद खोजी की जुदाई से उन्हें बहुत रंज हो रहा था। थोड़ी देर के बाद नींद आ गई, तो ख्वाब देखा कि वह हुस्नआरा बेगम के दरवाजे पर पहुँचे हैं और वह उन्हें फूलों का एक गुलदस्ता दे रही हैं। एकाएक तोप दगी और आजाद की आँख खुल गई। जहाज कुस्तुनतुनिया पहुँच गया था।

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 56

आजाद तो उधर काहिरे की हवा खा रहे थे, इधर हुस्नआरा बीमार पड़ीं। कुछ दिन तक तो हकीमों और डॉक्टरों की दवा हुई, फिर गंडे-ताबीज की बारी आई। आखिर आबोहवा तब्दील करने की ठहरी। बहारबेगम के पास गोमती के किनारे एक बहुत अच्छी कोठी थी। चारों बहनें बड़ी बेगम और घर के नौकर-चाकर सब इस नई कोठी में आ पहुँचे।

बेगम - मकान तो बड़ा कुशादा है! देखूँ, चंद्रबेधी है या सूर्यबेधी।

हुस्नआरा - हाँ, अम्माँजान, यह जरूर देखना चाहिए।

रूहअफजा - ले लो, जरूर। हजार काम छोड़ कर।

दोनों बहनें हँसती-बोलती मकान के दालान और कमरे देखने लगीं। छत पर एक कमरे के दरवाजे जो खोले, तो देखा दरिया लहरें मार रहा है। हुस्नआरा ने कहा - बाजी, इस वक्त जी खुश हो गया। हमारी पलंगड़ी यहीं बिछे। बरसों की बीमार यहाँ रहे, तो दो दिन में अच्छा-भला चंगा हो जाय।

सिपहआरा - बहार बहन, भला कभी अँधेरे-उजाले दूल्हा भाई नहाने देते हैं दरिया में?

बहारबेगम - ऐ है, इसका नाम भी न लेना। इनको बहुत चिढ़ है इस बात की।

सुबह का वक्त था, चारों बहनें ऊँची छत पर हवा खाने लगीं कि इतने में एक तरफ से धुआँ उठा। हुस्नआरा ने पूछा - यह धुआँ कैसा है?

रूहअफजा - इस घाट पर मुर्दे जलाए जाते हैं।

हुस्नआरा - मुर्दे यहीं जलते हैं?

बहारबेगम - हाँ, मगर यहाँ से दूर है।

सिपहआरा - हाय, क्या जाने कौन बेचारा जल रहा होगा?

रूहअफजा - जिंदगी का भरोसा नहीं।

बड़ी बेगम ने सुना कि यहाँ मुर्दे जलाए जाते हैं, तो होश उड़ गए। बोलीं - ऐ बहार तुम यहाँ कैसे रहती हो? खुरशेद दूल्हा आएँ, तो उनसे कहूँ।

हुस्नआरा - फायदा? बरसों से तो वह यहाँ रहते हैं; भला तुम्हारे कहने से मकान छोड़ देंगे!

सिपहआरा - यह हमेशा यहाँ रहते हैं, कुछ भी नहीं होता। हम जो दो दिन रहेंगे, तो मुर्दे आ कर चिपट जायँगे भला?

बड़ी बेगम का बस चलता, तो खड़े-खड़े चली जातीं; मगर अब मजबूर थीं। यहाँ से चारों बहनें दूसरी छत पर गईं तो बहारबेगम ने कहा - यह जो उस तरफ दूर तक ऊँचे-ऊँचे टीले नजर आते हैं, यहाँ आबादी थी। जहाँ तुम बैठी हो, यहाँ वजीर का मकान था। मजाल क्या था कि कोई इस तरफ आ जाता! मगर अब वहाँ खाक उड़ती हैं, कुत्ते लोट रहे हैं।

इतने में एक किश्ती इसी घाट पर रुकी। उस पर से दो आदमी उतरे, एक बूढ़े थे, दूसरा नौजवान। दोनों एक कालीन पर बैठे और बातें करने लगे। बूढ़े मियाँ ने कहा - मियाँ आजाद सा दिलेर जवान भी कम देखने में आएगा। यह उन्हीं का शेर है -

सीने को चमन बनाएँगे हम,

गुल खाएँगे गुल खिलाएँगे हम।

जवान (गुलबाज) - मियाँ आजाद कौन थे जनाब?

इस पर बूढ़े मियाँ ने आजाद की सारी दास्तान बयान कर दी। दोनो बहनें कान लगा कर दोनों आदमियों की बातें सुनती थीं और रोती थीं। हैरत हो रही थी कि ये दोनों कौन हैं और आजाद को कैसे जानते हैं? महरी से कहा - जाके पता लगा कि वह दोनों आदमी, जो दरख्त के साये में बैठे हुक्का पी रहे हैं, कौन हैं? महरी ने एक भिश्ती के लड़के को इस काम पर तैनात किया। लड़के ने जरा देर में आ कर कहा - दोनों आदमी सराय में ठहरेंगे और दो दिन यहाँ रहेंगे। मगर हैं कौन, यह पता न चला। महरी ने जा कर यही बात हुस्नआरा से कह दी। हुस्नआरा ने कहा - उस लड़के को यह चवन्नी दो और कहो, जहाँ ये टिकें, इनके साथ जाए और देख आए। महरी ने जोर से पुकारा - अबे ओ शुबराती! सुन, इन दोनों आदमियों के साथ जा। देख, कहाँ टिकते हैं।

शुबराती - अजी, अभी पहुँचा।

शुबराती चले। रास्ते में आपको शौक चर्राया कि छल्लामीरी खेलें। एक घंटे में शुबराती ने कोई डेढ़ पैसे की कौड़ियाँ जीतीं। मगर लालच का बुरा हो, जमे, तो दम के दम में डेढ़ पैसा वह हारे, और बारह कौड़ियाँ गिरह से गईं, वहाँ से उदास हो कर चले। राह में बंदर का तमाशा हो रहा था। अब मियाँ शुबराती जा चुके। कभी बंदरिया को छेड़ा, कभी बकरे पर ढेला फेंका। मदारी ने देखा कि लौंडा तेज है, तो बोला - इधर आओ जवान, आदमी हो कि जानवर?

शुबराती - आदमी।

मदारी - सूअर कि शेर?

शुबराती - हम शेर, तुम सूअर।

मदारी - गधा कि गधी?

शुबराती - गधा

मदारी - उल्लू कि बैल!

शुबराती - तुम उल्लू, तुम्हारे बाप बैल, और तुम्हारे दादा बछिया के ताऊ।

थोड़ी देर के बाद मियाँ शुबराती यहाँ से रवाना हुए, तो एक रईस के यहाँ एक सपेरा साँप का तमाशा दिखा रहा था। मियाँ शुबराती भी डट गए। सँपेरा तोंबी में भैरवी का रंग दिखाता था।

रईस ने कहा - तब जानें, जब किसी के सिर से साँप निकालो।

सपेरे ने कहा - हुजूर, मंतर में सब कुदरत है। मुल कोई आध सेर आटा तो पेट भर खाने को दो। जिसके बदन से कहिए, साँप निकालूँ।

लौंडे यह सुन कर हुर्र हो गए कि धरे न जायँ। मियाँ शुबराती डटे खड़े रहे।

सपेरा - वाह जवान, तुम्हीं एक बहादुर हो।

शुबराती - और हमारे बाप हमसे बढ़ कर।

सपेरा - यहाँ बैठ तो जाओ।

मियाँ शुबराती बेधड़क जा बैठे। सपेरे ने झूठमूठ कोई मंत्र पढ़ा और जोर से मियाँ शुबराती की खोपड़ी पर धप जमा कर कहा यह लीजिए साँप। वाह-वाह का दौंगड़ा बज गया। रईस ने सँपेरे को पाँच रुपए इनाम दिए और कहा - इस लौंडे को भी चार आने पैसे दे दो। मियाँ शुबराती ने चवन्नी पाई, तो फूले न समाए। जाते दी गोल-गप्पेवाले से पैसे के कचालू, धेले के दही-बड़े, धेले की सोंठ की टिकिया ली और चखते हुए चले। फिर तकिए पर जा कर कौड़ियाँ खेलने लगे। दो पैसे की कौड़ियाँ हारे। वहाँ से उठे, तो हलवाई की दुकान पर एक आने की पूरियाँ खाईं और कुएँ पर पानी पिया। वहाँ से आ कर महरी को पुकारा।

महरी - कहो, वह हैं?

शुबराती - वह तो चले गए।

महरी - कुछ मालूम हैं, कहाँ गए?

