अगस्त में (रूसी कहानी) : इवान बूनिन
August Mein (Russian Story) : Ivan Bunin
वह लड़की जिसे मैं प्यार करता था और जिसे मैंने अपने प्यार के विषय में कुछ नहीं बताया था, चली गयी। उस समय मेरा बाइसवाँ साल चल रहा था और मुझे लगा कि मैं इस पूरे संसार में अकेला रह गया हूँ, अगस्त के अन्तिम दिन चल रहे थे, युक्रेन के छोटे से शहर में जहाँ मैं रहता था, दमघोंट सन्नाटा था। एक शनिवार को जब मैं पीपा बनाने वाले के यहाँ से काम करने के बाद बाहर निकला तो सड़कें इतनी खाली थीं कि मैं घर न जाकर देहात की ओर जहाँ सींग समाये चल पड़ा। मैं यहूदियों की बन्द दुकानों एवं पुरानी छोटी दुकानों के पास से फुटपाथ पर चल रहा था। गिरजाघर में सायंकालीन प्रार्थना की घण्टियाँ बज रही थीं। मकानों की लम्बी परछाइयाँ सड़क पर पड़ रही थीं, लेकिन अभी भी काफ़ी गर्मी थी, जैसा कि अगस्त के अन्त में दक्षिण के शहरों में होता है। बगीचों में भी, जो कि पूरी गर्मी भर सूर्य की तपन से झुलसे थे, सब कुछ धूल से ढंका था। मैं बेहद उदास था। मेरे चारों तरफ खुशी की परिपूर्णता से सब कुछ निस्तब्ध हो गया था-बगीचों में, घास के मैदानों में, खरबूजे के खेतों में, और यहाँ तक कि हवा तथा घनी सूर्य की दीप्ति में भी।
धूल धूसरित चौक पर नल के पास एक सुन्दर जवान खोखल लड़की खड़ी थी। वह सफ़ेद कढ़ाई की कमीज़ एवं काली धारीदार चौकोनी ड्रेस पहने थी। चौकोनी ड्रेस उसके नितम्बों पर कस कर बँधी हुई थी। उसने नाल लगे बूट बिना मौज़ों के पहने थे। इस लड़की में कुछ ऐसा था जो कि वेन्येरा मिलोस्का से मिलता-जुलता था। मानो वेन्येरा धूप में तप्त, भूरी चमकती आँखों वाली हो और उसका विलक्षण ललाट, जोकि लगता है कि केवल खोखल एवं पोलिश लड़कियों का होता है। बाल्टी को पानी से भरकर उसने बहँगी को अपने कन्धे पर रखा, छरहरी, छलछालते पानी के भार के बावजूद थोड़ा कमर को हिलाते, लकड़ी के फुटपाथ पर जुतों की आवाज़ करते हुए वह सीधे मेरी तरफ बढ़ी। मुझे याद है कि उसे रास्ता देते हुए मैं कितने आदर से एक ओर हट गया था और कितनी देर तक उसे निहारता रहा। सड़क पर से, जोकि चौक से पहाड़ी के नीचे से पोदल की ओर जा रही थी, थोड़ी-सी नीली पड़ती हुई नदी, मैदान व जंगल की विशाल घाटी, सुनहरी रेत और उसके पीछे क्षितिज-खूबसूरत दक्षिणी क्षितिज दिखायी दे रहा था।
लगता है कि मैंने मालारसिया को कभी इतना प्यार नहीं किया, जितना उस समय यहाँ रहना कभी इतना पसन्द नहीं किया जितना पतझड़ में। और उस समय मैं केवल जीवन के साथ संघर्ष के विषय में ही सोचा करता था। उस वक्त मैं केवल पीपे बनाने के धन्धे को सीख रहा था। इसी वक्त चौक पर खड़े मैंने देहात में तोलस्तोक्स परिवार के यहाँ जाने का निश्चय किया। पहाड़ी से पोदल की ओर उतरते हुए मैं कई जुड़वे