और मुंबई जल उठा (विज्ञान कथा) : जयन्त विष्णु नार्लीकर

Aur Mumbai Jal Utha (Story in Hindi) : Jayant Vishnu Narlikar

हड़बड़ाहट के साथ राजेश की नींद खुल गई। वह पसीने में नहाया हुआ था। मौसम हालाँकि गरम और उमस भरा था, पर पसीना आने का कारण कुछ और ही था। आज भी राजेश ने वही भयानक सपना देखा था। पहले तो यह सपना उसे कभी-कभार ही आता था, लेकिन कुछ दिनों से अकसर दिखाई देने लगा था और अगर यही हालत रही तो शायद उसे किसी विशेषज्ञ की सलाह लेनी पड़ेगी। उसने बिस्तर के साथ लगे स्विच को ऑन किया, पर लाइट जली नहीं कि घड़ी के चमकदार डायल पर नजर डालते ही उसे कारण समझ में आ गया। उस वक्त सुबह के 5 : 05 बजे थे और बिजली तो 5 : 30 बजे ही आएगी। यह घटना सन् 2041 की है। मुंबई शहर में सख्ती से बिजली की कटौती चल रही थी। उसके जैसे औसत (आम) घरेलू उपभोक्ता को दिन में केवल छह घंटे ही बिजली मिलती थी-सुबह 5 : 30 से 8 : 00 बजे तक और शाम को 18 : 30 से 22 : 00 बजे तक। जलापूर्ति की हालत तो और भी खराब थी। मुंबई शहर निगम ने ऐसे उपकरण लगा रखे थे, जो बहुत कड़ाई से नाप-तौलकर पानी छोड़ते थे। प्रत्येक उपभोक्ता को प्रतिदिन 100 लीटर के हिसाब से पानी अपार्टमेंट की छत पर रखी टंकियों में पंप कर दिया जाता।

अब चूँकि वह जाग ही गया था तो उसने सोचा-क्यों न तैयार हो लिया जाए, ताकि सुबह-सुबह की आपाधापी से बच सके। मुंबई के ज्यादातर नागरिकों की तरह राजेश के पास भी ऐसी लाइटें थीं जो जमा की गई बिजली से चलती थीं। उसने अपनी रीचार्जेबल ट्यूबलाइट जलाई। जब कभी बिजली आती तो ऐसे उपकरण अपनी बैटरियों को चार्ज करने लग जाते।

अकसर राजेश सोचा करता कि ऐसे उपकरण कानूनी भी हैं या नहीं। क्योंकि बिजली जैसी दुर्लभ चीज की फिजूलखर्ची को रोकने के लिए ही तो निर्धारित घंटों में उसकी आपूर्ति की जा रही है। तो क्या ये उपकरण ज्यादा बिजली खींचकर इस कवायद को ही ठेंगा नहीं दिखा रहे ? पर जवाब न उसके पास था, न ही किसी और के पास। बिजली कंपनी भी मामले को अदालत तक नहीं ले गई, क्योंकि उसे भी पता नहीं था कि क्या फैसला होगा, लेकिन इस ऊहापोह के बीच संचित बिजली से चलनेवाले विद्युत् उपकरणों का बाजार खूब फल-फूल रहा था। घड़ी की सुइयों की तरह राजेश की दिनचर्या भी टिक-टिक कर आगे बढ़ने लगी। वह तैयार होगा और किस्मत अच्छी रही तो जल्दी ट्रेन भी मिल जाएगी। वह विरार में रहता था और फास्ट लोकल ट्रेन में चलने के बावजूद उसे चर्चगेट तक पहुँचने में कुल सत्तानबे मिनट लगते थे। उसके दादाजी भी इसी रूट पर सफर किया करते थे और विरार से चर्चगेट तक आने-जाने में उन्हें भी इतना ही समय लगता था यानी तब से इसमें कोई सुधार नहीं आया है। पिछले पचास वर्षों में सारी दुनिया की लोकोमोशन तकनीकी काफी आगे बढ़ गई, लेकिन मुंबई को उससे कोई लाभ नहीं हो पाया। जहाँ रेलगाड़ियों की रफ्तार बढ़ी, वहीं यातायात में भारी बढ़ोतरी ने तेजी से चलती रेलगाड़ियों का चक्का जाम कर दिया। मध्य रेलवे हर 30 सेकंड पर एक ट्रेन रवाना करने का दावा करता है, तो पश्चिमी रेलवे प्रत्येक 35 सेकंड पर। लेकिन पटरियों की लंबाई तो जहाँ-की-तहाँ थी। इससे रेलगाड़ियाँ हमेशा ही जाम में फंसी नजर आती थीं।