शुबराती - रेल पर सवार हो कर कहीं चल दिए।

महरी ने जा कर हुस्नआरा ने यह खबर कही, तो उन्होंने कहा - लौंडे से पूछो, शहर ही में हैं या बाहर चले गए? महरी ने जा कर फिर शुबराती से पूछा - शहर में हैं या बाहर चले गए? शुबराती को इसकी याद न रही कि मैंने पहले क्या कहा था, बोला - किसी और सराय में उठ गए।

महरी - क्यों रे झूठे, तू तो कहता था, रेल पर चले गए?

शुबराती - मैंने?

महरी - चल झूठे, तू गया कि नहीं।

शुबराती - अब्बा की कसम, गया था।

महरी - चल दूर हो, मुआ झूठा।

इतने में बड़ी बेगम का पुराना नौकर हुसैनबख्श आ गया। हुस्नआरा ने उसे बुला कर कहा - बड़े मियाँ, एक साहब आजाद के जानने वालों में यहाँ आए हैं और किसी सराय में ठहरे हैं। तुम जरा इस लौंडे शुबराती के साथ उस सराय तक जाओ और पता लगाओ कि वह कौन साहब हैं। अब मियाँ शुबराती चकराए कि खुदा ही खैर करे। दिल में चोर था, कहीं ऐसा न हो कि वह अभी सराय में टिके ही हों, तो मुझ पर बेभाव की पड़ने लगें। दबे दाँतों कहा, चलिए। आगे-आगे हुसैनबख्श और पीछे-पीछे मियाँ शुबराती चले। राह में शुबराती ने एक लौंडे की खोपड़ी पर धप जमाई, और आगे बढ़े, तो एक दीवाने पर कई ढेले फेंके, और दो कदम गए, तो एक बूढ़ी मामा से कहा - नानी, सलाम। वह गालियाँ देने लगी, मगर आप बहुत खिलखिलाए। और आगे चले, तो एक अंधा मिला। आपने उससे कहा - आगे गड्ढा है, और उसकी लाठी छीन ली। हुसैन बख्स कभी मुसकिराते थे, कभी समझाते। चलते-चलते एक तेली मिला, मियाँ शुबराती ने पूछा - क्यों भई तेली, मरना, तो अपनी खोपड़ी मुझे दे देना। मंतर जगाऊँगा। तेली ने कहा - चुप! लौंडा बड़ा शरीफ है। और आगे बढ़े, तो एक अंगरेज से पूछा - क्यों बड़े भाई, अपनी दाढ़ी नहीं रँगते? उसने कहा - कहो, तुम्हारे बाप की दाढ़ी रँग दें नील से। अब सुनिए, दो हिंदू बोरिया-बकचा सँभाले कहीं बाहर जाने के लिए घर से निकले। मियाँ शुबराती एक आँख दबा कर सामने जा खड़े हुए। वे समझे, सचमुच काना है। एक ने कहा - अबे, हट सामने से ओ बे काने! आपने वह आँख खोल दी। दूसरी दबा ली। दोनों आदमी इसे असगुन समझ कर अंदर चले गए। इतने में एक कानी औरत सामने से आई। मियाँ शुबराती ने देखते ही हाँक लगाई - 'एक लकड़िया बाँसे की, कानी आँख तमाशे की!'

ज्यों ही दोनों सराय में पहुँचे, हुसैनबख्श ने बढ़ कर बूढ़े मियाँ को सलाम किया। बड़े मियाँ बोले - जनाब, मियाँ आजाद से मेरी पुरानी मुलाकात है। मेरी लड़कियों के साथ वह मुद्दत तक खेला किए हैं। मेरी छोटी लड़की से उनके निकाह की भी तजवीज हुई थी; अगर अब तो वह एक बेगम से कौल हार चुके हैं। इसके बाद कुछ और बातें हुईं। शाम को हुसैनबख्श रुख्सत हुए और घर आ कर हुस्नआरा से कहा - वह तो आजाद के पुराने मुलाकाती हैं। शायद आजाद ने उनकी एक लड़की से निकाह करने का वादा भी किया है। यह सुनते ही हुस्नआरा का रंग फक हो गया। रात को हुस्नआरा ने सिपहआरा से कहा - कुछ सुना? उस बुड्ढे की एक लड़की के साथ आजाद का निकाह होने वाला है।

सिपहआरा - गलत बात है।

हुस्नआरा - क्यों?

सिपहआरा - क्यों क्या, आजाद ऐसे आदमी ही नहीं।

हुस्नआरा - दिल्लगी हो, जो कहीं आजाद उससे भी इकरार कर गए हों। चलो खैर-चार निकाह तो जायज भी हैं। लेकिन अल्लाह जानता है, यकीन नहीं आता। आजाद अगर ऐसे हरजाई होते तो जान हथेली पर ले कर रूम न जाते।

हुस्नआरा ने जबान से तो यह इतमीनान जाहिर किया, पर दिल से यह खयाल दूर न कर सकी कि मुमकिन है, आजाद ने वहाँ भी कौल हारा हो। एक तो उनकी तबीयत पहले ही से खराब थी, उस पर यह नई फिक्र पैदा हुई तो फिर बुखार आने लगा। दिल को लाख लाख समझातीं कि आजाद बात के धनी हैं, लेकिन यह खयाल दूर न होता। इधर एक नई मुसीबत यह आ गई कि उनके एक आशिक और पैदा हो गए। यह हजरत बहारबेगम के रिश्ते में भाई होते थे। नाम था मिर्जा अस्करी। अस्करी ने हुस्नआरा को लड़कपन में देखा था। एक दिन बहारबेगम से मिलने आए, और सुना कि हुस्नआरा बेगम आज-कल यहीं हैं, तो उन पर डोरे डालने लगे। बहारबेगम से बोले - अब तो हुस्नआरा सयानी हुई होंगी?

बहारबेगम - हाँ, खुदा के फजल से अब सयानी हें।

अस्करी - दोनो बहनों में हुस्नआरा गोरी हैं न?

बहारबेगम - ऐ, दोनों खासी गोरी-चिट्टी हैं; मगर हुस्नआरा जैसी हसीन हमने तो नहीं देखी। गुलाब के फूल जैसा मुखड़ा है।

अस्करी - तुम हमारी बहन कैसी हो?

बहारबेगम - इसके क्या मानें?

अस्करी - अब साफ-साफ क्या कहूँ, समझ जाओ। बहन हो, बड़ी हो, इतने ही काम आओ। फिर और नहीं तो क्या आकबत में बख्शाओगी?

बहारबेगम - अस्करी, खुदा जानता है, हमें दिल से तुम्हारी मुहब्बत है।

अस्करी - बरसों साथ-साथ खेले हैं।

बहारबेगम - अरे, यों क्यों नहीं कहते कि मैंने गोदियों में खिलाया है।

अस्करी - यह हम न मानेंगे। ऐसी आप कितनी बड़ी हैं मुझसे। बसर नहीं हद दो बरस।

बहारबेगम - ऐ लो, इस झूठ को देखो, छतें पुरानी हैं।

अस्करी - अच्छा, फिर कोई पंद्रह-बीस बरस की छुटाई बड़ाई है?

बहारबेगम - हई है?

अस्करी - अच्छा, अब फिर किस दिन काम आओगी?

बहारबेगम - भई, अगर हुस्नआरा मंजूर कर लें, तो है। मैं आज अम्माँजान से जिक करूँगी।

इतने में हुस्नआरा बेगम ने ऊपर से आवाज दी - ऐ बाजी, जरी हमको हरे-हरे मुलायम सिंघाड़े नहीं मँगा देतीं? मुहम्मद अस्करी ने रसूखियत जताने के लिए मामा से कहा - मेरे आदमी से जा कर कहो कि चार सेर ताजे सिंघाड़े तुड़वा कर ले आए। हुस्नआरा ने जो उनकी आवाज सुनी, तो सिपहआरा से पूछा - यह कौन आया है? सिपहआरा ने कहा - ऐ, वही तो हैं अस्करी! थोड़ी देर में मिर्जा अस्करी तो चले गए, और चलते वक्त बहारबेगम से कह गए कि हमने जो कहा है, उसका खयाल रहे। बहारबेगम ने कहा - देखो, अल्लाह चाहे तो आज के दूसरे ही महीने हुस्नआरा बेगम के साथ मँगनी हो। हुस्नआरा उसी वक्त नीचे आ रही थीं। यह बात उनके कान में पड़ गई। पाँव-तले से मिट्टी निकल गई। उलटे-पाँव लौट गईं और सिपहआरा से यह किस्सा कहा। उसे भी होश उड़ गए। कुछ देर तक दोनों बहनें सन्नाटे में पड़ी रहीं। फिर सिपहआरा ने दीवाने-हाफिज उठा लिया और फाल देखी, तो सिरे पर ही यह शेर निकला -

बैरों ई दाम मुर्गे दिगर नेह;

कि उनका रा बुलंद अस्त आशियाना।

(यह लाल दूसरी चिड़िया पर डाल। उनका का घोंसला बहुत ऊँचा है।)

सिपहआरा यह शेर पढ़ते ही उछल पड़ी। बोली - लो फतह है। बेड़ा पार हो गया। इतने में बहारबेगम आ पहुँचीं और हुस्नआरा से बोली - तुम लोगों ने मिर्जा अस्करी को तो देखा होगा? कितना खूबसूरत जवान है!