ठेले वालों से मिला जोकि क्रीमिया से आयी पाँच बजे वाली गाड़ी के यात्रियों को तेजी से ले जा रहे थे। विशालकाय घोड़े लड़खड़ाते हुए सन्दूकों एवं गाँठों से भरे ठेलों को धीरे-धीरे पहाड़ी की ओर खींच रहे थे। ठेलों से रंगों, भिन्न प्रकार के तेलों, रासायनिक पदार्थों, वनीला की गन्ध आ रही थी। ठेले वाले, लोग ऐसी जगह से आ रहे थे, जहाँ लगता है सब कुछ काफ़ी अच्छा था। कष्टप्रद दुःख भरी मीठी-सी लालसा ने पुनः मेरे दिल को संकुचित कर दिया। मैं बगीचों के बीच वाली सँकरी गली की ओर मुड़ा और बहुत समय तक उपनगर में घूमता रहा। इस उपनगर के ज़मींदार, कारीगर एवं मध्यवर्गीय लोग घाटी की ग्रीष्मकालीन रात्रि में निराले ढंग से चिल्ला रहे थे। ये लोग मिलकर मधुर व दुख भरे कोसाक गीतों को गिरजाघर के गीतों की लय में गा रहे थे। अब ज़मींदार लोग गपशप कर रहे थे। शहर के बाहर वहाँ बाग में, जहाँ पर आसमानी व सफेद रंग की झोपड़ियाँ थीं, घाटी की शुरुआत में बिजली की रोशनी में सब कुछ टिमटिमा रहा था। लेकिन घाटी की उस शान्ति में भी उतनी ही गर्मी थी, जितनी की शहर में। मैं पहाड़ी की ओर खुले समतल मैदानों की तरफ जाने की जल्दी में था।
वहाँ पर शान्त एवं खुला था। सारे मैदान जहाँ तक नजर जा सकती थी, घने व बड़े लूंठों के कारण सुनहरे लग रहे थे। चौड़े अन्तहीन रास्ते पर बड़ी धूल थी। लगता था कि मखमली जूतों में चल रहे हों। चारों तरफ सब कुछ ढूँठ, रास्ता व हवा सायंकालीन सूर्य की रोशनी से चमक रहे थे। सूर्य से तपा साँवला, एक अधेड़ उम्रवाला खोखल पास से गुजरा। उसने भारी बूट, भेड़ की खाल की टोपी और एक मोटा भूरे रंग का ऊपरी वस्त्र पहने था। छड़ी जिसे वह थामे था, सूर्य की रोशनी में काँच की तरह चमक रही थी। दूंठों के ऊपर से उड़ते हुए कौओं के पंख भी चमक रहे थे। सूर्य की इन किरणों एवं तेज़ गर्मी से बचने के लिए हैट का सहारा लेना ज़रूरी था। सुदूर रास्ते पर जा रहे ठेलों व बैलों की जोड़ी को पहचाना जा सकता था। बैलों की जोड़ी ठेले को धीरे-धीरे खरबूजों के खेतों के चौकीदार की झोंपड़ी की तरफ खींच रही थी। इस शान्ति एवं आकाश के बीच कितना सुकून था। किन्तु मेरी आत्मा मुझे दक्षिण की ओर खींचे जा रही थी-उस घाटी की तरफ जिधर वह गयी थी।
सड़क से तीन चार फर्लाग की दूरी पर लाल ईंटों वाली एक छोटी-सी झोंपड़ी दिखायी दी-पावेल और वीक्तर तोमचेन्क भाइयों की, तोलस्तोल्स परिवार का घर । मैं कँटीले लूंठों के रास्ते वहाँ पहुँचा। झोंपड़ी के चारों तरफ एकदम खाली था। मैंने खिड़की से अन्दर झाँका। वहाँ खिड़की के काँचों पर, छत पर, बेंचों पर रखे बर्तनों पर, केवल मक्खियों के झुण्ड मँडरा रहे थे। झोंपड़ी के साथ एक पशुशाला थी। लेकिन वहाँ कोई नहीं था। फाटक खुले थे। गोबर से भरा पड़ा आँगन सूर्य की रोशनी में तपा जा रहा था।