करीब एक घंटे में राजेश निकलने को तैयार था। उसके अपार्टमेंट परिसर के गलियारे और सीढ़ियाँ लोगों से ठसे पड़े थे-बिलकुल रेलवे प्लेटफॉर्म की तरह। अगर आज राजेश के दादाजी होते तो उन्हें शहर की दुर्दशा देखकर अवश्य ही दुःख होता। लेकिन मुंबई तो इन सबकी अभ्यस्त हो चुकी है। करीब पच्चीस साल पहले तिकड़मी राजनीतिज्ञों के एक गुट के दिमाग में मुंबई की गंदी बस्तियों की समस्या सुलझाने का अनूठा विचार आया। उन्होंने मुंबई शहर निगम से नया कानून पास करवाया, जिसके अनुसार फ्लोर स्पेस इंडेक्स (एफ.एस.आई.) को दोगुना करना अनिवार्य हो गया। केवल अतिरिक्त एफ.एस.आई. को ही अनिवार्य कहा गया। मुंबई के प्रत्येक भवन-मालिक के लिए अतिरिक्त निर्माण करवाना अनिवार्य हो गया, ताकि अनिवार्य एफ.एस.आई. शर्त का पालन हो सके। इतना ही नहीं, भवन में अतिरिक्त निर्माण गंदी बस्ती के निवासियों को देना भी अनिवार्य था-वह भी केवल लागत मूल्य पर। इस कानून का पालन न करने पर बिजली- पानी काटने के साथ-साथ भारी जुरमाने का प्रावधान भी था।

जैसे-तैसे लोगों ने इस कानून का पालन तो किया, पर क्या इससे समस्या सुलझ गई ? पुराने लोग गंदी बस्तियों से निकले तो उनकी जगह पर नए लोग आकर बस गए। कई मामलों में तो लोग गंदी बस्तियों में ही रहे, लेकिन अपने नए घरों को उन्होंने दूसरे जरूरतमंद लोगों को ऊँची दरों पर किराए पर चढ़ा दिया। रोजगार की तलाश में लोगों का तांता लगा रहा। किसी नेता में इतनी राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं थी कि वह इस पर रोक लगा सके। नहीं, एक आदमी तो था, जिसने सन् 2025 में ऐसा करने की कोशिश की थी। मुंबई के निगम आयुक्त की हैसियत से उस बहादुर इनसान ने बृहत्तर मुंबई में लोगों की बाढ़ को रोकने के लिए बड़े कठोर कानून बनाए थे; लेकिन जल्दी ही उसे अपनी भूल का एहसास हो गया कि उसने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया था। सैकड़ों नागरिक, अधिकतर कार्यकर्ता बाँहें चढ़ाकर सड़कों पर उतर आए। उद्देश्य था- मौलिक अधिकारों, मुक्त आवागमन और न जाने किन-किन आजादियों की रक्षा। न्यायाधीशों ने भी उन नियमों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। आयुक्त महोदय का स्थानांतरण भी ऐसी दूर-दराज जगह पर कर दिया गया जहाँ से फिर उनकी कोई खबर नहीं आई। पर आज राजेश को अचानक उन आयुक्त महोदय की याद आ गई ! वह बेचारा आयुक्त! असली हीरो तो वही था। हमें उसकी मूर्ति लगानी चाहिए।' यह सोचता हुआ राजेश अपने मकानों पर अनधिकार कब्जा जमाए लोगों के बीच से गुजर रहा था। कुछ वर्षों में उसका छोटा सा फ्लैट भी उन जैसे बिन बुलाए मेहमानों से भर जाएगा।

सुबह साढ़े छह बजे भी स्टेशन जानेवाली बस सवारियों से ठसाठस भरी थी, पर कम-से-कम इस वक्त तो राजेश एक बस में घुसने में सफल हो गया। अन्यथा पीक ऑवर में तो चार बार कोशिश करने में तीन बार असफलता ही हाथ लगती। मुँह बिचकाए हुए उसने अपने दुःस्वप्न के लिए धन्यवाद कहा, जिसने उसे जल्दी जगा दिया था।