सिपहआरा - देखा क्यों नहीं, वही शौकीन से आदमी हैं न?

बहारबेगम - अबकी आएगा तो ओट में से दिखा दूँगी। बड़ा हँसमुख, मिलनसार आदमी है। जिस वक्त आता है, मकान भर महकने लगता है। मेरी बीमारी में बेचारा दिन भर में तीन-तीन फेरे करता था।

हुस्नआरा ये बातें सुन कर दिल ही दिल में सोचने लगी कि यह कह क्या रही हैं। कैसे अस्करी? यहाँ तो आजाद को दिल दे चुके। वह टर्की सिधारे, हम कौल हारे। इनको अस्करी की पड़ी है। बहार बेगम ने बड़ी देर तक अस्करी की तारीफ की; मगर हुस्नआरा कब पसीजनेवाली थीं। आखिर, बहार-बेगम खफा होकर चली गईं।

दूसरे दिन जब अस्करी फिर आए, तो बहारबेगम ने उनसे कहा - मैंने हुस्नआरा से तुम्हारा जिक्र तो किया, मगर वह बोली तक नहीं। उस मुए आजाद पर लट्टू हो रही हैं।

अस्करी - मैं एक तरकीब बताऊँ, एक काम करो। जब हुस्नआरा बेगम और तुम पास बैठी हो, तो आजाद का जिक्र जरूर छेड़ो। कहना, अस्करी अभी-अभी अखबार पढ़ता था, उसका एक दोस्त है आजाद, वह नानबाई का लड़का है। उसकी बड़ी तारीफ छपी है। कहता था, इस नानबाई के लौंडे की खुशकिस्मती को तो देखो, कहाँ जा कर शिप्पा लड़ाया है? जब वह कहें कि आजाद शरीफ आदमी हैं, तो कहना, अस्करी के पास आजाद के न जाने कितने खत पड़े हैं। वह कसम खाता है कि आजाद नानबाई का लड़का है, बहुत दिनों तक मेरे यहाँ हुक्के भरता रहा।

यह कह कर मिर्जा अस्करी तो विदा हुए, और बहारबेगम हुस्नआरा के पास पहुँचीं।

हुस्नआरा - कहाँ थी बहन? आओ, दरिया की सैर करें।

बहारबेगम - जरा अस्करी से बातें करने लगी थी। किसी अखबार में उनके एक दोस्त की बड़ी तारीफ छपी है। क्या जाने, क्या नाम बताया था? भला ही सा नाम है। हाँ, खूब याद आया, आजाद। मगर कहता था कि नानबाई का लड़का है।

हुस्नआरा - किसका?

बहारबेगम - नानबाई का लड़का बताता था। तुम्हारे आशिक साहब का भी तो यही नाम है। कहीं वही अस्करी के दोस्त न हों।

सिपहआरा - वाह, अच्छे आपके अस्करी हैं जो नानबाइयों के छोकरों से दोस्ती करते फिरते हैं।

बहार तो यह आग लगाकर चलती हुई, इधर हुस्नआरा के दिल में खलबली मची। सोचीं, आजाद के हाल से किसी को इत्तला तो है नहीं, शायद नानबाई ही हों। मगर यह शक्ल-सूरत, यह इल्म और कमाल, यह लियाकत और हिम्मत नानबाई में क्योंकर आ सकती है? नानबाई फिर नानबाई है। आजाद तो शाहजादे मालूम होते हैं। सिपहआरा ने कहा - बाजी, बहार बहन तो उधार खाए बैठी हैं कि अस्करी के साथ तुम्हारा निकाह हो। सारी कारस्तानी उसी की है। अस्करी के हथकंडों से अब बचे रहना। वह बड़ा नटखट मालूम होता है।

शाम को मामा ने एक खत ला कर हुस्नआरा को दिया। उन्होंने पूछा - किसका खत है?

मामा - पढ़ लीजिए।

सिपहआरा - क्या डाक पर आया है?

मामा - जी नहीं, कोई बाहर से दे गया है।

हुस्नआरा ने खत खोल कर पढ़ा। खत का मजमून यह था -

कदम रख देख कर उल्फत के दरिया में जरा ऐ दिल;

खतरा है डूब जाने का भी दरिया के नहाने में।

हुस्नआरा बेगम की खिदमत में आदाब। मैं जताए देता हूँ कि आजाद के फेर में न पड़िए। वह नीच कौम आपके काबिल नहीं। नानबाई का लड़का, तंदूर जलाने में ताक, आटा गूँधने में मश्शाक। वह और आपके लायक हो! अव्वल तो पाजी, दूसरे दिल का हरजाई, और फिर तुर्रा यह कि अनपढ़! बहार बहन मुझे खूब जानती हैं। मैं अच्छा हूँ या बुरा, इसका फैसला वही कर सकती हैं। आजाद मेरे दुश्मन नहीं, मैं उन्हें खूब जानता हूँ। इसी सबब से आपको सलाह देता हूँ कि आप उसका खयाल दिल से दूर कर दें। खुदा वह दिन न दिखाए कि आजाद से तुम्हारा निकाह हो।

तुम्हारा

- अस्करी

हुस्नआरा ने इस खत के जवाब में यह शेर लिखा -

न छेड़ ऐ निकहते बादे-बहारी, राह लग अपनी;

तुझे अठखेलियाँ सूझी हैं, हम बेजार बैठे हैं।

सिपहआरा ने कहा - क्यों बाजी, हम क्या कहते थे? देखा, वही बात हुई न? और झूठा तो इसी से साबित है कि मियाँ आजाद को अनपढ़ बताते हैं। खुदा की शान, यह और आजाद को अनपढ़ कहें! हम तो कहते ही थे कि यह बड़ा नटखट मालूम होता है।

हुस्नआरा ने यह पुर्जा मामा को दिया कि जा, बाहर दे आ। अस्करी ने यह खत पाया, तो जल उठे। दिल में कहा - अगर आजाद को नीचा न दिखाया, तो कुछ न किया। जा कर बड़ी बेगम से मिले और उनसे खूब नमक-मिर्च मिला-मिला कर बातें कीं। बहारबेगम ने भी हाँ-में-हाँ मिलयी और अस्करी की खूब तारीफें कीं। आजाद को जहाँ तक बदनाम करते बना, किया। यहाँ तक कि आखिर बड़ी बेगम भी अस्करी पर लट्टू हो गईं मगर हुस्नआरा और सिपहआरा अस्करी का नाम सुनते ही जल उठती थीं। दोनों आजाद को याद कर-करके रोया करतीं और बहारबेगम बार-बार अस्करी का जिक्र करके उन्हें दिक किया करतीं। यहाँ तक कि एक दिन बड़ी बेगम के सामने सिपहआरा और बहारबेगम में एक झौड़ हो गई। बहार कहती थीं कि हुस्नआरा की शादी मिर्जा अस्करी से होगी, और जरूर होगी। सिपहआरा कहती थीं - यह मुमकिन नहीं।

एक दिन बड़ी बेगम ने हुस्नआरा को बुला भेजा, लेकिन जब हुस्नआरा गईं, तो मुँह फेर लिया। बहारबेगम भी वहीं बैठी थीं। बोलीं - अम्माँजान तुमसे बहुत नाराज हैं हुस्नआरा!

