अवकाश (गुजराती कहानी) : कुंदनिका कपाड़िया
Avkash (Gujrati Story) : Kundanika Kapadia
चिट्ठी लिखकर उसने टेबल पर रखी और घर की चाबी, किताब व पर्स लेकर निकल ही रही थी कि टेलीफोन की घंटी बजी । अपूर्व का फोन था- “हैलो पूर्वी, कैसी हो? आज का दिन अच्छा गुजरा न! सुनो, छह बजे के करीब पहुँचूँगा , साथ में तीन मित्र होंगे, वहीं खाना खाएंगे”
पूर्वी ने कोई उत्तर नहीं दिया। धीरे से फोन रख दिया। उसे बहुत गुस्सा आया। कितने समय बाद, महीनों व सालों बाद, शायद शादी के बाद पहली बार ऐसा मौका आया था कि उसने अपने लिए अपना कार्यक्रम खुद बनाया था। एक सादा सा, छोटा सा कार्यक्रम सिर्फ अपने लिए अपनी घर गृहस्थी से अलग सिर्फ खुद से बातें करने के लिए…
और अब, आज शाम चार पाँच मेहमान घर में खाने पर आ रहे हैं। अभी तक तो कोई ऐसी बात नहीं थी। घर में इसके लिए ज़रूरी साग-सब्जी और अन्य चीज़ें भी तो नहीं हैं। इतने लोगों को अच्छी तरह खिलाने पिलाने के लिए तो बाज़ार से भी बहुत कुछ लाना पड़ेगा।
हालांकि उसे भी अच्छा लगता था जब लोग कहते कि पूर्वी के घर अचानक चाहे जितने मेहमान पहुँच जाएं, वह कभी परेशान नहीं होती। जरा सी देर में ही वह इतना स्वादिष्ट खाना बनाती है कि पूछो मत, ग़ज़ब की सूझ बूझ और होशियारी है उसमें।
इसीलिए अपूर्व बिना कोई सूचना दिए अपने मित्रों को अक्सर खाने पर ले आता। उसे पूरा भरोसा रहता कि व्यवस्था हो ही जाएगी और अच्छे से होगी, मेहमान पूर्वी के आतिथ्य का बखान करते, “घर चलाने की कुशलता तो कोई पूर्वी से सीखे”।
ऐसा नहीं था कि पूर्वी केवल रसोई ही अच्छी तरह से संभालती थी। अपने विद्वान प्रोफेसर पति का सारा पत्र व्यवहार, उनके लेखों का वर्गीकरण, उनके भाषणों की नकल, विभिन्न अखबारों में प्रकाशित लेखों की कतरनें काटकर उन्हें विषय-वार जमाती , हस्तलिखित प्रतियों की प्रेस कॉपी तैयार करती। यह सब वह इतनी दक्षता से करती कि अपूर्व बड़े गर्व से कहता, “ पूर्वी तो मेरी कार्यकारी मंत्री है, इसके बिना मैं अपना कार्य सुचारु रूप से कर ही नहीं सकता”।
फोन की घंटी फिर बजी, अपूर्व की आवाज़ थी, “पूर्वी फोन क्या कट गया था या कोई और बात थी? मुझे लगा तुम वापस फोन करोगी। इसलिए मैं राह ही देख रहा था”।
पूर्वी ने केवल हुंकारा भरा।
अपूर्व कुछ फिक्र से बोला, “ तबीयत तो ठीक है ना, आवाज़ क्यों ढीली लग रही है?”
उत्तर में पूर्वी केवल हंसी।
अपूर्व को अब जरा तसल्ली हुई, “हाँ, अब हुई न बात, तुम्हारी हंसी सुनकर जी को चैन आया। हाँ, अब सुनो, ठीक छ बजे हम लोग आ जाएंगे। जल्दी आता, पर सब साथ में हैं इसलिए थोड़ी देर हो जाएगी। सब खाना वहीं खाएंगे, ठीक है न!”