घर से जल्दी निकलने के कारण राजेश को विरार से 6 : 40 की लोकल ट्रेन में बैठने की सीट भी मिल गई। यह चर्चगेट तक बिना रुके जाती थी। यानी बीच में अगर लाल बत्तियाँ मिलें, तभी यह रुकेगी। उसने अनुमान लगाया कि उसे आठ-सवा आठ के बीच चर्चगेट पहुँच जाना चाहिए।

जैसे-जैसे ट्रेन ने रफ्तार पकड़ी, राजेश के विचारों को भी पंख लग गए; पर घूम- -फिरकर उसके विचार पिछली रात के सपने पर आ जाते। वह सपने के दृश्यों को याद करने लगा। पाँच साल पहले उसने शहर की पब्लिक लाइब्रेरी से एक पुस्तक ली थी। वह पुस्तक करीब साठ साल पहले किसी जाने-माने आर्किटेक्ट और टाउन प्लानर ने 'शहरी आबादी के लिए नियोजन' विषय पर लिखी थी। लेखक विशेषज्ञों के उस समूह का सदस्य था, जिसे मुंबई के भावी विकास के लिए रणनीतियाँ सुझानी थीं; लेकिन ज्यादातर विशेषज्ञ-सुझावों की तरह इस समूह के सुझावों को भी बड़े करीने से लाल फीते में बाँधकर ताक पर रख दिया गया था कि सपने में भी उनपर अमल न हो। लेकिन इन सबसे बढ़कर शहर के बारे में लेखक की भविष्यवाणियाँ थीं, जिन्होंने राजेश पर गहरा असर डाला था।

पुस्तक में लेखक ने लिखा था कि मुंबई लगातार बाहर से आनेवाले आप्रवासियों की भीड़ अपने अंदर समाता रहा है। शहर के संसाधनों को बारंबार ज्यादा-से-ज्यादा दावेदारों के बीच बाँटना पड़ा है। इस कारण पर्यावरण और शहरी जीवन के मानकों का निरंतर ह्रास हुआ है। फिर भी मुंबईवासी हमेशा ही निरंतर बिगड़ती दशा के अनुरूप स्वयं को ढालते रहे और कभी कोई आवाज नहीं उठाई। लेखक के शब्दों में, मुंबईवासियों की दशा देगची में गरम होते पानी में रहनेवाले मेढक की तरह है; जैसे-जैसे पानी गरम होता जाता है, मेढक को तकलीफ तो होती, पर वह बजाय कूदने के गरम होते पानी के अनुरूप स्वयं को ढाल लेता। लेकिन धीरे-धीरे ऐसी अवस्था हो जाती है जब मेढक की सहनशक्ति जवाब दे जाती है, तब वह बेहोश होकर मर जाता है। लेखक ने चेतावनी भी दी थी कि अगर समय पर काररवाई नहीं की गई तो मुंबई की भी यही दशा होने वाली है। राजेश ने महसूस किया कि समय पर कभी काररवाई की ही नहीं गई।

केवल उस निगम आयुक्त ने कुछ करने की सोची भी तो उसे दूर फिंकवा दिया गया। यह किताब पढ़कर राजेश रात-दिन चिंता में डूबा रहने लगा। अंत में उसकी चिंताएँ ही सपने की शक्ल लेकर उसे डराने लगीं। वह खुद को टब में बैठे मेढक के रूप में देखता था। सपने शुरू होने पर वह देखता कि टब में बैठा वह गरम पानी से नहा रहा है; पर जल्द ही पानी बहुत ज्यादा गरम हो जाता। उसे कष्ट तो होता, वह बेचैनी से करवटें भी बदलता, पर कभी टब से बाहर नहीं निकलता-जब तक कि पीड़ा असहनीय न हो जाए। तभी उसका दुःस्वप्न समाप्त हो जाता; परंतु वह जीवित बचेगा कि नहीं-यह उसे कभी पता नहीं लग पाता।