बेगम - मेरा नाम न लो।

बहारबेगम - जी नहीं, आप खफा न हों। मजाल है, आपका हुक्म न मानें।

बेगम - सुना हुआ है सब।

बहारबेगम - हुस्नआरा, अम्माँजान के पास आओ।

हुस्नआरा परेशान कि अब क्या करूँ। डरते-डरते बड़ी बेगम के पास जा बैठीं। बड़ी बेगम ने उनकी तरफ देखा तक नहीं।

बहारबेगम - अम्माँजान, यह आपके पास आई हुई हैं, इनका कसूर माफ कीजिए।

बेगम - जब यह मेरे कहने में नहीं हैं, तो मुझसे क्या वास्ता? अस्करी सा लड़का मशाल ले कर भी ढूँढ़े, तो न पाए। मगर इन्हें अपनी ही जिद है।

बहारबेगम - हुस्नआरा, खूब सोच कर इसका जवाब दो।

बेगम - मैं जवान-सवाब कुछ नहीं माँगती।

बहारबेगम - आप देख लीजिएगा, हुस्नआरा आपका कहना मान लेंगी।

बेगम - बस, देख लिया।!

बहारबेगम - अम्माँजान, ऐसी बातें न कहिए।

बेगम - दिल जलता है बहार, दिल जलता है।! अपने दिल में क्या-क्या सोचते थे, मगर अब उठ ही जायँ यहाँ से, तो अच्छा।

यह कह कर बड़ी बेगम उठ कर चली गईं हुस्नआरा भी ऊपर चली गई और लेट कर रोने लगीं। थोड़ी देर में बहार ने आ कर कहा - हुस्नआरा, जरी पर्दे ही में रहना, अस्करी आते हैं। हुस्नआरा ने अस्करी का नाम सुना, तो काँप उठीं। इतने में अस्करी आ कर, बरामदे में खड़े हो गए।

बहारबेगम - बैठो अस्करी।

अस्करी - जी हाँ, बैठा हूँ। खूब हवादार मकान है। इस कमरे में तुम रहती हो न?

बहारबेगम - नहीं, इसमें हमारी बहनें रहती हैं।

अस्करी - अब हुस्नआरा की तबीयत कैसी है?

बहारबेगम - पूछ लो, बैठी तो हैं।

अस्करी - नहीं, बताओ तो आखिर?

बहारबेगम - तुम भी तो हकीम हो? भला पर्दे के पास से नब्ज तो देखो?

हुस्नआरा मुसकिराईं। सिपहआरा ने कहा - ऐ, हटो भी! बड़े आए वहाँ से हकीम!

बहारबेगम - तुम तो हवा से लड़ती हो।

सिपहआरा - लड़ती ही हैं!

अस्करी - इस वक्त खाना खा चुकी होंगी। शाम को नब्ज देख लूँगा।

बहारबेगम - ऐ, अभी खाना कहाँ खाया?

सिपहआरा - हाँ-हाँ खा चुकी हैं।

मिर्जा अस्करी तो रुख्सत हुए, मगर बहारबेगम को सब्र कहाँ? पूछा - हुस्नआरा, अब बोलो, क्या कहती हो?सिपहआरा तिनक कर बोली - अब कोई और बात भी है, या रात-दिन यही जिक्र है? कह दिया एक दफा कि जिस बात से यह चिढ़ती हैं, वह क्यों करो।

बहारबेगम - होना वही है, जो हम चाहती हैं।

हुस्नआरा - खैर, बहन, हो होना है, हो रहेगा। उसका जिक्र ही क्या?

सिपहआरा - बहार बहन, नाहक बैठे-बिठाए रंज बढ़ाती हो।

बहारबेगम - याद रखना, अम्माँजान अभी-अभी कसम खा चुकी हैं कि वह तुम दोनो की सूरत न देखेंगी। बस, तुम्हें अब अख्तियार है, चाहे मानो, चाहे न मानो।

कई दिन इसी तरह गुजर गए। हुस्नआरा जब बड़ी बेगम के सामने जातीं, तो वह मुँह फेर लेतीं। दोनों बहनें रात-दिन रोया करतीं। सोचीं कि यह तो सब के सब हमारे खिलाफ हैं, आओ, रूहअफजा को बुलाएँ, शायद वह हमारा साथ दें। मामा ने कहा - मैं अभी-अभी जाती हूँ। जहाँ तक बन पड़ेगा, बहुत कहूँगी। और, कहना क्या है, ले ही आऊँगी।

इतने में बहारबेगम ने आ कर कहा - ऐ हुस्नआरा, जरी पर्दा करके अस्करी को नब्ज दिखा दो। जीने पर खड़े हैं। हुस्नआरा मजबूर हो गई। सिपहआरा को इशारे से बुलाया और कहा - बहार बहन तो बाहर ही बैठेंगी। मेरे बदले तुम नब्ज दिखा दो। सिपहआरा ने मुसकिरा कर कहा - अच्छा, और पर्दे के पास बैठ कर नब्ज दिखाया।

अस्करी - दूसरा हाथ लाइए।

बहारबेगम - बुखार तो नहीं है?

अस्करी - थोड़ा सा बुखार तो जरूर है। कमजोरी बहुत है।

जब अस्करी चले गए, तो हुस्नआरा ने बहारबेगम से कहा - आपके अस्करी तो बड़े होशियार हैं!

बहारबेगम - क्या शक भी है?

हुस्नाआरा - उफ, मारे हँसी के बुरा हाल है। वाह रे हकीम!

सिपहआरा - 'नीम हकीम, खतरे जान।'

बहारबेगम - यह काहे से?

हुस्नआरा - नब्ज किसकी देखी थी?

बहारबेगम - तुम्हारी।

हुस्नआरा - अरे वाह, कहीं देखी हो न? बस, देख ली हिकमत।

बहारबेगम - फिर किसी नब्ज देखी? क्या सिपहआरा बैठ गई थीं?

सिपहआरा - और नहीं तो क्या? कमजोरी बताते थे। कमजोरी हमारे दुश्मनों को हो!

बहारबेगम - भला इलाज में क्या हँसी करनी थी?

बाहर जा कर बहार ने अस्करी को खूब आड़े-हाथों लिया - ऐ बस, जाओ भी, मुफ्त में हमको बद बनाया! हुस्नआरा ने हँसी-हँसी में सिपहआरा को अपनी जगह बिठा दिया, और तुम जरा न पहचान सके। खुदा जानता है, मुझे बहुत शरम आई।

शाम को रूहअफजा बेगम आ पहुँचीं और बड़ी बेगम के पास जा कर सलाम किया।

बड़ी बेगम - तुम कब आईं?

रूहअफजा - अभी-अभी चली आती हूँ। हुस्नआरा कहाँ हैं?

बहारबेगम - हमें उनका हाल मालूम नहीं। कोठे पर हैं।

रूहअफजा - जरी, बुलवाइए!

बहारबेगम - दोनो बहनें हमसे खफा हैं।

रूहअफजा कोठे पर गई, तो दोनों बहनें उनसे गले मिल कर खूब रोईं।

रूहअफजा - यह तुमको क्या हो गया हुस्नआरा? वह सूरत ही नहीं। माजरा क्या है?

सिपहआरा - अब तो आप आई हैं; सब कुछ मालूम हो जायगा। सारा घर हमसे फिरंट हो रहा है। हमें तो खाना-पीना उठना-बैठना सब हराम है!

बहारबेगम को यह सब्र कैसे होता कि रूहअफजा आएँ और दोनो बहनें इनसे अपना दुखड़ा रोएँ। आ कर धीरे से बैठ गईं।

रूहअफजा - बहन, यह क्या बात है! आखिर किस बात पर यह रंजारंजी हो रही हैं?

बहारबेगम - मैं तुमसे पूछती हूँ, अस्करी में क्या बुराई है? शरीफ नहीं है वह, या पढ़ा-लिखा नहीं है, या अच्छे खानदान का नहीं है? आखिर इनके इनकार का सबब क्या है?

सिपहआरा - हमने एक दफे कह दिया कि हम अस्करी का नाम नहीं सुनना चाहते।

रूहअफजा - तो यह कहो, बात बहुत बढ़ गई है। मुझे जरा भी कुछ हाल मालूम होता, तो फौरन ही आ जाती।

बहारबेगम - अब आई हो, तो क्या बना लोगी? यह एक न मानेंगी।

रूहअफजा - वह तो शायद मान भी जायँ, मगर आपका मान जाना अलबत्ता मुश्किल है।

बहारबेगम - यह कहिए, आप इनकी तरफ से लड़ने आई हैं?