उत्तर में पूर्वी ने जरा हँसकर कहा, “ठीक है” और फोन रख दिया। वह घर की दहलीज़ पर आ खड़ी हो गई। एक पाँव अंदर और एक बाहर। अंदर रहने का मन नहीं और बाहर जाने का सुयोग नहीं। एक नज़र उसने घर पर डाली। कितनी सजावट, कितनी सारी चीज़ें, और इन चीज़ों से घर के कोने कटरों में कितना गहन अंधकार ! इस गहराते अंधेरे की अतल गहराइयों में खो जाने से पहले ही इससे बाहर निकल जाऊँ, पर निकलूँ कैसे?
दिन प्रतिदिन इन कोनों में अंधेरा और गाढ़ा होता जा रहा है। ऐसा लगता है जैसे इन सब चीज़ों में से एक रिक्तता लंबा हाथ पसारकर उसे डसने आ रही है। लेकिन यह बात उसने आज तक किसी से कही भी नहीं। एक तो उसे कभी इतनी फुरसत ही नहीं मिलती। घर में कितना काम रहता है। सभी चीज़ों को संभालने -सजाने , साफ सुथरे ढंग से रखने में कितनी मेहनत लगती है। उसे मुश्किल ना हो इसलिए पतिदेव ने कितने साधन जुटाएं हैं- बिजली का मिक्सर, बिजली का चूल्हा, टेप-रिकॉर्डर, रिकार्ड- प्लेयर, वाशिंग- मशीन, वैक्यूम- क्लीनर, कपड़ों पर खुद ब खुद पानी छिड़कने वाली प्रेस, फलों का रस निकालने वाली मशीन आदि न जाने कितनी चीज़ें घर में हैं।
इन सभी चीज़ों की साज संभाल, उन पर धूल न चढ़े, उनकी मशीन न खराब हो जाए, इस सबका ध्यान रखने में ही उसका सारा समय बीत जाता। नए- नए रेकॉर्ड्स आते तो उन्हें विषयवार छाँटती। टेप किया संगीत, अपूर्व के भाषण, उसकी चर्चाएं, सभी पर लेबल लगाती, तारीख डालकर सभी कुछ व्यवस्थित रखती। सभी चीजों का इस्तेमाल संभालकर होना चाहिए, नहीं तो वे खराब हो जाती हैं। एक बार फलों का रस निकालने वाली मशीन का काफी समय तक इस्तेमाल नहीं हुआ, वह भूल ही गई थी। बाद में अंदर की जाली चिपक गई, किसी भी तरह से निकल ही नहीं रही थी। सारे उपाय करके वह थक गई, पर सब बेकार। उस दिन अपूर्व बेहद नाराज़ हुआ, “चीज़ें ठीक स्थिति में रहें, इसके लिए ध्यान देना चाहिए। ये चीज़ें हमारे उपयोग के लिए हैं, अगर इनका उपयोग ना हुआ तो ये हमें ही खा जाएंगी।”
फिर उसे सुधरवाने के लिए भी पूर्वी को ही जाना पड़ा। अपूर्व को तो हमेशा की तरह बहुत काम था। फिर पूर्वी कौन पुराने ज़माने की डरपोक और व्यक्तित्वहीन स्त्री थी? वह बैंक जा सकती थी, इंकम टैक्स रिटर्न भर सकती थी, इत्यादि इत्यादि। इसलिए वह बैंक जाती, रिटर्न भरती। अपूर्व को शेयर खरीदने का विचित्र शौक अपने पिता से विरासत में मिला था।पर, शेयर बाज़ार के उतार चढ़ाव को समझने की ज़िम्मेदारी पूर्वी पर ही आ पड़ी। अपूर्व कहता, “तुम तो पढ़ी लिखी हो, अब से तुम ही मुझे गाइड करना कि कौन सा शेयर खरीदना है और कौन सा बेचना है, मुझे तो जरा सी भी फुरसत नहीं मिलती है। एक बार पूर्वी ने चिढ़ कर कहा भी था, “अगर समय नहीं मिलता तो शेयर का धंधा मत करो, दूसरे काम क्या घटिया हैं?”