चर्नी रोड स्टेशन निकल जाने पर राजेश सीट छोड़कर उठ गया। मुंबई की लोकल ट्रेन में चढ़ना जितना कठिन है, उतरना उससे भी ज्यादा कठिन है। वह जानता था कि चर्चगेट स्टेशन पर लोगों की भारी भीड़ ट्रेन पर धावा बोलने को तैयार खड़ी होगी, और अगर ट्रेन रुकते ही वह तुरंत नीचे नहीं कूदा तो डिब्बे से बाहर नहीं निकल पाएगा। इन दिनों तो रात-दिन 'रश ऑवर' रहने लगा है। इसके दादा के जमाने में दिन में कुछ घंटे ट्रेनें खाली चला करती थीं, पर अब नहीं। राजेश का ऑफिस कफ परेड की एक गगनचुंबी इमारत में था। चर्चगेट स्टेशन से खचाखच भरी बस से ऑफिस तक सफर करने के बजाय राजेश ने पैदल चलने का फैसला किया। उसके पास आधे घंटे का समय था। शायद वह धोंदिबा को भी पकड़ सकता था, जो तब तक मछली मारने नहीं निकला होगा। धोंदिबा एक जवान मछुआरा था, जो कफ परेड के पास मच्छीमार नगर नामक मछुआरों की बस्ती में रहता था। कुछ साल पहले संयोगवश राजेश की उससे भेंट हो गई थी। आज भी वे दोनों अपनी पहली मुलाकात को मुसकराकर माफ करते हैं।

राजेश और उसका मित्र मच्छीमार नगर के निकट एक स्टॉल पर भेलपुरी खा रहे थे। दोनों ही मुंबई में दिनोदिन बढ़ती नए लोगों की भीड़ पर टीका-टिप्पणी भी कर रहे थे-

"उदाहरण के तौर पर इन मछुआरों को ही लें।" राजेश के मित्र ने कहा, "उन्हें यहीं से मछली मारनी जरूरी है जो महानगर का दिल है; जबकि पूरा कोंकण तट उनके लिए खाली है?"

"बिलकुल ठीक! पर उन्हें कौन कहे? हमारे नेता तो किसी भी नए आनेवाले को 'न' कहते नहीं, क्योंकि वह उनका वोटर हो सकता है।"

राजेश ने हाँ में हाँ मिलाई। मित्र ने आगे कहना जारी रखा, "हमें इन मछुआरों को बताने की जरूरत है कि मित्रो, जाओ कहीं और मछली पकड़ो, मुंबई के शोरगुल को और मत बढ़ाओ।"

तभी बगल से खखारने की आवाज आई। उनके ठीक पीछे खड़ा नौजवान बोल उठा, "आपकी बातचीत में बाधा डालने के लिए माफी चाहता हूँ। पर मैं बताना चाहता हूँ कि भीड़ हम नहीं, कोई और बढ़ा रहा है। मछुआरों की यह बस्ती तो यहाँ बाहरी लोगों के आने से पहले की है। यह बस्ती यहाँ तब से है जब अंग्रेजों ने मुंबई को अपने अधिकार में लिया था। मेरे पुरखे बड़ी शांति से यहाँ पर मछली पकड़ा करते थे, तब आप बाहरी लोगों का शोरगुल यहाँ आया भी नहीं था।"

"मैं खेद प्रकट करता हूँ।" राजेश ने कहा था, जिसे मुंबई का इतिहास कुछ पता था-"मुझे याद है कि मैंने कहीं पढ़ा था कि यह बस्ती इतनी पुरानी है।"

पर राजेश का मित्र अविश्वास से ताकता रहा। उस युवक ने कहा, "अपनी गलती मान लेने के लिए मैं आपका आदर करता हूँ। बहुत कम लोग ऐसा करते हैं। जब कभी आपके पास समय हो तो मैं आपको कुछ पुराने रिकॉर्ड दिखा सकता हूँ, जिन्हें मेरे परिवार ने कई पीढ़ियों से सँभालकर रखा है। वैसे मेरा नाम धोंदिबा है।"

वह छोटी सी मुलाकात एक लंबी सी मैत्री की शुरुआत थी, जिसने राजेश की जिंदगी में ताजगी और जिज्ञासा भर दी थी। उसे धोंदिबा के पेशे से ईर्ष्या होती थी, क्योंकि वह अपनी नौका लेकर अकसर खुले समुद्र में पागल कर देनेवाली भीड़ से दूर चला जाता था। आज भी उसने उसी भेलपूड़ीवाले से धोंदिबा के बारे में पूछा।