रूहअफजा - हाँ, हमसे तो यह नहीं देखा जाता कि खाहमख्वाह झगड़ा हो।

ये बातें हो रही थीं कि बड़ी बेगम साहब भी लठियाँ टेकती हुई आईं।

रूहअफजा - आइए अम्माँजान, बैठिए।

बेगम - मैं बैठने नहीं आई, यह कहने आई हूँ कि अस्करी के साथ हुस्नआरा का निकाह जरूर होगा। इसमें सारी दुनिया एक तरफ हो, मैं किसी की न सुनूँगी। मैं जान दे दूँगी। यह न मानेंगी, तो जहर खा लूँगी; मगर करूँगी यहीं, जो कह रही हूँ।

बड़ी बेगम यह कह कर चली गईं। हुस्नआरा इतना रोईं कि आँखें लाल हो गईं। रूहअफजा ने समझाया, तो बोलीं बहन, अम्माँजान मानेंगी नहीं, और हम सिवा आजाद के और किसी के साथ शादी न करेंगे? नतीजा यह होना है कि हमीं न होंगे।

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 57

हुस्नआरा बेगम की जान अजाब में थी। बड़ी बेगम से बोल-चाल बंद, बहारबेगम से मिलना-जुलना तर्क। अस्करी रोज एक नया गुल खिलाता। वह एक ही काइयाँ था, रूहअफजा को भी बातों में लगा कर अपना तरफदार बना लिया। मामा को पाँच रुपए दिए। वह उसका दम भरने लगी। महरी को जोड़ा बनवा दिया, वह भी उसका कलमा पढ़ने लगी। नवाब साहब उसके दोस्त थे ही। हुसैनबख्श को भी गाँठ लिया। बस, अब सिपहआरा के सिवा हुस्नआरा का कोई हमदर्द न था। एक दिन रूहअफजा चुपके-चुपके उधर आईं, तो देखा, कमरे के सब दरवाजे बंद हैं। शीशे से झाँक कर देखा, हुस्नआरा रो रही हैं और सिपहआरा उदास बैठी हैं। रूहअफजा का दिल भर आया। धीरे से दरवाजा खोला और दोनो बहनों को गले लगा कर कहा - आओ, हवा में बैठें। जरीं, मुँह धो डालो। यह क्या बात है! जब देखो, दोनों बहनें रोती रहती हो?

सिपहआरा - बहन, जान-बूझ कर क्यों अनजान बनती हो? भला आपसे भी कोई बात छिपी है? मगर आप भी हमारे खिलाफ हो गईं! खैर अल्लाह मालिक है।

रूहअफजा - तुम्हारी तो नई बातें हैं? जहाँ तुम्हारा पसीना गिरे, वहाँ हम लहू गिराएँ, और तुम समझती हो कि हम तुम्हें जलाते हैं। हम तो मुहब्बत से पूछते हैं, और तुम हमीं पर बिगड़ती हो।

हुस्नआरा - सुनो बाजी, तुम कौन सी बातें नहीं जानती हो, जो पूछती हो। हम साफ-साफ कह चुके कि या तो उम्र भर कुँआरी ही रहेंगे या आजाद के साथ निकाह होगा।

सिपहआरा - ऐसे-ऐसे 360 अस्करी हों, तो क्या? हलवा खाने को मुँह चाहिए।

रूहअफजा - अब इस वक्त बात बढ़ जायगी। और कोई बात करो।

हुस्नआरा - हम इतना चाहते हैं कि आप जरा इन्साफ करें।

रूहअफजा - मगर यह गुत्थी क्यों कर सुलझेगी?

इतने में मामा ने अखबार ला कर रख दिया! हुस्नआरा ने पढ़ना शुरू किया। एकाएक एक मजमून देख कर चौंक उठी। मजमून यह था कि मियाँ आजाद ने टर्की में एक साईस की बीबी से शादी कर ली। साईस को जहर दिलवा दिया और अब साईसिन के साथ गुलछर्रें उड़ा रहे हैं। हुस्नआरा ने अखबार फेंक दिया और उठ कर कमरे में चली गईं। सिपहआरा ने भाँप लिया कि जरूर आजाद की कुछ खबर है। अखबार उठा कर देखने लगीं, तो यह मजमून नजर पड़ा। सन्नाटे में आ गईं। जिस आजाद के लिए वहाँ सारी दुनिया से लड़ाई हो रही थी, जिसका दोनों आसरा लगाए बैठी थीं, उसका यह हाल! हुस्नआरा को जा कर तसकीन देने लगी - बाजी, यह सब गलत है।

हुस्नआरा - किस्मत की खूबी है।

सिपहआरा - हम तो फाल देखेंगे।

हुस्नआरा - हमारा तो दिल टूट गया। हाय, हम क्या जानते थे कि मुहब्बत यह बुरा दिन दिखाएगी।

हाल अब्वल से यह न था जाहिर,

कि इसी गम में होंगे हम आखिर।

अपना किया अपने आगे आया। मियाँ आजाद के हथकंडे क्या मालूम थे। इनको हमारा जरा खयाल न आया। एक नीच कौम की औरत को ब्याहा। हुस्नआरा को भूल गए। यहाँ महीनों इसी रंज में गुजर गए कि टर्की क्यों भेजा। बैठे बिठाए उनकी जान के दर पे क्यों हुई। रात-दिन दुआ माँगी कि वह खैरियत से घर आएँ। मगर यह क्या मालूम था कि एकाएक यह गम की बिजली गिर पड़ेगी। किस्मत फूट गई अब तो यही आरजू है कि एक दफा चार आँखें हों, फिर झुक कर सलाम करूँ।

सिपहआरा - अगर यही करना था, तो इतनी दूर गए क्या करने थे?

रूहअफजा कमरे में आई, तो देखा, हुस्नआरा दुलाई ओढ़े पड़ी हैं। बदन पर हाथ रखा, तो तेज बुखार। हुस्नआरा उन्हें देख कर रोने लगीं। रूहअफजा बोलीं - बहन, तबीयत को काबू में रखो। ऐसा भी नौज कोई बीमारी में घबराए। बहारबेगम ने सुना, तो वह भी घबराई हुई आईं। बदन पर हाथ रखा, तो मालूम हुआ, जैसे किसी ने झुलसा दिया। हुस्नआरा ने रो कर कहा - बाजी, हर तरह की बीमारी मैंने उठाई है; मगर दिल कभी इतना कमजोर न हुआ था। मालूम होता है कि जान निकल रही है। बहारबेगम ने बड़ी बेगम को बुलवाया। वह भी बदहवास आईं और हुस्नआरा के माथे पर हाथ रख कर बोलीं - अल्लाह, यह हुआ क्या!

बहारबेगम - बुखार सा बुखार है!

नवाब साहब दौड़े हुए आए। देखा, तो कुहराम मचा हुआ है। इतने में अस्करी आए। बहारबेगम ने कहा - भैया जरी नब्ज तो देखो। यह दम के दम में क्या हो गया?

अस्करी - (नब्ज देख कर) बहन, क्या बताऊँ, नब्ज ही नहीं मिलती!

इस फिकरे पर बहारबेगम सिर पीटने लगीं। नवाब साहब ने समझाया, यह वक्त दवा और इलाज का है, रोना तो उम्र-भर है। अस्करी फौरन बड़े हकीम साहब को बुलाने गए। शाहजादा हुमायूँ फर भी आए थे। बोले - मैं जा कर सिविलसर्जन को साथ लाया हूँ। सर्जन साहब आए और नब्ज देख कर कहा - दिल पर कोई सदमा पहुँचा है। किसी अजीज के मरने की खबर सुनी हो, या ऐसी ही कोई और बात हो। नुस्खा लिखा और फीस ले कर चल दिय। इतने में बड़े हकीम साहब आए और नब्ज देख कर अस्करी के कान में कहा - काम तमाम हो गया। नुस्खा लिख कर आप भी बाहर गए। बहारबेगम सबसे ज्यादा बेकरार थीं।

शाम का वक्त था, बड़ी बेगम नमाज पढ़ रही थीं, बहारबेगम उदास बैठी हुई थीं, नवाब साहब हुमायूँ फर के साथ इसी बीमारी का जिक्र कर रहे थे कि एकाएक अंदर से रोने की आवाज आई।

नवाब साहब - क्या हुआ, क्या! हुआ क्या!!