लेकिन अपूर्व को इस सबमें बड़ा रस मिलता। पैसों के लिए नहीं, पैसों की उसे आवश्यकता नहीं थी। शेयरों को खरीदना, बेचना, उनके मूल्य का अनुमान लगाना, इसमें उसे बड़ा मज़ा आता था। पर, इसके लिए प्रारम्भिक सारा काम पूर्वी को ही करना पड़ता। अपूर्व बड़े अभिमान से कहता, “पूर्वी तो मेरी सेक्रेटरी है।“
एक बार एक पार्टी में बहुत सारे मेहमान थे। अपूर्व के विदेश में रहने वाले दो तीन मित्र पहली बार घर आए थे। अपूर्व ने पूर्वी का परिचय करवाया, “ मेरी सेक्रेटरी”, फिर जरा रुककर कहा, “और मेरी पत्नी भी”। पहले तो वे लोग हंसें फिर पूर्वी का अभिवादन किया और उसकी प्रशंसा की। पर, उनके हास्य में अटकी गूढ़ता पूर्वी की समझ में न आई। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगा। सेक्रेटरी होने में भला कौन से गौरव की बात थी!
उसके बाद दिन रात जब भी वह अकेली होती, खुद से प्रश्न करती –‘जीवन में क्या मुझे किसी की सेक्रेटरी ही बनना था? अपने बारे में मेरी कल्पना क्या केवल एक अच्छी मेहमानवाज़ और स्वादिष्ट रसोइए की थी? क्या मैं दूसरों के साधनों को अच्छी तरह चलाने वाली कुशल कारीगर मात्र हूँ? मैं क्या हूँ और मेरा लक्ष्य आखिर है क्या? मेरे सपनों में किसके फूल खिलते हैं? मेरे जीवन की सार्थकता किसमें है? मुझे कहाँ मिलेगी, किसमें मिलेगी?
फिर तो जैसे- जैसे वह विचार करती गई, वैसे- वैसे उसके दिमाग की खिड़कियां खुलती चली गईं। घर और पति का काम और सुख सुविधा के इन साधनों की साज संभाल में ही उसका सारा जीवन बीता जा रहा था। क्या यही उसके जीवन का उद्देश्य है? क्या इसके परे उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है? इस सीमा के बाहर कोई अन्य संसार है भी या नहीं? इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में अद्वितीय है, ऐसा अपूर्व कई बार अपनी चर्चाओं में कहता था। तो उसकी अपनी अद्वितीयता किसमें है? सेक्रेटरी की शिक्षा ग्रहण किया हुआ कोई भी व्यक्ति फ़ाइलों का वर्गीकरण कर सकता है, डाटा तैयार कर सकता है। इन सभी साधनों की अच्छी तरह साज संभाल तो कोई सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी कर सकता है। इच्छा न होने पर भी ‘प्लग’ लगाकर, बटन दबाकर रिकॉर्डिड संगीत कोई भी सुन सकता है। भूख न होने पर भी मशीन को घर्र- घर्र चलकर गाजर का रस निकालकर पी सकता है, उसके गुण और पौष्टिकता का बखान कर सकता है। रुचिकर न लगे तो भी बिजली के ओवन में ‘मैक्सिकन रेटबिट’ या ‘चीज़ एण्ड पटेटो फ्राई’ बना सकता है। क्या सिर्फ इसलिए इन सभी साधनों का उपयोग होना चाहिए, इन्हें साफ़ रखना चाहिए क्योंकि अगर इनका उपयोग न हुआ तो ये पड़े- पड़े बेकार हो जाएंगे?
दिमाग की खिड़की खुलने से एक के बाद एक विचार आने लगे और उनका प्रकाश उसे चौंधियाने लगा। इस घर में उसका अपना स्थान क्या है? आखिर उसका काम क्या है? और यदि कुछ है भी तो उसका स्थान उसके अपने जीवन में सर्वोपरि है क्या? उसके जीवन की चरम सिद्धि क्या है? यह घर आखिर है किसका, खुद उसका, अपूर्व का या फिर इन चीजों का? यह संगीत क्या स्वयं के आनंद के लिए है या कि टेप-रेकॉर्डर बिगड़ न जाए इसलिए है? संगीत उसे बहुत पसंद था, पर वह यह तो नहीं था, तो फिर क्या.. ?