आपने कुछ मिनटों की देरी कर दी, श्रीमान !" भेलपूड़ीवाले ने बताया और समुद्र में कुछ सौ मीटर दूर जा चुकी नौका की ओर इशारा किया। अच्छा, जब वह लौटेगा तब उससे मिल लूँगा।" राजेश ने मानो अपने आपसे कहा। पर उस वक्त उसे तनिक भी भान नहीं था कि अत्यंत विनाशकारी परिस्थितियों में उनकी भेंट होगी, वह भी कुछ घंटों के भीतर ही।

सन् 2041 में भारत की वाणिज्यिक राजधानी होने के नाते मुंबई को भारत के सभी शहरों में नंबर-दो का खिताब प्राप्त था। मुंबईवाला कभी भी नंबर-एक खिताब की परवाह नहीं करता; क्योंकि नंबर-एक की हैसियत राष्ट्र की राजधानी होने के नाते दिल्ली के लिए आरक्षित थी, बल्कि मुंबईवाला तो ऐसे शहर में होने का गर्व महसूस करता था जो राजनीतिक दखलंदाजी, अफवाहों, हिंसा और परिवर्तन- शीलता से मुक्त है, जो नंबर-एक रैंक के साथ जुड़ी रहती है। मुंबईवाला गर्व से यह बात कह सकता था कि मुंबई की स्थिरता और कार्य-संस्कृति पूरे भारत में बेजोड़ थी। इन्हीं खूबियों के कारण ही वह भारी भीड़, गंदी बस्तियों और शोरगुल (कोलाहल) को भी अनदेखा करने को तैयार था, और ऐसा करते-करते वह खुद भी आत्म-संतुष्टि के खतरे का सामना करने लगा था।

इसी आत्म-संतुष्टि के कारण ही किसी को कभी आभास ही नहीं हुआ कि शहर जिंदा रहने की सभी हदें पार कर चुका है। कोई गणितज्ञ कह सकता था कि स्थिति अब विनाश के सिद्धांत का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी : अब यह कगार के निकट था। दुर्भाग्य और विध्वंस अब अवश्यंभावी थे। कोई चिकित्सक शहर की दशा की तुलना मधुमेह के रोगी से कर सकता था, जो उच्च रक्तचाप और कमजोर दिल से पीड़ित हो, लेकिन अपने खान-पान को नियंत्रित करने और  दवाइयाँ लेने की सलाह पर कोई ध्यान न देता हो। पर न तो गणितज्ञ और न ही चिकित्सक भविष्यवाणी कर सकते थे कि विनाश कब और कैसे हो। इसलिए जब 10 अक्तूबर, 2041 को शहर का अंत आया भी तो इसमें उस दिन का कोई खास हाथ नहीं था।

उस विनाशलीला की शुरुआत बेहद मामूली सी घटना से हुई, जो राजेश के कफ परेड स्थित उसके दफ्तर में घुसने के कुछ देर बाद घटी। सुबह साढ़े नौ बजे से कुछ मिनट ही ऊपर हुए होंगे। राजेश ने एक चिट्ठी डिक्टेट करनी शुरू ही की थी कि मशीन ने काम करना बंद कर दिया। तभी उसे महसूस हुआ कि बत्तियाँ और एयर कंडीशनर भी बंद हो चुके थे।

बिजली गुल हो जाना असामान्य बात तो नहीं, पर अप्रत्याशित जरूर थी; लेकिन बिजली गुल होते ही जेनरेटर चालू हो जाता था कि ऑफिस का काम चलता रहे; पर जेनरेटर भी चालू नहीं हुआ यानी कुछ ज्यादा गंभीर होनेवाला था। 'संभवत: शॉर्ट सर्किट होगा, मुझे देखने दो।" राजेश का सहकर्मी गुरबक्श सिंह बोल उठा। वह बिजली तथा यांत्रिक उपकरणों का काम जानता था। जब सिंह दौड़ गया तो राजेश भी बाहर गलियारे में निकल आया। तुरंत ही उसने धुएँ की गंध महसूस की। हालाँकि धुएँ का पता लगानेवाले अत्याधुनिक उपकरण खामोश थे। वे उपकरण कुछ घटिया किस्म के थे और उन्हें कभी जाँचा भी नहीं गया था। उस दिन घटी घटनाओं से साफ हो गया था कि वे उपकरण भ्रष्टाचार की घनी होती झाड़ियों के केवल मामूली से प्रतिनिधि थे। कई चीजें उस वक्त काम नहीं करतीं जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है।