बहारबेगम - जो कुछ होना था, वह हो गया।

नवाब साहब ने जा कर देखा, तो हुस्नआरा की आँख फिर गई थी और बदन ठंडा हो गया था। नवाब साहब को देखते ही बड़ी बेगम ने एक ईंट उठाई ओर सिर पर पटक ली। सिपहआरा ने तीन बार दीवार से सिर टकराया। नवाब साहब डाक्टर को बुलाने दौड़े।

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 58

रूम पहुँचकर आजाद एक पारसी होटल में ठहरे। उसी होटल में जार्जिया की एक लड़की भी ठहरी हुई थी। उसका नाम था मीडा। आजाद खाना खा कर अखबार पढ़ रहे थे कि मीडा को बाग में टहलते देखा। दोनों की आँखें चार हुईं। आजाद के कलेजे में तीर सा लगा। मीडा भी कनखियों से देख रही थी कि यह कौन आदमी है। आदमी तो निहायत हसीन है, मगर तुर्की नहीं मालूम होता है।

आजाद को भी बाग की सैर करने की धुन सवार हुई, ते एक फूल तोड़ कर मीडा के सामने पेश किया, मीडा ने फूल तो ले लिया, मगर बिना कुछ कहे-सुने घोड़े पर सवार हो कर चली गई। आजाद सोच रहे थे कि यहाँ किसी से जान न पहचान, अब इस हसीना को क्योंकर देखेंगे? इसी फिक्र में बैठे थे कि होटल का मालिक आ पहुँचा। आजाद ने उससे बातों-बातों में पता लगा लिया कि यह एक कुँआरी लड़की है। इसकी खूबसूरती की दूर-दूर चर्चा है। जिसे देखिए, इसका आशिक हे। पियानो बजाने का दिली शौक है। घोड़े पर ऐसा सवार होती है कि अच्छे-अच्छे शहसवार दंग रह जाते हैं।

शाम के वक्त आजाद एक किताब देख रहे थे कि एक औरत ने आ कर कहा - एक साहब बाहर आपकी तलाश में खड़े हैं। आजाद को हैरत कि यह कौन है? बाहर आए, तो देखा, एक औरत मुँह पर नकाब डाले खड़ी है। इन्हें देखते ही उसने नकाब उलट दी। यह मीडा थी।

मीडा - मैं वही हूँ, जिसे आपने फूल दिया था।

आजाद - और मैंने आपकी सूरत को अपने दिल पर खींच लिया था।

मीडा - यहाँ कब तक ठहरिएगा?

आजाद - लड़ाई में शरीक होना चाहता हूँ।

मीडा - इस लड़ाई का बुरा हो, जिसने हजारो घरों को बरबार कर दिया! भला, अगर आप न जायँ, तो कोई हर्ज है?

आजाद - मजबूरी है!

मीडा ने आजाद का हाथ पकड़ लिया और बाग में टहलते-टहलते बोली - जब तक आप यहाँ रहेंगे, मैं रोज आऊँगी।

आजाद - मेरे लिए यह बड़ी खुशनसीबी की बात है। मैं अच्छी सायत देख कर घर से चला था।

मीडा - आपने वजीर जंग से अपने लिए क्या तय किया?

आजाद - अभी तो उनसे मिलने की नौबत ही नहीं आई।

मीडा - मुझे उम्मेद हैं कि मैं आपको कोई अच्छा ओहदा दिला सकूँगी।

आजाद - आपका वतन कहाँ है?

मीड़ा - जार्जिया।

आजाद - तो यह कहिए, आप कोहकाफ की परी हैं।

इस तरह की बातें करके मीडा चली गई। आजाद कुछ देर तक सन्नाटे में खड़े रहे। इतने में एक फ्रांसीसी अफसर आ कर बोला - तुम अभी किससे बातें कर रहे थे?

आजाद - मिस मीडा से।

अफसर - तुम्हें मालूम हैं, उससे मेरी शादी होनेवाली है?

आजाद - बिलकुल नहीं।

यह सुनते ही उस अफसर ने, जिसका नाम जदाब था, तलवार खींच कर आजाद पर हमला किया। आजाद ने खाली दी। एकाएक किसी ने पीछे से आजाद पर तलवार चलाई। तलवार छिछलती हुई बाएँ कंधे पर लगी। पलट कर आजाद ने जो एक तुला हुआ हाथ लगाया, तो वह जख्मी हो कर गिर पड़ा। आजाद सँभलने ही को थे कि जदाब फिर उन पर झपटा। आजाद ने फिर खाली दी और कहा - मैं चाहूँ तो तुम्हें मार सकता हूँ। मगर मुझे तुम्हारी जवानी पर रहम आता है। यह कह कर आजाद ने पैंतरा बदला और तलवार उसके हाथ से छीन लीं। इतने में होटल से कई आदमी निकल आए और आजाद की तारीफ करने लगे। जदाब ने शरमिंदा हो कर कहा - मुझे इसका अफसोस है कि मेरे एक दोस्त ने मुझसे बगैर पूछे आप पर पीछे से हमला किया। इसके लिए मैं आपसे माफी माँगता हूँ। दोनों आदमी गले तो मिले, मगर फ्रांसीसी के दिल से कुदूरत न गई।

दूसरे दिन मियाँ आजाद हमीदपाशा के पास गए, जो जंग के वजीर थे। हमीद ने आजाद का डील-डौल देखा और उनकी बातचीत सुनी, तो फौजी ओहदा देने का वादा कर लिया। आजाद खुश-खुश लौटे आते थे कि मीडा घोड़े पर सवार आ पहुँची।

मीडा - आप कहाँ गए थे?

आजाद - वजीर-जंग के पास। कल तो आपकी बदौलत मेरी जान ही गई थी।

मीडा - सुन चुकी हूँ।

आजाद - अब आपसे बोलते डर मालूम होता है!

मीडा - जीत तो तुम्हारी ही हुई। हम मुझे दिल में बुरा समझ रहे होगे; मगर मेरा दिल काबू से बाहर है। मेरा दिल तुम पर आया है। मैं चाहती हूँ, मेरी तुम्हारे साथ शादी हो।

आजाद - मुझे अफसोस है कि मेरी शादी तय हो चुकी है। खुदा को गवाह करके कहता हूँ, आपकी एक-एक अदा मेरे दिल में चुभ गई है। मगर मैं मजबूर हूँ।

मीडा ने उदास हो कर कहा - पछताओगे, और घोड़ा बढ़ा दिया। उसी रात को मीडा ने हमीदपाशा से जा कर कहा कि आजाद नाम का जो हिंदुस्तानी आज आपके पास आया था, वह रूस का मुखबिर है। उससे होशियार रहिएगा।

हमीद - तुम्हें इसका पूरा यकीन है?

मीडा - मुझे आजाद के एक दोस्त ही से यह बात मालूम हुई।

हमीद - तुम्हारा जिम्मा।

मीडा - बेशक।

यह आग लगा कर मीडा घर आई; मगर बार-बार यह सोचती थी कि मैंने बहुत बुरा किया। एक बेगुनाह को मुफ्त में फँसाया। खयाल आया कि जा कर वजीर-जंग से कह दे कि आजाद बेगुनाह है; मगर बदनामी के खौफ से जाने की हिम्मत न पड़ती थी। मियाँ आजाद होटल में बैठे हुक्का पी रहे थे किए तुर्की अफसर ने आ कर कहा - आपको टर्की की सरकार ने कैद कर लिया।

आजाद - मुझको?

अफसर - जी हाँ।

आजाद - आप गलती कर रहे हैं।

अफसर - नहीं, मुझे आप ही का पता दिया गया है।

आजाद - आखिर मेरा कसूर?

अफसर - मुझे बताने का हुक्म नहीं।

तीन दिन तक आजाद कैदखाने मे रहे, चौथे दिन हमीदपाशा के सामने लाए गए।

हमीद - मुझे मालूम हुआ कि तुम रूसी जासूस हो।

आजाद - बिलकुल गलत। मैं कश्मीर का रहनेवाला हूँ। आप बतला सकते हैं किसने मुझ पर इलजाम लगाया?

हमीद - एक शरीफ लेडी ने, जिसका नाम मीडा है।

आजाद मीडा का नाम सुनते ही सन्नाटे में आ गए। दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गए। मुँह से एक बात भी न निकली। अब आजाद फिर कैदखाने में आए, तो मुँह से बेअख्तियार निकल गया - मीडा! मीडा!! तूने मुझ पर बड़ा जुल्म किया!

आजाद को इसका इतना रंज हुआ कि उसी दिन से बुखार आने लगा। दो तीन दिन में उनकी हालत इतनी खराब हो गई कि जेल के दारोगा ने सुबह-शाम सैर करने का हुक्म दे दिया। एक दिन वह शाम को बाहर सैर कर रहे थे कि एक खूबसूरत नौजवान घोड़ा दौड़ता हुआ उनके करीब आ कर खड़ा हो गया।

जवान - माफ कीजिएगा, आपकी सूरत मेरे एक दोस्त से मिलती है। मैंने समझा शायद वही हों। आप कुछ बीमार मालूम पड़ते हैं!