अचानक कोई महिला चिल्लायी-आप कहाँ? मैंने मुड़ कर देखा घाटी के ऊपर एक चट्टान पर खरबूजों के खेतों की सीमा पर बड़े तीम्च्येन्का की पत्नी ओल्गा सेम्योनोवा बैठी थी। उसने बैठे-बैठे मुझसे हाथ मिलाया और मैं उसके पास बैठ गया।
थोड़ी देर चुप्पी साधे-सीधे उसके चेहरे पर देखते हुए मैंने पूछा-ऊब गयी हो क्या? उसने अपने नंगे पैरों पर नज़र डाली। छोटे कद की, सूर्य से तपी, मैली कमीज़ और पुराने लहँगे में वह उस लड़की के समान दिख रही थी। जिसे खरबूजे के खेतों की निगरानी करने भेजा गया हो और लम्बे गर्मी के दिन को काट रही हो। उसका चेहरा रूसी ग्रामीण लड़की से मिलता था। मैं बर्दाश्त न कर पाया उसकी वेश-भूषा को, और इस बात को कि वह नंगे पैर चल रही थी गोबर पर, और कंटीले ठूठों पर। मुझे उसके पाँवों की ओर देखने में भी शर्म आ रही थी। वह पाँवों को सिकोड़े अक्सर तिरछी नज़र से अपने मैले नाखूनों को देख रही थी। लेकिन उसके पाँव छोटे व खूबसूरत थे।
मेरा पति बगीचे की ओर कटाई-पिटाई करने गया है-उसने कहा, और वीक्तर निकोलाइच बाहर चले गये हैं, पाब्लव्स्क को फिर फौज में जाने में इन्कार करने की वजह से गिरफ्तार कर लिया गया है, आपको याद है न पाब्लस्क?
-याद है-मैंने अनमने ढंग से कहा।
हम चुप्पी साधे थे और बड़ी देर तक घाटी, जंगल, रेत और उदासीनता से पुकारते अनन्त को देख रहे थे। सूर्य की किरणें अभी भी हम पर पड़ रही थीं। गोल, भारी खरबूजे, जोकि लम्बी पीले पड़ते हुए साँपों की तरह उलझी बेलों की शाखाओं के बीच पड़े थे। इन्हें भी सूर्य की किरणें तपा रही थीं।
तुम मुझसे खुलती क्यों नहीं हो-मैंने शुरू किया। तुम अपने आप पर जुल्म क्यों करती हो?
तुम मुझे प्यार करती हो।
वह सिमट गयी, उसने पाँवों को सिकोड़ा और आँखें बन्द कर लीं। फिर उसने अपने गालों पर लटके बालों को झटका और निश्चय भरी मुस्कान से कहा-
मुझे एक सिगरेट दीजिए।
मैंने उसे सिगरेट दी। उसने दो-एक कश मारे और खाँसना शुरू किया। सिगरेट को दूर फेंका और सोच में पड़ गयी।
मैं सुबह से ऐसी बैठी हूँ-उसने कहाँ । मुर्गियाँ बगीचे से इधर खरबूजों पर चोंच मारने आती हैं। पता नहीं आपको क्यों यहाँ उकताहट होती है। मुझे यहाँ बहुत अच्छा लगता है, बहुत...
झोंपड़ी से करीब एक मील दूर घाटी के ऊपर मैं सूर्यास्त के समय पहुँचा। मैं बैठ गया और मैंने अपना हैट उतार दिया...मैंने आँसू भरी आँखों से दूर क्षितिज की ओर देखा। मुझे कहीं दूर दक्षिण के शहर, घास के मैदान, नीली संध्या और किसी नारी की मूर्ति जो कि उस लड़की में समा गयी थी, जिसको मैंने प्यार किया था और जिसे मैंने पूरा किया अपने अन्तर में छिपे रहस्यमय, शैशव के दुःख से, जिसे मैंने खरबूजे के खेतों वाली नारी की आँखों में देखा था।
अनुवाद : जगदीश प्रसाद डिमरी