परंतु राजेश ने अपनी नाक का भरोसा किया और भगदड़ शुरू होने से पहले ही इमारत से बाहर निकल जाने का फैसला कर लिया। लिफ्ट को छोड़कर राजेश सीढ़ियों से भागता हुआ नीचे उतर आया। उस फर्म में काम शुरू करने के बाद यह पहला मौका था जब वह चौदहवीं मंजिल से सीढ़ियों के रास्ते नीचे उतरा था। नीचे उतरते-उतरते धुआँ घना हो गया था। लेकिन फिर भी वह बिल्डिंग से सुरक्षित बाहर निकल आया। पर जैसे ही वह बिल्डिंग से बाहर आया, उसके सामने एक अद्भुत नजारा था। उसे चारों ओर बनी ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच- बीच में लाइन से झुग्गियाँ बनी हुई दिखाई दीं। भला हो गंदी बस्तियों की बेरोक- टोक बसावट का, कुछ झुग्गियों में, जो गैर-कानूनी रूप से बिजली चुराते थे, शॉर्ट सर्किट के कारण आग लग गई थी। आग की लपटें एक इमारत से दूसरी इमारत तक ऐसे फैल रही थीं जैसे दीवाली की रात में पटाखों की लड़ियाँ जलती हैं।

राजेश के दफ्तरवाली इमारत समेत कई गगनचुंबी इमारतें आग की लपटों में घिरी हुई थीं, जबकि कई अन्य इमारतें आग से घिरनेवाली ही थीं।

राजेश भौचक्का-सा अग्निलीला को देख रहा था। जंगल की आग जैसे एक के बाद एक पेड़ों को लीलती जाती है वैसे ही यह आग भी एक-एक कर झुग्गी- बस्तियों को लीलती जा रही थी। जंगल की आग भी पेड़ों को इतनी जल्दी नहीं जलाती होगी जितनी तेजी से यह आग झुग्गियों को जला रही थी; क्योंकि झुग्गियाँ बनी ही थीं तेजी से आग पकड़नेवाली सामग्रियों से। किसी ने भी झुग्गीवासियों को इस खतरे के बारे में चेताने की जरूरत नहीं समझी थी।

अभी तक दमकलवाले क्यों नहीं आए'-राजेश ने सोचा। कुछ खाली जगहों पर लोगों की भारी भीड़ लग गई थी। इक्कीसवीं सदी के मध्य में संचार व्यवस्था इतनी उन्नत तो होगी ही कि अग्निशामक उपकरणों को कुछ मिनटों में लाया जाए। दमकलवालों के न पहुँचने का कारण वह नहीं जानता था, अनेक परिस्थितियों के कारण देरी हो रही थी-अपर्याप्त पूर्व सावधानियों के कारण टेलीफोन लाइनें तोड़ दी गई थीं। एक आदमी मोटरसाइकिल दौड़ाकर दमकल केंद्र पहुँचा तो स्वागत डेस्क खाली पड़ा था। कर्मचारियों को इकट्ठा करने और अग्निकांड स्थल तक रवाना होते-होते सड़कों पर जबरदस्त ट्रैफिक हो गया था। और फिर जब दमकल की गाड़ियाँ आग से घिरी सबसे नजदीकी इमारत तक पहुँची और आग बुझाने लगी तो उन्हें पता चला कि उनके पास पानी बहुत कम है।