आजाद - जी हाँ, कुछ बीमार हूँ। मुझे खयाल आता हे कि मैंने कहीं आपको देखा है।

जवान - शायद देखा हो।

यह कह कर वह मुसकिराया। आजाद ने फौरन पहचान लिया। यह मुसकिराहट मीडा की थी। आजाद ने कहा - मीडा, तुमने मुझ पर बड़ा जुल्म किया, मुझे तुमसे ऐसी उम्मेद न थी।

मीडा - मैं अपने किए पर खुद शरमिंदा हूँ। मुझे माफ करो।

आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 59

मियाँ खोजी पंद्रह रोज में खासे टाँठे हो गए, तो कांसल से जा कर कहा - मुझे आजाद के पास भेज दिया जाय। कांसल ने उनकी दरख्वास्त मंजूर कर ली। दूसरे दिन खोजी जहाज पर बैठ कर कुस्तुनतुनियाँ चले। उधर मियाँ आजाद अभी तक कैदखाने में ही थे। हमीदपाशा ने उनके बारे में खूब तहकीकात की थी, और गो उन्हें इतमिनान हो गया था कि आजाद रूसी जासूस नहीं हैं, फिर भी अब तक आजाद रिहा न हुए थे।

एक दिन मियाँ आजाद कैदखाने में बैठे हुए थे कि एक फ्रांसीसी कैदी आया। उस पर भी जासूसी का इल्जाम था। आजाद ने पूछा - आपने अपनी सफाई नहीं पेश की?

फ्रांसीसी - अंधेर है, अंधेर? मैं तो इन तुर्कों का जानी दुश्मन हूँ।

आजाद - मुझे यह सुन कर अफसोस हुआ। मैं तो तुर्कों का आशिक हूँ। ऐसी दिलेर कौम दुनिया में नहीं है।

फ्रांसीसी - अभी आप इन लोगों को अच्छी तरह नहीं जानते। आप ही को बेवजह कैद कर लिया।

आजाद - लड़ाई के दिनों में सभी जगह ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं।

फ्रांसीसी - आप रूसी जबान नहीं जानते?

आजाद - बिलकुल नहीं।

फ्रांसीसी - रूस की सरकार ने बहुत मजबूर हो कर लड़ाई की है।

आजाद - मैं तो समझता हूँ, रूसवालों की ज्यादती है, सारा यूरोप टर्की का दुश्मन है।

इस तरह की बातें करके फ्रांसीसी चला गया और दूसरे ही दिन मियाँ आजाद आजाद कर दिए गए। यह कैदी फ्रांसीसी न था, हमीदपाशा ने एक तुर्की अफसर को आजाद के दिल का भेद लेने के लिए भेजा था।

शाम का वक्त था, आजाद बैठे हुए मीडा से बातें कर रहे थे कि एक आदमी ने आ कर कहा - हुजूर, एक नाटा सा आदमी बाहर खड़ा है, और कहता है कि हमें कोठी के अंदर जाने दो। आजाद ने कहा - आने दो। एक मिनट में मियाँ खोजी आ कर खड़े हो गए। आजाद ने दौड़ कर उन्हें गले लगा लिया और खैर-आफियत पूछने के बाद अपनी राम कहानी सुनाई। मियाँ खोजी ने, जब आजाद के कैद होने का हाल सुना, तो बिगड़ कर बोले - खुदा ने चाहा, तो हम तुम्हारा बदला लेंगे। खड़े-खड़े बदला न ले लें, तो नाम नहीं!

आजाद - खैर, अब इसका अफसोस न कीजिए। मिस मीडा अभी आती होंगी, जरा उनके सामने बेहूदगी न कीजिएगा।

खोजी - भई, अभी उन्हें मत आने दो। जरा हम बन-ठन लें। अफसोस यही है कि हमारे पास करौली नहीं। बे करौली के हमसे कुछ न हो सकेगगा।

आजाद - क्या उनसे लड़िएगा?

खोजी - नहीं साहब, लड़ना कैसा! बे करौली के जोबन नहीं आता। आप ये बातें क्या जानें।

इतने में मिस मीडा दूसरे कमरे से निकल आईं। खोजी ने अपना ठाट बनाने के लिए मेज पर का कपड़ा ओढ़ लिया, तौलिया सिर में बाँधा और एक छुरी हाथ में ले कर मीडा की तरफ घूरने लगे! मीडा ने जो उनकी सूरत देखी, तो मुसकिरा दी। खोजी खिल गए। आजाद से बोले - क्यों आजाद, सच कहना, मुझे देखते ही कैसा खिल गईं! मीडा ने आजाद से पूछा - यह कौन आदमी है?

आजाद - एक पागल है। इसको यह खब्त है कि जो औरत इसे देखती है, रीझ जाती है। तुम जरा इसको बनाओ।

मीडा ने खोजी को इशारे से करीब बुलाया। आप जा कर एक कुर्सी पर डट गए।

मीड़ा - (हाथ में हाथ दे कर) आपका नाम क्या है?

खोजी - (आजाद से) मुझे समझाते जाओ जी!

आजाद ने दुभाषिये का काम करना शुरू किया। मीडा जो कहती थी, उनको समझाते थे, और वह जो कुछ कहते थे, इसे समझाते थे।

मीडा - कल आपकी दावत है। आप शराब पीते हैं?

खोजी - हाँ - नहीं। मगर अच्छा; नहीं-नहीं। कह दो अफीम पीता हूँ।

मीडा - यह आपका गुलाब सा चेहरा कुम्हला जायगा!

खोजी ने अकड़ कर आजाद की तरफ देखा।

मीडा - आप कुछ गाना भी जानते हैं।

खोजी - हाँ, और नाचना भी जानता हूँ।

मीडा - अहो-हो, तो फिर नाचो।

खोजी ने नाचना शुरू किया। अब मीडा हँसने लगी, तो आप और भी फूल गए। थोड़ी देर में मीडा होटल से चली गई। तब आजाद ने कहा - भई खोजी, यह बात अच्छी नहीं। मैं तुमको ऐसा नहीं जानता था।

खोजी - तो मैं क्या करूँ? जब वह खुद ही मेरे पीछे, पड़ी हुई है, तो रुखाई करना भी तो अच्छा नहीं मालूम होता।

थोड़ी देर में मीडा का खत आया। आजाद ने कहा - जनाब ख्वाजा साहब, हमको तो जरा खत दिखाना।

खोजी - बस, बस, चलिए, अलग हटिए।

आजाद - लाओ, हम पढ़ दें। तुमसे भला क्या पढ़ा जायगा?

खोजी - अजब आदमी हैं आप! आप कहाँ के ऐसे बड़े आलिम हैं!

खोजी ने खत को तीन बार चूमा और आजाद को अलग बुला कर पढ़ने को दिया। लिखा था -

'मेरे प्यारे जवान, तुम्हारी एक-एक अदा ने मेरे दिल में जगह कर ली है। तुम्हारी सारस की सी गर्दन और बंदर की सी हरकतें जब याद आती हैं, तो मैं उछल-उछल पड़ती हूँ। अब यह बताओ कि आज किस वक्त आओगे? यह खत अपने दोस्त आजाद को न दिखाना और वादे पर जरूर आना।'

खोजी - यार, तुम्हें तो सब हाल मालूम हो गया, मगर उससे कह न देना।

आजाद - मैं तो जा कर शिकायत करूँगा कि हमसे छिपाया क्यों? अभी-अभी खत भेजता हूँ।

खोजी - खैर, जाइए, कह दीजिए। वह हम पर आशिक हैं। तुम ऐसे हजार लगी-लिपटी बातें करें, होता क्या है। आपकी हकीकत ही क्या है!

आजाद - यार, अब तुम्हारे साथ न रहेंगे।

खोजी - आखिर, सबब बताइए।

आजाद - गजब खुदा का! मीडा सी माहरू और हमारे सामने तुम्हें यह खत लिखे।

खोजी खिलखिला कर हँस पड़े। बोले - यह बात है? हम जवान ही ऐसे हैं, इसको कोई क्या करे। लेकिन अगर तुम खिलाफ हो गए, तो वल्लाह, मैं मीडा से बात तक न करूँगा। मुझे जान से भी ज्यादा प्यारे हो। कसम खुदा की, अब दुनिया में तुम्हारे सिवा मेरा और कोई नहीं। बस फकत तुम! और हम तो बूढ़े हुए। यह भी मिस मीडा की मेहरबानी है। अजी, मिसर में तो तुम न थे। वहाँ पर भी एक औरत मुझ पर आशिक हो गई थी! मगर खराबी यह थी कि न हम उसकी बात समझें, न वह हमारी! हाँ इशारों में खूब बातें हुई।

अच्छा, फिर एक हज्जाम तो बुलाओ। आज जाना है न!