बहुत दिनों पहले उसकी एक सखी उससे मिलने आई थी। उसका घर दो बस स्टापों के बीचोंबीच था। सहज ही पूर्वी ने उससे पूछा, “घर जाने के लिए तू पहले स्टॉप पर उतरकर थोड़ा आगे जाती है या फिर दूसरे स्टॉप पर उतरकर पीछे जाती है?”
सखी ने उत्तर दिया,” दूसरे पर उतरकर पीछे जाती हूँ। पता है क्यों?”
“क्यों?”
“दूसरा स्टॉप समंदर के सामने है।“सखी ने सलज्ज मुस्कान के साथ ऐसे कहा मानो किसी गुप्त प्रेम की बात कर रही हो।
पहले से खुली खिड़की में से एक दूसरा विचार उभरा और पत्थर बनकर ठिठक गया। यहीं पर ही तो कहीं उसके प्रश्न का उत्तर नहीं था।
बस उसी दिन से वह उससे मिलने जाने की योजना बना रही थी- सखी से नहीं, समंदर से मिलने की। एक अच्छी सी पुस्तक साथ ले जाने का विचार था। हाय, कितने ही समय से कोई अच्छी सी किताब पूरी पढ़ने का योग ही नहीं बैठ रहा था। अखबारों के सामयिक और रवि- वारीय अंक पढ़ने में ही पूर्वी का सारा समय निकल जाता था और यह पढ़ना ऐसा था जैसे जानकारियों के असंख्य टुकड़ों को पढ़ना और फिर फ़ौरन ही उन्हें भूल जाना। मित्रों की बैठक में अधिकार पूर्वक चर्चा कर सके , ऐसा कुछ पढ़े तो शायद ज़माना गुज़र गया।
पढ़कर उसमें गहरे डूबकर विचार करने के लिए, मनुष्य के इतिहास को, बदलते समाज की स्थितियों को समझने, मानव मन की अनंत गहराइयों में छिपे तथ्यों को जानने और उनमें अंतर्निहित सिद्धांतों की खोज करने के लिए एक ज्वलंत चिंतन प्रक्रिया का सृजन करना पड़ता है। अंतःस्वरूप की खोज करने वाली चाबी खोजनी पड़ती है। और ऐसा कुछ तो उसने लंबे समय से पढ़ा ही नहीं था। बहुत दिनों पहले, शायद महीनों या सालों पहले शादी के बाद अपूर्व सैकड़ों पुस्तकें पढ़ता था और वह उसकी सेक्रेटरी के रूप में काम करती, और वह उसके लिए लाइब्रेरी जाकर किताबें लाती।
और अपूर्व उसके लिए क्या करता?
अपूर्व क्या किसी दिन उसके लिए सेक्रेटरी बन सकता है? उसके लिए पूर्वी ने सैकड़ों काम किए हैं, क्या वह उसके लिए एक भी काम कर सकता है?
इसीलिए आज उसने तय कर लिया है कि ‘सेकेण्डरी रोल’ वाली निरर्थक भूमिका में से तुच्छ कार्यों के इस महत्वहीन दायरे में से उसे निकलना है, दरिया पर जाना है, किसी शांत कोने में चुपचाप बैठना है, ‘इनफ इज़ इनफ’ पढ़ना है। सर्दी की सहज ही थरथराती नरम दोपहर की सुनहरी, गुनगुनी धूप में बैठना है। अवकाश सिर्फ अवकाश का अनुभव करना है। मन में सन्नाटा खींचकर समुद्र को महसूस करना है। उसके सामने आलथी पालथी मारकर बैठना है। अपने भीतर खो चुके अवकाश को ढूँढना है। सागर की असीम विशालता में से एक ‘सुर’ खोजकर लाना है। अवकाश का संगीत सुनना है। अपने ही अंतर्मन में छिपे नाद को सुनना है। फोन कि घंटी फिर बजी। अपूर्व ही होगा। वह मन ही मन हंसी। उसने चाबी और पर्स उठाया। ‘समुद्र किनारे जा रही हूँ’, लिखकर चिट टेबल पर इस तरह रखी ताकि वह अच्छी तरह से नजर आए.. और फिर वह पुस्तक हाथ में लेकर सीढ़ियाँ उतर गई।
(अनुवाद: प्रतिमा दवे शास्त्री)