नागरिक व्यवहार के नियमों के बारे में माना जाता है कि इन्हें सामाजिक ताने-बाने की रक्षा के उद्देश्य से गढ़ा गया है। पर एक भ्रष्ट समाज में उनकी भूमिकाएँ अलग हो जाती हैं। प्रत्येक नियम के लिए 'क' जैसे किसी व्यक्ति की तरफ से काररवाई जरूरी होती है। पर 'क' अपने कर्तव्य से बचना चाहता है और वह इसकी कीमत चुकाने को भी तैयार है। लेकिन यह कीमत उस खर्च से कम होती है जो 'क' को नियम का पालन करने में उठाना पड़ता। 'क' द्वारा चुकाई गई कीमत अधिकारी 'ख' की जेब में जाती है। अगर नियम का पालन होता तो शायद 'ख' को कुछ न मिलता। एक तरह नियम तोड़ने से 'क' और 'ख' दोनों का फायदा होता है और जो भी नुकसान होता है वह समाज को होता है; और आज समाज को कीमत चुकानी पड़ रही थी और कीमत भी एक थी।

मंत्रालय की पाँचवीं मंजिल पर अपने कार्यालय से मुख्यमंत्री असहाय-से अग्निकांड को देख रहे थे। उन्होंने नागरिक प्रशासन और मंत्रिमंडल की आपातकालीन बैठक बुलाई थी। पर बहुत कम लोग ही आ सके, क्योंकि हर कोई आपातस्थिति से निबटने में लगा था या मीडिया को अपनी सफाई दे रहा था।

"मैं हेलीकॉप्टर से हवाई सर्वे करूँगा।" मुख्यमंत्री ने घोषणा की। मंत्रालय भवन की छत पर एक हेलीकॉप्टर उनके लिए हमेशा तैयार रहता था। मुख्यमंत्री का पी.ए. चालक दल को सावधान करने छत पर दौड़ गया।

क्या कोई मेरे साथ आ रहा है?" हेलीकॉप्टर में सवार होने से पहले मुख्यमंत्री ने पूछा।

सभी ने अपने हाथ उठा दिए; क्योंकि सभी सोच रहे थे कि मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से भाग जाएँगे, इसलिए हर कोई तैयार हो गया।

"परंतु मैं इस उड़ान की सलाह नहीं दूंगा।" पायलट ने कहा, "लपटें आसमान तक ऊँची उठ रही हैं और अगर हमारी ईंधन की टंकी आग"

"पर मुझे यह खतरा उठाना पड़ेगा, चलो आओ! जब तक मौका है, आओ चलें।"

अब मुख्यमंत्री के साथ केवल आधे लोग ही आए। पायलट की चेतावनी से शेष के होश उड़ गए। हेलीकॉप्टर दक्षिण मुंबई के ऊपर एक सुरक्षित ऊँचाई पर उड़ान भर रहा था। नीचे जहाँ तक नजर जाती थी, लाल-नारंगी लपटों का ही नजारा था। इन लपटों के बीच से ही लोगों की भीड़ उत्तर दिशा की ओर भागी जा रही थी। लेकिन आग की रफ्तार लोगों से तेज थी। झुग्गी-बस्तियों के रास्ते आग एक के बाद एक इमारतों को आगोश में लेती जा रही थी। रेलगाड़ियाँ पटरियों पर असहाय-सी खड़ी थीं और बसें यहाँ-वहाँ जल रही थीं।

"इन परिस्थितियों में फायर ब्रिगेड क्या कर सकता है? यह तो चार्ज ऑफ द लाइट ब्रिगेड है।" मुख्यमंत्री ने कहा, जिन्हें मराठी व अंग्रेजी साहित्य की अच्छी समझ थी। "यह तो रोम जलने के समान है, जब नीरो बाँसुरी बजा रहा था। मैं नीरो से कुछ बेहतर नहीं हूँ।"

"पर श्रीमान, आप खतरों का सामना कर स्थिति का जायजा तो ले रहे हैं।" एक चापलूस ने कहा।

"नहीं, मैं भी सारे समय खिलवाड़ ही करता रहा। केवल मैं ही नहीं, मेरे पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री भी खिलवाड़ करते रहे और यह महान् शहर बद-से-बदतर होता गया। हम ऐसी समस्याओं का लीपा-पोतीवाला समाधान ढूँढ़ते रहे जिन पर नए दृष्टिकोण से सोचने की जरूरत थी। हमारी सभी स्वार्थ नीतियाँ सुनिश्चित करती गईं कि शहर का ज्यादा-से-ज्यादा नुकसान हो। अब मुंबई ने भी जवाब दे दिया : अब और नहीं, बस और नहीं। पर अब बहुत देर हो चुकी है।'' मुख्यमंत्री ने चालक दल को निर्देश दिया कि हेलीकॉप्टर को मंत्रालय की छत पर वापस उतारा जाए। आग की लपलपाती लपटों के बीच हेलीकॉप्टर को उतारना बेहद दुःसाहस का कार्य था। कार्यालय पहुँचने पर मुख्यमंत्री को वायरलेस संदेश मिले कि आग दादर तथा वडाला अन्य उपनगरीय इलाकों तक पहुँच गई है और उसका आगे बढ़ना भयावह रूप से जारी था। भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर को खाली करा लिया था और उसके रिएक्टरों को न्यूट्रलाइज कर दिया गया। मुख्यमंत्री को जल्द ही मंत्रालय भी खाली करना था।

चार बजे शाम तक करीब 80 प्रतिशत मुंबई आग की भेंट चढ़ चुकी थी या जल रही थी और किस्मत से बच गया असहाय जनसमूह बांद्रा से आगे उत्तर या पूरब की ओर बढ़ने के लिए हाथ-पाँव मार रहा था। लेकिन राजेश इस भेड़चाल में शामिल नहीं हुआ। उसमें न तो इच्छाशक्ति थी और न ही उत्साह कि वह भी भाग-दौड़ करे।

उसने चुपचाप मच्छीमार नगर का रास्ता पकड़ा, जो उस वक्त निर्जन लग रहा था। चारों ओर काफी गरम और उमस भरा माहौल था, लेकिन खाड़ी से आती ठंडी हवा उसे काफी राहत दे रही थी। पहली बार उसने मछुआरों की बस्ती का शुक्रिया अदा किया इसलिए कि उसके कारण ही खाड़ी का वह भाग सुरक्षित रह पाया था। उसने कितनी बार इच्छा की कि काश, वह भी समुद्र में मछुआरों की किसी नौका में सवार होता!

उसे महसूस हुआ जैसे उस पर बेहोशी छाती जा रही है। पर यह किसी भयानक सपने की शुरुआत नहीं थी बल्कि हकीकत थी। इससे बचने का कोई रास्ता न था। मेढक की तरह वह भी इस महान् शहर के साथ मर जानेवाला था। तभी ठंडी हवा के तेज झोंके से उसकी बेहोशी दूर हो गई। धरती पर आग और उन्माद के मुकाबले यह स्वर्ग हो सकता था; पर तभी उसे अपने ऊपर झाँकता एक जाना-पहचाना चेहरा दिखाई दिया।

"हमने तुम्हें समय पर ढूँढ़ लिया!" धोंदिबा ने कहा, "तुम काफी दूर जा चुके थे, खुशकिस्मत रहे थे कि मैं कुछ भूले-बिसरे दस्तावेज लेने वापस आया था-मुंबई के बारे में अपने पुराने रिकॉर्ड लेने।"

यह दिन का कौन सा समय था? मुंबई का क्या हुआ? राजेश के मन में घुमड़ रहे सवालों के जवाब तुरंत ही मिल गए। सूरज अपनी पूरी गरिमा के साथ डूब रहा था। दक्षिण व पूर्व दिशा में देखा तो मुंबई आग की लपटों में घिरी नजर आई। इस मरते हुए शहर की आखिरी शाम का सूरज डूब रहा था।

जैसे उसके मन में उठ रहे विचारों को पढ़ते हुए धोंदिबा ने उत्तर दिया, 'मुंबई को अभी से खारिज मत करो। फिलहाल हम वापस मच्छीमार नगर जा रहे हैं, हमारी प्राचीन बस्ती। लेकिन इसकी राख से नवनिर्माण करते हुए हमें इतिहास से सबक सीखना होगा और पुरानी गलतियों से बचना होगा।"

भगवान् करे ऐसा ही हो!" राजेश ने मानो अपने आपसे कहा। निष्ठावान् मुंबईवालों की तरह उसे भी तमाम समस्याओं के बावजूद अपने शहर से प्यार था। धोंदिबा की तरह उसने भी एक आशावादी सपना सँजोया था। एक तरह से शहर को पुनर्जन्म का अवसर मिला था। नष्ट होने से वह अपनी तमाम समस्याओं से छुटकारा पा गया था।

राजेश यह भी जानता था कि वह दुःस्वप्न दोबारा कभी नहीं आएगा।

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