आजाद ने एक हज्जाम बुलवाया। हजामत बनने लगी।

खोजी - घोटो, घोटो। घोटे जा। अभी खूँटी बाकी हैं। खूब घोटो।

हज्जाम ने फिर छुरा फेरा। खोजी ने फिर टटोल कर कहा - अभी खूँटी बाकी है, घोटो।

हज्जाम - तो हुजूर, कब तक घोटा करूँ!

खोजी - दूने पैसे देंगे हम।

हज्जाम - माना, मगर कोई हद भी है?

खोजी- तुमको इससे क्या मतलब!

हज्जाम - खून निकलने लगेगा।

आजाद - और अच्छा है; लोग कहेंगे, नौसा के चेहर से खून बरसता है।

खोजी - हाँ, खूब सोची।

हज्जाम - (किसबत सँभाल कर) अब किसी और नाई से घुटवाइए।

आजाद - अच्छा, पट्टे तो कतरते जाओ।

हज्जाम ने झल्ला कर आधे बाल करत डाले। एक तरफ की आधी मूँछ उड़ा दी। खोजी एक तो यों ही बड़े हसीन थे, अब हज्जाम ने बाल कतर कर और भी ठीक बना दिया। खोजी ने जो आईने में अपनी सूरत देखी, तो मूँछें नदारद। झल्ला कर कहा - ओ गीदी, यह क्या किया? हज्जाम डरा कि कहीं यह साहब मार न बैठें।

आजाद - क्यों, क्यों खफा हो गए भई!

खोजी - इसने पट्टे ऊल-जलूल करते, और आप बोले तक नहीं?

आजाद - मैं सच कहता हूँ, आप इतने हसीन कभी न थे।

खोजी - और चेहरे की तो फिक्र करो!

आजाद - हाँ, हाँ, घबराते क्यों हो?

खोजी - हमको याद आता है कि नौशा के सामने छोटे-छोटे लड़के गजलें पढ़ते हैं। दो-एक लौंडे बुलवा लीजिए, तो उनको गजलें रटा दें।

आजाद ने दो लड़के बुलवाए, और मियाँ, खोजी उनको गजलें याद कराने लगे। एक गजल मियाँ आजाद ने यह बतलाई -

भला यह तो बताओ कि यह कौन बशर है;

सब सूरते लंगूर, फकत दुम की कसर है।

खोजी - चलिए, बस अब दिल्लगी रहने दीजिए। वाह, अच्छे मिले!

आजाद - अच्छा, और गजल लिखवाए देता हूँ -

फुगाँ है, आह है, नाला है, बेकरारी है;

फिराके-यार में हालत अजब हमारी है।

खोजी - वाह, शादी को इस शेर से क्या वास्ता!

आजाद - अच्छा साहब, गजल याद करवा दीजिए

कहा था बुलबुल से हाल मैंने

तेरे सितम का बहुत छिपा कर;

यह किसने उनको खबर सुनाई

कि हँस पड़े फूल खिलखिला कर।

मेरे जनाजे को उनके कूचे में

नाहक अहबाब लेके आए;

निगाहे-हसरत से देखते हैं।

वह रुख से परदा उठा-उठा कर।

खोजी - वाह, जनाजे को शादी से क्या मतलब है भला!

आजाद - ऊपरवाला शेर पसंद है?

खोजी - हाँ, हँसना और खिलखिलाना, ऐसे लफ्ज हों, तो क्या पूछना!

आजाद - अच्छा, और सुनिए।

खोजी - नहीं, इतना ही काफी है। जरा बाजेवालों की तो फिक्र कीजिए। हाथी, घोड़े, पालकी, सभी चाहिए। मगर हमारे लिए जो घोड़ा मँगवाइएगा, वह जरा सीधा हो।

आजाद - भला, घोड़ा न मिले, तो खच्चर हो तो कैसा?

खोजी - वाह, आपने मुझे कोई गधा समझा है?

इतने में होटल का मैनेजर आ गया और यह तैयारियाँ देख कर हँसने लगा।

खोजी - क्यों साहब, यह आप हँसे क्यों?

मैनेजर - जनाब, यहाँ शरीफ लोग शादियों में बाजे-गाजे नहीं ले जाते; और पैदल ही जाते हैं। हाँ एक बात हो सकती है, दस-पाँच आदमियों को थालियाँ दे दीजिए, बाँस की खपाचों से उन्हें बजाते जायँ। आवाज की आवाज और बाजे का बाजा।

खोजी - भई आजाद, सोच लो।

आजाद - वह जब यहाँ दस्तूर ही नहीं, तो फिर क्या किया जायगा? हाँ, नौशे का पैदल जाना जरा बदनामी की बात है।

मैनेजर - तो पैदल न जाइए। जिस तरह यहाँ के रईस लोग जाते हैं, उस तरह जाइए - आदमी की गोद में।

खोजी - मंजूर। मगर हमको उठा सकेगा कोई?

मैनेजर - हम इसका बंदोबस्त कर देंगे। आप घबराए नहीं।

दो घड़ी दिन रहे खोजी की बरात चली। तीन मजदूर आगे-आगे थालियाँ बजाते जाते हैं, दो लौंडे आगे पीछे साथ। खोजी एक मजदूर की गोद में, गेरुए कपड़े पहने, अकड़े बैठे हैं। एकाएक आप बोले - अरे रे रे रोक लो बरात। रोक लो। पंशाखेवाले कहाँ हैं? कोई बोलता ही नहीं। परदेश में भी इनसान पर क्या मुसीबत पड़ती है? अब मैं दूल्हा बन कर रहूँ, या इंतजाम करूँ! ये दोनों गीदी तो निरे जाँगलू ही निकले। फिर याद आया कि निशान का हाथी तो है ही नहीं। अरे! करौली भी नहीं। हुक्म दिया कि लौटा दो बरात। चलो होटल में।

आजाद - यह क्यों भई? क्या बात है? लौटे क्यों जाते हो?

खोजी - निशान का हाथी तो है ही नहीं।

आजाद - अजब आदमी हो भई, आप लड़ने जाते हैं, या शादी करने? और फिर यहाँ हाथी कहाँ? कहिए तो खच्चर पर एक झंडी रखवा दें।

इतने में मिस मीडा आती हुई दिखाई दीं। खोजी उन्हें देखते ही और भी अकड़ गए। क्या कहूँ, मेरे साथ के आदमी सब गोली मार देने लायक हैं। कोई इंतजाम ही न किया।

मीडा - खैर, कल आ जाइएगा। मगर आप से एक बात कहनी है। यहाँ एक रूसी बहुत दिनों से मेरा आशिक है। पहले उससे लड़ो, फिर हमारे साथ शादी हो।

खोजी - मजाल है उसकी कि मेरे सामने खड़ा हो जाय? हम पचास आदमियों से अकेले लड़ सकते हैं। अब बरात होटल पहुँची, तो मीडा ने कहा - तो उनसे कब लड़िएगा?

खोजी - जब कहिए। खून पी जाऊँगा।

मीडा - अच्छा, कल तैयार रहिएगा।

दूसरे दिन मीडा ने एक तुर्की पहलवान को ला कर होटल में बिठा दिया और खोजी से बोली - लीजिए, आपका दुश्मन आ गया। खोजी ने जब उसे देखा, तो होश उड़ गए। दुनिया भर के आदमियों से दो मुट्ठी ऊँचा। दिल में सोचने लगे, यह तो कच्चा ही खा जायगा। एक चपत दे, तो हम जमीन में धँस जायँ। इससे लड़ेगा कौन भला? मारे डर के जरा पीछे हट गए। मीडा ने कहा - आप तो अभी से डरने लगे। खोजी एकाएक धड़ाम से गिर पड़े और चिल्लाने लगे - इस तरह का दर्द हो रहा है कि कुछ न पूछो। अफसोस, दिल की दिल ही में रह गई! वल्लाह, वह पटकनी देता कि कमर टूट जाती। मगर खुदा को मंजूर न था। तुर्की पहलवान ने इनका हाथ पकड़ कर एक झटका दिया, तो दस कदम पर जा गिरे। बोले - ओ गीदी, जरा बीमार हो गया हूँ, नहीं तो कच्चा ही खा जाता, नमक भी न माँगता।

आखिर इस बात पर फैसला हुआ कि जब खोजी अच्छे हो जायँ, तो फिर किसी दिन कुश्ती हो।

  • आजाद-कथा : भाग 2 - खंड 60-70
  • आजाद-कथा : भाग 1 - खंड 41-50
  • मुख्य पृष्ठ : रतननाथ सरशार की कहानियाँ, उपन्यास हिन्दी में
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां